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जून - जुलाई : 2020

भ्रम के बाहर

प्रदीप जिलवाने

कहानी

 

 

मुझे लगता है, वह मुझसे साल-दो साल बड़ी ही होगी! यानी तब सत्रह या साढ़े सत्रह की होगी! जब वह मुझे पहली दफा मिली थी। जबकि उस समय तक मेरी मूँछ के बाल ही फूटना शुरू हुए थे! उन्हीं दिनों जलपरी ने एक वायदा किया था और एक लम्बा किस दिया था! गालों पे नहीं, डायरेक्ट होंठों पे!!

जलपरी का हाथ जब भी मेरे हाथों में रहता, मैं अक्सर सोचता, इससे कोमल संसार में और कुछ हो ही नहीं सकता! मैंने बहुतेरे फूलों की पत्तियों को छूकर देखा और मुझे निराशा हुई! मुझे जलपरी की सी कोमलता कहीं नहीं मिली! मैं उसकी हथेली को थामे सदियों तक उसी नदी के किनारे बैठा रह सकता था और बैठा रह सकता हूँ! ऐसा मुझे तब भी लगता था और अब भी लगता है। फिर मैं यह भी सोचता कि जब जलपरी की हथेली इतनी कोमल है, तो दिल कितना कोमल होगा! दिल ही क्यूं, मैं तो यह भी सोचता कि शेष देह कितनी कोमल और गुदाज होगा! और जब जब सोचता मेरे भीतर कुछ तरल-सा रिसने लगता! ऐसी रिसन जो मुझे मीठी-मीठी गुदगुदी से भर देती! मैं भीतर ही भीतर भरता! मैं भीतर ही भीतर खाली होता! यह मेरे उन छोटे-छोटे खयालों से भरने और खाली होने के दिनों की शुरुआत थी।

- ''कल तुम जल्दी क्यों चले गए थे?’’ जलपरी ने एकटक मेरी आँखों में झाँकते हुए पूछा।

- ''मेरे हॉफ इयरली एक्जाम्स चल रहे हैं ना! घर से बाहर ज्यादा देर रहता हूँ, तो मम्मी-पापा आजकल बहुत डाँटने लगे हैं।’’ मैंने नदी के पानी को देखते हुए कहा और यह महसूस भी किया कि नदी की थाह जलपरी की आँखों से ज्यादा गहरी नहीं है। फिर मैंने अपने भीतर के साहस को टटोला और जलपरी की उन्हीं अथाह गहरी आँखों की तरफ देखते हुए आगे बोला, - ''लेकिन क्या करूँ, मुझे तुमसे बातें करना अच्छा लगता है! क्या तुम्हें भी अच्छा लगता है?’’

- ''ओ हो!! तो ये बात है!’’ जलपरी ने अदा दिखाते हुए कहा। फिर बोली, - ''जाओ जाओ! पहले एक्जाम पर ध्यान दो! फिर ये सब बकवास होती रहेगी!’’

- ''नहीं! पहले मुझे बताओ, क्या तुम्हें भी अच्छा लगता है?’’ मैंने जिद की।

- ''पहले एक्जाम! फिर बताऊँगी!’’ जलपरी उसी तरह अदा दिखाते और मुस्कुराते  हुए बोली। फिर अचानक जैसे रूठते हुए बोली, -''तुमने पहले क्यों नहीं बताया कि तुम्हारी परीक्षाएँ चल रही है, बेकार ही में कल भी कितनी देर तक हम बैठे रहे यहाँ!’’

मैं कहना तो चाहता था कि, ''तुम जब सामने होती हो तो मैं सब भूल जाता हूँ!’’ मगर मुझसे कहा नहीं गया और जो कहा, वह महज एक अनुभवहीन प्रेमी की दलील थी, - ''ऐसी कोई खास बात नहीं है जलपरी! हॉफ इयरली एक्जाम्स हैं!’’

- ''एक्जाम्स जो एक्जाम्स होते हैं! तुम सीरियसली क्यों नहीं लेते? जाओ अभी के अभी जाओ! और अब परीक्षा के बाद ही मिलना!’’ जलपरी ने मुझे लगभग धकेलते हुए कहा और फिर उसने मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर घाट से नदी के पानी में छलाँग लगा दी और पानी में जाकर पानी हो गई!

कुछ क्षण मैं उसी घाट पर बैठा सोचता रहा! अनमना-सा! उदास-सा! फिर वापस चला आया।

घर आकर भी जलपरी का खयाल दिमाग से दूर नहीं जा पा रहा था। मन नदी के किनारे उसी घाट पर कहीं छूट गया था। या शायद जलपरी के साथ मन ने भी पानी में छलाँग लगा दी थी। जलपरी से महज दस-बारह दिन पुरानी पहचान या कहें दोस्ती ने मुझे रंगीन सपनों की दुनिया में दाखिल कर दिया था। ऐसे ऐसे रंगीन सपनों की दुनिया जिसमें हर क्षण किसी उत्सव का सा था और जिंदगी जैसे हर उत्सव का हासिल की सी थी।

जलपरी से मिलना, उसके पास बैठना, बातें करना और उसकी बातें सुनना मुझे खूब भाने लगा था और फिर यह मेरी नई निकलती उम्र का असर भी था कि उसकी बातें मुझमें मीठी मीठी गुदगुदी भर रही थी, लेकिन मन ही मन मैं जलपरी को लेकर तमाम तरह के प्रश्नों और उत्कंठाओं से भरा हुआ था। जलपरी की तमाम दलीलों के बावजूद मन में एक किस्म की खींचातानी बनी हुई थी, और इसी खींचातानी के तनाव की डोर दिल से उलझी हुई थी।

खैर जैसा कि मैंने बताया, उस समय तक जलपरी के साथ मेरी पहली मुलाकात को ज्यादा भी दिन नहीं हुए थे। और हुआ यह था कि उस दिन दोपहर बाद मैं अपने दोस्तों के साथ घाट तक गया था तो मछलियों के लिए कच्चे आटे की लोइयाँ भी अपने साथ लाया था। पिछले दो तीन सालों से मैं इस घाट पर मछलियों के लिए रोज सवेरे कच्चे आटे की छोटी छोटी लोइयाँ डालने आता था। और इत्तफ़ाकन उस दिन स्कूल के लिए देर हो जाने के कारण हड़बड़ी में भूल गया था, इसीलिए दोपहर में जब दोस्तों के साथ घाट जाने की बात हुई तो मैं अपने साथ कच्चे आटे की लोइयाँ याद करके ले गया था, क्योंकि मैं जानता था, घाट पर मछलियाँ मेरी राह देख रही होंगी!

दरअसल कुछ साल पहले मेरे घर जब नर्मदा परिक्रमावासी एक साध्वी आई थी, तो उसने मेरी मम्मी से कहा था कि मेरे हाथों से नदी में मछलियों को कच्चे आटे की लोइयाँ कुछ समय तक डलवाएँ, इससे बड़ा फायदा होगा। बड़ा फायदा तो खैर मुझे नहीं पता, लेकिन धीरे-धीरे घाट पर इन मछलियों को आटे की लोइयाँ डालना मुझे बहुत अच्छा लगने लगा। जब कभी मैं घाट पर जाता तो सारी मछलियाँ मेरे आते ही सतह के ऊपर आ जाती और मेरे द्वारा घाट पर डाली गई कच्चे आटे की लोइयों को खाने के लिए जैसे टूट पड़ती! कई दफे तो लगता जैसे एक दूसरे से लड़-भिड़ रही हैं। और कई दफे लगता, जैसे वे मजाक-मस्ती के मूड में हैं। खैर कुछ समय के लिए शुरू किया गया यह काम, समय के साथ मेरी आदत बन चुका था।

बहरहाल उस दिन घाट पर बात बात में हम दोस्तों में शर्त लग गई थी कि नदी में सबसे लम्बा 'मच्छी-गोता’ कौन लगाएगा? यानी नदी के पानी में एक ही गोते में सबसे अधिक लम्बी दूरी कौन पार करेगा?

नदी के भरे पूरे पानी को देखकर हम सभी के मन में एक पल के लिए कुछ संशय भी आया। क्योंकि यहां बात महज पानी में गोता लगाने की ही नहीं थी, दरअसल मौसम ठण्डी का शुरू हो चुका था और ऐसी ठण्डी में पानी में गोता मारना थोड़े साहस की बात थी और पानी की गहराई को देखते हुए जोखिम की भी। वैसे हम सब दोस्त पूरी गर्मियों भर इस नदी में जब जैसा जितना मन करे, हमेशा नहाया करते थे। इसलिए भी नदी में गोता लगाना या गोता लगाने की शर्त हमारे लिए कोई नया काम नहीं था।

बहरहाल उस दिन दोस्तों ने मुझे 'बकरा’ बनाया था! दरअसल शर्त के तहत जब हमने मच्छी-गोता लगाने के लिए कपड़े उतारे तो तय हुआ कि सबसे पहले मच्छी-गोता मुझे मारना है, फिर मेरे दूसरे दोस्त बारी बारी से गोता लगाएँगे। लेकिन जैसे ही मैंने पानी में गोता मारा, मेरे दोस्तों ने झट् अपने अपने कपड़े पहने और मेरे कपड़े उठाकर भाग गए। वो तो मेरी किस्मत अच्छी थी कि मैंने उन्हें भागते और मेेरे कपड़ों को घाट से थोड़ी दूर एक लाल-कनेर के झाड़ पर फेंकते या कहें छुपाते देख लिया था!

मैं पानी से बाहर आया तो घाट पर एक खूबसूरत लड़की बैठी हुई थी। लड़की ने गाजर जैसे लाल रंग का सूट और उस पर गोल्डन लेस का एक पीला दुपट्टा डाल रखा था। इतनी खूबसूरत लड़की मैंने अपने स्कूल में भी नहीं देखी थी और न अपने इस छोटे से कस्बे में कहीं पहले देखी थी। मैंने उसे देखकर हड़बड़ा गया। एक तो मैं महज अण्डरवियर में था, ऊपर से उस समय घाट पर दूर तक कोई भी नज़र नहीं आ रहा था। हड़बड़ाहट में मैंने अपने दोनों हाथों से अपनी गीली अंडरवियर को ढँकने की कोशिश की और फिर कुछ न सूझा तो उसी लाल कनेर के झाड़ की तरफ दौड़ लगा दी। लड़की मेरी हरकत पर खूब खिलखिला कर हँस पड़ी। मैंने पलटकर भी नहीं देखा, लेकिन गोल्डन लेस के पीले दुपट्टे वाली उस खूबसूरत लड़की की हँसी मेरा पीछा कर रही थी।

कपड़े पहनने के बाद मैंने उसी लाल कनेरे की ओट से देखा तो वह लड़की वहीं घाट पर ही बैठी हुई थी। अपने साथ हुए इस 'अंडरवियर’ वाले हादसे के कारण मैं थोड़ा असहज सा महसूस कर रहा था। फिर उस लड़की ने घाट से ही मेरी तरफ देखा। घाट से इस लाल कनेर की दूरी इतनी भी नहीं थी कि मैं उसके इस देखे जाने को न देख पाता! मैंने मन ही मन तय कर लिया कि मैं चुपचाप निकल लूँगा। मगर लाल कनेर के पीछे से निकल कर घाट से ऊपर चढऩे के लिए जैसे ही मुड़ा, पीछे से आवाज आई, जिसने मुझे हैरत में डाल दिया था।

- ''विवेक!’’ आवाज उसी गोल्डन लेस के पीले दुपट्टे वाली खूबसूरत लड़की ने लगाई थी, जिसे सुनकर मैं चौंक पड़ा था। लड़की ने मुझे मेरे नाम से पुकारा था, जबकि मैं उसे जानता तक नहीं था। दस तरह की ऊहापोह से भरा मैं अपनी जगह पर कुछ क्षणों के लिए स्टेच्यू बना खड़ा रहा फिर मैंने अपना मन बदला और उस खूबसूरत लड़की की ओर पलट गया।

जब उसके पास आया तो किसी परिचित की तरह वह मुस्कुराई थी। वह भले ही मेरी परिचित नहीं थी, मगर उसकी मुस्कुराहट मुझे भी परिचित लगी थी।

- ''तुम मुझे जानती हो?’’ मैंने पास आते ही पूछा। और अपने उतावलेपन में उससे आगे भी पूछ लिया, - ''कैसे जानती हो?’’

वह खूबसूरत लड़की फिर मुस्कुरा दी। उसकी मुस्कुराहट कुछ खास थी। ऐसी मुस्कुराहट तो मैंने फिल्मों में भी नहीं देखी थीं! मुझे अपनी फेवरेट एक्ट्रेस श्रीदेवी का खयाल आया। फिर लगा कि इस गोल्डन लेस के पीले दुपट्टे वाली खूबसूरत लड़की की मुस्कुराहट शायद श्रीदेवी से बीस ही है!

- ''हाँ! मैं जानती हूँ!’’ उसने कहा और रहस्यमय ढंग से फिर मुस्कुराई। मुझे संशय में घिरा और अवाक् देखकर फिर आगे बोली - ''तुम तो अक्सर यहाँ आते हो! मैं तुम्हारे इन सारे दोस्तों के नाम भी जानती हूँ!’’

- ''अच्छा! लेकिन मैं तो तुम्हें नहीं जानता! तुम्हें पहले कहीं देखा भी नहीं लगता है!’’ मैंने कुछ सोचते हुए कहा। फिर जैसे मुझे कुछ याद आया तो मैंने पूछा, - ''कहीं तुम बबलु के मामा की लड़की रिंकी तो नहीं हो! वो कल-परसों मेरा दोस्त दीपु बता रहा था कि बबलु की ममेरी बहन आई हुई है! और वो देखने में एकदम झकास! मेरा मतलब सुन्दर है!’’

- ''उ...हूँऽऽऽहूँ!’’ उस खूबसूरत लड़ी ने 'नहीं’ में अपनी मुण्डी हिलाई। इस बीच उसका मुस्कुराना न कम हुआ, न बंद हुआ! जैसे मुस्कुराहट उसके होंठों पर सदा के लिए विराजमान हो!

- 'वही तो मैं सोचूँ! बबलु तो कित्ता डार्क है और उसके सारे घरवाले भी! और तुम तो एकदम फेयर हो, खूबसूरत हो! अपने ही कहे पर मैं हँस दिया, जिसे सुनकर उसकी मुस्कुराहट खिलखिलाहट में तब्दील हो गई।

- ''तो मैं खूबसूरत हूँ?’’ उसने मुझे टटोलते हुए पूछा।

- ''हाँ! एकदम श्रीदेवी जैसी!’’ मेरे मुँह से अचानक निकल गया, जिसे सुनकर वह खुश भी हुई और अचरज में भी पड़ गई! और इधर अपनी हिम्मत पर मैं भी अचरज में था, कि यह सब कह गया था!

- ''ये श्रीदेवी कौन है?’’ उसने सहज जिज्ञासा से पूछा। लेकिन अब चौंकने की बारी मेरी थी! मेरे लिये यह विश्वास कर पाना मुश्किल था कि कोई लड़की श्रीदेवी को नहीं जानती है!

- ''क्या तुम वाकई में श्रीदेवी को नहीं जानती? वो जो फिल्मों में हीरोइन है!’’ मैंने उत्सुकता दिखाते हुए कहा तो उसने इंकार में मुण्डी हिला दी। मुझे अब भी यकीन नहीं हो रहा था कि कोई लड़की ऐसी भी हो सकती है जो श्रीदेवी को नहीं जानती हो! मैंने उसी उत्सुकता में आगे कहा, - ''अरे! अभी कुछ दिनों पहले तो मैंने उसकी 'मिस्टर इंडिया’ देखी थी। तुम भी देखना! कमाल की पिच्चर है।’’

- ''अच्छा! तुम दिखाओगे मुझे?’’ उसके प्रस्ताव पर मैं कुछ क्षण के लिए असहज हो गया। मेरे लिए यह सब कुछ एक नए किस्म का अनुभव था और सब कुछ इतनी हड़बड़ी में और जल्दी-जल्दी हो रहा था कि यकीन करना मुश्किल हो रहा था। उस लड़की ने सीधे सीधे ही मुझे अपने साथ फिल्म देखने का प्रस्ताव दे दिया था। उसके लिए भले यह मामूली बात रही हो, मगर उस वक्त मेरे लिए मेरी धड़कनों की रफ्तार बढ़ाने को काफी थी। मैं पशोपेश में पड़ गया था।

- ''लेकिन मैं तो तुम्हें जानता भी नहीं! पहले बताओ तो सही तुम कौन हो?’’ मुझे जो सूझा वो पूछ लिया।

- ''मैं जलपरी हूँ!’’ उसने कहा तो मुझे पहले क्षणभर को हँसी आई, फिर आवाज से आँखें फटी रह गई। फिर थोड़ा सोचा तो लगा, कहीं अब यह लड़की तो मुझे 'बकरा’ नहीं बना रही है।

लड़की ने शायद मेरे मन की उथल-पुथल को ताड़़ लिया, इसलिए वह आगे बोली, - ''मुझे मालूम है, तुम यकीन नहीं कर रहे होंगे। इसलिए लो मैं तुम्हारी तसल्ली के लिए तुम्हें कुछ बताती हूँ!’’ इतना कहकर वह खूबसूरत लड़की घाट से नदी के किनारे तक गई। क्षण भर को मेरी तरफ फिर एक बार देखा और पानी में छलॉग लगा दी। उसके पानी में छलाँग लगाने के बाद मैं नदी में उसे इधर-उधर खोजने लगा। मेरी आँखें सतत उसे नदी के पानी में ढूँढ रही थीं। इस मौसम में नदी का पानी भी साफ-सुथरा था। नदी में छलाँग लगाने के बाद वह लड़की पानी में कहीं को गई थी। जैसे पानी में जाकर पानी हो गई थी।

मैं नदी के उस कच्चे-पक्के घाट के किनारे जब उसे नदी में दूर तक देखने की कोशिश कर रहा था। अचानक वह घाट के किनारे पानी में से उभरकर सामने आई। उसका कमर से नीचे का आधा शरीर पानी में ही था और शेष आधा शरीर पानी के ऊपर था। उसकी भीगी हुई देह पर पानी की बूँदें कुछ इस तरह से दमक रही थीं जैसे उस हर एक बूँद में पुखराज जैसा कोई नग जड़ा हो या उन प्रत्येक बूँदों के पास अपने अपने छोटे-छोटे सूर्य हों। मैं उसके चमकते-दमकते चेहरे से नज़र ही नहीं हटा पा रहा था। फिर मैंने पानी के भीतर मौजूद उसकी देह के निचले हिस्से पर गौर किया तो देखा कि उसकी देह का निचला हिस्सा किसी मछली की तरह था। बिल्कुल मेरे स्कूल में रखे फिश-पॉट के गोल्डन फिश की तरह।

मैं उस वक्त जितनी अचरज में था, उतना और उससे कहीं अधिक डरा हुआ भी था। मेरे लिए यह सब किसी नई दुनिया की तरह और नए अनुभव की चीजें थीं। कुछ देर के लिए खयाल आया कि शायद मैं किसी स्वप्न में अभी जो रहा होऊँगा और जब यह स्वप्न खत्म होगा तो चीजें फिर अपनी जगह पर सही सलामत होंगी।

- ''भैया! भैया! मम्मी बुला रही है।’’ मेरे छोटे भाई ने मुझे लगभग झिंझोड़ते हुए कहा, तो मैं भौैंचक सा उसे देखता रह गया। मैंने झट पलटकर नदी के किनारे पर देखा, जलपरी कहीं भी नहीं थी। फिर मैंने विनय को देखा, तो वह भी मेरे चेहरे पर आए भावों से कुछ हैरत में लग रहा था। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि कुछ देर पहले जो कुछ भी हुआ वह सब सच था या मैं मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की तर्ज पर किसी खयाली दुनिया में जी रहा था।

उसी शाम को मैं फिर नदी के घाट तक अपने एक दोस्त के साथ आया था और कुछ देर तक नदी के उसी घाट पर टहलते रहा। मगर जलपरी नहीं आई। अगले दिन जब अपने दोस्तों के साथ दोपहर में घाट पर आया, तब भी मैं जलपरी को यहाँ-वहाँ देखता रहा, ढूँढता रहा, मगर वह मुझे कही नजर नहीं आ रही थी। मेरे दोस्त भी संभवत: मेरी इन हरकतों को ताड़ गए थे और वे भी हैरान थे, कि आखिर में इधर-उधर किसकी प्रतीक्षा में रहता हूँ या वह क्या चीज है, जिसे ढूँढ रहा हूँ। दोस्तों के साथ घाट से वापस तो लौट आया, पर मन में कुछ और ही गुनतारा चल रहा था। इसलिए बहाना करके उसके पास से अकेले ही घाट पर फिर से वापस चला आया। और अचरज की तरह मुझे वही गोल्डन लेस के पीले दुपट्टे वाली खूबसूरत लड़की यानी जलपरी घाट पर बैठी मिल गई। उसे देखकर मेरा बुझा हुआ मन फिर खिल उठा।

- ''मैं कब से तुम्हारी राह देख रहा था? तुम कहाँ थी?’’ मैंने अपनी बेताबी को छिपाने की कोशिश न करते हुए शिकायती लहजे में कहा।

- ''मैं तो यहीं थी! मैं भी तुम्हारी ही राह देख देख रही थी।’’ जलपरी ने बिल्कुल सहज होकर बताया। उसके पास मेरे जैसी बेताबी मुझे नज़र नहीं आई। हाँ, मुस्कुराहट उसके पास हमेशा मौजूद होती थी।

- ''यहीं थी, तो मुझे नज़र क्यों नहीं आई?’’

- ''क्योंकि तुम अपने दोस्तों के साथ थे।’’

- ''तो क्या हुआ? मैं अपने दोस्तों से तुम्हें मिलवाता!’’

- ''मैं तुम्हारे दोस्तों से नहीं मिल सकती!’’

- ''क्यों नहीं मिल सकती?’’

- ''क्योंकि वे मुझे देख नहीं सकते!’’ जलपरी ने कहा तो मैं फिर अचरज में आ गया।

- ''वे क्यों नहीं देख सकते?’’

- ''यूँ समझ लो, मुझे कोई श्राप है कि मुझे हर कोई नहीं देख सकता!’’

- ''फिर मैं क्यों तुम्हें देख सकता हूँ?’’

- ''कुछ यूँ समझ लो, कि तुम्हें कोई वरदान है कि तुम मुझे देख सकते हो!’’

- ''जलपरी! सच बताऊँ तो मुझे तुम्हारी बातें कुछ समझ में नहीं आ रही है!’’

- ''धीरे-धीरे समझ भी आ जाएंगी। आज नहीं तो आने वाले समय में समझ आ जाएंगी। तब हो सकता है, समय खुद आकर तुम्हें यह सब समझाएगा।’’

- ''इतनी उलझी उलझी बातें न करो प्लीज! सीधे सीधे बताओ ना!’’

- ''क्या?’’

- ''यही कि तुम कहाँ थी और मुझे दिखी क्यों नहीं?’’

- ''मैंने कहा तो सही कि मुझे श्राप है!’’

- ''श्राप है? मैं कुछ समझा नहीं जलपरी!’’

- ''दरअसल यही मेरी दुविधा है विवेक कि मुझे भी नहीं मालूम कि ऐसा क्यूँ होता है कि मैं किसी को दिखाई क्यों नहीं देती हूँ। और सिर्फ तुम्हीं को क्यों दिखती हूँ क्योंकि तुम मेरे अस्तित्व पर विश्वास करते हो। अपने दोस्तों से कहोगे तो वे यकीन नहीं करेंगे।...’’ जलपरी कहते कहते रुक गई। फिर वह मेरी आँखों में आँखें डालकर गहराई से देखते हुए बोली, - ''और दरअसल मुझे लगता है कि जिस दिन मुझे अपने इस श्राप का कारण पता चल जाएगा तो मुझे इस श्राप से मुक्ति का उपाय भी मिल जाएगा। और अब तुम मिल गए तो मुझे थोड़ा धीरज हासिल हो गया है।’’

- ''मैं कुछ समझा नहीं? मतलब?’’

- ''मतलब कि इतने समय से मैं इस नदी के ओर छोर तक भटकती रही हूँ, मगर मुझे कोई नहीं देख पाया। जब भटकते भटकते इस घाट पर आई तो मुझे सिर्फ एक तुम ही देख पाए! अब जब ईश्वर ने इतना कर दिया तो आगे के लिए भी रास्ता निकल ही आएगा।’’

- ''मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा जलपरी। ये सारी कहानी कितनी अजीब लगती है ना!’’

- ''जीवन भी अजीब ही होता है विवेक! उम्र के साथ जब तुम दुनिया देखोगे, तब तुम्हें यकीन हो जाएगा?’’

- ''आज तुम्हारी आवाज में इतनी उदासी क्यों है जलपरी?’’ मैंने जलपरी के चेहरे और आवाज के मर्म को पढऩे की कोशिश करते हुए पूछा।

- ''कल घूमते-घूमते नदी से आगे तक निकल गई थी, तो वहां पानी इतना विषैला था कि मेरी साँसें लगभग बंद हो गई थी। मैं तत्काल पलट कर भाग आई। थोड़ी दूर वापस आई तो कुछ मछलियों ने बताया कि उधर आगे जाकर बहुत सी फैक्ट्रियों का विषैला रसायन और अपशिष्ट नदी में सीधे जाकर मिलता है, जिससे उस तरह की सारी मछलियाँ पानी में हर साल मर जाती हैं।’’

- ''ओह!’’ मेरे मुँह से बस 'उफ्फ’ की तरह यही निकला।

- ''एक बात बताओ विवेक?’’

- ''क्या?’’

- ''क्या यह धरती महज इंसानों के लिए बनी है?’’

- ''नहीं तो! क्यूं?’’

- ''तो फिर इंसान ऐसे क्यूं समझता है कि इस धरती को बनाने, बिगाडऩे, संवारने या खत्म करने का अधिकार सिर्फ उसी के पास है।’’

- ''मैं समझा नहीं जलपरी।’’

- ''विवेक! मनुष्य को यह समझने की सख्त आवश्यकता है कि यह दुनिया सिर्फ उसी के लिए या उसी के होने या न होने से नहीं है। यह धरती चींटी और चिडिय़ा की भी उतनी ही है, जितनी मनुष्य की है। यह धरती बाघ, चीते, हिरण, हाथी, खरगोश की भी है। पेड़ों की भी है, पेड़ पर रहने वाली कीड़ों की भी है। कहने कहते जलपरी के शब्दों में झल्लाहट उतर आई। मैं सिर्फ जलपरी की बातें सुनने और समझने की कोशिश कर रहा था।’’

- ''मेरी समझ में यह नहीं आता कि मनुष्य अपने इतिहास में, अतीत से क्यों कुछ नहीं सीखता है? वह ईश्वर को पूजता तो है मगर उसके दिखाए मार्ग पर चलता क्यों नहीं है? अब देखो! जैसे भगवान विष्णु ने इस धरती पर जब जब अवतार लिए तो वे हर अवतार में सिर्फ मनुष्य ही तो नहीं बने थे। वे मछली भी बने। वे वराह (सुअर) भी बने। वे नरसिंह भी बने। वे कछुआ भी बने। यहां तक कि देवताओं ने अपने वाहन और अपने साथी के रूप में नंदी, साँप, हाथी, कुत्ता, हंस, चूहा, घोड़ा, मछली, गाय जैसे कई पशुओं को पूजनीय स्थान दिया है। यह सब क्या साबित करता है?’’

- ''क्या?’’ मैंने सिर्फ इतना ही कहा, महज यह दिखाने के लिए कि मैं उसकी बातों को गंभीरता से सुन और समझ रहा हूं।

- ''यही कि ईश्वर महज मनुष्य का ईश्वर नहीं है। वह मछली का भी ईश्वर है! वह कुत्ते का भी ईश्वर है और वह हर पशु-पक्षी और प्राणी का ईश्वर है! यह तो महज मनुष्य का भ्रम है कि वह ईश्वर की कल्पना एक मनुष्य की तरह करता है। जबकि मछली के लिए तो उसका ईश्वर एक मछली जैसा ही होगा ना! एक बड़ी विशाल मछली! अनूठी और अलौकिक ताकतों से भरी मछली। या एक कुत्ते का ईश्वर भी तो एक कुत्ता ही होगा ना! एक विशाल और ताकतवर कुत्ता!’’ जलपरी रौ में कहे जा रही थी, मगर उसकी बातों में शामिल तर्क के आगे मेरा समस्त किताबी ज्ञान बौना नजर आने लगा।

- ''मुझे समझ नहीं आता कि एक कुत्ता या एक चिडिय़ा अपने ईश्वर को मनुष्य की तरह कैसे देख सकते हैं? उनके लिए तो उनका ईश्वर भी उन्हीं की तरह होगा ना!’’ जलपरी ने मेरी आंखों में देखा, जैसे अपने कहे के प्रति वह मेरी आँखों में मेरी सहमति तलाश रही हो! फिर कुछ ठहरकर बोली, - ''महज बुद्धिमता प्राप्त होने से मनुष्य को किसने यह अधिकार दिया कि वह दुनिया की समस्त दूसरी प्रजातियों को खतरे में डाल दें और वही करे जो सिर्फ उसके हित में हो? कैसी होगी दुनिया अब इस धरती पर सिर्फ मनुष्य होंगे? मनुष्य और सिर्फ मनुष्य?’’ कहते कहते जलपरी की साँसें फूलने लगी। जैसे वह क्रोध से भर उठी हो।

- ''मैं तुम्हारी बात से सहमत हूँ जलपरी! लेकिन प्लीज मुझे इस वक्त बताओ कि तुम्हें यह जो श्राप हासिल है, इसका कारण हम कैसे जान सकते हैं?’’ मुझे लगा इस वक्त विषयांतर करना ही उचित होगा इसलिए मैंने अचानक जलपरी को बीच में टोकते हुए पूछ लिया।

- ''पता नहीं!’’ कहते हुए जलपरी की आँखें भीग गई। मैं भी कुछ कह नहीं पाया। कुछ पल हम दोनों वहीं खामोश से बैठे रहे। बीच में एक मौन ने आ घेरा। जब मौन बढऩे लगा तो अचानक जलपरी वहाँ से उठी और बिना कुछ कहे, पानी में छलाँग लगा दी। मैं जलपरी को पानी में जाकर पानी होते हुए देखते रहा।

बहरहाल अगले दिन जब कच्चे आटे की लोइयाँ डालने घाट पर गया था तो जलपरी से फिर मुलाकात हुई, मगर यह भला हुआ कि कल वाली गंभीरता उसके चेहरे से मुझे नदारत दिखी थी। बल्कि आते ही वह मुझसे बोली थी , - ''मैं बहुत देर से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही थी विवेक! मुझे लगा भी था कि आज तुम जल्दी आओगे?’’

- ''सच्ची! मेरा रास्ता देख रही थी तुम! क्यों?’’

- ''इस क्यों का मतलब तो नहीं है मेरे पास! क्या तुम्हारे पास है?’’

- ''क्या?’’

- ''इस क्यों का जवाब कि तुम क्यों मुझसे मिलने यहाँ रोज चले आते हो?’’ जलपरी के इस प्रतिप्रश्न ने मुझे ही दुविधा में डाल दिया। मैं झिझक गया।

- ''मुझे अच्छा लगता है। तुमसे बातें करना! तुम्हारे साथ वक्त गुजारना! और..’’

- ''और क्या?’’

- ''तुम।’’

- ''धत्त! पागल! तुम पागल हो विवेक!’’ जलपरी ने कहा और लजाते हुए दूसरी तरफ मुँह फेरकर हँसने लगी।

- ''अच्छा! जलपरी सुनो ना!’’

- ''क्या?’’ जलपरी ने नदी की तरफ मुँह किए हुए ही कहा।

- ''तुम मेरे साथ मुवी देखने चलोगी?’’

- ''तुम दिखाओगे मुझे?’’

- ''मेरा बस चले तो रोज दिखाऊँ तुम्हें! सारी दुनिया घूमूँ तुम्हारे साथ। हर पल हर घड़ी मैं तुम्हारे साथ ही रहूँ।’’ मैंने मौके पर चौका लगाते हुए कुछ जरूरत से ज्यादा रोमांटिक होते हुए कहा।

- ''अभी नहीं! फिर कभी देखेंगे!’’

- ''ठीक है! जैसी तुम्हारी मर्जी! चलो अब चलता हूँ। वर्ना मम्मी फिर विनय को भेज देगी मुझे बुलाने के लिए। ओके बाय!’

लौटकर घर आया तो जलपरी के साथ हुई सारी मुलाकातें एक एक कर याद आने लगी। खयालों से बाहर आया तो फिर मन मारकर पढऩे की कोशिश करने लगा। मन ही मन मैंने तय कर लिया था कि शनिवार को एक्जाम खत्म होते ही उसी दोपहर में जलपरी से मिलने के लिए घाट पर जाऊंगा। हालाँकि इस बीच भी मैं घाट पर गया था, मगर जलपरी वहाँ नहीं मिली थी।

और शनिवार को अद्र्धवार्षिक परीक्षा खत्म होते ही घर पर बैग रखने के बाद मैं घाट की तरफ निकल आया। मन में जलपरी से मिलने की उम्मीद मेरी आँखों में सवेरे की ओस के किरचों की तरह चमक रही थी। जब घाट पर आया तो देर तक प्रतीक्षा करता रहा। मगर जलपरी का कहीं कोई नामो-निशान नहीं था। किसी उतावले प्रेमी की तरह मैं देर तक घाट पर इधर से उधर चक्कर मारता रहा। नदी के पानी में झाँक-झाँक कर देखता रहा।

- ''क्या कर रहा है?’’ अचानक पीछे कंधे पर हथेली की थपकी मारकर जब मेरे दोस्त बबलु ने पूछा तो मैं कुछ पल के लिए हड़बड़ा गया।

- ''क... क... कुछ नहीं! कुछ नहीं!’’

बबलु के साथ आए मेरे दूसरे दोस्त भी मेरी इस हरकत को देखकर हैरान थे। फिर उन्हीं में से दीपु ने मुझे कुछ और कुरेदने की कोशिश करते हुए पूछा, - तू क्या ढूँढ रहा है यहाँ कब से इधर-उधर? तेरे को कब से आवाज दे रहे हम! सुनाई नहीं दे रहा था क्या?’’

- ''कुछ भी तो नहीं! मैं तो यूँ ही तुम लोगों का रास्ता देख रहा था।’’

- ''अच्छा साले! ज्यादा साणपत्ती मत दिखा! सीधे सीधे बोल वर्ना तेरे पापा-मम्मी को सब बता देंगे कि तू स्साला यहाँ घाट पे बैठे बैठे क्या पागलपंथी करता है?’’

मैंने घूरकर दीपु को देखा, फिर बबलु को और फिर अपने दूसरे दोस्तों को भी। फिर बिना कुछ कहे वहाँ से चल दिया। मेरे दोस्त मुझे जाता देखते रहे! मुझे दोस्तों की धमकी से उतना दु:ख नहीं हो रहा था, जितना इस बात से कि जलपरी से मुलाकात नहीं हुई थी, जबकि मैंने उससे कह दिया था कि शनिवार को परीक्षा खत्म होते ही मैं उससे मिलने आऊँगा, लेकिन जलपरी मिलने क्यों नहीं आई? क्या बात हुई होगी उसके साथ? कहीं वह फिर नदी में आगे तक तो नहीं निकल गई होगी! जिधर पानी विषैला हो चुका है, जब यह खयाल आया तो मैं डर गया। डर की छाया मेरे चेहरे पर विषैले पानी की तरह फैल गई।

रात भर मुझे सलीके से नींद नहीं आई थी। देर रात तक नींद आँखों से दूर रही, बाद में झपकियाँ आती तो किसी हादसे की तरह नींद अचानक टूट जाती! फिर सोने की कोशिश करता तो फिर कोई बुरा ख्वाब नींद से उठाकर वापस बाहर फेंक देता मुझे। नींद से आँख-मिचौली जैसा कोई खेल या उपक्रम चल रहा था। पता नहीं। पूरी रात आँखों में कटी थी। सोया नहीं था तो जागने का भी कोई प्रश्न नहीं था! सुबह सूरज उगने से पहले जल्दी से तैयार होकर मैं सीधे नदी किनारे घाट पर चला आया तो जलपरी घाट पर ही मिल गई। लगा जैसे रात भरकी तपस्या फलीभूत हो गई हो।

- ''कल मैंने घाट पर तुम्हारा बहुत इंतजार किया?’’

- ''जानती हूँ!’’

- ''जानती हो! तो फिर तुम आई क्यों नहीं थी?’’

- ''कुछ नहीं, कुछ परेशान सी थी?’’

- ''कैसी परेशानी? मुझसे शेअर नहीं करोगी?’’

- ''दरअसल विवेक। मैं एक जलपरी हूँ! और मैं जीना चाहती हूँ। सदियों तक इस जल में बहना चाहती हूँ! तुम्हारे साथ रहना और तुम्हारे साथ मूवी भी देखना चाहती हूँ!’’

- ''तो! मैं भी तो यही चाहता हूँ, कि तुम मैं हमेशा साथ-साथ रहें! यूँ ही!’’ कहते हुए मैंने अपनी हथेली, जलपरी की हथेली पर रख दी। जलपरी की हथेली की कोमलता के अहसास से मैं फिर भर गया।

- ''कभी कभी लगता है, सब कुछ सपनों की भाँति टूटकर बिखर जाएगा।’’

- ''क्यों लगता है तुम्हें ऐसा? क्या तुम्हें मुझपर भरोसा नहीं?’’

- ''तुम पर है! लेकिन इस धरती के मनुष्यों पर नहीं!’’

- ''जब मुझपर है तो मेरी तरह इस दुनिया में और भी बहुत से होंगे, जो इस धरती पर तुम्हारे भरोसे को बचाए रखने के काबिल होंगे!’’ मैंने कहा और जलपरी की हथेली को और थोड़ा मजबूती से थामते हुए उसकी आँखों में झाँका।

जलपरी ने भी बराबर मेरी आँखों में झाँकते हुए कहा, - ''काश! तुम्हारा भरोसा सच हो!’’

जलपरी का देखना, कुछ ऐसा देखना था जैसे वह आँख के रास्ते, दिल में उतरने की कोई तरकीब हो या जैसे वह मेरी आँखों में मेरे कहे शब्दों की सच्चाई को तौल रही हो।

फिर जलपरी ने अपना सर आहिस्ते से मेरे कन्धे पर धरते हुए कहा, - 'विवेक’ और आगे के वाक्य या शब्दों को कहे जाने से पहले ही कहीं किसी शून्य में छोड़ आई।

- 'हूँऽऽऽ बोलो!’ मैंने बात के क्रम को आगे बढ़ाने की गरज से कहा।

- ''एक वादा करोगे?’’

- ''हाँ! बोलो?’’

- ''यही कि तुम इस कहानी को याद रखोगे?’’

- ''??’’ मुझे सही कुछ सूझा नहीं तो मैंने जलपरी की तरफ अचरज़ से देखा भर।

- ''यही कि तुम मुझे भूलोगे तो नहीं?’’

मैंने जलपरी की हथेली, जो कि मेरी हथेली में ही थी, की उँगलियों में अपनी उँगलियाँ फँसाकर एक किस्म का लॉक बनाते हुए कहा, - ''आखरी साँस तक! ...नहीं!’’

फिर कुछ क्षण रुककर जलपरी बोली, - ''तुम जानना चाहते थे ना कि मैं सिर्फ तुम्हें ही क्यों दिखती हूँ?’’ जिसे सुनकर मैं पहले तो चौंका फिर मैंने झट् उत्सुकता दिखाते हुए कहा, - 'हाँ!’

- ''दरअस्ल मुझे लगता है कि प्रकृति चाहती है कि ऐसा हो!’’

मुझे शायद किसी और अधिक गहरे रहस्यपूर्ण से जवाब मिलने की उम्मीद थी, इसलिए भी जलपरी के कहे ने मुझे मन भर आनंद तो दिया, मगर मन को संतुष्टि नहीं दी। फिर जलपरी ने नदी के सुदूर दूसरे तट को शायद देखते हुए कहा, - ''और जानते हो प्रकृति ऐसा क्यों चाहती है?’’ जलपरी का प्रश्न सुनकर मैं भी कुछ पल के लिए तो अचरज में पड़ गया।

- ''नहीं!’’ मैंने कुछ सोचकर जवाब दिया।

जलपरी ने अपना सिर मेरे कन्धे पर से आहिस्ते से हटाया और फिर वह अपने चेहरे को मेरे चेहरे के थोड़ा समीप लाते हुए और मेरी आँखों में झाँकते हुए बोली, - ''क्योंकि यही प्राकृत है!’’

सच बताऊँ तो मेरी कुछ समझ में नहीं आया था। और दूसरा सच बताऊँ तो उस समय मेरी मन कुछ और समझना भी नहीं चाह रहा था। एक तो जलपरी मेरे इतने निकट ती कि हमारी साँसों की बढ़ती रफ्तार और रफ्तार के बनने-टूटने की आवाजें हम दोनों ही महसूस कर रहे थे। रिश्तों से इतर किसी स्त्री देह का इतना घनिष्ठ समीप्य मुझे इससे पहले हासिल नहीं हुआ था। अपने भीतर की हलचल को मैं किस तरह संयमित रखे हुए था, इसे सिर्फ मैं ही जानता हूँ।

जलपरी की जादुई नीली आँखों में झाँकते हुए मैंने नोटिस किया कि जलपरी की साँसों की गर्माहट मेरी साँसों की गर्माहट से मिलकर मेरे भीतर एक किस्म का तिलिस्म रच रही थी। और उसकी आँखों से उठकर वह नीलापन मेरे आसपास, मेरे आगे, मेरे पीछे, नदी के पानी में, आकाश में, घाट पर सब कहीं बिखर गया था। नोटिस तो मैंने यह भी किया कि जलपरी की साँसें भी मेरी तरह ही शायद अनियंत्रित हो रही थी और अपने चेहरे को मैंने जैसे ही उसके चेहरे की तरफ थोड़ा रत्ती भर और सरकाया था तो उसने अपनी जादुई नीली आँखें मूँद ली थी। सब तरफ बिखरा हुआ नीलापन एक पल में फिर उसकी उन दो बंद आँखों में सिमट गया था।

इतने करीब से उसके चेहरे को देखते हुए मैंने जलपरी के होंठों पर एक अजीब किस्म की सिरहन सी सतत बनते और टूटते हुए देखी। और इतने करीब से देखे जाने से अब उसके होंठों की रंगत उतरकर मेरे भीतर तेजी से दाखिल होना शुरू हो चुकी थी। यकीनन उस वक्त मेरी ख्वाहिशें भी गुलाबी थीं, जबकि मेरी आँखें महज उसके होठों पर टिकी थीं, मैंने अनुमान लगाया और मुझे यकीन है कि उस समय पूरी सृष्टि ने नीला छोड़, गुलाबी रंग अख्तियार कर लिया होगा। यानी यकीनन हमारे आगे पीछे ही पृष्ठिभूमि में सुबह का आसमान भी गुलाबी हो गया होगा। घाट भी गुलाबी हो गया होगा। और नदी में बहता पानी भी गुलाबी हो गया होगा। सब कुछ गुलाबी गुलाबी। मेरे होंठ उन गुलाबी रंगों से मिलने और मिलकर खिलने के लिए आतुर हो उठे। जलपरी के होंठों की सिरहन के बनिस्बत मेरे होंठों पर मुझे अधिक आक्रामक सिहरन महसूस होने लगी। मेरे होंठों पर फैली यह अदम्य गुलाबी प्यास इतनी तीव्र थी कि मैं एक ही बार में पूरे समन्दर को पीकर खाली कर देने की चेष्टा से भर उठा। जब जलपरी के नर्म होंठों पर अपने गर्म, और अपने दिल की तरह तेजी से धड़कते फड़कते होंठों को रखा तो उस अछूते-अनोखे खूबसूरत स्वाद और उसकी तीव्रता से मेरे भीतर का सबकुछ नए सिरे से बनने, तनने, सुधरने और सँवरने लगा। निर्मल-आनंद के उस अद्भुत क्षणों के अहसास और स्वाद को बयाँ करने के लिए दुनियावी भाषाओं के समस्त शब्दकोश कंगाल है। बहरहाल कुछ ही देर बाद मैं पानी पानी हो चुका था और वह पानी में जाकर पानी हो चुकी थी।

जलपरी की यह सत्यकथा, किसी कल्पकथा की तरह स्मृति में ही टँकी रह जाती! अगर इतने वर्षों बाद आज उससे फिर मुलाकात न हुई होती!

दरअसल जलपरी के साथ उस दिन घाट पर जब मिला था और हमने एक दूसरे को किस किया था, तो वह मेरी और जलपरी की अंतिम मुलाकात होकर रह गई थी। उस दिन जलपरी के जाने के बाद मैं जब घाट से घर लौटा तो फिर सारी रात मुझे नींद नहीं आई थी। जलपरी के गर्म और नर्म होंठों की छुअन के अहसास और बार-बार आते खयालों ने मुझे सारी रात सोने नहीं दिया। दूसरे दिन और उसके बाद भी जब जब मैं घाट पर गया, मुझे जलपरी नहीं मिली। मैं देर तक बैठे बैठे कई दफे प्रतीक्षा करता, इधर-उधर ताकता मगर जलपरी फिर मिलने नहीं आई।

घाट पर बैठे बैठे मैंने नोटिस किया था कि नदी में पानी की धारा पूरी तरह रुक चुकी थी और पानी का स्तर तेजी से घट चुका था। किसी अपशकुन की तरह नदी का घटता जलस्तर मेरे भीतर उम्मीद को कम करने लगा था। मैं घाट पर बैठे घण्टों नदी के रुके और कम होते पानी को देखता रहता। और हर क्षण हर पल अपनी जलपरी के लिए सोचा करता! जलपरी आखिर कहाँ होगी? कैसी होगी? फिर क्यों नहीं मिली? किधर चल गई? जैसे सवाल मन को हर समय मथते रहते थे। कईं बार तो मैं घाट पर जोर जोर से आवाज़ें लगाने लगता।

'जलपरी!’

'जलपरी!!’

'जलपरी!!!’

मेरी आवाजें लौटकर मुझ तक वापस चली आती। यहाँ तक कि मेरे दोस्तों ने भी मुझे बताया कि मैं पागलों की तरह घाट पर 'जलपरी! जलपरी!!’ बल्लाता रहता हूँ! और यह खबर मेरे घर तक भी पहुंच चुकी थी। मम्मी-पापा मुझे कई बार डाँट चुके थे। और घाट पर जाने तक नहीं देते थे। वो तो मैं ही किसी तरह कोई न कोई बहाना बनाकर या स्कूल ट्यूशन से बंक मारकर घाट के चक्कर लगाता आता था।

नदी में रुका पानी धीरे धीरे बेहताशा गंदा, मटमैला और इतना कम हो गया था कि इसमें नहाना तो दूर नहाने की सोचने से भी घिन आने लगती। फिर मुझे खयाल आता की उन सारी मछलियों और जलचरों का क्या हुआ होगा, जो इस नदी में रहते होंगे! क्या वे समय रहते दूर कहीं निकल गए होंगे या इस रुके हुए अभिशप्त जल में दम तोड़ चुके होंगे। इस बुरे खयाल की प्रेतछाया से ही मैं काँप गया और अपनी जलपरी के लिए रोने लगा।

मुझे अपने दोस्तों से मालूम पड़ा था कि नदी में ऊपर की तरफ कहीं एक बड़ा सा बाँध बन चुका था जिसने नदी के पानी को रोक दिया था। मैंने अपनी किताबों में बाँध से होने वाले नफे-नुकसान को लेकर बहुत कुछ पढ़ रखा था। लेकिन उस समय तक मेरी औसत बुद्धि तय नहीं कर पाई कि बाँध से नफा है या नुकसान? खैर लेकिन नदी के घटते पानी और नदी की दुर्दशा को देखकर मैं बाँध को कोसता जरूर था। और कहीं न कहीं

उस बाँध को ही मैं अपनी जलपरी के गुम होने का कारण भी मानने लगा था! और यह पहला साल भी था जब भर गर्मियों में हम अपनी नदी में नहाए नहीं थे।

बहरहाल समय के साथ जलपरी के लिए मेरा पागलपन बढ़ चुका था और मेरे मम्मी-पापा की चिंताएँ भी। इसीलिए उन्होंने मुझे आगे पढऩे के लिए बोर्डिंग स्कूल भेजने का तय कर लिया था। और मेरे बहुतेरे ना-नुकर और खूब रोने-धोने के बावजूद हुआ भी ऐसा ही था!

ग्यारहवीं और बारहवीं बोर्डिंग स्कूल से करने के बाद फिर कॉलेज के लिए भी मैं बाहर ही रहा। इस बीच जब जब छुट्टियों में या वार-त्यौहार मैं अपने घर आता, घाट पर जरूर जाता था! मगर मुझे जलपरी फिर कभी नहीं दिखी! और नदी में पानी भी नहीं! बारहों मास बहने वाली नदी मह बारिश के तीन-चार महीने बहने लगी थी! मैं घाट पर बैठकर जलपरी के साथ बीते दिनों को याद करता और कभी उन मीठी मीठी स्मृतियों को याद कर हँसता तो कभी रोता!

कभी कभी लगता सब कुछ जैसे कोई भ्रम है, या किसी विराट भ्रम का कोई हिस्सा है। लेकिन यदि यह भ्रम भी है तो मैं इस भ्रम से बाहर नहीं आना चाहता। आज लगभग अठारह वर्षों बाद भी जलपरी वाला किस्सा स्मृति में जस का तस है,जैसे कल की बात हो! मेरी नौकरी और शादी के बाद से तो अब अपने इस गृहनगर में सालभर में एक दो बार ही आना हो पाता है, मगर जब भी आता हूँ, जलपरी की याद जरूर आती है। दीपावली की छुट्टियों पर कल रात लौटा तो आज सुबह ही नदी में मछलियों को डालने के लिए कच्चे आटे की लोइयाँ लेकर घाट पर चला आया। बारिश का मौसम गुजरे अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ था, इसलिए भी मुझे उम्मीद थी कि नदी में खूब नहीं तो ठीक-ठीक पानी का स्तर होगा! और मन में कहीं छोटी-सी ही सही मगर एक उम्मीद भी थी कि शायद इस बार जलपरी से मुलाकात हो जाए!

घाट पर आया तो देखा कि नदी में पानी के नाम पर शहरी नालों से बहकर आया गंदा पानी डबरों की शक्ल में यहाँ-वहाँ कुछेक गड्डों में भरा हुआ था, जो प्लास्टिक के कचरे से पटा पड़ा हुआ था। समय के साथ घाट भी काफी टूट-फूट चुका था। और नदी के दूसरी ओर का पाट भी काफी छोटा हो चुका था। उस समय झोपड़पट्टियों की तादात अचानक पहले से बहुत अधिक मुझे नजर आई। गंदे पानी की बदबू के बावजूद मैं घाट पर कुछ देर के लिए बैठ गया और अपने साथ लाई कच्चे आटे की लोइयों को देखकर फिर उदास हो गया।

तभी कुछ देर बाद अचानक मुझे अपने पीछे से किसी की आने की आहट महसूस हुई। मैंने देखा कि एक अधेड़ उम्र औरत जिसके कपड़े बूरी तरह से कटे-फटे और मैले-कुचैले थे, पीछे खड़े हुई थी और अपने मटमैले दाँतों को दिखाते हुए मुस्करा रही थी। उसके खिचड़ी-बिखरे बालों और गंधाती देह को मैं दो पल से ज्यादा नहीं देख सका और मुँह फेरकर वापस उस तरफ देखने लगा, जिधर देखने को अब कुछ बचा भी नहीं था।

- 'विवेक!’ मुझे अपने पीछे से किसी महिला का स्वर सुनाई दिया और मैं इस आवाज को पहचानता था! मैंने पलटकर फिर देखा तो वही बिखरे और खिचड़ी बालों वाली अधेड़ उम्र औरत मुझे देख देखकर अपने मटमैले दाँत दिखाकर मुस्करा रही थी। मैं अचरज के साथ कभी उसे देखता तो कभी घाट पर इधर-उधर!

- 'पहचाना नहीं?’ कहते हुए वह अधेड़ उम्र औरत थोड़ा और करीब आई तो दुर्गन्ध का एक तेज झोंका भी उसके साथ आगे बढ़ गया।

हतप्रभ-हैरान-सुन्न सा मैं अपनी जगह पर खड़ा का खड़ा रह गया। मुझे कुछ नहीं सूझा तो मैं पलटकर घर लौटने के लिए जल्दी जल्दी अपने कदम बढ़ाने लगा, या यूं कह लें कि भागने लगा! कि तभी मुझे उसी अधेड़ औरत की आवाज फिर अपने पीछे से सुनाई दी, - 'आज मुझे 'किस’ नहीं करोगे?’

 

 

अपने समकालीनों में कम लिख कर अधिक ख्याति अर्जित करने वाले कहानीकारों में अग्रणी हैं। उनके पास किस्सागोई का अपना अंदाज़ है। खरगौन निवासी हैं, जहाँ से हिन्दी के एक बडें़ कथाकार भालचंद्र जोशी भी आते हैं।

संपर्क- मो. 09755980001, खरगोन, मध्यप्रदेश

 


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