मुखपृष्ठ पिछले अंक कहानी एक बटा एक
जून - जुलाई : 2020

एक बटा एक

शंकर

कहानी

 

 

 

 

बेटा और पिता की बहस एक बिंदु पर आकर निर्णीत हो गयी थी क्योंकि बेटे ने दसवीं की परीक्षा में चौरासी प्रतिशत हासिल कर लिये थे और अब पिता को वायदे के मुताबिक बेटे के लिए कुर्सी और स्टडी-टेबुल का जोड़ा खरीद देना था।

बेटा दसवीं में जाने के बाद लगातार स्टडी-टेबुल और कुर्सी की मांग कर रहा था और कह रहा था कि जहाँ तहाँ, जिधर तिधर बैठकर पढ़ाई करने से ध्यान टूटता है और मस्तिष्क में पढ़ी गयीं बातें पूरी तरह से ठहरती नहीं है, अगर उसे कुर्सी-टेबुल मिल जाये तो वह बहुत ध्यान से पढ़ाई करेगा। दसवीं में अच्छे अंक लायेगा, फिर बाहरवीं में भी अच्छे अंक लायेगा और इंजिनीयरिंग या मेडिकल में जाने लायक पढ़ाई कर लेगा। चंद्रमोहन बाबू ने हमेशा यही कहा था, तुम दसवीं में अस्सी प्रतिशत से ज्यादा अंक लाकर दिखा दो तो मैं मान जाऊँगा कि तुम्हें कुर्सी-टेबुल मिलना चाहिए और तुम सचमुच बारहवीं में नब्बे प्रतिशत के आसपास अंक ला दोगे। उन्होंने यह भी कहा था, पढ़ाई दिमाग के जोर से है कुर्सी-टेबुल थोड़ा ज्यादा अंक लाने में मददगार हो जायें तो हो जायें।

बेटे ने पिता की बातों को काटा था, 'नहीं पापा, अब पढ़ाई बहुत टेक्नीक से की जाती है, जैसे तैसे पढ़कर अंक नहीं लाये जा सकते हैं। ज्यादा अंक तो तभी आयेंगे जब पढऩे वाले को पढ़ी जा रही चीजों पर केंद्रित होने और उन्हें दिमाग में रखने की गुंजाइश मिले। कुर्सी और स्टडी टेबुल पढ़ाई-लिखाई के इन्फ्रास्ट्रक्चर हैं और बिना इनके अच्छा रीजल्ट संभव नहीं है।

आखिर बात यहीं तय हुई थी कि बेटा दसवीं में अस्सी प्रतिशत से ज्यादा अंक लाकर दिखाये और पिता कुर्सी और स्टडी टेबुल खरीद दें। बेटा ने दसवीं की परीक्षा में चौरासी प्रतिशत हासिल किये थे। चंद्रमोहन बाबू राजी हो गये थे कि वे कुर्सी-टेबुल बहुत जल्द ही खरीद देंगे।

चंद्रमोहन बाबू ने इच्छा जाहिर की कि किसी अच्छे फर्नीचर बनाने वाले के पास चला जाये, खुद लकड़ी चुनी जाये, खुद डिजाइन बताया जाये और उस पर बालनेट रंग चढ़वाया जाये ताकि कुर्सी टेबुल खास लगें। उन्होंने अच्छे बड़े घरों में इसी रंग के फर्नीचर देखे थे और उनका विश्वास था, इस रंग के फर्नीचर सबसे अच्छे होते हैं और देखने वालों को भी अच्छे लगते हैं।

बेटा सिर्फ पढऩे में ही तेज नहीं था, वह नये जमाने की सारी जानकारियाँ रखता था। उसने स्मार्टफोन खरीद रखा था। वह कम्प्यूटर, इंटरनेट, फेसबुक, गूगल, यूट्यूब आदि चलाने और उससे मनचाही जानकारियाँ हासिल करने के तरकीबों की महारत रखता था। वह जब तक पढ़ाई के लिए भी साइबर कैफे में जाकर विकीपीडिया से अपने काम की चीज निकाल लेता था। उसने अपने साथियों को यह करते हुए देखा था और अब उसे भी सब कुछ करना आता था।

चंद्रमोहन बाबू को ये सारी चीजें उलझनभरी लगती थीं। उन्होंने भी बेटे से कुछ कुछ सीखना चाहा लेकिन मोबाइल पर दूसरे की बात सुनने और अपनी बात दूसरे तक पहुँचाने के अलावे वे कुछ नहीं सीख पाये। बेटे ने मैसेज भेजने की तरकीब सिखायी लेकिन बटन दबाने में उनसे हर बार गलतियाँ हुई और मैसेज आध-अधूरा या अटपटे वाक्यों में ही जा पाया।

बेटे को भले ही खरीद करने के बहुत सारे मौके हासिल नहीं थे लेकिन उसे मालूम था, कौन-सी चीज कितने मूल्य में किस दुकान से आनलाइन मंगवायी जा सकती है, बाजार में किस किस दुकान पर कितना डिस्काउंट मिल रहा है, किन-किन चीजों की रियायती दरों पर मिलने वाली 'सेल’ लगी हुई है। किस किस दुकान पर 'बाय वन, गेट वन’ या 'बाय टू, गेट टू या गेट थ्री’ या 'बाय थ्री, गेट फाइव’ जैसे स्कीमें चल रही हैं जहाँ खरीदने वाला ज्यादा से ज्यादा फायदा पाये। कहीं चीजें खरीदें जा सकती हैं और पैसे किश्तों के बाद में चुकाये जा सकते हैं, किस-किस दूकान पर पहले पूरा भुगतान कर देना है और बाद में दूकानदार कैशबैक के रूप में कुछ पैसे लौटा देगा, कहां कार खरीदी जाये तो सोने का सिक्का उपहार में मिल जायेगा, कहाँ घर या फ्लैट बुक कराया जाये तो टीवी या एसी मुफ्त में मिल जायेगा, कहाँ पुरानी कार का पुराना फर्नीचर बेचा जाये और बाकी पैसे लगाकर नया पा लिया जाये। बेटा यह सब जानकारियाँ रखता था, अखबार में ऐसी जानकारियाँ ढूंढता था। जिस-जिस इलाके में घूमते हुए सड़क या दीवारों पर टंगे बोर्डों को पढ़ता था और जानकारियाँ दिमाग में दर्ज करता था। बेटा मानता था, जो यह सब जानेगा, वही आज के समय में टिकेगा। यह नया समय है और जानकारी ही ताकत है।

बेटे ने पिता को साफ कह दिया, 'पापा, आपके खयाल पुराने हैं। अब उन खयालों को लेकर नहीं जिया जा सकता। बाजार ने एक बड़ी दुनिया खड़ी कर दी है, उसमें चुनने के बहुत सारे मौके हैं। बाजार ने इसकी गुंजाइश बना दी है कि अब खरीदने वाला जो चाहे, वह पा सकता है। पापा, आप मुझे अपने खयालों में मत बांधिये। कुछ ही दिनों बाद 'दीवाली सेल की तरह 'समर सेल’ लगने वाला है। आप बाजार में मेरे साथ रहियेगा, मुझे जो अच्छा लगेगा, मैं वह चुनूँगा।’

बेटे की बातों में एक दृढ़ फैसले की अंर्तध्वनि थी। चंद्रमोहन बाबू ने चुप्पी साध ली। यह जरूर किया कि अपने सेविंग्स अकाउंट से चुपचाप पंद्रह हजार रुपये निकालकर रख लिये और खुद को बाजार चलने के लिए तैयार कर लिया कि पता नहीं, बेटा कब बाजार चलने के लिए कह दे।

गर्मी की छुट्टियाँ शुरू हो गयी थीं। बेटे ने एक दिन खुद ही प्रस्ताव रख दिया, 'चलिये, पापा 'समर सेल’ लग गया है। एक दो दिन में बाजार निकल चलें।’

'हाँ, हाँ, चलो। आज भी चल सकते हैं।’ चन्द्रमोहन बाबू ने जवाब देने में एक मिनट की भी देरी नहीं की।

दोपहर के बाद बाप-बेटा बाजार में थे। दुकानों पर बैनर लहरा रहे थे - 'समर सेल में आपका स्वागत है।’

बाजार में फर्नीचर की दुकानों की एक लम्बी कतार थीं। एक के बाद एक कई दुकानें-ग्लोबल फर्नीचर, न्यू इंडिया फर्नीचर, मार्डन फर्नीचर, वुड क्राफ्ट, वुड आर्ट, वुड एंड वुड, न्यू एज फर्नीचर, हैप्पी फर्नीचर हाउस, वुड मैजिक, वुड वल्र्ड, वेलकम फर्निशिंग, देशप्रिय फर्नीचर मार्ट, फर्नीचर सेंटर, फर्नीचर एंज यू लाइक और भी कई दुकानें। एक कोने से दूसरे कोने तक, हर तरफ सजी हुई दुकानें। बाप-बेटे ने पूरे बाजार का चक्कर लगाना शुरु कर दिया था। बेटे ने हर दुकान के सामने रुककर बोर्ड और होर्डिंग्स को गौर से देखा था आरै उसे कई तरह के आकर्षण दिखायी भी पड़े थे - हर खरीद पर 20 प्रतिशत डिस्काउंट, आज खरीदो, पैसे दो महीने बाद दो, आइटम आसान किश्तों पर उपलब्ध, एक लाख की खरीद पर रिक्लाइनर मुफ्त, बाय वनृगेट वन, बाय टू-गेट थ्री, बाय टू-गेटू फाइव, दो साल तक मरम्मत मुफ्त, घर तक ढुलाई फ्री, पुराने फर्नीचर के एक्सचैंज में नया फर्नीचर, बेड में स्टोरस्पेश, सबसे सस्ता-सबसे सुंदर।

बेटा सभी दुकानें देखते देखते बाजार के अंतिम छोर तक आ गया था। चंद्रमोहन बाबू उसके पीछे पीछे चलते रहे थे। बेटा मुड़़ा और जिस तरह से आया था, वापस उसी तरफ बढऩे लगा, 'पापा, मैंने वुड मैजिक शाप पर बाय वन-गेट वन का बोर्ड देखा है। मैंने सोच लिया है, मैं वहीं से लूंगा।’

'बेटा इतनी दुकानें हैं, कहीं से देख-परख कर कुर्सी-टेबुल ले लें। दुकान वाला एक दाम में दो चीजें दे रहा है जरूर कुछ सोचने लायक बात है। तुम बाय वन-गेट वन के फेरे में मत पड़ो।’

'पापा’, दुकानवाला एक दाम में दो चीजें क्यों दे रहा है, हम उस पर क्यों सोचें? हमें दो चीजें मिल रही हैं, हमें सिर्फ यह सोचना चाहिए। हमें फायदा मिल रहा है।’ बेटा अपने तर्क पर खड़ा था।

'बेटा, बाजार पहले अपने फायदे के लिए सोचता है। दुकानवाला एक दाम में दो चीजें दे रहा है तो समझ लो, जरूर इसमें उसी का फायदा है।’ चंद्रमोहन बाबू बेटे को समझा लेने की हर कोशिश कर लेना चाह रहे थे।

बेटे को भी एक दूसरा तर्क सूझ गया, 'पापा, मम्मी बताती हैं, आप रविवार को एक टिकट पर दो फिल्में देखा करते थे। बताइये, देखते थे कि नहीं?’

'हाँ, एक टिकट पर दो फिल्में देखता था।’

'आप अभी भी फुटपाथ से एक दाम पर दो किताबें खरीदकर लाते हैं कि नहीं?’

'हाँ, खरीदता हूँ, बेटा।’

'बताइये, यह बाय वन-गेट वन है कि नहीं?’

'बेटा, वे फिल्में चली हुई होती थीं, इसलिए वे पूरे दाम पर फिरसे नहीं चल सकती थीं। इसलिए फिल्मवालों की मजबूरी थी। फुटपाथ पर बिकने वाली किताबें भी पुरानी हो चुकी होती हैं, इसलिए वे पूरे दाम पर नहीं बिक सकती हैं। इसलिए वे एक दाम पर दो किताबें देते हैं। हमारा फायदा यह होता है कि हमें अनजानी नहीं, जानी समझी हुई फिल्में और किताबें मिल जाती हैं, चंद्रमोहन बाबू ने बेटे को बहुत तरीके से समझाया।

'पापा, हमें एक दाम पर बाजार से दो कुर्सियाँ, दो टेबुल मिल जायेंगे। यह हमारा फायदा ही हुआ न!’ बेटे ने जोर मारा।

'बेटा, हमें जरूरत एक ही कुर्सी, एक ही टेबुल की है न। हमें कहीं से एक कुर्सी-टेबुल खरीद लें।’ पिता ने अनुनय किया।

'बाजार हमें एक दाम के बदले दो कुर्सियाँ-टैबुल दे रहा है। हम उसे क्यों छोड़ दें?’ बेटे का अपना तर्क था।

'कहाँ रखोगे? घर में कहाँ है दो कुर्सियाँ, दो टेबुल की जगह?’ पिता की बहस जारी थी।

'कहीं भी रख लेंगे, पापा। दो कुर्सियाँ-दो टेबुल पहले हासिल तो कर लें। मैं एक कुर्सी, एक टेबुल बेडरूम में जहाँ मैं पढ़ता हूं वहाँ रख लूँगा। एक कुर्सी-टेबुल मैं पीछे की बालकनी में रख दूँगा, बीच बीच में मैं वहाँ भी जाकर पढ़ लूँगा। आप बहस मत कीजिये, ऐसे मौके हमेशा नहीं मिलते। एक दाम में दो कुर्सियाँ, दो टेबुल घर ले चलिये, पापा’ बेटने इस बार थककर विनती की थी।

चंद्रमोहन बाबू को चुप लगा जाना जरूरी और बेहतर लगा। उन्होंने चुप्पी साध ली। लेकिन तुरन्त ही कहा, 'अच्छा, चलो, वुड मैजिक’ दुकान में ही चलें।’

'वुड मैजिक’ में फर्नीचरों का अम्बार लगा था। बेटे ने दुकान का एक-एक कोना देखा। एक कोने में कुर्सियाँ-स्टडी टेबुल सजे हुए थे। बेटे ने पिता को उधर ही खींच लिया।  पिता और बेटा दोनों पहली बार नीले और पीले रंगों का फर्नीचर देख रहे थे। बेटे ने नीले रंग की कुर्सी टेबुल पर आत्मीयता के साथ अपनी उँगलियाँ फिरायीं और पिता की तरफ खुशी से देखा, 'इस कुर्सी-टेबुल पर उँगलियाँ फिसल रही हैं। इस पर बहुत ऊंची किस्म की पेंट चढ़ी हुई है। नीले रंग का मतलब होता है आसमान यानी कि मनचाही कामयाबी।’

दुकानदार तजुर्बेकार था। अब तक उसने जान लिया था कि चीज ग्राहक को पसंद आ गयी है और यह जरूर खरीदी जायेगी। वह गोल गोल बोलती हुई आँखों से बेटे को देखे जा रहा था।

'आपके पास जो स्टाक है, उसे आपने दुकान में सजा रखा है या इसके अलावे भी और कुछ है?’ यह चंद्रमोहन बाबू का सवाल था।

'मेरे पास बहुत बड़ा गोडाउन है। अगर आपको गोडाउन घूमने का शौक है तो चलिये, मैं घुमा लाता हूँ।’ दुकानवाला थोड़ा झुंझलाया।

'छोडिय़े न पापा, हमें अपनी चीज मिल गयी, फिर पूरी दुनिया को क्या देखना?’ बेटा पिता पर झुंझला रहा ता।

चंद्रमोहन बाबू ने अपनी दोनों हथेलियाँ, दोनों टेबुलों पर मजबूती जांचने के लिए टिकायी और कुसी की पीठ पर अपनी कोहनी रखकर थोड़ा वजन डाला लेकिन दुकानवाले को यह अच्छा नहीं लगा था।

'बाबूजी, आप फर्नीचर की दुकान में आये हैं या किसी जिम में कसरत करने आये हैं? ये डिजाइनर फर्नीचर हैं, ये बड़ी मुश्किल से आये हैं। देर मत कीजिये नहीं तो इनके बिकने में देर नहीं लगेगी। फिर आप बाजार में ढूंढते रहेंगे और ये नहीं मिलेंगी।’ दुकानदार अपनी गर्ज छिपाने के लिए और खरीदने वाले की गर्ज बढ़ाने के लिए वहां से हकर अपनी कुर्सी-टेबुल पर आ बैठा।

चंद्रमोहन बाबू ने कागज की पर्ची पर लिखी बारह हजार पाँच सौ रुपये की रकम दूकानवाले को अदा की, प्राप्ति रसीद ली, कैरियर टेम्पो के लिए साढ़े नौ सौ रुपये जमा कर दिये। दुकानवाले ने वायदा किया कि कल ग्यारह बजे तक कुर्सी टेबुल के दोनों सेट दिये गये पते पर पहुंच जायेंगे।

बाप-बेटे दुकान से बाहर आ गये थे। चंद्रमोहन बाबू ने गौर किया, बेटा इठला इठला कर चल रहा है जैसे कि वह आज का विजेता है। चंद्रमोहन बाबू खुश थे कि बेटा खुश है और उन्होंने बेटा के पीछे-पीछे हो लेने में थोड़ी ही देर नहीं की।

 

अगले दिन लगभग साढ़े ग्यारह बजे कूरियर ऑटो कुर्सियों-टेबुलों को लादे हुए सचमुच दरवाजे पर आ लगा। बेटा स्कूल नहीं गया था कि वह कुर्सियाँ टेबुल सोची हुई जगहों पर ठीक से रखवायेगा। चंद्रमोहन बाबू की पत्नी की आँखें भी चमक रही थीं कि बेटे ने सचमुच बहुत सुंदर चीजें चुनी हैं। उन्होंने यह भी झटपट किया कि पूजा घर से अगरबत्तियाँ जला लायीं। अगरबत्तियाँ को दोनों कुर्सियों-टेबुलों की चारों तरफ घुमाया और उन्हें कुर्सियों के हत्थों और पीठ पर फिर टेबुलों की टोंगों में किसी तरह फंसा दिया।

बेटे ने भी तय जगहों पर टेबुल कुर्सियाँ लगाकर उन्हें तौलिया से पौंछा और उनकी चमक बढ़ायी। फिर बेडरूम मे ंरखे गये टेबुल के एक कोने पर कलमों का स्टैंड सजाया और दूसरे कौने पर टेबुल लैम्ब के लिए जगह बनायी। बेटा ने थोड़ा अलग हटकर टेबुल-कुर्सी को निहारा तो मन में खुशी की एक लहर उठी। टेबुल पर अभी भी जगह बची हुई थी जिस पर बैठकर पढ़ जा सकता था और दाहिने हाथ की तरफ टेबुल का ड्रावर भी बहुत आसानी से खुल-बंद हो रहा था। इसमें डायरी मोबाइल या कुछ किताबें रखी जा सकती थीं। बेटे ने मन ही मन तय कर लिया, उसे जो पॉकिटमनी मिलती है, उसे भी वह यहीं एक लिफाफे में रखेगा।

सुबह स्कूल जाते हुए बेटे ने टेबुल-कुर्सी को गौर से निहारा और मुस्कुराते हुए माँ को देखा। माँ को समझते देर नहीं लगी कि बेटे की ये खुशियाँ टेबुल-कुर्सी से ही उठ रही हैं। माँ को भी खुशी हुई थी। उसने मुस्कराकर बेटे की मुस्कुराहट का समर्थन किया।

शाम को स्कूल से लौटकर बेटे ने लगभग घंटे भर का समय टेबुल को सजाने में लगाया। कभी उसने टेबुल लैम्प को इस कौने से उठाकर दूसरे कौने पर रखा, फिर कुछ देर बाद उसे वहीं लाकर रख दिया जहाँ से हटाया था। फिर किताबों को कभी एक तरफ रखा, कभी दूसरी तरफ। फिर कलमों से भरे डिजाइनर कप को कभी एक तरफ रखा, कभी दूसरी तरफ। घंटे भर का समय लगा होगा, बेटे ने एक व्यवस्था तय कर ली, फिर कुर्सी पर बैठ गया पाँव आगे की तरफ फैलाये, फिर पीठ को कुर्सी की तख्ती की तरफ ठेला, सब कुछ इस तरह किया जैसे कोई खिलाड़ी खेल से पहले अपनी पोजीशन दुरुस्त कर रहा हो।

यह सब करके लड़का कुर्सी से उठा और माँ को अपनी बाहों में भर लिया। माँ खुशी में कुछ कहती, इससे पहले बेटे ने ही पूछ लिया, 'माँ पापा कब आयेंगे?’

'उसी समय पर जिस समय पर वे आते हैं, वहीं सात-साढे सात बजे...’ मां ने वही जवाब दिया जो वह दे सकती थी।

बेटा चुप लगा गया।

चंद्रमोहन बाबू अपने समय पर ही आये। बेटे ने झुककर उनके पाँव छू लिये, फिर उन्हें भी बाँहों में भरा और कहा, 'पापा...’। बेटा इससे ज्यादा कुछ नहीं कह पाया था लेकिन पिता ने बेेटे की खुशी भाँप ली थी। उन्होने भी बेटे को बाँहों में भर दिया। फिर अपनी हथेली उसके बालों पर फिरायी, 'कामयाब होवो, बेटे...।’

चंद्रमोहन बाबू की पत्नी ने लगातार कई दिनों तक गौर किया और पति को बताया, जब से टेबुल-कुर्सी का जोड़ा आया है, बेटे को पढ़ाई के अलावा कोई दूसरी चीज सूझ ही नहीं रही है। वह मौका निकालकर बालकनी में लगे टेबुल कुर्सी पर और शाम के बाद कमरे में लगे टेबुल-कुर्सी पर सिर्फ किताब कापियों में डूबा रह रहा है, बीच बीच में जब वह पढ़ाई छोड़कर खड़ा होता है तो अक्सर कुर्सी-टेबुल को निहारता रहता है जैसे कि वे उसकी आँखों के दायरे में ही रहें।

दीवाली के दिन थे। कॉलोनी के लड़के-लड़कियाँ घूम-फिर करने और कुछ कुछ खरीदने में मशगूल थे। अचानक एक दिन दोपहर बाद पाँच-सात लड़के-लड़कियाँ उसे ढूंढते हुए उसके घर में घुस आये, 'हमें भी दिखाओ, कैसी हैं तुम्हारी टेबुल-कुर्सियाँ। हम भी अपने पापा को खरीदने के लिए कहेंगे। ...अरे, वाह, ये तो गजब के हैं।’ एक लड़के ने कहा, 'बारहवीं के बाद इंजिनियरिंग या मेडिकल में चले जाना तो बालकनी में रखा हुआ जोड़ा मुझे दे देना, दोस्त।’ वह चहकता रहा, 'मैं इंजिनियरिंग में निकल जाऊँ तो तुम दोनों सेट ले लेना, यार!’ दोस्तों के बीच कहकहा देर तक गूंजता रहा, हँसी ठिठोली चलती रही।

 

वह रोज की ही तरह एक रात थी। खड़ खड़ की आवाजें सुनकर बेटे की नींद टूट गयी थी। आवाजें बालकनी से आ रही थीं। बेटे ने पिता को जगाया, 'पापा, लगता है, चोर घुस आये हैं और बालकनी से कुर्सी-टेबुल उटाकर ले जा रहे हैं।’

'बुद्धू, बस सुबह होने वाली है। चोर सुबह में नहीं, बीच रात में घुसते हैं और आवाजें करते हुए नहीं, बिना आवाजें किये सामान ले जाते हैं।’ चंद्रमोहन बाबू को बेटेे पर गुस्सा नहीं, उसकी मासूमियत पर प्यार आ रहा था।

अब तक माँ भी जाग गयी थीं, 'अरे बंदर होंगे। कभी कभी बालकनी में आते हैं।’ उन्होंने नयीचीज देखी होगी और उलट-पुलटकर देखने समझने आये होंगे। तुम निश्चिंत रहो, वे टेबुल कुर्सी नहीं ले जा पायेंगे।’

बेटे को उत्साह जगा कि वह बालकनी में जाकर देख ले लेकिन मां ने रोक दिया, 'नहीं बेटा, बाधा आते देख वे गुस्से में काट भी ले सकते हैं। उजाला निकल आये, तो देख लेना।’

बेटे ने बेचैनी में घंटे भर का समय गुजारा। थोड़ा उजाला दिखा तो बालकनी में भागा। लेकिन यह क्या, उसकी आँखें फटी रह गयीं। कुर्सी-टेबुल उलटे पड़े थे। कुसी के हत्थे उखड़े हुए थे। पीठ की पट्टी में भी फांक आयी हुई थी और टेबुल की तो दो टांगे टूटी हुई थीं।

चंद्रमोहन बाबू भी अब तक आ चुके थे, 'चलो, कुछ नहीं हुआ,टेबुल की दोनों टांगों की जगह पर इंटें रखी जा सकती हैं। कुर्सी बैठने लायक है, सिर्फ हत्थे नहीं हैं तो क्या हुआ? चंद्रमोहन बाबू ने बेटे की पीठ थथपायी।

बेटा एक दिन स्कूल से लौटा तो उसने देखा, माँ टेबुल को रगड रगड़ कर साफ कर रही हैं। टेबुल का रंग जगह जगह से उडग़या है और एक कोना टूटने जैसा हो गया है। माँ ने बेटा को देखते ही स्थिति साफ करने की जरूरत समझी, 'बेटा, मैंने इसे साफ-सुतरी पवित्र जगह पूजा की थाल और जोत रखी थी। लेकिन कुछ देर बाद रसोई से लौटी तो पाया कि जोत उलट गयी है और टेबुल की पीछ पर कहीं कहीं जलने के दाग आ गये हैं और रंग उड़ गया है। मैं भींगे तोलिये से सफाई कर रही हूँ लेकिन जितनी ही सफाई कर रही हूँ, रंग उतना ही ज्यादा उड़ जा रहा है। मुझसे गलती हो गयी बेटा।’

'नहीं, नहीं, माँ, मैं इसी पर पढ़ लूंगा, टेबुल तो टीक है। जरूरी लगेगा तो मिस्त्री बुलवाकर रंगवा लेंगे, ज्यादा क्या सोचना।’ बेटे ने माँ के कंधे को थपथपा दिया।

हफ्ते भर बाद ऐसे ही किसी दिन बेटे ने गौर किया, स्टडी-रूम वाला टेबुल थोड़ा हिल डुल रहा है और एक तरफ टेढ़ा हो जा रहा है। माँ को बताया तो माँ ने झुककर देखा,टेबुल की टांग थोड़ी कुतरी हुई लग रही है। क्या चूहों ने टेबुल की टांग को कुतर दिया, मां हैरान थीं। चूहे कागज कपड़े आदि तो कुतर सकते हैं, फर्नीचर या लकड़ी कैसे कुतर सकते हैं, इसका जवाब चंद्रमोहन बाबू को सूझा, 'बेटा फर्नीचर वाले ने लकड़ी में पैसे बचाये हैं और कोई ऐसी कमजोर लकड़ी लगा दी है जिसमें चूहों के लायक कोई स्वाद है। चलो, बहुत बड़ी बात नहीं है। कुर्सी-टेबुल की टांगों में कोई तीखा तेल लगा दो कि चूहे उसके पास न जायें और जो पाँव टेढ़ी हो रही है, उसके नीचे मोटा गत्ता रख दो, पाँव हिलेंगे-डुलेंगे नहीं।’

दरअसल मुश्किलें यहीं रुक जातीं तो ये भूली हुई बातें हो जातीं। एक मुश्किल फिर आ गयी जब कामवाली बेड, किताब की डेस्क, आलमारी, टेबुल-कुर्सी पोंछने के क्रम में टेबुल के नीचे फंस गयी। माँ ने डाँटा, 'तुम टेबुल के नीचे क्यों घुसी, पोछा तो बाहर बाहर लगा देना था।’ कामवाली ने टेढ़ा-मेढ़ा होकर निकलने की कोशिश की तो कुसी पर झटका लगा और कुसी एक तरफ फिंका कर उलट गयी। उसने गौर किया, एक टांग हिल रही है, बस किसी तरह सीट से लगी हुई है। चंद्रमोहन बाबू ने इस मुश्किल का भी रास्ता निकाल दिया, 'प्लास्टिक की मोटी रस्सी से इसे कसकर बांध दो ताकि यह कुसी से अलग होकर फिंकाये नहीं।’ उसकी सलाह बेटे के लिए भी थी, 'बेटा, जिस तरफ टांग प्लास्टिक से भंधेगी, उधर वजन देकर नहीं बैठना, दूसरी तरफ ही थोड़ा झुककर बैठना।’

ये मेले-ठेले के दिन थे। बेटा जहाँ-तहाँ घूमकर देरसे लौटा था। उसे जल्द ही नींद आ गयी। आधा जगे होने, आधा सोये हुए होने की स्थिति में उसे सपना आ गया। सपने में चोर उसकी कुर्सियाँ-टेबुल उठाये भागे जा रहे थे। उसने उन्हें रोकने के लिएजोर से पैर चलाया। खड़-खड़ की आवाजों के साथ उसकी नींद टूटी तो उसने देखा, सपने में उसने कुसी पर पैर दे मारा था। कुर्सी दूसरी तरफ उलटी हुई थी और टांग प्लास्टिक से बंधी हुई थी, वह टांग प्लास्टिक से बाहर निकल गयी थी। सुबह पिता ने स्थिति समझी और फिर उपाय निकालने के लिए दिमाग लगाया।उनकी राय पर कुसी की टांग की जगह इंटें लगायी गयीं और जब इंटों से सीट का लेवल बराबर नहीं हुआ तो इंटों के ऊपर एक रजिस्टर रख दिया गया ताकि 'लेवल’ बन सके। कुसी पर अब इत्मीनान से तो नहीं लेकिन सावधानी के साथ बैठ लेने की एक गुंजाइश बन गयी थी।

अब तक जो समय गुजरा था, उसमें मुश्किलें आयी थीं लेकिन मुश्किलों के उपाय भी निकाल लिये गये थे। चंद्रमोहन बाबू चिंताओं थे, एक के बाद एक यह क्या हो रहा है, क्या हो गया है इन कुर्सियों-टेबुलों को? आखिरकार जो होना था, हुआ। चंद्रमोहन बाबू और उनकी पत्नी ने मंत्रणा की कि टेबुल-कुर्सी के दोनों जोड़ों में कुछ न कुछ टूट-फूट हो गयी है और इन्हें फर्नीचर मिस्त्री बुलाकर ठीक करा लिया जाना चाहिए ताकि बेटे  की पढ़ाई बिना किसी बाधा के चलती रहे। पिता और बेटे द्वारा बेड रूम के टेबुल-कुर्सी बालकनी में पहुंचा दिये गये जहां पहले से ही टेबुल कुर्सी का एक जोड़ा घायल अवस्था में पड़ा हुआ था।

फर्नीचर मिस्त्री बुलाया गया और उसने बालकनी में पड़े टेबुल-कुर्सियों को इस निर्ममता से छोटा-बांटा,उठाया-पटका जैसे कि वह कबाड़े का मुआयना कर रहा हो। फिर उसने कुछ देर तक सोचते हुए अपनी राय बनायी और सामने रख दी, 'देखिए बाबूजी। यहाँ घर पर आकर इन फर्नीचरों को जांचने-परखने की मेरी मजदूरी पांच सौ रुपये हुई। अगर  आप इन दोनों जोड़ों का बनवायेंगे तो हर जोड़े पर मजदूरी दो-हजार बैठेगी और कुछ सामान भी अलग से लगेंगे। लेकिन मैं एक बात पहले साफ कर देना चाहता हूँ। ये दोनों जोड़े पहले जैसे नहीं दिखेंगे। इसमें जोड़-पट्टी दिखायी पड़ेगी। अगर फिर से रंग-पालिश चढ़ाया जाये तो ये थोड़ा-थोड़ा छिप सकते हैं लेकिन पालिश-चढ़ाई भी अलग से बहुत ज्यादा लगेगी।’

मिस्त्री ने थोड़ा रुकते हुए फिर एक राय दी, 'बाबूजी, मैं एक सलाह दूँ?’

'हाँ, हाँ, बताओ भाई, बताओ।’ चंद्रमोहन बाबू की जान में जान आयी कि मिस्त्री  जरूर कोई अच्छा उपाय बतायेगा।

'बाबूजी, मेरी सलाह है कि कुर्सी-टेबुल के इन दोनों जोड़ों में से अलग-अलग टुकड़े निकालकर एक साबुत जोड़ा बन सकता है जो ओरिजनल जैसा दिखेगा। बाकी टुकड़ों को आप कबाड़वाले को दे दीजिये या नौकर चाकर को दे दीजिए, वे उसका जलावन बना लेंगे। सारा काम सिर्फ डेढ़ हजार रुपयों में हो जायेगा। मेरी सलाह मानिये, बाबूजी। दोनों जोड़ों का मोह छीडिय़े, वे अब नहीं बनेंगे। एक जोड़ा बन रहा है, यह भी एक खुशकिस्मती है।’

जैसा फर्नीचर मिस्त्री ने बताया था, वैसा ही किया गया। कुर्सी-टेबुल का एक जोड़ा शाम होते होते बन गया। कुर्सी-टेबुल का यह जोड़ा नये जोड़े जैसा ही दिख रहा था। कुर्सी-टेबुल का यह जोड़ा बोटे के बेडरूम में लग गया। बेटा ने कुर्सी पर बैठकर देखा, सचमुच सब कुछ पहले ही जैसा लग रहा था।

मिस्त्री ने अपने पैसे लेते हुए एक और सलाह दे दी, 'बाबूजी, लकड़ी कमजोर होने के काण कील ठोकने में टेबुल की तख्ती में एक छोटी सी चिटक आ गयी है। मैंने नीचे की तरफ वहाँ टीन की पट्टी जड़ दी है। उपर से डबल सेलोटेप बी साट दिय है। मजबूती में अब कोई कमी नहीं है।’

 

नया साल आ गया था। बेटे ने हिसाब लगाया, इम्तिहान में अब सिर्फ ढाई महीने बचे हैं, इन कुर्सी-टेबुलों के पीछे ज्यादा समय चला गया और अब ध्यान सिर्फ पढ़ाई पर रहना चाहिए। चंद्रमोहन बाबू खुश हो रहे थे कि बेटा पूरी तरह पढ़ाई में लग गया है। माँ ने भी गौर किया, बेटा टेबुल पर झुके झुके सिर्फ किताब कापियों में डूबा रह रहा है। ये सचमुच खुशियों के दिन थे। परिवार के लिए अब एक नया समय था।

रात को ढाई-तीन बजे होंगे। चंद्रमोहन बाबू की नींद कोई आवाज सुनकर टूट गयी थी। यह दरवाजा टूटने या खिड़की टूटने की आवाज थी। उन्होंने धीरे से पत्नी को जगाया। दोनों दबे पाँव पीचे की तरफ गये लेकिन यहाँ तो दरवाजा सही सलामत था, खिड़कियाँ भी साबुत थीं।’ दोनों सामने के दरवाजे की तरफ बढऩे लग गये लेकिन तभी उनके पाँव रुक गये। बेटा अपने कमरे में सटा खड़ा था, सामने टेबुल का तख्ता टूट हुआ और नीचे झुका हुआ था।

'सारी, पापा, मैं पढ़ते पढ़ते टेबुल पर ही सो गया था। टेबुल शायद मेरे वजन से टूट गया है।’ बेटा अभी भी सहमा हुआ था।

'तुम्हें चोट तो नहीं लगी, बेटे?’ चंद्रमोहन बाबू बेटे की देह छूकर अंदाजा लगा रहे थे।

'नहीं, पापा। झटका लगा तो मैं कुर्सी की तरफ खिंच गया और बच गया।’ बेटा आश्वस्त कर रहा था।

'अच्छा, चलो, अभी सो जाओ। सुबह में सोचेंगे।’ चंद्रमोहन बाबू ने बेटे को बिस्तर की तरफ जाने का इशारा किया और भौंचक पत्नी के साथ अपने कमरे में आ गये।

सुबह चंद्रमोहन बाबू उठे तो पाया, बेटा पहले ही उठ गया है और उसने टूटे हुए टेबुल को खींचकर बालकनी में डाल दिया है। बेटे के कमरे में टेबुल की जगह बस कुर्सी लगी हुई है।

'पापा, मैं कुर्सी पर ही बैठकर तैयारी कर लूँगा। मुझे कोई दिक्कत नहीं है।’ बेटा पापा को एक बार फिर आश्वस्त कर रहा था।

चंद्रमोहन बाबू ने आगे बढ़कर बेटे को लगे लगाया 'बेटा, मैंने तय किया है, आज दोपहर में हम फिर बाजार चलेंगे और ऐसा टेबुल-कुर्सी लायेंगे जिस पर बैठकर तुम सारे इम्तिहानों में कामयाबी पाओगे। तुम तैयार रहना, मैं ऑफिस से आ जाऊँगा।’

बेटा ने अपना चेहरा पापा की तरफ उठाया तो चंद्रमोहन बाबू ने गौर किया, बेटा की आँखों में कोई समुद्र लहरा रहा है। चंद्रमोहन बाबू ने बेटे को और भी ज्यादा भींच लिया जैसे कि वे इस समुद्र को सोख लेने की कोशिश में हों।

 

 

पिछले दौर में शंकर की कई संग्रहीत कहानियाँ 'पहल’ में छपीं। 'पहल’ के दूसरे पन्ने पर एक सहयोगी के रूप में वे याद किये गये। शंकर प्रगतिशील साहित्य परम्परा के कुछ ही बचे कथाकारों में प्रमुख हैं। कभी सासाराम से एक विस्मृत, लेकिन जानदार पत्रिकार 'अब’ से सफर शुरू हुआ और गहरी धुन के साथ इन दिनों कहानी केन्द्रित पत्रिका 'परिकथा’ का सम्पादन कर रहे हैं।

संपर्क - मो. 9431336275, फरीदाबाद

 


Login