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जनवरी 2021

सूफियाना ठाठ में अवांछित घुसपैठ

सूरज पालीवाल

किताब

आईनासाज़-अनामिका                 

 

 

 

जिंदगी एक सूफ़ी सिलसिला इस तरह भी है कि

चिराग़ से चिराग़ रौशन होता है, मशाल से मशाल

 

'खुसरो एक पैदा हुआ, मध्यकालीन कहे जाने वाले उस सांवले हिंदुस्तान में जिसकी छतें इतनी ऊंची होती थीं कि हम बौनों की तिमंजिला बांबियां उनमें खड़ी हो जायें। यह उस खुसरो की आत्मकथा से रचा हुआ उपन्यास है जिसमें खुसरो की चेतना को जीने वाले आज के कुछ सूफी मन वालों की कहानी भी पिरो दी गई है।’

'खुसरो इस कथा में अपना वह सब बताते हैं जिस तक हम उनकी नातों, कव्वालियों और पहेलियों की ओट में नहीं पहुंच पाते-कि उनका एक परिवार था, एक बेटी थी, बेटे थे, पत्नी थी और थे निज़ाम पिया जिनकी निगाहों के साए तले उन्होंने वह सब सहा जो एक साथ, हुस्सास दिल अपने खून-सने वक्तों और बेलगाम सनकों से हासिल कर सकता था।’

ये टिप्पणियां उपन्यास के अंतिम कवर पृष्ठ पर टंकित हैं, जो एक प्रकार से उपन्यास के परिचय के लिये आवश्यक समझी गई हैं । लेकिन एक तीसरी टिप्पणी और है जिसे पढ़ा जाना उपन्यास को समझने के लिये बेहद जरूरी है-'और इसमें कहानी है सपना की, नफीस की, ललिता दी और सरोज की भी, जो आज के हत्यारे समय के सामने अपने दिल के आईने लिये खड़े हैं, लहूलुहान हो रहे हैं, पर हट नहीं रहे, जा नहीं रहे, क्योंकि वे उकताकर या हारकर अगर चले गये तो न पद्मिनियों के जौहर पर मौन रुदन करने वाला कोई होगा न इंसानियत को उसके क्षुद्रतर होते वजूद के लिये एक वृहत्तर विकल्प देने वाला।’ उपन्यास पढऩे से पहले और उपन्यास पढऩे के बाद मैंने इन टिप्पणियों केा विशेषतौर पर पढ़ा है और मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि तीसरी टिप्पणी में अनामिका जिस आत्मविश्वास से लबरेज होकर 'पद्मिनियों के मौन रुदन’ तथा इंसानियत को उसके क्षुद्रतर होते वजूद के लिये एक वृहत्तर विकल्प देने’ वाले पात्रों का सृजन करती हैं, वे उपन्यास को मूल कथा से भटकाते भी है और कमजोर भी करते हैं। मुझे लगता है कि खुसरो अपने आप में महत्वपूर्ण विषय है, उस पर जब-जब लिखा जायेगा, तब-तब वह खुसरो को जानने की प्यास और बढ़ायेगा। खुसरो अपनी तमाम तरह की कमजोरियों के बीच मजबूत पात्र हैं, इसलिये कि उसके पास एक अत्यंत मजबूत सूफी परंपरा है। अरब देशों से लेकर हिंदुस्तान में सैकड़ों वर्षों तक सूफियों ने अपनी अलग प्रकार की इबादत और त्याग के सूफियाने ठाठ से न केवल बादशाहों को बल्कि आम आदमी को भी प्रभावित किया था। वे हिंदू और मुसलमानों की एकता के मानक बनकर लोक में रहते थे इसलिये सूफी परंपरा के साथ खुसरो पर विस्तार से लिखना केवल अभी नहीं बल्कि आगे भी जरूरी काम बना रहेगा। उपन्यास लिखते समय अनामिका को सूफियाने ठाठ ने प्रभावित किया था, इसकी बानगी उपन्यास में कई जगह देखने को मिलती है लेकिन कई बार यह भी लगता है कि वे उसमें डूब नहीं पाईं हैं जबकि सूफी मत में मस्त कलंदर होना जरूरी है । कलंदर के आगे पीछे मुझे मस्त लगाना जरूरी नहीं लगा क्योंकि जो मस्त है वही कलंदर है, दुनियादार आदमी न मस्त हो सकता है और न कलंदर। खुसरो की कथा के कई अनछुए आयाम उपन्यास से गायब हैं इसलिये नफीस, सरोज, ललिता दी या सपना की प्रक्षिप्त कथा को अलग से खूंटी पर टांग दिया गया है, जिसकी आवश्यकता उपन्यास के कलेवर के हिसाब से बिल्कुल भी नहीं थी। ऐसा नहीं है कि अनामिका अपनी इस कमजोरी से परिचित नहीं हैं, हैं लेकिन वे मूलत: कवयित्री हैं इसलिये उपन्यास के कथ्य के साथ उपन्यास की भाषा को भी वे जहां भी मौका मिलता है, भावुकता में बहा ले जाती हैं। मुझे बार-बार यह लगता रहा है कि उनके पास उपन्यास की न कथा भाषा है और न यथार्थ की वह ठोस जमीन जिस पर उपन्यास की रचना होती है।

खुसरो हिंदवी के पहले कवि हैं, जिनकी भाषा में अपभ्रंश के बाद की खड़ी बोली हिंदी अपना रूप ग्रहण करती हुई साफ दिखाई देती है जबकि खुसरो के बाद कई सौ वर्षो तक कविता में ब्रज भाषा का जो आधिपत्य दिखाई देता है, उससे मुक्त होने में भारतेंदु भी झिझक रहे थे। अनामिका के यहां खुसरो की यह भाषाई देन मसनवियों के लेखन के दबाव मेंं उभर नही पाती है। खुसरो बार-बार मसनवी लिखने की मजबूरी बताते हैं और तर्क यह देते हैं कि 'हर बादशाह बाहरी-भीतरी जंग से तबाह है, मन उसका हहरा ही रहता है और दरबारियों से, खास कर शायरों और मसखरों से उसकी उम्मीद यह होती है कि वे उसकी शान में कसीदे पढ़ते हुये उसका ढुलमुल मनोबल उठाते रहें। खासी मशक्कत का काम है यह महरू, फूं सरक जाती है, आदमी अपनी निगाह में ही गिरने लगता है।’ खुसरो का यह संवाद अपनी बीवी महरुन्निसां से हो रहा है, जो खुद शायरा है और निज़ाम पिया उसे उतना ही चाहते ह,ैं जितना खुसरो को। खुसरो अपनी बातचीत में दो बातों का विशेषरूप से उल्लेख करते हैं, एक, शायर और मसखरे तथा दो, अपनी ही निगाह में गिरना। जब खुसरो सारी चीजों को समझ रहे थे तब उन्हें आठ-आठ बादशाहों के दरबार में रहने की क्या मजबूरी थी? जब उन्हें मालूम था कि बादशाहों के दरबार में शायरों और मसखरों की लगभग एक ही भूमिका होती है तब उनके अंदर के शायर ने उन्हें ललकारा क्यों नहीं और क्यों नहीं अपने स्वाभिमान को बचाये रखने के लिये दरबारों और दरबारी संस्कृति से अलग हो गये? वे बीवी को अपने बच्चों का तर्क देते हुये कहते हैं कि 'तुम्हारे बच्चे ऐयाश है, सबको खाने-पीने-पहनने का शौक है ... एक गिलास पानी भी हाथ से उठाकर नहीं पीते... एक-एक बंदा चार गुलाम लिये घूमता है, बच्चियों को भी तुमने सादगी से जीना नहीं सिखाया।’ ये ऐसे तर्क हैं जिनसे केवल अपने मन और जिम्मेदारियों का भार बीवी के ऊपर डाला जा सकता है। कई बार अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिये भी ऐसे तर्कों का सहारा लिया जाता है लेकिन एक जिम्मेदार पिता के रूप में खुसरो को भी अपने बच्चों और परिवार पर ध्यान देना चाहिये था। कई बार मन का लालच और यथाथिति में बने रहने के लिये तमाम तरह के समझौते किये जाते हैं। अपनी इस स्थिति के बारे में वे स्वयं कहते हैं 'औलिया के हुकुम से मैं दो साल हातिम खान के दरबार में अवध रहा, अम्मा के संरक्षण में महरू और बच्चे दिल्ली ही थे। बीच में अम्मा बीमार पड़ीं तो हातिम खान ने दो थाल सोने की अशर्फियों के साथ खुशी-खुशी मुझको रुखसत कर दिया। अभी दिल्ली आये दो दिन भी नहीं बीते थे कि इक्कीस वर्षीय शासक कई काबिद ने फरमान भेज दिया कि उसके पिता बुगरा खां पर मसनवी लिखूं। छ: महीने की अनवरत मेहनत से किसी-न-किसी तरह यह काम पूरा किया .. और उसके बाद तो, खैर, कई काबिद जिया ही कितने दिन! अगले युद्ध में उसके खेत आते ही तुर्क सल्तनत खत्म हो ली और जो नई खिलजी सल्तनत कायम हुई, उसका पहला सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी तो मेरा पुराना मुरीद था ही। अमीर लाचिन के कहने पर 1200 की तनख्वाह पर वह मुझे पहले भी अपना मुलाजिम रख चुका था। जब वह गद्दी पर बैठा, शाही कुरआन के संदेशवाचक पद पर उसने मुझे अपने दरबार में रखा और बड़ी शानो-शौकत से। म्फ्तिाहुल-फुतूह भी उसके शासनकाल की रचना है। इसके शासनकाल में मुश्किल की घड़ी मेरे लिये वह थी जब मेरे पुराने दोस्त मलिक छज्जू और हातिम खान ने मिलकर सुल्तान के खिलाफ  बगावत ठान ली और मुंह की खा गये। जिस दिन वे कुचले गये उस दिन जलालुद्दीन खिलजी की शान में कसीदे पढ़ते हुये मेरा मन बहुत रोया। रात-भर सो नहीं सका।’ यह दुखद प्रसंग खुसरो खुद सुना रहे हैं, जिसे सुनकर मन घृणा से भर जाता है। एक सामान्य आदमी भी इस प्रकार का काम करते हुये झिझकता पर खुसरो के अंदर वह झिझक नहीं है इसलिये वे क्रूर बादशाह की शान में कसीदे भी पढ़ते हैं और फिर मन के रोने और रात भर न सोने की बातें भी करते हैं। अनामिका तो स्वयं कवयित्री हैं, उन्हें इस दुखद प्रसंग पर टिप्पणी करनी चाहिये थी,उनका काम केवल सूचना देना भर नहीं था और न वे खुसरो की जीवनी लिख रही थीं। उनसे आशा थी कि वे इस प्रकार के करुण प्रसंगों पर खुसरो के साथ खड़ी न रहकर आम पाठक के साथ खड़ी दिखाई देतीं।

उपन्यास पढ़ते हुये एक प्रश्न मेरे मन में यह भी उठता रहा है कि अलाउद्दीन खिलजी की बीमारी की हालत में उनके अमीर मलिक नाइब के षड्यंत्र के तहत जब उनकी बेगम, बेटे और बहू को राजमहल से निकाला गया, तब भी खुसरो बादशाह को मलिक नाइब के षड्यंत्र के बारे में क्यों नहीं बताते, वे दरबारी कवि थे, हमेशा बादशाह के इशारे से काम करते थे इसलिये उनके प्रिय भी थे तब उनका कर्तव्य था कि वे अपने बीमार बादशाह को राजमहल में चल रहे षड्यंत्र के बारे में सारी जानकारी देते। लेकिन ऐसे मौकों पर अपने भविष्य के खतरों को देखकर खुसरो चुप रहते हैं, यह मध्यवर्ग की शातिराना चुप्पी हो सकती है पर एक शायर की चुप्पी तो कतई नहीं हैं । खुसरो सिर्फ यह सूचना देकर चुप हो जाते हैं कि 'मुश्किल की बात यह कि यह सब मेरी आंखों के आगे घटा।’ यही नहीं राजमहल से निकाले जाते समय 'मलिकाएजहान ने पालकी में बैठे-बैठे ही एक खत लिखा और अंदर मेरे हाथ ही भिजवाया। यह तो मैं नहीं जानता, उस खत का मज़मून क्या था, पर सुल्तान खिलजी की आंखें गीली हो गईं।’ राजमहलों में तमाम तरह के षड्यंत्र चलते रहते हैं जो केवल सत्ता और सत्ता से सुविधाएं पाने के लिये होते हैं पर शायरों का काम आंखें बंदकर उन षड्यंत्रों को देखना भर नहीं होता। लेकिन खुसरो इस प्रकार के षड्यंत्रों को हर दरबार में देखते रहे और यह तर्क देते रहे 'यहां हिंदुओं में एक मान्यता है लीला की । जीवन को तमाशा मानकर देखते रहो, तमाशे में शामिल भी हो तो अपनी खुदी के तमाशबीन हो जाओ। एक खेल की तरह ऊपर वाले ने यह जीवन रचा है-उसे खेलो, पर होश बना रहे कि सब खेल है, एक आनी-जानी माया।’ यह दर्शन की बातें हैं जो सुनने में अच्छी लग सकती हैं, जिन्हें अनमिका खुसरो के पक्ष में लिखती हैं लेकिन वास्तव में यह जिम्मेदार व्यक्ति को सामाजिक दायित्वों से काटने के तर्क हैं। जब सब कुछ माया है तो फिर दरबार के अन्याय और अत्याचार को सहन करने की कौन-सी मजबूरी है? जो लोग यह मानते हैं कि जीवन एक खेल की तरह है और इसकी हार-जीत का रचयिता ईश्वर है तो फिर अपने व्यक्तिगत लाभ-लोभ के लिये समझौते क्यों हैं? खुसरो कितना ही दर्शन की बात करें लेकिन यह तो सच है कि उन्होंने क्रूर बादशाहों को खुश करने के लिये उनकी प्रशंसा में मसनवियां लिखीं। भारतीय दर्शन दुनिया में पाने की अपेक्षा त्याग को अधिक महत्व देता है पर यह कहने में मुझे कोई ऐतराज नहीं है कि खुसरो की जिंदगी में त्याग के अवसर बहुत कम देखने को मिलते हैं। कहना न होगा कि उपन्यासकार के पास ऐसे कई अवसर होते हैं जिनमें वह अपनी सुविधानुसार अपने मंतव्य को प्रगट कर सकता है पर अनामिका ऐसा नहीं करतीं। हो सकता है उन्हें खुसरो का यह जीवन-दर्शन अच्छा लगता हो या हो सकता है वे इस प्रकार के प्रश्नों पर चुप्पी साधना जरूरी समझती हों।

खुसरो की वसीयत को पढऩा दिलचस्प है। दिलचस्प इसलिये भी है कि जो आरोप अभी तक उन पर लगते आये हैं, उनका जवाब इस वसीयत में  दिया गया है। वसीयत अपने बच्चों के नाम संबोधित है 'बच्चो, मेरे बच्चो! मुझे देखो। मेरे आराम का वक़्त करीब है। इकहत्तर बरस में कई हुक्मरान देखे । पांच सुल्तानों की दरबारी की । किसी की रोटी का टुकड़ा नहीं तोड़ा। किसी के पानी से हाथ नहीं धोया, जब तक कि एड़ी का लहू मेरे माथे को नहीं चढ़ गया। घोड़े की पीठ और लश्करों पर शायरी की । दास्ताने लिखीं-दुखिया दिलों की दास्तानें... फिर भी क्या ज़िंदगी थी मेरी: अपने जैसे एक आदमी के सामने कमर पर पटका बांध अदब से खड़ा होना, झूठ-सच मिलाकर उसे खुश करना, तारीफों के पुल बांधना। मेरे बच्चो, तुम यह न करना। मेहनत और हुनर की रोटी खाना-मेहनत की, कुव्वतेबाजू की रोटी । किसी अमीर, किसी शाह, किसी सुल्तान, हाकिम-हुकूमत को खुश रखने के पीछे  उम्रे अज़ीज़ न बिताना। इसके एवज में कुछ पाकर भी खुशी नहीं होती, और जो कुछ मिलता है वह ठहरता नहीं।’ खुसरो की इस वसीयत को पढ़कर थोड़ी देर के लिये मन में उनके प्रति सहानुभूति उपजती है। लेकिन फिर लगता है यह 'गोदान’ के राय साहब जैसा तर्क है कि वे सब इसलिये करते हैं कि बड़े लोगों में अपना सम्मान बचाकर रखना है। सुविधा और अधिकारपूर्ण जीवन जीने की इच्छा ही इस प्रकार के समझौतों के लिये विवश करती है, जिसका जिक्र राय साहब भी करते हैं और खुसरो भी। राय साहब को भी पता था कि जिस दिन किसानों की माली हालत देखकर उन पर तरस खाने लगेंगे, उस दिन से उनका पतन शुरू हो जायेगा और खुसरो को भी पता था कि जिस दिन से वे बादशाहों के अत्याचारों का विरोध करने लगेंगे, उस दिन के बाद उनका दरबार में बने रहना संभव नहीं हो पायेगा। सत्ता चाहे छोटी हो या बड़ी, वह जिस पर कृपा करती है उसकी आंखें बंद करा देती है। सत्ता नहीं चाहती कि उनका कृपापात्र खुली आंखों से उनके अत्याचारों को देखे और उन्हें रेखांकित करे। इसलिये दरबारी लोगों की अपनी संस्कृति होती है, जिसे बचाये रखने के क्रम में वे दरबार के जड़-खरीद गुलाम हो जाते हैं। मुझे बार-बार यह लगता है कि अनामिका खुसरो की जीवनी नहीं लिख रही थीं, वे उपन्यास लिख रही थीं और उपन्यास में यह छूट होती है कि वे अनुमान के आधार पर खुसरो की मानसिक अवस्था के विभिन्न पड़ावों के बारे में बतातीं। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि खुसरो ने अपने सामने होते क्रूर निर्णयों की अनदेखी कर बादशाहों को खुश रखने के लिये उनकी झूठी तारीफें कीं, मसनवियां लिखीं पर यह भी सच है कि वे अपने समय के हिंदवी और फारसी के बड़े शायर थे इसलिये जरूरी था कि उनके अंतद्र्वंद्व भी बताये जाते । अनामिका खुसरो की कमजोरियों को बताते हुये उनके पक्ष में खड़ी दिखाई देती हैं या कुछ ऐसा रचती हैं, जैसे खुसरो न चाहते हुये भी दरबार से अलग नहीं हो पा रहे थे 'मुझ जैसा मिसकीन, हाजतमंद, बेसरो-सामान खौलती हुई देगची की तरह तप रहा है। रात से सुबह तक, सुबह से शाम तक कुंठाओं और पीड़ाओं से घिरा हुआ होने के कारण चैन नहीं पाता। स्वार्थ के हाथों यह ज़िल्लत उठाता हूं कि अपने-जैसे एक आदमी के सामने अदब से खड़ा रहना पड़ता है जब तक पांव से सिर को खून नहीं चढ़ जाता।’ एक शायर के लिये इस आत्मस्वीकृति के अर्थ क्या हो सकते हैं, इसे कहने की जरूरत नहीं है ।

अनामिका ने खुसरो और चित्तौडग़ढ़ की महारानी पद्मिनी के बीच जो प्रेम का आकर्षण दिखलाया है, वह न तो ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है और न ही लोक कथाओं में उसका कोई ज़िक्र मिलता है। पद्मिनी अपने आप में काल्पनिक चरित्र है, जिसकी रचना मलिक मोहम्मद जायसी ने 'पद्मावत’ में की है। खिलजी वंश पर सबसे अधिक प्रामाणिक शोध इतिहासकार किशोरी शरण लाल ने किया है, जिन्होंने अपनी प्रसिध्द पुस्तक 'खिलजीज का इतिहास’ में  'पद्मिनी’ नामक किसी भी महारानी का कोई जि़क्र तक नहीं किया है। 'पद्मिनी’ एक मिथ है तथा भारतीय काव्यशास्त्र में नायिकाओं का एक प्रकार है, जिसे 'पद्मावत’ की लोकप्रियता ने लोगों के बीच वास्तविक जैसा बना दिया है। यदि यह सच होता तो अमीर खुसरो 'तारीख-ए-अलाई’ या 'खजाइन-उल-फुतूह’ में इसका उल्लेख अवश्य करते । जबकि अनामिका दोनों के बीच न केवल आकर्षण दिखा रही हैं अपितु प्रेम के मजबूत धागे के बंधन को भी बता रही हैं, जिसे उनके उस्ताद औलिया भी जानते थे। अनामिका खुसरो की मानसिकता का चित्रण करते हुये लिखती हैं 'इन दिनों तो महरू भी मुझसे नाराज़ ही रहती है । खास कर जब से पद्मिनी वाला हादसा घटा है, उसकी आंखें बदल गई हैं। उसे ऐसा लगता है कि अब मैं उसका नहीं रहा। जैसे बादशाह का राजपाट दो टुकड़ों में बंट जाये तो वह किसी करवट चैन नहीं पाता, औरत का मन भी लोटन कबूतर हो जाता है-अगर कहीं हलका भी एहसास हो जाये कि उसके शौहर, उसके महबूब के मन में किसी और की खुशबू चुपके से आन बसी है । अब मैं इसका क्या करूं कि वह खुशबू छुपाये नहीं छुपती? पद्मिनी तो पूरा कमल-ताल थी। हिंदू जनेऊ पहनते हैं न, मेरी अंतडिय़ां खुद जनेऊ हो जाने के एहसास से भर गई हैं और इस जनेऊ के पोर-पोर में गुरुमंतर-सा पद्मिनी के होने-न-होने के बीच का घनेरा एहसास बस गया है। मेरा बस चले तो मैं खुद महरू से पर्दा कर लूं। मैं खुद उसकी आंखों का सामना नहीं कर पाता जब से पद्मिनी नाम की मीठी धुन मेरी सांसों में बसी है और सबसे मुश्किल बात यह है कि एक छलांग में जैसे हिरनी दलदल लांघ लेती है, वह जीवन लांघ गई-वह भी मेरी गलती से! उसका खतावार होने का एहसास मुझे उसके और भी करीब किये जाता है। ऐसा लगता है इसी देह के पिंजरे में अब दो पंछी रहते हैं-मैं और वो।’ अनामिका यह भी लिखती हैं 'इसीलिये तो सबसे मैं मुंह छुपाता चलता हूं-निज़ाम पिया के सिवा मेरी यह उलझन कोई समझ नहीं पाता और कभी-कभी तो यह भी कुफ्र हो जाता है मुझसे कि टकटकी बांधे देखता तो हूं निज़ाम पिया को लेकिन उनकी सूरत में भी मुझको पद्मिनी की सूरत नज़र आती है, बार-बार कानों में उसकी आवाज जलतरंग की तरह बज उठती है: आप पर मुझको भरोसा है-खुद से भी ज्यादा भरोसा। खिलजी आपकी बात का मान रखे-न-रखे, यह पद्मिनी आपकी बात का मान रखेगी। बस, एक शर्त है मेरी कि उसके एकदम सामने मैं नहीं पड़ूंगी। वह सामने की दीवार के आईने में मेरी एक झलक ले ले और अपने घोड़ों का रुख इस मुल्क से बाहर की ओर करे । रत्नसेन को तुरत आज़ाद कर दे। सारा धन ले ले पर मेरा रतन मुझको दे दे ।’

खुसरो की जिस मानसिकता को अनामिका प्रेम में डूबी भाषा में लिख रही हैं, वह यदि सच होती तो क्या उनके आश्रयदाता अलाउद्दीन खिलजी इसे स्वीकार कर पाते? 'पद्मावत’ में जिस पद्मिनी को पाने के लिये अलाउद्दीन कई वर्ष तक चित्तौडग़ढ़ के किले की घेराबंदी किये रहा, उस पद्मिनी को उसका दरबारी खुसरो कैसे चाह सकता था?  यह सच है कि चित्तौडग़ढ़ की लड़ाई के समय खुसरो अपने आश्रयदाता अलाउद्दीन खिलजी के साथ गये थे पर यह भी उतना ही सच है कि वहां न कोई रानी पद्मिनी थी और न वह खुसरो से प्रेम ही करती थी । अनामिका ने उन दोनों के प्रेम का ऐसा वितान बुना है जिसे खुसरो के उस्ताद, उनकी पत्नी और बेटी तक जानती हैं । कहना न होगा कि 'पद्मावत’ फिल्म के बनने की प्रक्रिया से लेकर उसे सिनेमा घरों में दिखाये जाने तक राजपूतों के द्वारा जिस प्रकार का विरोध किया गया था, वह अब केवल दंत कथाओं में सिमटकर रह गया है । सवाल यह है कि किसी भी ऐतिहासिक पात्र पर लिखते समय उसके हाव-भाव और उसकी अभिव्यक्ति की व्यंजना को लेखक अपनी तरह से लिख सकता है लेकिन किसी ऐसे पात्र का सृजन करना उसके बस में नहीं है, जो इतिहास में है ही नहीं। अलाउद्दीन खिलजी और खुसरो ऐतिहासिक पात्र हैं, चित्तौडग़ढ़ विजय भी ऐतिहासिक है पर यह भी इतिहास में लिखा गया है कि रत्नसिंह एक वर्ष से भी कम समय तक राजा रहे थे जबकि जायसी उनके शासन काल को कई वर्षों का दिखाते हैं। कहना न होगा कि 'पद्मावत’ को पढ़ते हुये पाठक इतिहास से उसकी प्रामाणिकता का मिलान नहीं करता क्योंकि वह सूफी परंपरा का निर्वाह करते हुये रूपक काव्य की तरह लिखा गया है लेकिन इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में लिखे गये उपन्यास से हम उम्मीद करते हैं कि उसमें इतिहास और मिथ का अंतर साफ-साफ  दिखाई दे ।

अनामिका ने 'बाणभट्ट की आत्मकथा’ की तरह दीदी का रहस्य बुना है कि खुसरो की यह कथा ललिता चतुर्वेदी के पिता ने लिखी थी 'दाता कंबलशाह के मज़ार की सीढिय़ों पर बैठकर मेरे बैरागी पिता ने यह उपन्यासिका तब लिखी थी जब विभाजन के बाद का पहला भयंकर दंगा 1969 में घटा। वह भी गांधी के गुजरात में। हिंदू-मुस्लिम तनाव का धुआं बहुत दिन आकाश धूमिल किये रहा-उस समय सूफियों की याद आनी ही थी। मुजफ्फरपुर के किसी अनामगोत्र प्रकाशन ने इसे छापा था। पढ़कर देखना-उस वक़्त की समझ के लिये जब सिल्करूट पर गाते-नाचते हुये सूफी वहां आये थे औेर यहां के भक्त कवियों से उनका समागम हुआ था-सांस्कृतिक संवाद की यह पहली पहल थी।’ ललिता चतुर्वेदी ने सपना को पत्र लिखकर यह सब सूचित किया था, जो 'आईना साज़’ उपन्यास का आधा हिस्सा है। उपन्यास में खुसरो की छोटी बेटी कायनात का बहुत उल्लेख किया गया है, जो सूफी परंपरा की शायरा थी। इसके बारे में वरिष्ठ साहित्यकार श्यामा जी से पूछा गया कि 'क्या खुसरो के सचमुच ही कोई ऐसी बेटी थी? क्या उसके साथ ऐसी कोई दुर्घटना सचमुच घटी थी? अगर उसे सचमुच ही इलहाम हुआ था तो सूफी फकीरों में उसकी गणना क्यों नहीं होती? क्या यह कोई काल्पनिक किरदार है? या ऐसा कुछ हुआ कि उसकी तथाकथित बदनामियों के साथ उसकी नेकनामियां भी सावधानी से पोंछकर मिटा दी गईं?’ श्यामा जी उत्तर देते हुये कहती हैं 'ललिता चतुर्वेदी के पिता मेरे अच्छे परिचित थे। बेटी के निजी जीवन की तकलीफें संवेदनशील पिता को जैसे बेमौत मार सकती हैं, इनको भी मार गईं। खुसरो की बेटी कायनात के किरदार में ललिता के अपने जीवन की तकलीफों की परछाईं रूप बदलकर आ गई हों, यह भी संभव है। लेखन विरेचन भी तो है न।’ कहना न होगा कि खुसरो के तीन बेटों और दो बेटियों में कायनात सबसे छोटी और सबसे प्यारी बेटी थी, जो न केवल खुसरो की मुंहलगी थी अपितु खुसरो की सूफी परंपरा को डूबकर जीने वाली बेटी थी। खुसरो यह मानते थे कि उसका रूप-रंग और चाल-ढाल और ज़िंदगी का फलसफा इतना नायाब है कि उसे देखकर उन्हें अपनी मां की याद आ जाती थी, जो आजीवन खुसरो के हर निर्णय में उनके साथ रहीं। खुसरो के यहां जिस प्रकार की गंगा-जमुनी तहज़ीब देखने को मिलती है, उसके मूल मेंं उनकी मां और नाना का विशेष प्रभाव है 'सिर्फ  सात साल के थे खुसरो, जब उनके पिता मंगोलों से युद्ध में खेत आये और उसके बाद उनके नाना आगे की शिक्षा-दीक्षा के लिये बेटी का पूरा परिवार दिल्ली ही ले आये। चूंकि वे नवमुस्लिम थे, उनके घर में हिंदू रिवाजों की छांह बनी हुई थी। यहीं से खुसरो में गंगा-जमुनी तहज़ीब की नींव पड़ी। नाना दिल्ली के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा में कोई कोर-कसर न रखी गई। वहां रहते हुये उन्हें अपने समय के बहुतेरे बुद्धिजीवियों और फकीरों का साथ तो मिला ही, शासकों के दरबारों में भी अच्छी पैठ मिली।’

प्रत्येक पिता की तरह खुसरो को भी अपने बच्चों से विशेष स्नेह था लेकिन कायनात पर तो वे जान छिड़कते थे इसलिये यह भी चाहते थे कि उसकी परवरिश अलग प्रकार से हो । उन्हें पता था कि कायनात शायरी करती है और ईरान से आये चार जवान सूफी शायरों में से एक शाहिद से प्रेम भी करती है लेकिन बेटियों के भविष्य को लेकर हर पिता अलग प्रकार से सोचता है, खुसरो भी एक पिता थे इसलिये वे भी अलग प्रकार से सोचते थे। सूफी दर्शन में जिसे इशारा कहते हैं वह इशारा कायनात को मिल गया था और कायनात ने उस इशारे से अपनी मां और पिता को सूचित भी कर दिया था। अनामिका ने कायनात के शब्दों में ही इसे कहलवाया है 'अब्बू-अम्मा से तरह-तरह की दास्तानें सुनती बड़ी हुई मैं। दास्तानें ही हमारा पालना थीं, शायरी हमारा ओढऩा-बिछौना, पर जिंदगी के इस पहर में ईरान के सूफियाना कलाम और किस्से मेरे वजूद पर दस्तक देने ऐसे बेखटके चले आये हैं, जैसे बसंत की बयार। उनका असर कुछ ऐसा है कि लगता है मैं किसी गहरी गुफा की कोख से अभी-अभी बाहर आई हूं। नहीं जानती शाहिद से मेरा क्या रिश्ता है। शायद वही जो नमरूद से शाहिद का। शाहिद कहते हैं कि हर रूह एक पंख की चिडिय़ा है। जोड़े का पंख जिस दूसरी रूह के पास होता है, वह जब अल्ला के करम से कभी रूबरू हो गई तो दोनों पंख जोड़े साथ-साथ उड़ सकती है, वरना ज़मीन पर एक पंख से घायल पड़े रहना, तड़पना ही जि़ंदगी का हासिल रह जाता है। जब से खुद पर बीती है अच्छी तरह समझ में आ गया है कि अब्बू का रानी पद्मिनी से या शम्सुल फकीर का अम्मी से क्या रिश्ता बना होगा। और मेरे दिल की सब शिकायतें धुल-सी गईं हैं।’ कहना न होगा कि खुसरो का पद्मिनी से, महरू का शम्सुल फकीर से और कायनात का शाहिद से जो सूफियाना रिश्ता है, उसकी पुष्टि या पुनरावृत्ति अलग-अलग अवसरों पर उपन्यास में की गई है। इसके द्वारा अनामिका यह बताना चाहती हैं कि इस प्रकार के रिश्ते रूहानी रिश्ते हुआ करते हैं, दुनियादार लोग इन रिश्तों के बारे में अफवाहें उड़ा सकते हैं, बदनामी के लिये उनमें अपनी कुंठाएं ढूंढ़ सकते हैं पर रिश्तों की गहराई में पहुंच पाने की कुब्बत हरेक में नहीं होती। इसलिये शम्सुल कहते हैं 'मेरा और मेहरू का रूहानी नाता या शाहिद और कायनात का रूहानी रिश्ता या खुसरो और पद्मिनी के बीच के भरोसे का रिश्ता जब तलक इस जहां में दुनियावी मकसद का रिश्ता समझा जायेगा, इस दुनिया को अमन-ओ-चैन नसीब नहीं होने का। यों ही लड़ाइयां मचती रहेंगी, बेमतलब खून-खराबा होगा। और कोई लगातार चलकर भी कहीं नहीं पहुंचेगा।’

'आईनासाज़’ उपन्यास के आधे हिस्से में अनामिका ने खुसरो की कहानी को कुछ इतिहास और कुछ अपनी तरह से कहा है इसलिये पाठक की सहमति-असहमति लगातार बनी रहती है। सूफी रोने-गाने और कलंदर बने रहने में यकीन करते हैं, इसे उपन्यास में अलग-अलग स्थितियों में प्रगट किया गया है लेकिन मैं फिर से यह कहना चाहता हूं कि यदि खुसरो दरबारों के क्रूर निर्णयों के दृष्टा न बने रहते तो बड़े शायर के साथ औलिया के बड़े शागिर्द भी होते। कहना न होगा कि उपन्यास में खुसरो की कथा के साथ हज़रत निजामुद्दीन औलिया की कथा साथ-साथ चलती है। खुसरो ने औलिया की मृत्यु की खबर सुनते ही कपड़े फाड़ लिये थे, चेहरे पर राख मल ली थी और पागलों की तरह उनकी मज़ार पर रोते हुये माथा धुनते रहते थे। यह प्रसंग केवल एक उस्ताद और शागिर्द का प्रसंग भर नहीं है बल्कि इससे कहीं अधिक है। इसको अनामिका ने जल्दबाजी में खत्म कर दिया है जबकि खुसरो के जीवन की अंतिम अवस्था और औलिया के प्रति उनके सम्मान को देखते हुये, इसे ठहरकर लिखना चाहिये था। खुसरो की यह तस्वीर उनके पूरे जीवन से अलग है, जो रंगीन नहीं है लेकिन धूसर जीवन और उसकी तस्वीर का अपना अलग महत्व होता है।  

उपन्यास के बाद के आधे हिस्से में वे सूफियों की परंपरा को अपने वर्तमान में देखने के लिये डॉ. नफीस, सपना, शक्तिदा, सिद्धू, महिमा, श्यामा दी, ललिता चतुर्वेदी तथा सरोज को जीते-जागते पात्रों के रूप में खड़ा करती हैं और यह बताती हैं कि डॉ. नफीस और सिद्धू के रूप में आज भी इस प्रकार के लोग मौजूद हैं जो दुनिया में रहकर लोगों के सुख-दुख में उनके साथ खड़े हैं। यह बात सही है कि डॉ. नफीस और सिद्धू जैसे लोग कम बचे हैं लेकिन अच्छे और बुरे दोनों के होने से ही दुनिया बनी है इसलिये दुनिया को देखने के लिये तुलनात्मक अध्ययन कभी सफल नहीं होते । उपन्यास के खंड-2  को 'बैक गियर’ शीर्षक दिया गया है इसलिये शीर्षक से ही स्पष्ट है कि सीधे चलती गाड़ी को वे पीछे ले जाना चाहती हैं। लेकिन पीछे ले जाने के कोई तर्क नहीं हैं-ऐतिहासिक पात्रों की तुलना गढ़े हुये पात्रों से नहीं की जा सकती। कहना न होगा कि इस खंड के सारे पात्र अपनों के द्वारा सताये गये हैं, जो बाद का जीवन सूफियाना ढंग से गुजारते हैं। ललिता चतुर्वेदी का दुख उनके पति अजय चौधरी के कारण है, सरोज के दुख के मूल में उनके सांसद हैं, जिनके यहां वे रही थीं और दोनों ने एक दूसरे का भरपूर उपयोग किया था, सपना पिता की मृत्यु के बाद अनचाहे ड्रग और देह शोषण के धंधों में धकेल दी जाती हैं। महिमा और उनके बड़े भाई शक्तिदा अपनी ननिहाल की विरासत को जीते हुये अलग प्रकार की ज़िंदगी जीते हैं तो डॉ. नफीस अपने पूरे अस्पताल को समाज के लिये समर्पित कर देते हैं। मुझे लगता है कि यदि इस प्रकार के पात्रों को यथार्थ के धरातल पर रचा जाता तो उपन्यास रोचक भी होता और हमारे अंधेरे समय में रोशनी का काम भी करता लेकिन पूरे उपन्यास को एक साथ पढ़ते हुये खंड 1 और खंड 2 में जो मूलभूत अंतर दिखाई देता है, पाठक उससे आंखें बंद नहीं कर सकता। निजामुद्दीन औलिया और खुसरो का समय भारी उथल-पुथल का था, सीमा पार से लगातार कबीले आते रहे और एक दूसरे पर आक्रमण कर सत्ता पाते रहे लेकिन उस सत्ता संघर्ष के अमानवीय समय में भी औलिया ने मानवीयता की अखंड लौ जलाये रखी इसलिये उनसे किसी नफीस और सिद्धू की तुलना नहीं हो सकती। उपन्यास की एक कमजोरी यह भी है कि जहां मौका मिलता है अनामिका सूफी दर्शन के सैध्दांतिक पक्षों की व्याख्या करने लगती हैं। ज़ाहिर है कि यह किसी पात्र के माध्यम से ही होता है लेकिन वह पात्र उस दर्शन के सामने बौना दिखाई देता है। अनामिका ने कोशिश की है कि वे उन पात्रों को उनके अपने जीवन से बड़ा दिखा सकें लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका है। उपन्यास के अंतिम पृष्ठ पर उन्होंने लिखा 'जैसे मस्त कलंदर नहीं बीता, जैसे बोली-बानियों, कहावतों और ग्रंथों में सुरक्षित प्रीत और अमन के पैगाम नहीं बीतते-तुम भी नहीं बीते सिद्धू और बीतने की हिम्मत भी न करना। हमेशा बने रहना मन में-एक सुखद, सूफी एहसास की तरह। ज़िंदगी एक सूफी सिलसिला इस तरह भी है कि चिराग से चिराग रोशन होता है, मशाल से मशाल । एक बात और। अंतर्जगत में कोई किसी की जगह नहीं लेता। अंतरिक्ष में हर सितारे की अलग ही जगह है। अगर मन अंतरिक्ष की तरह विराट और उसी तरह फना हो ले तो हर सितारा अपनी अनूठी दमक में सुरक्षित रहेगा-किसी को किसी की जगह छीनने की जरूरत ही क्यों होगी? है न?’ यह सपना की चिट्ठी है जो 'मेरी प्यारी-सी महिमा और सिद्धू, मेरे प्यारे अमीर खुसरो’ को लिखी गई है। निश्चित ही यह चिट्ठी आश्वस्त करती है कि सूफी सिलसिला हमेशा चलता रहेगा, पर समय के साथ उसका प्रभाव कम और ज्यादा होता रहेगा।

अमीर खुसरो की अपनी कमजोरियों के साथ इतिहास और मिथ के घालमेल से रचा यह उपन्यास नफीस और सिध्दू के माध्यम से यह प्रभाव छोड़ता है कि दुनिया कितनी ही बदल जाये, स्वार्थों का नगाढ़ा कितना ही जोर से बजता रहे पर इसी दुनिया के किसी कोने में कोई एक व्यक्ति हमेशा जीवित रहेगा जो सूफियाना ढंग से जीवन जीने और समाज को बदलने का संदेश देता रहेगा। इस महामारी के दौर में, जब घरों में बंद व्यक्ति सामाजिकता से परहेज कर नितांत व्यक्तिगत और मानसिक तौर पर अस्वस्थ होता जा रहा है, तब यह उपन्यास मनुष्य के सामाजिक बने रहने और चेतना के स्तर पर स्वस्थ एवं सक्रिय रहने का आह्वान करता है।

 

 

सम्पर्क: वर्धा, मो. 9421101128, 8668898600

 


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