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जून - जुलाई : 2020

बुरा आदमी

प्रज्ञा

कहानी

 

 

आज मैंने ठान लिया था टूटेजा सर शाम के समय कोई चक्कर लगवाएंगे तो साफ इंकार कर दूंगा। कई दिन से देख रहा हूं वो अक्सर मेरे साथ यही कर रहे हैं। सुबह के समय फील्ड का काम निबटाने जाते समय कितनी दफा पूछता हूं - 'सर! कोई इमरजेंसी?’ कंधे उचकाकर मना कर देते हैं पर जैसे ही शाम को घर निकलते समय बैग में दोपहर बाद धूल फांक रहा खाने का डिब्बा डालने को होता हूं ठीक उसी समय आवाज आती है-

''देवेंदर! फलां साहब की मोटी किश्त का टाइम पूरा हो गया। जाकर फलां इलाके से कलैक्ट करता आ। क्लाइंट ने अभी बुलाया है... इमरजेंसी है।’’

काम करते हुए मुझे लंबा अरसा बीत चला है पर दिमाग की सोच और चेहरे के भावों को अलगाने का हुनर अब तलक सही तरह नहीं सीख पाया हूं। मेरा बॉस बीमा कंपनी का बेहद सफल एजेंट है। क्लाइंट को नई स्कीम बेचनी हो या मेरे चेहरे के भाव पढऩे हों - वह दोनों में माहिर है। मुद्दत से चाहता हूं वो मेरा मन भी पढ़े पर उसका उसूल है मन पढ़ेगा तो धंधा खटाई में पड़ जदाएगा। रोज़ किसी उल्टी दिशा में काम के लिए भेजे जाने से अक्सर मैं देर से घर पहुंचता हूं। यूं हर शाम, रात में ढलने की अभ्यस्त है पर मैं इस देर और गहरी रात का अभ्यस्त नहीं होना चाहता। ऑफिर शहर के एक कोने में है तो ठिकाना एकदम दूसरे कोने में। मैं रोज इनके बीच चकरघिन्नी-सा घूमता हूं। आज भी वही हुआ जिसका मुझे अंदेशा था। क्लाइंट का घर दिल्ली से सटे दूसरे स्टेट में और मेरा घर बिल्कुल अलग स्टेट में। यानी शाम के समय मैं बॉस की कृपा से तीन राज्यों में भटकता फिरूं। उनका क्या है जबान हिला दी। क्लाइंट के घर से मेरे ठिकाने की दूरी लंबी थी। पौने छह तो ऑफिर में ही हो गए थे। काम पूरा होते न होते दिन पूरी तरह ढल गया।

''साली! ये भी कोई जिंदगी है? रोज मरो-खपो और जिंदा रहो बार-बार मरने-खपने को। आज कोई ठीक जगह काम मिल जाए तो अभी लात मार दूं, इस नौकरी पर।’’

मेरी झुंझलाहट बेतरह बड़बड़ाने लगी। गुस्से और लाचारी के बीच एक यही बड़बड़ाहट है जो सच्ची साथी लगती है। मेरी बड़बड़ाहट नाजायज नहीं थी। अब रात को मेरे इलाके की तरफ जाने वाले साधन बेहद कम रह जाएंगे। या तो मैं इस तकलीफ़ को नियति मान लूं या फिर अपने समय की रक्षा के लिए मुस्तैद हो जाऊं। मैंने अपना समय बचाने के लिए क्लाइंट के घर से निकलते ही कैब कर ली। लगभग अस्सी किलोमीटर की दूरी पर मेरा ठिकाना था। कैब शहर के व्यस्त ट्रैफिक से जूझती रुक-रुककर बढ़ी जा रही थी मानो दुनिया भर के वाहनों का सैलाब इसी सड़क पर बिछ गया था। मोबाइल की बैटरी लो मिलने और कैब में मेरी वाली चार्जर पिन न मिलने पर मन फिर टीसा। कुछ देर में आगे बढ़ती कैब सीमेंटी जंगलों को पछाडऩे लगी। बाहर देखते-देखते मेरी आंखों में नींद उतरती गई। रात कैब में उतरकर मुझे अपनी आगोश में लेने लगी। न जाने कितनी देर मैं बेसुध रहा। कैब की अजीब घरघराहट और उसके झटके-से रुकने पर मेरी नींद टूटी।

''सर जी! आप कोई दूसरी कैब कर लो। इसे तो सुधारना पड़ेगा। जाने कितनी देर लगेगी। मुझसे नहीं संभली तो दस बजे यहां भला मुझे कौन मिलेगा? न आदम, न आदम की जात।’’

कैब का ड्राइवर परेशानी में बोला।

घटती दूरी, घर पहुंचने का भरोसा और सीट पर अधलेटी मुद्रा के इत्मीनान को कैब ड्राइवर के चंद शब्दों ने चौपट कर दिया। अगले ही पल मैंने खुद को एक सुनसान जगह पर पाया।

''क्या मतलब दूसरी कैब कर लूं? खराब गाड़ी लेकर ही क्यों चला तू?’’

कुछ देर शांत रही मेरी झुंझलाहट ने फिर सिर उठाया। ड्राइवर सवारियों के नखरों-झगड़ों का आदी था, चुप रहा। मैंने दूसरी कैब करने के लिए मोबाइल निकाला, बैटरी कम थी। मामला बीच में अटक सकने का खतरा देख मैंने फोन वाला हाथ झटका और झुंझलाया -

''मरवा दिया तूने आज...’’

''मेरे फोन से करा लो बुक’’ ड्राइवर ने मेरी परेशानी समझकर अपना फोन आगे बढ़ाया।

''बस... बस रहने दे। नहीं चाहिए तेरी मेहरबानी।’’

मैंने जलती हुई आंखों से उसे घूरा और पैसे चुकाते हुए अपनी ठसक से आगे बढ़ गया।

मेरे ठिकाने की दूरी आठ-नौ किलोमीटर की तो थी। यहाँ से ऑटोरिक्शा, बस की उम्मीद करना बेकार था। शाम ढले इक्का-दुक्का बैटरी रिक्शा किस्मत वालों को मिल जाया करते थे फिर भी उम्मीद का दामन थामकर कुछ दूरी पर किसी ऑटो के मिलने की आस में मैं पैदल चल पड़ा। मेरे लाख चाहने पर भी रात गहरा चुकी थी। भूख धीरे-धीरे आंतों से लड़ाई पर उतरने लगी और मैं रास्ते की दूरी से लड़ रहा था।

मेरे शहर का ये इलाका बसी हुई पुरानी कॉलोनियों की तरह शोरोगुल में अभी नहीं डूबा था। पुरानी बसी हुई कॉलोनियां अक्सर दिन में ही नहीं देर रात तक गुलजार रहती हैं. एक-दूसरे से सटे घरों में सांस लेने से लेकर लड़े जाने वाले आगामी मोर्चों की खबरें भी पोशीदा नहीं रहने पातीं पर ये जगह अभी इस रंग में नहीं रंगी थी। शहर की सीमा पर बिल्डरों द्वारा तेजी से उठाई जा रही बहुमंजिला इमारतों से धीरे-धीरे पटते जा रहे इस इलाके में फिलहाल अधिकांश बंदोबस्त अस्थाई थे। वो मजदूर जो इलाके में एक बस्ती का ख्वाब उतार रहे थे वे कुछ समय बाद न जाने किन्हीं और ख्वाबों को पूरा करने किन अनजान रास्तों पर निकल चले जाने वाले थे। वो तमाम बिल्डर जो अभी अपने समय के एक बड़े सपनों को बेच देने की फिराक में थे इससे भी बड़े सपनों की तलाश में दौडऩे-दौड़ाने के मंसूबे पहले से बनाए बैठे थे। उनके रचे सपनों को बिकवाने वाले एजेंटों की लंबी-चौड़ी जमात जिन सुविधाजनक शिविरों में ग्राहकों के लिए बैठती थी वे सभी पहले से ही अस्थाई थे। कुछ सपने को लगभग तैयार खड़े थे रोज़ किसी का हो जाने की राह तकते और शाम को थककर ऊंघने लगते। यूं कुछ किलोमीटर पर आधा बसा, आधा उजड़ा एक मोहल्ला भी था जो अब तक एक पुराने गांव का नाम अपने कांधों पर ढो रहा था। मुख्य सड़क से अंदर की तरफ कुछ किलोमीटर के फासले पर सपनों के आलीशान बियाबान में ऐसे दो-एक मोहल्ले रौशन थे। शाम होते न होते पूरा इलाका किसी कोहरे की चादर में सिमट जाता। इलाके की मुर्दनी देखकर मेरे शरीर में एक अजब-सी झुरझुरी दौड़ गयी पर मेरे कदम कुछ और तेज हुए। अचानक मेरी बगल से पुलिस की एक गाड़ी फर्राटे से निकल गयी। मेरे कदम ठिठके। मैं फिर बड़बड़ाने लगा।

''शहरों में अपराध का आंकड़ा आखिर कहां जाकर थमेगा? आए दिन, दिन के चौबीस घंटों में अपराधों की बढ़ती वारदातें... जैसे शहरों में होड़ लगी है कि कौन बड़ा अपराधी है? बेहिसाब हत्याएं, वहशी बलात्कार, लूट-पाट के नए से नए हथकंडे। पंद्रह रुपये कोई कीमत होती है किसी की जिंदगी से खेलने की? पर नहीं कीमत हर हाल में वसूली जानी है। टी.वी. परसों ही तो चीख-चीखकर बता रहा था कि एक जिंदगी पंद्रह रुपये भाव तुल गई। कई बार लगता है इंसान कम और वारदातें ज्यादा हैं। हर चमकदार आईना पीछ पीछे मैला-कुचैला। जीना जैसे रोज अपने को किसी जोखिम से निकालना हो गया है... किसी जमाने में कविताएं लिखा करता था, पर अब? शहर ने मेरे शब्दों को मारकर मुझे क्लाइंट्स के टारगेट तले कबका कुचल दिया।’’

इस बार की बड़बड़ाहट निर्जन रास्ते में ज्यादा उन्मुक्त थी पर जैसे ही लूटपाट जैसा शब्द जबान पर आया मैंने हाथों से अपना पर्स टटोला। सड़क कहीं अधिक सुनसान दिखाई देने लगी। पुलिस वैन मुझसे बहुत दूर जा चुकी थी। मोबाइल पर उंगलियां गईं और संकोच में सिमट गईं। मैं उसकी चार परसेंट बैटरी को बेकार गंवाना नहीं चाहता था। चलते-चलते मैं उन दिनों के बारे में सोचने लगा जब जगह-जगह पी.सी.ओ. की सुविधा थी। मोबाइल न भी हो तो कोई खतरा नहीं। बात के तार टूटते नहीं थे। फिर पी.सी.ओ. का मतलब बसावट भी तो था। कुछ लोग, चाय की गुमटी, उसके साथ सटी कोई छोटी-सी दुकान। एक सुविधा दूसरी को कितनी जल्दी लील जाती है. मेरे आगे एक टैम्पू में उनींदा बैठा एक परिवार मुझे पर गौर किए बिना निकल भागा। सड़क भी उसे देखकर हैरान थी। खुद को अकेला पाकर भी मैंने राहत की सांस ली।

''शुक्र है अकेला हूं। परिवार साथ नहीं है। नहीं तो रोज मेरे इंतजार में वो भी परेशान रहता।’’

पैदल चलकर मैंने काफी दूरी तय कर ली। आगे एक छोटा-सा बाजार था जिसकी तमाम दुकानें बंद हो गयी थीं। बाजार सड़क के दूसरी तरफ था मैं दूसरी तरफ जहां कोई दुकान न थी। कुछ दूरी पर कुछ नौजवान लड़के खड़े दिखाई दिए। मन में एक पल भी कोई नेक ख्याल न आया। मुझे अकेले को देखकर कहीं ये बिना वजह हमलावर न हो जों? मेरी सांसें तेज चलने लगीं। मेरी चाल अपने आप बहुत सतर और व्यवस्थित हो गई। अकेलेपन से निपटने की यह खास कला थी जिसमें बच गए तो कला सार्थक वरना बेकार। लड़कों ने एक अजीब निगाह मुझ पर डाली जिसे मैंने महूसस किया पर खुद पर हावी नहीं होने दिया। पहले मैं उनके सामने से गुजरा, दिल जोरों से धड़का। मैं कुछ आगे बढ़ा तो पीठ पर कई जोड़ी आंखों की चुभन महसूस हुई पर धीरे-धीरे एक बेशऊर ठहाके ने मेरी लानत-मलामत करके मुक्ति पाई। मेरी सांसें आगे बढ़कर भी संयत नहीं हुई थीं। सड़क अंधियारे में तैर रही थी। मैंने यादों के दरवाजे को धकेला और जानना चाहा कि पहली बार कब अंधेरे में मुझे बेचैन किया होगा? देर तक धूल सनी यादों को झाड़ा और महसूस किया बचपन से ही अंधेरे के साथ आशंकाओं के अनगिनत बीज रोप दिए जाते हैं। मेरी बड़बड़ाहट ने फिर शक्ल अख्तियार की-

''जीवन के साथ इन बीजों के फूटने और बीहड़ के ढलते जाने का चक्र चलता रहता है। बचपन के किन हाथों में आशंकाओं के बीहड़ छांटने की दरांती आती होगी?’’

अंधेरे में कदम बढ़ाता मेरा मन इस समय बेचैनी से भर उठा। दिल में एक तेज भाप उठी और उसने मेरे सीने पर जैसे फफोले उगा दिए। अंधेरा, रात और सड़क - मैं कहां से लाता इन फफोलों के लिए मरहम? मैंने मोबाइल निकाला। उसने ग्यारह का समय दिखाया। मैं बेरहम की तरह उसे ताकता रहा। मर रहे आदमी की आखिरी चीख-सा वह घनघनाया और शांत हो गया। एक पल ठहरकर मैंने अंधेरे को टटोला वह इत्मीनान से माहौल में पसर चुका था। मद्धम रौशनी उसके आगे दम तोड़ रही थी और आस-पास की अनेक अबूझ आकृतियां मुझे अपने पंजों में जकडऩे को बढ़ी चली आ रही थीं। मैंने रफ्तार पकड़ ली। आगे एक मोहल्ला और उसके बाद एक लंबा निर्जन तब मेरा ठिकाना-अंधेरे के पंजों से बचने के लिए मैंने अपनी गति दोगुनी कर दी। पर भागते पैर कुछ ही देर में हांफने लगे।

रात में दूरियां किस कदर बढ़ जाती हैं यह वक्त मुझे बता रहा था। मैं रुका नहीं बढ़ता रहा। अचानक मेरी बगल से एक आकृति बदहवास-सी भागी। मैं लगभग गिरते-गिरते बचा पर मेरी एक भरपूर चीख अंधेरे को चीरती हुई निकल गई। सोचने-समझने की इंद्रियां जैसे जड़ हो गईं। आकृति के इंसान होने पर मुझे संदेह हुआ। कितनी बार अंधेरे से बड़े अंधेरे के ख्याल होश उड़ा देते हैं। मैं भौंचक-सा किसी सुरक्षित जगह पर पहुंचने की जल्दी और रौशनी की तलाश में लडख़ड़ाते कदमों से आगे बढ़ा कि एक चीख मुझे सुनाई दी। इस बार मैं नहीं चीखा था। मैं ठिठक गया। आकृति और इंसान एक-दूसरे से मिल जाने की कोई जुगत लगा रहे थे। मैं पलटा। फिर वापस आगे बढ़ा। फिर रुका और हिम्मत करके चीख की दिशा में बढऩे लगा। आकृति की मरियल-सी कराहें मुझे रास्ते का पता दे रही थीं। अंधेरे में सूझता भले कुछ नहीं पर आवाज़ों के रास्ते बेहद उजले रहते हैं।

कुछ दूरी पर दूसरी सड़क के नीचे की ओर एक अंडरपास दिखाई दिया जहां मामूली-सा बल्ब अपनी सारी शक्ति लगाकर भी टिमटिमा भर रहा था। आकृति मुझे वहीं दिखाई दी। मैं सड़क पार कर उसके नजदीक पहुंचा तो उसकी पीठ मेरी तरफ थी। मेरे आने से अनजान वह अपनी चोट सहला रही थी। उसके शरीर पर चुस्त फ्राक और कंधों पर ढलके बालों ने उसकी किशोर उम्र का अंदाजा मुझे दे दिया। मैंने हौले से उसके कंधे पर ज्यों ही हाथ रखा उसके बदन में भयानक सिहरन हुई उसने पूरी ताकत लगाकर कंधे से हाथ को झटका और वह बिना पलटे चीखकर आगे की ओर भागी। आगे धुप्प अंधेरा था। वह अंधेरे में खो गई। उसकी इस हरकत पर मैं अवाक रह गया। कुछ क्षण की खामोशी के बाद मैं उसे पुकारने लगा। मुझे डर था कि वह कहीं बहुत आगे न निकल जाए।

''तुम भाग क्यों रही हो? ये जगह ठीक नहीं है तुम्हारे लिए... सुन रही हो...’’

कोई जवाब नहीं आया। मैं निराशा में भी लड़की कि दिशा में कान लगाए रहा। वहां से लड़की के रोने की आवाज आई। उसने मुझे भीतर तक हिला दिया। उसका तनाव अंधेरे की तरह घना महसूस हुआ जिसके पार पहुंचना मेरे लिए असंभव था। फिर भी मैंने कोशिश नहीं छोड़ी।

''देखो! तुम डरो नहीं, भागो मत। यहां आओ... अच्छा मैं ही आता हूं तुम्हारे पास।’’

''यहां मत आना मेरे पास।’’ उसने दो टूक कहा।

''मेरा यकीन करो मैं बुरा आदमी नहीं हूं। मैं यहीं खड़ा हूं, नहीं आ रहा तुम्हारे पास। ठीक है। अब तो लौटकर आओ। ऐसे मत करो।’’

वह कुछ नहीं बोली।

''इतनी रात यहां क्या कर रही हो इस सुनसान में?’’

इस बार भी कोई जवाब नहीं आया पर रोने की आवाज आई जिसे सुनकर मेरा दिल और तेजी से धड़का।

''देखा! ये जगह तुम्हारे लिए ठीक नहीं। सुनो! लौट आओ।’’

मैं देखता रहा पर वह नहीं आई।

''मेरी बात मान लो यहां इतनी रात ठीक नहीं है और मैं तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा। वैसे मुझे भी यहां नहीं होना चाहिए था इतनी रात...। सुन रही हो तुम... ये अच्छी बात नहीं है। तुम्हें भी यहां नहीं होना चाहिए था। देखो! रोओ मत।’’

मैंने बोलते-बोलते रुमाल निकालकर माथे पर आ गए पसीने को पोंछा। मेरी आवाज थरथरा रही थी। बेचैनी, घबराहट और उत्तेजना से मेरी आवाज भर गई। मैंने महसूस किया मुझे अपनी आवाज बहुत भीतर से आती हुई सुनाई दे रही थी। कितना मुश्किल होता है न यह साबित करना कि आप जो कह रहे हैं वो सच है। उस तरफ से आवाज का कोई सुराग नहीं मिल रहा था। मन में ख्याल आया छोड़ देता हूं इसे यहीं... 'अरे! नहीं नहीं...’ - मन ने डपटा।

''सुनो! तुम डरो नहीं आओ न इधर। आओ! घबराओ नहीं मुझे बताओ क्या बात है? मुझे पता है तुम डरी हुई हो। किसी से नाराज होकर आई हो क्या?’’

इस बार कदमों की आहट मुझ तक पहुंची। वह अंडरपास की ओर लौट रही थी। अपनी बेचैनी में मैं एकदम चुप रहा। कहीं मेरे शब्द उसका इरादा न बदल दें।

आकृति संकोच में पास आती गई। जब वह मेरे हाथ बराबर दूरी पर थी तो मैंने कहा -

''मैं तुम्हें नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा, यकीन करो।’’

वह चुप थी। रोने के कारण कुछ-कुछ पल बाद निकल रही उसकी सिसकी ही उसकी आवाज थी जिससे मुझे बहुत कुछ समझना-जानना था। वह अब भी कांप रही थी। उसकी सांसें तेज चल रही थीं। मैंने उसके चेहरे पर नजर गढ़ाई तो उसकी सूजी हुई आंखें दिखीं। सीधी आंख के ऊपर एक चोट का निशान भी था। मेरी घबराहट लगातार बढ़ रही थी। फिर भी मैंने पूरी शक्ति बटोरकर कहा -

''मैं गलत आदमी नहीं हूं।’’

''मैं आपको जानती हूं।’’

मैं चौंक गया।

''मुझे?... कैसे?....’’

सावधानी से लैस होकर मैंने उसका चेहरा टटोला। मुझे हैरानी हुई। कहां देखा है इसे? कौन है ये? मैं कब-कैसे मिला था इससे?- मन में अनेक सवाल उछाल मारने लगे।

''आप इतनी रात में यहां क्या कर रहे हैं?’’

उसने मुझसे ऐसे पूछा जैसे मुझे अच्छी तरह जानती हो पर मुझे वह क्यों याद नहीं आ रही थी? मैंने महसूस किया कि उसका स्वर और शरीर पहले की मुकाबले स्थिर-सा हुआ है।

''तुम कैसे जानती हो मुझे?’’ आखिरकार मैंने पहचान में असमर्थ अपनी नजर की हार मान ही ली।

''आपको मैं याद नहीं?’’ आखिरकार मैंने पहचान में असमर्थ अपनी नजर की हार मान ही ली।

''आपको मैं याद नहीं?... पहले आप रहते थे हमारे मोहल्ले में... यहीं पास में। दीक्षित अंकल के घर आते थे वहीं तो था मेरा घर। याद नहीं आपको मेरे पापा की दुकान थी उसी मोहल्ले में।

मैंने जोर मारा तो दीक्षित जी याद आए। भले व्यक्ति थे। वो दुकान और उसका एक पैर से बेकार दुकानदार याद आया, उसकी सुंदर बीवी भी याद आई... याद आई उसके संग रहती एक लड़की...

''अरे! तुम... हां-हां याद आ गया मुझे। कमाल है तुमने मुझे पहचान लिया। इस घुप्प अँधेरे में भी?’’

एक पल की राहत के बाद मैं फिर बैचेन हो उठा। पहचान के घेरे किस कदर फिक्रमंद होते हैं-

''तुम घर से दूर, इतनी रात गए यहां अकेली क्या कर रही हो?’’

सवाल के जवाब में वह खामोश खड़ी रही। मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था।

''घर क्यों नहीं जाती हो?... चलो मैं संग चलता हूं। मुझ पर भरोसा करो। मैं तुम्हें घर छोड़ दूंगा।’’

मैंने कहा पर मेरे शब्द उसकी चुप्पी नहीं पिघला सके। शायद मेरे सवालों ने उसे काठ की गुडिय़ा बना दिया। मैं कुछ देर खड़ा रहा। वह भी खड़ी रही। मैं अचरज में था उसे कहीं जाने की जल्दी नहीं थी। मेरे आगे दो ही रास्ते थे या तो मैं उसे छोड़कर अपनी राह निकल जाऊं या फिर इसे इसके घर पहुंचा दूं।

''चलो...’’

''नहीं। मैं उस घर में नहीं जाऊंगी।’’

''पर क्यों?’’

उसने गहरी सांस ली, एक घूंट-सा भरा।

''बस।’’

''ये क्या बात हुई? देखो! कई बार घर में कुछ बातें हो जाती हैं पर इससे क्या कोई घर छोड़ देता है?’’

''मैं नहीं जाऊंगी। आप जाओ। आपको जाना है तो।’’

इस बार उसके शब्द सख्त थे। मैंने महसूस किया उसके शब्दों ने मेरे पैरों में जंजीर-सी डाल दी। ऐसा लगा जैसे नीचे जमीन ही नहीं है।

''देखो! मैं ऐसे नहीं जा सकता। खासतौर पर अब तो नहीं।’’

मुझे बताओ न क्या बात है? मैंने कहा

मेरे स्वर की दृढ़ता भांपकर वह बोली-

''आप मेरे साथ बैठोगे कुछ देर?’’

झिझक में लिपटा उसका सवाल मुझे घूरने लगा।

''य...हां? ....आं... हां-हां’’

लड़की के मिलने पर अंधेरा कुछ समय के लिए मुझसे दूर हो गया था पर उसके सवाल के साथ वह फिर नमूदार हुआ। रात कितनी घिर गई है। मैं फिर आशंकाओं में घिरने लगा। अंधेरे जगह-जगह घात लगाए बैठे थे। मैंने उसका साथ नहीं छोड़ा।  अंडरपास छोड़कर हम आगे बढ़े। मेरा यकीन कहता था रात के सफर में कैलेंडर के हिस्से में नया दिन उगा दिया होगा। बैठने की जगह तलाशते हम कुछ दूर चुपचाप चले। काफी आगे अंधेरे में नहाया एक पार्क दिखा। पार्क तो क्या उजाड़ ही था। टूटी मुंडेर से हम अंदर हुए और जर्जर से बेंच पर जा बैठे। दूर-दूर तक रौशनी का कोई  जुगनू भी नहीं था। ऊपर चांद की बारीक फांक और नीचे हम दोनों। वहां बैठकर मुझे अपने पैरों की थकान का जबरदस्त एहसास हुआ। दोनों हथेलियों से मैं अपने पैर दबाने लगा।

''क्या नाम है तुम्हारा?’’

''मेरा नाम यशू है... आप भूल गए?’’

''पहले लग रहा था... अब...’’

यशू के शब्द ने आखिर मेरे भरोसे की डोर को थाम लिया था।

''मैं घर से भाग आई हूं। अब मेरा मन वहां नहीं लगता।’’

मैंने अंधेरे में ही उसके चेहरे की रेखाएं टटोलीं वहां घर से लगाव का कोई रेशा मुझे न दिखा। वो बामुश्किल पंद्रह-सोलह बरस की होगी। मैं हकबका गया। अब क्या करूंगा? मेरा दिमाग चौगुनी र$फ्तार से काम कर रहा था। यहां आस-पास कोई फोन भी नहीं और फोन होता भी तो इसके घर का नम्बर कहां था मेरे पास? कैसे खबर करूं इसके घर? मेरी चिंताओं को किसी करवट चैन न था।

''आज पापा ने मुझे बहुत मारा... मैं नहीं जाऊंगी घर।’’

उसकी दृढ़ता भांपकर मुझे कोई सही जवाब नहीं सूझा पर मेरी खामोशी उसे चुभ न जाए और कारण पूछना अखरे नहीं इसलिए मैंने कहा - ''हां, होता है ऐसा कई बार।’’

कुछ देर एक लंबी खामोशी हमारे बीच रहीं फिर वह बोली -

''मैंने आपसे कभी नहीं कहा, पर आप मुझे बहुत अच्छे लगते हो।’’

सुनकर मैं सकपकाया। लड़की उम्र में मुझसे काफी छोटी थी। कुछ क्षण रुककर मैं बोला -

''हां इसमें क्या है, तुम भी बहुत अच्छी हो।’’

''नहीं... आप सच में मुझे बहुत पसंद हो। आप जब दिखते थे मोहल्ले में मैं चाहती थी आपसे कभी बात करूं।’’

इस बार लड़की की आवाज़ कम लरज़ी। सकुचाई तो कतई नहीं। अब तक वह पूरी तौर पर संयत हो चुकी थी। मेरे यकीन की हद के भीतर उसकी कंपकंपी, रुलाई और डर की हर दीवार ढह रही थी।

''लेकिन हम तो कभी मिले ही नहीं। हम क्या बात करेंगे?’’

अब तक मैंने जान लिया था कि इससे डांट-डपट नहीं की जा सकती और समझाना भी अभी बेकार रहेगा फिर इस रात में, इस बियाबान में इसे अकेला कैसे छोडूं? यही सब सोचकर मैं उसकी बातें पूरे धैर्य से सुनता रहा। ऐसे कि उसे लगे कि मैं उसकी बातों में दिलचस्पी ले रहा हूं। उसके पास अनंत बातें थीं। धरती से लेकर चांद की, हवाओं से लेकर दरियाओं की, आग से लेकर फूल की। वह जिस गति से बोले जा रही थी उस गति से मेरी चिंता बढ़ती जा रही थी। मैं अपनी चिंता को भरसक छिपा रहा था।

''मैंने कभी इतने तारे एक संग नहीं देखे। तारे तो क्या मैंने रात के इस वक्त कभी आसमान ही नहीं देखा... कितना सुंदर है ये आसमान।’’

वह पूरी बेफिक्री में आसमान को निहार रही थी। मैं सोचने लगा कितना फर्क है कुछ देर पहले की आरै इस समय मेरे साथ बेंच पर बैठी इस लड़की में। सिर उठाकर आसमान को देखा तो लगा जाने कितने अर्से बाद मैं भी एक पूरा आसमान देख रहा हूं। आसमान में बिखरे चिंदी-चिंदी तारों को देख रहा हूं। अंधेरा भी खूबसूरत हो सकता है - आज के तमाम बुरे अनुभवों में ये पहला सुकून मेरे जेहन में दर्ज हुआ। हम दोनों बिना कुछ बोले देर तक अपने हिस्से का आसमान और आसमान के हिस्से के चांद-तारे निहारते रहे। शाम ढलने के बाद केवल यही क्षण था जब सारी चिंताएं आसमान ने परे धकेल दी। समय अंधेरे के नुकीले सिरे घिसने लगा। लड़की फिर बोलने लगी। उसके पास किस्सों की कमी नहीं थी और किस्सों के सिरों को बिना किसी तरतीब से जोड़े वह एक पगडंडी से दूसरी से तीसरी पर बेधड़क बढ़ती गयी। कुछ समय बाद बोलते-बोलते उसने अपने दोनों पैरों को बेंच पर सिकोड़कर रखा। वह मेरे नजदीक आई और मेरे कंधे पर सिर रख दिया। धीरे-धीरे आसमान को निहारते हुए उसकी आंखें मुंदी और वह सो गई।

मैं खामोश रहा। अपने हिलने-डुलने को मैंने बेहद नियंत्रित कर लिया कि लड़की की नींद में कोई खलल न पड़े। मैंने इस कदर अपने कंधे को उचका लिया कि उसका सिर उसमें पूर इत्मीनान से अटका रहे। मैं उसकी राहत की तमाम कोशिशें कर ही रहा था कि मेरा खून सूख गया। अचानक मन में ख्याल आया कि यदि यहां कोई आ जाए तो हम दोनों को देखकर क्या सोचेगा? उसकी नाबालिग उम्र और आदमी की उम्र का मैं? किसी भी सोचने वाले के मन में ओछा इरादा ही सिर उठाएगा। सोचते हुए आदतन मेरे नाखून दांतों के तले चले गए। मैं उन्हें काटने लगा। बचपन से मेरी परेशानी है। चिंता सवार होती है तो मैं नाखून कुतरने लगता हूं। मेरा मन मुझे धिक्कारने लगा। मैंने  क्यों डांट-डपट से इसे सीधा नहीं किया? क्यों आ बैठा इसके साथ? अपने सवालों के साथ मैं बेहरकत कुछ देर बैठा रहा। मन में फिर एक सवाल कौंधा - ''इस लड़की ने मुझसे ये क्यों कहा कि आप मुझे बड़े अच्छे लगते हैं?’’ इस बार मैंने नजर भरकर उसके चेहरे को देखा पर चेहरे ने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने उसके सिर के दबाव को अपने कंधे पर और महसूस किया। वो गहरी सो चुकी थी। वो मुझसे सटी हुई थी। उसके सारे शरीर का भार मुझ पर था। रात की उस हल्की ठंडक में एक गर्म भाप मेरे कंधे को छू रही हो। यही नहीं उसकी सांसों की आवाज़ को मैं बहुत अच्छी तरह सुन पा रहा था। मेरे पूरे बदन में एक झनझनाहट दौड़ गई। दिल में अजीब-सी बेचैनी होने लगी। मैंने अपने सूखते गले में एक घूंट भरा, थूक निगला। मैं उसके बेहद नजदीक था। मेरा हाथ उसके कुर्ते के किनारे को छू रहा था। थोड़ी देर में वो किनारा मेरे नाखून के नीचे था। मैंने महसूस किया कि नाखून बढ़ रहा है। नुकीला, खूंखार और निर्मम। मैंने गहरी सांस ली। अपने दिल की धड़कन को महसूस किया। मैंने देखा उस वीराने में बहुत सारे नाखून उग रहे हैं। खून से सने। मैं बहुत सारी गहरी आंखें आग-सी दहकती हुई महसूस कर रहा था। उस वीराने में कई जोड़ी हाथ उगने लगे हैं। सब तरफ अंधेरा था। मैंने झटके से आंखें खोलीं। अपनी सांस को महसूस किया। मैंने हाथ को देखा और चुपचाप लड़की के कुर्ते के किनारे से उसे अलग किया। मेरी हथेली पसीज गई थी। अपने हाथों को अपने घुटनों पर रखा और आंखें गड़ाकर देखा उस वीराने में कोई नहीं था। न हाथ, न आंखें और न नाखून। मैंने एक हाथ से अपनी आंखों को साफ किया और बुदबुदाया-बुरा आदमी। मैं हल्के-से मुस्कुराया। फिर से मेरे शब्द मुझे सुनाई दिए- बुरा आदमी। कहीं दूर चिडिय़ाओं के चहकने की हल्की-सी आवाज़ सुनाई दी। मैंने देखा आसमान की धरती चटखने लगी और उसकी कालिमा धुंधला रही है।

 

 

दिल्ली के एक महाविद्यालय में अध्यापनरत प्रज्ञा ने पिछले वर्षों में अनेक उपलब्धियाँ हासिल की हैं। अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हैं। उनके अब तक दो कहानी संग्रह और दो उपन्यास प्रकाशित हैं। नुक्कड़ नाटकों और बाल साहित्य पर भी सृजनात्मक रूप से सक्रिय हैं। 'पहल’ में प्रकाशित कहानी ''मन्नत टेलर्स’’ का व्यापक स्वागत हुआ।

संपर्क- मो. 9811585399, दिल्ली

 


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