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जनवरी 2021

उसी का शहर, वही मुद्दई, वही मुंसिफ

रमेश अनुपम

किताबें

 

दिल्ली दंगों का सच - पंकज चतुर्वेदी

 

  ''यह चौंकाने वाला तथ्य है कि केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा अब तक दिल्ली पुलिस को जवाबदेह ठहराने का कोई प्रयास नहीं किया गया है, जबकि पुलिस द्वारा किए गए उल्लंघनों को सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर अनेक बार दिखाया जा चुका है। बीते छ: महीनों के दरम्यान कई समाचार तथा तथ्यपूर्ण रिपोट्र्स सामने आई है, जिसमें दिल्ली पुलिस द्वारा किए गए उल्लंघनों का दस्तावेजीकरण प्रस्तुत किया गया है। इसमें दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की एक रिपोर्ट भी शामिल है, लेकिन अभी तक दिल्ली पुलिस के खिलाफ  किसी तरह की कोई कार्रवाई नहीं की गई है। राज्य सरकार द्वारा प्रायोजित इस हिंसक प्रवृत्ति का आनंद दिल्ली पुलिस काफी समय से उठाती आ रही है और अपनी जवाबदेही से बचने की कोशिश कर रही है।’’

अविनाश कुमार, कार्यपालक निदेशक

इमनेस्टी इंटरनेशनल, भारत

 

     पंकज चतुर्वेदी द्वारा संपादित 'दिल्ली दंगों का सच’ पर चर्चा करने से पूर्व इमनेस्टी इंटरनेशनल के निदेशक अविनाश कुमार के उपर्युक्त कथन के पीछे छिपे हुए सच को समझ लेना जरूरी है। दिल्ली दंगों को लेेकर सोशल मीडिया तथा समाचारों के माध्यम से अनेक ऐसे तथ्य उभर कर आए जिससे दिल्ली पुलिस की भूमिका संदेहास्पद मानी गई। इस बीच दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की 'फैक्ट फांइंडिंग कमेटी’ की रिपोर्ट भी  सामने आई, जिसमें दिल्ली पुलिस को लेकर अनेक सवाल खड़े किए गए हैं, किंतु इन सबके बावजूद दिल्ली पुलिस को जवाबदेह ठहराने की कोई कोशिश सरकार द्वारा नहीं की गई। यह सचमुच किसी भी प्रजातांत्रिक सरकार के लिए एक शर्मनाक घटना है, जिससे इस सरकार की नीयत का पता चलता है। हालाँकि इस सरकार को प्रजातांत्रिक सरकार कहना भी एक तरह से प्रजातंत्र का उपहास उड़ाना है।

दिल्ली राज्य सरकार के अधीन 'दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग’ (डीएमसी) द्वारा फरवरी 2020 में उत्तरी-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों की जाँच के लिए एक ‘फैक्ट फाइंडिंग दल’ का गठन किया गया था। इस दल में सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता एम.आर. शमशाद सहित नौ अन्य सदस्य मनोनित किए गए थे। ये सभी सदस्य समाज के विभिन्न क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले दिल्ली के सम्मानित व्यक्ति थे।

'दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग’ द्वारा ‘फैक्ट फाइंडिंग कमेटी’ का गठन 9 मार्च 2020 को किया गया। 'फैक्ट फाइंडिंग दल’ ने मात्र तीन माह की अवधि में हालांकि कोरोना जैसी महामारी के चलते इस रिपोर्ट को तीन माह लग गए, अन्यथा यह अपने निर्धारित समय चार सप्ताह में ही पूर्ण हो जाती, 27 जून 2020 को इस रिपोर्ट को 'दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग’ के समक्ष प्रस्तुत कर दिया।

27 जून 2020 को 'फैक्ट फाइंडिंग दल’ की इस महत्वपूर्ण रिपोर्ट के पन्नों और उसमें शुमार दस्तावेजों को दिल्ली सरकार ने उलटना-पुलटना जरूरी नहीं समझा। दिल्ली विधानसभा में भी न इस रिपोर्ट को रखने की कोई कोशिश नहीं की गई और न ही उस पर विधायकों की रायशुमारी जानने की कोई कोशिश ही। इस तरह 'फैक्ट फाइंडिंग दल’ की यह महत्वपूर्ण रिपोर्ट महज सरकारी खानापूर्ति का ही एक हिस्सा बन कर रह गया। इससे दिल्ली सरकार और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की नीयत का भी साफ पता चलता ही है, साथ में अरविंद केजरीवाल और 'आप’ जैसी पथभ्रष्ट पार्टी का एजेंडा भी साफ-साफ दिखाई देता है। सच तो यह है कि अरविंद केजरीवाल, अन्ना हजारे और इस तरह के नेता अब पूरी तरह से बेनकाब हो चुके हैं।

केंद्र में आसीन भाजपा का मुखौटा तो काफी पहले ही उतर चुका था। सन् 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा, सन् 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस और सन् 2002 में गुजरात में हुए व्यापक नरसंहार ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी थी। इसलिए फरवरी 2020 में हुए दिल्ली दंगों को लेकर उनसे किसी तरह की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती थी। सन् 2014 में जब से केंद्र में भाजपा सत्तारूढ़ हुई है तब से लेकर आज तक का भारत फासीवाद के खतरों को किस तरह से झेल रहा है, इस तथ्य से हम सब भली-भाँति अवगत हैं।

'दिल्ली दंगों का सच’ में बताया गया है कि उत्तरी-पूर्वी दिल्ली के कई क्षेत्रों में 23 फरवरी से लेकर 27 फरवरी तक अर्थात् पूरे पाँच दिनों तक किस तरह सांप्रदायिक दंगे होते रहे। उत्तर-पूर्वी दिल्ली के हिस्से शिव विहार, खजूरी खास चांँद बाग, गोकुलपुरी, मौजपुर, मुस्तफाबाद, अशोक नगर, कर्दमपुरी, करावल नगर, जाफराबाद, भागीरथी विहार, भजनपुरा जैसे इलाके दंगे की लपटों में झुलसते रहे। सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस दंगे में 53 लोग मारे गए, 250 घायलों को अस्पताल में भर्ती करवाया गया। घर, दुकान, व्यवसाय, वाहन तथा अन्य संपत्तियों को चुन-चुनकर लूटा गया तथा आग के हवाले किया गया। दंगों के सर्वाधिक शिकार हमेशा की तरह मुसलमानों को ही बनाया गया। संपत्तियों का सर्वाधिक नुकसान भी मुस्लिम परिवारों को ही उठाना पड़ा।

पंकज चतुर्वेदी द्वारा सम्पादित इस किताब में सेवानिवृत्त वरिष्ठ पुलिस अधिकारी विजय शंकर सिंह की भूमिका भी पुलिस की कार्य पद्धति को लेकर अनेक सवालों को खड़ा करती है। उन्होंने अपनी भूमिका में स्पष्ट शब्दों में लिखा है: इस 'फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट’ में दंगों में पुलिस की भूमिका को पक्षपातपूर्ण बताया गया है। रिपोर्ट के अनुसार पुलिस कई जगहों पर जहाँ इसे सक्रिय होकर सख्ती से दंगा और हिंसक घटनाओं को नियंत्रित करना चाहिए था, वहाँ पुलिस तमाशाई बनी रही या फिर दंगाइयों को अंदर-अंदर शह देती रही। रिपोर्ट में लिए गए चश्मदीदों के कथनों के अनुसार अगर किसी एक स्थान पर किसी पुलिसकर्मी ने दंगाइयों को रोकने की कोशिश भी की तो उसके साथी अन्य पुलिस कर्मियों ने उसे रोक दिया और दंगे के दौरान घोर प्रशासनिक निष्क्रियता और आपराधिक सहयोग का कार्य किया, जो एक पुलिस बल के सदस्य के लिए न केवल अनुचित है, बल्कि विधि विरूद्ध भी है।’

'फैक्ट फाइंडिंग कमेटी’ की इस रिपोर्ट में भी ऐसे अनेक लोगों के साक्ष्य सम्मिलित किए गए हैं जो पुलिस की निष्क्रियता के भुक्तभोगी रहे हैं। इसमें उन महिलाओं के भी बयान हैं जो साम्प्रदायिक हिंसा की शिकार हुई हैं। उन महिलाओं के बयानों को पढ़कर किसी का भी सिर लज्जा से झुक सकता है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी अगर यह देश हैवानियत को अपना आदर्श मान रहा है तो भाजपा, आर.एस.एस., विहिप और इस तरह की तमाम साम्प्रदायिक संगठनों को शर्म से पानी-पानी हो जाना चाहिए। देवियों की आराधना करने वाले इस देश में अगर महिलओं को लेकर हमारे भीतर कोई सम्मान का भाव नहीं है तो हमें चुल्लू भर पानी तो ढूंढ ही लेना चाहिए।

इस किताब में ऐसी अनेक महिलाओं के साक्ष्य हैं जिनके बयानों को पढऩे के बाद हमारे इंसान होने पर भी शक होता है। ''एक अन्य महिला ने बातया कि उसके घर में जबरदस्ती घुस गए कई पुरूषों द्वारा कैसे उसके कपड़े फाड़कर चीथड़े कर दिए गए। जब इस तरह की खतरनाक परिस्थितियों में फंसी महिलाओं ने पुलिस में फोन किया तो पुलिस की ओर से समय पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।’’ पुलिस जब खुद दंगाइयों की भीड़ का हिस्सा बन जाए और एक विशेष धर्म के प्रति पूर्वग्रह भी मन में हो तो उससे न्याय तथा कानून की आशा कैसे की जा सकती है।

एक अन्य मुस्लिम महिला का बयान है, ''जब शिव विहार में हिंसा भड़की तो कैसे क्षेत्र की बहुत सी महिलाओं के पास अपने परिवार के पुरूषों की सुरक्षा के लिए अपना घर छोडऩे के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं रह गया था। जब उन्होंने हिंसा प्रभावित क्षेत्र में कदम रखा तो भीड़ द्वारा उनका शारीरिक शोषण और यौन उत्पीडऩ किया गया।’’

एक और साक्ष्य जिसे पढ़कर दिल्ली पुलिस के चरित्र को बखूबी समझ सकते हैं, ''वह जब दोबारा होश में आई तो उसने देखा कि उसके चारों तरफ बहुत सी घायल महिलाएँ हैं। दंगाइयों की भीड़ लगातार उन्हें गाली दे रही थी। जब यह हो रहा था तब पुलिसवालों ने अपनी पैंट नीचे की और अपने जननांगों की ओर इशारा करते हुए महिलाओं से कहा वे 'स्वतंत्रता’ चाहती हैं और वे उन्हें स्वतंत्रता देने के लिए तैयार हैं।’’

उत्तर-पूर्वी दिल्ली में 23 से 27 फरवरी के बीच हिंदू दंगाई भी इसी तरह की हरकतें मुस्लिम महिलाओं के सामने कर रहे थे, जिस तरह पुलिस कर रही थी। यह उन महिलाओं ने अपने बयान में 'फैक्ट फाइंडिंग कमेटी’ के सदस्यों को बताया है, जो इसकी भुक्तभोगी रही हैं। ये तथाकथित धार्मिक संगठन, चाहे वह विहिप, या बजरंग दल, या आर.एस.एस. हो, ये सब धर्म के नाम पर जो कुछ भी कर रहे हैं, अगर यही धर्म है तो शायद इससे बेहतर अधार्मिक या नास्तिक हो जाना ही उचित है। धर्म की ध्वजा फहराने वाले और अयोध्या में श्री राम का मंदिर बनवाने वाले ये कैसे और किस विकृत मानसिकता के लोग हैं, जो स्त्रियों का आदर करना भी नहीं जानते हैं?

इन तीनों साक्ष्यों के बयानों को पढ़कर आश्चर्य होता है कि जिस पुलिस पर लोगों की सुरक्षा और कानून के पालन का दायित्व है, वह भी खुलकर दंगाइयों का साथ दे रही थी। बीते कुछ वर्षों में हमने पुलिस को भी काफी हद तक साम्प्रदायिक बना दिया है। इसलिए हर बार साम्प्रदायिक दंगों में उनका यही विकृत और अशोभनीय रूप दिखाई देता है। चाहे वह गुजरात का दंगा हो, या फिर दिल्ली का। पुलिस के चरित्र को लेकर अब देश में नए सिरे से बहस की गुंजाइश है। ठीक उसी तरह जिस तरह भाजपा, आर.एस.एस., विश्व हिन्दू परिषद, 'आप’ पार्टी को लेकर भी एक व्यापक बहस की गुंजाइस बनती है। अन्यथा यह फासीवाद, यह साम्प्रदायिक उन्माद, यह धार्मिक कट्टरता एक दिन पूरे देश को गर्त में डूबा देगी और हम केवल तमाशाई बनकर देखते भर रह जायेंगे।

'फैक्ट फाइंडिंग कमेटी’ की यह रिपोर्ट जो स्वयं दिल्ली सरकार के निर्देश पर तैयार की गई है, दिल्ली दंगों के सच से न केवल हमें रू-ब-रू करवाती है, वरन् उस सच को पूरी तरह से बेपर्दा भी करती है।

इस किताब की भूमिका में सेवानिवृत्त वरिष्ठ पुलिस अधिकारी विजय शंकर सिंह के इस कथन को समझना आवश्यक है:  'दिल्ली दंगे की पृष्ठभूमि में दिल्ली पुलिस ने जो कारण बताए हैं, वह बड़ा दिलचस्प है। दिल्ली पुलिस के अनुसार नागरिक संशोधन विधेयक और एन.आर.सी. को लेकर मुस्लिम समुदाय में असंतोष था और यह दंगा उसी हिंसा का परिणाम था। दिल्ली पुलिस की थियरी में फरवरी में हुए उत्तर-पूर्व दिल्ली के दंगों को शाहीनबाग के सी.ए.ए. और एन.आर.सी. विरोधी शांति पूर्ण आंदोलन से जोडऩे की कोशिश की गई है। जबकि दोनों ही स्थान एक-दूसरे से पर्याप्त दूरी पर हैं।’

जाहिर है पुलिस इस दंगे को शाहीनबाग के सी.ए.ए. और एन.आर.सी. के आंदोलन से जोड़कर एक नई खिचड़ी पका रही है। यहाँ पंकज चतुर्वेदी के संपादकीय के एक अंश को उद्धृत करना आवश्यक है: 'लेकिन जब सरकार व पुलिस में बैठा एक वर्ग खुद साम्प्रदायिक हो जाता है तो उसकी सीधी मार निरपराध, गरीब और अशिक्षित वर्ग पर पड़ता है। एकबारगी लगता हो कि दंगे महज किसी कौम या फिरके को नुकसान पहुँचाते हैं, असल में इससे नुकसान पूरे देश के विकास, विश्वास और व्यवसाय को होता है। दिल्ली दंगे का सच हमें यह बताता है कि पुलिस का साम्प्रदायिकीकरण हो चुका है। इसे अब दंगों में मारे जा रहे दूसरे धर्म के लोगों से कोई लेना-देना नहीं है। वह दंगाई की तरह ही आचरण करने लगा है। अब लोग उससे किसी प्रकार की सहायता या कानून की हिफाजत की कोई उम्मीद नहीं रखते हैं। दिल्ली पुलिस ने अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह से खो दी है। 'फैक्ट फाइंडिंग कमेटी’ की रिपोर्ट को गम्भीरता से पढऩे के बाद मेरी तरह आप भी इस बेहद डरावने निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं।’

दिल्ली पुलिस को लेकर निकाला गया यह निष्कर्ष बेहद डरावना है। पंकज चतुर्वेदी भी मानते हैं कि दंगाइयों एवं पुलिस में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। वे यह भी स्वीकार करते हैं कि पुलिस ने अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह से खो दी है। जब पुलिस, प्रशासन, न्यायपालिका, मीडिया सब के सब चुप्पी साध लें, या अपने दायित्वों से मुँह फेर लें तो प्रजातंत्र के इस विघटन पर एक नये सिरे से सोचने-विचारने की जरूरत है। यह महज एक घटना या दुर्घटना मात्र नहीं है, यह देश में मूल्यों एवं आदर्शों की मृत्यु की भी घोषणा है।

'फैक्ट फाइंडिंग कमेटी’ की इस रिपोर्ट में दिल्ली दंगे के पूर्व की पृष्ठभूमि को भी थोड़ा पीछे जाकर खंगालने की कोशिश की गई है। दिल्ली में फरवरी में हुए दंगे में इस पृष्ठभूमि की भूमिका को भी समझना अनिवार्य है। हमीरपुर के सांसद और मोदी सरकार में राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर 20 जनवरी 2020 को दिल्ली में एक चुनावी रैली को सम्बोधित करते हुए कार्यकत्र्ताओं से न केवल यह कहते हैं वरन् उन्हें इस वाक्य को दोहराने के लिए भी प्रेरित करते हैं। वाक्य था, 'देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को।’ यह आसान सा पर खतरनाक नारा है, जो देश के मुसलमानों के लिए गढ़ा गया एक साम्प्रदायिक नारा है।

भाजपा के अन्य सांसद परवेश वर्मा ने एक भीड़ को सम्बोधित करते हुए लोगों को उकसाने वाली एक आपत्तिजनक टिप्पणी की, 'अगर दिल्ली में भाजपा आती है तो ग्यारह तारीख के बाद मुझे एक महीना देना, मेरे लोकसभा क्षेत्र में जितनी भी मस्जिदें सरकारी जमीन पर बनी है, मैं उनमें से एक भी नहीं छोड़ूंगा।’ पर सरकारी जमीन पर बने मंदिरों पर वे चुप रहते हैं। यह सब लोगों को जानबूझकर उकसाने की उनकी साजिश थी।

दो फरवरी को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ शाहीनबाग पर निशाना साधते हुए कहते हैं: 'यह प्रदर्शन कुछ नहीं है, केवल मात्र कुछ लोगों के लिए 'अनुच्छेद 370’ के कुछ हिस्सों के विरूद्ध और अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के खिलाफ आपत्ति व्यक्त करने का तरीका है।’ आगे उन्होंने अपने भाषण में यह भी जोड़ा, 'जहाँ बोली काम नहीं करती, वहाँ गोली करती है।’

भाजपा के पूर्व विधायक कपिल मिश्रा के विवादास्पद भाषण को भी 'फैक्ट फाइंडिंग कमेटी’ की रिपोर्ट में दर्ज किया गया है। जिसमें उन्होंने पुलिस उपायुक्त के बगल में खड़े होकर न्याय और कानून व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाते हुए कहा था, 'ट्रम्प के भारत से जाने के बाद अगर तीन दिन तक सड़कें नहीं खोली गई तो हम पुलिस की भी नहीं सुनेंगे।’

योगी आदित्यनाथ से लेकर कपिल मिश्रा तक एक विशेष धर्म के खिलाफ जहर उगलते रहे। लेकिन पुलिस प्रशासन और स्वयं दिल्ली के आला नौकरशाह हाथ पर हाथ धरे तमाशा देखते रहे। यह सब देखकर या पढ़कर विश्वास नहीं होता कि हम एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के निवासी हैं, जहाँ पुलिस और कानून जैसी संस्थाएँ भी हैं तथा जिस राष्ट्र को स्वतंत्र हुए सत्तर से अधिक वर्ष हो चुके हैं।

भाजपा के इन नेताओं के भड़काऊ भाषण से दिल्ली में आग लगना तय था। एक धर्म विशेष को निशाना बनाकर उन्माद की पृष्ठभूमि निर्मित करने में वैसे भी भाजपा के नेताओं का काई सानी नहीं है। जब पुलिस, प्रशासन, कानून सब उनकी जेब में हो, तो वह और भी अधिक आसान हो जाता है। दिल्ली में ठीक ऐसा ही हुआ। पृष्ठभूमि तो निर्मित की जा चुकी थी। सो आग लगना ही था और इस आग में दिल्ली को जलना ही था।

'फैक्ट फाइंडिंग कमेटी’ की इस रिपोर्ट में जो दस्तावेज है, लोगों के बयान हैं, जो साक्ष्य हैं वे बेहद विचलित करने वाले हैं। भागीरथी विहार के एक युवा मुस्लिम महिला का बयान है: '25 फरवरी को कुछ लोगों की भीड़ घर के पीछे गेट को काटने के बाद इमारत में घुस गई। उन्होंने बिजली काट दी, सी.सी.टी.वी. कैमरों को तोड़ दिया। परिवार मदद के लिए गुहार लगाता रहा, लेकिन कोई नहीं आया। पुलिस को लगभग 100 बार फोन किया, लेकिन सब व्यर्थ था। दो दिन बाद 28 फरवरी को भाई का शव पास के नाले में मिला।’

भजनपुरा में मुसलमानों की 50 दुकानों को लूट लिया गया। मुस्तफाबाद में पुलिस ने मस्जिद में घुसकर नमाज अदा कर रहे लोगों से मारपीट शुरू कर दी। राहुल वर्मा और अरूण वैसोया जैसे कट्टर हिंदू समर्थकों ने नमाजियों पर गोली चलाई और मस्जिद के अंदर पेट्रोल बम फेंके। यह सब पढ़कर विश्वास नहीं होता कि हम एक स्वतंत्र तथा धर्म निरपेक्ष राष्ट्र के निवासी हैं। जिसकी महानता की बार-बार चर्चा की जाती है। जिसे विश्व गुरू के रूप में भी प्रचारित किया जाता है। हम कितने महान हैं? और किस तरह से विश्व गुरू हैं? इसकी सच्चाई को इस रिपोर्ट को पढऩे के बाद जाना जा सकता है।

दिल्ली दंगे के दरम्यान जिन मस्जिदों, मदरसों और कब्रिस्तान को दंगाइयों ने निशाना बनाया, उसकी एक सूची भी इस रिपोर्ट में संलग्न की गई है। जिसके अनुसार सोलह मस्जिदों, एक दरगाह, चार मदरसे तथा एक कब्रिस्तान को दंगाइयों ने अपना निशाना बनाया और तोड़-फोड़ की। इस रिपोर्ट में दंगों में मारे गए सभी मृत व्यक्तियों की सूची भी संलग्न की गई है। जिसके अनुसार इस दंगे में मारे जाने वाले लोगों की संख्या 55 है, जिसमें से 37 मुसलमान हैं। इसमें एक उम्रदराज मुस्लिम महिला अकबरी भी शामिल है जो 85 वर्ष की एक वृद्ध महिला थी। 100 लोगों की उन्मादी भीड़ ने उसके घर में आग लगा दी थी, जिससे अकबरी की मौत हो गई थी।

ये महज शाब्दिक आँकड़े भर नहीं हैं, ये हमारी तरह ही उन जिंदा लोगों के आँकड़े हैं जो साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए। धर्म का इतना घृणास्पद उदाहरण शायद पूरी पृथ्वी पर और कहीं देखने को नहीं मिलेगा। हम देश को कहाँ ले जा रहे हैं? इन साम्प्रदायिक दंगों से, इस अमानुषिक हत्याओं से किसका भला होगा? यह घृणा का खेल अपनी राजनैतिक सत्ता के विस्तार के लिए भाजपा और उसके आनुषंगिक संगठन द्वारा कब तक खेले जाते रहेंगे? कब तक इस देश की विशाल जनता खामोशी के साथ इस घिनौने खेल का हिस्सा बनती रहेगी? यह सवाल अगर अब नहीं पूछा गया तो फिर कब पूछा जायेगा?

अब जरा 'फैक्ट फाइंडिंग कमेटी’ द्वारा दिल्ली पुलिस को इस जाँच में मदद के लिए लिखे गए पत्र के सम्बंध में दिल्ली पुलिस की भूमिका को देखें। 'फैक्ट फाइंडिंग कमेटी’ ने इस सम्बंध में 18 मार्च को दिल्ली पुलिस को एक पत्र भेजा, जिसमें (1) 23 फरवरी 2020 के बाद बंदियों की सूची, (2) पुलिस स्टेशनवार एफ.आई. आर. की प्रतियाँ, (3) ऐसी शिकायतें जिन्हें एफ.आई.आर में परिवर्तित नहीं किया गया, की माँग की। लेकिन पुलिस ने इन तीनों प्रश्नों का लिखित या मौखिक जवाब देना उचित नहीं समझा। इन सबका उत्तर न मिलने के बाद 'फैक्ट फाइंडिंग कमेटी’ ने डी.सी.पी. उत्तर-पूर्व दिल्ली को एक ई-मेल भेजा, जिसकी प्रतिलिपि दिल्ली पुलिस आयुक्त को भी भेजी गई। इसमें कमेटी ने (1) यथाशीघ्र किसी सुविधाजनक तिथि पर मुलाकात का समय तथा (2) अब तक दायर किए गए आरोप पत्रों (चार्जशीट) की प्रतियाँ की माँग की। जाहिर है दिल्ली पुलिस के आला अधिकारियों ने इस सम्बंध में भी 'फैक्ट फाइंडिंग कमेटी’ को किसी तरह का कोई उत्तर देना जरूरी नहीं समझा।  यह कोई कम आश्चर्य की बात नहीं है कि दिल्ली सरकार के अधीन बनाई गई कमेटी पुलिस से सहयोग के लिए अपील करे और पुलिस उस अपील को रद्दी की टोकरी में फेंक दे। क्या पुलिस इतनी अधिक सर्वशक्तिमान हो गई है या फिर वह किसी राजनैतिक दल के इशारे पर यह सब कुछ कर रही है। 'फैक्ट फाइंडिंग कमेटी’ के अध्यक्ष एम.आर. शमशाद ने अपने प्राक्कथन में अमीर फज़ल बाश का एक शेर उद्धृत किया है:

उसी का शहर, वही मुद्दई वही मुंसिफ

हमें यकीन था, हमारा कसूर निकलेगा।

जब शहर भी उसी का हो, मुद्दई भी वही हो और मुंसिफ भी, तो यकीनन कसूरवार तो वहीं ठहराया जायेगा जो खुद पीडि़त होगा और शिकायत लेकर जायेगा। दिल्ली दंगे में ठीक यही हुआ। पुलिस, प्रशासन, सरकार, कानून इन सबके गठजोड़ से तो यही परिणाम निकलना था।

इस सबके बावजूद 'फैक्ट फाइंडिंग कमेटी’ ने दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग से कुछ सिफारिशें भी की हैं। जिसके अंतर्गत इस कमेटी को यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा है: 'सरकार हिंसा की आशंका का आंकलन करने में और उसे प्रभावी ढंग से रोकने में तथा लोगों की जान और माल की रक्षा करने के लिए आवश्यक कदम उठाने में असमर्थ रही है। पक्षपातरहित और जवाबदेह आश्वासन को पूर्ण करने के लिए अपेक्षित संवैधानिक आदेशों के उल्लंघन और ड्यूटी की घोर अवहेलना पर कड़ी कार्यवाही किया जाना जरूरी है।’

क्या केंद्र सरकार या राज्य सरकार 'फैक्ट फाइंडिंग कमेटी’ की रिपोर्ट को, उसके द्वारा दिए गए सुझावों को कभी पढऩा या समझना भी चाहेगी? दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग दिल्ली सरकार के अधीन है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार है। अरविंद केजरीवाल के बारे में लोगों का भ्रम टूट चुका है। सब जान चुके हैं कि वे भाजपा के साथ ताल में ताल मिलाकर चलने में यकीन रखने वाले नेता हैं। कुर्सी की ललक और उस पर बने रहने के लिए वे सारे राजनैतिक पैंतरे सीख चुके हैं। दक्षिण पंथ की ओर उनका झुकाव कोई नया नहीं हैं। साम्प्रदायिक दल और संगठन को लेकर उनके यहाँ पहले से ही एक गहरी चुप्पी है। इसलिए उनसे इस सम्बंध में किसी तरह की न्याय की कोई उम्मीद या पहल की आशा रखना व्यर्थ था।

जब कुछ वर्षों पूर्व कुछ बुद्धिजीवी यह कह रहे थे कि 'फासीवाद इस देश में प्रवेश कर चुका है और हम सब इस सच से पूरी तरह से गाफिल हैं।’ तब लोगों ने इसे गंभीरता से लेने की आवश्यकता नहीं समझी थी। हममें से से बहुतों को मुगालता था कि 'अच्छे दिन आयेंगे।’ मध्य वर्ग फूला नहीं समा रहा था। कॉर्पोरेट जगत साम्प्रदायिक दल का दामन थाम चुका था और पढ़े-लिखे होनहार युवाओं को एक विशेष धर्म से नफरत करना भी सिखाया जा चुका था। पूरे देश में धार्मिक उन्माद और मजहबी फिरकापरस्ती की पृष्ठभूमि लगभग तैयार की जा चुकी थी। ऐसे में दिल्ली दंगे ही इस देश की तकदीर में लिखे जाने थे। फासीवाद अगर यह नहीं है तो फिर फासीवाद क्या है? एक बार फिर से इस सच को समझने की जरूरत है।

'फैक्ट फाइंडिंग कमेटी’ की रिपोर्ट पर आधारित 'दिल्ली दंगों का सच’ इन सवालों को नए सिरे से उठाने का प्रयास करता है और हमारे सुन्न पड़ते जा रहे विवेक को एक बार फिर से झकझोरने की कोशिश करता है।

'फैक्ट फाइंडिंग कमेटी’ की इस महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक रिपोर्ट से हमारा साक्षात्कार करवाने के लिए सम्पादक पंकज चतुर्वेदी और इसे प्रकाशित करने के लिए लोकमित्र प्रकाशन साधुवाद के पात्र हैं। आज के हालात में इस रिपोर्ट का प्रकाशन एक जोखिम भरा कार्य था, पर पंकज चतुर्वेदी और लोकमित्र प्रकाशन ने यह जोखिम उठाते हुए दिल्ली दंगे के सच को हमारे सामने लाने का कार्य किया है। उनका यह प्रयास प्रशंसनीय है।

'दिल्ली दंगों का सच’ को जाने बिना हम न दिल्ली के दंगे को समझ सकते हैं और न ही भाजपा, आर.एस.एस., विश्व हिंदू परिषद्, बजरंग दल और 'आप’ जैसी पार्टी के चरित्र को ही पूरी तरह से जान सकते हैं। इस सच को जाने बिना हम आज के सच से भी पूरी तरह नावाकिफ रह जायेंगे और अपनी नागरिकता को संदेहास्पद बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।

 

 

 

कई बार प्रकाशित। रायपुर में निवास।

संपर्क : 6264768849, 9425202505

 


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