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जनवरी 2021

जीवन से स्पंदित कविता की वापसी-स्त्रियाँ घर लौटती हैं

मीना बुद्धिराजा

क़िताब

 

      समकालीन कविता अब अपने वास्तविक आदिम स्वरूप और जीवन की स्मृतियों में पुन: जीना चाहती है। उसकी संवेदना जीवन के सुख-दुख, प्रकृति-परिवेश, गाँव-कस्बे, रिश्ते-नाते, घर-परिवार और मानवीय व्यवस्था का समूचा तंत्र जिस बाजारवादी छल-कपट का शिकार है उस काल की धुंध को हटाकर अपनी अनंत संभावनाओं को जीवंत रखते हुए निर्मम समय की अनेक चुनौतियों और अतिवादिताओं के बीच कविता कभी अपने को अकेले तो पाती है लेकिन वह उम्मीद नहीं छोडऩा चाहती। अपने में अन्तरनिहित प्रेम और जीवन के सहज सौंदर्य को सघन रूप में वह कठोर समय के यथार्थ और विध्वंस की टूटन के बीच भी बचाना चाहती है। जीवन और प्रकृति के राग-विराग में ही जीवन के अदम्य संघर्ष से भी इस कविता का रिश्ता अटूट है और कविता अपनी रचना प्रक्रिया में इसे बहुत समावेशी और समग्र दृष्टि से आत्मसात करती है।

समकालीन कविता के परिदृश्य में युवा कवि विवेक चतुवेदी की कविताएं एक ऐसे ही भावबोध के साथ जीवन के विशाल परिसर में ले जाती हैं जहाँ संसार के निरर्थक कोलाहल के बीच एक पहाड़ी झरने के संगीत की तरह नैसर्गिक ध्वनि सुनाई देती रहती है।  पृथ्वी से उर्वरित और जीवन की सूक्ष्म तरंगों को पकड़ती इन कविताओं में अनुभवों और संवेदनाओं की आत्मीयता और सादगी मनुष्य पर कवि के भरोसे को प्रमाणित करती हैं। इस दृष्टि से विवेक चतुर्वेदी का पहला कविता संग्रह 'स्त्रियाँ घर लौटती हैं और अन्य कविताएँ’ उनकी रचना-प्रक्रिया की अनगढ़ता नहीं बल्कि बहुत परिपक्व रूप से अनुभवों में धीरे-धीरे पकती काव्य-संवेदना को प्रमाणित करता है। वरिष्ठ कवि अरुण कमल के शब्दों में - ''इन कविताओं में सघन स्मृतियाँ हैं, भोगे हुए अनुभव हैं और विराट कल्पना है, जीवन का अथक संघर्ष है तो स्वप्न और उम्मीद भी; इस प्रकार वे भूत, वर्तमान और भविष्य का समाहार कर पाते हैं। और यहीं से जीवन के वैभव से सम्पन्न समवेत गान की कविता उत्पन्न होती है, कविता एक वृन्दगान है पर उसे एक ही व्यक्ति गाता है। नि:संदेह इस संग्रह में निबद्ध कविताएं स्वयं सम्पूर्ण, अतुलनीय, स्वयंभू एवं अद्भुत हैं।’’

विवेक चतुर्वेदी की कविताओं में समय भी है, धड़कता हुआ जीवन भी है, परंपरा के रंग भी हैं और आधुनिक संवेदना भी। कथ्य और शिल्प का कोई अतिरिक्त दबाव नहीं है तो इसके पीछे अनुभवों की सघनता है और भाषा पर सहज पकड़ का नैसर्गिक कौशल। एक पारदर्शी भाषा जिसका रंग स्थानीय है इसलिये इन कविताओं में जो मार्मिकता और सघनता है, एक आत्मीय सादगी में डूबी कविताएं जो कवि ही नहीं पाठक को भी जीवन पर आस्था और भरोसे के लिए आश्वस्त करती हैं। जनसाधारण और प्रकृति के साथ रागात्मक संबंधों के साथ ही जीवन के गहरे आशयों से जुड़ी जीवन स्थितियों में भी कवि जैसे शताब्दियों का फासला तय कर लेता है। यह सच भी है क्योंकि कविता मानव नियति के चिरंतन प्रश्नों को ही उठाती है। इन कविताओं में अनुभूति की मृसणता और ताज़गी का हरिताभपन एक साथ दिखाई देता है।

'स्त्रियाँ घर लौटती हैं’ संग्रह की सभी छप्पन कविताओं में आज के निर्मम और विपरीत समय में नये जीवन की जो आशा है वह हृदय के स्पंदन और जीवन की उष्मा से इतनी आलोकित हैं कि वह कवि के गहरे और आंतरिक अवलोकन के लिए पाठक को स्तब्ध कर देती है लेकिन जीवन के प्रति गहरे राग से भी भर देती हैं। इन कविताओं का परिसर बहुत बड़ा है जिसमें स्त्री से लेकर पृथ्वी को बचाने की ज़िद, बसंत और चैत की ऋतुएँ, गोधूलि की प्रार्थना से लेकर नर्मदा की चिंता, मित्रता, बचपन, मां-पिता से संबंधों की पराकाष्ठा, घर-आंगन में मातृत्व की गरिमा से लेकर टाइपिस्ट और शोरूप में काम करने वाली लड़की के लिये भी स्त्री विमर्श की एक जेंडर मुक्त संवेदनशील दृष्टि है। प्रेम और रुदन से लेकर पसीने से भीगी श्रमजीवी कविताओं का भी मानवीय और सबल पक्ष है। इन कविताओं में लोकधर्मिता की जो भव्यता और सौंदर्य है वह अपनी साधारणता में भी नये-नये अर्थों को ध्वनित करता है। बिम्बों में जीवंत होती ये कविताएँ समय और समाज के उन इलाकों में से जाती हैं जहां छूटी हुई चीज़ों को पूरे इंद्रिय बोध के साथ कविता में वापस लाने की कोशिश है। जो बाज़ार के कृत्रिम तंत्र और इस संवेदनशून्य रिक्त समय में अनुपस्थित हो चुकी हैं और इस पीड़ा को नई भाषा में जीवंत करते हुए मानवीय संबंधों के आत्मीय संसार में सम्मानजनक जगह दिलाती हैं।

इस बहुस्तरीय संवेदनाजगत में मानवीय सरोकारों, जीवन के सुख-दुख के संघर्षों की सूक्ष्म अनुभूतियाँ कवि के व्यक्तित्व जैसी सहज  और आभिजात्य के शिल्प के प्रभाव से मुक्त हैं जो पाठक को गहराई से स्पर्श करती हैं। एक ऐसे समय में जब संवेदना का आकाश और संबंधों का स्थान निरंतर सिकुड़ता जा रहा है, कवि की सजग संवेदनशील स्त्रीपक्षीय दृष्टि कविता की आंतरिक लयात्मकता में उसकी आत्मीय दुनिया का विस्तार करके अधिक वृहत्तर और गरिमापूर्ण अस्मिता को अभिव्यक्ति का स्वर देती है। शीर्षक कविता 'स्त्रियाँ घर पर लौटती हैं’ भी साधारण अनुभवों में असाधारण खोजने की विस्मयपूर्ण कविता है। स्त्री जीवन के अनदेखे आयाम, उसके पूरे संघर्ष, उसकी व्यथा, उसके अथक परिश्रम, उसकी अथाह शक्ति और सामथ्र्य को शब्दाकार में ढालकर जिस तरीके से यह कविता संप्रेषित होती है वह विलक्षण है कि वर्चस्वपूर्ण समाज में स्त्री की स्वतंत्र पहचान को स्थापित करने का संवेदनशील प्रयास है। जहाँ स्त्री की गरिमा, कोमलता और पृथ्वी की भाँति अथाह धैर्य पौरुषपूर्ण सत्ता की देहभाषा और उसकी पाशविक सोच के छेद को रफू करती है।

स्त्रियाँ घर लौटती हैं

पश्चिम के आकाश में

आकुल वेग से उड़ती हुई

काली चिडिय़ों की पाँत की तरह

स्त्रियों का घर लौटना नहीं है

स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है

वो एक साथ पूरे घर में लौटती है

वो एक साथ, आँगन से

चौके तक लौट आती है

स्त्री है... जो बस रात की

नींद में नहीं लौट सकती

उसे सुबह की चिन्ताओं में भी

लौटना होता है।

लौटती है स्त्री, तो घास आँगन की

हो जाती है थोड़ी और हरी,

दरअसल एक स्त्री का घर लौटना

महज स्त्री का घर लौटना नहीं है

धरती का अपनी धुरी पर लौटना है।

स्त्रियाँ जो सूर्योदय के साथ उठकर सूरज छिपने के साथ ही घर लौटती हैं। इस संग्रह की कुछ कविताओं में कामकाज स्त्री के घर लौटने की कथा है, कहीं प्रेम में खो रही स्त्री की कथा है, अपनी उपस्थिति से परिवार और बच्चों के लिए एक मृदुल संसार रचती हुई और संघर्ष करती स्त्री की कथा है, कभी वंचित, व्यथित और छली गई पुरुष द्वारा पेंसिल की तरह बरती गयी घरेलू स्त्रियों की, अपनी अस्मिता को बचाने का संघर्ष करती नितांत देह की तरह बरती गयी पीडि़त अभिशप्त स्त्री की व्यथा है, और कहीं साथ ही साथ उस स्त्री के प्रेम से ही उदात्त हुए पुरु, की कथा भी है जो स्त्री मन के रहस्य में पैठ पाता है। इस संग्रह की नौ कविताएं स्त्री केंद्रित हैं जिनमें समकालीन परिदृश्य में स्त्री अस्तित्व की जटिलताओं, उसकी सामाजिक-आर्थिक त्रासद विडंबनाएं, लौंगिक भेदभाव, दैहिक-मानसिक व्यथा के दंश भी क्रूर समय में कवि की व्यापक और गह्न संवेदनशील दृष्टि के दायरे में तो स्त्री का अद्म्य साहस भी -

शोरूम में काम करने वाली लड़की

सुबह आती है भागती-हाँफती

टिफिन लटकाए कंधे से

शोरूम के अपने आप खुलने वाले

दरवाजे से घुसते ही

उसे टाँग देना होता है

अपने मन का सीझा हुआ दुख

पहननी होती है रंगीन टाई के साथ मुस्कुराहट

पढऩी होती है फिर

आभिजात्य ग्राहकों के मन की किताब

बचपन से इस लड़की ने पढ़ा है खूब

मुफलिसी का कसैला पाठ

वो चोंच चोंच भर लाए तिनकों से

जीवन को बुनना चाहती है

नहीं चाहती शोरूम आना

वो घर जाना चाहती है।

सुनो! इस सदी में स्त्री को

जबरिया काम पर भेजने वाले

स्त्री के मुक्तिकामी विमर्शकारों

अपना कोलाहल बंद करो

ये लड़की क्यों घर जाना चाहती है।।

जीवन के अभावों में स्थायित्व के भाव और प्रेम को ढूंढती, स्त्री मन की जटिलताओं, उनके अंतद्र्वंद्व, गहन मनोभावों को संपूर्ण संवेदना के साथ सघन अभिव्यक्ति प्रदान करने में विवेक चतुर्वेदी अद्भुत और समर्थ कवि हैं। कविता में स्त्री के जीवन की बहुविध विडंबनाओं-विसंगतियों को सहेजते और उन्हें एक नये काव्य धरातल से देखते हुए उसके हौसले, हिम्मत और संघर्ष की अथक आकांक्षाओं को भी कवि की गहरी दृष्टि उसकी सभी संभावनाओं में अंतर्निहित देखती है -

मैंने कहा 'बचपन’

उसकी उँगलियाँ हिरन हो गयीं

कहा माँ.. और उसकी स्मृति खोजने लगी

प्रेम कहा मैंने और...

उँगलियाँ की बोर्ड पर सहसा ठहर गयी

फिर शादी कहा तो होने लगीं

उसके टाइप में गलतियाँ

फिर कहा लिखो... औरत का हक

पर लफ्ज़ हैरत से गुमने लगे

फिर वो देर तक खाली स्क्रीन को घूरती रही

और काँपते हाथों से टाइप किया हिम्मत

फिर एक बार 'हिम्मत’

और उडऩे लगीं उसकी ऊँगलियाँ

सारा पेज उसकी हिम्मत से भर गया।।

पुस्तक के आरंभिक आत्मकथ्य में कवि ने स्वीकार भी किया - किसी ने मुझसे कहा था... तुम स्त्री की सामथ्र्य और व्यथा के कवि हो लेकिन स्त्री को कहते हुए मुझे आलोक धन्वा की स्त्रियों का वैभव याद आ जाता है जिन्होंने मुझे चौक पार करना सिखाया और बार-बार भीड़ भरे चौराहे पर मैं उस स्त्री की ओर अपना हाथ बढ़ा देता हूँ, शायद वो बढ़ा हुआ हाथ ही ये कविताएँ हैं।... माँ और पिता की काँपती आवाज़ इन कविताओं में पूरी मनुष्यता के छीजते संबंधों की न केवल पड़ताल कर लेना चाहती है बल्कि दुबारा बहुत कुछ बनना भी चाहती है जो छिन्न हो गया है... कभी मेरी कविता के जंगल में वो सब भी बसेरा कर सकेंगें जो गुम हो रहे हैं या जिनका कोई नहीं है, जो बेघर हैं, जो तके हैं, जो छले गये हैं। उनमें चिडिय़ा भी होगी, पानी भी, मिट्टी भी, पहाड़ भी, पेड़ भी और हाँ... आदमी भी’’

प्रेम का जो रूप इन कविताओं में उभर कर आया है, उसकी प्रकृति इतनी आत्मीय है कि लगभग विस्मित कर देने वाला है। भाषा और शिल्प की अप्रतिम सादगी के साथ प्रेम उदात्त रूप में और विश्वास, आपसी संबंधों की मौन समझदारी की पराकाष्ठा के साथ यहाँ प्रस्तुत होता है। जो कवि की परिपक्व दृष्टि ही नहीं प्रेम की मानवीय आकाशाओं के ईमानदार फलक से आते अनुभवों का ही स्वर है और इसमें आज के विद्रूप समय में प्रेम की सच्चाई को सहेज लेने का प्रयास। स्मृतियों में विकसित होता यह प्रेम कवि को कविता के व्यावहारिक फार्मूलों से मुक्त करके जिस सरल सहज प्रेम को जीने की आकांक्षा है उसमें कथ्य और शिल्प का चमत्कार नहीं, बल्कि धड़कता हुआ जीवन है, प्रेम की व्यथा और पीड़ा की अनुभूति के बहुत से रंग हैं -

तुम्हारे साथ जो काता है मैंने

उसे खूँटी पर टाँग रखा है

तुम चाहो उतारो उसे या

वहीं रहे टँगा छिन जाये

मैं चाहता हूँ उसे उतार दूँ

तो अरझ कर एक-एक सूत टूटने लगता है

बेहद दर्द भरी टीस के साथ और

मैं नहीं तोड़ पाता एक भी सूत

जो, साथ हमने काता है।।

जीवन के विविध अनुभवों से समृद्ध कविताएं जिनमें सुख-दुख, धूसर-धुंधले और संबंधों के राग-विराग के अनेक करुण आद्र बिम्ब और दृश्य हैं। मानवता के साथ प्रकृति की भी व्यथा चित्रित है। इन कविताओं में रुदन भी एक मूल्य है जहाँ बेटी के प्रति पिता की संवेदनाएं और वात्सल्य की अनूभुतियाँ इतनी विराट हो जाती हैं उसमें नन्हीं पृथ्वियाँ खेलते हैं। इन कविताओं का अभ्यारण्य बहुत व्यापक है जिनमें अतीत की, बचपन की बहुत सी अनूगूंजें मनुष्यता के दीर्घ आलाप की तरह सुनाई देती हैं। पिता की भावपूर्ण स्मृति, उनका त्याग, सम्मान और पितृत्व की गरिमा और रिक्तता की गहन पीड़ा पाठक को स्पंदित कर देती है-

भूखे होने पर भी

रात के खाने में

कितनी बार,

कटोरदान में आखिरी बची एक रोटी

नहीं खाते थे पिता...

पिता निपट प्रेम जीते रहे

बरसों बरस

पिता को जाते ही

हमें मालूम हुआ कि प्रेम ही है

परम मुक्ति का घोष

और यह अनायास उठता है

मुँडेर पर पीपल की तरह।।

इन कविताओं में मानवीयता का पुनर्वास होता है जिसमें सबसे खराब और कठिन समय में भी, दुर्दिनों में भी भविष्य के प्रति आश्वस्ति है। जो अपनी बहुलता में ही जीता आरै स्पंन्दित होता है और यह विविधता में सामंजस्य ही इन कविताओं का उजला पक्ष है। इन कविताओं की सीधी-सादी गवाही में भी अंतर्भूत सूक्ष्म अंतध्र्वनियाँ हैं। यह संग-साथ की बात करती, संवाद करती कविताएँ हैं जिनमें वर्तमान की सभी जटिलताओं, दुविधाओं और क्रूरताओं में कुछ न कुछ मानवीय बचा लेने की चिंता स्पष्ट दिखाई देती है। ये कविताएँ हमारे मनुष्य होने का मार्मिक सत्यापन करती है और इस निर्मम समय में कविता की यह भूमिका भी कम नहीं है। इन कविताओं का अनुभव जगत बहुत व्यापक है जिसमें साधारणता का यथार्थ पाठक की संवेदना को बेचैनी से भर देता है। मानवीय जीवन जिसमें प्रेम, दुख, संघर्ष, स्वप्न, उदासी, रिक्तता, निराशा, जिवीविषा और अकेलापन भी है। कवि बहुत आत्मीयता और गहराई से उसी अनुपस्थित - अनचीन्हें संसार में ले जाता है

 

एक पीसने की कविता है

जो दरकते खेत में उगती है

वहीं बड़ी होती है

इस कविता में रूमान बस उतना ही है

जितनी खेत के बीच छप्पर की छाँव है

ये कविता खलिहान से मण्डी

तक बैलगाड़ी में रतजगा करती है

खाद बीज के अभाव और

पानी के षडयंत्रों पर चिल्लाती है

ये सचमुच अपने समय के साथ खड़ी होती है

ये कविता आँगन में बैठ

चरखे-सा कातती है

रात-रात अम्मा की

आँखों में जागती है

कभी ऊसर सी सूख जाती है

कभी सावन सी भीग जाती है

कविता गाँव के सूखते पोखरे

के किनारे बैठे रोती है

जहाँ भी पानी, चिडिय़ा, पेड़, पहाड़

और आदमी होता है

वहाँ होती है।।

बाज़ार की चकाचौंध और निरर्थक शोरगुल में विवेक चतुर्वेदी कवि रूप में इन कविताओं में अंतर्वस्तु के साथ ही भाषा, शिल्प और बौद्धिकता का कोई आतंक सृजित नहीं करते। यहाँ भाषा जैसे सीधे पाठक की संवेदना के भीतर के द्वारा पर प्रेम से थपथपाती है। जनसाधारण और लोक के धरातल से जोड़ती जिसमें सघन लय और शब्दों की मितव्ययता है लेकिन अपनी नैसर्गिक सरलता और सादगी को बचाते हुए। गहरी उदासियों और विडंबनाओं में भी जीवन का नया भाष्य रचते हुए तलछट के दुखों और जीवन के मर्म को स्पर्श करती हैं। ताले जैसी निर्जीव वस्तु से इतना सजीव संबंध है कि मानवीय रिश्तों स अधिक जीवंत हैं और कविता में एक दूसरे की अनुपस्थिति की पीड़ा को नयी भाषा देते हैं। प्रतीकात्मक कथ्य-शिल्प के कहन की अपनी शैली कवि की उपलब्धि है जो बहुत सी विलक्षण अनुभूतियों से पाठक को परिचित कराती है-

चाबियों को याद करते हैं ताले

दरवाज़ों पर लटके हुए...

चाबियाँ घूम आती हैं

बीतता है दिन, हफ्ता, महीना या बरस

और ताले रास्ता देखते हैं।

लटके हुए तालों को कभी

बीत जाते हैं बरसों बरस

और वे पथरा जाते हैं

जब उनकी चाबी आती है लौटकर

पहचान जाते हैं वे

खुलने के लिए भीतर से

कसमसाते हैं

पर नहीं खुल पाते,

फिर भीगते हैं बहुत देर

स्नेह की बूंदों में

और सहसा खुलते जाते हैं

उनके भीतरी किवाड़

ताले चाबियों के साथ

रहना चाहते हैं

वे अकेलेपन और ऊब सी दुनिया बाहर

खुलना चाहते हैं।

यहाँ कवि की अद्भुत दृष्टि से संपन्न इन कविताओं में कविता का सामथ्र्य अधिक से अधिक भावों को कम से कम शब्दों में कहने के कौशल में निहित है जिनमें दृश्यों और बिम्बों की सजीवता है और गहरे अर्थ विस्तार की अनंद संभावनाएं भी-

आम का एक पेड़ कट गया है

गुम गया है छोटी चिडिय़ों का बसेरा

गुम गया है छोटी चिडिय़ों का बसेरा

सुबह का मद्धम मधुगीत

गोलाहल में बदलता जा रहा है

धूसर होता जा रहा है मेरी आत्मा का हरा रंग

असंख्य फलों के

अजन्में भ्रूणों का रुदन

पेड़ की छाल के भीतर रिस रहा है

रिस रहा है मेरे भीतर का आदमी होना

इस सदी के सबसे बड़े कटघरे में

इस सदी की सबसे दुखद

शोकसभा में अपराधी सा

मैं खुद को खड़ा पाता हूँ

आम के एक पेड़ की मृत्यु पर।।

इन कविताओं की भाषा संपन्नता में कवि की दृष्टि की पहुँच एक बड़ा कारण है जो अनुभवों में पकी हुई आत्मीय भाषा है। इनमें बोली, लोक-बानी के सह शब्द भी जैसे इस सामूहिक स्वर में शामिल हैं। बुंदेली, अवधी ने जिनमें पाँत, मसहरी, बिरबा, चैत, साँझ, सितोलिया, जीमना, बैसाख, टुडुप-गुडुप, बिराग जैसे लोक शब्द नये संदर्भों में भी रचे-बसे हुे हैं। जीवन के सभी दुखों, वेदनाओं, प्रतिकूलताओं, वस्तुओं और दृश्यों को सुख-दुख के इस विराट उत्सव की तरह इन कविताओं में जगह दी गयी है जो इसके मानवीय सरोकारों को विस्तृत कैनवास देती है। मनुष्यता की समग्र व्यथा को यहाँ व्यापक स्वर मिला है जो साधारण में भी असाधारण की खोज है और कवि की उम्मीद बहुत बड़ी है-

नहीं रहेंगे हम

एक दिन धरती पर

उस दिन भी खिले

हमारे हिस्से की धूप

और गुनगुना जाये।

समकालीन कविता के परिदृश्य में जीवन संघर्ष के सभी आयामों को इतनी मार्मिकता और सजीवता के साथ उन्हें संवेदना और अनुभव के जिस दुर्लभ समन्वय से प्रस्तुत संग्रह 'स्त्रियाँ घर लौटती हैं’ में रेखांकित किया है उसमें नि:संदेह कवि का अभूतपूर्व कौशल और शिल्प की आश्चर्यजनक ताज़गी है। ये कविताएं वर्तमान काव्य-यात्रा में अपनी सार्थक एवं नवीन उपस्थिति के रूप में स्थापित होगी और सहृदय पाठकों के लिए एक अविस्मरणीय अनुभव की आश्वस्ति भी सिद्ध होगी।

 

 

दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में अध्यापिका

संपर्क- मो. 9873806557, अहमदाबाद

 


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