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सितम्बर - अक्टूबर : 2020

साधारण जन की असाधारण संकल्प-कथा

सूरज पालीवाल

किताबें

 

 

बिसात पर जुगनू- वंदना राग                  

 

 

      वंदना राग लगभग दो दशक से कहानी लेखन में सक्रिय हैं । अभी तक उनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें उन्होंने स्त्री लेखन की बंधी-बधायी लीक को तोड़कर नयी राह बनाई है। इसी वर्ष प्रकाशित 'बिसात पर जुगनू’ उनका पहला उपन्यास है। पहले उपन्यास पर जितना श्रम करना चाहिये, उतना उन्होंने किया है। वे कई वर्षों से इस उपन्यास को लिख रही थीं। यह उपन्यास इतिहास, लोक और कल्पना का अद्भुत मिश्रण है। उन्होंने इतिहास को बाकायदा कक्षाओं में पढ़ा है, समझा है लेकिन बड़ी बात है कि उनकी रुचि भी इतिहास के अनदेखे पृष्ठों को खोलने की रही है, जिसकी झलक इस उपन्यास में देखने को मिलती है। यहां यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि यह ऐतिहासिक उपन्यास नहीं है पर यह भी बताना ज़रूरी है कि पढ़ते हुये यह अहसास बराबर बना रहता है कि इसकी घटनाएं ऐतिहासिक हैं। पात्र ऐतिहासिक हैं या नहीं यह लेखक की कल्पना शक्ति पर निर्भर करता है, जिसकी छूट वंदना राग ने भरपूर ली है । उपन्यास का कालखंड लगभग 70 वर्षो का है, इस कालखंड में हमारे देश में 1857 का पहला स्वाधीनता संग्राम लड़ा गया और चीन में ताइपिंग विद्रोह हुआ। ये दोनों घटनाएं वंदना राग के मन मस्तिष्क को कई वर्षों से मथ रही थीं और अंदर ही अंदर एक ऐसी कथा बन रही थी जो इन दोनों ऐतिहासिक घटनाओं से मेल खाती थी पर वे इतिहास में कहीं नहीं थी। इस कथा के प्रमुख पात्र साधारण जन हैं, जिनकी इतिहास में कोई बिसात नहीं है इसलिये उनका कहीं उल्लेख भी नहीं है पर उपन्यास में वे ही पात्र जुगनू की तरह बार-बार चमक कर इतिहास को बदल देने का हौसला दिखाते हैं। यह महज संयोग नहीं है कि उपन्यास की तीन स्त्रियां-खदीजा बेगम, परगासो और यू-यान अलग-अलग धरातलों और स्थिति-परिस्थितियों में संघर्ष करती हैं और बिना हानि-लाभ तथा जय-पराजय की चिंता किये अपने हौसलों को बुलंद बनाये रखती हैं। तीनों बहुत ही सामान्य स्थितियों में पली-बढ़ी, तीनों का कालखंड एक होते हुये भी वे एक-दूसरे से न कभी मिलीं और न एक दूसरे को उनके कामों से जाना पर तीनों को मिलाकर जो पाठ बनता है वह मनुष्य मात्र के लिये गर्व करने योग्य है। तीनों के अपने-अपने संघर्ष हैं, जो उनके जन्म के साथ ही शुरू हो जाते हैं।

उपन्यास को 1840 से 1910 तक के कालखंड में रखने के पीछे फतेह अली खान का रोज़नामचा है, जो तत्कालीन स्थितियों के साथ उपन्यास को खोलने के लिये बड़े सूत्र का काम करता है। फतेह अली खान अत्यंत साधारण व्यक्ति हैं लेकिन उतने ही प्रतिभावान और उदात्त। अन्य महत्वपूर्ण पात्रों की तरह वे भी जीवन की आंच में तपकर बड़े हुये हैं। वे अनाथ बच्चे की तरह लोदी कटरा के यतीमखाने में पले-बड़े, उनके माता-पिता के बारे में भी किसी को कोई जानकारी नहीं थी। इस तरह के बच्चे या तो सारा जीवन यतीम ही बने रहते हैं या अपनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर बहुत आगे बढ़ते चले जाते हैं। फतेह अली खान को यतीमखाना तो मिला लेकिन कुछ अच्छे लोग भी मिले जिन्होंने उनकी अच्छी परवरिश की। कई बार ऐसे लोग अंदर से इतने ईष्र्यालु और कुंठित होते हैं कि आगे बढ़ते हुये अतीत के अभावों से मुक्त नहीं हो पाते इसलिये उदारता को अपने जीवन से हमेशा अलग रखते हैं। पर फतेह अली खान के साथ ऐसा नहीं हुआ, वे न केवल उदार बने बल्कि अपने काम और संबंधों के प्रति भी बेहद ईमानदार बने रहे। उपन्यास की शुरूआत उनके रोज़नामचा के पहले पृष्ठ से होती है 'संक्रांति-1840, दीवान मोहल्ला, पटना- यह मेरा रोज़नामचा है। रोज़नामचे में सच का इकबाल होता है। वैसे भी मुझे सच ही कहने की आदत है। जिनके पास खोने को कुछ नहीं उन्हें कोई डर नहीं सताता। वे सच ही फरमाते हैं। मेरे पास भी खोने को कुछ नहीं। मुझे भी कोई डर नहीं सताता है। मैं यह जानता हूं कि कभी किसी और सदी में जब कोई हौसलामंद इस रोज़नामचे में दर्ज, मेरी बातों से दो-चार होगा तो इनकी बदौलत जरूर समझेगा मेरे वक्त की बात। मेरे वक्त के लोगों की बात।’ कहना न होगा कि उनका रोज़नामचा उनके समय का आईना है, जिसमें व्यक्तिगत संबंधों से लेकर सामाजिक, राजनीतिक और व्यापारिक स्थितियों को एक-एक कर उभारा गया है। चूंकि इतिहास के पन्ने उपन्यास में उध्दृत नहीं किये जा सकते इसलिये बेहद संजीदगी के साथ वंदना राग रोज़नामचे को लेकर आती हैं।  इससे न तो उपन्यास बोझिल होता है और न उन्नीसवीं -बीसवीं शताब्दी के समाज की उथल-पुथल को समझने में कोई परेशानी होती है।

फतेह अली खान बिहार की छोटी-सी रियासत चांदपुर के राजा दिग्विजय सिंह के पानी के जहाज 'सूर्य दरबार’ पर नक्शानवीस नियुक्त हुये हैं। जब दुनिया में कंप्यूटर नहीं थे और न दुनिया इस तरह से डिजिटल हुई थी तब अथाह समुद्र में पानी की गहराई के साथ रास्तों की खोज करने का काम नक्शानवीस ही किया करते थे, यह बड़ी जिम्मेदारी का काम था। दिलचस्प यह है कि इस बड़ी जिम्मेदारी को ग्रहण करने से पहले फतेह अली खान रोमांचित हैं। नयी जगह, नये और अपरिचित लोग तथा समुद्र की महीनों की नीरस जिंदगी में भी जो रोमांच खोज ले, वह आदमी तमाम तरह के संकटों में भी अपना रास्ता बना लेता है। वे अपने रोज़नामचे में लिखते हैं 'अब मैं चांदपुर जा रहा हूं। चांदपुर रियासत के राजा दिग्विजय सिंह ने मुझे अपने जहाज सूर्य दरबार पर बतौर नक्शानवीस नौकर रख लिया है। अब पहले चांदपुर जाऊंगा फिर कलकत्ता। देखा तो नहीं है मैंने, लेकिन सुना है कि चांदपुर जैसी खूबसूरत जगह पूरब में कहीं नहीं। सुना है, हरे खेतों और शीशम के जंगलों से घिरा है चांदपुर। वहां का पानी मीठा है। शफ्फाक और मीठा। वहां की हवा मस्ती भरी और उमंग जगाने वाली। लेकिन जाने कितने दिन रह पाऊंगा वहां? जाना तो है वहां से दूर। बहुत दूर। सूर्य दरबार पर। फिर सूर्य दरबार से समंदर ही समंदर की सैर। देश और दुनिया की सैर। चीन की सैर। गोकि चीन ही है वह मुल्क जिसकी समुंदरी सरहद को छूता है सूर्य दरबार। चीन जहां सुना है बसते हैं अजर, अमर, बादशाह जन्नती बादशाहतों में।’ मैं फिर से इस बात को रेखांकित करना चाहता हूं कि कई बार मन की कमजोरी आदमी को नयी जगह जाने से रोकती है इसलिये वह जाता भी है तो डरा और सहमा हुआ-सा लेकिन फतेह अली खान का रोज़नामचा बता रहा है कि उनके मन में अदमनीय उल्लास है, अपने भविष्य और उसके आगत के प्रति। यह उल्लास उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है जिससे उनकी कार्यक्षमता भी प्रदर्शित हो रही है। 

1840 के ही दूसरे रोज़नामचे में वे यह सूचना देना जरूरी समझते हैं कि 'नवाब साहब फटेहाल हो रहे हैं। बाबू कुंवर सिंह के साथ उठना-बैठना कर रहे हैं। मशालची बता रहा था आप बड़े राजा के जहाज पर नौकरी करने जा रहे हैं। मुझे मालूम है उनका जहाज कहा जाता है?  उसी देश के लिये ये फसल तैयार हो रही है । हमारे प्यारे नवाब साहब की तबाही की फसल, सबके लिये तबाही की फसल साबित होगी एक दिन देख लेना।’ यह फसल अफीम की है, जिसे अंग्रेज चीन में भारी मात्रा में भेज रहे हैं। परंपरागत खेती और व्यापार को समाप्त करके अफीम की खेती और अफीम के व्यापार पर अंग्रेजों का जोर है इसलिये 'फिरंगी नवाब साहब को अब धान नहीं उगाने देता है।’ यह केवल संकेत भर नहीं है बल्कि अंग्रेजों की व्यापारिक नीति का हिस्सा हैं, जिनसे अंग्रेज पूरे देश को तबाह करने पर तुले हुये थे। जिस प्रकार भारत में नील की खेती के लिये अंग्रेजों ने किसानों की जमीन जबर्दस्ती कब्जे में की, उसी प्रकार अफीम की खेती कर जमींदारों, नवाबों और छोटे किसानों की बर्बादी की जा रही थी। जिस प्रकार नील की खेती से जमींन बंजर होती जाती थी, उसी प्रकार अफीम की खेती से भी फसल की उर्वरा शक्ति कम होती जाती थी। इतिहास में बिहार के किसान आंदोलनों और नील की खेती के कारण किसानों की बदहाली पर खूब चर्चा होती रही है पर अफीम की खेती और उसके नकारात्मक प्रभावों का जिक्र कम हुआ है। जबकि अफीम का दुष्प्रभाव कई मायनों में नील से कम नहीं हैै। वंदना राग उन कारणों का उल्लेख करती हैं जिनके कारण अंग्रेजों ने जमींदारों और नवाबों की जमीनों पर आवश्यक फसलों के उत्पादन करने से रोका था और जबरन अफीम की खेती करवाई थी। 1857 के पहले स्वाधीनता आंदोलन के पीछे के बहुत सारे कारणों की चर्चा होती आई है लेकिन जमीन पर इस प्रकार की जबर्दस्ती भी फिरंगियों के विरोध का कारण बनी थी। यही नहीं चांदपुर के राजा साहब के जंगलों तक पर अंग्रेज जबरन कब्जा कर रहे हैं। वंदना राग लिखती हैं 'चांदपुर जैसी रियासतों के जंगलों तक को नहीं छोड़ा फिरंगियों ने। जिस रेल की यह डॉक्टर बात कर रहा है उसमें बैठने की कुर्सियों और बिस्तरों के तख्तों के लिये फिरंगी जंगल काट रहे हैं। उनके ही जंगल। और तो और, गांव में निचली जात वालों को भड़काकर, लठैती करवा-करवाकर उनके बरसों से चले आ रहे समाज को नष्ट कर रहे हैं फिरंगी! वे भी दबी जुबां से अपने हिस्से की बात करने लगे हैं।’ यह अंग्रेजों की सोची-समझी चाल थी कि एक ओर इस देश की जमीन और जंगलों पर जबरन कब्जा करो तथा दूसरी ओर उनके मालिक राजा और नवाबों के विरुद्ध उनकी ही रियाया को भड़काकर खड़ा कर दो ताकि वे कमजोर पड़कर अंग्रेजों का विरोध करने की स्थिति में न रहें।

फतेह अली खान चैतन्य होकर फिरंगियों की हरकतों को देख रहे हैं। वह राजा को सूचना देते हैं कि 'हुजूर, गोदामों के कब्जे को लेकर सबसे बड़ी खबर उड़ रही थी। फिरंगियों ने सारे गोदामों को अपने हाथों में ले लिया है और उसमें अनाज के बजाय अपने धंधे का माल भर रहे हैं। ऊपर से तो अभी चुप्पी नजर आती है लेकिन अंदर ही अंदर व्यापारी, कारीगर और कामगर हाथ से व्यापार और रोजगार छिन जाने पर काफी नाराज लगते हैं।’ 1840 के ही आषाढ़ के तीसरे दिन की रात को वे रोज़नामचे में लिखते हैं 'पटना के गोदामों में ईस्ट इंडिया कंपनी ने व्यापार का जो माल छिपाया है वह लाखों की अफीम है, जिसे वे जंग के बाद फिर चीन ले जायेंगे अपने जहाजों में भर। बड़े राजा ने भी इशारों में बताया है कि सूर्य दरबार अफीम का व्यापार नहीं करता है लेकिन ... कह वह इधर-उधर देखने लगे थे। कुछ समय पहले तक बड़े राजा के खदानों का अबरक और सूती कपड़े का व्यापार बहुत लाभ देता था लेकिन जबसे चीन में अफीम की मांग बढ़ी है, ईस्ट इंडिया कंपनी सिर्फ उसी का व्यापार करने लगी है और बाकी सब व्यापार को ठप करवा दिया है। सभी देशी व्यापारियों को घाटा झेलना पड़ रहा है।’ रोज़नामचे की यह टीप सामान्य नहीं है, इससे राजा और राजा जैसे चीन में व्यापार करने वालों की चिंता का बढऩा स्वाभाविक है। यह टीप इतनी प्रामाणिक है कि उसी साल 20 जून के 'कलकत्ता जर्नल अखबार’ में खबर छपी 'चीनी सम्राट दाओगुआंग के आदेश से इंगलिस्तान की महारानी विक्टोरिया को लिन जेक्स्कु ने खत लिखा है कि - अफीम का व्यापार पूरी तरह बंद किया जाये क्योंकि उससे चीन की कौम बर्बाद हो रही है। पहले सिर्फ अमीर रिआया इसकी गर्द में डूबी, लेकिन अब सरकारी अफसर, कारीगर, नौकर-चाकर, व्यापारी, औरतें, बौद्ध योगी-योगिनियां और ताओ पुजारी सबके सब इस ज़हर की ज़द में जकड़ चुके हैं। जब देश के लोग ही होश में नहीं रहेंगे तो देश कैसे जिंदा रहेगा?’ अंग्रेजों की कार्यवाही का इंतजार किये बगैर चीनी अफसर लिन ने एक आदेश जारी कर 'अफीम से भरे हजारों संदूकों को बर्बाद कर दिया। कई संदूक समंदर में डुबा दिये गये हैं और कई जला दिये गये हैं।’ यह आक्रोश की निशानी है, जो न केवल सम्राट और अफसरों तक सीमित है बल्कि चीन का हर समझदार आदमी अंग्रेजों द्वारा चीनी कौम को बर्बाद किये जाने से चिंतित और नाराज है। फतेह अली खान चांदपुर के युवराज सुमेर सिंह को 1864 में खत लिखकर यह भी बताते हैं कि 'अब अंग्रेजों का आतंक शायद पूरी दुनिया में फैल चुका है। अब यह सिर्फ  देश की बात नहीं रही। यहां चीन में भी बहुत डर लगने लगा है। अंग्रेज यहां भी हम देशी व्यापारियों से गाली-गलौज की भाषा में बात करते हैं।’ 

फतेह अली खान कहने को तो 'सूर्य दरबार’ में नक्शानवीस के रूप में कार्यरत हैं लेकिन चांदपुर रियासत और उसकी खुशहाली के लिये वे उतने ही चिंतित रहते हैं, जितना चांदपुर का कोई हमदर्द हो सकता है। वे 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में राजा दिग्विजय सिंह के विद्रोह से जितना प्रभावित हैं, उतना ही चांदपुर के भविष्य को लेकर चिंतित भी हैं। वे जानते हैं कि अंग्रेज चांदपुर रियासत को बागी रियासत मानते हैं और बागी होने के कारण तमाम तरह के अत्याचार भी उन लोगों पर किये जा रहे हैं । वे दिग्विजय सिंह के पुत्र और चांदपुर के वारिस सुमेर सिंह से दोस्ती के कारण उनकी कमजोरियों से पूरी तरह परिचित हैंं लेकिन परगासो बीबी के अथाह साहस के कारण आश्वस्त भी हैं । वे अपने रोज़नामचे के अलावा खतों तक में चांदपुर रियासत के प्रति अपनी वफादारी को प्रगट करते रहते हैं और चाहते हैं कि वह रियासत जिसने उन्हें इतनी बड़ी जिम्मेदारी दी है, वे उसकी खुशहाली के प्रति हमेशा ईमानदार बने रहें। वे यह भी जानते हैं कि सुमेर सिंह भावुक और संवेदनशील युवक है, युद्ध, प्रशासन और दरबारी षडयंत्रों से निबटना उसके बस की बात नहीं है । वे जितना चांदपुर रियासत के उत्तराधिकार के लिये चिंतित हैं उतना ही सुमेर सिंह और परगासो बीबी की खुशियों के लिये भी इसलिये यू-यान द्वारा अपने बेटे को भारत ले जाने के अनुरोध को स्वीकार कर वे उन्हें तुरंत सूचित करते हैं कि 'आप चीन मांगते थे न हमेशा मुझसे। कहते रहे हमेशा-फतेह अली खान चीन का टुकड़ा ही ले आओ। तो ला रहा हूं हुजूर इस खत के आप तक पहुंचने के ठीक एक माह बाद चीन के दिल का टुकड़ा आपके पास होगा। चीन ही समझ लीजिये उसे। खालिस चीन का दिल है वह। चीन का लख्ते जिगर। मैं जानता हूं आप झूम जायेंगे इस खबर पर।’ ज़ाहिर है कि किसी देश से बच्चे को ले जाना कितना मुश्किल काम है, लेकिन वे अपने दोस्त की खुशी और चांदपुर रियासत की खुशहाली के लिये कितना भी बड़ा संकट मोल लेकर अपने उद्देश्य में सफल रहते हैं ।

फतेह अली खान बेहद संवेदनशील, कृतज्ञ और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति के रूप में उभरकर आते हैं, जो न केवल नक्शानवीस भर हैं अपितु इतिहास, संगीत और कलाओं के भी मर्मज्ञ हैं।

उपन्यास में तीन औरतें-परगासो, खदीजा बेगम और यू-यान को साधारण से असाधारण होते दिखाया गया है । तीनों साधारण परिवारों में जन्म लेकर अपने हौसलों से असाधारण बन सकीं। हम एक-एक कर तीनों के बारे में विस्तार से चर्चा करना चाहते हैं ताकि उनके साहस और अप्रतिम उपलब्धियों को रेखांकित किया जा सके। सबसे पहले परगासो, जिसके बारे में लिखा गया है 'एक थी परगासो। एक है परगासो। उजली और चमकदार। खाने को बहुत कम। पहनने-ओढऩे को गढ़ी की उतरन। भगत जी की बेटी। सारे दुसाधों की बेटी। मां को जल्दी थी, देवता के देश जाने की, सो गई। मिलकर पाली गई। मिलकर पोसी गई। टोले के सब दुसाध मां-बाप हो गये उसके। रहती लेकिन मां की छोड़ी गई झोंपड़ी में अकेली थी। उसके कुछ बड़े होने तक कभी टोले की कोई चाची सो जाती उसके पास रात को, कभी कोई...।’ कहना न होगा कि परगासो की स्थितियां भी फतेह अली खान की तरह ही हैं। कहने को वह सारे दुसाधों की बेटी है लेकिन जिन माता-पिता की बेटी है वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। अकेली लड़की जिस तरह दूसरों की कृपा पर बड़ी होती है उसी तरह परगासो का बचपन भी बीता था। भगत जी ने एक दिन घोषणा की कि 'देवता ने कल रात सपने में दर्शन दिये हैं और कहा है यह जो परगासो है न, यही अपनी बेटी परगासो, यही करेगी अपने टोले का नाम ऊंचा! सब लोग इस बात को गांठ बांध लो।’ अनपढ़, गरीब और पिछड़े हुये समाजों में इस प्रकार के भगतजियों की भविष्यवाणी का जो अर्थ होता है, वही अर्थ इसका भी हुआ। इतिहास ने दुसाधों के साथ बडा अत्याचार किया है एक समय तक युद्ध में लडऩे वाले अपराजेय योद्धा गोहिल, जो अब दुसाध कहे जाने लगे, को अचानक निचले पायदान पर फेंक दिया गया। लेकिन वह बहादुरी और युद्ध कौशल दुसाध-पासवानों के खून में बहुत दिनों तक जीवित रहा। परगासो की जीवन स्थितियां जिस प्रकार की थीं, उनमें उसके अंदर का साहस यह बताता है कि वह हर परिस्थिति से लोहा लेने में सक्षम है। शिक्षा-दीक्षा का माहौल पूरे टोले में नहीं था इसलिये उसकी शिक्षा का सवाल ही कहां पैदा होता है पर उसने जंगल में रहने वाले भीमा दादा से युद्ध कौशल की दीक्षा ली थी। वह उनके बच्चों के साथ भाला फेंकती, तीर चलाती और 'उनके साथ खेलते-खेलते, वह नाजुक परगासो मुनिया नहीं रहती थी। वह बहादुर भाला फेंक लड़ाका हो जाती थी। खून भल-भल दौडऩे लगता था उसका। बच्चे उसका रक्तिम आभा से चमकता चेहरा देख हंसते थे।’ उसे यह दृढ़ विश्वास था कि 'वह सारी विद्या सीख भीमा दादा जैसी होना चाहती थी और उन्हीं की तरह दुश्मन मारना चाहती थी, जानवर नहीं।’ उसे हाथ आजमाने का पहला मौका तब मिला जब एक फिरंगी बरसात से बचने के लिये उसकी झोंपड़ी में आ गया, वह उसकी चटाई पर बैठा, खाने की थाली को पैर से खिसकाया और उसकी चादर से अपनी देह पोंछी। परगासो को अपनी चादर से उसका देह पोंछना बर्दाश्त नहीं हुआ इसलिये उसने 'पीछे से चीते की तरह उछलकर गैंती से फिरंगी के शरीर पर कितने ही घाव कर दिये और तेजी से जंगल की ओर भागती चली गई। जैसे-जैसे वह जंगल के अंदर समाती गई उसे फिरंगी की चीखें कम सुनाई पडऩे लगीं और जब तक वह भीमा दादा तक पहुंचती, जंगल अपनी आवाज में उसका स्वागत कर रहा था-आओ बांकुरी ... खूब पारंगत हुई तुम तो, जंगल की विद्याओं में ... अब किसी का क्या भय लड़की?’

जब वह बड़ी हुई तो माली चाचा ने मालकिन से कहकर गढ़ी में उसे नौकरी दिलवा दी। तब मालकिन ने शर्त रखी थी कि 'परगासो नहीं घुसेगी घर के अंदर। नहीं छुयेगी बर्तन। नहीं छुयेगी सामान। बाहर-सिर्फ  बाहर फूल उगायेगी और गढ़ी को खुशनुमा, खुशबूदार रखेगी।’ परगासो ने यही किया, वह चुपचाप गेंती से मिट्टी खनती रहती। उपन्यास में युवराज सुमेर सिंह को बहुत नाज़ुक, प्रशासन, युद्ध और शिकार से दूर अपनी ही दुनिया में रहने वाला युवक दिखाया गया है। गढ़ी के शौर्य की परंपरा का पालन करने के लिये बड़े राजा उसे शिकार के लिये साथ ले जाते हैं पर खून देखकर उसका मन कांप उठता है। वंदना राग ने छोटे, सुंदर और शफ्फाक खरगोश के शिकार का चित्रण किया है, जो सुमेर सिंह को करना था पर उसने नहीं किया बल्कि उसका बहता खून देखकर उसका पेशाब निकल गया। बड़े राजा इस कारण सुमेर सिंह के प्रति चिंतित भी रहते थे पर कर कुछ नहीं सकते थे। उसे कलकत्ता की अल्लारक्खी अच्छी लगती थी, उसके डेरे पर उसका मन रमता था, उसे सुंदर औरतों को देखना और उनके साथ रहना अच्छा लगता था। इसलिये परगासो को पहली बार देखकर उसे चक्कर आ गये, तब परगासो ने ही उसे संभाला था। वंदना राग उस मिलन का दृश्य बनाते हुये कहती हैं  'सुमेर सिंह ने ऐसी छातियां नहीं देखी थीं। ऐसी देह नही देखी थी। ऐसी खुशबू नहीं पाई थी। अब उपाय क्या था... सिर्फ  देखने के अलावा। बार-बार देखने के अलावा? प्यारी परगासो के पास भी क्या उपाय था? नाज़ से सहारा देने के अलावा? भगत जी, चाचा और रानी जी की तरकीबों को उलटा-पलटा करने के अलावा? देह और मन की गर्मी महसूस करने के अलावा? छोटे राजा का सहारा बनने के अलावा? सुमेर सिंह के मन के मीतों की टोली में शामिल होने के अलावा? तन को मन से न्योछावर कर देने के अलावा? और आत्मा से न्योछावर हो जाने के अलावा भी कोई उपाय था क्या?’ और फिर वे लिखती हैं 'इस सदी में जहांगीर का नाम हुआ सुमेर सिंह और नूरजहां तो वही-परगासो दुसाधन निकली।’ प्रेम और राजकाज में बेगम के सीधे हस्तक्षेप से इस प्रकार की तुलना की जा सकती है लेकिन जहांगीर सुमेर सिंह जितना नाज़ुक और अपनी दुनिया में सीमित रहने वाला बादशाह नहीं था।

परगासो का देहरी लांघकर गढ़ी के अंदर आना सामान्य घटना नहीं थी, इस घटना ने राज परिवार की परंपराओं को झटके से तोड़ दिया था। सामंत अपनी परंपराओं के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं, उन्हें लगता है कि हजारों वर्षों से जो रीति-रिवाज चले आ रहे हैं उन्हें न कोई तोड़ सकता है और न ऐसा करने की किसी में हिम्मत होनी चाहिये इसलिये उनके प्रति वे इतने अंधविश्वासी होते हैं कि तोडऩे में उन्हें अपना अनिष्ट दिखाई देता है। लेकिन जब उनका अकेला बेटा ही इस प्रकार के निर्णय ले ले तो पिता की असमर्थता कष्टकारी होते हुये भी स्वीकार्य हो जाती है। कहना न होगा कि सुमेर सिंह को परगासो के अलावा दुनिया में कुछ दिखाई नहीं देता क्योंकि 'नायाब हुस्न की मल्लिका है परगासो। उसकी चाल में इतनी खुद्दारी है और आंखों में ऐसी बुलंदी की चमक कि कोई भी उससे देर तक आंख में आंख डालकर बात करने के लायक जिंदा बच पायेगा या नहीं यह शुबहे की बात हो सकती है।’ यह तो हुई उसकी सुंदरता की बात लेकिन इसके अलावा ऐसा बहुत कुछ था जो परगासो को दुसाधों की लड़कियों से अलग बनाता था। 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम में वह चांदपुर रियासत की ओर से लड़ी थी। अकेली नहीं बल्कि राजा की ढाल बनकर। अपने टोले के लोगों को साथ लेकर, जिन्हें वर्ण व्यवस्था में अलग-थलग कर रखा था। उसने अपने लोगों से कहा 'तोड़ दो जंजीरें। उठाओ अपने हथियार। खबर आई है। बगावत हो चुकी कलकत्ता में। दानापुर, पटना तक उसकी आंच उठ आई है। इश्तेहार में खबर थी पीर अली ने हमला बोल दिया है। बाबू कुंवर सिंह भी चल पड़े हैं मोर्चा लेने। अब हमारे बड़े राजा की बारी है। अब हमारी बारी है। उठो। जागो। लड़ो।’ उसकी आवाज का टोले में इतना असर हुआ कि 'तनाव से सबकी मांसपेशियां तन गई हैं। हाथों में हथियार पकड़कर इस्तेमाल करने की इच्छा धड़कने लगी है। गांव के दूसरे गरीब राजपूत और ब्राह्मण भी अपनी औरतों से अंतिम विदाई लेकर आ गये हैं। परगासो दुसाधन ने बीड़ा संभाला है। वही उन्हें बतायेगी आगे कैसे चलना है। जंगलों में कैसे छिपना है। पहाडिय़ों को ओट कब बनाना है। कौन से सिपाहियों पर हमला करना है और कौन से सिपाहियों को छोड़ देना है।’ यह परगासो की बहादुरी ही थी कि एक ओर उसने अपने बड़े राजा का साथ दिया तो दूसरी ओर अछूत मानी जाने वाली जातियों को भी इस महासंग्राम में शामिल किया। संकट के समय कैसे जातियों का अंतर समाप्त हो जाता है, यह उसने साबित कर दिखाया था। वंदना राग ने बड़े राजा की इस मन:स्थिति का चित्रण करते हुये लिखा है 'शुरू में तो मन करता था, सर कलम कर दें उस नान-जात का लेकिन अब क्या करें बड़े राजा? कोई उपाय नहीं उनके पास। उसे ही तवज्जो देनी पड़ रही है। अपने नाज़ुक मिज़ाज वारिस से अब उसी औरत की माफ्र्त न सिर्फ राज-काज की बातें करनी पड़ रही हैं बल्कि कंपनी बहादुर के खिलाफ रणनीति बनाने में भी वही पहल कर रही है। टोलों से और बागियों से भी वही सब राजाओं को जोड़ रही है। छापामार लड़ाई के तरीके भी सिखा रही है गढ़ी के चौकीदारों और गांव वालों को।’ परगासो ने अतीव बहादुरी के साथ बड़े राजा का साथ दिया और बाबू कुंवर सिंह के नेतृत्व में लड़ी जाने वाली लड़ाई में चांदपुर रियासत का नाम हमेशा के लिये रोशन किया। इस युद्ध ने एक ओर राज परिवार में उसका स्थान सुरक्षित किया तो दूसरी ओर कमजोर मन युवराज की कमी को पूरा करते हुये अपने राजा को अकेले नहीं होने दिया। हालांकि वह देवी-देवता और भूत-प्रेत को नहीं मानती थी पर वह स्वयं चांदपुर के लिये दैवीय उपलब्धि से कम नहीं थी। वह न केवल युद्ध कौशल में पारंगत थी अपितु युद्ध की बारीक रणनीतियों से भी बखूबी परिचित थी। परगासो की यह भूमिका यहीं समाप्त नहीं हो जाती बल्कि चांदपुर रियासत के भविष्य के लिये भी वह चिंतित रहती है। इसलिये उसके वारिस के लिये वह 1870 में फतेह अली खान को पत्र लिखती है 'आगे समाचार यह है कि चांदपुर की हालत अच्छी नहीं है। सूखे ने लगान की रकम को और कम कर दिया है। सब हमसे ही कर्जा मांगने आ जाते हैं। हम उनसे क्या कहें? इस बार तो जहाज पर से भी अच्छी खबर नहीं आ रही हैं। कितने दिन चल पायेगा व्यापार? अब इसकी फिक्र भी सताती है। अंग्रेजों ने हमारे ऊपर ऐसा कहर बरपा किया है कि देश तो देश हमारा घर-बार भी डांबाडोल हो गया। हमारे सरताज की तबीयत नहीं सुधरती। हम जंग तो हार गये पर हिम्मत नहीं हारना चाहते हैं। क्या चीन से कोई ऐसी चीज लाई जा सकती है जो सुमेर को दोबारा अपने पैरों पर खड़ा कर दे? आप तो जानते हैं मैं देवता-पितर नहीं मानती, आप मानते हैं तो अपने खुदा से मांग लीजिये सुमेर की तंदुरुस्ती। कोई करिश्मा हो जाये सुमेर लौट आयें जिंदगी की ओर।’ फतेह अली खान उनके और सुमेर सिंह के दुखों को जानते हैं, इसलिये वे यू-यान के बेटे चिन को साथ लेकर आते हैं। परगासो जितनी बहादुर है, अपने लोगों और उनके अधिकारों के प्रति उतनी ही सतर्क और समर्पित भी है। सामान्य परिवार और वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर जन्मी परगासो का चरित्र त्याग, साहस और प्रेम की अनूठी मिसाल है।

परगासो जितनी ही स्वतंत्रता की दीवानी चीन की यू-यान है। दोनों एक ही समय अलग-अलग देशों में जन्मी लेकिन दोनों ने अन्याय और पराधीनता के विरुद्ध युद्ध किये । यू-यान भी सामान्य परिवार से थी, उसका जीवन भी साधारण से असाधारण की ओर गया था। स्थितियां व्यक्ति के जीवन को किस प्रकार मोड़ती हैं, यह यू-यान के जीवन से जाना जा सकता है। एक दिन जंगल में वह आग जलाने के लिये लकडिय़ां इकठ्ठा कर रही थी कि उसी समय बागी चांग भी लकडिय़ां इक_ा करने के लिये जंगल में आया था। थोड़ी-सी बातचीत के बाद चांग को लगा कि 'सचमुच यह कुछ अलग किस्म की है। दूसरी लड़कियों से अलग। इसकी आंखों में आग है। चांग खुद आग में जल रहा था। वह आग इकठ्ठा कर रहा था और कैसा संयोग कि इस लड़की की आंखों में भी वह आग देख पा रहा था। अचानक उसके दिल में एक लहर उठी। उसका मन किया इस लड़की को गोद में उठाकर जंगल में कहीं छिप जाये और कभी बाहर न निकले। इस आग को बचाना जरूरी है। इसी आग से तो मांचू सम्राट के महल जलाये जायेंगे और नई दुनिया बसाई जायेगी, जिसमें यह लड़की उसके बगलगीर होकर चलेगी। उसी की तरह अपनी जमीन की मालिक होगी। तीर-कमान चलायेगी। खेती करेगी, अपनी जमीन पर अपना ठिकाना बनायेगी।’ यू-यान ने चांग की आंखों में जो आग देखी थी, उस आग से वह प्रभावित हुई और दोनों ने साथ रहने का निर्णय किया। उसकी बहन ने उसे समझाने की कोशिश की कि 'यह अजनबी है और बागी भी। तुम इसके साथ इसकी हमनवा बनकर नहीं, बागी बनकर रहोगी। सम्राट की सेना कितनी ताकतवर है, क्या नहीं जानतीं तुम ? मारी जाओगी... मारी जाओगी मेरी प्यारी बहन ।’ यू-यान ने उसी दृढ़ता से जवाब दिया 'ऐसे भी तो यहां रहकर मर जाऊंगी। अगर भूख से नहीं तो सम्राट के नामुराद सिपाहियों की मार खाकर या उनकी हवस की शिकार बनकर। ऐसी मौत से तो लड़ मरना अच्छा है। मुझे चांग की ही पत्नी बनना है। मैं जाऊंगी ही इसके साथ अब सदा के लिये, मैंने तय कर लिया है।’ वह गई और मांचू सम्राट के विरुद्ध युद्ध में शामिल हुई, इसलिये वह ताइपिंग विद्रोह की नायिका कहलाई। ताइपिंग विद्रोह में चांग के मारे जाने के बाद उसके गर्भस्थ बच्चे चिन को न केवल उसने जन्म दिया अपितु पाल-पोसकर फतेह अली खान को सोंपा। उसे पता है कि चीन में 'इसे या तो राजा के आदमी मार देंगे या अंग्रेज इसे अफीम का आदी बना देंगे या अमेरिकी इसे हमेशा के लिये अपने देश ले जायेंगे।’ वह चीन में फिरंगियों के साथ फ्रांसीसी और अमेरिकियों के आतंक को देख रही है, जिन्होंने मिलकर या तो चीन को अफीमची बना दिया है या उन्हें अपने देश में गुलाम बनाकर ले जा रहे है। उसे फतेह अली खान पर पूरा विश्वास था, वह उन्हें रोज़ मछली खिलाने आया करती थी और टूटी-फूटी भाषा में उनसे बातें भी करती थी। अपने बारे में भी बताती थी और चीन की लगातार बिगड़ती स्थितियों पर चिंता भी व्यक्त करती थी। 'सूर्य दरबार’ का व्यापारिक काम केप्टन के हाथों में था इसलिये केंटन पहुंचने के बाद फतेह अली खान का कोई काम नहीं था सिर्फ रोज़नामचा लिखने और यदि केप्टन चाहते तो उसकी सहायता करने के अलावा। चीन की स्थितियां भी ऐसी नहीं रह गई थीं कि वहां आसानी से अकेले घूमा जा सके। भारतीयों के प्रति विदेशी व्यापारियों के मन में नफरत जन्म ले रही थी इसलिये उनके परंपरागत व्यापार को धीरे-धीरे समाप्त किया जा रहा था। सुमेर सिंह को एक बार फतेह अली खान ने अपने खत में इस बात का उल्लेख किया था कि अब अंग्रेज व्यापारी उनसे गाली-गलोज भी करने लगे हैं। केंटन की इन स्थितियों में यू-यान जैसी बहादुर औरत ही उनका सहारा थी। यह सही है कि फतेह अली खान उस तरह न तो बहादुर थे और न किसी जंग में उन्होंने हिस्सा ही लिया था लेकिन यह भी सही है कि वे अलग और विद्रोही काम करने वालों का सम्मान करते थे। 

उपन्यास की तीसरी औरत खदीजा बेगम हैं, जो सब्जी बेचने वाले परिवार से हैं। उनकी पृष्ठभूमि के बारे में रमेसर चौकीदार बताता है 'खदीजा, जिसकी कुंजडऩ मां, बांस की टोकरी में लौकी, तुरई बेचती हुई चलती थी। जिसके घर से हमेशा फूहड़ों की तरह हंसी की आवाज फूटती रहती थी। कहीं किसी शऊर का मुगालता न था। फिर उस घर में ऐसी लड़की कैसे पैदा हो गई? कैसे फिर लड़की बड़ी हो गई, ऐसी बड़ी कि शागिर्द होने का माद्दा रखने लगी? बीच बाजार में इसकी मां कई टोकरियों के साथ बैठ कद्दू, लौकी, तुरई, करेले की बिक्री के गीत गाती थी और ग्राहकों से मोलभाव करते हुये हाथ नचा-नचाकर झगड़ा भी कर लेती थी।’ यह सारा परिचय उस खदीजा बेगम का है जो बहुत दिनों तक नकाब पहनकर मुसव्विरखाने में आती थी लेकिन उसकी कला को देखकर उस्ताद शंकरलाल ने उसे अपना शागिर्द बना लिया था। बहुत दिनों तक न शंकरलाल और न चौकीदार ही उसे पहचान पाये। एक दिन अचानक शंकरलाल ने देखा कि किसी शागिर्द ने गंगा का बहुत सुंदर चित्र बनाया है, जिसे देखकर वे दंग रह गये। तब उन्होंने चौकीदार से पूछा कि यहां कौन शागिर्द बैठता है, जिसने यह चित्र बनाया है, जिसमें 'गंगाजी की लहरों पर बादल नाच रहे थे। ऐसी गंगाजी कभी चित्रों में नहीं देखी पहले। ये तो साक्षात् गंगाजी हैं। ठीक वैसी जैसी दिखलाई देती हैं। दियारा पर से देखने पर। क्या कोई दियारा पर का आदमी है जो यह चित्र बना रहा है ...? क्योंकि यह दृश्य और ऐसी गंगाजी और कहां?’ बहुत बाद में जाकर पता चला कि यह चित्र खदीजा बेगम ने बनाया है, जिन्हें सब्जी की दुकान पर देखकर शंकरलाल अपने होश खो बैठे थे। खदीजा बेगम सुंदर हैं, वे केवल अकेली नहीं बल्कि इस उपन्यास की तमाम औरतें अप्रतिम सौंदर्य की धनी हैं। यह कहना अनुचित न होगा कि वंदना राग को सुंदर औरतें पसंद हैं इसलिये परगासो, यू-यान और खदीजा बेगम-तीनों को मिलाकर सौंदर्य के जो प्रतिमान बनते हैं वे स्त्री सौंदर्य के उपासकों के लिये हतप्रभ करने वाले हैं। खदीजा बेगम के बारे में उन्होंने लिखा है 'चुस्त चूड़ीदार पाजामे और घुटने से कुछ ऊपर की कुर्ती पहने, छोटे कद की कुछ गदबदी-सी औरत। गोल संवलाया चेहरा। नाक में तीखी लौंग। और बड़ी-बड़ी पानीदार आंखों में कातिल सुरमा। आदाब का तरीका गैर सलीकेदार और पीछे से लहराती लंबी चोटी एकदम नागिन।’ उन्हें देखकर कला के उस्ताद शंकर लाल के मुंह से अचनाक निकला कि 'कला ऐसे रूपों में भी मौजूद होती है। जो अभी देखा है उससे बेहतर नहीं बना पाऊंगा तुम्हें। खालिस कुदरत। इतना बड़ा सच अब शायद कोई नहीं बना पायेगा इस सृष्टि पर। क्योंकि आने वाली पीढिय़ां कभी नहीं देख पायेंगी तुम्हें ऐसे ऐश्वर्य से भरपूर जैसा आज मैं देख चुका हूं तुम्हें।’ यहीं से शंकर लाल का खदीजा बेगम से प्यार शुरू हुआ और खदीजा बेगम ने कबूतर के पंख से एक पीले सुंदर कागज पर लिखा -खदीजा बेगम, शागिर्द-शंकर लाल, मुसव्विरखाना-मोहल्ला लोदी कटरा-पटना, ताकि सनद रहे कि शंकर लाल जैसे उस्ताद भी इतिहास में हुये हैं जिनके लिये इंसानियत से बड़ा धर्म न था और कला से बड़ा कर्म न था। इसके बाद उसने अब तक बने चित्रों की परंपरा से अलग जाकर कागज पर कुछ ऐसे रंग भरने शुरू कर दिये जिनका अर्थ भविष्य में आने वाली कला दुनिया के ताखों में सुरक्षित रख दिया गया। कोई पूछता खदीजा बेगम से -तुम क्या बना रही हो? तो वह जरूर कहती-मोहब्बत। मोहब्बत का नाम उसने रखा-पोटेऊट-शंकर लाल।’

एक दिन शंकर लाल अपनी बहुत सारी बेशकीमती तस्वीरों को लेकर चीन चले गये और जाने से पहले खदीजा बेगम से कहा 'इन आंखों के सुरमे को बह मत जाने दीजिये खदीजा बेगम, ये हमारी जान है। अगर मुझे मुसव्विरखाना को बचाना है तो मुझे यहां से जाना ही होगा। अब फिरंगी मुझ पर शक करने लगे हैं। हमें जाना ही होगा इन्हें इनका सम्मान दिलाने को। मैं नहीं हारा हूं आप भी नहीं हारिये... आप तस्वीर बनाते रहिये... और यदि कोई शागिर्द सीखना चाहे तो उसे भी जरूर सिखाइये। मैं जल्द लौटूंगा... आपके पास। मुसव्विरखाना के पास।’ खदीजा बेगम लगातार मुसव्विरखाना आती रहीं, कभी चौकीदार लापरवाही भी करता तो वे उसे डांटकर कहतीं कि उस्ताद कभी भी आ सकते हैं इसलिये मुसव्विरखाना साफ-सुथरा और अपने समय पर खुला रहना चाहिये। शंकर लाल उन्हें आने का भरोसा देकर गये थे, जिस भरोसे पर उन्होंने तीन पीढिय़ां गुजार दीं। उनकी हालत देखकर उनकी बहन रहीमन ने कहा 'तीन पीढिय़ों के झूठ का बोझा लेकर कब तक जियोगी बाजी? इससे तो अच्छा है मर जाओ! निगोड़े, अभागे, मर्द सारे, तुम्हारी ही जिंदगी में आये। एक से एक दगाबाज सब।’ अंत में स्थिति यह हुई कि 'मुसव्विरखाना की बची-खुची दीवार पर उगा सब्जा काही से ज्यादा काही हो गया। दरारें और गहरी हो गईं। मिट्टी झड़कर कमरे की तस्वीरों को ढकने लगी। खदीजा बेगम इंतजार में छोटी होने लगीं। उनका फूला शरीर सिकुडऩे लगा। इतना कि लगता था एक हड्डियों के ढांचे से बनी गोदी में खेलने वाली गुडिय़ा, बिस्तरे पर पड़ी है।’ वंदना राग लिखती हैं 'और सचमुच इस बदहाली के बाद भी, खदीजा बेगम जिंदा रहीं। जिंदा रहीं तब तक, जब तक शंकर लाल की खबर नहीं आ गई। और रहीमन की गलीज जुबान जिल्लत से कटकर गिर नहीं गई।’ खदीजा बेगम आजीवन कला की दुनिया और अपने उस्ताद के प्रति समर्पित रहीं। उस्ताद के जाने के बाद वे बकेली और असहाय होती गईं लेकिन मन के विश्वास को उन्होंने कभी कमजोर नहीं पडऩे दिया। वे सचमुच में बड़ी कलाकार थीं।

अंतत: सारी ऐतिहासिक धरोहरों की तरह मुसव्विरखाना भी दुर्दशा का शिकार हुआ। शंकर लाल के पोते ने उसे कसाइयों को बेच दिया। 'पटना कलम’ का वह नायाब मुसव्विरखाना जिसमें धर्म, जाति, प्रांत और देश की सीमाओं से परे शागिर्द अपनी प्रतिभा के बल पर बेहतरीन कलाकृतियां उकेरते थे, वह अब नहीं रहा। पर उसकी खोज करती ली-ना चीन से आती है, जो यू-यान की बहन मा-चाओ की पडऩातिन है, जिसकी मां तिआनमान चोैक पर प्रतिरोध करते हुये टेंक से कुचल दी गई थी। अपनी मां का कुचला हुआ चेहरा और उसका हौसला देखकर वह भी निडर हो गई थी। वह अपनी नानी की मां की बहन यू-यान के बेटे चिन की खोज करती हुई भारत आती है, जिसका चित्र उसे पटना के आटर््स कालेज में मिलता है। उपन्यास में सैकड़ों कथाएं हैं, जिन्हें छोड़ पाना कठिन है पर उपन्यास का मूल ढांचा उन तीन औरतों की बहादुरी, उनके अप्रतिम सौंदर्य तथा प्रेम की अनन्य निष्ठा से निर्मित है। 1840 से 1910 तक के बीच 1857 में लड़ा गया पहला स्वाधीनता संग्राम और चीन का ताइपिंग विद्रोह ऐतिहासिक महत्व रखता है, लेकिन उस इतिहास में परगासो और यू-यान जैसी साधारण औरतों के असाधारण करतब दर्ज नहीं है इसलिये उनका उपन्यास में दर्ज होना जरूरी था। वंदना राग ने उपन्यास को भटकने से बार-बार रोका है, वे ठहर-ठहरकर उन कथाओं को केंद्र में बनाये रखती हैं, जो कथाएं बहादुरी, साहस, प्रेम और सौंदर्य से ओतप्रोत हैं।

 

संपर्क- वर्धा, 9421101128, 8668898600

 


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