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सितम्बर - अक्टूबर : 2020

विजय मोहन सिंह: न कलावादी, न मार्क्सवादी

रविभूषण

मूल्यांकन/दूसरा अंतिम हिस्सा

 

 

''शायद असली चुनौती प्रत्येक लेखक के लिए उसका समय होता है। वह जिस सीमा तक अपने समय को समझता, उसका साक्षात्कार करता और उसे रचना में रूपान्तरित करता है, उसी सीमा तक उसका लेखन सार्थक, समृद्ध और प्रासंगिक होता है... समय को न तो समझना आसान है और न उसका साक्षात्कार कर पाना। जो सही अर्थों में अपने समय के रू-ब-रू होता है, वह अपने को एक विशाल आईनाखाने में पाता है, जिसकी किरचें टूट-टूटकर उसे लहू-लुहान करती रहती हैं।’’

- 'नवलेखन की चुनौतियां’, नया ज्ञानोदय, मार्च 2008

''मैं कथा-विश्लेषण को केवल 'भाषा विश्लेषण’ और पाठ-अध्ययन तक सीमित रखने का हिमायती नहीं हूं किन्तु निश्चित रूप से यह मानता हूँ कि प्रत्येक महत्वपूर्ण कथाकार अपनी निजी कथा-भाषा (डिक्शन) निर्मित करता है और वही इसकी पहचान तथा प्रस्थान का बिन्दु बनती है... भाषा में ही यदि धुंधलका, एक आयामिता, दुरुहता, दुरारूढ़ या यांत्रिक अन्यमनस्कता होगी तो कोई 'रचना-परिवेश’ निर्मित होने का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता।’’

- भेद खोलेगी बात ही, 2003, पृष्ठ 207

''कथा-भाषा केवल कथा-भाषा नहीं होती, जैसे कोई भाषा केवल 'भाषा’ नहीं होती। कथा-भाषा के पीछे एक भाव-बोध होता है और उस भाव-बोध के पीछे एक समय-बोध। यह हर समय की भाषा तथा कथा-भाषा पर लागू होती है।’’

- वही, पृष्ठ 206

''मेरा दृष्टिकोण न कलावादी है, न मार्क्सवादी। जब भी आप कलावादी या मार्क्सवादी कहेंगे तो फिर बने बनाए मापदंडों पर चले जाएंगे। ...मैं किसी चीज का मूल्यांकन नहीं करता हूँ। सिर्फ रचना को समझने की प्रक्रिया में अपने विचारों को व्यक्त करता हूँ। पढ़ते व समझते हुए जो विचार मन में आते हैं, वही समीक्षा है।’’

- 'रचना समय’, मार्च 2019, पृष्ठ 16

 

विजयमोहन सिंह ने कथालोचना का कोई 'शास्त्र’ 'निर्मित’ नहीं किया है। उनके यहाँ रचना-विशेष का 'आकलन और विश्लेषण’ ही सबकुछ है, जिससे आलोचक की अपनी एक समझ बनती है। समय-बोध उनके यहाँ प्रमुख है। वे मार्क्सवादी आलोचक नहीं हैं, पर साहित्य को द्वन्द्व रहित नहीं देखते। ''साहित्य का कार्य द्वन्द्वात्मक होता है यानी अपने समय के साथ उसका संबंध स्वीकार और अस्वीकार दोनों का होता है। उसे उभयमुखी होकर चलना पड़ता है। इस प्रकार रचनाकार एक तनी हुई रस्सी पर चलने वाला बन जाता है।’’ (नया ज्ञानोदय, अगस्त 2011) वहाँ भाव-बोध और समय-बोध एक दूसरे से विच्छिन्न नहीं है। एक युग का एक ही भाव-बोध होता है। वह अखंड और अविभाजित है। ''साहित्य ही नहीं, बल्कि अन्य कला-विधाओं में भी वही भाव-बोध अपने ढंग से अभिव्यक्त होता है... फर्क इसका होता है कि आप किसको अपना केन्द्रीय भाव-बोध मानते हैं।’’ ('रचना समय’, वही, पृष्ठ 16)

रचना की 'सौन्दर्यशास्त्रीय दृष्टि’ को उन्होंने 1968 में ही 'साहित्य की सबसे पिटी हुई दृष्टि’ कहा था और इसके स्थान पर 'समाजशास्त्रीय दृष्टि’ पर बल दिया था। 'यथार्थ’ और 'यथार्थवाद’ के संबंध में उनके विचार न तो पूरी तरह त्याज्य हैं और न पूरी तरह ग्राहय; यथार्थ उनकी दृष्टि में आज़ादी के बाद सर्वाधिक विवाद का पारिभाषिक शब्द है। कहानी में 'यथार्थ की अभिव्यक्ति’ और 'यथार्थ की तलाश’ इसी समय आरंभ हुई। ''अधिकांश आधुनिक समीक्षात्मक 'बीज शब्दों’ की भाँति यह भी ('यथार्थ’)। पश्चिमी समीक्षा मुख्यत: मार्क्सवादी समीक्षा-पद्धति से छनकर आया था और 'यथार्थ’ से 'यथार्थवाद’ भी बना क्योंकि बहुत पहले जॉर्ज लुकाच 'यूरोपियन रियलिज्म’ की छानबीन कर चुके थे।’’ ('भेद खोलेगी बात ही, पृ. 45-46) हंगरी के मार्क्सवादी आलोचक-दार्शनिक जॉर्ज लुकाच (13.4.1885-4.6.1971) की पुस्तक 'स्टडीज इन यूरोपियन रियलिज्म’ (1950) में स्टैंढल, जोला टॉलस्टॉय, बाल्जाक, गोर्की आदि के लेखन का समाजशास्त्री अध्ययन किया गया था। प्रगतिशील और मार्क्सवादी आलोचकों ने अपने मूल्यांकन में 'यथार्थ’ और 'यथार्थवाद’ को केन्द्र में रखा था जिससे, इससे विरत लेखकों की आलोचना की गयी। विजयमोहन के लिए यथार्थ की समझ उसके परिवेश के बिना संभव नहीं है। उनकी शिकायत यह है कि आज़ादी के पहले के कथाकार जहां यथार्थ-संबंधी अवधारणाओं से अपरिचित थे, वहाँ बाद के कथाकार न केवल इससे परिचित रहे, अपितु 'उनकी छाया में ही कहानियाँ’ लिखते रहे। उनके लिए 'यथार्थ’ 'लक्षणग्रन्थों’ की तरह था। इसी कारण उन्होंने बहुत कथाकारों को 'रीतिबद्ध कथाकार’ कहना आवश्यक समझा। अज्ञेय ने 'यथार्थ’ को 'हमेशा अर्थहीन’ माना था, जिसकी उन्होंने आलोचना की और यह माना कि ऐसा कहकर अज्ञेय 'अस्तित्ववादी ऐब्सर्ड’ की अवधारणा के निकट पहुंचते हैं। विजयमोहन 'पूंजीवाद’ के कटु आलोचक हैं। ''प्रेमचन्द 1936 में ही जिस उभरते पूंजीवाद पर दस्तक दे चुके थे, उसके चरम विकृत दोजखी रूप को हम अभी कहाँ पहचान पा रहे हैं? कम-से-कम अपने कथा-साहित्य में?’’ (वही, पृ. 52)

''विजयमोहन सिंह का पहला लेख '60’ के बाद की कहानियां (1966) संकलन की भूमिका के रूप में है। इस भूमिका 'परिवर्तन की प्रक्रिया’ में उन्होंने  'यथार्थवादिता’ (तथाकथित) से 'मुक्त’ होने को महत्वपूर्ण माना। 'यथार्थवादिता’ से 'आंचलिकता’ के जन्म लेने की बात कही और यह माना कि ''आंचलिक कहानियों में यथार्थ के 'सतहीरूप’ का आग्रह था।’’ वस्तुगत यथार्थ उस 'यथार्थ’ के सिवा जिसे कथाकार देखता और महसूस करता है और 'महसूस’ करने की इसी प्रक्रिया में उसे शक्ल देता है’’ के अतिरिक्त और क्या है? उनके लिए यथार्थ को महसूस करने का महत्व है। 'नयी कहानी’ में वे 'यथार्थ का ककहरा’ देखते हैं, जबकि साठोत्तरी कहानीकारों में 'एक ठोस यथार्थ-बोध’ है। यथार्थ को 'यथावत’ ग्रहण करने के पक्ष में वे कभी नहीं रहे। उन्होंने बार-बार इसकी आलोचना की है। अज्ञेय 'यथार्थ’ को 'यथा-अर्थ’ मानते थे। जो सम्मुख है, उसे यथावत प्रस्तुत कर देना यथार्थ की सही और वास्तविक समझ से परे होना है। एक रचनाकार के लिए उनके अनुसार केवल 'सामाजिक चेतना से सम्पन्न’ होना जरूरी नहीं है। दृष्टि सम्पन्न होना भी आवश्यक है। उनके लिए 'रचना’ का रचना होना आवश्यक है। ''वह यथार्थवाद को स्थापित करने का कोई आलोचनात्मक ग्रंथ या सिद्धान्त नहीं हो सकती। रचना को पहले रचना के स्तर पर ही अपने को प्रमाणित करना होगा। उसमें यथार्थ, कितना है, कैसा है, क्या है, क्या नहीं है, कौन-सा यथार्थ है, ये सारे सवाल यथार्थ के बारे में हैं। अस्सी के दशक में नामवर सिंह से उन्होंने जो बातचीत की थी (अप्रेल 1984 की 'सारिका’ में प्रकाशित), उनमें इन दोनों आलोचकों ने फार्मूलाबद्ध कहानियों पर भी विचार किया था। विजयमोहन सिंह जहां रचनाओं में ''एक खास तरह की सामाजिकता के नाम पर अमानवीयता (?) को देख रहे थे, वहाँ नामवर ने इधर की कहानी (अस्सी के दशक की जनवादी कहानी) को पूरी तरह 'सामाजिक’ होने के बाद, कुछ अधिक ही उसके 'अमानवीय’ होने की बात कही थी। इन दोनों आलोचकों ने 'साठोत्तरी कहानी’ के बाद हिन्दी कहानी में जो गुणात्मक परिवर्तन आये थे, उधर न के बराबर ध्यान दिया। विजयमोहन 'ठोस यथार्थ’ को महत्व देते हैं, न कि 'स्थूल यथार्थ’ को। वास्तविकता की लगातार उपेक्षा को उन्होंने कभी कहानीकार के लिए सही नहीं माना क्योंकि कथाकार की संवेदना वास्तविकता से जुड़ी होती है। नामवर और विजयमोहन सिंह दोनों कहानीकार के लिए 'गहरा यथार्थ बोध’ आवश्यक मानते हैं। यह अलग से विचार और बहस का विषय है कि उस समय, सचमुच हिन्दी कहानी किसी 'बॉटल नेक’ (गतिरोध) से गुजर रही थी या इन दोनों आलोचकों की जो अपनी एक कथा-दृष्टि थी, उसमें ये कहानियां 'फिट’ नहीं बैठ रही थीं? विजयमोहन सिंह ने इसी बातचीत में यह कहा था ''सूखे गालों वाले बच्चों से जुड़ी हुई जो वास्तविकता है, उसकी नितांत लगातार उपेक्षा करते हुए अगर आप ऐसी रचनाएँ कर रहे है जो फिर उस 'इलीटिस्ट टेंडेंसी’ का परिणाम है, तो निश्चित रूप से वह हमें 'डिस्टर्ब’ करेगी। हम उस पर उंगली उठाएंगे।’’ (रचना समय वही, पृ. 12)

'60 के बाद की कहानियां’ की भूमिका के बाद विजयमोहन सिंह ने आरा की गोष्ठी में जो लेख 'आज की कहानी:अकहानी का संदर्भ’ पढ़ा था (1967), वह कहानी-सबंधी उनका दूसरा लेख है। साठ के दशक से ही कविता और कहानी में जो भाँति-भाँति के 'आंदोलन’ आरंभ हुए थे, उन सबमें उनकी कोई रूचि नहीं थी। 'चर्चा’ या 'उपेक्षा’ दोनों को चंद अपवादों को छोड़कर 'संयोग’ मात्र न मानकर 'सुनियोजित’ और 'कुछ तात्कालिक जरूरतों की पूर्ति या अपूर्ति से संबंधित माना था। 'नयी कहानी’ के दौर में मित्रत्रयी, जो एक दूसरे के 'हमदम और दोस्त’ भी थे, सर्वाधिक चर्चित रही थी। नामवर द्वारा 'परिन्दे’ की की गयी समीक्षा के बाद निर्मल वर्मा 'सीन’ में आये। तब अमरकान्त, भीष्म साहनी, शेखर जोशी, मार्कण्डेय आदि कहीं चर्चा में नहीं थे। विजय मोहन ने 'नयी कहानी’ के 'बिल्लेधारी कहानीकारों’ को अधिक महत्व नहीं दिया। उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में 'नयी कहानी’ के कभी 'नयी’ न होने की बात कही है और उसे 'इन तीनों लोगों (राकेश, यादव, कमलेश्वर) का 'मिसनोमर’ (मिथ्या और अयथार्थ नाम) कहा है। ''ऊंट और गधे की शादी में ये लोग एक दूसरे के गीत गा रहे थे। नामवर ने इन लोगों को पीटने के लिए 'परिन्दे’ को पहली 'नयी कहानी’ कहा था।’’ (रचना समय, वही, पृ. 20) उन्होंने जैनेन्द्र की कहानी 'जाह्न्वी’ से राजेन्द्र यादव की कहानी 'जहाँ लक्ष्मी कैद है’ की तुलना कर राजेन्द्र यादव की कहानी को 'भावुकताग्रस्त’ कहा। ''अपने नएपन और आगमन का जितना डंका नयी कहानीवालों ने बजाया उतना इस शताब्दी के सबसे महत्वपूर्ण साहित्य आंदोलन 'छायावाद’ वालों ने भी नहीं बजाया था।’’ (बीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य, दूसरा संस्करण 2019, पृ. 177) आज भी 'नयी कहानी’ पर विचार करने वाले पचास के दशक पर अधिक ध्यान नहीं देते जब नयी कविता का आंदोलन आरंभ हो चुका था। अज्ञेय ने 'मेरी प्रिय कहानियां’ (राजपाल एण्ड सन्ज़) के प्रतिवेदन में लिखा था - ''कहानी में नयेपन का आंदोलन कविता में उसके आंदोलन के बाद सामान्तर अनुक्रिया और प्रतिक्रिया रूप में आया। उसके चिंतन में 'युक्तयाभास’ बढ़ता गया है’’ विजयमोहन ने इसे उद्धृत कर कहानी आंदोलन की एक 'दूसरी विडम्बना’ की ओर ध्यान खींचा- ''इस शायद अपराध या 'चोर बोध’ के कारण ही उसने कहानी मात्र को काव्य तत्व विरोधी मान लिया, यानी कहानी में 'काव्य तत्व’ आया और कहानी गई।’’ (वही)। कहानी-विश्लेषण के लिए नामवर द्वारा प्रतीक, बिम्ब, रूपक, संकेतादि काव्य प्रतिमानों के उपयोग को विजयमोहन सिंह नहीं मानते। वे 'यूलिसिस’ (अमरीकी जर्नल 'द लिटिल रिव्यू’ में मार्च 1918 से दिसम्बर 1920 तक धारावाहिक रूप में और पुस्तक रूप में 1922 में प्रकाशित) और काफ्का (3.7.1883-3-6-1924) के उपन्यासों के उदाहरण से यह बताते हैं कि ''कथा और काव्य विश्लेषण के लिए हमेशा दुहरे तथा सपाट मापदण्ड काम में नहीं लाए जा सकते।’’ नई कहानी के 'उतावले स्वयंसेवकों’ पर वे अधिक ध्यान नहीं देते। उनका ध्यान 'विचार’ से अधिक 'संवेदना’ पर है, वे संवेदना के स्तर पर परिवर्तन की स्थितियों के ग्रहण के पक्ष में हैं। महत्वपूर्ण है ''संवेदना से पिघलकर आने वाली वैचारिक ऊष्मा।’’ 1968 में ही उन्होंने 'कुछ दिनों के लिए कहानी संबंधी चर्चाएं बंद करने’ की बात कही थी। राजेन्द्र यादव की 'एक दुनिया समानान्तर’ और कमलेश्वर की 'नयी कहानी की भूमिका’ की एक साथ उन्होंने समीक्षा की। 'नयी कहानी का सर्वेक्षण’ में राजेन्द्र यादव के कहानी संबंधी सर्वांगीण विवेचन को उन्होंने 'चौतरफा होने के चक्कर में काफी कन्फ्यूज्ड’ बताया। आज कवियों को अपनी अपनी कांस्टीच्यूऐंसी’ बनाने की बात जो कही जाती है, वह हिन्दी में सर्वप्रथम विजयमोहन सिंह ने कही थी। ''आज कहानी के क्षेत्र में जितना 'कन्फ्यूजन’ है उतना और किसी क्षेत्र में नहीं। लोगों ने अपने अपने चुनाव-क्षेत्र चुन लिये हैं।’’। ('आज की कहानी’, पृ. 44) आज भी जो कथालोचक उन दिनों के कहानी-आंदोलनों की याद करते हैं, उन्हें यह जानने की ज़रूरत है कि 1977 में अमरकान्त की कहानियों पर लिखते हुए इस आलोचक ने इन आन्दोलनों को तनिक भी महत्व नहीं दिया था। ''नयी कहानी, साठोत्तरी कहानी, अ कहानी, सचेतन कहानी, समान्तर कहानी जैसे आन्दोलन आते-जाते रहते हैं और उनसे जुड़े कथाकार भी समुद्र की झाग की तरह समाप्त हो जाते हैं।’’ (वही, पृ. 73) यह अच्छी बात है कि पिछले तीन-चार दशकों से हिन्दी में किसी साहित्य-आन्दोलन ने जन्म नहीं लिया।

'नारदमोह’ कभी अच्छा नहीं होता, जब कोई कवि-कथाकार आत्ममुग्ध (या आत्मग्रस्त!) होकर औरों को नहीं देखता। नयी कहानी के कथाकारों को विजयमोहन सिंह ने 'आधुनिक भावबोध’ का कहानीकार न मानकर 'रोमांटिक भावबोध के एक्सटेंशन’ वाला कथाकार माना है, जो अपने आदर्श कथाकारों के 'छिलके’ उतारकर लिख रहे थे। ''नयी कहानी इसीलिए एक 'अन्धायुग’ की कहानी बनकर रह गयी।’’ उनके लिए 'नयी कहानी’ परम्परागत आधुनिक कहानी का ही विस्तार थी। 'नयी कहानी’ की तत्कालीन कहानियाँ फार्मूलाबद्ध कहानियाँ होती थीं, जिनका आदि, मध्य और अंत पूर्व निर्धारित होता था... विडम्बना यह है कि आज भी कुछ लोगों के बीच वो 'सेलीब्रेटेड’ कहानियां मानी जाती हैं।’’ (नयी कहानी, साठोत्तरी कहानी और आज की कहानी, नया ज्ञानोदय, अप्रैल 2011) कमलेश्वर की 'राजा निरबंसिया’ को वे 'नितान्त भाव विगलित’ कहानी मानते हैं और 'दिल्ली में एक और मौत’ को 'फार्मूलाबद्ध’ और 'यान्त्रिक’ कहानी कहकर इसकी तुलना में श्रीकान्त वर्मा की 'शवयात्रा’ को महत्व देते हैं। 'आज की कहानी’ में उन्होंने 'मित्र त्रयी’ में से केवल मोहन राकेश की कहानियों पर ('हिन्दी कहानी का तीसरा व्यक्तित्व’) विचार किया। राकेश को उन्होंने 'नयी कहानी’ में 'एकमात्र समर्थ और स्वाभाविक कहानीकार’ माना है जिसका व्यापक कथा-क्षेत्र है। ''राकेश ही संभवत: अकेले कथाकार हैं, जिनके माध्यम से 'नयी कहानी’ के पूरे विकास को सबसे अच्छी तरह समझा जा सकता है। ...विषय तथा प्रविधि की दृष्टि से राकेश की कहानियों में जितनी विविधिता और विस्तार प्राप्त होता है, उतना उनके किसी अन्य समकालीन में नहीं।’’ (आज की कहानी, पृष्ठ 37 और 41) उल्लेखनीय बात यह है कि पहली आलोचना-पुस्तक 'आज की कहानी’ में गुलेरी और प्रेमचन्द का 'समकालीनता से प्रत्यक्षत: कोई संबंध’ न देखकर भी इन्हें वे 'समकालीन हिन्दी कहानी के स्रोत’ मानते हैं। 'नयी कहानी’ के कहानीकारों में उन्होंने अपनी पहली पुस्तक में केवल राकेश, धर्मवीर भारती, रामकुमार, निर्मल वर्मा, अमरकान्त और शेखर जोशी की कहानियों पर ही विचार किया। मन्नू भंडारी के 'त्रिशंकु’ की समीक्षा की। कमलेश्वर, रेणु और रघुवीर सहाय पर अपनी दूसरी पुस्तक 'कथा समय’ में ध्यान दिया। राजेन्द्र यादव पर न कोई लेख लिखा और न उनके किसी कहानी-संग्रह की समीक्षा की। ''राजेन्द्र यादव अंत तक एक कृत्रिम कथाकार ही बने रहे, ... पुराने नाले पर नया फ्लैट बनाने की कोशिश में 'जहाँ लक्ष्मी कैद है’ जैसी पुरानी कहानी लिखकर 'लक्ष्मी’ के उपासक बन गये... नयापन लाने की कोशिश में राजेन्द्र यादव केवल चेखव तक ही पहुंच सके थे, लेकिन उसे भी समझ पाना उनके बूते की बात नहीं थी।’’ ('नया ज्ञानोदय’, अप्रैल 2011) राजेन्द्र यादव 'नयी कहानी’ के आन्दोलनकर्ता थे और मन्नू भंडारी इस आन्दोलन से 'अप्रभावित’ रही थीं। मन्नू की 'शिल्पहीनता’, 'ज़मीन की निकटता’ (डाउन टू अर्थ) की अपील और उनकी 'कॉमनसेंस’ का उल्लेख कर यह लिखना 1979 में उन्हें आवश्यक लगा था कि ''एक प्रकार का बनावटीपन, प्रदर्शनप्रियता और इसलिए एक बुनियादी बेईमानी आज की अनेक हिन्दी कहानियों का मिजाज बन गयी है।’’ (आज की कहानी, पृष्ठ 67) ऐसी कहानियों की ओर उन्होंने एक नजर भी नहीं डाली। नयी  'कहानी’ की महिला त्रयी में न तो कृष्णा सोबती की कहानियों पर विचार किया, न उषा प्रियम्वदा की कहानियों पर। 'त्रिशंकु’ की समीक्षा के लगभग तीन वर्ष बाद 'कथादेश’ (जनवरी 2009)  के एक पृष्ठ में ही सही मन्नू भंडारी की कहानियों पर पुन:विचार किया और 'छद्म आधुनिकता के उद्घाटन’ को 'आधुनिक भावबोध का ही अंग’ मानकर मन्नू की कहानियों को 'शायद कहीं आधुनिक’ माना। निस्सन्देह वे 'प्रचलित अर्थ में आधुनिक नहीं हैं’ पर उनके लिए 'प्रचलित अर्थ’ मत या मान्यता का विशेष अर्थ नहीं था। कथालोचना का नामवर ने अपनी तरह का जो मार्ग निर्मित किया था, विजयमोहन ने उसका भी अनुसरण नहीं किया।

स्वतंत्र भारत में अज्ञेय, जैनेन्द्र और यशपाल का कहानी-लेखन जारी रहा था, पर इन तीनों ने अपने पुराने कथा-मार्ग से अलग किसी नये मार्ग की खोज नहीं की। इनकी रचनात्मक प्रतिभा अब छीजने सी लगी थी। उपन्यास की बात अलग है। नामवर ने अपने एक लेख 'नई कहानी: नया संदर्भ’ में देश में जनतंत्र के कायम होने और साहित्य-रचना के लिए एक नये वातावरण के बनने की बात कही थी। प्रेमचन्द के बाद हिन्दी कहानी के केन्द्र में मध्यवर्ग उपस्थित हो चुका था और 'नयी कहानी’ के दौर में कमला जोशी को छोड़ दें तो ग्राम-कथाकारों की जो एक त्रयी (मार्कण्डेय, शिवप्रसाद सिंह और रेणु) थी, उस पर नयी कहानी के हो हल्ले में अधिक ध्यान नहीं दिया गया। 'नयी कहानी’ के प्रथम आलोचक नामवर सिंह के जन्म के पीछे भले मार्कण्डेय, दुष्यन्त कुमार और कमलेश्वर की भूमिका रही हो, पर विजयमोहन सिंह के कथालोचक के जन्म के पीछे प्रत्यक्ष रूप से किसी की भूमिका नहीं थी। 'माया’ के बाद भैरव प्रसाद गुप्त 'कहानी’ पत्रिका के सम्पादक 1954 में बने थे और जनवरी 1955 के 'नववर्षांक कहानी विशेषांक’ के बाद नई कहानी आन्दोलन का आरंभ हुआ। नामवर 1957 के कहानी नववर्षांक से कथालोचना के क्षेत्र में सक्रिय हुए। बाद में व्यावसायिकता प्रमुख होती गयी जिसने नयी कहानी आन्दोलन को समाप्त किया। भैरव प्रसाद गुप्त ने भी बाद में 'मित्र त्रयी’ को कहानी का 'नेता’ न मानकर 'बाढ़ में बहने वाला कूड़ा-कचरा’ कहा। 'कहानी’ के बाद भैरव जी 'नयी कहानियां’ के सम्पादक बने, जिसमें 'हाशिये पर’ के अपने स्तंभ में नामवर ने कथालोचना को अपनी तरह एक दिशा-दृष्टि दी। 1962 में भैरवप्रसाद गुप्त ने 'नयी कहानियाँ’ का सम्पादन छोड़ा। इसके बाद नयी कहानी का आन्दोलन बिखर गया और वे कहानीकार सामने आये, जिन्हें 'साठोत्तरी कहानीकार’ के रूप में स्वीकृति प्राप्त हुई। सुरेन्द्र चौधरी देवीशंकर अवस्थी इसी समय में कथालोचना के क्षेत्र में सक्रिय हुए। विजयमोहन सिंह का आगमन इन दोनों के बाद 1966 में हुआ। इसके पहले के एक दशक में वे इन सारी बहसों से अच्छी तरह परिचित थे।

'नयी कहानी’ में एक साथ कई प्रवृत्तियां थीं और व्यापक अर्थ में ये सभी एक दूसरे की पूरक भी थीं। विजय मोहन सिंह ने किसी एक प्रवृत्ति विशेष के कथाकारों पर ध्यान न देकर सब पर ध्यान दिया। कहानीकार और कहानी के चयन में प्रत्येक आलोचक की अपनी एक निजी और स्वतंत्र दृष्टि होती है, जो हमें उनमें दिखाई देती है। मुक्तिबोध की कहानियों पर 1980 तक कम ध्यान दिया गया था। उन्हें 'नयी कहानी’ के कथाकारों में न सही, पर उस दौर के कथाकारों में रखा जा सकता है। 'मुक्तिबोध की समकालीनता’ उस समय के अन्य कथाकारों की 'समकालीनता’ से भिन्न थी। विजयमोहन उनके 'आंतरिक जगत’ और 'समाज-राजनीति के जगत’ को एक दूसरे से पृथक न मानकर दोनों में एक 'रिश्ता’ देखते हैं। स्वतंत्र भारत के आरंभिक वर्षों से ही भारतीय समाज में एक प्रकार का नैतिक क्षरण दिखाई देने लगा था। इसी कारण मुक्तिबोध अपनी कहानियों में नैतिक प्रश्नों से टकराते हैं। आरंभ में ही उन्होंने 'मध्यम वर्ग की चीर-फाड़’ की थी। ''जिस अर्थ में - अपने सम्पूर्ण अर्थ में मुक्तिबोध मध्यवर्ग के लेखक हैं... उस तरह हिन्दी का कोई कथाकार नहीं है। मध्यवर्ग उनके लिए 'गिनीपिग’ न होकर 'नासूर’ है। ('आज की कहानी’, पृ. 30) मुक्तिबोध जन्मशती वर्ष में भी उनकी कहानियों पर अलग से विचार किया गया। उनके समस्त लेखन के जो केन्द्रीय प्रश्न हैं, उन पर एक साथ कम विचार हुआ है। कविता की आलोचना में एक शब्द-विशेष पर आलोचक ठहरता है, पर अमूमन कथा-आलोचना में ऐसा नहीं होता। विजयमोहन की चौकन्नी आँख से कहानी का भी शायद ही कोई अर्थगर्भित शब्द छूटा हो। 'मैत्री की मांग’ कहानी में (1943) 'अनुत्पादन शील मेहनत’ की बात मुक्तिबोध ने की थी और इस शब्द का ''रचना में प्रयोग करने वाली शायद हिन्दी की यह पहली कहानी है।’’ (वही, पृ. 28)। नेहरू-युग से स्वप्न-भंग की बात अक्सर कही गयी है, जिसे विजयमोहन 'जलना’ (1960) कहानी में चिन्हित करते हैं। उनका ध्यान उनके 'ठेठ वर्ग-संघर्ष’ पर जाता है। मुक्तिबोध की कहानियों पर लिखते हुए ('साँवली गहराइयों की कहानियाँ’) वे 'फैंटेसी’ को 'केवल अपनी घटनात्मकता के कारण सच’ नहीं कहते हैं। ''परिवेश में व्याप्त 'भुतैली गंध’ समाज-विशेष की आर्थिक स्थिति से जुड़ी हुई है।’’ किसी गंभीर मार्क्सवादी आलोचक ने भी मुक्तिबोध की कहानियों को शायद ही इस रूप में तब देखा हो। हिन्दी में लम्बी कहानियों को प्रोत्साहित करने का कार्य राजेन्द्र यादव ने 'हंस’ के माध्यम से किया। विजयमोहन सिंह ने 'नवलेखन की चुनौतियां’ ('नया ज्ञानोदय’, मार्च 2008) लेख में हिन्दी की 'महाकाय’ कहानियों पर अर्नेस्ट हेमिंग्वे का स्मरण किया और यह लिखा कि हेमिंग्वे ने ''अनेक स्तरों से गर्भित संकेतात्मक सूत्रों तथा प्रतीकात्मक कहानियां लिखकर आज के कहानीकार को ऐसी प्रविधि दे दी है कि उसे 'महाकाय’ होने की कोई आवश्यकता नहीं है।’’ इसके बहुत पहले मुक्तिबोध ने अपनी एक कहानी में लिखा था - ''कहानी बढ़ सकती है, बशर्ते मैं मूर्खता को कला समझ लूँ।’’ ('भूत का उपचार’ संभावित रचनाकाल 1957, प्रकाशित 1968)

'नयी कहानी’ की मुख्य धारा में अनेक कहानीकार बाहर किये गये। एक साथ इस कथा-संसार में कई संसारों की मौजूदगी थी जिन पर केवल उस समय ही नहीं, बाद में भी ध्यान नहीं दिया गया। उन्हें 'हाशिये’ पर रखा गया। निर्मल वर्मा की जितनी अधिक चर्चा हुई, उतनी ही अधिक रामकुमार की उपेक्षा हुई। निर्मल की पहली कहानी 'डायरी का खेल’ 1956 में प्रकाशित हुई थी और उसके लगभग एक दशक पहले 'प्रतीक’ में रामकुमार की कहानियाँ छपी थीं। उनका संग्रह 'हुस्ना बीवी और अन्य कहानियाँ’ निर्मल के 'परिन्दे’ कहानी-संग्रह के पहले 1958 में प्रकाशित हुआ था। 'एक लम्बा रास्ता’ की समीक्षा में विजयमोहन ने रामकुमार को 'जिन्दगी की नींव’ के कहानीकार माना 'दीवारों के नहीं’। रामकुमार की कहानियों पर कम ध्यान देने का एक कारण शायद इनका 'फोनी’ या 'लाउडी’ होना नहीं था। 'चुपचाप खत्म होते हुए लोग’ पर सभी आलोचकों की नज़र नहीं जा सकती थी। अपने समय में वैसी कहानियाँ लोगों का ज्यादा ध्यान खींचती हैं, जो 'लाउड’ हुआ करती हैं। 'लाउड’ कहानियों पर विजयमोहन ने कभी ध्यान नहीं दिया। उन्होंने रामकुमार की कहानी - 'पेरिस की एक शाम’ में कहानी के एक पात्र का यह कथन उद्धृत किया है कि अमरीका में 'फासिज़्म है, नौकरी देने से पहले पूछताछ की जाती है, शर्तें मनवायी जाती हैं, विचारों की स्वतंत्रता नहीं।’’ भारत में वैचारिक स्वतंत्रता पर अंकुश के बारे में 1962 में मुक्तिबोध ने विचार किया है। वैचारिक स्वतंत्रता की कमी को फासिज़्म से जोडऩा उस समय एक बड़ी बात थी। निर्मल और रामकुमार की कहानियों के 'अंडरटोन’ में विजयमोहन अंतर करते हैं। ''निर्मल के 'अंडर टोन्स’ रेखांकित होते हैं... सूत्रात्मक हो जाते हंै... सामान्यीकृत सूत्र’’ ('आज की कहानी’, पृ. 56) कहानी को एक 'कल्चर’ के रूप में देखना सामान्य दृष्टि का सूचक नहीं है। रामकुमार की कहानियों में वे एक खास प्रकार का 'कल्चर’ देखते हैं। रामकुमार की कहानियों के 'मौलिक अकेलेपन’ को उन्होंने 'हर आदमी के भीतर’ देखा और इस 'अकेलेपन या शून्य’ को 'अस्तित्ववादी शून्य’ से पृथक मानकर इसका 'एक निश्चित तथा ठोस सामाजिक संदर्भ’ देखा। रामकुमार की कहानियों पर विचार के पहले विजयमोहन ने निर्मल की कहानियों पर लिखा था - 'अकेलेपन तथा आतंक का संदर्भ’। निर्मल के संबंध में नामवर ने भिन्न दृष्टि विजयमोहन सिंह की है। नामवर ने कहा है कि विजयमोहन का निर्मल के प्रति 'कड़ा रुख’ रहा है। इस 'कड़े रुख’ के अवश्य कुछ कारण रहे होंगे। वे उनकी कहानियों को उनकी साहित्य-संबंधी अवधारणाओं से अलग कर नहीं देखते। निर्मल के यहाँ वह संदर्भ गायब है ''जिसमें उनके पात्र विकसित होते हैं।’’ (वही, पृष्ठ 61) निर्मल पहले हिन्दी कथाकार हैं, जिन्होंने कहानी को 'अंधेरे में एक चीख’ और कहानीकार को एक 'डिटेक्टिव की तरह’ माना था, जो ''अंधेरे की 'झाड़ी’ में छिपे 'संदिग्ध यथार्थ’ का लगातार पीछा करता रहता है।’’ उनके लिए कहानी 'अन्ततोगत्वा सिर्फ एक कोशिश’ है और 'लेखन’ एक 'अभिशाप’ और 'अनिवार्य नियति’। कहानी, लेखक और लेखन को देखने की यह निर्मल दृष्टि कहीं से भारतीय नहीं है। निर्मल के कथा-संसार में प्रवेश को इसी कारण विजयमोहन ने 'एक तिलस्मी प्रेतलोक’ में प्रवेश की तरह देखा। निर्मल का कथा-संसार एक विशेष वर्ग और उसके परिवेश का है। उनके शब्द 'संदर्भहीन’ हैं। ''निर्मल घटनाओं तथा उनके संदर्भ में जाना ही नहीं चाहते, केवल उन्हें 'हवा में झूलता हुआ’ पकडऩा चाहते हैं।’’ (वही पृ. 62) 'बीच बहस में’  संग्रह की समीक्षा, (1973) में उन्होंने निर्मल की 'रुझान’ और 'दृष्टि’ दोनों को 'आम हिन्दुस्तानी’ की नहीं माना। अज्ञेय के बाद उन्होंने निर्मल को सबसे ज्यादा 'शिल्प-सजग कहानीकार’ कहा है। निर्मल के यहाँ 'परिवेश’ को देखने की दृष्टि 'देशी’ न होकर 'विदेशी’ है। ''शब्दों के इस जादुई अंधकार में रचा हुआ परिवेश अपना देश नहीं है।’’ (वही, प. 64) वे उस 'संवेदनशीलता’ को 'खतरनाक’ मानते हैं, जहां स्मृतियां 'सामूहिक’ न होकर 'नास्टेलजिक’ हैं, निर्मल की कहानियों पर कम विचार नहीं हुआ है, पर उनकी कहानियों पर विचार करने के क्रम में न के बराबर आलोचकों ने उस 'पब्लिक स्कूल और कान्वेंट संस्कृति’ पर विचार किया है, जिसका ''तथाकथित 'बहुज्ञता’ के बावजूद अपने देश की सामूहिक या 'जातीय स्मृति’ से कोई जुड़ाव नहीं है’’। (वही, पृ. 65) निर्मल वर्मा ने अपने लेखों में भारत, भारतीयता और संस्कृति आदि पर विचार किया है। 'संस्कृति’ के नाम पर 'भारत में पैदा हुई चीज’ को निर्मल ने ''एक मध्यवर्गीय, नपुंसकीय, दोगला किस्म का 'विक्टोरियन सम्मिश्रण’ कहा है, जिसे उद्धृत कर वे उनकी कहानियों को 'इसी दुर्भाग्यपूर्ण सम्मिश्रण का परिणाम’ मानते हैं।

'नयी कहानी’ में निर्मल, राकेश, यादव, कमलेश्वर ने पश्चिमी कहानीकारों का अधिक अध्ययन किया था। अमरकान्त, रेणु, शेखर जोशी, आदि कहानीकारोंं के साथ ऐसी बात नहीं थी। इन कहानीकारों ने जीवन को कहीं अधिक पढ़ा था। ये हॉथॉर्म (4.7.1804-19.5.1864), मोपासाँ (5.8.1850-6.7.1893), ओ हेनरी (11.9.1862-5.6.1910), चेखव (29.1.1860-15.7.1904), हेमिंग्वे (21.7.1899-2.7.1961) एडगर एलेन पो (19.1.1809-7.10.1849) और रॉब्ब ग्रिये (18.8.1922-18.2.2008) आदि से पूर्णत: परिचित नहीं थे। गोर्की (28.3.1868-18.6.1936) और टॉल्सटॉय (9.9.1828-20.11.1910) से उनका अधिक परिचय था, पर नयी कहानी के दौर में इन दोनों का शायद ही कोई अधिक नाम लेवा रहा हो। नये कहानीकारों को यह मुगालता था कि उनकी कहानियों ने कुछ लम्बी 'छलांग’ लगा ली है। नयी कहानी में एक तबका उन कहानीकारों का था, जिन्हें 'इलीट्स’ कहा जा सकता है, पर जो 'जेन्युइन’ कहानीकार थे, वे जनजीवन से जुड़े थे, जिन पर बाद में ध्यान दिया गया। अमरकान्त 'जय-यात्राओं से अलग’ थे, चमत्कार-प्रिय कथा-लेखकों से भिन्न नामवर ने उन्हें निर्मल वर्मा की तरह अपना प्रिय कथाकार नहीं माना। विस्तारपूर्वक लिखने की बात दूर रही 'परिन्दे’ के पहले 'जिन्दगी और जोंक’, 'डिप्टी कलक्टरी’ और 'दोपहर का भोजन’ कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी थीं और पहला कहानी-संग्रह 'ज़न्दगी और जोंक’ 'परिन्दे’ संग्रह के पहले 1958 में प्रकाशित हो चुका था। आलोचक की पसन्द से उसका युग-बोध और जीवन-बोध भी जुड़ा होता है। विजयमोहन सिंह का महत्व यह है कि जिन कहानीकारों पर कम ध्यान दिया गया था, उन पर उन्होंने अधिक ध्यान दिया। इस अधिक ध्यान देने के कारणों को समझने के लिए अमरकान्त, शेखर जोशी, रेणु, रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी पर लिखे उनके लेख (और पुस्तक समीक्षा) देखे जाने चाहिए। वे अमरकान्त को 'नयी कहानी’ के खाते में डाले गये कहानीकारों से सर्वथा भिन्न मानकर उनकी कहानियों को 'एक विशेष अर्थ में भारतीय’ कहते हैं और 'भारतीयता के संदर्भ’ को 'कला और उसकी समीक्षा दोनों के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं। 1977 में हिन्दी में 'भारतीयता’ की चर्चा कम थी। उन्होंने कथालोचना में 'भारतीयता का संदर्भ’ उस समय उठाया था, जब 'भारतीयता’ के स्थान पर एक खास किस्म की 'राष्ट्रीयता’ आकार ग्रहण करने को बेचैन थी स्वाभाविक था कि अमरकान्त की कहानियाँ पुराने मानदंडों से नहीं समझती जा सकती थीं।’’ वे ''नयी हिन्दी समीक्षा के लिए एक नया मानदंड बनाने की मांग करती हैं, जैसी मांग मुक्तिबोध की कविताओं ने की थी।’’ (वही, पृष्ठ 73) 'कम्युनिस्ट’ कहानी 1951 में लिखी गयी थी, पर प्रकाशित 'कहानी’ के जनवरी 1954 में हुई थी। इस कहानी में वर्गीय संघर्ष का भाव था। अमरकांत की कहानियों में 'वर्गीय मनोविज्ञान’ विजय मोहन ने देखा। वे कहानियों में 'आजादी के बाद के सामान्य आदमी का रचनात्मक इतिहास देखते हैं। व्यंग्य उनकी मूलभूत विशेषता है, पर शायद ही किसी ने नागार्जुन और अमरकान्त को एक साथ रखकर थोड़ा भी विचार किया हो। विचार तो मुक्तिबोध और अमरकान्त को भी एक साथ रखकर थोड़ा-बहुत ही सही, किया जा सकता था। विजयमोहन कहानी और कहानीकार को उसकी सम्पूर्णता में विवेचित-विश्लेषित करते हैं। हिन्दी में कहानियों और कहानीकारों के विवेचन में जो 'सरलीकरण’ का सिलसिला जारी है, वह कब थमेगा, कोई नहीं जानता। कहानियों के केवल 'मूलभूत गुण’ पर ही आलोचक की निगाह नहीं जाती, वह शिल्प-दृष्टि, भाषा, संरचना-रचना या कथा-पद्धति पर भी विचार करता है। 'शिल्प दृष्टि’ सीमित होने के बाद भी 'रचना-दृष्टि’ सीमित नहीं हो सकती। विजयमोहन अमरकान्त की 'रचना-दृष्टि’ को महत्व देते हैं और आरंभ से ही उन्हें मुख्य रूप से कथा-रचना की 'दो पद्धतियां’ अपनाते देखते हैं - ''आत्मालाप या आत्म कथ्य की पद्धति या रेखाचित्र और व्यक्ति-चित्र की पद्धति।’’ (वही, पृष्ठ-75)

अमरकान्त, शेखर जोशी, रेणु 'नयी कहानी’ के 'बिल्लेधारी कथाकार’ नहीं रहे। नयी कहानी का एक 'इलीट’ वर्ग था और दूसरा सामान्य वर्ग। 'इलीट’ वर्ग कलकत्ता, दिल्ली जैसे महानगरों में था और सामान्य वर्ग के कथाकार इलाहाबाद, बनारस जैसी जगहों में रह रहे थे। पटना, पूर्णिया को भी इसमें जोड़ लें।  शेखर जोशी की कहानी 'कोसी का घटवार’, 'दाज्यू’ के बाद प्रकाशित हुई थी और उसी की सबने थोड़ी-बहुत चर्चा की, जबकि 'दाज्यू’ वर्ग-भेद की कहानी है। नामवर मार्क्सवादी आलोचक थे। 'दाज्यू’ की उन्होंने नोटिस नहीं ली। विजय मोहन मार्क्सवादी आलोचक नहीं हैं, पर उन्होंने 'दाज्यू’ को  वर्ग-भेद के विश्लेषण की कहानी और 'बदबू’ को 'वर्गीय एकता - सर्वहारा की अभिशप्त एकता की भी कहानी’ कहा है। वे अपनी आलोचना में एक कहानी पर विचार के क्रम में दूसरे लेखकों की रचनाओं को भी याद करते हैं। वे 1957 में प्रकाशित जॉन ब्रेन के उपन्यास 'रूम ऐट द टॉप’ और रॉब्ब ग्रिए को शेखर जोशी द्वारा न पढ़े जाने की बात कहकर 'बदबू’ के व्यंग्य में 'प्रतिरोध का स्वर’ बनने को रेखांकित करते हैं। 'बदबू’ कहानी ने मुझे मार्क्सवादी घोषणा-पत्र अपनी तरह से समझा दिया था - क्योंकि दुनिया के मजदूरों एक हो? क्योंकि सबकी हथेलियों से वही एक बदबू आ रही है - आयेगी चाहे उसे जितना रगड़-रगड़कर धोया जाये! वहीं वे सब एक हैं।’’ (वही, पृष्ठ 81) अब हिन्दी कहानी में क्या, कविता में  भी आलोचक अर्थ-छवियों की खोज नहीं करते। कहानी में 'अर्थ-छवियों की खोज’ विजयमोहन की कथालोचना की विशिष्टता है। 'बदबू’ कहानी को उन्होंने अनेक 'अर्थान्तरणों से भरी कहानी’ के रूप में देखा। ''गुल, बुलबुल और माली सबको अलग-अलग 'मानी’ देने वाली ऐसी 'मानीखेज’ कहानियाँ हिन्दी में चंद ही होंगी।’’ (वही, पृष्ठ 82) वे हिन्दी के 'मानीखेज’ आलोचक हैं, जो 'बदबू’ कहानी में केवल 'प्रतीकात्मकता के साथ अर्थ की अनुगूंजें’ ही नहीं देखते, उसमें मजदूर आन्दोलन की गहरी प्रतिरोधात्मकता का परिचय भी पाते हैं।

यह वर्ष रेणु का जन्मशती वर्ष है और यह देखने की अधिक ज़रूरत है कि रेणु को विजयमोहन सिंह ने कैसे देखा है। विस्तार में न जाकर यह जानना आवश्यक है कि वे रेणु की कहानियों को 'मृदंगिये का मर्म’ कहते हैं और उनके कथा-संसार को 'निर्मल का विलोम’ कहते हैं। वे रेणु में 'व्यक्तिपरक’ तथा 'वस्तुपरक यथार्थ’ दोनों का 'अद्भुत रचाव’ देखते हैं और उनके कथा-साहित्य में 'नॉस्टेलजिया’ या 'गृहमोह’ नहीं देखते। साफ कहते हैं ''ये स्मृतियों की रचनाएँ नहीं हैं।’’ (कथा समय, पृष्ठ 22) 'रेणु की राजनीति’ पर इन दिनों ध्यान दिया जा रहा है। विजयमोहन 'उनकी रचनाओं में राजनीति की अहम भूमिका’ देखते हैं और उनकी 'राजनीतिक सक्रियता’ को उन्होंने 'विडम्बनापूर्ण’ कहा है। 'आत्मसाक्षी’ कहानी (1965) पर उन्होंने स्वतंत्र रूप से विचार किया है। ('नया ज्ञानोदय’, अक्टूबर 2008) रेणु का व्यक्तित्व 'राजनीतिक’ नहीं था, पर ''उनके भावबोध में राजनीति के तंतुओं का गुंजलक है। राजनीति 'आब्सेशन’ के रूप में भी है और कभी दु:स्वप्न के रूप में भी...उनकी रचनाओं में राजनीतिक, मूल्यों के क्षरण का ही परिदृश्य है, जो उनकी रचनाओं को सम्पन्न बनाता है और राजनीति को विपन्न।’’ (कथा समय, पृ. 23) रेणु केवल इस दृष्टि से ही नयी कहानी में अकेले और विशिष्ट नहीं हैं, अपितु उनके जैसा 'एक संगीतमय रचना संसार’ भी किसी अन्य कथाकार के यहां नहीं है। रेणु पर लिखते हुए वे एक ओर भिखारी ठाकुर को याद करते हैं आरै दूसरी ओर कबीर को। ''भिखारी ठाकुर के बाद दूसरा 'बिदेसिया’ लिखने वाले रेणु हैं’’! (वही, पृष्ठ 24-25) जहाँ तक रेणु के 'आत्म मंथन’ का प्रश्न है, वे उसे मुक्तिबोध से जोड़ते हैं। 'काव्यात्मक भाषा’ और 'गीतात्मक भाषा’ में अंतर है। रेणु की भाषा 'गीतात्मक’ है, 'काव्यात्मक’ नहीं। ''यह गीतात्मकता विद्यापति, चंडीदास आदि से होती हुई खेत-खलिहान, बिरहा-कजरी, चैता आदि लोकगीतों के सम्मिलित प्रभावों से निर्मित है। (भेद खोलेगी बात ही, पृष्ठ 101) रेणु हिन्दी के 'मृदंगिया’ हैं। मृदंग उनकी कहानियों में केवल वाद्य यंत्र के रूप में बाहर से नहीं बजता, वह उनके भाव-लोक में बजता रहता है। उन्होंने स्वयं इस मृदंग को सुना ही नहीं, वहाँ जिया भी है और वे अपनी कहानियों में उसे सुनाते हैं। उनकी रचनाएँ जैसा दृश्य-श्रव्य (विजुअल ऑडिओ) प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमता रखती हैं, उसे विजयमोहन 'रिपोर्ताज’ में अधिक देखते हैं। रेणु के यहाँ एक 'मर्यादा’ है, जिसे प्रेम कहानियों के संदर्भ में 'एक रचनात्मक मर्यादा’ कहा गया है। 'आत्मसाक्षी’ कहानी की समीक्षा में विजयमोहन ने जो सवाल किया था, वह आज भी अनुत्तरित है। ''आखिर क्यों दुनिया की सबसे पुरानी पार्टियों में से एक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी देश में अपनी जड़ें नहीं जमा सकी? क्यों आम आदमी हमेशा उसके प्रति सशंकित बना रहा? इस लेख के एक वर्ष पहले 2007 में मोहित सेन (24.3.1929-3.5.2003) की आत्मकथा 'ए ट्रैवलर एण्ड द रोड : ए जर्नी ऑफ ऐन इंडियन कम्युनिस्ट’ प्रकाशित हुई थी। पुस्तक के नाम का तो नहीं पर आत्मकथा का उन्होंने उल्लेख किया था। रेणु उनके अन्त-अन्त तक प्रिय कथाकार रहे। अमरकान्त को जहां अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने अपना 'प्रिय कहानीकार’ नहीं माना, वहां वे रेणु के लिए निर्मल की कहानी को 'रिप्लेस’ करने को तैयार रहे - ''रेणु की कहानियां क्या हैं? वे तो नगीने हैं। कोई हीरा है, कोई पन्ना है, कोई रूबी है, कोई मोती है। रेणु ने कहानियों में तो केवल नगीने ही नगीने दिए हैं, कंकड़ पत्थर दिए ही नहीं।’’ ('रचना समय’, वही, पृष्ठ 22)

हिन्दी की मार्क्सवादी आलोचना में लम्बे समय तक 'वस्तु’ और 'रूप’ के सवाल पर बहसें होती रहीं हैं। अक्सर 'वस्तु’ या 'कंटेंट’ के द्वारा रूप के निर्धारण की बात कही गयी है। रूसी-अमरीकी भाषाविद और साहित्यिक सिद्धांतकार रोमन जैकोबसन (10.10.1896-18.7.1982) ने 'फॉर्म’ के द्वारा ही 'कांटेंट’ के निर्धारण की बात कही है। बड़ी बात यह है कि रघुवीर सहाय पर लिखे अपने लेख 'दया के विरुद्ध’ में वे इसका जिक्र करते हैं। रघुवीर सहाय की कहानी 'मेरी और नंगी औरत के बीच’ को वे 'आधुनिक क्लासिकी’ कहानी का दर्जा देते हैं। ''वह हिन्दी कहानी में एक विस्फोट का प्रस्थान बिन्दु है, बहुत कुछ वैसे ही, जैसे कि टॉल्स्टॉय की 'इवान इलीच की मृत्यु’ या चेखव की कहानी 'ब्लैक मांक’ ('कथा समय’ पृ. 41) टॉल्सटाय की कहानी (या 'नावेला’) 1840 के दशक में लिखी गयी थी और प्रकाशित 1886 में हुई थी और चेखव की कहानी 'द ब्लैक मांक’ 1893 में लिखी गयी और अगले वर्ष 1894 में छपी थी। विजयमोहन उल्लेख मात्र करते हैं, जो सही भी है। इन दो कहानियों के अलावा इस कहानी के संदर्भ में उन्होंने जैनेन्द्र की 'जाह्न्वी’ कहानी को भी याद किया है। 'विचार और रचना’ 'कैसे कहाँ और किस बिन्दु पर एक हो जाते हैं’ को वे स्पष्ट करते हैं। ''मानवीय संबंधों को पहचानने की पैनी तथा अत्यन्त निजी पद्धति के भीतर से कला मात्र में रूप और वस्तु के संबंधों की ऐसी सहजता को उन्होंने 'विस्मय-विमूढ़’ कर देने वाली कहा है। ऐसी तलस्पर्शिनी ही नहीं, कहानी के मर्म को उद्घाटित करने वाली आलोचकीय दृष्टि 'विस्मय-विमूढ़’ कर देती है। रघुवीर सहाय ने इस कहानी में 'वस्त्र और उसकी पीठ मिलकर’ एक होने के 'रुपाकार’ को 'उसी देह में घुल-मिलकर उससे सम्पृक्त’ होने की बात लिखी थी, जिसे इस आलोचक ने 'वस्तु और रूप की सम्पृक्ति’ माना और यह कहा है कि यह कहानी के भीतर से निकलती 'वस्तु तथा रूप के संबंध की अद्भुत व्याख्या’ है। वे रघुवीर सहाय में 'रचनात्मकता’ तथा 'मानवीयता’ को एक कर देने की 'अपूर्व क्षमता’ देखते हैं - ''कला’ और 'जीवन’ सम्पृक्त और एकाकार।’’ (वही, पृ. 42)

मनोहर श्याम जोशी की अलग से स्वतंत्र रूप में कहानीकार की पहचान नहीं है, जबकि 'कैसे किस्सागो’ (1986) की लगभग सभी कहानियां 'नयी कहानी’ के समय की हैं। इस संग्रह के पहले उनकी कहानियों का एक संग्रह 'एक दुर्लभ व्यक्तित्व’ 1975 में प्रकाशित हो चुका था। एक समय उनकी 'सिल्वर वेडिंग’ कहानी काफी चर्चित रही थी। यह बूढ़े दम्पत्ति की पच्चीसवीं वर्षगांठ पर लिखी गयी कहानी है, जिसके साथ विजयमोहन उषा प्रियम्वदा की 'वापसी’ कहानी और ज्ञानरंजन की 'पिता’ कहानी को याद करते हैं। 'किस्सागोई’ हमेशा सपाट ही नहीं होती। ''यदि ऐसा होता तो पुरानी कथाओं के 'फिबेल्स’ में इतने अर्थान्तरण परिलक्षित नहीं होते।’’ (कथा समय, पृ. 44) मनोहरश्याम जोशी में वे 'एक खिलन्दड़ बकवास की सार्थक इंगिति’ देखते हैं। जोशी की कहानियों में 'जिन्दगी के बुनियादी सवाल गुंथे’ रूप में हंै। 'सिल्वर वेडिंग’ के उल्लास में मौत के कुतरने की पदचाप है और 'गाउन के उपहार के रूप में अचानक 'पिता’ कैसे 'चाकर’ बन जाता है, इसका एहसास है। 'उसका बिस्तर’ कहानी में 'गहरी सामाजिक दृष्टि’ देखना और 'दो वर्गों की मानसिकता’ रेखांकित करने में आलोचक की अपनी भी एक सामाजिक दृष्टि लक्षित होती है। भीष्म साहनी की कहानियों पर अलग से विचार न कर उनकी 'वाङ्चू’ कहानी पर उन्होंने विस्तार से लिखा (नया ज्ञानोदय, जनवरी 2009)। अब जब सीमा पर भारत चीन में गलवान घाटी में तनातनी और कुछ मुठभेड़ें भी हैं, भीष्म जी की यह कहानी पुन:पाठ के लिए हमें आमंत्रित करती है। विजयमोहन ने एक संदर्भ विशेष में 1962 के भारत-चीन युद्ध को 'भारत-पाक विभाजन से भी ज्यादा’ आजादी के बाद भारत की सबसे बड़ी ट्रेजेडी कहा हैं। जिसने ''न केवल नेहरू के एकीकृत एशिया के सपने को चकनाचूर कर दिया बल्कि राजनैतिक स्तर पर एक बहुत बड़े विश्वासघात का बीज बो दिया।’’(वही) क्या हम 'डिमोक्रेटिक डिप्लोमेसी’ और 'डिप्लोमेटिक डेमोक्रेसी’ जैसे पद-बंध का प्रयोग कर 'डिमोक्रेसी’ और 'डिप्लोमेसी’ पर विचार नहीं कर सकते? विजयमोहन इन दोनों ('डिप्लोमेसी’ तथा 'डिमोक्रेसी’ को दो वास्तविकताएं, मानकर इन दोनों को अक्सर 'एक दूसरे के विरोध में’ जाते देखते हैं। वे कहानी-विशेष पर बात के क्रम में जिन कहानियों और रचनाओं का स्मरण करते हैं, उनमें एक ऐसी संगति दिखाई देती है, जिसे उनके पहले के शायद ही किसी आलोचक ने उस तरह देखा हो। मकसद दो रचनाओं की तुलना न होकर दोनों की वह आपसी संगति है जो भाषा और देश-काल से परे है। वाङ्चू को वह कामू (7.11.1913-4.1.1960) के उपन्यास 'द स्ट्रेंजर’ (फ्रैंच में 1942 और अंग्रेजी में 1946 में प्रकाशित) के नायक की तरह 'आउट साइडर’ मानते हैं और उसे मंटो के 'टोबाटेक सिंह’ की तरह इस अर्थ में देखते हैं कि वह भी ''किसी देश का निवासी नहीं है’’ वाङ्चू इस व्यावहारिक जगत में 'मिसफिट’ है। महत्वपूर्ण कहानी में केवल संरचना नहीं होती। इस कहानी की संरचना 'सरल, सीधी-सादी और सपाट’ है, पर यह सामान्य 'राजनैतिक कहानी’ न होकर दो भिन्न देशों की शासन-व्यवस्था पर प्रकाश डालती है, जिसमें सरल, भोले और निश्छल मनुष्य के लिए कोई स्थान नहीं होता। वे 'वाङ्चू’ पर लिखते हुए मुक्तिबोध को याद करते हैं। मुक्तिबोध ने 'दो पाटों के बीच’ पिसे जाने की बात कही थी, जो वाङ्चू के साथ सच है। वाङ्चू 'बौद्ध दर्शन की द्वन्द्वात्मक भौतिकतावाद के संदर्भ में सार्थकता’ जानना चाहता है। ''इस प्रश्न को 'सुलझाने’ की प्रक्रिया में ही तिब्बत साम्यवादी चीन का एक नया उपनिवेश बन गया और भारत के धर्मशाला में उसके निर्वासित बौद्ध धर्म को शरण मिली। भारत से निर्वासित बौद्ध धर्म अपने जन्म स्थल में लौट आया, पर निर्वासित वह आज भी है।’’ (वही) क्या यह सामान्य विश्लेषण है, जिसमें एक साथ कई प्रश्न एक दूसरे से उलझते भी दिखाई देते हैं।

विजयमोहन वर्तमान व्यवस्था के आलोचक हैं। कमलेश्वर के पाँचवें कहानी-संग्रह 'बयान’ (1973) की समीक्षा 'राजा निरबंसिया’ से 'राजा निरबंसिया तक’ में कमलेश्वर द्वारा 'आज की दुनिया की जगह’ पर यह कहकर आपत्ति प्रकट की है कि उनमें  'आज की व्यवस्था’ कहने का साहस नहीं है। उन्होंने यह कहकर भी कमलेश्वर की आलोचना की - ''कमलेश्वर की पीढ़ी के कथाकार जब गोर्की - चेखव को अपना आदर्श बना चुके थे, कमलेश्वर अभी ओ-हेनरी तथा मोपासाँ से छुटकारा नहीं पा सके हैं। उनकी अधिकांश कहानियाँ उसी शिल्प-संवेदना तथा समझ के भीतर से लिखी गयी हैं।’’ (कथा समय, पृष्ठ 50)

हिन्दी कथान्दोलनों में 'नयी कहानी’ और 'अकहानी’ के आन्दोलन की धूमधाम अपने समय में जैसी और जितनी रही हो, विजयमोहन के लिए ये अर्थहीन और बेकार थीं। उनका ध्यान स्वतंत्र भारत की उन स्थितियों पर था, जो पहले जैसी नहीं थीं। माउंटबेटन ने जब नेहरू को भारत-पाक विभाजन के बाद  भारत का नक्शा थमाया था तो नेहरू ने उस नक्शे को देखकर 'चिथड़ा देश’ कहा था। इसी 'चिथड़े’ और बाद में लगभग लिथड़े देश में हिन्दी कहानी अपनी विकास-यात्रा तय कर रही थी। कहानियाँ दोनों प्रकार की लिखी जा रही थीं, वास्तविक यथार्थ और छद्म या नकली यथार्थ को जिसकी केवल विजयमोहन पहचान ही नहीं कर रहे थे ; छद्म या नकली यथार्थ की आलोचना भी कर रहे थे। कहानीकारों के भाव-बोध में अंतर था। विभाजन के बाद की भारतीय परिस्थितियों को बाद के अपने एक लेख में उन्होंने  'पश्चिम की युद्धोत्तर परिस्थितियों से बहुत भिन्न’ न होने की बात कही है। स्वाधीन भारत का चेहरा बदलता गया। युग के बदलने के साथ-साथ भाव-बोध बदला, भाषा भी बदली। कई नये कहानीकारों और साठ के बाद के कहानीकारों पर पश्चिम के विचारों का कुछ अधिक प्रभाव था। विजय मोहन ने अकहानी पर विचार करते हुए 1967 में ही रॉब्ब ग्रिए, मैडम सारा, बार्थस और विलियम एस बरोज की बात कही थी, जिससे स्वयं अकहानीकार भी पूरी तरह परिचित नहीं थे। नामवर सिंह ने ''1959-60 के आसपास कहानीकारों की एक नई पीढ़ी उभरकर सामने आने की बात अपने लेख 'नयी कहानी : एक और शुरूआत’(माया, नववर्षांक, 1965) में कही थी।’’ नयी कहानी के विरुद्ध इस पीढ़ी के मन में कितना अधिक विद्रोह है, यह इसी से स्पष्ट है कि उन्होंने 'कहानी’ मात्र को अस्वीकार करके हिन्दी में 'अ-कहानी’ की आवाज उठा दी।’’ ('कहानी नयी कहानी, 1999, पृष्ठ 194) उन्होंने निर्मल द्वारा कही गयी 'कहानी की मृत्यु’ और रवीन्द्र कालिया को उद्धृत किया था। कालिया को 'कहानी के स्वीकृत रूप से घोर वितृष्णा’ थी। इसी लेख में नामवर ने रॉब-ग्रिए को उद्धृत किया था। रॉब-ग्रिए (18.8.1922-18.2.2008) फ्रेंच लेखक और फिल्म निर्माता थे। साठ के दशक में फ्रांस में 'नये उपन्यास’ का जो 'ट्रेंड’ चला था, उसमें उनकी विशेष भूमिका थी। फ्रेंच कवि उपन्यासकार, लेखक और साहित्यालोचक एमिल हेनरिअट (3.3.1889-14.4.1961) ने पचास के दशक में फ्रांस में 'नये उपन्यास’ का आन्दोलन आरंभ किया था। अपने एक लेख में जो फ्रेंच समाचार पत्र 'ल माँद’ के 22 मई 1957 के अंक में प्रकाशित हुआ था, उन्होंने पहली बार 'इस टर्म’ : 'नोव्यू रोमन’ (न्यू नॉवेल) का प्रयोग किया था, पश्चिम में अकहानी या 'एंटी स्टोरी’ दूर-दूर तक कहीं नहीं थी। 'नये उपन्यास’ का प्रयोग उन लेखकों के वर्णन को ध्यान में रखकर किया गया था जो अपने प्रत्येक उपन्यास में 'शैलीगत प्रयोग’ कर रहे थे। फ्रांस में ऐसे उपन्यासकारों की संख्या तब बीस से अधिक थी। 'अकहानी’ और 'कहानी की मृत्यु’ की वहां कोई बात नहीं थी। जहाँ तक 'उपन्यास की मृत्यु’ का प्रश्न है, 1925 में स्पैनिश दार्शनिक और निबंधकार जोस आरटेगा वाइ गैस्सेट (9.5.1883-18.10.1955) की पुस्तक 'डिक्लाइन ऑफ द नॉवेल’ प्रकाशित हुई थी। वाल्टर बेंजामिन (15.7.1892-26.9.1940) ने 1930 में रिव्यू लिखी। 'क्राइसिस ऑफ द नॉवेल’ जर्मन दार्शनिक वोल्फ गैंग कैसर (24.12.1906-23.1.1960) ने 1954 में यह तर्क दिया था कि नैरेटर की मृत्यु उपन्यास की मृत्यु तक पहुंचेगी। रॉब-ग्रिए ने उपन्यास के क्षय या अपकर्ष की बात की कि अगर उपन्यास उन्नीसवीं सदी की संरचनाओं से परे नहीं जाता तो इसकी मृत्यु होगी। बाद में तो रोलॉ बार्थ (12.11.1915-26.3.1980) ने 1967 में 'द डेथ ऑफ ऑथर’ (लेखक की मृत्यु) लिखा। 'नये उपन्यास’ के आन्दोलन में फ्रांस में रॉब-ग्रिए के साथ नथालियाँ सारा (18.7.1900-19.10.1999), मिशेल बटर (14.7.1926-24.8.2016), क्लाद सीमन (10.10.1913-6.7.2005) आदि थे। ज्यॉ पाल सात्र्र ने (21.6.1905-15.4.1980) फ्रेंच में 'एंटी रोमन’ (एंटी नॉवेल) 'टर्म’ को आधुनिक साहित्यिक विमर्श में प्रयोग किया था - नथालियाँ सारा के उपन्यास 'पोट्रेट ऑफ ए मैन (1948) के परिचय में माना यह जाता है कि फ्रेंच उपन्यासकार और विज्ञान, धर्म, इतिहास के लेखक चाल्र्स सोरेल (1602-7.3.1674) का 'द एक्स्ट्रावेजेंट शेफर्ड’, 'अरोमोंस’ ('एंटी रोमांस’) है।

हिन्दी में 'अ कहानी’ और 'अ कविता’ का जन्म लगभग एक साथ ही हुआ, जिसमें अपने को चर्चा के केन्द्र में लाने की इच्छा प्रबल थी। अंग्रेजी में 391 पृष्ठों का एक संकलन फिलिप स्टेविक (17.10.1930) का 'एंटी स्टोरी: ऐन एन्थालॉजी ऑफ एक्सपेरिमेंटल फिक्शन’ (फ्री प्रेस, 1971) 1971 में प्रकाशित हुआ था। 'अ कहानी’ के संबंध में विजयमोहन सिंह ने 1967 में ही (आरा गोष्ठी) यह कहा था - 'अ-कथा संबंधी आंदोलन केवल’ फॉर्म या शिल्प का आन्दोलन नही है - वह एक निश्चित दृष्टिकोण और जीवन-दर्शन का आन्दोलन है, इसलिए सवाल उस दृष्टिकोण के स्वीकार या अस्वीकार का भी है।’’ ('आज की कहानी’, पृष्ठ 99) उन्होंने कभी उस जीवन-दर्शन को नहीं स्वीकारा, जहाँ जीवन का निषेध हो या 'डेस्पेरेशन’ चरम पर हो। साठ के दशक में ही नहीं आज भी वैसी स्थिति नहीं है। 'आधुनिक’ 'उत्तर आधुनिक’ बनने के चक्कर में कुछ भी बना नहीं जाता उस समय रवीन्द्र कालिया 'अकहानीकार’ के रूप में अधिक चर्चित थे और गंगाप्रसाद विमल इसके व्याख्याता प्रवक्ता थे। हिन्दी के कुछ कहानीकारों और आलोचकों के यहां पश्चिमी नामों का कुछ अधिक जाप आज भी बरकरार है। विजयमोहन सिंह ने सबको पढ़ा था, इसीलिए यह सवाल भी किया। ''क्या हम रॉब्ब ग्रिए की तरह इतने 'डेस्पेरेट’ हो सके हैं, कि कह सकें ''लेखक वह है, जिसके पास कहने के लिए कुछ नहीं है’’ (वही, पृष्ठ 100) वे पहले आलोचक हैं, जिन्होंने अमरीकी बीट आन्दोलन के प्रमुख उपन्यासकार, कवि-आलोचक विलयिम एस. बरोज (5.2.1914-2.8.1997) की चर्चा की। अमरीकी कवि एलेन गिंसबर्ग (3.6.1926-5.4.1997) एवं अमरीकी उपन्यासकार जैक केरुयकसे (12.3.1922-21.10.1969) के साथ मिलकर बरोज ने बीट आन्दोलन आरंभ किया था। विलयम बरोज 'क्रमहीन कतरने जमाकर उपन्यास’ लिखते थे। विजयमोहन ने भारतीय अंग्रेजी लेखक डॉम मोरेस (19.7.1938-2.6.2004) की बरोज से हुई मुलाकात की चर्चा की है। ''यह पूछे जाने पर कि आप कैसे लिखते हैं, बरोज ने बड़े इत्मीनान से कहा था कि मैं पहले लिख लेता हूँ कुछ भी और फिर उसे ब्लेड या कैंची से काट लेता हूँ और तब उसे उसी क्रमहीन स्थिति में 'डिक्टेट’ कर देता हूँ।’’ (वही) विमल और कालिया के 'सन्तुलित’ और इनसे अलग होकर गलत हाथों में पडऩे की उन्होंने आलोचना की थी। 'साहित्य की आत्मघाती प्रवृत्तियों’ का विरोध किया था और यह साफ लिखा था कि ''हमारी जिन्दगी न जेने की जिन्दगी है, न अबामोव की। हम अपेक्षाकृत अधिक सामान्य हैं।’’ (वही, पृष्ठ 102) ज्याँ जेने (19.12.1919-15.4.1986) उपन्यासकार और अवाँगार्द रंगमंच, विशेषत: 'ऐब्सर्ड’ रंगमंच के प्रमुख व्यक्ति थे और आर्थर अदामो (23.8.1908-15.3.1970) का भी साहित्यक आन्दोलन 'थिएटर ऑफ द एब्सर्ड’ में मुख्य स्थान था। बाद में भी विजयमोहन सिंह ने 'आधुनिक हिन्दी गद्य साहित्य का विकास और विश्लेषण’ (2014) में साठोत्तरी कहानी पर लिखते समय यह लिखा- ''अ-कहानी प्रतिक्रिया तथा आक्रोश में की गयी एक सिनिकल प्रवृत्ति थी, जो उन्हीं दिनों नयी कविता की प्रतिक्रिया में उत्पन्न अमेरिका की बीट पीढ़ी तथा हिप्पी आन्दोलन के अनुकरण में चलाई गयी एक विकृत मनोवृत्ति की देन थी। दरअसल, भारत में या हिन्दी में अ-कहानी लिखी ही नहीं जा सकती थी। पश्चिम में भी अ-कहानी जैसा आन्दोलन कभी चला नहीं। यदि चला तो 'एन्टी नॉवेल’ या 'न्यू नावेल नाम की एक कथा-प्रवृत्ति का आंदोलन जरूर चला (वह भी मुख्यत: फ्रांस में ही), जिसके प्रवर्तक रॉब ग्रिये तथा नाथालियॉ सारा आदि ही कुछ कथाकार थे।’’ (वही, दूसरा संस्करण, 2015, पृष्ठ 518)

'अ कहानी’ पर कुछ विस्तार से लिखने की आवश्यकता इसलिए हुई कि कहीं कोई धुंध न रहे। साठ के आसपास से ही नेहरू का जादू उतरने लगा था। तीसरे लोकसभा चुनाव (1962) में कांग्रेस की पहले से सीट कम हो गयी थीं। 1962 तक 'नयी कहानी’ की कटु आलोचना होने लगी थी। कहानी-लेखन में बदलाव आ गया था। एक नया मार्ग खुलने लगा था। ज्ञानरंजन ने 'कतिपय-श्रेष्ठ लेखकों’ के 'सुविधाओं  के शिकार’ हो जाने की बात कही थी और यह लिखा था ''आज कहानी-रचना बहुत कठिन हो गई है और अपने दयनीय, अभाग्य पूर्ण और व्यंग्यात्मक जीवन से असम्पृक्त होकर कहानी निर्मित करना अब हमारे लिए संभव नहीं रहा।’’ (नई कहानियां, दिसम्बर 1964, पृष्ठ 65) उन्होंने अपने 'वर्तमान’ को 'बीते हुए अत्याचारों के भोग में’ माना था और यह कहा था - ''हमारी असंख्य तकलीफें पुराने जमाने की हज़ारों ग$फलतों का दुष्परिणाम हंै... आज हमारी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और वैयक्तिक परिस्थितियाँ बड़ी हास्यास्पद हैं। हम कहानी लिखते हैं और वह स्वयमेव व्यंग्यात्मक हो जाती है। हम सम्पूर्णता के साथ प्रेम करते हैं और वह हास्यास्पद अंत में बिखर जाता है।’’ (वही, पृ. 66-67)। पचास और साठ के दशक पर जितने विस्तार से विचार करने की ज़रूरत रही थी, उतना नहीं हुआ। चौथे चुनाव में कांग्रेस का बुरा हश्र अचानक नहीं हुआ था और 'आजादी’ के बीस वर्ष बाद नक्सलबाड़ी में 'वसन्त का वज्रनाद’ के पीछे अनेक ठोस कारण थे।

साठ के बाद कहानियों में हो रही 'नयी शुरुआत’ की बात नामवर ने की और देवीशंकर अवस्थी ने इन कहानीकारों को प्रतिष्ठित करने में बड़ी भूमिका अदा की। अब कथालोचना पुरानी लीक पर नहीं चल सकती थी क्योंकि 60 के बाद की कहानियों में वस्तु और रूप-शिल्प दोनों में परिवर्तन आ गया था। इस समय कविता में आ रहे बदलाव की ओर केदारनाथ सिंह का ध्यान गया था। उन्होंने साठोत्तरी कविता की एक विशेषता नया 'वस्तुबोध’ माना था, जिसमें ''सामान्य वस्तुएं मानवीय अनुभूतियों की सहभोक्ता बनकर एक नई अर्थवत्ता के साथ उपस्थित हुईं।’’ मलयज ने भी इसे रेखांकित किया और 'जीवन प्रक्रिया’ तेज होने के कारण 'सृजन-प्रक्रिया’ में हुए मूलभूत परिवर्तनों की बात की। विजयमोहन ने साठोत्तरी चौदह कहानीकारों की अट्ठाइस कहानियों का एक संकलन '60 के बाद की कहानियाँ’ शीर्षक से सम्पादित किया। मधुकर सिंह दूसरे सम्पादक थे। इसकी भूमिका 'परिवर्तन की प्रक्रिया’ में उन्होंने इन कहानियों में 'यथार्थ का तथाकथित जोश’ नहीं देखा और 'पहले की तथाकथित यथार्थवादिता’ से उन्हें मुक्त माना। ''पहले का कहानीकार जहां समस्याओं को सुलझाता था, वहाँ आज का कहानीकार समस्या के भीतर है, इसलिए वह सुलझाता नहीं 'सफर’ करता है।’’ (आज की कहानी, पृ. 87)। जिस प्रकार नामवर ने द्विजेन्द्रनाथ मिश्र 'निर्गुण’ की 'एक शिल्पहीन कहानी’ और 'उषा प्रियम्वदा की  'वापसी’ की तुलना कर 'वापसी’ को महत्व दिया था, लगभग उसी प्रकार भीष्म साहनी की 'ची$फ की दावत’ की 'माँ’ से विजय चौहान की 'मुक्ति’ की 'माँ’ को विजयमोहन सिंह ने भिन्न माना। साठोत्तरी कहानियों को उस समय उन्होंने 'आधुनिक जिन्दगी की लैंडस्केप’ कहा था। उनके अनुसार ये कहानियाँ 'परिवर्तन की बड़ी सहज, ईमानदार 'डाकूमेंट्स’ हैं। 

इन कहानियों की भाषा भी पहले की कथा-भाषा से भिन्न थी। बदलाव दोनों ही स्तरों - 'वस्तु’ और 'भाषा’ पर हो रहे थे। इन दोनों को केवल चिन्हित ही नहीं कर, उस पर विस्तार से भी विचार उन्होंने किया, केवल इस सम्पादकीय में ही नहीं, विजय चौहान के 'मिजराब’ (1971), दूधनाथ सिंह की 'सपाट चेहरे वाला आदमी’ (1967) प्रयाग शुक्ल की 'वह अन्तर्देशीय’ (1981) और महेन्द्र भल्ला ('पुल की परछाई’, 1977), रवीन्द्र कालिया (नौ साल छोटी पत्नी, 1969), ज्ञानरंजन ('फैंस के इधर और उधर’, 1969) और काशीनाथ सिंह (लोग बिस्तरों पर, 1969) के कहानी संग्रह की समीक्षा की। रामनारायण शुक्ल को वे 'साठोत्तरी कहानीकार’ मानते हैं, जिनके 1971 के कहानी-संग्रह 'सहारा व अन्य कहानियाँ’ की उन्होंने 1972 में समीक्षा की। रामनारायण शुक्ल की लगभग आठ-दस कहानियां, नयी कहानी के दौर में (1958-60) प्रकाशित हुई थीं। वे मुझे इस कारण 'नयी कहानी’ के दौर के कहानीकार लगते हैं। 'परिवर्तन की प्रक्रिया’ के पहले 1965 में विजयमोहन सिंह, मधुकर सिंह, गोविन्द मिश्र सबने मिलकर आरा (बिहार) में एक कहानी-गोष्ठी आयोजित की थी, जिसमें कई 'साठोत्तरी कहानीकारों’ ने भाग लिया था। यह कथा-गोष्ठी मुख्यत: 'नयी कहानी’ से साठ के बाद की कहानियों को भिन्न स्वरूप देने के लिए थी। उस समय और कुछ समय उसके बाद तक साठ के बाद की कहानी को 'आज की कहानी’ और 'समकालीन हिन्दी कहानी’ कहा गया। विजय मोहन सिंह की कथालोचना की पहली पुस्तक 'आज की कहानी’ नाम से ही प्रकाशित हुई।

विजयमोहन सिंह कथालोचक से पहले कहानीकार थे। उनकी पहली कहानी 'एक छोटे बच्चे का हाथ’ अप्रैल 1960 के 'ज्ञानोदय’ में प्रकाशित हुई थी और पहला कहानी-संग्रह 'टट्टू सवार’ 1968 में आया था। साठ के आसपास से राजकमल चौधरी, जगदीश चतुर्वेदी, महीप सिंह, रमेश बक्षी, गिरिराज किशोर, कामतानाथ, रमाकान्त, मुद्राराक्षस, रमेश उपाध्याय, गंगा प्रसाद विमल, गोविन्द मिश्र आदि कहानियां लिख रहे थे, पर साठोत्तरी कथाकारों में विजय मोहन ने प्रयाग शुक्ल, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया, काशीनाथ, महेन्द्र भल्ला और विजय चौहान की कहानियों पर ही विचार किया। साठ के बाद की कहानियाँ उनके अनुसार 'विकराल चेतना के प्रक्षेपण’ की कहानियाँ हैं, जिसमें 'भाषा और शिल्प का नाटकीय शॉक’ था। इन कहानीकारों को 'यथार्थ के सतही रूप से परहेज’ था। वहां 'यथार्थ’ पहले से एक भिन्न रूप में था - सपाट, खुरदुरा और रुखा। भाषा का बदलना स्वाभाविक था। इन कहानीकारों ने एक नयी भाषा 'गढ़ी’। पहले की कथा-भाषा अगर 'सौन्दर्यवादी’ या 'शुद्धतावादी’ थी, तो इन कहानियों की भाषा में ''एक उजड्ड सौन्दर्य निखरता है।’’ वह एक भिन्न समय था। लगभग 55-60 वर्ष बाद ज्ञानरंजन ने एक इंटरव्यू (आजकल, नवम्बर 2019) में उस समय के बारे में यह बताया- ''तब संयुक्त परिवार के विघटन की शुरुआत थी, खास तौर से शहरों में। तब बच्चे पढऩे के लिए जा रहे थे, नई रोशनी से परिचित हो रहे थे। स्थानीयता कम हो रही थी, शहरी समाजों में चमक आ रही थी। विवाह-संस्था को धक्के लग रहे थे। विघटन कई प्रकार के थे, जिसमें आर्थिक स्वतंत्रता भी एक मजबूत कारण था।’’ ये कहानीकार 'समाज का टार्च-बेयरर’ नहीं थे। बाहर समाज बदल रहा था और इस समय के कहानीकारों के आंतरिक-जगत में भी परिवर्तन हो रहा था। यह आंतरिक संस्कार बाह्य संसार से सर्वथा पृथक नहीं था। विजयमोहन इन कहानियों को पहले की कहानी से कहीं अधिक 'सामाजिक’ मान रहे थे, इसे 'मानवीय स्थिति’ से 'मानवीय संबंध’ के विकास के रूप में देख रहे थे, जो उनके अनुसार ''सामाजिक चेतना का विस्तार है, अधिक रागात्मक और प्रामाणिक’’ (आज की कहानी, पृष्ठ 87)

प्रयाग शुक्ल उनकी दृष्टि में 'साठोत्तरी कथा-आन्दोलन’ का 'संभवत: पहले कहानीकार’ हैं। प्रयाग शुक्ल का पहला कहानी-संग्रह महेन्द्र भल्ला, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया, काशीनाथ सिंह के पहले कहानी-संग्रह के पहले प्रकाशित हो चुका था - 1963 में 'अकेली आकृतियाँ’ शीर्षक से। इसी वर्ष गिरिराज किशोर का 'चार मोती बेआब’ और अगले वर्ष 1964 में दूसरा कहानी संग्रह 'नीम के फूल’ का प्रकाशन हो चुका था। इस समय तक वे लगभग तीस-पैंतीस, कहानियां लिख चुके थे। अपने किसी भी समकालीन कथाकार से कहीं अधिक। उनकी ओर विजय मोहन ने ध्यान नहीं दिया। साठोत्तरी कहानीकारों में प्रयाग शुक्ल, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह और रवीन्द्र कालिया पर उन्होंंने एक बार से अधिक लिखा है। दूधनाथ सिंह के केवल 'सपाट चेहरे वाला आदमी’ की समीक्षा की और उनकी कहानियों को 'सामयिकता की रूढिय़ों से अलग’ (1967) माना। जिस प्रकार महेन्द्र भल्ला और अन्य कहानीकार अपनी कहानियों से कहानी के 'ट्रेंड पाठक’ को आघात दे रहे थे, वैसा कुछ दूधनाथ की कहानियों में नहीं था। उनको वे 'एक सीमा तक ऐसे संस्कारशील कहानीकार’ के रूप में देखते हैं, ''जिन्होंने कहानी में 'कहानीपन’ की परम्परा को बड़ी सतर्कता, कौशल और कारीगरी के साथ ग्रहण किया है’’। (वही, पृ. 90) उनकी आलोचना की खासियत यह है कि वे प्रत्येक कहानीकार की निजी विशेषताओं को सामने लाकर दूसरे कहानीकारों से उनकी भिन्नता और निजता को रेखांकित करते हैं, जिनमें न कोई आग्रह है, न दुराग्रह। वे हिन्दी के आग्रही-दुराग्रही आलोचक नहीं हैं। निश्चित रूप से उनकी अपनी एक रचना-दृष्टि और आलोचकीय दृष्टि है, जिसमें एक साथ 'प्रस्थान-बिन्दु’ 'सामाजिक संदर्भ’ और रचना के कलात्मक पक्ष पर भी बल है। ''संवेदना तब तक छद्म रहती है, जब तक अपने अनुकूल भाषा नहीं प्राप्त होती।’’ (वही पृ. 122)। प्रयाग शुक्ल की कहानियों का 'मूल चरित्र’ उन्होंने 'खत्म हो जाने का भय’ माना और आजादी के बाद के शिक्षित-समुदाय को 'टकराहटों’ में देखा। 1980 में प्रयाग शुक्ल के कहानी-संग्रह 'वह अन्तर्देशीय’ की समीक्षा में वे 'साठोत्तरी कहानी का सिनिसिज्म’ नहीं देखते और उनकी 'आत्मपरकता’ को 'व्यक्तिपरक’ से भिन्न मानकर उसे 'एक पीढ़ी के अधिकांश लोगों की आत्मपरकता’ कहते हैं। न तो रामकुमार और कृष्णबलदेव वैद की 'परम्परा’ हिन्दी में चली, न प्रयाग शुक्ल की। वे इसे नहीं समझ पाते कि यह 'सौभाग्यपूर्ण है या दुर्भाग्यपूर्ण’, मेरी दृष्टि में हिन्दी कहानी के लिए यह 'सौभाग्यपूर्ण’ ही रहा। साठ के बाद की कहानियां 'नयी कहानी’ से 'संवेदना और भाषा’ दोनों ही दृष्टियों से अलग थी, जिससे आलोचकों का ध्यान उधर गया और उन्होंने ऐसे कहानीकारों को केन्द्र में रखकर उन पर विचार किया। यह एक नया 'प्रस्थान-बिन्दु’ था। 'नयी कहानी’ के अस्तित्व और महत्व को नकारा गया। उनमें बासीपन देखा गया और इन कहानियों में एक 'फ्रेशनेस’ था। देवीशंकर अवस्थी ने इसे 'तिक्त कथा’ या 'निरर्थकता की अनुभूति की कहानी’ कहा था और विजयमोहन ने यहां से 'सेंस ऑफ एब्सर्डनेस’ का जन्म देखा। 'भावबोध’ बदल गया था, 'संवेदना’ भी भिन्न थी। ''संवेदना में परिवर्तन का सबसे पहला और गहरा प्रभाव संबंधों पर ही होता है। सारे संबंध नए सिरे से सवाल बन गये थे। माँ, पिता भाई, मित्र, पत्नी सारे संबंध नए सिर से सवाल बनकर नए अर्थों में परिभाषित होने लगे थे।’’ ('बीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य’, 2019, पृष्ठ 183)

इन कहानीकारों की कथा-प्रविधि उपार्जित कम थी। विजय चौहान की कुछ कहानियों की कथा-प्रविधि को उन्होंने 'उपार्जित’ न मानकर उनकी 'उबाल’ कहानी में 'पंजे खरोंचती हुई बिल्ली’ से हेमिंग्वे की 1925 में प्रकाशित 'कैट इन द रेन’ को याद करते हुए यह लिखा कि ''हेमिंग्वे वाली यह प्रतीकात्मक चुस्ती पश्चिम और पूरब दोनों जगह नाकाफी पड़ चुकी है’’ (आज की कहानी, पृ. 97) सब साठोत्तरी कहानीकार एक सामान नहीं थे। कुछ 'विश्लेषण परक’ कहानियाँ लिख रहे थे तो कुछ 'व्यवहारी शिल्प’ की दिशा में जा रहे थे। पश्चिम का साहित्य विजय मोहन ने इतना अधिक पढ़ रखा था कि किसी कहानीकार और उसकी कहानी पर लिखते समय उसकी याद उनके लिए मामूली बात थी। कथा-साहित्य के क्षेत्र में हुए सभी परिवर्तनों और प्रयोगों से वे सुपरिचित थे। उनका व्यापक अध्ययन-संसार था। महेन्द्र भल्ला में उन्होंने 'व्यवहारवादी शिल्प का सबसे चुस्त तथा गहरी समझदारी से भरा हुआ इस्तेमाल’ देखा, पर यह भी लिखा कि अमेरिका में सॉल वेलो (10.6.1915-5.4.2005) ने 'व्यवहारवाद के प्रतिनिधित्व’ को तोड़ा। महेन्द्र भल्ला की संवेदना को 'नैतिक’ माना, पर स्त्री-संबंधी उनकी धारणा उनके अनुसार 'सम्मान जनक’ नहीं थी। उनकी कहानियाँ उन्हें 'गम्भीरता के विरुद्ध एक जेहाद’ की तरह लगी थीं, जो 'नैतिकता और यौन नैतिकता के बीच छटपटाती’ थीं। उनका बल 'रचनात्मकता’ पर था और वे 'अलगाव’ या 'यौन अनुभूतियों’ को 'रचनात्मकता की शर्त’ नहीं मानते थे। अपनी कथालोचना में वे केवल पश्चिम के कथाकारों और उनकी कहानियों की ही नहीं कई फ़िल्मों को भी याद करते हैं। कथा-साहित्य के अलावा फ़िल्म और संगीत उनका प्रिय विषय था। 'मृत्यु के साथ जुड़े यौन-प्रसंग के मनोविज्ञान’ के साथ वे गांधी के 'सत्य के साथ प्रयोग’ की भी याद करते हैं और भल्ला की 'पुल की परछाईं’ के साथ उन्होंने राबर्ट मुलिगन (23.8.1925-2012-2008) की 'समर ऑफ फोर्टी टू’ फिल्म (1971) को याद किया।

दूधनाथ सिंह की आरंभिक कहानियों में उन्होंने 'शिल्प की दो पद्धतियां’ देखीं - बीच की पीढ़ी से विरासत में प्राप्त और 'फैंटेसी-प्रतीक वाली पद्धति’। कहानियों पर विचार में उनकी दृष्टि बहु आयामी थी। कालिया के पहले कहानी-संग्रह 'नौ साल छोटी पत्नी’ में उन्होंने 'सतहीपन ऊब की निष्क्रिय दृष्टि’ देखी, 'एक रसता’ को उनकी कहानियों का स्थायी भाव माना। उनके 'सतहीपन’ और 'बोरडम’ को उनके 'यथार्थ से कट जाने’ में देखा। 1969 में ही उन्होंने सबसे पहले कालिया में 'चुक जाने की आशंकाएं’ देखीं। नौ वर्ष बाद 1978 में उनकी कहानियों को उन्होंने ''बेकार से 'कैरियरिस्ट’ होने तक का अहसास’ माना और उनकी भाषा के 'खास अंदाज और मिजाज’ में 'पंजाबी तथा उर्दू कथा-साहित्य का संदर्भ’ देखा। कालिया में 'दिनचर्या को कहानी बनाने की अद्भुत क्षमता’ को वे 'साठोत्तरी कहानी की एक बड़ी कमजोरी के रूप में’ देख रहे थे। साठोत्तरी कहानीकारों के आरंभिक लेखन से उनकी विकास-यात्रा पर उनका ध्यान था। ज्ञानरंजन को वे 'यात्रा’ से 'बहिर्गमन’ तक पहुंचते देखते हैं और कालिया को 'बेकार’ से 'कैरियरिस्ट’ होने की परिणति तक।’’ (वही, पृष्ठ 124)। काशीनाथ सिंह के पहले कहानी-संग्रह 'लोग बिस्तरों’ पर की समीक्षा में वे उन्हें 'विडम्बनात्मक अतिनाटकीयता (मेलोड्रामा) का और 'शिल्प-सतर्क’ कहानीकार कहते हैं। कई स्थलों पर उन्होंने 'फैंटेसी’ पर भी विचार किया और यह माना कि 'घनीभूत एकतानता’ होती है, न कि 'अविश्वनीय अतिरंजना’ 'विज़न के इकहरे धरातल’ पर चलने के बाद ही फैंटेसी ''यथार्थ के नये-नये कोण भी उद्घाटित करती चलती है।’’ (वही, 131-32)। ग्यारह वर्ष बाद (1980) उन्होंने काशीनाथ सिंह को अपना 'बेहद प्रिय कथाकार’ कहा - ''हिन्दी में प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, निर्मल वर्मा, अमरकान्त के बाद या साथ।’’ (वही, 133) बाद में अमरकान्त से अधिक प्रिय कथाकार रेणु रहे। काशीनाथ सिंह कहानी 'लिख’ भी रहे थे और 'गढ़’ भी रहे थे। वे कहानियाँ कहीं से 'क्लैसिक’ नहीं हैं, पर उनकी कहानियों में 'कहानी की वर्णमाला’ लेख (1980) में उन्होंने ''चे$खव, गोर्की, टॉलस्टॉय का 'क्लैसिकल अन्दाज’ भी देखा। अपनी धारणाओं पर वे विस्तार में नहीं जाते। वे यह मानते थे कि काशीनाथ सिंह ने ''अपने समकालीनों में से किसी से भी ज्यादा’’ कहानी के फॉर्म में सबसे अधिक प्रयोग किये हैं।

साठोत्तरी कहानीकारों में 'स्थितियों के व्यंग्य की पहचान’ सबसे अधिक ज्ञानरंजन में थी। ज्ञानरंजन की कहानियों ने बारह-तेरह वर्ष में जो 'छलाँग’ लगाई, वह उनके किसी भी समकालीन कथाकार के यहाँ नहीं है। उनकी आरंभिक कहानियों में विजय मोहन 'एक बेहद टेंडर किस्म का अपने मौलिक रूप में पोयटिक सेंस’ देखते हैं, जो बाद की कहानियों में 'जिन्दगी के बुनियादी सवालों’ तक पहुंचता है। वे उनकी कहानियों के 'दो दौर’ देखते हैं। पहला दौर 'संबंध’ कहानी वाला दौर है, जहाँ वे 'अस्तित्ववादी कहानीकार के रूप में दिखाई देते हैं और दूसरा 'घंटा’ और 'बहिर्गमन’ के पहले ज्ञानरंजन ने 'अमरूद का पेड़’ कहानी में 'एक समाजशास्त्रीय बोध के स्पर्श’ की बात कही थी, जिसका उल्लेख 1978 के लेख 'आलोचनात्मकता से आक्रामकता की ओर’ में है। 'घंटा’ कहानी पर काफी लिखा गया है। ऐसा लगता है दशकों पहले ज्ञानरंजन ने केवल अपने समय की पहचान ही नहीं की, आगामी समय को भी सामने रख दिया। विजयमोहन ने 'घंटा’ (1968) कहानी में 'ज्ञानरंजन का अपने पूर्ववर्ती और समकालीनों से 'डिपार्चर’ देखा, जो हमें किसी अन्य साठोत्तरी कहानीकार में दिखाई नहीं देता। साठोत्तरी कहानीकारों में ज्ञानरंजन में सर्वाधिक 'दूरदर्शिता’ है। 2019 की एक बातचीत में उन्होंने कहा है- ''जब कहानी लिखी गई तो एक ही घंटा था, अब जो दुनिया है, वह घंट निनाद से भर गयी है। भारतीय सत्ता ने अपनी अपसंस्कृति से घंटों-ही घंटों को पैदा किया।’’ अब ज्ञानरंजन ने उस दौर को याद करते हुए कहा है ''साहित्य और मार्क्स के विचारों ने हमें बरबाद होने से बचाया। मार्क्स को हमने किताबों से अधिक जीवन की पाठशाला में पढ़ा।’’ (ज्ञानरंजन ने राजेन्द्र दानी की बातचीत, आजकल, नवम्बर 2019) ज्ञानरंजन की कहानी 'घंटा’ और 'बहिर्गमन’ पर विस्तारपूर्वक विचार से क्या यह स्पष्ट नहीं होता कि विजयमोहन सिंह एक आलोचक के रूप में किधर खड़े हैं।

साठोत्तरी कहानी अल्पजीवी रही। बाद में विजयमोहन ने 'बीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य’ 'आधुनिक गद्य साहित्य का विकास और विश्लेषण’ 'नयी कहानी, साठोत्तरी कहानी और आज की कहानी’ (नया ज्ञानोदय अप्रैल 2011) और 'नवलेखन की चुनौतियाँ’ (नया ज्ञानोदय, मार्च 2008) में भी साठोत्तरी कहानी की चर्चा की और इक्कीसवीं सदी में उन्होंने यह माना कि इन कहानीकारों में 'किसी निश्चित और गहन जीवन दृष्टि तथा अन्तर्दृष्टि का अभाव था’ उनमें 'गहरे तक आत्मान्वेषण करने वाली अन्तर्दृष्टि नहीं थी, उनमें 'प्रमाद’ और 'आलस्य’ था, जिससे ''प्राय: एक दशक में ही साठोत्तरी कहानी अभियान का अंत हो गया। (आधुनिक हिन्दी गद्य साहित्य का विकास और विश्लेषण, पृष्ठ 543) वे ज्ञानरंजन और काशीनाथ सिंह की बाद की कहानियों में जिस 'सामाजिक चेतना’ की बात करते हैं, उसके संबंध में यह नहीं बताते कि यह परिवर्तन 1967 के बाद घटित होता है। वे 1970 से 85 तक के दौर को केवल कहानी में ही नहीं, 'पूरे रचना परिदृश्य का ठिठका दौर’ कहते हैं... 'न श्रेष्ठ कहानियाँ लिखी जा रही थीं, न उपन्यास और कविताएँ’ (वही, पृ. 544-45)। नामवर सिंह और विजयमोहन दोनों कहानियों को 'कला-माध्यम’ के रूप में देखते हैं। क्या सचमुच इस डेढ़ दशक में कहानी किसी 'बॉटलनेक’ से गुजर रही थी? 'बॉटलनेक’ की बात नामवर सिंह से अपनी बातचीत में उन्होंने कही थी। (सारिका, अप्रैल 1984) नामवर का ध्यान साहित्यिक आन्दोलन पर रहा था, विजयमोहन सिंह का नहीं। सामाजिक और जनान्दोलनों से भी इन दोनों आलोचकों  को लगभग परहेज था। गाहे-बगाहे भले उसकी चर्चा की गयी हो। 1970 से 1985 तक का दौर भारतीय समाज में सामान्य दौर नहीं था। नक्सलबाड़ी आन्दोलन ने पहली बार व्यवस्था के विरोध में सशक्त आवाज खड़ी की थी। उस समय से आज तक सबने सत्ता-परिवर्तन की बात की, व्यवस्था-परिवर्तन की नहीं। उस आन्दोलन ने कई भाषाओं के साहित्य में गुणात्मक रूप से परिवर्तन ला दिया था। बाद का जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन, आपातकाल और कम समय में ही जनता पार्टी का विघटन, दिल्ली में सिख नरसंहार और अस्सी के दशक के आरंभिक वर्षों में डंकल, विश्व बैंक और अमुको (अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष) की धमक। समान्तर कहानी आन्दोलन को किनारे किया जा सकता है पर 15 वर्ष (1970-85) के उस भारतीय घटना-चक्र को नहीं, जिन पर कई कहानीकारों का ध्यान था। वैसे कहानीकारों को या तो नक्सल कहानीकार कहा गया या उग्र वामपंथी कथाकार। विजयमोहन सिंह की निगाह सदैव समय और समाज पर रही है, पर यह कालखण्ड उनकी निगाह से ओझल रहा। उन्होंने चर्चा तक नहीं की। इस पर विस्तार से विचार की जरूरत है, जो चाहकर भी इस समय यहाँ संभव नहीं है। उनका ध्यान कहानीकार की 'सामाजिक चेतना’ के साथ उनकी 'अन्तर्दृष्टि’ पर भी था वे उनकी दृष्टि में 'साहित्येत्तर कारण’ थे। उल्लेखनीय है कि उन्होंने भुवनेश्वर की 'भेडिय़े’ कहानी की चर्चा और प्रशंसा दोनों की थी, पर स्वतंत्र रूप से उस कहानी पर नहीं लिखा। उनका ध्यान जितना कहानी विशेष पर रहा, उतना समय पर नहीं। वे 1970 से 85 के दौर की कहानियों पर एक प्रकार से खामोश हैं।

यह विचारणीय है कि 'साठोत्तरी कहानी’ के बाद हिन्दी कहानी में कोई अगला 'प्रस्थान-बिन्दु’ था या नहीं? महेश दर्पण को यह 'प्रस्थान-बिन्दु’ अपने ढंग से नज़र आया था। ''महेश दर्पण को यह 'प्रस्थान बिन्दु’ स्पष्ट नजर आता है और उन्होंने यह प्रस्थान-बिन्दु उपस्थित करने वाले कहानीकारों की एक मनचाही सूची भी बना डाली है’’ (बीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य, पृ. 186) वे साठोत्तरी कहानी के बाद 'भावबोध, भाषा, कथाप्रविधि तथा विषय अथवा वस्तु’ की कुछ ऐसी विशेषताओं को 'रेखांकित’ करने की बात कह रहे थे ''जैसी विशेषताओं की ओर नामवर सिंह ने 'नई कहानी’ के संदर्भ में और देवीशंकर अवस्थी तथा कुछ अन्य समीक्षकों ने साठोत्तरी कहानी के संदर्भ में रेखांकित किया था?’’ (वही, 185) बाद की कहानियों में बड़ा बदलाव 'विषय अथवा वस्तु’ के क्षेत्र में आया था, कुछ अर्थों में 'भावबोध’ और भाषा में भी पर 'कथा प्रविधि’ में कोई बड़ा बदलाव नहीं था। उनका यह स्पष्ट मत था कि बाद की कहानियाँ ''न तो भाषा, न प्रविधि और न भावबोध के स्तर पर कोई प्रभावकारी परिवर्तन का संकेत देती हैं।’’ महेश दर्पण की सूची अतिशय उदार थी। उन्होंने जिन पाँच वरिष्ठ कथाकारों का नामोल्लेख किया, उनमें संजीव और शिवमूर्ति नदारद थे। कथा-पत्रिका के रूप में उन्होंने 'हंस’ का उल्लेख किया, पर राजेन्द्र यादव के 'दलित’ और स्त्री-विमर्श की बात नहीं की। किंचित विस्तार से उन्होंने उदय प्रकाश की कहानियों का उल्लेख किया, पर उनके संबंध में कोई 'अंतिम राय’ नहीं दी। उनके कथालेखन के 'उत्तरोत्तर बढ़ते ग्राफ’ पर उनका ध्यान था। उदय प्रकाश को 'प्रतिभाशाली, बहुपठित, सतर्क कथाकार’ का, 'पीली छतरी वाली लड़की’ को 'स्थूल जातिवाद तथा फिल्मी नाटकीयता का शिकार’ माना, 'वारेन हेस्टिंग्स के सांड’ को 'उनकी चरम कहानियों की परिणति’ कहा। उदय प्रकाश की 'भाषा और तकनीक’ परिष्कृत है और उसकी ''परिधि में इतिहास, समाजशास्त्र, नृत्तत्वशास्त्र सभी कुछ बड़े कौशल से समाहित हो जाता है’’ जिसे वे 'विश्व कथा क्षेत्र में इन विशेषताओं को हेमिंग्वे आदि कथालेखकों के बाद’ देखते हैं। (वही, पृ. 187) जिस साठोत्तरी कहानी पर उन्होंने सर्वाधिक विचार किया, उसे पैंतालीस वर्ष बाद अपने एक लेख 'नयी कहानी, साठोत्तरी कहानी और आज की कहानी’ (नया ज्ञानोदय, अप्रैल 2011) में 'अस्तित्ववाद से ग्रस्त’ कहा। इसके बाद के कहानीकारों में से केवल उदय प्रकाश पर विचार किया और शताब्दी के अंतिम दो दशकों में 'विस्तार और विविधता’ देखने के बाद भी उनमें एक 'आन्तरिक थकान’ लक्षित किया। साथ ही 'स्फूर्ति का अभाव’ भी देखा। ''विचारधारा के बावजूद किसी जीवन दृष्टि में वे नितान्त शून्य हैं’ (बीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य, पृ. 187) अखिलेश, संजय खाती, स्वयं प्रकाश की कहानी की चर्चा की। उनकी विशेषताएं बतायीं। उन्होंने कई स्थलों पर बाद के कहानीकारों को 'सन्तुष्टि के सूअरबाड़ों’ ('स्टाई ऑफ कॉन्टेन्टमेंट’) को तोड़कर अपना विकास करने की बात कही है।

1990 के बाद हुए परिवर्तनों पर नामवर और विजय मोहन सिंह दोनों का ध्यान था। 1970 से 1985 के बीच भारत में जो और जैसा परिवर्तन हुआ था, उस ओर इनका ध्यान नहीं गया था। 1990 के बाद की स्थितियाँ भिन्न थीं। साठोत्तरी कहानी के बाद सीधे उनका ध्यान 20 वीं शताब्दी के अंतिम दशक और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के कथा-लेखन पर रहा, जिस पर उन्होंने 'आधुनिक हिन्दी गद्य साहित्य का विकास और विश्लेषण’ (2004) और 'नवलेखन की चुुनौतियाँ’ (नया ज्ञानोदय, मार्च 2008) में थोड़ा-बहुत विचार किया। यहाँ थोड़ा हटकर उनके उन दो लेखों - 'आज के संचार माध्यमों के पहले सिद्धान्तकार : मार्शल मैक्लुहान, नया ज्ञानोदय, दिसम्बर 2009 और 'उत्तर पूंजीवाद और सांस्कृतिक उद्योग’ (नया ज्ञानोदय, अप्रैल 2010) का उल्लेख इसलिए आवश्यक है कि संचार-माध्यमों ने सबके जीवन में एक बड़ा परिवर्तन ला दिया है। संचार माध्यम ने एक भिन्न प्रकार का भावबोध निर्मित किया '' जिसके कारण एक नवीन मनुष्य जन्म लेता है। उनके द्वारा विभिन्न संस्कृतियों के आदान-प्रदान के कारण एक नया सामूहिक व्यक्तित्व उभर कर आ गया है, जो पहले के मनुष्य से बिल्कुल भिन्न है।’’ ('नया ज्ञानोदय, दिसम्बर, 2009) मैक्लुहान (21.7.1911-31.12.1980) को पहली पुस्तक 'द मैकेनिकल ब्राइड : फोकलोर ऑफ इंडस्ट्रियल मैन’ (1951) थी। वे 'माध्यम ही संदेश है’ और 'ग्लोबल विलेज’ (विश्वग्राम) पद के जनक हैं। उनकी 'अंडरस्टैंडिंग मीडिया’ 1964 में और 'द मीडियम इज द मैसेज : ऐन इन्वेंटरी ऑफ इफेक्ट्स’ 1967 में आई। इलेक्ट्रानिक युग के कथाकारों का भावबोध पूर्व कलाकारों के भावबोध से एकदम पृथक है। साहित्य भी मैक्लुहान के लिए 'संदेश का ही एक माध्यम’ है। आज के कथाकार काफी सूचना-समृद्ध हैं और ''सूचनाओं  द्वारा प्राप्त तथ्य वास्तविक सच को सम्प्रेषित नहीं करता, बल्कि एक स्तर पर वह सच को ओझल कर देता है।’’ (वही) माध्यम दो प्रकार के हैं, जिन्हें मैक्लुहान 'हाई’ तथा 'लो’ अथवा 'हॉट या कूल माध्यम’ भी कहते हैं। वे 'हाई या हाट’ सूचना तंत्रों को 'आवश्यक बुराई’ कहते हैं औैर 'लो’ या 'कूल’ माध्यमों से व्यक्त विचारों में 'लोगों की अधिक भागीदारी’ देखते हैं। 'यथार्थ’ का 'परिवेश’ से संबंध है। मीडिया ''एक ऐसा परिवेेश रचती है जो यद्यपि हमें यातना या पीड़ा प्रदान करता है पर वह हमारी चेतना तथा स्नायु तंत्र को इतना अवसन्न कर देती है कि हम उसकी पीड़ा का अनुभव नहीं कर पाते बल्कि एक तात्कालिक सुख और आनन्द का अनुभव करते हैं।’’ (वही) 'आधुनिक टेक्नोलॉजी पर आधारित मीडिया’ को विजयमोहन ने 'एक तरह की आत्महन्ता प्रक्रिया’ कहा है। उन्होंने 'मेकैनिकल टेक्नोलॉजी’ और 'इलेक्ट्रानिक टेक्नोलॉजी’ में अन्तर करते हुए 'टेक्नोलॉजी के आंतकवाद’ की भी बात कही है। विजयमोहन अपने लेख 'उत्तर पूंजीवाद और सांस्कृतिक उद्योग’ में 'नये बाजार द्वारा निर्मित समाज’ की बात करते हैं, जिसमें कहानीकार भी है और उसका पाठक-आलोचक भी। ''आज हम इसी सांस्कृतिक उद्योग बाज़ार की लपटों में घिरे बैठे हैं।’’ इक्कीसवीं सदी पर उनका पूरा ध्यान है। 'उत्तर पूंजीवाद’ और 'उत्तर आधुनिकवाद’ 'एक ही सिक्के के दो पहलू’ हैं। नये बाज़ार ने साहित्य के स्वरूप को भी बदल दिया है। 'सांस्कृतिक उद्योग’ पद का प्रयोग थ्योडोर अर्डोनो (1903-1969) और हौरखाइमर (1895-1973) में 'डायलेक्टिक ऑफ इनलाइटमेंट’ (1947, अंग्रेजी में 1972 में) में किया। इस पुस्तक का एक अध्याय 'सांस्कृतिक उद्योग’ पर है 'उत्तर पूंजीवाद’ की बात पीटर डूकर (19.11.1909-11.11.2005) ने अपनी पुस्तक 'पोस्ट कैपिटलिस्ट सोसायटी’ (1993) में की। विजयमोहन ने ''रचना की पृष्ठभूमि में रचनाकार के मानस में निहित इतिहास और समाज के घनीभूत दबाव से बनने वाली 'परिप्रेक्ष्य और संवेदना’ की बात कही है’’ जो किसी रचना को उसके घोषित उद्देश्य से अलग कभी संकुचित और कभी व्यापक रूप देता है।

ऐसे समय में कहानी-लेखन और कथालोचना कितनी बड़ी जीवन-दृष्टि और समझदारी की मांग करती है, यह हमें समझना चाहिए। आज हिन्दी में यह हाल है कि एक पत्रिका का सम्पादक पचास के लगभग लोगों से किसी कहानी पर 'आलोचना’ लिखाकर सबको 'आलोचक’ बना रहा है। विजयमोहन की चिंताएँ गहरी और अपने समय से जुड़ी हुई हैं। वे चिंतित हैं कि ''आज हम इसी सांस्कृतिक उद्योग बाजार की लपटों में घिरे बैठे हैं... जहाँ नैतिकता-अनैतिकता, वास्तविकता और मिथ्या, सुरुचि और कुरुचि, सौन्दर्य तथा कुरूपता या विरूपता और सच-झूठ के अंतर को ही समाप्त कर दिया। श्लील-अश्लील का कोई अर्थ नहीं रह गया’’ (नया ज्ञानोदय, अप्रैल 2010) इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के कहानीकारों की पीढ़ी '60 और 70 के बाद उत्पन्न हुई पीढ़ी’ है। इन युवा कथाकारों द्वारा भाषा, अन्तर्वस्तु तथा भाव बोध में किये गये परिवर्तनों पर उन्होंने दृष्टि डाली। 'आधुनिक हिन्दी गद्य साहित्य का विकास और विश्लेषण’ में उन्होंने पहले के उन कहानीकारों का उल्लेख किया, जिनका पहले नहीं किया था। वे संजीव को 'हिन्दी कहानी में रिसर्च स्टोरी’ लिखने का श्रेय देते हैं और चन्द्रप्रकाश जायसवाल, जयनन्दन आदि का उल्लेख करते हैं। अखिलेश को उन्होंने 'कहानी की भाषा और भावबोध पर रचनात्मक स्तर पर महत्वपूर्ण परिवर्तन’ करते देखा। उन्होंने आज की युवा कथापीढ़ी की चिन्ता में 'यंत्र मानव’ की हो रही निर्मिति को देखा है। आज के कई कहानीकारों की कुछ कहानियों का विश्लेषण कर उनकी 'जटिल रचनात्मकता’ पर ध्यान भी उन्होंने दिया। वे संजय खाती और अखिलेश के यहाँ उदय प्रकाश की तरह कथा-संरचना में 'विशेष तोड़-फोड़’ नहीं देखते। प्रभात रंजन, रवि बुले और कुणाल सिंह की कहानियों पर उन्होंने विस्तार से विचार किया है। चंदन पाण्डेय के यहाँ 'कथ्य’ और 'कथा-भाषा’ में वे एक 'अभिनव प्रयोग’ देखते हैं, जिसने 'दिलचस्प कथा-भाषा’ विकसित की है। नवोदित महिला कथाकारों में नीलाक्षी सिंह पर उनका ध्यान गया था और तेरह-चौदह नये कहानीकारों का उन्होंने नामोल्लेख किया है। वे आज की कहानी को एक साथ 'शहराती’ और 'नागरी’ होने के बाद भी 'सुदूर आंचलिक जीवन में पसरे देखते हैं। लम्बी कहानियों के चलन को वे 'रुमाली रोटी की तरह बेले जाने’ की तरह देखते हैं। ''कहानी आज बाकायदे साहित्य की अन्य विधाओं की तरह 'प्रोडक्ट’ हो गयी है। उसे 'विज्ञापन’ और 'बाजार’ चाहिए। वे युवा कथा-पीढ़ी को 'समाज निरपेक्ष तथा सामाजिक परिवर्तनों के प्रति विमुख’ न मानकर भी उसे 'किसी भयावह सच को कहानी’ न बना पाते हुए देखते हैं।

'नवलेखन की चुुनौतियाँ’ लेख (आजकल, मार्च 2008) में उन्होंने आज की कहानियों को 'समय की सांसत’ की 'कहानियां’ कहा है। वे अधिकांश कहानियों को 'आज की राजनीति से बेतरह आक्रांत’ देखते हैं। ''राजनीति उन्हें हर तरफ से और हर जगह दबोचे हुए है।’’ कई प्रकार से पहले की कहानियों से आज की कहानी का उन्होंने अंतर दिखाया है। ''साठोत्तरी पीढ़ी की कहानियाँ यदि नेहरू युग से मोहभंग की कहानियाँ थीं तो ये कहानियाँ 'किताबी विचारधाराओं से 'मोहभंग’ की कहानियाँ हैं...।’’ यहाँ ''सारे संबंध महज सीढिय़ाँ हैं-- साँप सीढिय़ाँ’’। आज के अनेक कहानीकार छोटे-छोटे शहरों से आने वाले कहानीकार हैं, जिन्होंने 'रुटेड स्थलों’ को केन्द्र बनाकर कहानियां लिखी हैं। नीलाक्षी सिंह, चंदन पांडेय आदि ने अपना लोकेल चुनकर कहानियाँ लिखी हैं। ''ऐसी कहानियों के सामने भी चुनौती यह है कि शीघ्र ही इतनी संभावनाएं नि:शेष हो जाएंगी और उनमें पुनरावृत्ति दोष आ जाने का खतरा उत्पन्न हो जायेगा।’’ इस समय जब सब ओर दलित, स्त्री और आदिवासी कथा-लेखन की चर्चा है, हमें यह जानना चाहिए कि इनके संंबंध में इस आलोचक के क्या विचार हैं? वे स्वीकारते हैं ''मैंने दलित साहित्य कहे जाने वाले साहित्य को बहुत पढ़ा नहीं है और न दलित विमर्श में कभी शामिल हुआ हूँ।’’ ('दलित विमर्श और दलित साहित्य’, नया ज्ञानोदय, मार्च 2012)। वे 'दलित’ शब्द-प्रयोग में 'अपमान की ध्वनि’ देखते हैं। धर्मवीर के 'विकृत और बीमार दिमाग’ का उन्होंने उल्लेख किया है। अपने इस लेख में उन्होंने आनन्द यादव के 'जूझ’ उपन्यास की विशेषता बताई। उनका मत है कि ''आज के दलित साहित्य में आक्रोश तो है किन्तु प्रतिहिंसा और प्रतिशोध नहीं है... दलित समाज को आज तक अपना मार्क्स नहीं मिला है’’। वे दलित साहित्य से अधिक दलित प्रश्न पर विचार करते हैं और दलित साहित्यकारों और विचारकों को यह विचार करने को कहते हैं कि ''वहां भी एक नया शासक तथा शोषित वर्ग बनने लगा है जिसका व्यवहार और आचरण सवर्ण शासक वर्ग से भिन्न नहीं है?’’ हिन्दी कथा-साहित्य को दलित और आदिवासी साहित्यकारों ने एक नया आयाम और दिशा दी है। आदिवासी लेखन को 'हिन्दी कथा-साहित्य में एक नयी शुरुआत’ मानकर विजयमोहन ने प्रशंसा की है और उस पर 'विस्तार से विचार करने की आवश्यकता’ बताई। वहाँ ''रचनात्मक कथा-सृजन की दृष्टि से भी अगठित खदानें अभी 'उत्खनन’ की प्रतीक्षा कर रही हैं।’’

विजयमोहन सिंह की कथालोचना का कोई निश्चित मानक नहीं है। कहानी के विवेचन में उन्होंने जितनी भी खूबियाँ बताई हैं, उन सबका उल्लेख यथासंभव इस सुदीर्घ आलेख में किया गया है। वे हिन्दी के विशिष्ट कथालोचक हैं। उनसे आज के कथालोचक बहुत कुछ सीख सकते हैं। आज कहानी में भी सूचना-बाहुल्य है और हमें ज्ञानरंजन की यह बात याद रखनी चाहिए - ''सूचनाएं सृजन की प्रेरणा नहीं हैं, कभी नहीं रहीं। सूचनाओं से एक ठठरी बनती है, देह नहीं। हमारे समय की सबसे दर्दनाक कहानियाँ सूचनाओं में बदल रही हैं।’’ (इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी 2019)। और अन्त में 'रचनाकार और समीक्षक के रिश्ते’ (नया ज्ञानोदय, सितम्बर 2007) में लिखी गयी विजयमोहन सिंह की ये पंक्तियाँ - ''हिन्दी में ये संबंध ज्यादा खराब तो नहीं, पर कुछ खतरनाक और छिछोरे हो गए हैं। प्रायोजित समीक्षाओं तथा कुछ रचनाओं को एडॉप्ट करके लिखी जा रही समीक्षाओं  को छोड़ भी दें तो लगता है, कुछ रचनाकारों और समीक्षकों के बीच एक तरह की बारगेनिंग-ब्लैकमेलिंग का खेल भी खेला जा रहा है, जिसमें अक्सर प्रकाशकों की भी प्रमुख भूमिका होती है। पुस्तक प्रकाशित होने के पूर्वपक्ष’ को छोड़ भी दें, 'उत्तर पक्ष’ प्रारंभ होते ही तय किया जाने लगता है कि उसका लोकार्पण कौन करेगा, समीक्षा कौन लिखेगा, वह कहाँ छपेगी... और फिर शुरू होता है पुरस्कार पाने और दिलवाने का सिलसिला... 'नारदीय भ्रम’ में रहने वाले रचनाकार मानकर चलते हैं कि हमेशा वरमाला उनके ही गले में पड़ेगी।’’

 

वर्तमान में एक बड़े मार्क्सवादी आलोचक। जन संस्कृति मंच में सक्रिय।

संपर्क- मो. 9431103960, रांची

 


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