मुखपृष्ठ पिछले अंक आलोचना / विमर्श गर्दिश-ए-फ़लक ने चैन से बैठने न दिया
सितम्बर - अक्टूबर : 2020

गर्दिश-ए-फ़लक ने चैन से बैठने न दिया

सुधीर विद्यार्थी

आत्मकथ्य

 

 

बादलों ने सूरज की हत्या कर दी

सूरज मर गया

मैं दूसरे का बोझ ढोता हूं

मेरे रिक्शे में आईने लगे हैं

मैं आइने में अपना मुंह देखता हूं

सूरज नहीं रहा

अब धरती पर आईनों का शासन होगा

आईने अब उगने और न उगाने वाला बीज अलग-अलग कर देंगे

                   - भुनेश्वर

                   (तांबे के कीडे)

 

       1993 से 1996 तक फतेहगढ़ रहते हुए डायरी में जो कुछ लिखा उस पर धूल की अनेक पर्तें चढ़ चुकी थीं। सोलह साल का वक्फा कम नहीं होता। उन पन्नों में गुलाब बाई की स्मृति में उकेरी गई इबारत को फिर से पढते हुए एकाएक लगा कि वहां उस नौटंकी की ज़मीन पूरी तरह अनुपस्थित है। ऐसे में बलपुरवा की उनकी गंवई बस्ती को देखना मुझे जरूरी लगा। मेरे लिए यह जानना ज्यादा महत्वपूर्ण था कि बेडिय़ा जाति की उस लोकप्रिय कलाकार को उसके इलाके के लोग आज किस तरह याद करते हैं और यह भी गुलाब के दिनों की नौटंकी कला की ज़मीनी ह$कीकत अब क्या है। मेरा वह यात्रा संस्मरण 'कथादेश’ में छपा तो पाठकों की प्रतिक्रिया ने मुझे खासा उत्साहित कर दिया। ऐसा न होता तो 'फतेहगढ़ डायरी’ की वह बेतरतीब लिखावट किताब की शक्ल में न आ पाती। प्रो. मैनेजर पांडेय ने वर्ष भर के साहित्य में इसकी चर्चा की। खास बात यह थी कि इस पुस्तक में फतेहगढ़ की धरती पर क्रांतिकारी आंदोलन के बिखरे सूत्रों की तलाश के साथ वहां के केन्द्रीय कारागार में आजादी के बाद बंदी रहकर सत्ता का दमन झेलने वाले नक्सलवादियों की भूली-बिसरी दास्तान अपने जीवंत रूप में दर्ज हो सकी। इसके लिए हमें उस जेल में बार-बार जाना पड़ा। यह एक कठिन कवायद थी। हैदराबाद पहुंचकर वरवर राव को यह पुस्तक मैंने भेंट की। बाद को कानपुर जेल से राजनीतिक बंदी कृपाशंकर ने पत्र लिखकर सूचित किया कि वरवर के जरिए कई जेलों में पढ़ी जाने के बाद वह पुस्तक अब कानपुर बंदीगृह में उन कैदियों के बीच बांची जा रही है जो आज भी वास्तविक आजादी के लिए चल रहे जनयुद्ध में संलिप्त रहकर सरकार की गिरफ्त में हैं।

मुक्ति-संघर्ष के निरंतर धुंधलाए जाते नायकों का लेखा-जोखा जुटा पाना मेरे तईं उन दिनों कठिन होता जा रहा था। फिर भी जो लिखा उसे साहित्य की दुनिया में पढ़ा और रेखांकित किया जाना मुझे तसल्ली दे रहा था। मैंने कुछेक लोगों की तरह स्वतंत्रता के स्वप्न के लिए फांसी पर जाते भगतसिंह को बेचने की वस्तु में तब्दील नहीं किया और न ही उनकी क्रांति चेष्टाओं को सामने लाकर अकेले उन्हें ही क्रांति का सिरमौर बनाया बल्कि सम्पूर्ण क्रांतिकारी संघर्ष और उसके संग्रामियों की इकजाई कोशिशों को अपने लिखे जा रहे इतिहास में मुकम्मल जगह देना मुझे प्रतिक्षण अधिक कारगर और जरूरी लगा ताकि इस महादेश के साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष की समग्र तस्वीर को बखूबी चीन्हा जा सके। बावजूद इसके बंगाल की बहुत सारी घटनाएं और गतिविधियाँ  मुझसे कमोवेश छूटती चली जा रही थीं। वर्ष 2015 में आसनसोल के रानीगंज में मैनेजर पाण्डेय के हाथों से 'गणमित्र सम्मान’ लेते हुए मेरे भीतर यही चिंताएं विद्यमान थीं। अपने वक्तव्य में वहां मैंने शेख मुजीबुर्रमान को आदर के साथ स्मरण करते हुए यह रेखांकित किया कि बंगला देश के मुक्ति-युद्ध के दौर में कलकत्ता की एक गुप्त मीटिंग में देश के पुराने क्रांतिकारियों के मध्य मुजीब ने कहा था कि वे उसी काम को पूरा कर रहे हैं जिसे मास्टर दा सूर्यसेन अधूरा छोड़ गए थे। हम जानते हैं कि मास्टर दा बंगाल की समूची क्रांतिकारी चेतना के प्राण थे और उनका मूल्यांकन करते हुए दोनों देशों की विभाजक रेखा देख पाना मेरे लिए संभव नहीं हो पाता। क्या वह सरहद आज भी अर्थहीन नहीं है जिसने चटगांव, कुमिल्ला, ढाका या मैमनसिंह की धरती को हमारे लिए विदेशी बना दिया। 1980 में कलकत्ता पहुंचकर जब मैं चटगांव क्रांति के गणेश घोष से मिला तब भी वे मुझे संयुक्त बंगाल के ही क्रांतिकारी प्रतिनिधि लगे थे। बाद को बरेली केन्द्रीय कारागार में 11 क्रांतिकारियों के नाम पर द्वार और बैरकों के नामकरण के साथ गणेश घोष की तस्वीर और स्मृति-पटल को लगाते हुए मुझे क्रांतिकारी संग्राम में उत्तर भारत और सुदूर बंगाल के रिश्ते बहुत याद आए।

इन्हीं दिनों बरेली शहर को कुछ अपने ढंग से दर्ज करने का हौसला बना तो ढाई महीने की अल्प अवधि में मैंने 'बरेली: एक कोलाज’ रच डाला। इस शहर की गलियों-सड़कों की $खाक छानते मुझे कुछ समय पहले ही दिवंगत हुए धर्मपाल गुप्त 'शलभ’ की बहुत याद आई जिनके भीतर यह शहर किसी वाद्य-सा झनझनाता था। वे रहे होते तब इस पुस्तक का रूप-रंग कुछ अधिक गाढ़ा होता। तसल्ली की बात यह थी कि इससे पहले हम कविता भारत के साथ पं. राधेश्याम कथावाचक के समय में उसके नाटकों में काम करने वाले लोगों से सघन साक्षात्कार करके उस पूरे युग की तस्वीर को चीन्हने की दुर्लभ कोशिशें करते रहकर इस शहर के चेहरे की मजबूत शिनाख्त कर चुके थे। दु:ख है वीरेन डंगवाल मेरे इस काम को नहीं देख पाए। दिल्ली में अपनी लंबी और कठिन बीमारी के बाद उनके बरेली आने के दो दिन पूर्व ही अचानक मुझे कलकत्ता जाना पड़ा और वहां बर्नपुर में 28 सितम्बर 2015 को प्राय: बहुत सवेरे मुझे उनके निधन की दु:खद सूचना मिली जबकि मैं काज़ी नज़रूल इस्लाम के गांव चुरूलिया जाने की तैयारी कर रहा था। विछोह की उस पीड़ा के बीच नज़रूल के घर और उनके नाम पर बनी अकादमी की उस चौखट पर मुझे सबसे अधिक वीरेन की वह जिद याद आती रही जिसके चलते मैं शाहजहांपुर और बीसलपुर का अपना घर-दुआर छोड़कर बरेली आ बसा था। सच कहूं तो वीरेन के बिना इस बस्ती की  रिहाइश ने मुझे बहुत अकेला कर दिया। आखिर वे गच्चा दे ही गए। उनकी फितरत भी यही थी। कई मौकों पर मिलने का वादा करके अक्सर डुबकी मार जाते लेकिन फिर सामने आते ही वही गलबहियां जिसके चलते गिले-शिकबे की कोई गुंजाइश नहीं बचती।

समय धीरे-धीरे बह रहा था। नहीं, वह एकाएक तेजी से भागने और बदलने लग गया था। 2014 में जिस दिन रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय के सभागार में मुझे ओम थानवी, लीलाधर मंडलोई, विष्णु नागर, नरेश सक्सेना, ऋतुराज, प्रताप राव कदम और ओम निश्चल के हाथों 'शमशेर सम्मान’ दिया गया तब लोकसभा चुनाव के नतीजों से केन्द्र में नरेन्द्र मोदी सरकार के गठन का रास्ता साफ हो चुका था। थानवी जी ने 'जनसत्ता’ तथा विष्णु नागर जी ने 'शुक्रवार’ में इन चुनावों मेंं भारतीय जनता पार्टी के फासीवादी एजेण्डे के खिलाफ एक सघन मुहिम को गति दी थी। बरेली में मुझे सम्मान देते हुए वे अपने पत्रों के संपादक थे लेकिन दिल्ली पहुंचते-पहुंचते इन पदों से उन्हें मुक्त कर दिया गया। यह सत्तामुखी अखबार के मालिकों का हैरतनाक पैंतरा था। बाद को केन्द्र में भाजपा नेतृत्व में सरकार गठित होते-होते 'अमर उजाला’ के संपादकीय पृष्ठ पर छपने वाले मेरे स्तम्भ को बिना कारण बताए बंद कर दिया गया जिसे मैं 1993 से निरन्तर लिखता चला आ रहा था। मेरे लिए यह कुछ नया नहीं था। नौकरी में रहते हुए अपने लेखन लिए मुझे बार-बार विभागीय जांचों की बंदिशों का सामना करने के साथ ही गैरकानूनी तबादलों, पदावनतियों, जेल और फिर छ:ह वर्ष की सरकारी सेवा से भी 'मुक्त’ होना पड़ा। यह भी याद किया जाना जरूरी है कि 2 जून 1990 को शाहजहांपुर में मेरे ऊपर हुए जानलेवा हमले के बाद एक बार फिर 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपाइयों की ओर से मुझे 'पाकिस्तानी कट्टरपंथी’ करार दे दिया गया। हुआ यह था कि बरेली केे उस समय के पूर्व सांसद (वर्तमान केन्द्रीय मंत्री) ने दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़े किन्हीं हरीन्दर श्रीवास्तव के व्याखान में मुझे खास तौर पर आमंत्रित किया पर मैं उसमें नहीं गया। अगले दिन अखबारों में हरीन्द्र का एक अनर्गल वक्तव्य छपा जिसमें कहा गया था कि भगतसिंह ने पांच वर्ष की उम्र में गांव के प्राइमरी स्कूल में दाखिले का फार्म फरते हुए अपनी मां के पांच नाम लिखे - धरती माता, भारत माता, गंगा माता, गौ माता और अपनी मां विद्यावती। एक सेमिनार में जब मैंने उनके इस झूठ का प्रतिवाद किया तो भाजपा प्रवक्ता ने एक अखबार में बाकायदा मुझे 'पाकिस्तानी कट्टरपंथी’ बताया। उन दिनों दूसरे जगहों की तरह बरेली में भी इस तरह की साम्प्रदायिक सोच को मुसलसल विस्तारित किया जा रहा था। तीन वर्षों से हर बारहवें महीने तीसेक दिन का कफ्र्यू झेलता यह शहर पूरी तरह दो खेमों में तकसीम हो चुका था। राजनीति के लिए यह सूरत बहुत मुफीद थी। याद आता है कि उसी लोकसभा चुनाव से पहले एक पड़ोसी मुस्लिम मित्र ने मुझसे कहा था कि मैं तो इस बार भाजपा को ही वोट दूंगा जिससे शहर में साल में एक महीने लगने वाले कफ्र्यू से तो राहत मिलेगी। और सचमुच ऐसा हुआ भी। भाजपा के केन्द्रीय सत्ता में पहुंचने के बाद छह वर्ष की अवधि में एक बार भी बरेली में वैसी स्थिति नहीं आई। बावजूद इसके कह सकता हूं कि साम्प्रदायिकता का यह मामला कतई एकतरफा नहीं है। एक की कट्टरता दूसरी को भरपूर हवा-पानी देती है। तमाशे यह भी देखिए कि 'इत्तिहादे मिल्लत कौंसिल’ के मौलाना तौकीर रज़ा ने एक बार इस शहर में धर्मनिरेपक्ष सम्मेलन आयोजित किया जिसमें संदीप पाण्डेय, प्रभाष जोशी, विभूति नारायण राय सरीखों ने भी शिरकत की। मौलान की कट्टरवादी राजनीति से धर्मनिरपेक्षता को कभी सही तौर पर परिभाषित नहीं किया गया। यहां तो 'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’, 'तू भी भला, मैं भी भला’ या 'कोई धर्म लडऩा नहीं सिखाता’ जैसे जुमलों वाले लिबलिब सर्वधर्मसमभाव को ही सेक्युलरिज्म कहने की शातिर बुद्धिवादी कवायद इस चिंतन पर हमेशा हावी रही। ऐसा करने वालों में वामपंथी भी शामिल हैं। मैं यह कतई विस्मृत नहीं कर पाता कि इन्हीं मौलाना तौकीर के साथ 'आम आदमी पार्टी’ के सुप्रीमो अरविन्द केजरीवाल की इस शहर में संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस की दुर्लभ जुगलबंदी अखबारों में खूब छपी। वह तो भला हो तसलीमा नसरीन का जिन्होंने खुद केजरीवाल से यह सवाल कर दिया कि जिस व्यक्ति ने उनके सिर पर ईनामी फतवा जारी किया हो उसकी संगत आखिर क्यों? केजरीवाल ने इस सवाल का बहुत मासूमियत से जवाब दिया कि उन्हें तौ$कीर रज़ा के ऐसे कारनामे का पता नहीं था। अरुण जेटली से लेकर राबर्ट वाड्रा तक सबकी जन्मकुंडलियों का जमाखाता संभालने वाले केजरीवाल क्या सचमुच तौकीर की इस 'ज़ंदादिली’ से नावाकिफ थे? हम लज्जित थे कि बरेली में तसलीमा पर एफआईआर दर्ज हुई। गनीमत यह हुई कि आरोप-पत्र लगने से पहले ही उस रिपोर्ट को खारिज कर दिया गया। ऐसा प्रशासनिक सूझ-बूझ के चलते ही संभव हुआ। पर शहर के लेखक और संस्कृतिकर्मी इस मुद्दे पर पूरी तरह खामोश और अपनी दुनिया में थे। मैंने देखा कि कुछ 'सेकुलर’ कलमकारों के लिए तसलीमा अंतत: मुसलमान थी और उनमें अदिकांश भीतर से हिंदूवादी रंगत में सने-पुते बेशर्मी से रंगकर्म और सम्मान-अभिनन्दनों में डूब-उछर रहे थे। उनके लिए यह भी कोई मुद्दा नहीं था कि 2 सितम्बर 2018 को पंजाबी की प्रसिद्ध लेखिका अजीत कौर के विरुद्ध धार्मिक भावनाएं आहत होने के आरोप में बरेली के एक थाने में तहरीर दे दी गई। मसला यह था कि 'अमर उजाला’ के रविवासकीय परिशिष्ट के एक स्तम्भ 'मेरी अलमारी से’ में किन्हीं आबिद अली, कानपुर ने अजीत कौर की कहानी 'मौत अलीबाबा’ का एक पसंदीदा अंश प्रस्तुत कर दिया जिससे किसी कट्टर हिंदू की भावनाओं को चोट पहुंची और फिर पुलिस में अजीत कौर तथा आबिद के खिलाफ रिपोर्ट और प्रदर्शन। है न कमाल का मूर्खत्व!

मेरी आंखों के सामने शहर बाकायदा मरता जा रहा था और उसके बीच मेरी ज़ंदा रहने की ख्वाहिशें भी कमोवेश दफ्न होती लग रही थीं। मैं एक समय का एक्टिविस्ट और कर्मचारी आंदोलन का सजग सिपाही इन दिनों बार-बार अपने होने को तलाश करने लगा था। तभी मुझे सांस लेने की थोड़ी जुगत दिखाई दी। बरेली में बड़ा बाइपास बनने से छिन जाती रही खेती से जुड़े किसानों के बीच हलचल थी। मैं बिन बुलाए उनके बीच जा पहुंचा और फिर धरना, अनशन, प्रदर्शन, अधिकृत की गई जमीनों को फिर से कब्जाने जैसी मुहिम से जुड़कर सचमुच मुझे बहुत सुकून मिला। हम थोड़ा मुआवजा बढ़ोतरी के अलावा किसानों का बहुत भला नहीं कर पाए। यह हम पहले से जानते थे। लेकिन हमारे लिए यह देखना पीड़ादायक था कि सरकारी दमन के बावजूद हमारी ईमानदार कोशिशों के बीच भी किसान एकता सिर्फ नारा बन कर रह गई। जिन किसानों के खेत बच जा रहे थे वे इस बात से प्रसन्न थे कि हाईवे के किनारे की उनकी जमीनें अब ऊंची कीमत पर बिकेंगी और इस नाते वे आंदोलन से पूरी तरह विमुख हो गए। कुछ किसान प्रशासनिक दबाव में 'एग्रीमेंट’ कर चोरी-छिपे अपनी सहमति से हस्ताक्षर और अंगूठे लगा रहे थे। ऐसे तजुर्बों से हम कर्मचारी आंदोलन में भी कई बार दो-चार हुए जिससे हड़तालें टूटीं और हमने कड़ी प्रताडऩाएं और पराजय झेली। 1992 में मेरे विरुद्ध जिला जज की ओर से दर्ज फर्जी मुकदमें में 28 वर्षों की दीर्घ अवधि के बाद भी अदालत की ओर से आरोप निर्धारित न किया जाना क्या उत्पीडऩ की पराकाष्ठा नहीं है। समूचा न्यायतंत्र अपनी आंखों पर पट्टी बांधे आखिर किस ठंडेपन से इसे देख रहा है। कौन जाने कि आज भी मुलजिम के कटघरे में खड़े होकर हाजिरी देते हुए क्या मैं भी राजनेताओं की तरह 'मुझे न्यायतंत्र में पूरा भरोसा है’ जैसे जुमले को बुदबुदाने के लिए विवश नहीं हूं।

2013 में मेरी षष्ठिपूर्ति पर आयोजन के पीछे पूरा मंसूबा कविता भारत का था। इस अवसर पर उनके संपादन में प्रतिमान प्रकाशन से छपी 'ज़मीन को देखती आंखें’ में मेरे काम की जांच-परख की कोशिशों में मेरी अधिक दिलचस्पी नहीं थी। बेहतर यह होता कि भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के मूल्यांकन और मौजूदा समय में उसकी प्रासंगिकता को लेकर परिचर्चा जैसा कुछ रहा-बना होता तब उसकी अधिक सार्थकता थी। ठीक एक वर्ष पहले ही शाहजहांपुर पर छपी मेरी दूसरी पुस्तक 'शहर के भीतर शहर’ के विमोचन के समय राजी सेठ, राजकुमार कृषक, वीरेन डंगवाल, मूलचंद गौतम, कल्लोल चक्रवर्ती, शैलेय और केशव तिवारी की उपस्थिति में यह सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण ढंग से उठाया गया था लेकिन उस दिशा में काम नहीं हो सका। अनेक लोगों ने तब मेरे जनपदीय काम की शिनाख्त जन इतिहास के रूप में करनी चाही पर यह किसी तरह उचित नहीं था। मैंने प्राय: अपने लेखन में विधाओं का अतिक्रमण करते हुए बने बनाए ढांचे को तोड़ा है। वह पूरी तरह इतिहास नहीं है बल्कि वहां संस्मरण और रेखाचिक्ष का आस्वाद उसे अधिक पठनीय और प्रामाणिक बनाता है। मेरी पुस्तकों को अकादमिक ढंग से इतिहास लेखन तथा 'सबाल्टर्न हिस्ट्री’ जैसे किसी खांचे में भी समायोजित किया जाना किसी तरह संभव नहीं है।

शाहजहांपुर की रंग सक्रियता को छोड़कर बरेली के सन्नाटे भरे माहौल में आ जाना मुझे रास नहीं आ रहा था। इस शहर में राधेश्याम कथावाचक के बाद नाटक की दुनिया में घनघोर अंधेरा व्याप्त था लेकिन उस रिक्तता को जल्दी ही डॉ. ब्रजेश्वर सिंह की नाटक संस्था 'रंगविनायक रंग मंडल’ ने भरने की पुरजोर कोशिशें कीं और कुछ ही वर्षों में उनके ब्लैक बॉक्स थियेटर 'विंडरमेयर’ ने एक अनोखे सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में अपनी पहचान बना ली जहां वर्ष में सात-आठ दिनी रंग महोत्सव जैसा कुछ करके बाहरी नाटक मंडलियों की प्रस्तुतियों से भी शहरवासियों को जोडऩे की बड़ी मुहिम चलाई गई जो आज भी जारी है। पर कई मायनों में यह इलीट किस्म की समारोहप्रियता ही बनी रही जहां दर्शकों का सिर्फ मनोरंजनार्थ उपस्थित होना एक भिन्न तरह के वातावरण सृष्टि करता है। ऐसे में नाटक का असली उद्देश्य पूरी तरह गैरहाजिर हो जाता रहा है। प्रेक्षागृह में बैठे सजे-संवरे लोग मंटों के देश विभाजन के दर्द से जुड़ नहीं पाते और 'रामलीला’ जैसी नाट्य प्रस्तुतियों में रंगकर्मियों पर पुष्पवर्षा के साथ उनका भक्तिभाव से नाचने लग जाना कई बार नाट्यकर्म की सार्थकता पर भी सवाल उठाता है। तसल्ली की बात कुछ ऐसी भी रही आई कि एक बार पूरा नाट्य महोत्सव उर्दू की विख्यात कथा लेखिका इस्मत चुगताई को समर्पित किया गया जो एक समय इस शहर के इस्लामियां गल्र्स हाई स्कूल की पहली हेड मिस्ट्रेस रही थीं. दूसरे यह कि नाटकों से पहले कहानी पाठ के प्रयोग जैसी बेहतरीन कोशिशों से इस शहर में संस्कृति कर्म को कुछ नया देने जैसा प्रतीत हुआ। उन्हीं दिनों मैंने इस्मत आपा की पुस्तकें इस्लामियां गल्र्स स्कूल को दीं और वहां उनका एक बड़ा चित्र भी लगवाया। अब उस विद्यालय के प्राचार्या कक्ष की दीवार पर जड़े एक बोर्ड में सबसे ऊपर इस्मत आपा के नाम के आगे यह दर्ज हो चुका है कि वे इस शिक्षा संस्थान में प्रारम्भ से 1959 तक नियुक्त रहीं। सोचता रहा कि इस शहर में इस्मत चुगताई, प्रेमचंद, राधेश्याम कथावाचक, निरंकार देव सेवक और केपी सक्सेना के नाम पर मार्ग और निशान होने चाहिए। पर विडम्बना देखिए कि यहां के विस्तारित होते भूगोल पर ऐसा कुछ भी नहीं है जो अपने इतिहास और संस्कृति की शिनाख्त को नई पीढ़ी के जेहन में उतार सके जबकि शराब व्यवसायी हरीश अनेजा की स्मृति में महापौर द्वारा लोकार्पित एक मार्ग का वजूद देखकर आपकी आंखें फटी रह सकती हैं। और यह भी कि शहामतगंज मुहल्ले को अब श्यामगंज, अयूब खां चौराहे को पटेल चौक, नेहरू के खूबसूरत आदमकद बुत लगे चौकी चराहे को अटल चौक, पुराने कुतबखाना को स्वामी दयानंद सरस्वती चौक तथा कोहाड़ापीर तक की जगहों और मुहल्लों को बार-बार याद करना हमें बहुत मोहता था। यहां का महात्मा ज्योतिबा फुले रुहेलखंड विश्वविद्यालय भी अपने अतीत को संरक्षित करने के मामले में बहुत बेदम साबित हुआ है जहां दीनदयाल उपाध्याय क्रीड़ास्थल और अटल सभागार तो बन रहे हैं लेकिन पं. राधेश्याम कथावाचक पीठ के गठन की घोषणा के बाद भी वैसे कोई पहल दिखाई नहीं देती जो उनके रचे-लिखे को संजोने-खोजने की दिशा में कुछ काम कर पाती। हां, उत्तर प्रदेश में महन्त सरकार आने के बाद यहां के पूरे परिदृश्य को हर तरफ भगवा कर दिया गया है। राधेश्याम जी के नाम पर शहर में भी किसी मार्ग, द्वार या प्रतिमा का न होना सचमुच पीड़ादायक है। दु:खद यह भी है यहां के एक पार्क में विख्यात क्रांतिकारी दामोदर स्वरूप सेठ की खंडित प्रतिमा 12 वर्षों तक अपने जीर्णोद्धार के लिए किसी की प्रतीक्षा करते रह सकती है। बरेली की ज़मीन पर 1857 में खान बहादुर खां की फांसी के बाद दूसरी शहादत बरेली के केन्द्रीय कारागार में क्रांतिकारी प्रतापसिंह बारहठ की थी। शचीन्द्रनाथ सान्याल ने अपनी प्रसिद्ध कृति 'बंदी जीवन’ में एक अध्याय ही 'प्रताप की कहानी’ शीर्षक से उन पर लिपिबद्ध किया है। जेल के भीतर शहीद बारहठ की स्मृति में एक बैरक का नामकरण, शिलापट्ट और चित्र लगवाने के बाद राजस्थान के साथियों ने मुझसे इस ज़मीन पर उनकी प्रतिमा स्थापित कराने की मांग की लेकिन इस मुहिम मेरे लिए एक और लड़ाई साबित हुई। ऐसा तब हुआ जबकि हम स्मारक के लिए सरकार या निगम से कोई आर्थिक मदद नहीं ले रहे थे। फिर भी शहर के महापौर ने जगह देने से इन्कार कर दिया। मैंने निजी रिहायशी कॉलोनियों के मालिकानों से गुज़ारिश की पर कहीं भी मुझे एक शहीद की यादगार के लिए दस-बाइ-दस का कोना हासिल नहीं हुआ जबकि शहर में कितनी ही शहरों तथा नकटिया और किला नदी के किनारों और उनकी बहती जीवन-धाराओं को निगम और प्रशासन की मिली भगत से लील लिया गया। इस स्थिति में मैंने अपनी इस मांग के लिए अनशन पर जाने से पहले स्थानीय नेताओं को अपने फैसले से अवगत कराना जरूरी समझा। पर कहीं कोई जुंबिश नहीं। इन परिस्थितियों के बीच मुझे अपने मित्र और प्रदेश विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष के जरिए विधानमंडल में एक प्रश्न लगवाना पड़ा जिस पर तत्कालीन सरकार ने जिला प्रशासन से शहीद की प्रतिमा के लिए स्थान उपलब्ध न कराने का कारण जानना चाहा। नतीजा यह हुआ कि निगम बोर्ड ने एक खास मुहल्ले में हमें पार्क का आवंटन कर दिया। शहीद बारहठ की संगमरमर की प्रतिमा और राजस्थान शैली की पत्थर की छतरी (मंडप) हम मंगा चुके थे। यह सब खासी लागत का था लेकिन निर्माण कार्य प्रारम्भ करने की सूचना देते ही महापौर ने अपने कार्यालय में अधिकारियों और सभामदों के बीच प्रस्तावित मानचित्र के कागजात यह कहते हुए उठाकर फेंक दिए कि वे इतना बड़ा पार्क शहीद स्मारक के लिए नहीं देंगे। ऐसे में मुझे प्रदेश सचिवालय जाना पड़ा। हमारे हाथ में स्मारक के लिए पार्क के आवंटन की निगम बोर्ड से पारित प्रस्ताव की प्रति थी। मैं जानता था कि नगर निगम या स्वयं महापौर किसी तरह अब इसे खारिज नहीं कर सकते। हमारे पक्ष में बात बनते ही हमने अपने व्यय पर शहीद बारहठ की प्रतिमा स्थापित कर ली जिसका अनावरण 24 मई 2017 एक बड़े समारोह में शहीद भगतसिंह के भांजे प्रो. जगमोहन सिंह ने किया। इस स्मारक के निर्माण में राजस्थान के साथी कैलाश सिंह जडावत और उनके मित्रों ने मेरी भरपूर मदद की। समारोह में बड़ी संख्या में राजस्थान से महिलाओं ने आकर हिस्सेदारी की जिसने परिदृश्य को अनोखी रंगत दी।

वीरेन डंगवाल को एक वर्ष पूरा होने को था। मेरे लिए सब तरफ उदासी और सन्नाटे का आलम। उनकी बरसी के दिन उस बरेली कालेज में एक संगोष्ठी का आयोजन करने के लिए मुझे स्थान नहीं दिया गया जहां वे वर्षों तक अध्यापन करते रहे। कुछ मित्रों के साथ हमने विश्वविद्यालय के पुस्तकालय कक्ष में बैठना तय किया। वीरेन की बहन वीना जी उनकी एक तस्वीर लेकर आ गईं। शहर के कुल जमा 13 लोग। दो साथी पीलीभीत के। मैंने उसी दिन वीरेन का स्मारक बनाने का फैसला किया लेकिन उस पर काम देर से शुरु हुआ। बरेली में जिलाधिकारी होकर आए मेरे पुराने मित्र वीरेन्द्र कुमार सिंह ने इसके लिए जगह मुहैया कराने में मदद की। फिर वीरेन का परिवार इस मुहिम में शामिल हो गया। हमने 8 दिसम्बर 2019 को स्मारक का अनावरण बटरोही जी ने कराया। कह सकता हूं कि मेरी ओर से कार्यक्रम को अधिक विस्तारित नहीं किया जा सका। यह मेरी सीमाएं थीं। मंगलेश डबराल सहित जसम के अनेक साथियों को इसका शिकवा रहा जिन्होंने इसके बनने के दौरान कोई रुचि नहीं ली। मुझे दु:ख रहा कि अशोक भौमिक ने बार-बार आग्रह करने के बाद भी वर्ष भर में वीरेन के स्मारक का डिजाइन तैयार नहीं किया।

मैं पिछले डेढ़-दो वर्ष से निरन्तर अस्वस्थ चल रहा था और चीजें समझ में नहीं आ रही थीं। उन्हीं दिनों प्रोस्टेट के बढऩे से होने वाली दिक्कत भी बढ़ी और उसमें कैंसर की संभावना बताई जाने लगी। ऑपरेशन की सलाह और उसकी मनाही के बाद पेंडुलम-सा डोलता मैं। ज्ञानरंजन जी ने चीर-फाड़ न कराने की सख्त हिदायत दी। आशंकाओं की खूंटी पर टंगे रहने के उन दिनों में जाने क्यों मुझे ताहिर फ़राज़ यह शेर बार-बार याद आता रहा - 'ज़ंदगी तेरे तआकुब में हम, इतना चलते हैं कि मर जाते हैं।’

रामकुमार कृषक ने चिंतित होकर दिल्ली एम्स के यूरोलॉजी में मेरा अपाइंटमेंट ले लिया। दो महीने बाद की तारीख। पता नहीं क्या होगा। ऑपरेशन के अपने खतरे बताए जाने लगे जिसके बीच मैं नास्तिकता पर अपनी संपादित की जाने वाली पुस्तक को पूरा करने में जुटा रहा और उसे दिल्ली में प्रकाशक को सौंप कर ही एम्स पहुंचा। अनेक जांचों के बाद सिर्फ दवाई तजवीज की गई तो बेटे ने भी राहत की सांस ली। उन्हीं दिनों मैंने प्यार पर एक लंबी कविता लिखने की कोशिश की पर नाकामायब रहा जिसकी कुछ अंतिम पंक्तियां इस प्रकार हैं -

इब्तिदाई इश्क़ में कामरेड कहते-कहते

वह कब मुझे कामू कहने लग गई इसे मैं भी नहीं जानता

और शायद उसे भी ठीक-ठीक यह बताने में दिक्कत होगी

पर मेरे लिए कामू से खुशनुमा कोई शब्द नहीं

 

अल्बेयर कामू ने मेरे जन्म के करीब सवा तीन साल पहले

पेरिस से रोलां वार्त के नाम एक लंबा ख़त लिखा था

जो उसकी कारयित्री प्रतिभा का अद्भुत नमूना है

 

मैं भी प्यार भरी वैसी ही एक इबारत उसके नाम

दर्ज करना चाहता हूं पर उससे बचता हूं

कहा जाता है कि अल्बेयर की मृत्यु 'घृणा के बर्फीले तूफान’ के बीच हुई

इसलिए प्यार की लौ को अंत तक बचाए रखना ज्यादा जरूरी है

बनिस्वत एक ख़त या कविता लिखने के

अल्बेयर का ऐसा अंत मुझे भी कलम थामने से रोक लेता है

यह भी तो एक तरह का डर है जो मुझे ठीक से जीने नहीं देता

 

क्या ज़ंदगी के लिए डर जरूरी है

किताबें प्यार और सुंदरता की तरह

 

ज़ंदगी और प्यार दोनों के प्रति कुछ इसी तरह का भय हाथों में समेटे तीन महीने बाद फिर एम्स गया तो लम्बे कुछ सुकून भरे हो गए थे और मैं मधुप्ट्रेश को लेकर शहीद चन्द्रशेखर आज़ाद की सहयोगी क्रांतिकारिणी सुशीला दीदी की यादों के बिखरे फूल तलाश करने बल्लीमारान की गलियों में जा पहुंचा। दीदी के कन्या शिल्प विद्यालय की खंडहर होती इमारत और दिल्ली नगर निगम के एक पार्क में उनकी प्रतिमा देखने के बाद मैंने पुराने कांग्रेसी नेता ब्रजमोहन के सुपुत्र विजय मोहन से उनके दरियागंज वाले घर में भेंट की। यहां मुझे दीदी पर कुछ सामग्री मिल गई जिसे मैं कई वर्षों से तलाश कर रहा था। माओवादी होने के आरोप में जेल भेजे जाने वाली एक्टिविस्ट सीमा आज़ाद का फोन उसी दिन मिला कि वह और उनके पति विश्वविजय अपनी जेल डायरियों का विमोचन मुझसे कराना चाहते हैं। इलाहाबाद पहुंचा तो विश्वविद्यालय के सभागार में दूधनाथ सिंह जो पहली पंक्ति में श्रोताओं के मध्य बैठा देखकर मैं बहुत लज्जित हुआ जबकि प्रो. राजेन्द्र कुमार मंच पर हमारे साथ थे। मेरे वक्तव्य के समाप्त होते ही दूधनाथ जी ने उठकर मुझसे हाथ मिलाया और यह कहते हुए रवाना हो गए कि आज उन्हें बुखार है। नहीं पता था कि इस तरह वह उनसे आखिरी भेंट होगी। मेरे मन में था कि 'भुवनेश्वर समग्र’ के संपादन के दिनों में किसान आंदोलन में अपनी संलग्नता के चलते मैं शाहजहांपुर से प्रकाशित होते रहे 'रूहेला’ अखबार (संपादक: गिरजा किशोर मिश्र) में छपी भुवनेश्वर की दो कहानियां तलाश करके उन्हें नहीं दे पाया जिसका मैंने वादा किया था जबकि उन दिनों वे धर्मवीर भारती और मेरे पैतृक घर खुदागंज (शाहजहांपुर जिले का छोटा कस्बा) पर संस्मरणों की लघु पुस्तक 'यादों में कस्बा’ की भूमिका लिख रहे थे। मेरे भीतर यह भी पीड़ा थी कि हमारे शहर शाहजहांपुर के एक लेखक ने भुवनेश्वर पर दूधनाथ जी के बेहद जरूरी काम को अदालत तक घसीटा जिससे राहत के लिए उन्हें उच्च न्यायालय जाना पड़ा। दूधनाथ जी के निधन के बाद इलाहाबाद जाने से मैं प्राय: बचता रहा जबकि बरेली और आगरा की केन्द्रीय जेलों में बंदी रहे क्रांतिकारियों की यादों को संरक्षित करने के बाद नैनी जेल का मेरा वह काम अभी तक अधूरा पड़ा हुआ है। इस शहर का अर्थ अब मेरे लिए पहले जैसा नहीं रहा और उसे प्रयागराज का नाम दिए जाने के कारनामे के बीच मुझे बार-बार याद आया कि मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी की रूह अब किस बस्ती में अपनी सकूनत को तलाश करेगी। ज्ञानरंजन जी सुन रहे हैं क्या?

कलकत्ता मेरा प्रिय शहर है। बेटा वहां नौकरी पर गया तो उसके साथ 23 दिन रहा। उन्हीं दिनों हिस्टारिकल स्टडीज से बंगला में छपी दो कहानियों की आत्मकथाएं (त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती की 'जेल में तीस वर्ष’ तथा शांति घोष दास की 'अरुण वह्नि’) देख कर उन्हें पाने की जुगत की। भारतीय भाषा परिषद के बालेश्वर राय ने इसमें मेरी मदद की। इन दोनों पुस्तकों को अनुवादित कराकर मैंने अपनी भूमिका के साथ संवाद प्रकाशन से छपवाया। कह सकता हूं कि बंगला भाषा का आत्मकथा साहित्य अत्यंत समृद्ध है लेकिन अनुवाद की स्वस्थ परम्परा विकसित न होने के चलते वह प्राय: हमारी पहुंच से दूर ही बना रहा। मुझे लगता है कि भारतीय भाषाओं के बीच सशक्त आवाजाही के इस रास्ते को अधिक सुगम किया जाना चाहिए। नागार्जुन ने एक बार मुझसे कहा था कि मैं बंगला भाषा अवश्य सीख लूं जहां मेरे काम की बहुत जरूरी चीजें हैं पर अपने आलस्य के चलते मेरे लिए यह संभव नहीं हो पाया जिसके लिए मैं आज भी लज्जित हूं।

क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल के बेटे रंजीत कुमार सान्याल कलकत्ता में थे लेकिन इसका पता मुझे वहां से लौटने पर मिला तो मैं उनसे मिलने के लिए बेचैन हो उठा। एक समय इलाहाबाद में बहुत तलाश किया था उन्हें। काला पानी से लौटने के बाद शचीन्द्र दा का विवाह हो चुका था और वे दूसरी बार फरार हुए तो पत्नी और तीन साल के बेटे रंजीत को लेकर कलकत्ता के निकट फ्रांसीसी उपनिवेश रहे चन्द्रनगर जा पहुंचे। प्रिंस अनवर शाह रोड पर रंजीत जी के घर में पहुंचते ही मैं उनका हाथ थामकर बैठ गया। लगा  कि मैं उसी तीन वर्ष के बच्चे को छू रहा हूं जो अपनी मां प्रतिभा सान्याल की गोद में चन्द्रनगर की सड़कों पर है। उस दिन मैं रंजीत जी से शचीन्द्र दा की यादों के साथ उनकी पुरानी चीजों की पूछताछ की। उन्होंने एक पुराना जंगआलूदा बक्सा हमारे सामने रखवा दिया जिसमें शचीन्द्र दा की जेल डायरियों के साथ क्रांतिकारी इतिहास की विपुल सामग्री थी। कुछ पत्र थे उनके जेलों से लिखे और टोक्यो से भेजी गई रासबिहारी बोस की दुर्लभ चिट्ठियों ने तो जैसे मुझे चौंका ही दिया। वहां मुझे 1938 में लखनऊ से छपी शचीन्द्र दा की एक अन्यतम पुस्तक 'विचार विनिमय’ की जर्जर प्रति भी मिली तो अब मेरे संपादन में नेशनल बुक ट्रस्ट से छप कर आ चुकी है। कहना चाहता हूं कि सम्पूर्ण मुक्ति-संग्राम ने जो बड़े चिंतक हमें दिए उसमें मानवेन्द्रनाथ राय (एमएन राय) और जवाहरलाल नेहरू के साथ मैं शचीन्द्र दा का भी शुमार करता हूं। यदि उनकी वे जेल डायरियाँ छपकर आ जाएं तो 1923 में 'हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ’ के गठन और उसका संविधान रचने लाने वाले इस क्रांतिकारी के विचार पक्ष पर कुछ और रोशनी पड़ सकती है।

कुछ दिनों से मुझे अपने पास संग्रहीत क्रांतिकारियों और साहित्यकारों के दुर्लभ पत्रों को बचाने की खास चिंता रहने लगी। इन्हें कहां संरक्षित किया जाए? किस तरह से इनका उपयोग हो? इसी उधेड़बुन के बीच कविता भारत ने दो बक्सों में रखे साढ़े दस हजार पत्रों में से 848 पत्रों का चयन करके 'समय संवाद’ के दो खण्डों को आकार दिया। यह काम बहुत कठिन और थका देने वाला था पर उनकी लगन और श्रीकांत मिश्र की दिलचस्पी के चलते इसे लोक प्रकाशन गृह ने सुरूचिपूर्ण ढंग से छापा। विभूति नारायण राय जी ने महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में रहते इन पत्रों को वहां के संग्रहालय में रखे जाने का आग्रह किया था। भोपाल का माधवराव सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय भी इस ऐतिहासिक सामग्री को अपने यहां संजोने का इच्छुक है पर मैं अभी तक यह तय नहीं कर पाया कि इस जरूरी पत्र संपदा को कहां संरक्षित करूं।

अघोषित बंदिशों से मुठभेड़ करते लेखक के अनुभवों से दो-चार होने के समय को देखूं तो बीते छ:ह वर्ष जैसी स्थितियां पहले कभी नहीं आई। सब ओर सत्ताधारी दल की गुंडई और लिखने-बोलने पर सरकार की पहरेदारी। चीजें ऊपर से उतनी नहीं दिखाई देतीं पर भीतर जबरदस्त कसमसाहट और उमस का आलम। इन्हीं दिनों तमिल की ज़मीन से एक आहत स्वर सुनाई दिया कि मर गया पेरूमल मुरूगन। वो ईश्वर नहीं कि दोबारा ओ। अब वो पी मुरूगन है, बस एक शिक्षक। उसे अकेला छोड़ दो। अपने उपन्यास 'मधोरूबमन’ पर हिंदूवादी और जातिवादी समूह के हमले से आहत उस रचनाकार ने आखिरकार लिखना छोडऩे की घोषणा कर दी। बाद में अदालत ने उसके पक्ष में निर्णय दिया पर इससे क्या। मुरूगन के प्रकाशक जरूर इस न्यायिक आदेश से खुश थे। हिंदी के किसी प्रकाशक से हम ऐसी कोई उम्मीद नहीं कर सकते हैं कि वह किसी रचनाकार के साथ इस तरह खड़ा हो सके। मलयालम के कथा लेखक एस. हरीश के साथ भी इसी तरह का दुव्र्यवहार दक्षिणपंथी ताकतों ने उनके 'मातृभूमि’ में छप रहे धारावाहिक उपन्यास 'मीशा’ को लेकर किया। मैं पहले ही कह चुका हूं कि मेरे लेखन पर पाबंदियों ने मेरी उस मुहिम को ही धक्का पहुंचाया जिसे मैं इतिहास लेखन के जरिए क्रांतिकारी चेतना के प्रचार-प्रसार के लिए सघनता से संचालित कर रहा था। हिंदी पत्रों के मालिक और संपादक खुद भी भयभीत रहने लगे। दिल्ली से इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शिक्षण के लिए चले जाने पर दिनेश कुमार ने कई बार मुझसे आग्रह किया कि उनके द्वारा संपादित की जाने वाली 'सामयिक सरस्वती’ के लिए मैं कोई लेख दूं। वे नेहरू पर भाजपाई हमले के प्रसंग में लिखने का मुझसे बार-बार आग्रह कर रहे थे और यह भी इंगित कर रहे थे कि अभी उसकी जरूरत है और यदि 2019 में भाजपा की केन्द्रीय सत्ता से हट गई तब उसका उतना महत्व नहीं रह जाएगा। चाहते हुए भी मैं उसे लिखने के लिए बैठ नहीं पा रहा था। उनके अनुरोध पर मैंने भारतीय क्रांतिकारी इतिहास को विकृत करने के संघी प्रयासों का जिक्र करते हुए एक विस्तृत आलेख उन्हें भेज दिया। लंबे समय बाद पूछने पर दिनेश जी ने कहा कि पत्र के मुख्य संपादक और मालिकों को इस लेख के छपने से विज्ञापन और उनके प्रकाशनों की सरकारी खरीद पर रोक लगने का अंदेशा है। लेखक की रचनाएं जब्त होना, मुकदमें चलना या उनके सजावार होने की घटनाओं के अलावे अब तो किसी के रचे-लिखे की गर्भ में ही भ्रूणहत्या की जाने लगी है। यहां भी बता दिया जाए कि मेरा वह मजमून आखिर किस तरह का रहा आया था। तो सुनिए उसकी मुख्तसर दास्तान का सिर्फ एक टुकड़ा। एक शाम स्वयं को सीए बताने वाले किन्हीं संजय गुप्ता का मेरे पास फोन आया कि वह 9 अगस्त-काकोरी दिवस पर शाहजहांपुर में रामप्रसाद बिस्मिल की स्मृति में वे कोई बड़ा आयोजन करना चाहते हैं जिसमें मैं अवश्य उपस्थित रहूं। उन्होंने यह भी बताया कि शहीदों और क्रांतिकारियों के परिवारीजन भी वहां हिस्सेदारी करेंगे। कार्यक्रम से पहले उसने जो निमंत्रण-पत्र और पत्रक भेजा वह हैरत में डालने वाला था। उसमें लिखा था कि 'सरफरोशी की तमन्ना’ और 'मिट गया जब मिटने वाला’ के साथ 'दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए’ जैसी रचनाएं रामप्रसाद बिस्मिल की हैं जबकि खोजी जानकार इस तथ्य से भली-भांति अवगत हैं कि पहली ग़ज़ल के रचियता बिस्मिल अज़ीमाबादी और दूसरी का शुमार दिल शाहजहांपुरी के कलाम में है। इस असलियत से तो कभी सुपरिचित हैं कि तीसरी रचना मशहूर शायर शहरयार की है। गज़ब यह भी कि पत्रक के प्रारम्भ में ही बिस्मिल का हैट लगा एक चित्र छापा गया था। मैंने उनसे फोन पर दरयाफ्त करने का प्रयास किया कि शहीद बिस्मिल की यह तस्वीर वह कहां से लाए हैं। उत्तर में उन्होंने बताया कि फांसी के पूर्व बिस्मिल अपना यह हैट भगतसिंह को दे गए थे। अब मैं लगभग उन्हें डांटने की स्थिति में था। मैंने कहा कि बिस्मिल और भगतसिंह की कोई मुलाकात नहीं हुई। 26 सितम्बर 1925 को गिरफ्तारी के समय बिस्मिल अपने घर में थे। उस समय नहाने के बाद उनके शरीर पर सिर्फ अंगोछा था। उन्हें कपड़े पहनने की मोहलत दी गई। उनके पास दो चिट्ठियां बरामद हुई जिन्हें डाक में डालने के लिए उन्होंने रख छोड़ा था। जेल जाते समय उनके पास कोई वस्तु नहीं थी। फिर यह हैट कहां से आया। हां, काकोरी के मुकदमें की कार्यवाही देखने भगतसिंह छद्म वेश में एक बाद अदालत पहुंचे थे लेकिन उन्हें किसी ने नहीं पहचाना और न ही बंदी क्रांतिकारियों को इसका पता चला। सीए महोदय मेरी इन बातों का कोई तर्क नहीं दे पा रहे थे। उनकी असलियत उस छपे मजमून में खूब झांक-झांक रही थी। वहां बेबुनियाद बातों का एक और अद्भुत नमूना बहुत खोखलेपन के साथ दर्ज था। लिखा था उन्होंने कि अंग्रेज यह जानते थे कि बिस्मिल जेल में योगाभ्यास करते हैं इसलिए फांसी के समय एक झटके में उनके प्राण निकलने वाले नहीं और यही कारण था कि जज ने उन्हें उस समय तक फांसी के फंदे में लटकाने का आदेश दिया था जब तक कि उनके प्राण न निकल जाएं। सीए महोदय इसी आधार पर सरकार से मांग कर रहे थे कि बिस्मिल के नाम पर शाहजहांपुर में एक अन्तर्राष्ट्रीय योग संस्थान बनाने के साथ ही 50 हजार गायों की गौशाला भी स्थापित की जाए। मुझे नहीं पता कि बाद को सीए महोदय की उस विचित्र मुहिम का क्या हुआ। इतिहास को इस तरह तोडऩे-मरोडऩे की घिनौनी कोशिशों का कोई ओर-छोर नहीं। कोई नेहरू को चन्द्रशेखर आज़ाद का हत्यारा बता रहा है तो किसी को यह प्रचारित करने में कोई शर्म नहीं आती कि भगतसिंह आस्तिक थे और अपने अंतिम समय में वे गीता या महाभारत का पाठ कर रहे थे। इस दुष्प्रचार में भाजपाईयों ने शहीद परिवार के सदस्यों का भी खुलेआम बेशर्मी से इस्तेमाल किया जिसे उन्होंने हो जाने दिया। याद किया जाना जरूरी है कि लालकृष्ण आडवाणी की कन्याकुमारी से चलने वाली यात्रा को भगतसिंह और राजगुरु के भाइयों ने हरी झंडी दिखाकर रवाना किया था। आश्चर्य होता है कि इतिहास को विकृत करने की ठीक ऐसी ही एक भौड़ी कोशिश साहित्य अकादमी में भी होती दिखी जब वहां रहे सहसचिव वृजेन्द्र त्रिपाठी का फोन मुझे मिला वे मदनलाल वर्मा 'क्रांत’ की संपादित 'बिस्मिल रचनावली’ मुझे भेज कर उस पर मेरी सम्मति (सहमति’ चाहते हैं जिसे मैंने तुरन्त अपनी आपत्तियां बताकर खारिज कर दिया। मैं पहले से जानता था कि उन्होंने शहीद बिस्मिल को आरएसएस खेमे में ढकेलने के घृणित मंसूबों के साथ ही बिस्मिल की रचनाओं को मनमर्जी से तोडऩे की घिनौनी साजिश की थी।

संकट सिर्फ यही नहीं थे। आज़ाद जैसे शहीदों के नकली वंशज मंचों पर अवतरित हो चुके थे तो कुछ क्रांतिकारियों के परिवारीजन को तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए सत्ता के इर्द-गिर्द घूमकर अपने पूर्वजों को अपमानित करने में कोई संकोच नहीं हो रहा था। शहीदों को धर्म और जाति के खानों में बांट कर उन्हें पूजा के लिए मंदिरों में बैठाया जाने लगा। इसके अलावे न जाने कितने शहरों और कस्बों में बहुत शातिरपने से 'शहीद उद्योग’ को संचालित करने की नापाक कोशिशें भी खूब परवान चढऩे लगीं। भगतसिंह के सिर पर उनकी जन्मशती आते-आते निर्लज्जता से पगड़ी पहना दी गई। काकोरी के शहीद रोशनसिंह के नाम पर उत्तर प्रदेश में ठाकुर राजनीति के सर्वेसर्वा चिन्मयानंद और योगी महन्त बन बैठे। उधर हेमू कालाणी जैसे बयालिस की क्रांति के हुतात्मा को सिंधी जाति का सिरमौर बनाने की कवायद को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। भगतसिंह वाले मुकदमें में काला पानी जाने वाले अप्रतिम क्रांतिकारी डॉ. गयाप्रसाद को कुर्मी यानी कटियार और पटेल बनाने में उनके परिवार का योगदान भी कुछ कम नहीं रहा। गलीजपन के सीमाएं तब और टूटती दिखीं जब काकोरी के मामले में अपने सरकारपस्त चाल-चलन के लिए जाने गए एक पूर्व क्रांतिकारी के सुपुत्र शहीदों के एक स्मृति आयोजन में मुख्य अतिथि के पद पर सुशोभित देखे गए। मैंने कहा भी कि अब वह दिन दूर नहीं जब क्रांतिकारी आंदोलन में मुखबिर की भूमिका निभाने वाले वीरभद्र तिवारी, जयगोपाल, इन्द्रपाल, कैलाशपति, फणीन्द्र घोष और बनारसी लाल की औलादें भी आदर और अभिनन्दन की हकदार होंगी। इन भीतरी खतरों से कौन लड़े जबकि इस इतिहास की प्रगतिवादी चेतना को ध्वस्त करने और मिटाने के साथ ही घटनाओं और तथ्यों को विरूपित करने में नागपुर घराना हर रोज आसमान के कुलाबे मिलाने में लिप्त है।

रायपुर की घटना मुझे बार-बार कचोटती है जब एक अपरिचित व्यक्ति ने बड़ी उम्मीद से मुझे फोन पर बताया कि छत्तीसगढ़ की राजधानी में एक चौराहे पर लगी भगतसिंह की प्रतिमा की गर्दन काट दी गई और वह चाहता है कि इस मामले में मैं कुछ करूं। वहां कुछ समय से दक्षिणपंथी मानसिकता के लोग हैट की जगह पगड़ीधारी भगतसिंह को स्थापित करना चाहते थे। आश्चर्य की बात यह थी कि यह सब बयान देकर डंके की चोट पर किया गया। यदि विस्मृत नहीं कर रहा हूं तो उस शहर की मेयर का नाम डॉ. किरणमयी नायक था और वे भगतसिंह के हैट वाले प्रचलित चित्र से बखूबी वाकिफ थीं। शायद उनका मानना भी था कि शहीदे-आज़म की प्रतिमा को क्षति पहुंचाना गलत है पर अधिकांश सभासद भाजपाई थे और मामला सिखों के वोट का भी रहा आया था। उन दिनों वहां चुनाव का माहौल था। घर पर नितांत अकेले रहने के चलते कहीं भी यात्रा पर निकल पाना मेरे लिए एकाएक संभव नहीं हो पाता सो मैं रायपुर नहीं जा सका। फोन पर मैंने ज्ञानरंजन जी को सूचित किया। रविभूषण और आनंदस्वरूप वर्मा जी से मैंने कहा कि हम कुछ लोग मिलकर तुरन्त एक संयुक्त वक्तव्य जारी कर दें जिससे इस कृत्य के विरोध में खड़े लोगों को बल मिल सके। रविभूषण जी ने बताया कि वे उस समय दिल्ली में हैं और कुछ देर में आन्नद स्वरूप वर्मा के पास पहुंच रहे हैं। लेकिन मुझे उनका कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला। इससे पहले मैं तलवंडी साबो और बटिंडा की अपनी सभाओं में सिखों के बीच एलान कर चुका था कि आप कितनी भी कोशिश करें लेकिन साढ़े तेईस साल के उस पंजाबी नौजवान क्रांतिकारी का सिर इतना बड़ा हो गया है कि उस पर कोई पगड़ी फिट नहीं हो सकती। आयोजन में किसी भी श्रोता ने मेरी इस बात का प्रतिवाद नहीं किया जबकि मंच पर प्रो. जगमोहन सिंह, आत्माराम, एस.इरफान हबीब जैसे लोग उपस्थित थे। उन दिनों मैंने इस अभियान को सघन गति दी थी कि शहीदे-आज़म को पगड़ी पहनाई जाने की कोशिशें बहुत फूहड़ हैं क्योंकि ऐसा करना इस विचारवान क्रांतिकारी को धर्म के खाने में ढकेलने जैसा है और इससे पूरे मुक्ति-युद्ध के प्रगतिशील राजनीतिक सफरनामे का बड़ा अहित होता। चमनलाल सरीखे हमारे मित्र अपनी पुस्तकों में भगतसिंह को पगड़ीधारी बना दे रहे थे जिस पर मैं बार-बार आपत्ति कर रहा था। लेकिन मुझे उस समय लज्जित होना पड़ा जब मेरी पुस्तक 'शहीद भगतसिंह: क्रांति का साक्ष्य’ का दूसरा संस्करण मेरी बिना अनुमति और सूचना के राजकमल प्रकाशन ने छाप कर उसके कवर को भगतसिंह की पगड़ी वाली किसी पेंटिंग से सुसज्जित कर दिया। मैंने सिर पर कड़ी नाराजगी जाहिर करते हुए उन्हें पत्र लिखा पर उस पेशेवर प्रकासक ने न तो उस चित्र को बदला या हटाया और मेरी आपत्ति का उत्तर देना भी जरूरी नहीं समझा। कहना न होगा कि पिछले दिनों मैं राजकमल से प्रकाशित अपनी आठ पुस्तकों को छापने और उनकी बिक्री करने की मनाही का एक रजिस्टर्ड पत्र (ई-मेल से भी) उन्हें प्रेषित कर चुका हूं जिस पर भी वे मौन हैं।

मेरे ऊपर पहले ही वाम दलों और उनके सांस्कृतिक-साहित्यिक संगठनों से दूर होने-चले जाने के आरोप लगते रहे। ऐसा इसलिए भी था कि मैं बयालिस के आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका का आलोचक होने के साथ देश विभाजन के समय जातियों के आत्मनिर्णय के अधिकार का उनका पक्ष सिरे से खारिज करता रहा। दूसरी ओर कम्युनिस्ट दलों की कार्यप्रणाली और आपसी मतभेदों के चलते उनके सर्वथा भिन्न रास्ते किसी इकजाई मुहिम को शक्ल नहीं दे पा रहे थे। मजदूर आंदोलन बेआवाज होता जा रहा है और किसानों के बीच उनकी गैरहाजिरी को चीन्हना एक पीड़ा भरा आख्यान था। मेरी विवशता यह थी कि इस दलदली जमीन पर फंसे होने के बावजूद गांधी और गांधीवाद की ओर देखना भी मेरे लिए संभव नहीं था। गांधी के बरक्स क्रांतिकारी संग्राम सदैव मेरी चेतना के केंद्र में रहा। कांग्रेस पार्टी के भीतर किसी तरह के प्रगतिशील तत्व की तलाश के लिए मैंने कभी ताकाझांकी नहीं की। यह सब मैं इसलिए भी नहीं कह रहा हूं कि राजनीतिक या सांस्कृतिक संगठनों के बीच कभी मेरी कोई सक्रिय या उल्लेखनीय उपस्थिति और भागीदारी रही आई हो। अवश्य ही क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास के मूल्यांकन में अपने इस नजरिए को मैंने कभी दबाया-ढांका नहीं। शायद इसीलिए मैं मुक्ति-युद्ध के दौर में साथी कर्मेन्दु शिशिर की तरह मुस्लिम नवजागरण के तत्वों की तलाश नहीं कर पाया और एक बार पुराने कामरेड शिवकुमार मिश्र के कहने पर स्वतंत्रता संघर्ष में मुसलमानों की भूमिका जैसे विषय पर पुस्तक लिखने से मैं कभी सहमत नहीं हो पाया। भारतीय उपमहाद्वीप के समूचे साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष को इस तरह के खानो में बांटकर देखना मेरे लिए कभी संभव नहीं हुआ। शायद यही कारण था कि मेरे लिखे का मूल्यांकन करते हुए आदरणीय कुंवरपाल सिंह जैसे लेखक मुझे वामपंथ विरोधी तो माले के कुछेक साथी भीतर से दक्षिणमार्गी कह-मान जाते रहे। कुछ अवसरों पर मुझे कांग्रेस का पक्षधर और अगले ही पल वेदप्रकाश अमिताभ, सुरेन्द्र श्लेष और रामकुमार कृषक जैसे मित्रों के जरिए मैं भयंकर गांधी विरोधी  भी ठहराया जाता रहा। सच है कि गांधी और गांधीवाद हमेशा मेरे निशाने पर रहे (हंसराज रहबर की भांति नहीं)। हां, नेहरू के प्रति मेरे पुराने दृष्टिकोण में बड़ी तब्दीली आई। पिछले दिनों नास्तिकता पर जो पुस्तक मैंने संपादित की उसमें नेहरू की आत्मकथा से 'धर्म’ वाले पूरे अध्याय को शामिल करना मुझे बहुत सुखकर लगा। कलकत्ता में बी.आर. नंदा की नेहरू पर किताब जिस ललक के साथ खरीदी वैसा शायद कुछ वर्ष पहले मैं न कर पाता। नेहरू का कद निरन्तर मेरे लिए विस्तारित हो जाता रहा। वे सचमुच मुझे बड़े राजनेता, विचारक और नायक प्रतीत हुए। विगत छह वर्षों से सत्ताधारी दल का नेहरू पर हमला उनकी प्रगतिशील चेतना से सामना न कर पाने की उनकी ग्रंथि भी है।

पीड़ा से भर देने वाला यह मंजर मुझे प्रतिपल बहुत आहात करता है। अनेक वर्षों से पूरे उत्तर भारत में वाम की गुमशुदगी के चलते क्या इस इलाके का सांस्कृतिक आंदोलन कम क्षतिग्रस्त नहीं हुआ है? यह बिखराव बहुत सदमा देने वाला है। उन जगहों पर वाम के निशान भी अब पूरी तरह लापता हो चुके हैं जिनके सहारे साहित्यिक अभियानों को भी ऊर्जा और विस्तार मिला था। मेरे लिए उन लाल ज़मीनों का बदरंग हो जाना एक बड़े सपने के मरने सरीखा है। आखिर मैं किस तरह खड़े होकर सांसें लूं। हर सिम्त दस घुटने लगा है। अण्णा हजारे से लेकर आम आदमी पार्टी की बिजूका राजनीति से बंधना मेरे लिए कभी संभव नहीं हुआ जबकि मेरे देखते बल्ली सिंह चीमा जैसे अनेक कॉमरेड 'आप तीरे’ जा लगे। अण्णा का 'यादव बाबा देवता’ और 'आप’ के 'महानायक’ का दिल्ली में कांवडिय़ों का भव्य स्वागत-सत्कार तथा हनुमान मंदिर में उनका पूजा-पाठी चाल-चलन हमारे नवप्रगतिशीलों को विचलित नहीं करता। दरअसल, यह सब कह कर मैं एक तरह से अपने वैचारिक विभ्रमों का ही खुलासा कर रहा हूं। मेरी ख्वाहिश सिर्फ ज़मीन के उस बित्ते भर टुकड़े की है जिस पर कमोवेश मेरे पैरों की टिकान भर बनी रह सके। शायद हरेक सचेत आदमी को एक राजनीतिक घर की तलाश होती है जिसमें वह रहता था उसकी तलाश में भटकता है। तो क्या सचमुच इन दिनों मैं बेघर हो गया हूं। हो सकता है कि मेरा यह अकेलापन या घर-बदर हो जाना ही इन दिनों मुझे नितांत शक्तिहीन कर दे रहा है। मेरी पहले जैसी मित्र मंडली अब नहीं रही। मैं लोगों और समूहों के बीच अपने को 'एडजस्ट’ नहीं कर पाता और इस सबके लिए क्या सिर्फ मैं अकेला ही जिम्मेदार नहीं हूं? कह सकता हूं कि यह अकेला हो जाना इन दिनों मेरा सबसे बड़ा दुश्मन है जिसे मैं परास्त करना चाहता हूं। भरोसा है मेरे भीतर कि कहीं से मुझे रोशनी मिलेगी और इस तरह अंधेरों में जीना मेरी नियति नहीं हो। याद आता है कि 1980 में शहीद यतीन्द्रनाथ की बलिदान अर्धशती पर कलकत्ता पहुंचने पर एक समारोह में क्रांतिकारी बीणा दास से मेरी भेट हुई थी। उस सुंदर चेहरे के पीछे छिपी विप्लवी स्त्री को मैं बार-बार निहारता रहा। 6 जनवरी 1932 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में उन्होंने अंग्रेज गवर्नर स्टेनलै जैक्सन पर गोली चलाई थी। निशाना चूक गया और गोली जैक्सन के कान के पास से निकल गई। बीणा पकड़ी गईं। उन्हें 9 साल की सजा मिली। वह डिग्री लेने  से वंचित रह गईं पर उनका यह कथन क्रांतिकारी इतिहास से दूर तक गूंजता रहा कि बंगाल के गवर्नर उस सिस्टम का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसने मेरे 30 करोड़ देशवासियों को गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ है। कहना चाहता हूं कि 1947 में बीणा ने अपने चली गई और वहीं कहीं अत्यंत गुमनाम स्थितियों में उनका निधन हुआ। सत्यव्रत घोष के एक आलेख से मुझे पता लगा कि उन्होंने सड़क के किनारे अपना जीवन समाप्त किया। उनका मृत शरीर बहुत ही छिन्न-भिन्न अवस्था में था। रास्ते से गुजरने वाले लोगों ने पुलिस को सूचित किया और महीनों की तलाश के बाद पता चलवा कि वह शव बीणा दास का था। उस 'अग्नि कन्या’ ने देश की आज़ादी के लिए अपना सब कुछ होम कर दिया था। जुबान पब्लिशर ने कुछ वर्ष, पहले अंग्रेजी में उनकी स्मृतियों को छापा। 2012 में बंगाल की धरती पर विप्लव के वे पल फिर से मेरी आंखों के सामने घूम गए जब कलकत्ता विश्वविद्यालय ने 80 वर्ष बाद दीक्षांत कार्यक्रम में उन्हें और चटगांव मामले की शहीद प्रीतिलता को मरणोपरांत डिग्रियां दीं। सुना कि प्रीतिलता की डिग्री बंगलादेश के किसी सरकारी प्रतिनिधि ने आकर ग्रहण की। विगत दिनों जादवपुर विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में अपना उपाधि-पत्र और गोल्ड मेडल लेते हुए वहां की एक छात्रा देबोस्मिता चौधरी ने नागरिकता कानून संशोधन एक्ट (सीएए) के विरोध में मंच पर कागज फाड़ते हुए 'इन्कलाब ज़ंदाबाद’ का उद्घोष किया तो लगा कि उसके चेहरे पर बंगाल की बीणा का चेहरा आकर चिपक गया है। इसी बंगाल की महुआ मोइत्रा ने संसद में बोलते समय संसदीय लोकतंत्र में प्रतिरोध की आवाज का तीव्रता से मुखर किया तब भी मन के भीतर उम्मीदों के दीए जगमगाए और मुझे भगतसिंह की चहेती बहन अमर कौर का वह कृत्य याद आया जब 8 अप्रेली 1983 का इसी संसद में उन्होंने सरकार के जनविरोधी चरित्र को आइना दिखाया था। उस दिन शाहीन बाग में बड़ी संख्या में स्त्रियों की आवाज़ें सुनकर एकबारगी लगा कि लखनऊ में उस कब्रिस्तान की एक सुनसान कब्र के पास जाकर कहूं - उठो मजाज़, आंचल को परचम बनाने ज़मीं पर इन्कलाब आया है।

बेटियां इस कठिन समय में बहुत उम्मीदें जगाती हैं। मोदी की जेल में कैद आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट की बेटी डॉ. अकाशी भट्ट, कश्मीर में नजरबंद महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्जिता मुफ्ती, सीएए और एनसीआर के विरुद्ध प्रदर्शन करती विधि छात्र स्वाति (खन्ना) जिसे महाराष्ट्र की किसी फेक न्यूज में बंगालदेशी इमीग्रेंट्स तो कहीं कश्मीरी मुस्लिम और दंगाइयों ने उसे सबीहा खान जैसे नाम देकर लोगों को भरमाने की कोशिशें की या फिर शाहीनबाग में बैठी ऋतु कौशिक की बोली-बानी और जनअधिकारों के लिए लंबी लड़ाई लडऩे का उनका जज्बा इस मुल्क को हारने नहीं देगा। ये आवाजें लोकतंत्र का अपहरण करने की इजाजत किसी को भी नहीं देंगी।

विगत लंबे समय से मैंने मंचों पर जाने से लगभग विराम लगा दिया है। फिर भी यह फैसला कभी-कभार पलट ही जाता है जिससे मैं बहुत आहत होता हूं। राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के बूचे चलने-होने वाला साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में पहुंचकर हर बार लज्जित हुआ हूं। पर अब तो सब तरफ यही परिदृश्य है। भगतसिंह एक फैशनेबल टेबिल टॉक में तब्दील हो गए हैं। 'साहित्य आज तक’ जैसे आयोजनों में शहीदे-आज़म और पांच सितारा होटल में मिनी बार की संगत मुझे अजूबा लगती है तो उसे छोड़कर मैं बदहवास भाग खड़ा होता हूं। इन सबके बीच मैं खुद से ही सवाल करते हुए निरूत्तर भी होता हूं और सामने लग आइने में अपना कद मुझे ओछा दिखाई पडऩे लगता है।

मैं न्यायतंत्र से 31 वर्षों तक जुड़ा रहा हूं। उस पूरे सेवाकाल में वहां जाने वाले गरीब-गुरबों को मैंने प्रतिक्षण रोते-बिलखते और पिटते-हारते ही देखा है। क्रांतिकारी आंदोलन में जजों के फैसले देख-पढ़कर मेरे भीतर इस विश्वास ने जड़ें जमा लीं कि न्याय और जज सत्ता के उपकरण भर हैं। बावरी मस्जिद का सुप्रीम फैसला आने के बाद न जाने क्यों मुझे यह भय सताने लग गया है कि कहीं कोई दबंग हाथ पकड़ कर मुझे घर से बाहर न निकाल देगा तब मैं अपने हक़ में सारे सबूतों-कागजातों के बाद भी कहीं शहर-बदर न कर दिया जाऊं। आप मेरे इस तजुर्बे और घबराहट को मेरी खामख्याली भी कह सकते हैं। पर मुझे प्रतिपल यही महसूस होता है कि भारतीय समाज में न्याय सदैव एक परिकल्पित शब्द रहा है। शायर गुलाम रब्बानी ताबां के एक शेर में खुशी की जगह न्याय शब्द को रखते हुए पढ़ा जाए तो मेरा मंतव्य स्पष्ट हो जाएगा - 'खुशी का नाम तो अक्सर सुना किए ताबां, मगर वजूद न पाया कहीं हुआ की तरह।’

इधर कुछ दिनों से विस्मृति ने रोजमर्रा की तकलीफों की भांति जीवन में अवरोध डालना शुरू कर दिया है। क्या यह पैंसठ पार का नतीजा है। बच्चे इसे लेकर चिंतित नहीं, परेशान होने लग गए हैं। पर मेरी मुसीबत यह है कि कुछ चीजें भूलना चाह कर भी जेहन से नहीं उतरतीं। डेढ़-दो वर्ष पहले अपनी इस मानसिकता को लेकर मैंने डायरी में लिखा था - 'याद करने के लिए बहुत कुछ है और भूलने के लिए उससे भी ज्यादा। संकट यह है कि जिसे भूलना चाहता हूं वे सब दृश्य और हादसे हर रोज सामने आ खड़े होते हैं जबकि दिमाग पर जोर डालने पर कुछ चीजें और बातें याद नहीं आतीं। मेरे पास युद्ध के मैदान का लहूलुहान अतीत है जिसमें हर बार तुम जीते और हम हारे। फिर भी नए मोर्चे के लिए हम नए हथियारों से लैस हो जाते रहे। तुम चाहते हो कि मैं अपनी जिजीविषा को जख्म की बदरंग हो चुकी त्वचा की तरह नोंच कर फेंक दूं लेकिन वे कठिन और जोखिम भरे दिन मेरा सुरक्षा कवच हैं जहां मेरे धूल-धूसरित होने के निशान जिंदा हैं। उस जंगी इलाके का वाशिंदा बने रह कर मैं हरकत महसूस करता हूं। अपने क्षत-विक्षत सपनों के दरीचे में भटकना मुझे सुख देता है। दरअसल, यह उन यादों के सहारे जीना है जिसके बिना मेरा वजूद नहीं और उन्हें ढोते समय जैस मेरी नियति बन चुकी है। मैं दोभालकर, पनसारे और कलबुर्गी की हत्याओं को भूलना चाहता हूँ। मैं याद नहीं रखना चाहता कि गौरी लंकेश के सिर में कितनी गोलियां मारी गईं और कि गांधी के पुतले को गोली मारते वक्त कितना खून बहा था। पर वे भयावह दृश्य हर दिन मेरे सम्मुख ज्यादा सघन होकर उपस्थित हो जाते हैं और मैं अपनी मुट्ठियां भींच लेता हूं।... वह जो सामने की दीवार पर बार-बार रोहित वेमुला का चेहरा आकर चिपक जा रहा है उसकी शक्त हू-ब-हू मेरे बेटे की तरह है जो वर्षों पहले उसी की जैसी साजिश का शिकार हुआ था। एकदम वैसी ही नाक, उसी के जैसे संकल्पों की रंगत से रचे होंठ। त्वचा का रंग और आंखें भी ठीक उतनी ही चमकीली और भविष्य का सपना बुनती हुई।... मेरे बेटे और बेमुला को मारने वाले एक ही बिरादरी के हैं जो अभी तक जिंदा हैं और अब वे ज्यादा बनैले और तेज हथियारबंद होकर हर तरफ़ बेखौफ घूम रहे हैं जिन्हें ज़मींदोज करन की हमारी तैयारी पर उनकी शातिर निगाहें लगी हुई हैं। वे हमें परास्त करने के लिए फिर वैसे ही मंसूबे बांध रहे हैं। चाहते हैं कि मैं उनके जाल में ठीक उसी तरह फंस जाऊं जिस तरह वे अब तक हमें घेरकर मक़तलों के हवाले करते आए हैं। पर इन दिनों असंख्य वेमुला अपने हकों की ज़मीन से बेदखल होने के ख़िलाफ लामबंद हो रहे हैं। उनके हाथों में विजय पताकाएं हैं जिन्हें फहराने का मुकाम उन्होंने तय कर लिया है।

दो बेटियों और अब छोटे बेेटे के विवाह की पारिवारिक जिम्मेदारियां पूरी करके इन दिनों मैं भी दकियानूसी पिताओं की भांति 'मुक्त’ होने के अहसास में भरा-पुरा हूं। कुछ किताबों को मुझे पूरा करना है जिसमें 'कलकत्ता डायरी’ और 'गुज़श्ता दिल्ली’ महत्वपूर्ण हैं। मैं एक बड़ी जीवनी क्रांतिकारी कामरेड धन्वंतरि और सुशीला दीदी की भी लिखना चाहता हूं और शहीद मणीन्द्रनाथ बनर्जी के ऐतिहासिक मूल्यांकन का खाका बार-बार मेरे हाथ से फिसल जाता रहा है। जेलों के भीतर वहां रहे क्रांतिकारियों के स्मारक बनाने और उनके भीतर घटित साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष को दर्ज करने का मेरा अभियान इधर कमोवेश शिथिल हुआ है। क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास के लेखन में मुझे मास्टर दा सूर्यसेन को सपने में देखने वाली कविता भारत से बड़ी उम्मीदें थीं जिसे उन्होंने बहुत बार झुठलाया है। शाहजहांपुर में व्यक्तिगत प्रयास से भुवनेश्वर का एक स्मारक बनाने के लिए जगह की तलाश के बीच उस शहर में 'हनुमंत धाम’ बनाने वाले उत्तर प्रदेश सरकार में बैठे हमारे मित्र ने 'भुवनेश्वर लेफ्टिस्ट थे’ कह कर चुप्पी साध ली। समाज और साहित्य में भुवनेश्वर पहले भी दर-बदर थे और आज का समय भी उन जैसे 'न्यूरोटिक’ रचनाकारों के लिए देश-निकाला से कम नहीं। किशोर उम्र की उनकी एकमात्र उपलब्ध तस्वीर में झुकी आंखों वाला यह खामोश चेहरा हिंदी की आत्ममुग्ध और एहसानफरोश दुनिया के सामने एक बड़ा सवालिया निशान भी है।

 

 

सुधीर विद्यार्थी का आत्मकथ्य वर्ष 1998 में परिवेश-32 में, दूसरा गिरिराज किशोर के संपादन में आकार-32 (अप्रैल 2012) में प्रकाशित हुआ था। यहां उस क्रम में यह लेखक का तीसरा लिखा हिस्सा है।

सम्पर्क: 6, फेज-5 विस्तार, पवन विहार, पो. रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली- 243006

मो. 9760875491

 


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