आत्मा रंजन की कविताएं
आत्मा रंजन
कविता
बहुत कुछ कर रहे हैं स्मार्ट लोग
बहुत कुछ कर रहे हैं स्मार्ट लोग राजनीति, फिल्मों, खेलों से लेकर धर्म और अर्थ जगत तक में मचाए हुए हैं धमाल नगरों महानगरों में ही नहीं दूर गाँव देहात तक में खूब हो रही हलचल सज रहे हैं मंच, तोरण द्वार बिछ रहे कालीन स्मार्ट लोगों के सफलता किस्सों से भरे पड़े हैं अखबारी पन्ने चैनेल लगातार गा रहे उनके चारण गीत कैमरे भागे जा रहे उनके साथ-साथ
स्मार्ट लोग खूब कर रहे सामाजिक कार्य अपनी ब्रांडेड झक सफेद कमीज़ों में लगातार जा रहे मलिन बस्तियों में बराबर चल रहा समाज सुधार बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ का खूब लगा रहे नारा स्त्री अधिकारों पर कर रहे सेमिनार किसान-मज़दूरों पर कितनी ही लिख रहे कविताएं
खूब कर रहे धर्म-कर्म के काम बना रहे मंदिर-मस्जिद मंदिर-मस्जिदों में चढ़ा रहे सोना चांदी लगा रहे लंगर भिखारियों को खुले मन दे रहे भीख अनाथालयों में बाँट रहे मिठाइयां खूब-खूब दे रहे दान-अनुदान और-और खुल रहे अनाथालय और-और खुल रहे वृद्धाश्रम
स्मार्ट लोग फेसबुक ट्विटर पर भी कर रहे बड़े-बड़े काम खूब दे रहे फतवे फैसले विरोधियों को कर रहे धराशाई कोस रहे उस सब के लिए बिना शर्म और बेझिझक जो सब कुछ खुद भी करते हैं वे खूब-खूब!
पर्दे पर, जश्नों-महफिलों में बने-ठने स्मार्ट लोग गा रहे प्रेमगीत रेडियो टीवी पर, घर-बाजारों में हर तरफ गूंज रहे प्रेम गीत प्रेम से भर गई हो जैसे सारी पृथ्वी
कह भी तो रहे बार-बार स्मार्ट लोग राजनीति में आए ही हैं वे समाज सेवा के लिए स्मार्ट पोशाकों महंगे धूप चश्मों के साथ उतर आए हैं झाड़ू लेकर सड़कों पर चला रहे स्वच्छ भारत अभियान पूरे मेकअप के साथ हेलीकाप्टर से सीधे उतर रहे खेतों में किसानों संग काट रहे गेहूं लाईव कैमरे में गुफा में बैठ कर रहे तपस्या खूब सजधज में योग दिवस पर कर रहे योग प्राणायाम कैमरे की निगरानी में कर रहे पौधा रोपण सबसे दयनीय किसी दलित के घर खाना खाने जैसा रच रहे मीडिया इवेंट धूप चश्मों में निकल रहे कैंडल मार्च कर रहे अनशन, धरना, आंदोलन दे रहे ज्ञापन
कैसे कह रहे हैं आप कि इतने बरसों से कुछ नहीं हो रहा इस देश में जबकि स्मार्ट लोग ला रहे हैं राम राज्य स्माट लोग क्रांति कर रहे हैं!
मैं सुन रहा हूं अयोध्या के साधु मानस दास की ग़ज़लें
ठीस उस समय जब जिरह के सर्वोच्च शिखर पर गरज गूंज रहा पुरज़ोर सबसे बड़ा मन्दिर मस्जिद विवाद सर्वोच्च अदालत के हज़ारों पृष्ठों पर दर्ज़ फैसले को हार जीत के खूनी खेल में बदलने पर उतारू राजनीतिक स्वार्थ, साज़िशें और रंजिशें ज़हर उगलते टीवी चैनल धर्म, न्याय और लोकतंत्र के चेहरे पर कालिख पोतने पर आमादा उन्माद और भय के साये तले फिर पुलिस छावनी में तब्दील हो चुकी आहत अयोध्या दुर्भावनाओं की हिंसक हुंकारों से छिटक कर मैं अनायास ठहर जाता हूं इसी आहत अयोध्या में अपनी ही मस्ती में ग़ज़लें गा रहे साधु मानस दास के पास विस्मय की तरह पहुंचता हूं उसके पास और सुकून की तरह ठहर जाता हूं पहली बार सुन रहा हूं एक साधु को सधे सुर में इस तरह गाते हुए ग़ज़लें खूब खूब सुनता चला जाता हूं इस बेसुरे समय में बहुत सुर में बहुत कुछ गा रहा है वह एक साथ वह शकील बदायूंनी को गा रहा है बेगम अख्तर की कातर गहरी उठान उस तड़प उस पुकार को गा रहा है- मेरे हमनफस मेरे हमनवा मुझे दोस्त बन के दगा न दे... वह दोस्त बनकर दगा देते अपने समय को गा रहा है नायाब सुकून की तरह वह फ़ैज़ को गा रहा है दुख की किसी वीरान सुरंग में गूंजती मेंहदी हसन की सीली सी उस उदासी को उस कराह को गा रहा है- दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के वो जा रहा है देखो शब ए ग़म गुज़ार के... क़तील शिफाई को गा रहा है- ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा... वो पूरे वैराग के साथ गहरे अनुराग को गा रहा है! राम की इस नगरी में वैराग को गा समझा रहा है पूरे अनुराग के साथ भीमसेन जोशी संग गुनगुनाता हुआ- राम प्रभु की भद्रता का सभ्यता का ध्यान धरिए..राम का गुणगान करिए..
बहुत लय में गा रहा बतिया रहा है वह राम, रामायण और अयोध्या की लगन और स्वप्न में खिंचा चला आया है चौदह बरस की कच्ची वय में दूर गांव गढ़वा में अपना घर बार छोड़कर और कहता है कि यहां आकर वैसा कुछ नहीं पाया... पर उस वैसे को पाने की यूं ही अपनी ही तरह जारी रखता है तलाश और लंबी साधना के निचोड़ की तरह निकलते हैं शब्द- गीत, ग़ज़ल, सूफियाना हर गाना पसंद है उसे हर गाना सुर में है और सुर ईश्वर है! कान से हाथ लगा कर आह्वान की तरह याद करता है अयोध्या के आदि संगीत गुरु विष्णु दिगम्बर पुल्सकर को अपने गुरु बाबा गौरी शंकर को हर्षित होता है गायिकी के अपने अयोध्या/अवध घराने पर सुर की बारीकी में डूबा समझा रहा उसी भाषा में- तिहाई परक, भीड़ परक गायिकी है खटका मुर्की नहीं है संबोधन की तरह बेसाख्ता निकलते अगले शब्द कि- यवन भाईयों के द्वारा, मुस्लिम भइयों के द्वारा मुर्की आती है यहां
उसके होने गाने बतियाने की लय प्रमाण है कि राजनीति की ज़हरीली हवाओं के बीच भी बहुत कुछ बचा है अयोध्या में और इस देश में आज भी मैं अजूबे की तरह सुनता जाता हूं उसे गाते बतियाते हुए एक साधु के कंठ में उतर आई है ग़ज़ल उतर आए हैं पलुस्कर, बेगम अख्तर, मेंहदी हसन, भीमसेन जोशी- शकील, क़तील, फ़ैज़... पनाह लेकर उतर आई है उसके कंठ में आहत अयोध्या और अयोध्या के ईश्वर
दुर्दिनों ने बहुत बिगाड़ दी है जिस महान देश की लय और चाल उतर आई है उसके कंठ में उस देश की खालिस मिट्टी की महक और रूह
अपनी लय और प्रवाह में कहता जाता है साधु- सुर नहीं तो असुर होगा। लय नही तो प्रलय होगा आलाप नहीं तो विलाप होगा ये पूरे भारत को समझना होगा।
हूल
छ: फुट लंबा बाँस का महज एक डंडा भर नहीं है हूल* कि यूं ही लटका दिए उसमें घास के पूले और हो गया घास का गट्ठर उठाने के लिए तैयार
गट्ठर या गाडका लगाना लटकाने भर जितना नहीं मामूली काम ज़रा टेढ़ा लग जाए गाडका तो एकतरफा बोझ से उठाने वाले की हालत खराब या अधराह ही खुल बिखर जाए खास पूले
एक विन्यास एक कला एक साध है गाडका सधे इस संतुलन के बीचों-बीच सावधान सीधी तनी है हूल शान और सलीके से पीठ पर धरने को तीस-चालीस पूले घास एक उपयोग एक सुविधा एक हुनर का नाम है हूल
घास के पहाड़ को पहाड़ के बोझ को सलीके से सीधे तन कर सहेजने उठाने की तमीज़ का नाम है हूल बहुत करीब से जानती समझती सहलाती है वह गाडका उठाए थकी-पिराती पीठ की हर आह-कराह ठठरियों में कहीं पसरे कुंबर की भी कसकती तीखी चुभन मज़ेदार है इसकी बनावट निचले छोर पर एक कील या दोहरे छेद से कसी दो रस्सियाँ पिछली तरफ की जानती है लंबी रस्सी पीछे सटे घास पूलों को सलीके से समेटना जानती है आगे वाली दो-डोरी रस्सी एक पर एक पाँच छ: पिराए घास पूलों के बाद कैसे बनना है पीठ टिकाने कंधों पर धरने को कछड़ी
विशाल देश की बाहरी सीमाओं सी दो तरफा रस्सियाँ समेट सहेज रहती असंख्य घास तिनकों का वैविध्य भरा संसार पूरा वितान संभाले बीचों-बीच अदृश्य कहीं हूल टिकी ज़मीन पर दृढ़ता से मजबूत यह श्रमिक रीढ़
खाली हूल पर करीने से लिपटी रस्सियाँ लसकती दराती संग कंधे पर या पीठ पर धरी हूल बंदूक या भाले की तरह जाती है जब घासनी की ओर देखते ही बनती है उसकी ठसक और ठाठ
हूल होने के लिए शीर्ष को छील कर करना पड़ता है नुकीला पैना तीर या भाले की मानिंद तीर से भाले से सीखा भी लिया भी हूल ने बहुत कुछ हूल के पास भाले का/तीर का तीखापन है लेकिन खून की प्यास नहीं शिकार का कोई हिस्सा नहीं कि नहीं लिया हूल ने क्रूरता हिंसा का संस्कार सीखा पिरोना समेटना सहेजना जानते हुए भी पैनेपन की भरपूर ताकत चुने उसने अपने लिए क्रूर नहीं कर्मठ हाथ यूं तीर से भाले से बड़ा हुआ हूल का वजूद कि हथियार नहीं औज़ार हुई हूल।
(* पांच-छ: फुट लम्बे और करीब दो इंच मोटे बांस के एक टुकड़े को एक ओर से छील कर नुकीला कर हूल बनाई जाती है। इसे बीचों-बीच आधार बना कर घास के पूलों को उसमें पिरो और सटाकर घास के बड़े से गट्ठर को रस्सी के साथ व्यवस्थित ढंग से बांध कर उठाने के लिए इसे इस्तेमाल किया जाता है!)
आत्मारंजन शिमला से आते हैं। नए कवियों में स्थान बना रहे हैं। संपर्क- मो. 9418450763
|