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जुलाई २०१३

21 वीं सदी और हमारा अदब

इन्तिज़ार हुसैन



जनाबे-सद्र और अज़ीज़ दोस्तो, तकल्लुफ़ और भूमिका बरतरफ़, मुझे पहले तो रइटर्स कन्वेंशन के आयोजकों का शुक्रिया अदा करना है कि उन्होंने इस तक्रीब के लिए मुझे याद किया, मगर अच्छा हो कि पहले ही अपनी हैसियत या बेहैसियती से आपको आगाह कर दूं, मैं कोई नक्काद नहीं हूं, मतलब ये कि इस मौज़ू  का मैं अहल नहीं हूं जिसके लिए भरपूर इल्मी मुतालआ ज़रूरी होता है। वैसे भी मुझे अदबी नज़रियों, फल्सफों की दलीलें बघारने का शौक़ नहीं रहा। हां, शाइरों और फ़िक्शननिगारों ने अदबी नज़रियों और फल्सफों को बाला-ए-ताक़ रख कर, अपने तख्लीक़ी तज्रिबों की रौशनी में अदब और इन्सानी ज़िन्दगी पर जो आँख खोलने वाली बातें की हैं, उससे दिलचस्पी ज़रूर रही है। ये हमारी इक्कीसवीं सदी आखिर खला में तो नुमूदार नहीं हुई। इसने 20 वीं सदी की कोख से जन्म लिया है। तो, पहले ये देखना चाहिए कि मां ने क्या खाया कि ऐसी ज़हरभरी बेटी को जना, मगर बीसवीं सदी बड़े-बड़े ख्वाबों की सदी थी। इस सदी के बीच कैसे-कैसे ख्वाब सामूहिक तसव्वुर में जगमगाए और सदी के खत्म होने के पहले ही पारा-पारा हो गए। उप-महाद्वीप में, खास तौर पर मुसलमानों ने ऐसे कितने ख्वाब देखे। सबसे बढ़कर पेन-इस्लामिम का ख्वाब, जो जमालुद्दीन अफगानी की ज़रखेज़ फ़िक्र (ओजस्वी चिंताएं) का शिगूफा था। हमारे यहां सबसे बढ़कर अलीगढ़ के फ़र्ज़न्द ईमान लाए। मौलाना मुहम्मद अली, शौकत अली, मौलान ज़फ़रअलीखान - तीनों अलीगढ़ के नामवर फ़र्ज़न्द थे। तीनों ही अपने मुर्शिद सर सैयद की व्यवहारिकता को छोड़ कर इस बड़े आदर्श पर मर मिटे। खिलाफ़त की तहरीक को उसी आदर्श का शिगूफा जानिए। मगर इधर ये लोग खिलाफ़त को ज़िन्दा रखने के ख्वाब देख रहे थे, उधर मुस्तफा कमाल ने खिलाफ़त ही का बिस्तर लपेट तिया। हिंदी मुसलमानों पर समझ लो कि बिजली गिर पड़ी।
खिलाफ़त तहरीक के पैरोंकारों ने इस सदमे से संभलने के बाद, जो दूसरा ख्वाब देखा, उसे मैं छोड़ता हूं। बीसवीं सदी का जो सबसे बड़ा ख्वाब था, एक रूहपरवर रूमान यानी आलमी सोशलिस्ट निज़ाम का ख्वाब। उसका ज़िक्र सबसे पहले। इस ख्वाब पर तो यूरोप के कितने अदीब, कितने फनकार, कितने दानिश्वर मर मिटे थे और ये ख्वाब किस शान से परवान चढ़ा कि सोवियत यूनियन का क़याम अमल में आया। यूरोप के आदर्शवादियों की ईद हो गयी। इस असर के तहत मुल्क, मुल्क में तरक्कीपसंद अदब की तहरीक चली और अफ़साना और शेर, एक नयी फ़िक्र, एक नए आदर्श से परिचित हुए। मगर जल्द ही स्टालिन की सत्ता आन पहुंची और कुछ ऐसे वाक़िआत हुए कि यूरोप के कितने अदीब सोवियत यूनियन के साथ साम्यवादी सोच से भी बिदक गए। खैर, सोवियत रूस में दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की नज़र आती थी। उधर देखते-देखते रूस को सुपर पॉवर का रुतबा हासिल हो गया।
सोवियत रूस के सुपर पॉवर बनने के बाद ये हुआ कि यूरोप के आदर्शवादी दानिश्वरों ने मायूस होकर उससे ताल्लुक तोड़ लिया, मगर एशिया और अफ्रीका के गुलाम लोगों का आदर्श बन गया। मुसलमानों के हिसाब से देखिए, तो यह वो व$क्त था जब अरब नेशलिम की तहरीक ज़ोर बांध रही थी और जमाल अब्दुल नासिर इस तहरीक के लीडर बन कर अमेरिकी साम्राज्य को ललकार रहे थे। बस, यही वो वक्त था जब हसन अस्करी साहब का इस शान से हृदय परिवर्तन हुआ कि उन्हें सोवियत रूस आलमे-इस्लाम का निजातदेहंदा (मुक्ति देने वाला) नज़र आने लगा। इस ख्वाब की तॉबीर उनके हिसाब से इस तरह बरामद होनी थी कि जमाल अब्दुल नासिर अरबों को एक सूत्र में पिरोएंगे और सोवियत रूस से कुमुक लेकर वो उन्हें पश्चिमी साम्राज्य के शिकंजे से छुड़ाएंगे। फिर अरब एक बड़ी ताक़त बन कर उभरेंगे और आलमे-इस्लाम की सरदारी करेंगे।
मगर अरब-इस्राइल जंग ने पलक झपकते में इन सारे अरमानों को मटियामेट कर दिया। अरब एक ताक़त के तौर पर उभरते कि फिर ढह गए। जमाल अब्दुल नासिर का जोशोख़रोश भी ठंडा पड़ गया, बल्कि पूरे निष्पक्ष ब्लॉक ही पर ओस पड़ गयी और फिर जल्द ही वो वाक़िया गुज़रा जिसका तीसरी दुनिया के लोगों को सान-गुमान भी नहीं था। उसका केन्द्र सुपर पॉवर ही भीगे बताशे की तरह बैठ गया। कितनी जल्दी उसका सूरज गहनाया और कितनी जल्दी डूब भी गया। बीसवीं सदी ने उसका उरूज भी देखा, ज़वाल भी देखा और सफ़र ख़त्म करने से पहले उसका अंजाम भी देख लिया।
मगर इस दौरान हिंदी मुसलमानों ने फिर एक ख्वाब देख लिया था। खैर, इस मर्तबा वो बहुत ऊंचे नहीं उड़े। उप-महाद्वीप की हदों में एक एक राज्य बनाने का ख्वाब देखा। जल्दी-ल्दी उसकी परवरिश की और अजब हुआ कि जल्द ही इस ख्वाब की ताबीर भी निकल आयी और बीसवीं सदी में रूनुमा होने वाला ये वाहिद ख्वाब था जिसने सदी की हद को फलांग कर 21 वीं सदी में $कदम रखा और ए लो, सदी खत्म होते-होते जमालुद्दीन अफ़गानी का पहला ख्वाब भी फिर से रौशन हो गया, मगर किस रंग से। अब ये ख्वाब जमालुद्दीन अफ़गानी से चल कर ओसामा बिन लादेन तक पहुंच चुका था। तब क्या रंग था, अब उसने क्या गुल खिलाए। उस वक्त तो उसने हमारी शाइरी को सैराब किया था। इससे बढ़कर और क्या असर दिखाता कि उसने हमारे सबसे बड़े शाइर को अपने जादू असर में ले लिया :

एक हों मुस्लिम हरम की पासबानी के लिए
नील के साहिल से ले कर ता-ब-खाके-ताशकंद

सबक्र फिर पढ़ सदाक़त का, अदालत का, शुजाअत का
लिया जाएगा तुम से काम दुनिया की इमामत का

खैर। इन शेरों में तो खिताब करने का रंग भी शामिल है। मगर उस ख्वाब ने उस मकाम से बढ़ कर इक्बाल की शाइरी को ख़यालात की बलंदियों पर भी पहुंचाया, बल्कि शायद हम ये कह सकते हैं कि उस ख्वाब के तुफैल हमें अपनी शाइरी में ऐसा शाहकार मयस्सर आया जिसे हम बीसवीं सदी को सबसे शानदार उर्दू नम क़रार दे सकते हैं। मेरी मुराद ''मस्जिद-ए-कुरतबा'' से है। इक़बाल के ख्वाब ने आबे - गंगा से आगाज़ किया था :

ए आबे-रूदे-गंगा वो दिन याद हैं तुझ को
उतरा तिरे किनारे जब कारवां हमारा

अब तो तसव्वुर इस मकाम से गुज़र कर एक और ख्वाब देख रहा था :

आब रवाने-कबीर तेरे किनारे कोई
देख रहा है किसी और ज़माने का ख्वाब
मतलब ये कि जमालुद्दीन अफ़गानी के तसव्वुर से मुनव्वर होने वाले उस ख्वाब को इक्बाल की परवाज़ ने कहां से कहां पहुंचा दिया। मगर इतना मुनव्वर ख्वाब कितनी जल्दी धुंधला गया। वो शाख़ ही न रही जिस पे आशियाना बनना था। खिलाफ़त का बिस्तर ही उलट गया। फिर जब वो ख्वाब मर कर दोबारा ज़िन्दा हुआ है, तो उसका शक्ल क्या से क्या बन चुकी है। जमालुद्दीन अफ़गानी की फ़िक्र में पला ख्वाब, इकबाल की शाइरी में जगमगाता ख्वाब अब बम धमाकों में लिपट कर हमारे रूबरू है। मगर ज़माने की सितमज़रीफी कि एक हसीन ख्वाब इससे भी वाबस्ता है। इसका अहवाल जुहरा निगाह से सुनिए। उन्वान है : 'ख्वाबे-फ़िरदौसे बरीं'।

ये ख़बर आई कि उसका सर मिला
सर की पैमाइश हुई
फिर ज़ख्मदोज़ी की गई
और ये अंदाज़ा हुआ
मरने वाला नौजवान था

उम्र क्या थी बस यही अठारह साल
ज़िन्दगी करने को कुल अठारह साल
पर्दा-ए.टी.वी. पे फिर सर की नुमाइश लग गई
देखने वालों ने देखा
एक वहशत का समां
वहशतों की दास्तां
अधखुली इक आंख
जिसमें ख्वाब था उलझा हुआ
ख्वाबे-फ़िरदौसे बरीं
दूध और शहद की नहरें
मुन्तज़िर हूरें, कुआंरी दिलनशीं
खोश: ए अंगूर थामे
सब की सब मसनद-नशीं
सर की पेशानी सिली, तो फिर नज़र आया हमें
ए खुदा, एक कादिरे-मुतलक खुदा।
अपने दीं की आबरू रख
किस अदा से हो रही है आज तक्मीले-जिहाद
जब:ए शौके-शहादत किस तरह पामाल किया
जुहरा निगाह ने इस क़िस्सा-ए-शहादत को किस-किस रंग से बयान किया है, इसका एक और रंग देख लीजिए:

गुलज़मीना
सुनो
तोद:ए-खाक पर
अपनी कोंपल-सी उंगली से
क्या लिख रही हो
गुलज़मीना ने शर्बत भरी आंखें ऊपर उठायीं
और कहने लगी
कुछ ही दिन कब्ल
ये तोद:ए-खाक ही मेरा स्कूल था
मैंने अल्लाह का नाम
या हाफ़िज़
उसकी दीवार पर लिख दिया
मेरे काग़ज़ क़लम और किताबें
मेरे कुन्बे के हमराह सब मिट चुके हैं
मैं यहां रोज़ आती हूं
अपनी यादों के बस्ते से
पिछले सबक़ ढूंढ़ती हूं
सफ़ह: ए-खाक पर उनको लिखती हूं
और लौट जाती हूं
मेरी क़िस्मत में पढऩा नहीं है
न हो मेरा आमोख्ता (पाठ का दोहराना)
मेरा लिखना तो जारी है!

एक इसी तरह की तस्वीर और देख लीजिए। ये किश्वर नाहीद की नम है। उन्वान है: 'खुदकुश हमला करने वाले बच्चे के नाम - माँ के आंसू।'

मुझे ये भी याद नहीं कि जब तुम घर से निकले थे
तो तुम्हारे हाथ में रूमाल था
अनजाने और बेसाख्ता आंसुओं को
पोंछने के लिए
कि थैला था जिसमें बारूद भरा हुआ था
या फिर तुम्हारे सीने पे मौत ने
तमगों की सूरत में
हैंडग्रेंड बांधे हुए थे
जब तुम घर से निकले थे
बोलो, बताओ तो सही
तुमने अलविदाई लम्हा कैसे गुज़ारा?
कि मेरे सामने कोई निशानी नहीं है
ये बावर करने को
कि जब तुम घर से निकले थे
तो कैसे थे?
और अब
तुम्हें शनाख्त करने के लिए
कुछ भी बाक़ी नहीं

वो ख्वाब जो आबरवाने-कबीर के किनारे शाइर के तसव्वुर में जगमगाया था, उसे आज हमारे ज़माने के शाइरों ने कैसा पाया?
बीसवीं सदी में हिंदी मुसलमानों ने उसे एक रौशन ख्वाब के तौर क़बूल किया था। शाइरे-मश्रिक़ के हिसाब से उस ख्वाब के हक़ीक़त बनने की राह में बस एक ही रुकावट थी। वो रुकावट थी, पश्चिमी साम्राज्य की। मगर इस सदी के ख़त्म होते-होते ये ख्वाब बिगड़ कर मुसलमानों के लिए एक जानलेवा मस्अला बन गया। और शायद कम-अज़-कम मुसलमानों की हद तक इक्कीसवीं सदी का सबसे बड़ा मस्अला यही है। मगर क्या मुसलमानों को मज्मूई तौरपर इस नाखुशगवार हक़ीक़त का पूरी तरह इल्म है? शायद नहीं है। मगर क्यों नहीं है? हैरत है, हैरत-सी हैरत। क्या अभी तक उन्होंने अपने साझे हसीन ख्वाब की मौत को तस्लीम नहीं किया। अपने इर्दगिर्द इतनी लाशों बिखरने के बाद भी। क्या किसी कव्वे का इंतिज़ार है कि वो आकर समझाए कि मक्तूल को कंधे पे उठाए-उठाए कब तक फिरोगे? अब इसे दफ्न कर दो।
क्या जो हक़ीक़त को क़बूल न करने की हमारी पुरानी रविश है, वो इस समझ की कमी की ज़िम्मेदार है? इस तरह सोचते-सोचते मैं अपने अदब की तरफ अआ जाता हूं कि ऐसी नमें भी, जो मैंने अभी नक्ल कीं, दिलों को नहीं छूतीं और सूरते-हाल की संगीनी की एहसास नहीं दिलातीं। क्या इसकी वजह भी समझ की कमी है जिसका मैंने अभी ज़िक्र किया या हमारी शाइरी असर से खाली है। या यूं है कि इस व$क्त इर्दगिर्द शोर बहुत है और शाइरी की आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बन कर रह गयी है। मगर आज के अदब से शिकायत करने वाले कुछ और कहते हैं। वो कहते हैं कि देखिए साहब, इर्दगिर्द कितना कुछ हो रहा है, मगर हमारे अदब में सन्नाटा है। कोई तहरीक नहीं है। कुछ नहीं लिखा जा रहा।
अस्ल में वो जो पिछली सदी की तीसरी, चौथी दहाई में ज़ोर-शोर के साथ तरक्कीपसंद तहरीक चली थी और उधर जदीदियत के नाम पर नन-मीम राशिद ऐसे बागी पैदा हुए थे जिन्होंने सारी पाबंद शाइरी को रद्द करके आज़ाद नम का झंडा बलंद किया था। उन तहरीकों और बगावतों का अजब ग्लैमर था कि 1947 के बाद पाकिस्तान की अदबी तारीख़ में कई एक तारीख़साज़ मोड़ आए, शायरी में, अफ़साने में। उस पर बहसें भी हुई। नए रुज्हानात के हवाले से। उन शाइरों और अफ़सानानिगारों ने नाम भी पाया, मगर जिन्होंने तीसरी, चौथी दहाई के हंगामों को देखा था, उन्हें यही एहसास सताता रहा है कि नए रूझान बरहक़, मगर वो बात कहां मौलवी मदन की-सी।
इस सिलसिले में एक अर्ज़ ये है कि अदब की तारीख में तहरीकों का भी एक रोल, एक मकाम होता है। लेकिन अदब अपनी तरक्की के लिए सिर्फ तहरीकों पर इन्हिसार (आधार) नहीं करता और न नए रुज्हानात हमेशा किसी तहरीक से प्रकट होते हैं। तहरीकें पैदा होती हैं, अपना फ़र्ज़ अदा करती हैं और रुख्सत हो जाती हैं। तहरीकें अदब का मुस्तक़िल फीचर नहीं हैं।
और हां, अगर आपको हमारे आज के अदब में तहरीक की ऐसी ही हुड़क है, तो थोड़ा आंखें खोल कर देखें। ये जो लिखने वालियां बहुत बागियाना मूड में नज़र आ रही हैं, हाथों में फेमिनिम का अलम है और बगल में निस्वानी रंग में रंगी बागियाना नमें हैं, ये सब कुछ क्या है? फिर इस अमल को, इस तहरीक के रंग में भी देखिए, जो मुल्क में औरतों के हक में चल रही है। तहरीकों के सींग थोड़ा ही होते हैं। बस, ऐसे ही निशानात से जानी-पहचानी जाती हैं।
हां, एक और गिरोह भी तो है, पाकिस्तानी अंग्रेज़ीदानों का गिरोह। उनकी तरफ़ से जो उर्दू अदब को बिल्कुल रद्द करने की आवाज़ें आ रही हैं, उनका पस-मंज़र ज़रा मुख्तलिफ़ है। कल तक उनका गुजारा खाली फैज़ साहब पर था। जब कोई शाइर फैशन बन जाए, तो फिर उसकी ज़बान और उसकी शे'री रवायत से शनासाई ज़रूरी नहीं कि वो उर्दू ज़बान जानें और उर्दू ग़ज़ल की रवायत से शनासाई पैदा करें। जिन रास्तों से गालिब हिंदुस्तान के कल्चर्ड हलकों तक पहुंचा है, कमोबेश उन्हीं रास्तों से फैज़ साहब हमारे यहां के अंग्रेज़ीदां हलकों तक पहुंचे हैं। लेकिन अब चूंकि पाकिस्तानी अंग्रेज़ी ने अपने कुछ नॉवेलनिगार भी पैदा कर लिए हैं, इसलिए अब इन हलकों में एक विश्वास आ गया है कि उनकी अपनी ज़बान में भी अदब का कुछ दाल-दलिया हो गया है। वैसे इस पस-मंज़र में एक और मस्अला भी झांकता नज़र आ रहा है, वो है ग्लोबलाइज़ेशन का मस्अला। ग्लोबलाइज़ेशन का मस्अला पैदा होने से पहले जो एक वाक़िआ गुज़रा, पहले वो सुन लीजिए। इस वाक़िए का पस-मंज़र कुछ इस तरह से हैं कि ब्रितान्वी राज के ज़माने में तो जो देसी लोग अंग्रेज़ी में लिख रहे थे, उन्हें नवाज़ने का किसी फ़िरंगी को ख़याल कम ही आया था। लेकिन उस राज का जब डेरा यहां से उठ गया, तो फिर उन्हें ख़याल आया कि हम तो वहां से अपने राज का टांडा-बांडा उठा कर वापस अपनी थान पर आ गए हैं, मगर अपनी ज़बान को वहां रचता-बसता छोड़ आए हैं। तो, उन्हें अब इस भाषाई रिश्ते को मज़बूत करने का एहसास हुआ। इसके जल्द बाद एक परिभाषा सुनने में आयी - 'थर्ड वल्र्ड लिटरेचर'। थर्ड वल्र्ड लिटरेचर की तारीफ़ इस तरह की गयी कि अफ्रीका, एशिया के मुल्कों की सिर्फ अंग्रेज़ी कृतियां इसमें आती थीं। मतलब ये था कि तीसरी दुनिया का नुमाइंदा अदब वो है, जो अंग्रेज़ी में लिखा जा रहा है और इसका हकदार है कि इसकी कद्र की जाए और इसे इन्आमो-इकराम से नवाज़ा जाए। सो, वो सिलसिला जल्द ही शुरू हो गया। खैर, हिंदुस्तान के शाइर तो फिसड्डी निकले, लेकिन वहां के नए नॉवेलनिगारों ने अपना हुनर दिखाया और जल्दी-जल्दी इन्आमात जीत कर एक हैसियत कायम कर ली। और अब खरबूज़े को देख कर खरबूज़े ने रंग पकड़ा है। पाकिस्तान के नौखेज़ लिखने वाले भी मैदान में उतरे हुए हैं और दौड़ में शामिल हैं।
अब इसी हंगाम की उधर से खबर आयी है कि ग्लोबलाइजेशन के आफताबे-आलमताब की रौशनी की ताब न ला कर सारी गैर ग्लोबलाइज्ड ज़बाने नाबूद हो जाएंगी। मतलब ये है कि एशिया और अफ्रीका के मुल्कों में जो ज़बानों का जंगल फैला हुआ है, उसकी बहार चंद रोज़ा है, सो इस खबर से परेशान तो उन्हीं मुल्कों के लोगों को होना चाहिए था, सो वो हुए। मगर इस परेशान मख्लूक के दरमियान वो मख्लूक भी है, खास तौर पर हमारे यहां जिसकी नज़रों में देशी ज़बानें पहले ही अपना एतबार खो चुकी थीं और अंग्रेज़ी मुस्तनद और मोतबर ज़बान होने का श्रेय हासिल कर चुकी थी। उनके हिसाब से तो ये खबर राहत-अफज़ा है कि इस तरह उनके मुल्क, उनके समाज में अंग्रेज़ी की राह में जो रुकावटें हैं, वो दूर हो जाएंगी और उनका मुल्क अंग्रेज़ी के रास्ते जल्द एक तरक्कीयाफ्ता रौशन-ख्याल मुल्क बन जाएगा।
दक्षिण एशिया में तो हिंदुस्तान की हद तक अंग्रेज़ी पहले ही सिक्का जमा चुकी है। इस पर वहां के बड़े हैरान व परेशान हैं। इस वक्त वहां के एक मुमताज़ आलिम और आलोचक सुकुमारदास का एक लेक्चर मेरे सामने है। कहते हैं कि हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी का वुजूद हमारे ज़माने की तारीख की सबसे बड़ी सितमज़रीफी है। किसी दूसरे मुल्क की तारीख में ऐसा वाक़िया कम ही गुज़रा हो कि किसी गैर ज़बान ने उसकी ज़िन्दगी के हर शो'बे में इस तरह गलबा हासिल कर लिया।
हिंदुस्तान की अंग्रेज़ी निगारशात (रचनाओं) का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि इस अदब का ग्लैमर तो बहुत है, मगर अभी तक उसे हिंदुस्तान के नुमाइंदा अदब होने का रुतबा हासिल नहीं हुआ है। ये अलग बात है और ये हमारी बदिकस्मती है कि मगरिबी दुनिया को ये मुगालता है कि हिंदुस्तान का नुमाइंदा अदब यही है।
मगर इसे मुगालता तो नहीं कहना चाहिए। जैसा कि मैंने अभी अर्ज़ किया कि पश्चिम ने 'थर्ड वल्र्ड लिटरेचर' की परिभाषा घड़ी थी, तो उसी वक्त उसने ये फैसला सुनाया था कि बस अंग्रेज़ी में जो लिखा गया है और लिखा जाएगा, उसे तीसरी दुनिया के अदब के तौर पर कबूल किया जाएगा। तीसरी दुनिया के किसी गोशे ने इस फैसले को चैलेंज भी नहीं किया था। कैसे किया जाता।
बकौल इकबाल - जिसे ज़ेबा कहें आज़ाद बंदे हैं वही ज़ेबा
फिर हिंदुस्तान के मुख्तलिफ अंग्रेज़ी नॉवेलों को इन्आमात से भी नवाज़ दिया गया। उसके बाद तो उन्हें मुत्मईन हो ही जाना चाहिए था। मुआमले की बात तो यही है कि मतलब आम खाने से है, पेड़ें क्यों गिने जाएं।
अब नामे-खुदा पाकिस्तान के नौनिहाल इस मैदान में उतरे हैं, बड़ी अच्छी बात है। हमारी दुआएं उनके साथ होनी चाहिएं, मगर उन्हें उर्दू अदब के मुकाबले में खड़ा करने की क्यों कोशिश की जा रही है? उन्हें तो उधर थर्ड वल्र्ड लिटरेचर की रवायत में हिंदुस्तान के नॉवेलनिगारों के रूबरू होना है। और ये क्रिकेट थोड़ा ही है कि पाकिस्तान टीम फील्ड में उतरते ही हिंदुस्तान की टीम के मुकाबिल बराबर की चोट पर आन खड़ी हुई। ये अदब है। अभी इनकी तरफ से बड़े दावे न करें। इन्हें थोड़ा कद निकालने दें। अभी तो इनके दूध के दांत भी नहीं टूटे हैं।
हां, और आखिरी बात ये है कि इक्कीसवीं सदी टेक्नोलॉजी के उरूज की सदी है। वैसे तो ये बहुत खुशी की बात है, मगर इसके कुछ परेशानकुन पहलू भी हैं। सबसे ज़्यादा परेशान माहौलियात से वाबस्ता तन्ज़ीमें नज़र आती हैं। मगर मुझे इकबाल की वो बहुत पहले की कही हुई एक बात याद आ रही है। उसने अपनी बसीरत से जाना और हमें खबरदार किया कि :
है दिल के लिए मौत, मशीनों की हुकूमत
और अदब का मुआमला तो अव्वलन दिल के मुआमलात के साथ है। बा$की इन्सानी अऔर कायनाती मुआमलात तक भी रसाई इसी रास्ते से होती है। मगर ये रास्ता तो खुद मशीनों के कब्ज़े में है। और हमारा अहवाल ये है कि साइंस की तालीम के मुआमले में हम भले ही फिसड्डी हों, मगर मशीनों की हुकूमत इस शान से कायम हुई है कि सबसे बढ़ कर हमारे दिलो-दिमाग में टेक्नोलॉजी ने घर कर लिया है। ए हम किस खेत की मूली हैं। जहां से हम अपने अदब के लिए, अपनी फ़िक्र व एहसास के लिए आबे-हयात खींचते थे, वहां फज़ा का रंग बदला हुआ है। ज़रा 20 वीं सदी को तसव्वुर में लाइये। वो सदी क्या खूब चढ़ी थी। पश्चिमी अदब ने 19 वीं सदी वाला चोला उतार कर अलग फेंका, नया तर्ज़े-एहसास, नया तर्ज़े-बयान। ऐसे-ऐसे नॉवेल नुमूदार हुए और इस धूम से कि लगता था कि फ़िक्र व एहसास के नए दर खुल गए हैं। और वो जो गालिब ने कहा था कि - 'है आदमी बजाए खुद एक महशरे-खयाल...' और डी.एच. लारेंस कह रहा था कि आदमी अपने अंदर एक 'तारीक महाद्वीप' लिये फिरता है और मगरिब का नया नॉवेलनिगार ये कहता नज़र आता था कि इस मख्लूक के अंदर-बाहर को समझने की चाबी मेरे पास आ गयी है।
मगर अब वहां क्या हो रहा है?.... बेफैज़ अदबी, भाषिक नज़रियों व फल्सफों की भरमार है। हमारे नक्काद भी उन्हीं की जुगाली करने पर मजबूर हैं। कल तक जहां इतनी तख्लीकी गहमागहमी थी, वहां अब अजब है कि दलीलें बहुत हैं, तख्लीकी शादाबी कम-कम।
लीजिए, ये बात कर रहा था कि ''दुनियाज़ाद'' का नया शुमारा मेरे सामने आ पड़ा, जहां मस्ऊद अशअर को आज के हमारे अदब में एक हौलनाक खामोशी का एहसास हो रहा है। मस्ऊद अशअर साथ में एक मंझे हुए सहाफी भी तो हैं। उन्होंने अपने जर्नलिस्ट शुऊर से काम लेते हुए वो सब मस्अले एक-एक करके गिनाए हैं जिनसे हम आज दो-चार हैं और सवाल किया है कि उनकी गूंज हमारे आज के अदब में क्यों सुनायी नहीं देती? चूंकि उनके गिनाए हुए मस्अलों की गूंज उन्हें आज की अदबी निगारशात में सुनाई नहीं दे रही है, इसलिए उन्हें आज के हमारे अदब में एक हौलनाक खामोशी महसूस हो रही है। आज के मस्अलों में एक मस्अला अल्पसंख्यकों का भी है। इसमें अहमदियों के हवाले से उन्होंने इकरामुल्लाह के एक अफसाना ''आंख ओझल'' (नॉवेल: जिसका अनुवाद गूंज, दिल्ली में छपवाया गया - हसन) का ज़िक्र किया है और कहा है कि ये वाहिद अफसाना है। इस अफसाने (?) की गूंज और कहीं सुनाई नहीं दी। अब मैं सोच रहा हूं कि इस बयान पर मुज़फ्फर इकबाल शिकवा करेंगे कि कमाल है, मस्ऊद अशअर पर कि उन्होंने इकरामुल्लाह के अ$फसाने को याद रखा और मेरे नॉवेल ''इन्क़िताअ'' को किस बेदर्दी से फरामोश किया है। मस्उद अशअर को मेरा मश्वरा ये है कि ऐसा बयान देते वक्त वो अनवर सदीद से थोड़ा मश्वरा कर लिया करें। वो रोज़ाना अखबारात गौर से पढ़ते हैं, मगर अच्छे-बुरे, छोटे-बड़े रिसाले इतने गौर से अनवर सदीद पढ़ते हैं। उन्हें पूरा पता होता है कि किस मौज़ू पर किस लिखने वाले ने किस रिसाले में क्या लिख कर छपवाया है।
मगर मैं इस पर हैरान हूं कि आज के वो सारे मसाइल जिनसे हम दो-चार हैं, उन्होंने सही गिनाए हैं, लेकिन अब बड़े मस्अले के साफ कन्नी काट कर निकल गए हैं। हालांकि इस हवाले से एक पूरी तहरीक चली हुई है जिसे फेमिनिम की तहरीक का नाम दिया गया है और इसकी गूंज हमारी शाइरी में भी सुनाई दे रही है और गूंज-सी-गूंज। किश्वर नाहीद के हिसाब से ये बारूद में लिपटी शाइरी है और लिखने वालों ने इस हवाले से जो शाइरी की है, वो इतनी कममाय: भी नहीं है कि उसे मस्ऊद अशअर गैर मे'यारी कह कर फरामोश करें। मगर मुझे तो इस फेमिनिम के वास्ते से मर्द लिखने वालों और लिखने वालियों के दरमियान एक रेखा खिंचती नज़र आ रही है। सूरते-अहवाल हमारे समाज में इस वक्त कुछ इस तरह है कि एक तरफ तो तालीम की बरकत से तालीमयाफ्ता खवातीन में खुद आगाही की एक तुंद व तेज़ लहर नज़र आ रही है और औरतों के साथ इस समाज में जो होता रहा है, उसके खिलाफ एक शदीद रद्दे-अमल है। इसी हिसाब से उनके खिलाफ एक मर्दाना रद्दे-अमल भी देखने में आ रहा है। शायद इसका असर है कि औरतों पर हिंसा के वाक़िआत अब कुछ ज़्यादा ही होते नज़र आ रहे हैं। गैरत के नाम पर लड़कियों का कत्ल कोई नया वाक़िआ नहीं है। इसमें इज़ाफा नया वाक़िआ है। और वो समझ में आता है। अब नई उठती हुई लड़की अपनी क़िस्मत का फैसला अपने हाथों में लेने के दर पे नज़र आती है। गैरतमंद बाप, भाइयों को ये गवारा नहीं। उधर गृहस्थ ज़िन्दगी में अब मजबूर व लाचार बीवी चुप बैठने वाली नहीं है। वो बोलने लगी है। सो, तेज़ाब फेंकने के वाक़िआत भी समझ में आते हैं। मगर अब उन्हीं के बीच से वो औरतें भी नुमूदार हुई हैं, जो किताबें लिख कर और दस्तावेज़ी फ़िल्में बनाकर इस मस्अले को अंतरराष्ट्रीय हलकों तक ले गयी हैं।
क्या इसके असरात हमें अपनी शाइरी में महसूस नहीं हो रहे है? बल्कि मैं ये पहले भी कह चुका हूं कि इस सूरते-हाल के हवाले से हमारे अदब में बिलखुसूस शाइरी में लिखने वालियां कुछ इस रंग में लिख रही हैं जैसे वो किसी मिशन पर निकली हुई हैं। सो, उनके शे'रों में एक नयी हरारत दौड़ती नज़र आती है।
मर्द लिखने वालों का मुआमला ये है कि समकालीन चेतना बरहक जो कुछ हमारे इर्दगिर्द हो रहा है, बेदार ज़ेहन रखने वाले के यहां उनके खिलाफ रद्दे-अमल ज़्यादा शिद्दत के साथ, मुझे तो निस्वानी शाइरी ही में नज़र आया। शायद इस वजह से कि ये वबाल भी हो फिर-फिर कर औरतों ही पर पड़ा है। आप देखते हैं कि सवात में खास तौर से लड़कियों के स्कूलों को निशाना बनाया गया। मैंने भी जो निस्वानी शाइरी के तीन नज़मों का हवाला दिया है और उनके अंश पेश किए हैं, वो क्या कहते हैं। क्या ये नज़में हमारे दिलों को नहीं छूंतीं? मगर:
मालूम नहीं, देखती है तेरी नज़र क्या
मुझे इसके समान हमारे अदब में सन्नाटा नज़र आता है। अदब में अहद की गूंज और किस तरह सुनायी देती हैं?
अस्ल में आज का, इस सदी का एक बड़ा मस्अला ये भी तो है कि मीडिया के उरूज के साथ पत्रकारिता ने हमारे दिलो-दिमाग पर बहुत गलबा हासिल कर लिया है। सो, अब हम अक्सर व बेशतर अदब को भी पत्रकारिता के ही पैमानों से नापने की कोशिश करते हैं। शायद यही वजह है कि अब हमें ऐसे नॉवेल बहुत अपील करते हैं, जहां मस्अलों व मुआमलों का इज़हार सीधा सहाफ़ियाना रंग में होता है यानी सहाफ़ियाना हज़हार ही अब हमारे लिए अदब-इज़हार का मर्तबा रखता है और अगर ये इज़हार अंग्रेज़ी  में हो तो, फिर इसे सुर्खाब का पर लग जाता है।
तो क्या ये सूरते-हाल वाकई इस बात को साबित करती है कि हमारे अदबी तर्ज़े-एहसास में कोई बड़ी तब्दीली वाके' हो चुकी है। तो फिर क्या अब हमें किसी ऐसे बड़े आलोचक का इन्तिज़ार करना चाहिए, जो मीडियाग्रस्त इक्कीसवीं सदी के मिज़ाज और तकाज़ों को सामने रख कर अब तक जाने-माने मे'यारों को मन्सूख करार दे और नए सिरे से अदब की जांच-परख के लिए पैमाने बनाए,जो इस बदले हुए मीडियाग्रस्त मिज़ाज को रास आएं।

मानवाधिकार आयोग के अदबी इजलास में पढ़ा गया, कुछ इज़ाफों के साथ, उर्दू के विख्यात कथाकार


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