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जनवरी 2021

एक अलिखित कविता - मनप्रसाद सुब्बा

अनु. बिख्र् खडका डुवर्सेली

नेपाली कविता

 

 

एक अलिखित कविता

 

तुम कहती हो

तुम्हारे लिए एक कविता लिखूँ

तब, जब शब्द एक दूसरे से

विच्छिन्न हो गये हैं

हरेक आइसोलेशन में गया है

एक पंक्ति भी रूप नहीं ले रही है

और मैं पूर्णत: विवेक से बाहर हूँ

जो शब्द चलते थे

सड़कों और पगडंडियों में

मशगूल होकर

जो शब्द बसों और ट्रेनों में

आते-जाते थे

बाज़ार और शपिंग माल के आस-पास थे

गुंजित होते थे

कभी-कभार तो सड़कों पर

विरोध प्रदर्शन करने के लिए

निकल पड़ते थे

वे सब चुपचाप अब चले गये हैं

अपने-अपने तहखाने में

जो शब्द दिहाड़ी मजदूरों की ख़ातिर

पसीने बहाते थे

पार्कों और बीचों में

आपस में गुफ़्तगू करते थे-

चिरकाल से हम एक हैं

आज अपने-अपने पिंजरे में

क्वारनटाइन हो गये हैं।

 

उन शब्दों को अब मैं कैसे

जोड़ सकता हूँ

ताकि अनुभूति बता सकूँ?

परस्पर निर्भरता के पेचीदे वक़्त में

ये निरीह शब्द निर्ममता के साथ

अलग-थलग हैं

टापुओं की तरह नहीं कि

जो सदा प्यार से स्पर्शित होते हैं

गूंजती समुद्री तरंगों के हाथों से

एक छोर से दूसरे छोर तक

लेकिन ये शब्द तो

अकेले-अकेले टापुओं में

आपस में अर्थहीन होकर

एक दूसरे से

कई प्रकाश वर्ष दूर हैं

उष्ण स्पर्श की अनुभूति से वंचित हैं।

 

फेसबुक की दीवारें आमंत्रित तो करती हैं

कुछ भी लिखने की ख़ातिर

जब प्रत्येक शब्द निर्दयतापूर्वक

सुदूर आइसोलेशन में प्रवासी हैं।

 

बात कायदे की है

लिखना चाहता हूँ कविता

पर उस भाषा में नहीं

जो हम दोनों सिर्फ समझते हैं

बल्कि चीनी, इटालियन, पर्सीएन

स्पेनिश, जर्मन, फ्रेन्च और

कई भाषाओं में....

लेकिन जब कभी मैं क्वारनटाइन हुए

शब्दों से मिलता हूँ

उनके चेहरे का निचला भाग

मास्क से छुपा होता है।

 

इसलिए, मेरी प्रियतमा

कृपया इस खाली पन्नों के कागज को

स्वीकार करो

अलिखित कविता के स्पंदन को

महसूस करो

या आँखों को मूँदकर दीवार पर देखो

जो रिक्त काला अंतरिक्ष है

जो विदा हुईं आत्माओं द्वारा

परित्यक्त जैसा है

 

(कोविद-19 में जीवन गंवाने वालों और महामारी में संघर्षरत योद्धाओं को समर्पित)

 

लॉक डाउन

 

लॉक डाउन शब्द से जान-पहचान नहीं बढ़ी है?

यह तो सुनाई पड़ता है

भारी-भरकम

हमें नाखुश करता है।

मैं तो लॉक-अप शब्द से

ज्यादा परिचित हूँ

देखा है निर्दोषों को भी

छल से लॉक-अप में बंद।

 

कभी कभार तो मैं भी

बंद हो जाता था

लॉक-अप में,

लेकिन नेता के बल से

संकट दब जाता था।

चतुर बन्धु की दल-बल निष्ठा

आस-पास सब की समस्या का

चकित रुप से हल निकालती थी।

 

लेकिन यह लॉक-आउट की बात है

जो दिवालिया होती थी

निर्दोषियों के पग-पग पर

कमर पर हाथ रखकर खड़ी होती थी।

 

ऐसा कुछ देखकर

चाय के पौधे विस्मित हो जाते हैं

और सब बागानों में छुपने चले जाते हैं।

 

केवल बड़ा-सा ताला

ठंडी उपेक्षा के साथ लटकता है

फैक्टरी के फाटक की नाक पर

जो पीड़ा के लिए बधिर है

फैक्टरी बंद अजायबघर की तरह

अनसुना चुप रहता है

 

सायरन का उग्र कंठ स्वर

मूक होकर पसर जाता है

और बागान अपनी हरियाली के साथ

बंजर दीखता है

और हरे भरे सुनहरे श्रमिक

सायरन की रिरियानी आवाज के बिना

एकाएक हो जाते हैं अभिभूत

अतिरिक्त समय की प्राप्ति में।

 

तब बेसहारा जनसमूह

अपने बूते के अंत तक आते-आते

किंकत्र्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं

करें तो क्या करें

ऐसे विपुल समय की प्रचुरता में

वे आलसी हो जाते हैं

 

तब वे लॉक के भूत से

आतंकित हो जाते हैं

अंतरहित वार्ता से विरक्त होकर

खड़ी करते हैं चुनौती।

ऐसा हर साल होता है

जब सूखा मौसम समीप होता है

उनके लिए चाय के पौधे

सब समय सचमुच प्रिय होते हैं।

 

और आज यह 'लॉकडाउन’

अनजान शब्द है,

जनसमूह में दूर से आया है

बदनाम लॉक-अप या लॉक-आउट की तरह

यह लॉकडाउन भ्रम की कहानियाँ फैलाता है

लेकिन लॉकडाउन सिर्फ एक हथियार है

जनमानस के पास

जो कपट, फरेब, चतुराई तथा

अति छल से दुखी बनाता है

और अब वे निर्ममता के साथ

बाड़े के भीतर घुसाए जाते हैं।

 

मैं साँस नहीं ले सकता...

(I Can't Breathe...)

 

जार्ज,

तुमने जो तीन शब्द

कष्ट के साथ उच्चारित किये थे

मरने के पहले

श्वेत-बर्फ घुटने जैसे चट्टान के तले

अब अमेरिका और हर जगह के

आकाश में गूंज रहे हैं

दक्षिणी गोलार्द्ध में तो

प्रतिध्वनि सुनाई पड़ रही है

जोर-शोर से-

मैं साँस नहीं ले सकता...

और सड़कें एक साल कोरस में

शोक गीत गा रही है-

मैं साँस नहीं ले सकता...

मैं साँस नहीं ले सकता...

तुम्हारी गर्दन और

उसके घुटने के बीच

फर्क है...

 

तुम्हारी गर्दन अश्वेत है

एक समय जोश से धक-धक करती है

जब कि उसका घुटना

दबोच रहा था श्वेत शिलाखंड

की तरह निर्मम और कठोर बनकर।

 

तुम्हारा अश्वेतपन चमक उठा

पुरा कालीन नरम काले पत्थर की तरह

जब उसके श्वेत दबाव के भीतर

कुछ अश्वेत कुदृष्टि

घात लगाये थी।

 

उसके श्वेत चमड़े

तुम्हारे दाँत की तरह श्वेत नहीं हैं

जो उज्जवल ठोकर चमक सके

जब कभी तुम खीस निकालोगे

न तुम्हारे अश्वेत चमड़े के भीतर की

हड्डियों जैसे श्वेत होंगे

न तुम्हारे श्वेतपटल जैसे

उजियारे होंगे।

ओ महान फ्लॉएड

हमने तुम्हारी आत्मा की

चमक देखी है

जब तुम हाउस्टॉन में

ओजस्वी की तरह रैप गीत गा रहे थे

तुम ने वर्ण रहित आवाज़ में

उसी गले से मधुर गीत गाकर

बाजी मार ली थी

जब पुलिस के श्वेत पत्थर जैसे घुटने ने

तुम्हें दबोच लिया था।

 

आज काली स्याही का हरेक शब्द

कहता है-

यदि चट्टान का श्वेतपन

समय की गर्दन रौंदने निकलता है

... मैं सांस नहीं ले सकता...

और किताब के कारावास से निकलकर

बाहर आये हैं शब्द

तुम्हारी खातिर जुलूस निकालकर,

ओ जार्ज फ्लॉएड,

कोरस में शोक गीत गाते हुए

... मैं सांस नहीं ले सकता...।

 

 

 

दार्जिलिंग में जन्मे नेपाली के जाने-माने कवि मनप्रसाद सुब्बा का जन्म 3 सितम्बर 1952 में हुआ था। शिक्षा अंग्रेजी में एम.ए. है। इसलिए नेपाली और अंग्रेजी में समानान्तर लिखते हैं। प्रकाशित कृतियों में 8 कविता संग्रह, एक उपन्यास और एक लेख संग्रह है। अनूदित संलग्न कविताएं अंग्रेजी की हैं। साहित्य अकादमी सम्मान के अलावा और आठ सम्मानों से नवाजे गये हैं। उनकी नेपाली कविताओं का हिन्दी, मैथली, बंग्ला भाषा में हुआ है। हरिसुमन बिष्ट के उपन्यास 'आछरी-पाछरी’ का अनुवाद आप ने अंग्रेजी में किया है। आगामी 13 दिसम्बर में हो रहे 19 वें अंतराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन, पोर्ट ब्लेयर का उद्घाटन करने के लिए आप आमंत्रित हैं।

संपर्क- बिजनबारी, दार्जिलिंग-734201 (प. बंगाल)

मो. 9832025465

 

 


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