मुखपृष्ठ पिछले अंक पहल विशेष क्या तुम अपना देश, अपनी नागरिकता बचा पाओगे?
जनवरी 2021

क्या तुम अपना देश, अपनी नागरिकता बचा पाओगे?

अनुवाद- प्रियदर्शन

पहल विशेष/दो

क़िताब

 

 (एसतेमेल कुरेन की किताब के अंश)

 

 

    तुर्की में 2002 में रेज़प तैयप एर्दोगॉन सत्ता में आया। तब किसी को उम्मीद नहीं थी कि उसकी पार्टी एकेपी चुनाव जीतेगी। धीरे-धीरे एर्दोगॉन ने तुर्की को बदलना शुरू किया। वहां धर्म और राष्ट्र के नाम पर लोकतांत्रिक संस्थाओं पर जम कर प्रहार किए गए। इसके लिए सोशल मीडिया और मुख्यधारा के मीडिया का सहारा लिया गया और भरपूर दुष्प्रचार के खेल चले। तुर्की के लोगों को हर बार लगता था कि आगे ऐसा नहीं होगा, इससे ज़्यादा बुरा क़दम और कुछ नहीं होगा- लेकिन हर बार उनका यह आशावाद टूटता रहा। इत्तिफाक़ से आने वाले दौर में यूरोप और अमेरिका ने भी ऐसे नज़ारे देखे। ट्रंप के उभार के साथ अमेरिका की लोकतांत्रिक अस्मिता के साथ जो खिलवाड़ शुरू हुआ, वह अब तक जारी है।

इन सबको लेकर तुर्की की एक लेखिका एसतेमेल कुरन (EceTemel kuran)) ने एक किताब लिखी- हाउ टू लूज़ अ कंट्री: सेवेन स्टेप्स फ्रॉम डेमोक्रेसी टु डिक्टेटरशिप’। इस किताब में तुर्की है, यूरोप है और अमेरिका है। इसमें भारत का ज़िक्र नहीं है। लेकिन इसे पढ़ते हुए लगता है कि हम भारत के बारे में ही कोई किताब पढ़ रहे हैं। यह एक चेतावनी है हम सबके लिए- कि चाहें तो अपना देश बचा लें, अपनी नागरिकता बचा लें। प्रस्तुत हैं इस किताब के कुछ बहुत छोटे हिस्से।

....

 

'आख़िकार किसी ट्रोल का काम बहुत ओछा है। उनका मक़सद किसी मुद्दे पर चर्चा करना या किसी तर्क का खंडन करना नहीं होता, बल्कि बेपनाह आक्रामकता और शत्रुता के साथ संवाद के मंच को आतंकित करना होता है ताकि विरोधी विचार बचाव में चले जाएं। ट्रोल कद्दावर डिजिटल सांड़ होते हैं? जिनको इस तरह प्रशिक्षित किया जाता है कि वे समुचित संवाद की शालीनता, तार्किकता और तथ्यपरकता को सोशल मीडिया के संसार से खदेड़ दें और सोशल मीडिया के दूसरे उपयोगकर्ताओं- 'आम लोगों’- के लिए बेलिहाज क्रूरता के वैतनिक रोल मॉडल बन जाएं जो स्वेच्छा से खुद को अनैतिकता की जनसेना में सूचीबद्ध करा लें।

....

 

'ओह, वे उसे ऐसा नहीं करने देंगे।’

पूरे अमेरिका में, और किसी भी यूरोपीय देश में, जहां दक्षिणपंथी लोकप्रियतावाद राज्य सत्ता पर काबिज हो रहा है, लिविंग रूम में शाम के समाचार देखते लोगों द्वारा यह अमूर्त पंक्ति बार-बार दुहराई जाती है जब कोई लोकप्रियतावादी नेता ऐसा कुछ करता है जो पहले हद से बाहर माना जाता रहा हो। तुर्की के अनुभव से, मैं जानती हूं कि यह स्पष्ट प्रश्न कितनी झल्लाहट पैदा करता है: 'यह 'वे’ कौन है जो उसे मनचाहा करने से रोकेगा?’ तुर्की में प्रारंभ में इस प्रश्न के कई उत्तर आते थे जो उस व्यक्ति के वैचारिक रुख पर निर्भर करते थे जिससे यह सवाल पूछा जाता था: 'हां, व्यवस्था’; 'बेशक, सेना’; 'चुनाव आ रहे हैं, विपक्ष एकजुट होकर इसे रोकेगा’; 'राज्यतंत्र ऐसा होने नहीं देगा’; 'लोग इस हद तक मूर्ख नहीं बनेंगे।’ मगर इन सारे भरोसेमंद, फौलाद लगे आलंबों को लोकप्रियतावादी नेता द्वारा आखिरकार गला दिया गया और तलवारों में बदल दिया गयाऔर लोकतांत्रिक परंपराओं या राज्य की किसी संस्था के काल्पनिक संरक्षण को खत्म किए बिना, देश को सत्ता की एक क्रूर शक्ति का सामना करने के लिए छोड़ दिया गया।

....

 

राज्य के उपकरणों और कानूनी व्यवस्थाओं को तहस-नहस करने की लंबी प्रक्रिया का अहम प्रस्थान बिंदु हुक्मबरदार पार्टी वालों या परिवार वालों से निर्मित कैडरों का तंत्र नहीं होता, जैसा कि बहुत लोग सोचते हैं। इन उपकरणों से नेताओं को मनमाने ढंग से खेलने की छूट उस बदलाव से मिलती है जिसकी शुरुआत वे इसे नीचा दिखा कर करते हैं और इसके निरर्थक होने का एक एहसास पैदा करते हैं। देखते ही देखते, खेल बदल डालने वाले सवाल सार्वजनिक बहस में घुस आते हैं। 'क्या वाकई हमें ऐसी संस्थाओं की जरूरत है?’ 'क्या अमेरिकी विदेश विभाग में हमें छह आला अफ़सरों की ज़रूरत है? क्या साल भर से ये पद ख़ाली नहीं रहे हैं और इनके बिना काम नहीं चलता रहा है?’ 'ब्रिटिश संसद क्या चीज़ है अगर युद्ध जैसी कार्रवाई से पहले भी इसकी इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं है?’

एक जोशीली प्रचार मशीन और भक्त समूहों की मदद से एक गैरज़रूरी स्थिति की आम भावना पैदा करने के साथ-साथ लोकप्रियतावादी नेता इस विचार को मजबूत करने लगता है कि वह और उसके समर्थकों की शक्ति असल में प्रतिष्ठान से बड़ी है। जिस दौरान प्रतिष्ठान नेता द्वारा वैधानिक प्रक्रिया को कोहनी से ठेल कर किनारे किए जाने पर प्रतिक्रिया देने या कार्रवाई करने में नाकाम रहते हैं, तब एक नई भावना पैदा होती है। 'यही बात हुई’, लोग सोचने लगते हैं कि 'जिसे हम बुनियादी शक्ति समझते थे, वह बस कागजी शेर निकला।’

....

 

मुझसे कई पोस्टरों और बिलबोर्ड्स का अंग्रेज़ी में अनुवाद कराने के बाद मेरी जर्मन पत्रकार मित्र ने पूछा फिर क्या तुर्की में फिर से चुनाव होने जा रहे हैं। छोटे-छोटे रास्तों, सड़क मरम्मत के लिए लगे अवरोधकों, निगम के निर्माण स्थलों पर तरह-तरह की चीज़ें पसरी दिख रही थीं। उन सब पर एर्दोगॉन की तस्वीरें थीं- कहीं बच्चों को चूमते, कहीं लाल फीता काटते, और साथ में उसको और इस्तांबुल के ज़िला मेयरों को संबोधित थैंक्यू मेसेज थे। 'कोई चुनाव नहीं है’, मैंने जवाब दिया, 'लेकिन कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब हमें इस तरह के प्रचार का सामना न करना पड़ता जैसे मानो, चुनाव में कुछ ही दिन बचे हैं।’

लोकप्रियतावादी नेता जो दोहरा खेल खेलता है, वह? करीने से एकेपी के मेयरों के इन चापलूसी भरे संदेशों में झलकता है। जो अनवरत चुनावी माहौल वे बनाए रखते हैं उससे नेता को एक ही साथ दो भूमिकाएं अदा करने का मौका मिलता है। वह अपने आप में सिर्फ राज्य ही नहीं हो जाता बल्कि इस तरह पेश आता है जैसे कोई विपक्ष का नेता राज्य सत्ता छीनने की कोशिश कर रहा है।

असलियत में ख़ुद प्रतिष्ठान होते हुए प्रतिष्ठान पर हमला करने के इस निर्मित राजनीतिक विभ्रम को जोड़ कर देखिए तो यह समझना आसान हो जाता है कि क्यों किसी लोकप्रियवादी नेता की आलोचना वैसी हो जाती है जैसे ब्रूस ली किसी शीशे में दिख रही विलेन की तस्वीर पर हमला कर रहा हो। जब आप नेता की इस बात के लिए आलोचना करते हैं कि उसने राज्य के उपकरणों पर अकेले कब्ज़ा कर लिया है तो वह विपक्ष के नेता की भूमिका अिख्तयार कर लेता है, विपक्ष को इस बात के लिए फटकारते हुए कि वह पार्टी पॉलिटिक्स के विवादों में रमा हुआ है। लोकप्रियतावादी नेता राज्य के उपकरणों पर कब्ज़ा करते हुए राजनीतिक तंत्र को अपाहिज करता चलता है। पार्टी और राज्य एक हो जाते हैं, नेता को राज्य की शक्तियों की जरूरत पड़ती है, लेकिन वह अलग कर दिए जाते हैं जब नेता को आलोचना से बचना होता है। और इसी बीच राज्य के उपकरण, कागजी शेर, छोटे और छोटे होते जाते हैं और पेपर बॉल में बदल जाते हैं जिससे एर्दोगॉन के शाही महल में फुटबॉल खेली जाए या ट्रंप के 'मारा लागो’ में गोल्फ।

जिस न्याय तंत्र को राष्ट्र-व्यवस्था के शिखर पर बैठा माना जाता है, वह भी लोकप्रियतावादी नेता के दख़ल से अछूता नहीं रहता। जब तक राज्य फायदेमंद है, नेता ऐसे राजनीतिक माहौल का भरोसा कर सकता है जिसमें कम से कम लोग न्याय तंत्र के बिखरने पर सवाल उठाएं, और जो ऐसा करता है उसे 'आतंकवादी’ करार देना आसान होता जाता है। जब दमनकारी सत्ता के शिकार, जो कानून के शासन का बचाव करते हैं, फिर 'आतंकवादी प्रचार’ के लिए गिरफ्तार किए जाते हैं, तो उनके विरोध की आवाज़ बहरे कानों तक नहीं पहुंचती। इस मोड़ पर, जो भी, एर्दोगॉन के शब्दों में, 'रास्ता रोकता है’, आतंकवादी हो जाता है जिसे जेल में डाला जाना चाहिए ताकि कारोबार के सहज प्रवाह में रुकावट न हो। यह महज़ इत्तेफाक नहीं है कि एर्दोगॉन की तरह ब्रिटेन की कंजरवेटिव सरकार और अमेरिका का ट्रंप प्रशासन कानून के शासन को जन भावना में रुकावट की तरह देखते हैं जब भी जज- या 'जनता के दुश्मन’, जैसा कि ब्रिटिश डेली मेल और तुर्की सरकार समर्थित मुख्यधारा का मीडिया उन्हें कहता है- सरकार के ख़िलाफ़ फैसला सुनाते हैं। इस तरह लोकप्रियतावादी नेता द्वारा फैलाया गया अज्ञान और भेदभाव इस निम्न स्तर तक पहुंच सकते हैं कि देश के 'असली लोग’ अल क़ायदा के सदस्यों से ज्यादा ख़तरनाक हो जाएं।

.....

 

'मेरे पूरे जुडिशल करियर में पहली बार है कि मुझे पुलिस से कहना पड़ा कि जिस तरह भावनाएं भड़काई जा रही हैं उसे देखते हुए मुझे सुरक्षा और सलाह दे’, मार्च 2017 में यह बात लॉर्ड चीफ़ जस्टिस जॉन थॉमस ने कही। इंग्लैंड और वेल्स के सबसे सीनियर जज के तौर पर थॉमस का अपराध यह था कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ फ़ैसला सुनाते हुए यह व्यवस्था दी कि सरकार को यूरोपीय संघ छोडऩे की प्रक्रिया शुरू करने और अनुच्छेद 50 लगाने से पहले कानूनी तौर पर ब्रिटिश संसद की मंजूरी लेना जरूरी है। इस फ़ैसले की वजह से उन्हें बौखलाए हुए ब्रेक्जिट समर्थकों से मौत की धमकियां मिलीं, जो अल क़ायदा के सदस्यों से ज्यादा ख़तरनाक लग रहे थे जिनके ख़िलाफ़ उन्होंने पहले फ़ैसला सुनाया था।

....

एलिफ़ इल्ग़ाज़ एक पुरानी पत्रकार है और अब- बहुत सारे लोगों की तरह बेकार है- वह एक कार्यकर्ता के तौर पर राजनीतिक मुक़दमे देखा करती है। वह प्रेस समुदाय की उन प्रमुख शख्सियतों में है जिन्होंने जेलों में बंद पत्रकारों के लिए काफी काम किया है। 2017 में उसे जितने कोर्ट केस देखने पड़े, उनकी गिनती करने की कोशिश करते हुए वह कड़वाहट से हंसती है। शांति याचिकाओं के लिए कैद किए गए एकैडमिक्स, किसी भी बहाने से गिरफ्त किए गए छात्र, यूनियन वाले, शिक्षक- सूची जैसे ख़त्म नहीं होती। जब उसने कार्यकर्ता के तौर पर काम शुरू किया था, तब उसके जुड़वां बच्चे प्राथमिक स्कूल में थे, अब वे यूनिवर्सिटी के इम्तिहान दे रहे हैं। 'हमारी जिंदगी अब अदालतों के बीच कटती है यार। हम कुछ और नहीं कर सकते। कुछ भी नहीं’, सीरियाई बमबारी के कुछ दिन बाद उसने मुझसे फोन पर कहा।

....

 

इतिहास के हर दौर में, सामाजिक, धार्मिक या राजनीतिक परियोजनाओं ने औरतों के साथ एक कटी-छंटी कागज की गुडिय़ा जैसा सलूक किया है- जिसे शासन कर रही सत्ता की वैचारिक पोशाक के हिसाब से कपड़े पहनने या उतारने हैं। नाज़ी पार्टी की आदर्श स्त्री की तीन पहचानें- 'बच्चा, रसोई, चर्च’ हो या स्टालिन की नई कामगार नायिका 'सोवियत नारी’ या फिर आज की 'बच्चों-के-साथ-करियर-वाली-सपाट-पेट की योद्धा औरत’- कागज की गुडिय़ा बनाने की मुहिम ख़त्म नहीं हुई है। एक स्त्री की छवि, और कभी कभार उसकी आत्मा को बार-बार तोड़ा और गढ़ा जाता है-  हुकूमत के आस्वाद के हिसाब से आकार दिया जाता है और आदर्श स्त्री नागरिक की प्रचलित राजनीतिक सत्ता की धारणा के मुताबिक दुकान में रखे पुतले की तरह इस्तेमाल किया जाता है। हर सत्ता निरपवाद तौर पर, अपने आदर्श नागरिक के निर्माण का काम महिलाओं के साथ फेरबदल से शुरू करती है। एक नया आदमी बनाने में एक पूरी पीढ़ी लग जाती है, लेकिन औरत को नए सिरे से बनाना, जैसे वह मानते हों, एक रात का काम है। और यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसी हर परियोजना में- स्त्री से उसकी स्पष्ट शत्रुता के बावजूद- ऐसी महिला समर्थक मिल जाती हैं जो खिलौने बनाने वाली मिट्टी जैसी लचीली होती हैं। इसलिए यह सिर्फ इत्तेफाक नहीं है कि जिस भी देश में दक्षिणपंथी लोकप्रियतावाद का उभार अनुभव किया जा रहा है, वहां औरतें इसकी सबसे पहली और मुखर विरोधी हैं। वे सबसे पहले स्त्री द्वेष का उकसावा महसूस करती हैं जो दक्षिणपंथी लोकप्रियतावाद के नेपथ्य में मौजूद रहता है।

....

 

जब भी कोई औरत शॉर्ट्स पहनने के लिए उत्पीडि़त की जाती है या किसी पुरुष को पीटा जाता है कि वह रमज़ान के पाक महीने में रोजा नहीं रख रहा है, सरकार के समर्थक मुस्कुराते हैं और कहते हैं, 'यह अकेली घटना है और इसे तूल नहीं दिया जाना चाहिए। ये उत्पीड़क नहीं, बल्कि ऐसी घटनाओं की ओर ध्यान खींचने वाले लोग हैं जिन्हें समाज के ध्रुवीकरण का और 'असली लोगों’ के मूल्यों से कटे होने का गुनहगार माना जाना चाहिए। और जब भी इस तरह का हमला एक बड़ी प्रतिक्रिया की वजह बनता है, एर्दोगॉन अपने समर्थकों को प्यार से भी झिड़कते हैं- 'यह गलत है। हम औरतों का सम्मान करते हैं।’ चूंकि वे कानून से ऊपर हैं, किसी को उनसे यह पूछने का हक़ नहीं है कि धर्मनिरपेक्ष औरतों के प्रति शत्रुता और बढ़े हुए ध्रूवीकरण में? उनका अपना योगदान क्या है।

....

 

'दौड़ो-दौड़ो, दूसरी मंज़िल पर है!’

राजदूत, सांसद, पत्रकार: हम कुल 50 से ज़्यादा लोग हैं, और हम इस्तांबुल के विशाल पैलेस ऑफ जस्टिस में एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल दौड़ रहे हैं। यह 2010 का साल है, और यह अदालतों में विपक्ष का मज़ाक बनाने की नई तकनीक है। जब भी कोई राजनीतिक मुक़दमा होता है, जिस पर असंतुष्टों की निगरानी होती है, जैसे इस मामले में है, हमें पहले किसी ख़ास अदालत के बाहर इंतज़ार करने को कहा जाता है, और फिर, बिल्कुल आख़िरी घड़ी में, वे इसे बदल देते हैं जिसकी वजह से वहां मौजूद रहने वालों को- जिनमें कई अधेड़ उम्र के हैं, अलग मंज़िल पर भागना पड़ता है। और वे फिर यही करते हैं, और हम फिर दौड़ते हैं। ज़्यादातर हुज़ूम की सांस फूलने लगती है और अंत में जब हम रहस्यमय अदालत खोज निकालते हैं, तो यह पूरी इमारत में सबसे छोटी जगह निकलती है जिसमें मछलियों की तरह ठुंस जाने के बाद भी हम में से बहुत सारे लोग बाहर रह जाते हैं।

अक्सर, सुनवाई का ही वह समय है हम अपने कैदी मित्र को साल में पहली बार देख पाएंगे, क्योंकि इस पूरे दौरान उसे बिना सुनवाई के जेल में रखा जाएगा।

इस बीच सरकारी वकील हांफ़ते हुए पर्यवेक्षकों पर हंसता है और कभी कभी जज किसी को बाहर कर देता है अगर वह इस तथाकथित 'पैलेस ऑफ जस्टिस’ में इस मज़क का शिकार बनाए जाने पर एतराज़ करता है। (जब अवधारणाएं नष्ट हो जाती हैं तब वे इससे पैलेस बनाते हैं)। चूंकि तुर्की का मुख्यधारा का मीडिया इन मुकदमों की खबर नहीं देता, किसी को पता नहीं चलता है कि इन हज़ारों राजनीतिक कैदियों के साथ क्या हो रहा है, तो हमारा काम गवाहों के तौर पर इन मामलों के बारे में लाइव ट्वीट करना भी है: ऐसे ट्वीट जिनका हममें से कुछ अंग्रेज़ी में अनुवाद करते हैं ताकि बाक़ी दुनिया जान सके।

जब सुनवाई खत्म हो जाती है, तो हम कुछ बचे-खुचे, थके हुए, विपक्ष के प्रेस के सदस्यों से जाकर मिलते हैं। हम उन सब को जानते हैं, वे हम सब को जानते हैं-

दरअसल हम एक बड़ी मेज़ के चारों ओर एक साथ बैठ सकते हैं। ख़ुद उन सब पर मुकदमे हो चुके हैं या हो रहे हैं और उनमें से बहुत सारे लोग ख़ुद ऐसे मुकदमों में बचाव पक्ष में हैं जैसा आज हम देख रहे हैं। पुलिस, जिसकी तादाद हमसे और हमारे सहकर्मियों से, का$फी ज़्यादा है,हमें घूरती है और इंतजार करती है कि प्रेस-वक्तव्यों में नियत सीमा से आगे गए बयान पर वह झपट पड़े ताकि हम सबको खदेड़ सके। मगर खदेड़े जाएं या नहीं, हम सब कुछ दिन बाद यही सब दोहराने के लिए घर लौटते हैं।

बीच-बीच में जज किसी क़ैदी को रिहा करने का फैसला सुनाता है, और उस वक्त मौजूद लोग एक दूसरे को गले लगा लेते हैं। वे अक्सर यह ट्वीट करते हैं: 'हमने उनके चंगुल से अपने एक साथी को छुड़ा लिया।’ लेकिन फिर हम सोचने लगते हैं- क्या वाकई? या क्या जज बीच-बीच में कुछ कैदियों को इसलिए छोड़ देते हैं? कि हालात की गर्मी कुछ कम हो? और जब हम अपने आप से ये सवाल पूछ रहे होते हैं तभी यह अजूबा नहीं है कि उनमें से कुछ को अदालत से बाहर निकलते ही नए आरोपों में फिर गिरफ्तार लिया जाए। इसलिए नए सिरे से ट्वीट किए जाते हैं- 'हम उनके चंगुल से अपने साथियों को बचाने जा रहे हैं।’ इसका फिर मजाक बनाया जाता है- 'देखो, वे फिर कैसे दौडऩा शुरू कर रहे हैं।’ और हम हैरान रह जाते हैं, क्या हर कोई हमारा मज़क बना रहा है? क्या हम एक विराट, खौफ़नक मज़क का हिस्सा हैं जिसमें हमारी यातना हंसने का सामान जुटाती है?

हम अब स्पार्टाकस, गांधी, नेल्सन मंडेला या बॉबी सैंड्स की दुनिया में नहीं हैं, जहां इस यातना की गरिमा को पहचाना जाता हो और उनके संघर्ष की दृढ़ता तमाशबीनों? को मजबूर करती हो कि वह इंसानियत के नाम पर इसमें दखल दें। हमारी दुनिया ऐसी है जिसमें प्रतिरोध करने वालों का मज़क उन्हें 'ध्यान खींचने वाली वेश्याएं’ कह कर उड़ाया जाता है, और जहां उत्पीडि़तों के लिए एक नेक शहीद की मौत की संभावना नहीं बची है, और इसकी जगह इस इंटरनेट ट्रोल द्वारा उनके विकृतीकरण और छेड़छाड़ की संभावना है। पीडि़त को 'जनता का शत्रु’ तक क़रार नहीं दिया जाता जिसे कोई तानाशाही में अपने लिए सम्मान के तमगे की तरह पहन सके, बल्कि इसे सार्वजनिक मज़क में बदल दिया जाता है।

यह शासक द्वारा अपने प्रचार तंत्र के जरिए किसी असंतुष्ट जन नेता को अविश्वसनीय बनाने की जानी पहचानी कहानी नहीं है; यह उससे भी अंधेरी दास्तान है। यह ऐसा ही है जैसे गिरा हुआ ग्लेडिएटर क्रूर शासक के विरुद्ध खड़ा होने की कोशिश करता हो और रोमन सामूहिक तौर पर इस बात का मजाक बनाने लगें कि मरता हुआ रसेल क्रो कितना थुलथुल है। और कोई फिर गिरे हुए योद्धा के साथ सेल्फी लेगा और उसे एक खुशी वाली इमोजी के साथ ऑनलाइन पोस्ट करेगा। या कोई वीडियो क्लिप कट पेस्ट करके 'बोराट’ जैसी एक छोटी सी मॉक्युमेंटरी बना देगा जिसमें पीडि़त हंसी का पात्र बन जाए और एक छोटा सा कलाकर्म वायरल हो जाए। वह समय बीत गया जब पीडि़त को ना देखने का बहाना किया जाता था। यह उत्पीडि़त को टकटकी लगाकर देखने का समय है और इस का आनंद लेने का, भले ही उत्पीड़क ने आपको ऐसा करने को न कहा हो।

....

 

अक्टूबर 2015 के अंत में कभी, पत्रकार हेल्मुट शूमैन ने Der Tagasspiegel में प्रकाशित अपने एक लेख में पूछा, 'क्या अब भी यह हमारा देश है?’ वह उस नरसंहार पर प्रतिक्रिया जता रहे थे जो हाल के वर्षों में जर्मनी में अकल्पनीय था। कुछ दिन बाद, जब वे बर्लिन की एक सड़क से गुज़र रहे थे, किसी ने उनके पास पहुंचकर पूछा कि वह 'वहीं वामपंथी सूअर हेल्मुट शूमैन’ हैं और उन्हें घूंसे मारे। इस घटना से और राजनीतिक पागलपन के ऐसे मिलते जुलते लक्षणों से स्तब्ध 'डेर स्पीगल’ के ओपिनियन एडिटर मार्कस फेल्डेकिर्चेन ने एक महीने बाद अपने कॉलम में यही सवाल दोहराया। जिस तरह ये दो जर्मन पत्रकार महसूस कर रहे थे, वह उससे अलग नहीं था जैसा हम तुर्की के पत्रकार वर्षों से महसूस करते आ रहे हैं।

जब कोई देश अपने बच्चों का दुश्मन बन जाता है, तो किसी शख्स को उसकी जो कीमत चुकानी पड़ सकती है- वह? देश छोड़े या नहीं- उसका रक्ताक्त सबक इंसानियत सदियों से- खासकर दूसरे विश्व युद्ध के बाद के वर्षों में- सीखती रही है। लेकिन जब देश को छोड़ दिया जाता है तो वह इसकी जो कीमत चुकाता है, उसका हिसाब अभी तक नहीं लगाया गया है। इसका जवाब अक्सर साहित्य में तलाशा जाता है जहां ऐतिहासिक घटनाओं के अलग-अलग नतीजों की कल्पना की जा सकती है। लेकिन साहित्य के बिना भी, यह स्पष्ट है एक देश की कहानी- और इसलिए उसकी आत्मा- हमेशा हमेशा के लिए बदल जाती है जब वह अपने नागरिकों को खारिज करता है।

....

 

लेकिन 'मेरा देश’ एक कारुणिक भ्रम है जैसे 'मेरा देश नहीं’ एक क्रूर मोहभंग। देश अपने बेहतरीन लम्हों में फैल जाता है, और अपने सबसे अंधेरे दिनों में सिकुड़ जाता है। 'देश’ जितना आपका यथार्थ है उतना ही आपका स्वप्न भी- चाहे यह परायी जमीन पर ढोया जाने वाला बोझ हो या अपनी ही धरती पर पराया होने के एहसास का वजऩ हो। यह वह? इतिहास है जो आपको पढ़ाया गया या वह अतीत जो हमेशा इतिहास की किताबों में नहीं आता, और वह संभव या असंभव भविष्य है जिसकी कल्पना करने की आपको इजाज़त दी जाती है या न दी जाती है। एक देश इतना बड़ा और निराकार होता है कि न उस पर पूरी तरह कब्ज़ा किया जा सकता है और न? उसे पूरी तरह छोड़ा जा सकता है। मगर एक बात साफ़ है- एक एक नागरिक के प्रस्थान के साथ, उसका अतीत और भविष्य वृतांत से हटा दिए जाते हैं, और वह इलाक़ा बड़ा होता जाता है जिस पर गैंगस्टर कब्ज़ा कर लेते हैं और और एक दिन यह पूरी तरह 'उनका देश’ हो जाता है।

 

 

प्रियदर्शन कथाकार, आलोचक और मीडिया कर्मी हैं। पहल में कई बार प्रकाशित।

संपर्क- मो. 9811901398, गाज़ियाबाद

 


Login