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सितम्बर - अक्टूबर : 2020

पंकज सिंह मेरा दोस्त था, दोस्त नहीं था

अजय सिंह

कविता संस्मरण

 

 

वसंत के बादल की गरज

और शरद के बादल के संगीत के बीच

पुल बनाने का सपना लिये

तुम मिले

तुम्हारी चौड़ी हथेलियां चौड़ी मुस्कान चौड़ी आंखें

बेतक्कलुफ दोस्ती के पैगाम से भरी थीं

जिन्हें तुम्हारे ठहाके और ज़ोरदार बना देते

 

वो वक्त ऐसा था

जब दोस्तियां निश्छल और निर्दोष हुआ करती थीं

वे पैदल चलती चली आती थीं

प्यार गहरी अंतवार्सना गहरी अंतर्करूणा

से भरा होता था

हम सब सामूहिक घर हुआ करते थे

जहां कोई भी दोस्त

मामूली-सा परिचित व्यक्ति

रात-बिरात अपने झोला-झक्कड़ के साथ

दाख़िल हो सकता था

किसी कोने-कतरे में

आराम से पसर सकता था

 

ऐसे ही किसी वक़्त

कंधे से झोला लटकाये

तुम दाखिल हुए इलाहाबाद में

 

तब दिलों में जगह ज्यादा हुआ करती थी

 

ईंट पत्थर सीमेंट एसबेस्टस से बने घर

आम तौर पर छोटे तंग हुआ करते थे

उन्हें घर क्या

दड़बा कहना ज़्यादा सही होगा

लेकिन दिलों में जगह ज़्यादा हुआ करती थी

तब किसी के अचानक घर आ टपकने पर

कोई नहीं कहता था

यह कमबख्त कहां से आ मरा

 

उन्हीं दिनों तुम मिले

चूंकि फ़िज़ा ऐसी थी जो सबको साथ लेकर

चलने के लिए उत्साहित कर रही थी

हम साथ हो लिये

तुम मैं हमारे जैसे अन्य लोग

जिनकी मसें अभी भीग रही थीं

कुछ समझते-बूझते कुछ समझने की कोशिश करते

देस-दुनिया में जवानी की हवा छायी हुई थी

 

तुम अपना गीत

'फिर सताने आ गये हैं शरद के बादल’

लय में सुनाते

और नीलाभ उसकी पैरोडी करता

(नीलाभ भी अलग क़िस्म का ही जीव था)

तुम कभी हंसते  कभी नाराज होते

तब कभी तुम

5 ख़ुसरोबाग़ रोड लूकरगंज इलाहाबाद जाते

(आह, यह घर  जवांदिल उमंगों का अड्डा

गर्क हुआ

जैसे बहुत-सारे घर

बहुत-सारे अड्डे गर्क हुए)

नीलाभ तुम्हें दूर से देखकर चिल्लाता

'आ गया शरद का बादल हमको फिर सताने’

तुम गुस्से में वापस लौटने के लिए मुड़ते

नीलाभ पीछे-पीछे दौड़ता आता

तुम्हें अंकवार में कस कर भींच लेता

और कहता

'नाराज नहीं होते बेटा पंकज मुज़फ्फरपुरी

घर चलो बढिय़ा चाय पिलाता हूं

फिर तुम्हारी कविता सुनूंगा’

कभी साथ मैं होता

कभी सुरेंद्रपाल

फिर हम सब पैदल मार्च करते

इंडियन कॉफी हाउस सिविल लाइंस की ओर

वह हमारा सबसे सुहाना अड्डा होता था

 

कई कवि एक साथ पैदा हो रहे थे

तुम नीलाभ निर्मला वर्मा वीरेन डंगवाल नीलम सिंह

गिरधर राठी अगर गोस्वामी नगेंद्र चौरसिया रमेंद्र त्रिपाठी

जयकिशन ढाँडियाल सईद मैं...

कविताएं प्यार बगावत अतृप्त ख्वाहिश रोमानी भावुकता

के रंग-ओ-बू में लिपटी होती थीं

'सूनी घाटी का गीत’ वाला सीनियर पोएट प्रभात-

पहले से हमारे बीच मौजूद था

चूंकि यह सीनियर था-

शमशेर उस पर एक कविता लिख चुके थे-

लिहाजा वह हम सबके कविता चक्षु अक्सर खोला करता

वह एक शादीशुदा औरत से प्यार में व्याकुल था

यह बात हम सबको बहुत रहस्यमय लगती थी

शादीशुदा औरत को प्यार करना क्या बला है!

हम उस औरत की एक झलक पाने को

बेताब रहते थे

जिसने इस सीनियर कवि को दीवाना बना रखा था

बाद में हमारी पीढ़ी का एक कवि

उस औरत के प्यार में रच-बस गया था...

 

तब लड़कियां हमारे सपनों में आतीं

और सुखद गीलापन छोड़कर

फुर्र हो जातीं

 

कवियों के बीच तुमने अपनी पहचान यात्रा शुरू की

तुम्हारी कविताओं ने उड़ान भरी

1967-68 के दौर की बगावत और प्यार

की स्पिरिट के साथ

तुम उड़ चले

नक्सलबाड़ी  पेरिस  वियतनाम

नयी दुनिया का ख्वाब रच रहे थे

आहटें आसपास थीं

जिन्हें तुम सुन रहे थे  बुन रहे थे

स्वतंत्रचेता कवि के रूप में

तुम्हारी पहचान बननी शुरू हुई...

 

कई बरस बाद

कई बरस बाद

तुम फिर मिले

पुख्ता कवि के रूप में

तुम्हारी पहचान

काफी हद तक बन चली थी

तुम्हें जानने-पहचानने वालों की तादाद बढ़ गयी थी

कई जगहों से तुम्हें बुलावा मिलने लगा था

तुम्हारे चाल-ढाल में

हलका-सा गर्व झलकने लगा था

बस हलका-सा

तुम दोस्तों के खैरख्वाह पहले भी थे

अब भी थे    लेकिन...

 

लेकिन...

आहटें जो आसपास थीं किसी वक़्त

अब दूर जा चुकी थीं

वसंत के बादल की गरज नामालूम-सी थी

उससे अब तुम्हारा रिश्ता

प्रतीकात्मक ज़्यादा था

शरद के बादल का संगीत गुम होती उदास धुन थी अब

हालांकि ठसक  धमक  कसक बची हुई थी

इसी चीज़ ने तुम्हें बचाया

 

अतीत और वर्तमान के बीच

तुम भग्न दूत की तरह खड़े थे

तुम   मैं   हमारे जैसे असंख्य लोग

जिन्हें गहरी उम्मीद थी

कि जन मिलीशिया मार्च करेगी

मुक्त होगी हमारी प्यारी मातृभूमि

हमने मुक्ति का वर्ष भी तय कर रखा था

वस्तुगत यथार्थ से कटी

आत्मगत धारणा से उफनती

इस उम्मीद को ध्वस्त होना ही था...

फिर रास्ते अलग होते चले गये

 

तुमने अपनी जिंदगी की नोटबुक के पहले पन्ने से

मेरा नाम काट दिया था

कुछ और पुराने दोस्तों के भी नाम

काट गिये गये थे

अब उनकी दरकार तुम्हें नहीं रह गयी थी

अब तुम्हारे नये दोस्त बन रहे थे

अजब-गजब क़िस्म के लोग

स्वतंत्र विचरणवादी

जो ताल ठोक कर कहते

मैं कहीं भी रहूं  चाहे प्रधानमंत्री निवास में

या लेिफ्टनेंट गवर्नर के महल में या अकबर रोड के बंगले में

दिल तो मेरा वामपंथ के साथ हइए है...

यह खास तरह का कॉकटेली वामपंथ था

इसमें घुसने के बाद बाहर निकलना

लगभग असंभव

संगठन और संगठित कार्रवाई का प्रबल निषेध

इसकी खास पहचान

 

तुम्हारी दुनिया अलग तरह की

हो चली थी

जहां मेरा प्रवेश वर्जित था

तुम्हारी दुनिया और मेरी दुनिया के बीच

संपर्क सूत्र नदारद था

यह antagonism भला आया कहां से

कौन था इसका सूत्रधार

मैं तुम पर फैसला नहीं सुना रहा पंकज

कवि को वकील या जज बनने से बचना चाहिये

नहीं तो उसकी कविता का विनाश सुनिश्चित है

मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं

दोस्तियां जो निश्छल और निर्दोष हुआ करती थीं

उन्हें हम क्यों नहीं बचा पाये

बीसवीं शताब्दी के आख़िरी चालीस सालों में

शुरू हुई दोस्ती

इक्कीसवीं शताब्दी में भी तो जारी रह सकती थी

मेरी बच्ची की पैदाइश के ठीक एक दिन पहले

मुझसे मिलने

जिस तरह तुम पद्याशा झा के साथ

मेरे घर दयानंद कालोनी लाजपतनगर-4

की बरसाती में अचानक आये

उसी तरह आगे भी मिलना-जुलना

क्यों नहीं जारी रखा जा सका

हालत यह हो गयी है

तुम किसी के साथ सालों साल गहन अंतरंग रिश्ते में रहो

और एक दिन सहसा घोषणा होती है

उसने तुम्हें अपनी जिंदगी से निकाल बाहर फेंका

ऐसा क्यों

तुम्हारे दूसरे कविता संग्रह की समीक्षा

मैं न लिखूं

इसके लिए तुमने एक पत्रिका के संपादक

पर दबाव बनाया

ऐसी क्या बात थी पंकज

किस बात का डर था तुम्हें

क्या तुम्हें मुझसे असुरक्षा महसूस होती थी

 

जब तुम मरे दिल्ली में

मैं लखनऊ में था

तुम्हें आखिरी सलाम पेश न कर सका

इसका अफसोस बना रहेगा

थे तो हम दोनों दोस्त

पुरानी नष्ट हो चुकी दुनिया के सहयात्री

बेशक अच्छे-खासे फासले के साथ

 

 

पंकज सिंह सातवें आठवें दशक के यादगार कवि, कम्यूनिस्ट, पत्रकार और आवारागर्द जिनकी दोस्तियां आज भी जीवित हैं।

अजय सिंह 'पहल’ में पूर्व प्रकाशित। लखनऊ में रहते हैं।

संपर्क- मो. 7827763050, 9335778486

 


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