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जुलाई २०१३

जा बैठा वो मानसरोवर पे

राजकुमार केसवानी

साठ और सतर का दौर भोपाल का बेहद रोशन और दिलचस्प दौर था। अलसाते-ऊंघते माहौल में कोई किसी से आगे निकलने की जल्दी में नहीं था। सड़कों पर चलते हुए जान का जोखिम कम और फ़िकरों का जोखिम ज़्यादा था। और भोपाली फिकरों की खूबी यह है कि उसमें सुनने वाले और सुनाने वाले, दोनों के लिए ही बराबरी से मुस्कराने की वजह मौजूद होती है।
इधर साहित्यिक और सांस्कृतिक परिदृश्य पर हिंदी और उर्दू अदब की सरगर्मियां भी लगभग बराबरी से अपने-अपने अन्दाज़ में जारी थीं। हिंदी और उर्दू तब भी दाहिने से बाएं और बाएं से दाहिने लिखी जाती थी लेकिन इन दोनों भाषाओं के कवि-लेखक अक्सर साथ-साथ एक ही दिशा में बैठे दिखाई देते थे। हमीदिया रोड के डिलाईट होटल का लान और उस पर ढुलके शराब के क़तरे याद रखने वालों की याद में अब भी खुश्बू फैलाते हैं। इस जगह के साथ गजनान माधव मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई, साहिर लुधियनवी, जांनिसार अख्तर, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आज़मी, ताज भोपाली, कैफ भोपाली, शरद जोशी, ज्ञानरंजन, अक्षय कुमार जैन और न जाने कितने नाम जुड़े हैं। इनमें से कुछ शहर में ही रहते थे तो कुछ बाहर से आते-आते इसी शहर के मान लिए गए थे।
सरगर्मी से भरे ऐसे ही दिनों में शरद जोशी का नाम बार-बार प्रमुखता से सामने आता रहता था। कभी 'नवलेखन' नाम की पत्रिका के संपादक के तौर पर, कभी 'धर्मयुग' और 'नईदुनिया' में प्रकाशित रचनाओं के कारण तो कभी किसी अदबी जलसे के आयोजन के साथ तो कभी किसी नाटक के प्रदर्शन के सिलसिले में। उनकी सक्रियता का दायरा इतना बड़ा था कि इन तमाम चीज़ों में दिलचस्पी रखने वाला शहर का हर आदमी या तो उनसे निजी तौर पर परिचित था या फिर उनके काम से परिचित था। शरद जोशी से मेरा परिचय भी दो कदम चलकर ही हुआ। पहले कदम पर उनके नाम और काम से परिचय हुआ और दूसरे कदम पर शरद जोशी से परिचय हुआ। पहली ही मुलाकात में उन्होंने जिस तरह व्यवहार किया, उसके चलते मेरे और उनके बीच का 19 साल का फासला कभी याद नहीं आया। शुरू में घर से कुछ कदम की दूरी पर आबाद एक रेडीमेड कपड़ों की दुकान 'इन्द्र-धनुष' पर शरद जी से कभी-कभार मुलाकात होती रही। बाद को यह सिलसिला आगे बढ़ा और आए दिन की मुलाकात में तब्दील हो गया। इन्द्र-धनुष के मालिक मदन मोहन तापडिय़ा के पिता की पहचान बेग़म/नवाब भोपाल के खज़ांची की थी। इसी से उनका घर खज़ांची जी की हवेली और गली खज़ांची गली कहलाती थी। मदन बाबू ने अपने साहित्य प्रेम के चलते किसी बेग़म या नवाब की बजाय खुद को साहित्यकारों का खज़ांची बना लिया। वे गीत लिखते थे। बल्कि अभी 85 वर्ष की उम्र में भी लिख ही रहे हैं। अब जाकर वे अपना पहला संग्रह प्रकाशित करवाने की तैयारी में हैं।
तापडिय़ा जी की दुकान पर ग्राहकों से ज़्यादा साहित्यकारों की बैठक जमती थी। इनमें हर वो नाम शामिल है जिसका ज़िक्र डिलाईट होटल के साथ आया है। मुक्तिबोध, परसाई सहित कई सारे लोग तो उनकी हवेली में बतौर मेहमान भी रह चुके हैं। शरद जी के तमाम सारे वेंचर्स में आर्थिक सहयोग देने में वे सबसे आगे रहते थे। मुझे बखूबी याद है कि शरद जी ने ओम शिवपुरी, सुधा शिवपुरी और दिनेश ठाकुर जैसे कलाकारों के साथ प्रसिद्ध हुए मोहन राकेश के नाटक 'आधे-अधूरे' को भोपाल आमंत्रित कर लिया। खर्च बड़ा था और पैसे थे नहीं। शरद जोशी पैसे की वजह से किसी काम से चूक जाएं, यह उनकी फितरत में नहीं था। सो कुछ अपनी जेब काटी और कुछ तापडिय़ा जी की। उनके हाथ में टिकट थमाकर, पैसे ले लिए। कहा; इसे बेचो और पैसे वसूल करो। टिकट खूब बिके और दो दिन के बाद भी और शोज़ की पब्लिक डिमांड बनी रही। पैसे-धेले की इतनी कम परवाह करने वाला दूसरा इंसान मैंने नहीं देखा। लगभग पैंतीस साल पुरानी बात होगी। शरद जी फिल्मों में लिखना शुरू कर चुके थे। उनकी लिखी एक फिल्म 'क्षितिज' रिलीज़ हो चुकी थी। वे बम्बई और भोपाल के बीच ज़रूरत और सुविधा के अनुसार वक्त बांट लेते थे। ऐस ही एक दिन जब वे भोपाल में थे तो मैं उनके साथ शाम के वक्त टी.टी. नगर के जी.टी.बी. काम्प्लेक्स में टहल रहा था। अचानक हमारी नज़र हवा में लहराते कपड़े के एक बैनर पर पड़ी जिस पर लिखा था - 'अवंतिका - स्पेशल डिसकाउंट सेल 50त्न + 20त्न'। अवंतिका, सरकारी टेक्स्टाईल कारपोरेशन का रीटेल शो रूम था जिसमें काफी वाजिब दामों में कपड़े मिल जाते थे। उस पर इतने बड़े डिसकाऊंट का आफर काफी लुभावना था।
शरद जी के अंदर एक ऐसा बच्चा था जो छोटी-छोटी बातों में भी खुशी ढूंढ लेता था। बैनर की इबारत पढ़ते ही शरद जी कुछ करने को मचल गए। उन्होंने मेरी तरफ देखा और बड़े तंज़िया अन्दाज़ में कहा - 'ये साले सीधे-सीधे नहीं लिख सकते थे - सौ का माल तीस में ले लो, सौ का माल तीस में।' चलो आओ, मुफ्त का आईडिया दे के आते हैं।
मैं भी मुस्कुराते हुए शरद जी के पीछे-पीछे शो रूम में घुस गया। डिस्काऊंट आफर के बावजूद उस वक्त वहां कोई भीड़ नहीं थी। अंदर घुसते ही शरद जी की नज़र काऊंटर पर फैली पड़ी शट्र्स पर पड़ी और वो सलाह देना भूलकर शट्र्स उठाकर देखने लगे। दो-चार शर्टे उठाकर वापस पटक दीं। फिर हाथ के इशारे से सेल्समेन को एक चौड़ी लेकिन बेहद सलीके से बनी चौकड़ी वाली एक शर्ट की ओर इशारा करते हुए दिखाने को कहा।
शर्ट को हाथ में लेकर खोला और बिना देर मुझसे पूछा - कैसी लगती है?
मैंन कहा - बहुत सुन्दर है। अच्छी लगेगी आप पर।
मेरे जवाब पर मुझे कोई प्रतिक्रिया देने की बजाय उन्होंने सीधे सेल्समेन से छेड़ भरे सवालिया टोन में पूछा - थटी (आशय थर्टी से) रुपीज़?
जवाब मिला : नहीं, थर्टी सिक्स रुपीज़ सर।
शरद जी को अपने रंग में आने का मौका मिल गया था। पूछा : सत्तर काट लिए हैं या अभी काटोगे? अब बेचारा सेल्समेन तो ठहरा सेल्समेन, वह क्या जाने शरद जोशी के शब्द जाल को। उसने अपने सेल्समेन धर्म का निर्वाह करते हुए मुस्कराने वाले अन्दाज़ में अपने होंठों को थोड़ा खोला और जवाब दिया - 'सर, 50 प्लस 20 पर्सेंट डिसकाऊंट के बाद थर्टी सिक्स है सर।'
'अच्छा। और ये इसके इस खुरदरे कपड़े को क्या कहते हैं?' शरद जी ने फिर एक सवाल दागा।
सेल्समेन ने जवाब दिया - 'काटन ही है जी। गर्मियों के सीज़न के लिए बहुत अच्छी है'
न जाने क्यों मैं बीच में कूद पड़ा और न जाने किस इल्हाम के भरोसे बिना हकीकत जाने बोल दिया 'शरद जी, यह चीज़ काटन है।'
वे बोले : 'वाह! मतलब काटन का काटन और चीज़ की चीज़। क्या शानदार चीज़ है। ऐसी चीज़ तो लेना ही चाहिये।'
ऐसा कहते हुए अपने टिपीकल अंदाज़ में चश्मे से आंखें ज़रा बाहर निकालते हुए उन्होंने मुझसे सवाल किया : 'क्या बोलता है। ले लें?' मैंने भी स्वीकृति में सर हिलाते हुए कहा : 'ले लें। बहुत खूबसूरत है।' इस पर उन्होंने फौरन गर्दन सेल्समेन की ओर मोड़ी और कहा 'चलिए दे दीजिए।'
सेल्समेन ने नाप-जोख के बाद शरद जी के लिए एक शर्ट निकाली और उसे पैक कर दिया। शरद जी ने फौरन टोका : 'बस एक!' मेरी ओर इशारा करते हुए बोले : 'एक गरीब इंसान और भी है। यह भी तो पहनेगा कि नहीं? एक और निकालिए इनके साईज़ का।'
इस बात पर मैं चौंक गया। शरद जी की जेब की हाल मुझसे छिपी न थी। उस जेब से दो शर्ट खरीदने का मतलब होता उसे लगभग खाली कर देना होता। मैंने ऐतराज़ वाले अंदाज़ में कहा : 'शरद जी, एक ही लीजिए। मेरे पास तो अभी काफी कपड़े हैं।'
इस 'काफी कपड़ों' वाले एक्स्प्रेशन पर मेरी 'काफी' खिंचाई हुई। आखिर में मेरी सतही ना-नुकुर को नज़र अंदाज़ करते हुए मेरे लिए भी एक शर्ट ले ही ली गई। सच तो यह है कि वह शर्ट मुझे इस कदर भाई थी कि मन ही मन मैं उसे खरीदने की कामना करने लगा था लेकिन शरीर पर चढ़े कपड़ों में ऊपर-नीचे लगे चार पाकेट, एक हिप पाकेट और एक वाच पाकेट में कुल मिलाकर इतने ही पैसे थे कि गिनती में इन सारे पाकेट्स में बराबर-बराबर बांट देता तो एक-एक के हिस्से में बमुश्किल दो-दो रुपए आते। जिस घड़ी शरद जी ने शर्ट का पैकेट मेरे हाथों में थमाया उस वक्त एक झिझक के बावजूद हाथों में किसी तरह की लरज़िश तो नहीं थी लेकिन मैं अंदर से पूरी तरह भीग चुका था। अब तक मैं शरद जी की जेब की खस्तगी और उनकी ज़रूरतों के बीच हरदम जारी जंग से बखूबी वाक़िफ हो चुका था. सो मेरे पास भावुक होने की एक जायज़ वजह थी। इसी भावुकता के चलते आज पैंतीस बरस बाद भी पूरी तरह घिस चुकी वह शर्ट मेरी अलमारी में रखी हुई है।
अपनी-अपनी शर्ट लेकर हम जब बाहर निकले तो शरद जी ने फिर चौंकाया। 'चल, काफी हाऊस चलते हैं।' शरद जोशी का काफी हाऊस जाने का मतलब होता फिर से खर्च। वह भी तब, जब जेब लगभग खाली हो चुकी हो। काफी हाऊस में बिल का भुगतान करने को वो अपना एकाधिकार मानते थे फिर चाहे टेबल पर कितने ही लोग क्यों न हों। बहरहाल, हम काफी हाऊस गए। काफी पी। किस्मत से कोई और परिचित नहीं मिला। सो जेब की लाज भी रह गई। शरद जी ने भुगतान किया और हम खुशी-खुशी वहां से निकल आए।
शरद जी के भोपाल आने पर ऐसी घटनाओं का होना बहुत सामान्य सी बात थी। बम्बई से आते तो सबसे पहले वे हिंदी ग्रंथ अकादमी के दफ्तर पहुंच जाते, जहां रामप्रकाश त्रिपाठी काम करते थे। वहीं से फोन पर मुझे खबर देते कि वे आ गए है। इसका मतलब होता कि मैं भी वहां पहुंच जाऊं। मैं भी अपने सारे काम छोड़कर पहुंच जाता था। यूं शरद जी को पैदल या फिर बस में घूमने का भी खूब अभ्यास था लेकिन जब कभी पुराने शहर के गली-कूचों में जाना हो तो स्कूटर से बड़ी आसानी हो जाती थी। शर्ट वाला किस्सा बयान करते हुए बीच-बीच में कहीं से एक और मंज़र बार-बार आकर मेरी आंखों के आगे आकर घूम रहा था। मुझे याद दिला रहा था कि शरद जोशी का मतलब हर वक्त हंसी-ठठा और कहकहे नहीं था। बीच-बीच में भयानक तनाव के क्षण भी आ जाते थे। हां, इतना जरूरी है कि वे क्षण, क्षणिक ही होते थे।
जिस घटना के दृश्य का ज़िक्र मैंने अभी किया, वह एक तरफ तो शरद जोशी की खुद्दारी को ज़ाहिर करता है तो दूसरी तरफ उनके जीवन में घटित दीगर चीज़ों के प्रभाव को उजागर करता है। हुआ यूं कि एक दिन जब हम शरद जी के घर 30/1, साऊथ टी.टी. नगर से रवाना होने लगे तो इरफाना भाभी ने शरद जी के हाथ में एक पोस्ट कार्ड थमा दिया और कहा कि याद से गैस सिलेंडर का नम्बर लगा देना। गैस खत्म होने को है या खत्म हो गई है। साथ ही मुझे भी ताकीद कर दी कि मैं भी इस काम को याद से अंजाम करवा दूं।
उस ज़माने में सिलेंडर बुक करवाने के लिए गैस एजेंसी में जाकर गैस कनेक्शन के नम्बर वाला एक कार्ड प्रस्तुत करना पड़ता था। उस दिन हम काफी हाउस से भी पहले सीधे ब्लू फ्लेम नाम की गैस एजेंसी पहुंचे। उस वक्त वह एजेंसी एक शटर वाली दुकान में स्थापित थी, जो काफी सकड़ी थी। वहां पहुंचकर देखा तो एक टेबल पर, एक क्लर्क, एक रजिस्टर के साथ बैठा था, जिस तक पहुंचने के लिए खासी भीड़ थी। भीड़ का मतलब वहां कतार नहीं थी। लिहाज़ा सब एक दूसरे को धकेलकर आगे बढऩे और उस क्लर्क तक पहुंचने की ज़ोर आज़माइश में लगे थे।
शरद जी भी अपना कार्ड लेकर क्लर्क तक पहुंचने के लिए आगे बढ़े। भीड़ में इस कदर धकम-धक्का वाला आलम ता कि जब भी कोई 'वीर पुरुष' आगे बढऩे के लिए किसी ओर को पीछे धकेलता तो कई सारे दूसरे लोग बेवजह ही धक्के खाकर पीछे पहुंच जाते। इन बार-बार पीछे धकेले गए लोगों में शरद जी भी शामिल थे। वजह यह कि वे आगे बढऩे के लिए किसी तरह का बल प्रयोग नहीं कर रहे थे। मैं काफी देर तक इस स्थिति को देखकर क्रोधित होता रहा और शरद जी की मेरी ओर फेंकी हुई लाचार मुस्कान से शांत भी होता रहा। आखिर मुझसे न रहा गया और मैंने पूरे क्रोध में आकर बढ़कर सबसे पहले शरद जी से बिना कोई बात किए ही उनके हाथ से कार्ड ले लिया। फिर बेहद ऊंची आवाज में भोपाली जुमलों के साथ चीखते हुए पूरी ताकत से आगे निकल गया। अचानक ही लोगों ने मेरे लिए जगह बना दी और मैं फटाफट उस क्लर्क और रजिस्टर तक पहुंच गया। मैंने ज्योंही क्लर्क की तरफ कार्ड आगे बढ़ाया ही था कि तभी किसी ने मेरा गरेबान पकड़ लिया। मुड़कर देखा तो शरद जी ने मेरा कालर पकड़ रखा है। इससे पहले कि मैं अपनी उस अवाक सी अवस्था से बाहर निकलकर कोई बात कहता, शरद जी ने पूरे ज़ोर से चिलाते हुए मेरे हाथ से कार्ड छीन लिया।
'क्या समझते हैं आप अपने आप को? आप साले शहर के बड़े दादा हैं और हम साले बड़े कमज़ोर, निरीह प्राणी हैं, जो आपकी दया से जियेंगे? चलिए लाइए इधर मेरा कार्ड।'
अविश्वास और सदमे से भरा मैं, उस घड़ी सोच ही नहीं पाया कि इन सब बातों का क्या जवाब दूं। बस शरद जी को गुस्से से देखा और बाहर निकल आया। क्रोध में जेब से एक सिगरेट निकाली और सुलगा कर अपने स्कूटर पर बैठ गया। मैं सोचने लगा कि बस सिगरेट पीकर चल पड़ूंगा। ऐसे इंसान के साथ रहने से कोई फायदा नहीं जो आपके जज़्बात की कद्र ही नहीं कर सकता। जिसे इतने बरसों के रिश्ते का ज़रा भी पास नहीं। वह भी तब जब मैंने सारा हगामा उसी इंसान की तकलीफ से उद्वेलित होकर किया था।
इसी फैसले के साथ मैंने पूरे क्रोध के साथ स्कूटर पर किक मारी। स्कूटर तो स्टार्ट नहीं हुआ उल्टा किक ने वापस उछलकर मेरी टांग को ज़रूर ज़ख्मी कर दिया। दर्द का शदीद एहसास पूरे जिस्म में फैल गया। लगा कि अन्दर ज़रूर खून भी बह रहा होगा लेकिन अपने बेकाबू क्रोध में डूबे-डूबे मैंने स्कूटर को एक गाली बकते हुए ज़ोर से एक किक और मार दी। स्कूटर स्टार्ट हो गया। इससे पहले कि मैं गाड़ी गेयर में डालकर आगे बढ़ता, शरद जी आकर पीछे की सीट पर बैठ गए। मैंने आफ का स्विच दबाकर गाड़ी बंद कर दी। शरद जी फौरन गाड़ी से नीचे उतर गए और एक सवाल किया : 'बहुत बुरा लगा न?' मैंने जवाब देने की बजाय गुस्से से बिगड़ा हुआ मगर लालम-लाल हो रहा अपना चेहरा शरद जी की तरफ घुमाया। उन्होंने चेहरे की उस मुद्रा की पूरी तरह अनदेखी करते हुए कहा : 'श्रीमान जी, आपने जिस तरह मुझसे कार्ड छीनकर मुझे एक निरीह स्थिति में छोड़ा था, उस वक्त मुझे भी इतना ही बुरा लगा था। आपको इस बात का भी अहसास है या नहीं?'
मैंने मुंडी घुमा ली। उन्होंने मेरे कांधे पर हाथ रखकर सलाह दी : 'किसी की मदद करते वक्त भी इस बात का ध्यान ज़रूर रखा करो कि मदद के साथ किसी के स्वाभिमान पर चोट न हो। अब तुम्हारी मुश्किल यह है कि तुम भोपाली आदमी हो, जो करता पहले है और सोचता बात में हैं। चलो, सोचना इस बारे में। फिर बात करेंगे।'
ऐसा कहते हुए वे पैदल ही काफी हाऊस वाली दिशा में चल पड़े। उन्हें इस तरह अकेले पैदल जाते हुए देखकर मैं थोड़ा विचलित हुआ। मुझे भी अपनी कार्ड छीन लेने वाली हरकत बेजा लगने लगी थी। मेरे इस सोच-विचार के दर्मियान ही शरद जी कुछ दूर निकल गए थे। मैंने फौरन स्कूटर स्टार्ट किया और उनके पास जाकर स्कूटर रोका और कहा : 'बैठिये'। उन्होंने मुस्कराते हुए टोका : 'बस। हो गया गुस्सा ठंडा? ज़रा मुंह दिखाओ।' ऐसा कहते हुए उन्होंने मेरे चेहरे को अपने हाथ में ले लिया और एक झटके के साथ छोड़ भी दिया। 'साला, अभी तलक करंट मार रेला है'। ऐसा कहकर उन्होंने ठहाका मारा।
मुझे शरद जी के इस डायलाग बोलने के अंदाज़ और चेहरे पर आए हुए एक्स्प्रेशंस ने हंसने पर मजबूर कर दिया। मैंने फिर आग्रह किया कि वे स्कूटर पर बैठें। वे बिना और बहस बैठ गए और काफी हाऊस चलने को कहा। हालांकि काफी हाऊस बहुत नज़दीक था और वहां पहुंचने में बमुश्किल दो-तीन मिनट ही लगे होंगे लेकिन इन पूरे दो-तीन मिनेट में पीछे से बैठे-बैठे वे मुहब्बत और शफकत से मेरी पीठ पर हाथ फेरते रहे। उस घड़ी मुझे यूं महसूस हुआ मानो मां बुखार से तपते माथे पर ठंडे पानी की पट्टियां लगा रही हो।
शरद जी ने उन दिनों कवि सम्मेलनों में रचना पाठ का नया सिलसिला शुरू किया था। बम्बई में रहते हुए जिस तरह वे फिल्मों के लिए लिखने में जितने नाज़-नखरे दिखाते थे, उसके चलते घर चलाने के लिए पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लिखने के साथ ही साथ यह नया काम भी ज़रूरी था। फ्री लांसर होकर जीना और वह भी अपनी शर्तों पर, निहायत मुश्किल काम है। इस ह$की$कत को कोई 'फ्री लांसर' ही समझ सकता है। मैंने भी अधिकांश समय फ्री लांसर की तरह पत्रकारिता की है। तब भी यही कर रहा था। एक दिन शरद जी ने काफी हाऊस में बातचीत के दौरान सवाल किया - 'तुम फ्री लांसर हो न?' मैंने जवाब दिया - 'हूं तो।' वे बोले चलो ज़रा यह तो बताओ कि इस फ्री लांसर को हिंदी में क्या कहते हैं। मैं ताड़ गया था कि वे कोई दूर की कौड़ी लाने वाले हैं लिहाज़ा मैंने जवाब की बजाय उनसे ही सवाल किया 'आप ही बताइये'।
शरद जी ने मस्ती भरे मूड़ में जवाब दिया - 'हिंदी में फ्री लांसर का मतलब हुआ - मुक्त बल्लम-धारी। समुराई की ही तरह पुराने ज़माने में योद्धाओं को लडऩे के लिए हायर किया जाता था। इन्हीं को फ्री लांसर कहा जाता था। अब हम जैसे लोग कलम से बल्लम का काम लेने की कोशिश करते हुए, फ्री लांसर कहलाते हैं।'
1977 में मैंने एक दुस्साहस किया, जिसकी वजह से आगे जाकर मेरा स्कूटर भी बिक गया। मैने एक साप्ताहिक अखबार 'रपट' का प्रकाशन शुरू कर दिया। इस आठ पन्ने के छोटे से साप्ताहिक में शशांक, राजेश जोशी, रामप्रकाश त्रिपाठी और विनय दुबे जैसे मित्रों के साथ ही अंतिम पृष्ठ पर शरद जोशी का भी एक रेग्यूलर कालम था, जिसका नाम मैंने रखा था 'मानसरोवर से'। दरअसल यह नाम मैंने बम्बई के उस मानसरोवर होटल के नाम से प्रभावित होकर रखा था जहां वे रहते थे लेकिन इस हकीकत से नावाक़िफ कुछ प्रबुद्धजनों ने इस नाम के साथ असली वाले मानसरोवर को जोड़कर देखा और मेरी 'इंटेलीजेंस' की दाद दे डाली।
अखबार निकालने के लिए इंडियन ओवरसीज़ बैंक से लोन लेकर प्रेस लगा लिया था। इस बैंक के मैनेजर थे मृदुल कुमार चतुर्वेदी। वे इलाहाबाद के रहने वाले थे और साहित्य से खासा लगाव था। इसी तुफेल में वे मेरी मदद भी करते थे।
एक दिन इन्हीं चतुर्वेदी जी ने इच्छा प्रकट की कि वे शरद जोशी से मिलने की तमन्ना रखते हैं।
'मानसरोवर से' पढ़कर उन्हें यकीन हो चुका था कि मैं उनकी इस इच्छा पूर्ति का साधन बन सकता हूं। मैंने बिना एक सेकंड की देर किए मुलाकात करवाने का वादा कर लिया। 'अगली बार जब भी वे भोपाल आएंगे तो ज़रूर मिलवाऊंगा।'
कुछ दिन बाद वे आ भी गए, हस्बे-मामूल किसी कवि सम्मेलन में जाने के लिए उनको ट्रेन में रिज़र्वेशन भी चाहिये था सो हम लोग स्टेशन गए। स्टेशन से वापस न्यू मार्केट जाते हुए पहले दस कदम पर ही बैंक पड़ता था। मैंने शरद जी को बताया कि उनका एक ज़बरदस्त फैन है जो उनसे मिलने को बेताब है और मैंने वादा भी कर लिया है। वे बोले - जब वादा कर ही लिया है तो निभाओ। और क्या?
मैं उनको बैंक ले गया। चतुर्वेदी जी से मिलवाया। उन्होंने जिस तरह शरद जी के प्रति आदर भाव दिखाते हुए उनका स्वागत किया, उसका असर यह हुआ कि बैंक में मौजूद स्टाफ और ग्राहकों की नज़र बार-बार मैनेजर के ग्लास चैम्बर की तरफ घूम जाती थी। चतुर्वेदी साहब ने काफी विस्तार से अपने परिवार का परिचय देते हुए शरद जी की व्यंग कथाओं का उल्लेख करते हुए यह साबित कर दिया था कि वे और उनका परिवार शरद जी के परम भक्त हैं। ज़ाहिर है, मैनेजर साहब की खुशी देखकर मैं भी खुश था। अब यह तो कोई बताने वाली बात नहीं है कि क्यों?
आव-भगत से खुश तो शरद जी भी थे। वे खुद से ज़्यादा अपनी रचनाओं की प्रशंसा से प्रसन्न होते थे। सब कुछ बढिय़ां हो गया, आखिर हम लोगों ने जब चतुर्वेदी जी से जाने की आज्ञा चाही तो उन्होंने हाथ जोड़कर अनुरोध किया : 'जोशी जी, आज केसवानी जी के सौजन्य से आपसे भेंट हो गई। मेरा अहो-भाग्य। आप खुद चलकर आए, इससे बड़ी बात मेरे लिए क्या हो सकती है। बस एक इच्छा है वो पूरी हो जाये तो खुद को धन्य मानूंगा।'
शरद जी ने मुस्कुराते हुए पूछ लिया : 'जी ज़रूर बताइये।'
उसी कर-बद्ध मुद्रा में चतुर्वेदी जी ने फरमाया : 'जोशी जी, अगर आप अपना एक छोटा सा सेविंग अकाऊंट मेरे ब्रांच में खुलवा लेते तो मेरे लिए यह बड़ी उपलब्धि हो जाती। नौकरी तो चलती रहेगी लेकिन जीवन भर इस बात की खुशी रहेगी कि मैंने शरद जोशी जैसे महान लेखक का खाता अपने हाथों, अपने बैंक में खोला।'
शरद जी ने मेरी ओर मुस्कराते हुए अर्थपूर्ण नज़रों से देखा। मैं तो पूरी बातचीत के दौरान ही इन दोनों के हंसी-ठहाकों तक के दौरान मुस्करा ही रहा था, सो मेरे एक्स्प्रेशन में कोई बदलाव नहीं आया। शरद जी ने लाचार अकेले ही फैसला लिया और कहा : 'चलिए, अगर आपकी यही इच्छा है तो खोल लीजिए।' जवाब से गदगद मैनेजर साहब ने फौरन ज़रूरी कागज़-पतर अपने हाथों भर डाले, शरद जोशी से उन पर दस्तखत करवाएं। खुद ही सलाह दी कि बस एक सौ एक रुपए ही जमा करवाएं, ज़्यादा नहीं। सलाह पर अमल किया गया। खाता खुल गया और हमें बाहर निकलने की इजाज़त मिल गई।
चतुर्वेदी जी हमें बाहर तक छोडऩे आए। जब हम दोनों लम्ब्रेटा स्कूटर पर सवार हुए तो उन्होंने टोका 'केसवानी जी, कार लीजिए। अच्छा नहीं लगता कि जोशी जी इस तरह स्कूटर पर घूमें।' एक निरर्थक हंसी के साथ मैंने स्कूटर आगे बढ़ाया। दस कदम आगे ही पहुंचे थे कि शरद जी ने स्कूटर रोकने को कहा। वे स्कूटर से उतर गए। मुझे भी नीचे उतरने को कहा। इसके बाद उन्होंने पूरे अभिनय के साथ बिगड़ते हुए कहा : देखिए, श्रीमान, वह बात इसी वक्त तय हो जाना चाहिए कि आप भविष्य में फिर कभी मुझे अपने किसी फैन से नहीं मिलवाएंगे... मैं एक गरीब लेखक, अगर अपने हर फैन को इसी तरह मुझे एक सौ एक रुपए देने पड़ेंगे तो मेरे तो बच्चे भूखे रह जाएंगे।
ऐसा कहकर वे ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे। बोले 'यार, अगर सचमुच ऐसा हो जाए कि लेखक द्वारा अपने हर फैन को एक सौ एक रुपया देने की परम्परा स्थापित हो जाए तब तो मैं तो फैन ही भला। बच्चों की बेफिक्री हो जाए।'
यह भी एक संयोग की ही बात है कि खेल-खेल में खुले हुए इसी बैंक अकाऊंट ने शरद जी के आर्थिक तंत्र में एक ठहराव पैदा किया। पत्र-पत्रिकाओं, खासकर 'रविवार' में छपने वाले कालम 'नावक के तीर' के चेक हमेशा ही भोपाल के पते पर आते थे। चतुर्वेदी जी ने अपने अधिकार का उपयोग करते हुए इन आऊट स्टेशन चेक्स के तत्काल भुगतान की सुविधा मुहैया करवा दी, जिसमें अन्यथा एक-एक महीने तक का समय लग जाता था।
मैं इतना सब समझने का दंभ रखते हुए भी इस बात को कभी समझ नहीं पाया कि आर्थिक दबावों में जीते हुए भी यह इंसान इस कदर शाह-खर्च कैसे है? अपने परिवार को बेहतर से बेहतर जीवन और सुख-सुविधाएं मुहैया करवाने में वे कभी पीछे नहीं रहे। यह तो खैर समझ में आने वाली बात है लेकिन दोस्तों और सामान्य से परिचय वाले लोग भी उनकी इस फैयाज़ तबीयत के दायरे से बाहर नहीं होते थे। यह सारी बातें कहने से पहले असल में मुझे यह भी बताना चाहिए था कि किन मुसीबतों के चलते शरद जोशी को भोपाल छोडऩा पड़ा था। वे हर वक्त आज़ाद तबीयत और ईमान पर कायम रहने वाले इंसान थे। सरकार के प्रचार विभाग सूचना-प्रकाशन संचालनालय में नौकरी करते थे। सरकार के प्रशस्ति गान के लिए बने हुए इस विभाग में रहकर भी वे बाकायदा सरकार की खिंचाई करते हुए लिखते थे। नेताओं की नाक काटते थे, अफसरों के अहम पर चोट करते थे। अफसर-नेता उनके खिलाफ अनुशासनहीनता की कार्यवाही शुरू करवाते थे पर बीच में कोई चाहने वाला ऐसा भी निकल आता था जो फाईल में लगे 'अनुशासनहीन' लेखक पढ़कर शरद जोशी के निडर सच की दाद देकर फाईल क्लोज़ कर देता था। लेकिन कब तक। आखिर एक दिन उन्होंने लिखते रहने के पक्ष में निर्णय लिया और नौकरी से इस्तीफा दे दिया। वे फ्री लांसर हो गए। और आखिर तक रहे।
1975 में जब देश में आपातकाल लागू हुआ तो उस आतंक के माहौल में कुछ लोगों ने इन्दिरा माई ज़िन्दाबाद के नारे बुलंद किए, कुछ अपने-अपने दड़बे में घुस गए और कुछ साहसी लोग ने बेखौफ इस अत्याचार के विरुद्ध आपातकाल में ही अपनी लेखकीय प्रतिभा से बिम्ब गढ़कर समाज को सच बता रहे थे। उसी समय उनका एक लेख 'बादलों के विरुद्ध' इन्दौर के 'नई दुनिया' में प्रकाशित हुआ। यह समाज पर छाए आपातकाल के काले बादलों के विरुद्ध एक आह्वान था जिसे पढऩे वालों ने फौरन पहचान लिया। इस नापाक इमरजेंसी से त्रस्त पाठकों ने भी शरद जी के बादलों वाले बिम्ब को लेकर 'संपादक के नाम पत्र' लिखे। देवास के ऐसे ही एक पत्र लेखक को पुलिस के अत्याचार का शिकार होना पड़ा। अमानवीय यातनाएं झेलनी पड़ीं जो अब आपातकालीन जांच आयोग की रिपोर्ट में इतिहास की तरह दर्ज है। लेकिन इस इतिहास में यह बात दर्ज नहीं है कि सरकार में बैठे लोगों ने किस तरह शरद जोशी की गिरफ्तारी और फिर ठीक से 'मज़ा चखाने' की योजना बनाई थी। लेकिन इस बार भी हमेशा की तरह सरकारी कारखाने में अपनी आत्मा को पिसने से बचाए हुए एक पुलिस अधिकारी ने शरद जोशी को वक्त रहते आगाह कर दिया ओर वे बच गए।
भोपाल से शरद जोशी को बेहद प्यार था, लेकिन 1974 के बाद उन्हें भोपाल छोड़ बम्बई जाना पड़ा। क्या हुआ? क्यों जाना पड़ा? यह सब इतनी बार कहा जा चुका है कि उसे एक बार फिर दोहराना बेकार है। लेकिन एक बात ज़रूर कहूंगा कि उनका जाना फिर-फिर लौट कर भोपाल आने के लिए ही होता था। बम्बई में उन्होंने घर की बजाय मेहमान की तरह होटल में कमरा ले रखा था। मानसरोवर होटल में। घर भोपाल में ही था। उनका वह जामुन का पेड़ उसी घर में था, जहां बैठकर वो रोज़ लिखा करते थे। बम्बई में भी वे लिखते थे हो उसी पेड़ की छांव को महसूस करते हुए ही लिखते थे।
बम्बई में उनकी एक अलग दुनिया आबाद थी। बांद्रा स्टेशनके पास बने इस होटल में ही गोविंद निहालानी भी रहते थे। शाम होते-हवाते कमरे में इतने लोग जमा हो जाते थे और इतने ठहाके गूंजते थे लगता था बांद्रा स्टेशन पर लोकल के इंदज़ार में खड़े लोगों को भरम होता होगा कि उनके आसपास मौजूद हर चीज़ हंस रही है। शरद जी के इसी कमरे में मैं इतनी बार और इतने दिन उनके साथ रहा हूं कि हर दिन की याद को ही याद करूं तो सैकड़ों पन्ने भर जाएंगे। लिहाज़ा कुछ ज़रूरी बातें कहकर ही रुक जाऊंगा।
शरद जोशी जितने अनुशासित और ज़बरदस्त लिक्खाड़ थे, उससे कहीं ज़्यादा बड़े और ज़्यादा कड़े पाठक थे। इतिहास में उनकी गहरी रुचि थी। एक मर्तबा की उनकी बात भूलती नहीं है। वे कह रहे थे कि देखो इतिहास में धोखा ही धोखा है। पुराने ज़माने में बड़े-बड़े राजा-महाराजा, बादशाह और शहंशाह जब जंग के लिए निकलते थे तो वे अपने साथ अपने इतिहास लिखने वाले दरबारियों को भी साथ लेकर चलते थे। ये कथित इतिहास लेखक हमेशा फौज की आखिरी पंगत में रहते थे ताकि पूरा हाल देख सकें और अपने मालिक का यशोगान लिख सकें। उन्हीं  के साथ-साथ सफाई करने वाले मुलाज़िम चलते थे। इनका काम होता था फौज के हाथी-घोड़ों के कदमों के निशान मिटाना और लीद जमा करना ताकि दुश्मन को उनकी फौज के मूवमेंट और ताकत का अंदाज़ा न हो सके।
कभी-कभी लोगों की ऐसी कमी पड़ती थी कि इन इतिहास लिखने वालों को भी निशान मिटाने और लीद उठाने का काम करना पड़ता था। सदियां गुज़र गई। वक्त बदला। ज़माना बदल गया। मगर यह चलन आज भी कायम है। आज भी सरकारी हरकारे दरबारी तानसेनों की प्रशस्ति गा-गा कर, हर बैजू बावरा को बेनाम करने की कोशिशों में जुटे रहते हैं। लेकिन हर दौर में जन श्रुति में जीवित सच्चाइयां समांतर रूप से जीवित रहती आती है।


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