मुखपृष्ठ पिछले अंक आलोचना / विमर्श 'नया पथ’ और यशपाल
सितम्बर - अक्टूबर : 2020

'नया पथ’ और यशपाल

प्रदीप पंत

पत्रकारिता

यशपाल के जीवन का एक विस्मृत पक्ष

 

 

हिन्दी साहित्य का इतिहास बार बार निकलने

और बंद होने वाली पत्रिकाओं ने ही लिखा है।

 

 

   यदि पत्रिकाओं का प्रकाशन आरम्भ होता है तो प्राय: कुछ समय या कुछ वर्ष चलने के बाद वे बंद भी हो जाती हैं। यह बात लघु पत्रिकाओं से लेकर व्यावसायिक पत्रिकाओं तक पर समान रूप से लागू होती है, लेकिन दोनों में एक अंतर अवश्य है। लघु पत्रिकाएं जहां आर्थिक साधनों के अभाव में बंद होती हैं, वहीं व्यावसायिक पत्रिकाओं के बंद होने का कारण होता है उनके मालिकों की अधिकाधिक मुनाफा कमाने की लालसा। जब यह लालसा पूरी नहीं हो पाती तो वे पत्रिका का प्रकाशन बंद कर देते हैं। जो भी हो, पर यदि हम 'लघु पत्रिका बनाम व्यावसायिक पत्रिका के लगभग साहित्यिक युद्ध वाले दौर को भुला दें तो कहा जा सकता है कि दोनों ही प्रकार की कुछेक पत्रिकाओं के साहित्यिक योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती। कवि और उपन्यासकार ठाकुर प्रसाद सिंह ने कभी कहा था, और ठीक ही कहा था कि 'हिन्दी साहित्य का इतिहास बार-बार निकलने और बंद होने वाली पत्रिकाओं ने ही लिखा है।’

ऐसी ही एक पत्रिका थी 'नया पथ’, जो अगस्त 1953 में प्रकाशित होनी आरम्भ हुई और अगस्त 1956 में बंद हो गई। संभव है कि धनाभव जैसे अपरिहार्य कारणों से पत्रिका का प्रकाशन बंद करना पड़ा हो। वैसे कहा यह भी जाता है कि 1956 के बाद भी 'नया पथ’ के दो-एक अंक निकले थे, लेकिन अगर निकले थे, तो ये अंक कहीं उपलब्ध नहीं हैं।

यह जानना जरूरी है कि 1953 में 'नया पथ’ का प्रकाशन आरम्भ करने के पीछे क्या कारण थे? क्रांतिकारी आंदोलन के सक्रिय सदस्य शिव वर्मा इसके सम्पादक बने और उन्होंने अपने पहले ही संपादकीय में कारणों को स्पष्ट करते हुए लिखा था -

''जब 'नया पथ’ का नामकरण तो दूर उसके बारे में सोचा भी नहीं गया था, तभी कितने ही पाठकों ने अपने पत्रों द्वारा जनवादी प्रगतिशील विचारों का समर्थन करने वाले एक हिन्दी मासिक की मांग करते हुए उसकी रूप रेखा भी निर्धारित कर दी थी - न 'जनवादी’ हो, न 'नया साहित्य’, न 'हंस’ हो, न 'आलोचना’। हमें चाहिये कम दामों में इन 'सब की कमी दूर करने वाला एक मासिक’ जिसे पढ़ कर 'हर आदमी केवल एक नजर में देख ले कि उसकी मुसीबत का रास्ता कहां है?’’

कहना न होगा कि 'नया पथ’ का प्रकाशन लगभग अहिन्दी भाषी नगर तत्कालीन बम्बई में हुआ। पता था - 'नया पथ’ कार्यालय, 310-314 वल्लभभाई पटेल रोड, बम्बई-4 और मुद्रक थे न्यू एज प्रिंटिंग प्रेस, 190-बी, खेतबाड़ी मेन रोड, बम्बई। कम दामों के पाठकों के अनुरोध को ध्यान में रखते हुए आज के 'ए-4’ आकार के पृष्ठों से कुछ छोटे 64 पन्नों की इस पत्रिका का मूल्य आज आठ आने रखा गया और अंत तक यही मूल्य रहा। यह भी बता दिया जाए इन 64 पृष्ठों में विषय-सूची और विज्ञापनों वाले पृष्ठ शामिल नहीं किए गए।

सम्पादकीय में इस प्रश्न का उत्तर बहुत स्पष्ट शब्दों में दिया गया है कि 'जिसे पढ़ कर हर आदमी केवल एक नजर में देख ले कि उसकी मुसीबत का रास्ता कहां हैं?’’ उत्तर है-

''पहली बात यह कि 'नया पथ’ किसी प्रकार की थोथी 'तटस्थता’ या नकली निष्पक्षता का दावा नहीं करता। वह झूठ के खिलाफ सचाई का, युद्ध के खिलाफ़ शांति का, गुलामी के खिलाफ़ आज़ादी का और शोषकों के खिलाफ़ शोषितों का पक्षधर रहेगा। जहां मनुष्य से प्यार और समानता का अधिकार छीन कर उसे सड़कों पर टुकड़े मांगने के लिए छोड़ दिया गया हो, जहां मायें अपनी आंखों के तारों को पांच-पांच रुपयों पर बेचने को मजबूर हों, जहां मुनाफ़े की हवस में चंद लोग गांवों, शहरों, यहां तक कि देशों को शमशान बनाये दे रहे हों, वहां निष्पक्षता कैसी और तटस्थता कैसी?’’

सम्पादक शिव वर्मा के ये दा टूक शब्द आज भी उतने ही अर्थवान हैं जितने की तब थे, बल्कि आज ये शब्द या विचार कहीं अधिक प्रासंगिक हो गए क्योंकि आज शांति के लिए ख़तरा, आज़ादी के लिए संकट अपने चरम पर है और शोषण का ओर-छोर कहीं समाप्त होता नजर नहीं आता। लेकिन शिव वर्मा के सम्पादकीय में जिस तरह दो-टूक शब्दों में बातें कहीं गई हैं, उस तरह न तो तब पत्र-पत्रिकाओं में कही जाती थीं, न आज।

अपनी इसी सम्पादकीय में शिव वर्मा एक अन्य महत्वपूर्ण बात की ओर मुड़़ते हैं। सो यह कि -

''अतीत के बारे में भी हमारा एक दृष्टिकोण है। इस अतीत को न तो एकदम पुराना या दकियानूसी कह कर छोडऩे के ही कायल हैं और न ही उसे एकदम आदर्श मान कर ज्यों का त्यों अपना कर ही चलेंगे। अतीत की हमारी कुछ एक संस्कृतिक परम्पराएं हैं जिसका भारतीय विशेषत्व है। इस विशेषत्व और इन परम्पराओं पर हमें अभिमान है, नाज़ है। ...अतीत की भारतीय संस्कृति के जो भी तत्व आज भी सत्य हैं, सुन्दर हैं, उन्हें अपना कर हम आगे ले जाएंगे। और जो तत्व आज के लिए अपनी सुन्दरता खो चुके हैं, जो आगे बढऩे में सहायक न होकर हमारी प्रगति को रोकते हैं, उन्हें केवल इसीलिए कि वे भारतीय हैं, हम बोझ की तरह ढोते नहीं फिरेंगे।’’

सम्पादकीय से जाहिर है कि 1953-56 के दौर में बल्कि इसके पहले से ही वे शक्तियां सिर उठाने लगी थीं जो भारत के विश्व गुरु होने का दंभ भरती थीं, जिन्हें भारत के अतीत में सब कुछ अच्छा ही अच्छा दिखाई देता था। ऐसी शक्तियों या तत्वों का नेतृत्व तब अपने-अपने स्तर पर एक छोर पर हिन्दू महासभाई कर रहे थे तो दूसरे छोर पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ वाले, हालांकि संघ तब उतना मुखर नहीं था जितना कि आज वह अपने तथाकथित राष्ट्रवाद के नाम पर मुखर है। जहां तक हिन्दू महासभा का प्रश्न है, वह मृतप्राय है। बहरहाल, 'नया पथ’ के अतीत को लेकर एक सही आकलन किया और इसका परिचय हमें उसके पहले ही अंक से मिल जाता है जो 'तुलसी अंक’ के रूप में प्रस्तुत किया गया और जिसके आवरण पर तुलसीदास का चित्र था। यद्यपि अंक का पहला गीत निराला का है जो तुलसी पर नहीं है, पर इसी अंक में 'एक तुलसी और आये’ शीर्षक गीत में वीरेन्द्र मिश्र प्रगतिशील जनवादी दृष्टि से तुलसीदास को देखते हुए कहते हैं -

''गीत तुलसी ने लिखे तो आरती सबकी उतारी

राम का तो नाम है, गाथा-कहानी है हमारी’’

और गीत का समापन वह इस प्रकार करते हैं-

''एक पंछी गा चुका है, एक पंछी और गाए

एक तुलसी आ चुका है, एक तुलसी और आए’’

इस अंक में जहां रूसी रामायण के दो दुर्लभ पृष्ठों के छायाचित्र प्रकाशित किए गए हैं, वहीं बरान्निकोव के लेख 'रामायण की रूप रचना’ के अतिरिक्त रामविलास शर्मा के लेख 'तुलसी साहित्य में सामन्त विरोधी मूल्य’, आदित्य मिश्र के लेख 'रामचरित मानस में समन्वय और संघर्ष’, भदन्त आन्द कौशल्यायन के लेख 'बौद्ध वांगमय में रामकथा’, प्रकाश चन्द्र गुप्त के लेख 'जन कवि तुलसीदास’ को शामिल किया गया है। ये सभी लेख तुलसीकृत 'रामचरित मानस’ की प्रगतिशील जनवादी व्याख्या करते हैं और सम्पादकीय में व्यक्त इस विचार पर मुहर लगाते हैं कि 'अतीत की भारतीय संस्कृति के जो भी तत्व आज भी सत्य हैं, सुन्दर हैं, उन्हें अपना कर हम आगे ले जाएंगे।’ और यही पथ अपनाना 'नया पथ’ ने। शायद जनवादी सोच, प्रगतिशील दृष्टिकोण और अतीत के उजले पक्षों को अपनाने के कारण रहे होंगे जिनके चलते न केवल उपर्युक्त लेखन वरन हिन्दी-उर्दू आदि के लगभग सभी प्रतिष्ठित और उभरते हुए लेखक, कहानीकार, कवि, नाटककार और चिंतक इस पत्रिका से जुड़ते चलेगए। कुछ नाम इस प्रकार हैं - निराला, नागार्जुन, कैफ़ी आज़मी, वीरेन्द्र मिश्र, अनन्त कुमार 'पाषाण’, शील, नंद किशोर मित्तल, राजेन्द्र सिंह बेदी, राहुल सांकृत्यायन,परदेसी, अमृतराय, बीटी रणदिवे, डी.एस.एस. नम्बूद्रिपाद, श्रीपाद अमृत डांगे, भैरव प्रसाद गुप्त, अमरकांत, मार्कंडेय, राजेन्द्र यादव, शमशेर बहादुर सिंह, भीष्म साहनी, कमलेश्वर, शरद जोशी, निर्मल वर्मा, महेन्द्र भल्ला, अजित कुमार, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, नरेश मेहता, हंसराज रहबर, विष्णु प्रभाकर, कीर्ति चौधरी, प्रयाग नारायण त्रिपाठी, चन्द्रबली सिंह, विष्णु चन्द्र शर्मा, मुजीब रिज़वी, साहिर लुधियानवी, फ़िक्र तौंसवी, हर्षनाथ, रामदरश मिश्र, नरेन्द्र शमा, पूरन चन्द्र जोशी, ख्वाजा अहमद अब्बास, शंकर शैलेन्द्र, मजरूह सुल्तानपुरी, इन्दीवर, इस्मत चुगताई, दुश्यंत कुमार, श्रीकांत वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, पाब्लो नेरुदा, रमेश मटियानी 'शैलेश’ (कालांतर में शैलेश मटियानी), मासूम रज़ा 'राही’ (बाद में राही मासूम रज़ा), देवेन्द्र इस्सर, कुबेर नाथ राय, नाजिम हिकमत, अमृतलाल नागर, नीरज, बलबीर सिंह 'रंग’, मुकुट बिहारी 'सरोज’ और कृष्ण चंदर। फेहरिस्त बहुत लंबी है, लेकिन यह भी बता दिया जाए कि 'नया पथ’ में अज्ञेय और जैनेन्द्र कुमार कहीं नजर नहीं आते।

यहां यह बताना सबसे ज्यादा जरूरी है कि 'नया पथ’ से यशपाल का अटूट रिश्ता था - एक सम्पादक के रूप में, एक लेखक के रूप में और एक स्तंभकार के रूप में।

जैसा कि कहा जा चुका है, 'नया पथ’ का प्रकाशन क्रान्तिकारी शिव वर्मा के संपादन में अगस्त 1953 से शिव वर्मा और राजीव सक्सेना के सम्पादन में यह पत्रिका अधिकार प्रेस, लखनऊ से मुद्रित और 22, कैसर बाग, लखनऊ से प्रकाशित होने लगी। दीपावली नव वर्षांक नवंबर 1955 से इसके मुद्रण और प्रकाशन के पते वही रहे, लेकिन शिव वर्मा के क्रान्तिकारी जीवन के साथी तथा प्रख्यात लेखक यशपाल भी 'नया पथ’ के सम्पादक हो गए। पत्रिका में सम्पादक के रूप में क्रम से नाम इस प्रकार प्रकाशित होने लगे - यशपाल, शिव वर्मा, राजीव सक्सेना। साथ ही कुछ लेखकों को सलाहकार सम्पादक भी बनाया गया। नवम्बर 1955 के अंक (दीपावली नववर्षांक) को देखने से पता चलता है कि सलाहकार सम्पादक थे - अमृत राय, आदित्य मिश्र, नागार्जुन, पहाड़ी, प्रकाशचन्द्र गुप्त, भगवत शरण उपाध्याय, महादेव साहा, रमेश सिन्हा, रामविलास शर्मा, राहुल सांकृत्यायन,  शिवमंगल सिंह 'सुमन’ और सज्जाद जहीर, लेकिन अगले ही अंक में सलाहकार संपादक के रूप में रामविलास शर्मा का नाम हट गया। क्यों हटा? पत्रिका में इस प्रश्न का उत्तर कहीं नहीं मिलता। यह वह दौर था जब रामविलास शर्मा द्वारा यशपाल की कहानियों और कुछ उपन्यासों में अश्लीलता का आरोप लगाया जा रहा था जिसके चलते दोनों के बीच गहरे मतभेद उभर आये थे। हो सकता यही कारण हो या फिर कोई अन्य वजह रही होगी।

एक लेखक और स्तंभकार के रूप में 'नया पथ’ में यशपाल ने सर्वाधिक योगदान किया। वह दूसरे ही अंक यानी सितंबर 1953 के अंक से इस पत्रिकार से जुड़ गए थे। इस अंक में उनका लेख था 'हिन्दी-उर्दू प्रश्न पर मार्क्सवादी दृष्टिकोण’, जो पत्रिका का पहला लेख है। लेख की पृष्ठभूमि उत्तर प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार का हिन्दी को राज्य की राजभाषा स्वीकार करने का निर्णय है जिसका यशपाल समर्थन करते हैं। दूसरी ओर 'अंजुमने-तरक्किए-उर्दूए-हिन्द’ राज्य सरकार से मांग करती है कि उर्दू को 'सरकारी तौर पर तमाम रियायत के महकमों, अदालतों, पोलिस सरकारी ऐलानों और तालीम में इस्तेमाल किया जाए।’ मतलब कि प्रदेश में उर्दू को भी राजभाषा का दर्ज़ा दिया जाए और स्कूल-कॉलेजों में उसका अध्ययन-अध्यापन हो। इसके जवाब में यशपाल कहते हैं कि उर्दू-हिन्दी की लिपियां अलग-अलग हैं, पर भाषा एक है। इसके पीछे शायद उनका आशय यह है कि हिन्दी-उर्दू एक-दूसरे में अंदर तक रच-बस गई हैं। साथ ही अपने लेख में तालीम के सवाल पर वह कहते हैं - ''अंजुमने-तरक्किए-उर्दूए-हिन्द की मनचाही भाषा या मादरी ज़बान में शिक्षा दिए जाने की मांग की। वास्तविकता तब खुलती है जब प्रदेश के 86 प्रतिशत अशिक्षित लोगों को शिक्षा देने का प्रश्न सामने आता है। ऐसे लोग निश्चय ही स्थानीय भाषाएं अवधी, बृज, पहाड़ी, भोजपुरी, पछाही, बुंदेलखंडी आदि बोलते हैं जो हिन्दी की बोलियां हैं। अंजुमने-तरक्किए-उर्दूए-हिन्द की मांग है कि ऐसे लोगों को साक्षर बनाते समय पूछ लिया जाए कि वे देवनागरी लिपि में शिक्षा चाहते हैं या उर्दू लिपि में?’’ यशपाल इस प्रश्न को उठाने के बाद आगे कहते हैं - ''इस प्रदेश की राष्ट्रीय भाषा और राजभाषा हिन्दी और लिपि नागरी मानते हुए और यह जानते हुए कि लोगों की बोली या भाषा एक है, उन्हें दो लिपियों में बांटने के प्रस्ताव का आधार लोगों की साम्प्रदायिकता के अतिरिक्त और क्या हो सकता है? और यह बंटवारा साम्प्रदायिक भेदभाव को बढ़ाने के अतिरिक्त और क्या करेगा?’’ यशपाल ने अपने विस्तृत लेख में और भी कई बातें उठाई थीं। जैसे उन्हें हिन्दी को राजभाषा बनाने के तत्कालीन उत्तर प्रदेस सरकार के निर्णय पर कम्युनिस्ट पार्टी की कल्चरल सब-कमेटी का दृष्टिकोण अंतर्विरोधपूर्ण प्रतीत हुआ क्योंकि यशपाल के अनुसार, सब कमेटी ने अपने मसविदे में एक ओर कहा है कि 'उर्दू को हिन्दी से भिन्न प्रादेशिक भाषा के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता’, दूसरी ओर 'मसविदे के अंत में उत्तर प्रदेश में केवल हिन्दी लिपि और हिन्दी भाषा को राजभाषा बना दिए जाने पर असंतोष भी प्रकट किया गया और उर्दू को प्रादेशिक भाषा न मान कर भी अंजुमन की मांगों के समर्थन के लिए सिफारिश कर दी गई है।’

बहरहाल यशपाल के लेख पर पलटवार सा करते हुए 'नया पथ’ के दिसम्बर 1953 के अंक मेें अमीर मोहम्मद खां का 'हिन्दी और उर्दू की समस्या’ शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ। वह लिखते हैं - ''प्रगतिशील लेखक यह बात अच्ची तरह समझ सकते हैं कि हिन्दी और उर्दू में खाई पैदा करने में किस वर्ग का हित रहा है। हर वर्ग आर्थिक दृष्टि से अविभाज्य है और अगर हिन्दी के समर्थकों में श्री यशपाल जैसे लोग इस खाई को बढ़ाते हैं तो वे अपने मध्यवर्ग के साथ कोई न्याय नहीं करते बल्कि पूंजीपतियों के उद्देश्य की पूर्ति करते हैं।’’ यहां तक तो खां साहब की दलली से कोई सहमत हो सकता है, कोई असहमत, लेकिन आगे की पंक्ति में पलटवार के उनके हथियार की धार भोंथरी पड़ जाती है जब वह कहते हैं कि 'उर्दू के समर्थकों पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि वे पूंजीपतियों के आश्रित रहे हैं, क्योंकि उर्दू का कभी कोई कैपिटलिस्ट-पूंजीवादी प्रेस नहीं रहा है।’ सवाल यह है कि 1953 के उस दौर तक, जब आज़ादी मिले कुछ ही वर्ष हुए थे, कितने हिन्दी लेखक आकाशवाणी में नौकरियां करन ेलगे थे, जो सरकारी सेवा थी, लेकिन अमीर मोहम्मद खां ने लेख में आकाशवाणी का ज़क्र नहीं किया क्योंकि आकाशवाणी और राज्यों के उसके केन्द्रों में हिन्दी, उर्दू, पंजाबी और प्रादेशिक भाषाओं के अनेक जाने-माने लेखक समान रूप से काम करने लगे थे। दिलचस्प यह है कि खां साहब अपने लेख में पूंजीपतियों वाली बात दुहराते चलते हैं और कहते हैं कि उर्दू वाले उनके उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर सकते, यह साथ ही यह भी मानते हैं कि 'उर्दू मरणशील सामंती ज़ंदगी के साथ थी’ और यह भी कि 'उर्दू लिपि की वजह से उर्दू को वह व्यापकता न मिल सकी जो नागरी वजह से हिन्दी को मिली क्योंकि नागरी बंगला, गुजराती और मराठी लिपियों से भी एकरूप थी।’

बहरहाल यशपाल के लेखक के बहाने 'नया पथ’ ने हिन्दी-उर्दू के प्रश्न पर एक महत्वपूर्ण बहस छेड़ी। यशपाल का लेख दरअसल 'नया पथ’ में छपने से पूर्व उत्तर प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में पढ़ा गया था जो 24 अगस्त 1953 को हुई थी और जिसमें प्रकाशचन्द्र गुप्त, यशपाल, उपेन्द्रनाथ 'अश्क’, श्रीकृष्ण दास, डॉ. भगवतशरण उपाध्याय, त्रिलोचन शास्त्री, डॉ. नामवर सिंह, अमृतराय, पहाड़ी और 'राही’ ने भाग लिया था - 'राही’ संभवत: राही मासूम रज़ा रहे होंगे, जो पहले मासूम रजा राही के नाम से ग़ज़लें आदि लिखा करते थे। शिवादान सिंह चौहान बैठक में शामिल नहीं हो सके, लेकिन उन्होंने एक पत्र के रूप में अपने विचार भेजे थे। बैठक की अध्यक्षता डॉ. अलीम ने की और बैठक की विस्तृत रिपोर्ट 'नया पथ’ के अक्टूबर 1953 के अंक में प्रकाशित हुई।

इसके बाद फरवरी 1954 के अंक में यशपाल ने 'नया पथ’ में स्तंभ लिखना शुरू कर दिया। स्तंभ का नाम रखा गया - 'बात-बात में...’। पहली किस्त में वह समुद्र किनारे की लहरों,कारों में जाती सम्पन्न घरों की युवतियों का ज़क्र करते हैं तो इसके बरक्स सिर पर टोकरा लिए जल्दी-जल्दी भागती औरतों और समुद्र में जाल खींचते मछुआरों की तस्वीर पेश कर सामाजिक-आर्थिक विषमता की ओर इंगित करते हैं। साथ ही यशपाल तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई के शराबबंदी के फैसले की चर्चा करते हुए कहते हैं कि उन्हें नशे पर रोक लगाने की तो चिंता है, लेकिन पेट पालने के लिए देह बेचने को विवश औरतों की कोई फिक्र नहीं है। इस प्रकार वह शोषक और शोषित का मुद्दा-उठाते हुए व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते हैं कि 'हमारी सरकार ऐसी भोली थोड़े ही है कि धर्म और नैतिकता के नाम पर शोषक और शोषित की व्यवस्था मिटा कर कम्युनिस्टों के लिए रास्ता साफ कर दे।’

इस स्तंभ में यशपाल प्राय: व्यंग्यात्मक तेवर अपनाए नजर आते हैं। देखिए मई 1954 के अंक के ये कुछ अंश-

''10 अप्रैल को अखबारों में खबर छपी कि खुराक मंत्री साहब ने बम्बई के व्यापारियों को आश्वासन दिया है कि धीरे-धीरे सब कंट्रोल दूर हो जाएंगे।’’

''हुआ ये कि कीमत-कंट्रोल व्यापारी के ऊपर नहीं रही, व्यापारी के हाथ में हो गई।’’

''मंत्री जी चाहते हैं कि लोग उनके इस करतब पर वाहवाही करें।’’

                                                             ***

''पाकिस्तानी पंजाब के लीगी प्रधानमंत्री नून साहब का कहना है कि मुस्लिम लीग का जादू अब बेकार हो रहा है तो हम पाकिस्तान की इस्लामी सोशलिस्ट पार्टी बना लेंगे।’’

''समझ लीजिए कि सोशलिस्ट पार्टियों के सोशलिज़्म का मतलब क्या होता है? नून साहब को आखिर जय प्रकाश बाबू और कृपलानी दादा की ही राह अपनानी पड़ेगी।’’

***

''सेठ गोविन्ददास जी ने कलकत्ते में गोरक्षा सम्मेलन का सभापतित्व करने के बाद बम्बई की एक सभा में भयंकर आशंका प्रकट की कि बड़े-बड़े मारवाड़ी सेठों के बेटे या नई पीढ़ी के जवान सब कम्युनिस्ट होते जा रहे हैं। सेठ जी की कम्युनिज्म की परिभाषा है - जो सेठ जी की समझ में न आए।’’

एक अन्य अंक के अपने इसी स्तंभ में यशपाल जो कुछ कहते हैं, वह आज पहले से भी अधिक प्रासंगिक है। स्तंभ का एक अंश- ''हमारी सरकार आजकल आंकड़ों के जोर पर ही देश की उन्नति और विकास के प्रमाण दिया करती है। आप बाजार में खाना कपड़ा खरीद सकें या न खरीद सकें, आंकड़ों से आपको मानना पड़ेगा कि दाम गिर रहे हैं और पैदावार बढ़ रही है। इतने लाख एकड़ खेती बढ़ गई। कपड़े का भाव इतने प्रतिशत गिर गया।...’’ ऐसे ही तो आंकड़े देती रही है मोदी सरकार पिछले साढ़े-चार पांच वर्षों में।

यशपाल का यह स्तंभ 'नया पथ’ में मार्च 1955 तक प्रकाशित हुआ जिसमें वह कभी संक्षेप में तो कभी विस्तार से धर्मांधता, साम्प्रदायिकता, वंचितों के शोषण, सरकार की गलत नीतियों के मुद्दों, साम्यवाद की समझ के बिना साम्यवाद के विरोध, अमरीकी साम्राज्यवाद आदि से जुड़े प्रश्नों को उठाते हैं। वह गांधीवाद का तार्किक ढंग से विरोध करते हैं और नेहरू से असहमति प्रकट करते हैं, हालांकि नेहरू से उनकी असहमति शीघ्र ही समाप्त हो गई प्रतीत होती है और इसका प्रमाण सम्राट अशोक की कलिंग विजय की कहानी पर आधारित 1956 में प्रकाशित उनके उपन्यास 'अमिता’ का समर्पण है जिसमें वह कहते हैं - भावी युद्धों की आशंका से त्रस्त और विश्व शांति की इच्छुक मानवता की ओर से समर्पित।’’ वैसे यह भी हो सकता है कि कई बुद्धिजीवियों की भांति यशपाल भी नेहरू की विदेश नीति से सहमत रहे हों, किन्तु आंतरिक नीतियों से नहीं।

बाद में यशपाल का स्तंभ 'बात-बात में...’ बंद हो गया, लेकिन जब वह नवम्बर 1955 से इस पत्रिका से संपादक के रूप में जुड़े, तब उन्होंने इसी अंक में 'क्या देखा’ शीर्षक रिपोर्ताज लिखा। साथ ही इस अंक से उपेन्द्रनाथ अश्क का एक संस्मरण भी आरंभ हुआ जो लगातार तीन अंकों तक चला और उस दौर में अत्यंत विवादस्पद रहा। यह था - 'मंटो: मेरा दुश्मन’। साथ ही इस अंक में कृशन चंदर, भैरव प्रसाद गुप्त, भीष्म साहनी आदि की कहानियां, मार्कंडेय का एकांकी, निराला, केदार, शिव मंगल सिंह 'सुमन’, शील, अजित कुमार, राजेन्द्र यादव, रामदरश मिश्र, वीरेन्द्र मिश्र, कीर्ति चौधरी आदि की कविताएं भी प्रकाशित हुई। यानी स्थापित और नए लेखकों के 'नया पथ’ से जुडऩे का सिलसिला जारी रहा। लेकिन केवल हिन्दी लेखकों का ही नहीं देश-विदेश के श्रेष्ठ रचनाकारों और चिंतकों के लिखे का भी 'नया पथ’ के लगभग हर अंक में प्रकाशन हुआ। यही नहीं यशपाल के 'नया पथ’ से जुडऩे के बाद दो अंक 'नाटक विशेषांक’ के रुप में प्रकाशित किए गए। मई 1956 के अंक में सात एकांकी थे जिनके रचनकार थे भगवती चरण वर्मा, वृन्दावन लाल वर्मा, विनोद रस्तोगी, छेदीलाल गुप्त, हर्षनाथ, मार्कण्डेय और मदन दीक्षित। उनके साथ ही मदन सिंह मेहरा लिखित एक गीत नाटिका भी थी। इनके अतिरिक्त संस्कृत नाट्य साहित्य और हिन्दी, बुद्धकालीन नाटकों, हिन्दी नाट्य साहित्य और रंगमंच पर 17 गंभीर लेखों को भी शामिल किया गया था। इसके तुरंत बाद जून 1956 के विशेषांक में रवीन्द्रनाथ टैगोर के बांग्ला एकांकी 'आर्य और अनार्य’, पन्नगपति के तेलुगु एकांकी 'फिर मिलेंगे’ और गुलाबदास ब्रोकर के गुजराती एकांकी 'गज़ब है’ को प्रस्तुत किया गया। अलावा इसके मलयाली, बांग्ला, तेलुगु, पंजाबी, सोवियत, जापानी नाटकों और रंगमंच तथा पाश्चात्य नाट्य विज्ञान पर लेख दिए गए। संभवत: किसी पत्रिका ने नाटकों को लेकर आजतक ऐसा आयोजन नहीं किया होगा।

प्रसंगवश उर्दू के महान कवि मजाज़ लखनवी के 5 दिसंबर 1955 को निधन के तत्काल बाद जनवरी 1956 में 'नया पथ’ के मजाज़ पर सज्जाद जहीर का एक महत्वपूर्ण लेख पत्रिका के पहले लेख के रूप में प्रकाशित करने के साथ ही उनकी तीन प्रमुख कविताएं भी प्रस्तुत कीं। जिनमें से उनकी एक सर्वाधिक चर्चित कविता की आरम्भिक पंक्तियां ये हैं -

''शहर की रात और मैं नाशाद व नाकारा फिरूं

जगमगाती, जागती सड़कों पै आवारा फिरूं

गैर की बस्ती है कब तक दर-बदर मारा फिरूं

ये ग़मे दिल क्या करूं, ऐ वहशतें दिल क्या करूं!’’

और अंतिम पंक्तियां-

''बढ़ के इस इन्दर सभा का साज़ सामां फूंक दूं

इसका गुलशन फूंक दूं, उसका शबिस्तां फूंक दूं

तख्ते सुल्तां क्या! मैं सारा कस्रे सुल्तां फूंक दूं

ऐ ग़में दिल क्या करूं, ऐ वहशते दिल क्या करूं!’’

'आवारा’ शीर्षक यह कविता हिन्दी में पहली बार शायद 'नया पथ’ में ही प्रकाशित हुई थी। खैर...

'बात बात में...’ स्तंभ बंद कर देने के बाद यशपाल ने दिसम्बर 1955 से एक नए स्तंभ 'चक्कर क्लब’ की शुरुआत की। यह क्लब छोटे शहरों के घरों की बैठकी में मध्यवर्गीय यार-दोस्तों की खाली वक्त बिताने की गोष्ठी जैसा है जिसमें तत्कालीन सोवियत संघ की सहायता बनाम अमरीकी सहायता, सरकारी प्रकाशनों के पीछे लोगों की चेतना और विश्लेषण क्षमता को पंगु बना देने की प्रवृति, विधायकों, लोकतंत्र, पूंजीवाद, समाजवाद, लोक कलाओं जैसे किसी भी विषय पर नितांत गंभीर से लेकर निहायत अगंभीर बहस होती है। बहस करने वाले अपने को हर विषय का विशेषज्ञ मानते हैं, पर वे असल में किसी विषय के विशेषज्ञ नहीं हैं। कुल मिलाकर उनकी बहस, जो अक्सर बेनतीजा रहती है, पाठक का मनोरंजन तो करती ही है। यशपाल की 'चक्कर क्लब’ शीर्षक से एक पुस्तक भी है लेकिन उसमें 'नया पथ’ वाली सामग्री नहीं, कुछ भिन्न सामग्री है, किंतु उस पुस्तक की भूमिका में यशपाल ने 'चक्कर क्लब’ के सदस्यों को 'बेकार एण्ड कम्पनी’ बताया है जो 'नया पथ’ के 'चक्कर क्लब’ के सदस्यों पर सटीक बैठता है। बहरहाल, अक्टूबर 1956 में 'नया पथ’ के बंद होने के साथ ही 'चक्कर क्लब’ भी बंद हो गया। इस अंतिम अंक में यशपाल ने पूर्वी जर्मनी की अपनी यात्रा के संस्मरण भी आरंभ किए थे, लेकिन उनकी भी एक ही किस्त प्रकाशित हो सकी।

ज़ाहिर है आर्थिक साधनों की कमी से ही 'नया पथ’ का प्रकाशन बंद हुआ होगा, लेकिन प्रतिष्ठित और उभरते हुए लेखक इस पत्रिका से लगातार जुड़े रहे। यशपाल का तो 'नया पथ’ से विशेष रिश्ता रहा क्योंकि उन्होंने इस पत्रिका में स्तंभ लिखे, रिपोर्ताज लिखे, यात्रा संस्करण आरंभ किया, उनकी कहानियां 'नमक हराम’ और 'पाप का कीचड़’ इसमें पाठकों को पढऩे को मिलीं और वह शिव वर्मा तथा राजीव सक्सेना के साथ इसके संपादक भी बने।

 

 

प्रदीप पंत की एक कहानी पिछले साल 'पहल’ में छपी। सातवें दशक के लेखक  हैं। यशपाल की पत्रकारिता को लेकर यह नया काम किया है। दिल्ली में रहते हैं।

संपर्क- 9968204810

 


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