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मार्च - 2020

हिन्दनामा : एक पुकारती हुई पुकार

राजाराम भादू

पुस्तक/कविता

 

 

हिन्दनामा के लिए कृष्ण कल्पित कहते हैं कि यह कविता- संकलन नहीं है बल्कि एक पूरी कविता पुस्तक है। इसके मायने हैं कि सभी कविताएं एक क्रम अथवा श्रृंखला में आबद्ध हैं। इनकी अंत:सूत्रता का एक प्रकट आधार तो हिन्द की गाथा है- एक भू-सांस्कृतिक क्षेत्र के अतीत का काव्यात्मक आख्यान। यह कवि के तीन वर्ष के सृजन-श्रम का प्रतिफल है। सभी कविताएं लगभग एक ही भाव-दशा की अभिव्यक्ति तो हैं ही, बल्कि चेतना की भी एक ही धारा सभी में प्रवाहित है - स्ट्रीम आफ कांशसनेस। इतने समय तक लगातार ट्रांस की स्थिति में रहना सृजन की असाधारण तपश्चर्या है। कल्पित की यह 300 पृष्ठों और 283 कविताओं को समेटे महाकाय किताब इस महादेश भारत की सभ्यता-समीक्षा है। इस एपिकल कृति में कविताओं के शीर्षक नहीं संख्याएं हैं।

 

1

अंग्रेजी कवि कालरिज ने कविताएँ लिखना छोड़ कर आलोचना में लिखना शुरू किया और साहित्य को भी जीवन की आलोचना कहा। उसके बाद अंग्रेज़ी के ही कवि-आलोचक मैथ्यू अर्नाल्ड ने कहा कि साहित्य को सभ्यता-समीक्षा करनी चाहिए। हमारे यहाँ तो शुक्ल जी ने साहित्य को समाज के दर्पण से आगे बढ़ाकर उसे लोक-मंगल से जोड़ दिया था।

कल्पित भूमिका में लिखते हैं: यह किताब न हाली की मुसददस है, न मैथिलीशरण गुप्त की भारत-भारती। न यह बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की आनंदमठ है, न जवाहरलाल नेहरू की भारत की खोज। न यह वी एस नायपाल का अंधेरे का इलाका है और न यह अमत्र्य सेन का तर्कशील भारत, न यह दिनकर की संस्कृति के चार अध्याय है और न ही यह गांधी की हिन्द स्वराज है।

कल्पित के इस नामजद नकार और इसके बावजूद, कि किताब में आनंद मठ के अलावा इनमें से किसी किताब का कोई संदर्भ भी नहीं है, हिंदनामा पर विचार का परिप्रेक्ष्य तो इनसे व ऐसी ही कुछ और किताबों से बनता है क्योंकि ये सभी एक ध्येय- इस उप महाद्वीप की सभ्यता- समीक्षा- से सम्बद्ध हैं। और हो सकता है कल्पित अपनी खास शैली में इसी बात का संकेत कर रहे हों। कल्पित ने कहा भी है-

मैं बहुत सारी किताबों की

एक किताब बनाता हूं (67)

और आगे कहते हैं-

सबको अपना-अपना

भारत खोजना पड़ता है (14)

कल्पित की अगली बात इस किताब के संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है; हिन्दनामा एक कवि की किताब है, जिसमें कवि का देश दिखाई पड़ता है। एक कवि का पढ़ा हुआ, लिखा हुआ, सुना हुआ, जाना हुआ और पूरी तरह आत्मसात् किया हुआ। हिन्दनामा मूलत: एक कवि का कार्यभार था- जहाँ किस्से-कहानियाँ, इतिहास, भूगोल, कल्पना - स्मृति- यथार्थ, जादू-टोना, तंतर-मंतर सब अपनी जरूरी आवाजाही करते हैं।... इसके मायने हैं कि हमें इस कृति को इसकी समग्रता में एक कविता की तरह देखना चाहिए जहाँ कवि ने जन-सामान्य के चित्त, संवेदना और स्वप्नों को समझने और प्रतिबिंबित करने की चेष्टा की है। कविता अपने में ही एक सृजनात्मक सांस्कृतिक रूप है जो उससे पहली अपेक्षा भी सांस्कृतिक ताने-बाने को परिलक्षित करने की हो सकती है। इसे सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों पर ही जांचा- परखा जाना चाहिए।

इधर कथ्य और शैली के अन्तर्सम्बन्ध पारंपरिक दायरे तोडऩे लगे हैं और इसमें तब तक कोई समस्या नहीं है जब तक कि मूल सृजन को यह प्रैक्टिस मूल्यवान बनाती हो। सृजनात्मक साहित्य अपनी काव्य- भाषा या गल्प-शैली के माध्यम से समाजशास्त्रीय वक्तव्य जारी करने लगा है और समाजशास्त्र अपने तथ्यों और कथ्य को साहित्य की ललित शैलियों में बयान करने की कला विकसित कर रहा है। बंगला में महाश्वेता देवी और हिंदी में संजीव और उदय प्रकाश के नाम तो इस प्रसंग में तुरंत याद आ रहे हैं।

समाज-विज्ञान से मुझे सुनील खिलनानी यहाँ दो कारणों से उल्लेखनीय लगते हैं। एक तो उनकी पुस्तक दि आइडिया आफ इंडिया भारतीय आजादी की अद्र्ध-शताब्दी (1997) के अवसर पर प्रकाशित हुई जिसका अनुवाद (अनु. अभयकुमार दुबे) भारतनामा शीर्षक से हिन्दी में राजकमल से ही छपा और मकबूल हुआ। दूसरे, मूलत: राजनीति की कृति होने के बावजूद इसकी शैली ललित निबंध से बेहद प्रभावित है। इसमें उद्धरणों का इस्तेमाल भी इस तरह किया या है कि वे सतत् प्रवाहमान अनुभूति का अंग लगते हैं। नेहरू, गांधी, अम्बेडकर और सावरकर समेत भारतीय राजनीति के कई नायक शैलीगत विशिष्टता के योगदान में व्यक्ति नहीं रहते बल्कि एक विचार में तब्दील हो जाते हैं। भारत या इंडिया नाम का राष्ट्र अपने भौगोलिक और ऐतिहासिक अस्तित्व के साथ धीरे-धीरे एक समग्र विचार के रूप में उभरता है। खिलनानी का राजनीति शास्त्र गालिब के पत्रों में दर्ज पुरानी दिल्ली के ध्वंस की त्रासदी के होते हुए भारतीय उपमहाद्वीप के सीने पर विभाजन की अमिट तसवीर खींचने वाले सिरिल रैडक्लिफ की एकांत हवेली के वर्णन, डबल्यू एच आडेन की कविता के जरिये करता है। वह पंचवर्षीय योजनाएं बनाने वाले प्रशांत चंद्र महलनोविस की सांख्यिकीय निपुणता और रवीन्द्र नाथ टैगोर के गद्य-काव्य के संबंधों को स्पर्श करता है। यह समाज विज्ञान राजनेताओं के साथ-साथ नीरद सी चौधरी, नायपाल और मंटो के माध्यम से राष्ट्रवाद, औपनिवेशिकता व विभाजन की जांच- पडताल करता है। लगभग यही काम कल्पित की कविता तमाम उन स्त्रोतों के माध्यम से करती है जिनका उन्होंने उल्लेख किया है।

इस महत्वाकांक्षी रचनात्मक प्रोजेक्ट की प्रेरणा के बारे में बताते हुए कल्पित कहते हैं: आलोचना का काम कुछ आसान करते हुए यह स्पष्ट कर दूं कि हिन्दनामा फारसी के महाकवि फिरदौसी के अमर महाकाव्य शाहनामा से प्रेरित है। प्रेरित इस मायने में कि यह सोचकर ही रोमांच होता है कि कोई कवि अपने जीवन भर अपने देश पर कविता लिखता रहा।

कल्पित ठीक ही हिन्दनामा को देश का गौरव- गान नहीं कह रहे हैं। यह सच में देश की आत्मा और चित्त की पड़ताल है और एक सांस्कृतिक संधान भी। कल्पित कैसे इसे महिमा-मंडन से परे रखते हैं, इसकी पुष्टि के लिए कुछ उद्धरण-

 

ऐसे- ऐसे बर्बर शास्त्रार्थ (19)

 

कदम- कदम पर पूजा-स्थल थे

और कदम-कदम पर

वध-स्थल! (22)

 

इतने सारे परिधानों के बावजूद

यह महादेश निर्वसन था! (23)

 

विपत्ति इस देश की सातवीं ऋतु थी (33)

 

इस महादेश में

भिखारियों का भी गुजारा हो जाता था

कई भिक्षुक तो यहां

ऐश्वर्यशाली जीवन व्यतीत करते थे! (47)

 

गरीबों की आहें

हमारी प्राण- वायु थीं! (49)

 

सब कुछ पुराना था

पुराने से भी पुराना

से भी दो पुराना

यहाँ एक चीज का पुराण था!(50)

 

इस देश की गली-गली में भविष्य-वक्ता पाए जाते हैं (59)

 

यह देश समय-समय पर

अकाल और दुर्भिक्ष की आपदाओं से गुजरता रहा है

.................

हर- बार पुनर्नवा होता रहा है! (78)

 

टीएल ईलियट की वेस्ट लैंड कविता जिस तरह पश्चिम की आधुनिक सभ्यता की क्रिटिकल इनक्वायरी करती है, यह कुछ-कुछ वैसी ही प्रक्रिया है। खिलनानी की भारतनामा का फोकस वर्तमान पर है, उसके परिप्रेक्ष्य में अतीत है। इसके विपरीत यहां फोकस अतीत पर है। इसकी एक वजह हमें कल्पित की उस बात में नजर आती है जो उन्होंने पुस्तक की भूमिका के आखिर में कही: उग्र राष्ट्रवाद के इस वैश्विक दौर में अपने राष्ट्र को जानने की कोशिश निश्चय ही जोखिम का काम है, और यह कहने की शायद कोई जरूरत नहीं कि हिन्दनामा हिन्दूनामा नहीं है। हिन्दुनामा का इन्द्रधनुष सात रंगों से मिलकर बना है। कल्पित इस सतरंगी परंपरा को चीन्हते अतीत तक गये हैं। वैसे ईलियट ने ही कहा है कि अतीत का एक हिस्सा वर्तमान में रहा करता है। कल्पित भी एक कविता में कहते हैं-

 

जो गुजर गया

वह हमारे साथ चलता है

जो बीत गया वह हमारी आत्मा में विन्यस्त है (36)

 

चूँकि कविता इतिहास के साथ मुखामुखम है जो उसे अतीत को द्वंद्वात्मक समझ के साथ देखना चाहिए, कल्पित की कविता ठीक यही करती है। वहाँ हर धारा, सोच और पद्धति अन्तर्विरोधों और विपर्यय के साथ विन्यस्त है। इतिहास दर्शन के विद्वान ई एच कार मानते हैं: इतिहास वर्तमान और अतीत के बीच लगातार चलने वाली अन्योन्य क्रिया है और इतिहासकार और उसके तथ्यों के बीच कभी न समाप्त होने वाला संवाद है।... भारत एक पुरातन सभ्यता है और यहां समुदाय, जाति और धर्मों का बाहुल्य है। कहा जाता है कि भारत में जितने प्रकार के और जितनी मनोवृत्तियों के लोग हैं, उतनी ही तरह के देवी-देवता हैं, यहाँ तक कि पशु-पक्षी किस्म के अवतार भी मौजूद हैं। हिन्दनामा इन सबका बोलता अजायबघर है। सिमोन वेल कहते हैं, मनुष्य की आत्मा की जरूरतों में अतीत की जरूरत सबसे अधिक शक्तिशाली है।

आज से दो दशक पहले भारतनामा में सुनील खिलनानी ने एकत्ववादी शक्तियों के वर्चस्व की आशंका जताई थी। लेकिन इसके बावजूद वे इसे भारत के मूल विचार के प्रतिकूल मान रहे थे। भारतनामा के हिन्दी संस्करण की भूमिका के अंत में वे लिखते हैं: ....भारत एक है, लेकिन उसके विचार अनेक हैं।... कारण साफ है: एकनिष्ठ, किस्म की और अन्य अवधारणाओं के मुकाबले भारत की केवल यही अवधारणा ऐसी है जो अन्य विचारों को उभारने तथा दूसरी अवधारणाओं से सहअस्तित्व की गुंजाइश देती है।... यह प्रीतिकर है कि जोखिम भरे इस समय में यही बात कविता में तमाम इतिवृत्तों, प्रसंगो, उपाख्यानों और रह्मटोरिक के साथ कही जा रही है जो एक संश्लिष्ट और अपेक्षाकृत प्रतिष्ठित विधा है।

 

2.

कल्पित अतीत का उत्खनन करते हैं- सामान्यत: इस प्रक्रिया में वे उन्हीं द्वितीयक स्रोतों का सहारा लेते हैं जिनका इतिहासकार लेते हैं किन्तु कल्पित का इनसे मुखामुखम भिन्न है। इतिहास द्वितीयक सामग्री और स्रोतों से प्रमाण जुटाता है तथा इनका विश्लेषण कर किसी निष्कर्ष तक पहुंचता है। कल्पित इन्हीं स्रोतों से काव्यात्मक सत्य सामने लाने का उपक्रम करते हैं। यह सांस्कृतिक अध्ययन से भी सघन और संश्लिष्ट उद्यम है।

कल्पित ने भारत में आये विदेशियों के विवरणों को बहुत महत्व दिया है जो कि उचित ही है। इनमें बाबर के बाबरनामा सहित इब्ने बतूता, फह्यान, ह्वेनसांग, अलबरूनी, बर्नियर और दीगर यात्रियों के दस्तावेजी अकाउंट हैं। उन्होंने अतीत के समाज के तमाम आयामों का जीवंत चित्रण किया है। कल्पित इन विवरणों के माध्यम से उससमाज के मनुष्य की मनोरचना- साइके- को जानने- समझने का प्रयास करते हैं और महादेश की संघर्ष- गाथा के नैरंतर्य में उसका निरूपण करते हैं। वहाँ अनेक द्वंद्व, संघर्ष, विपर्यय और संहतियां हैं जो स्वाभाविक गति से कालक्रम में निरूपित, विरूपित और रूपान्तरित होते रहे हैं।

भारत में आधुनिक काल से पूर्व का सांस्कृतिक इतिहास मुख्यत: चार चरणों में देखा जाता रहा है। आरंभिक वैदिक काल, जो आगे उपनिषद और पौराणिक काल तक निस्तारित है। दूसरा जैन और बौद्ध धर्म के उद्भव और विकास का काल-खंड है। इसी के समानांतर तथा कुछ उत्तरवर्ती लोकायत हैं। इन अनीश्वरवादी धाराओं के बारे में जानकारियां काफी कम हैं। मध्यकाल के भक्ति आंदोलन और सूफी कल्ट हैं। हिंदनामा में संस्कृति के ये चार अध्याय विविध रूपों में अपनी ही तरह आते हैं।

इसमें कुछ वैदिक ऋचाएं हैं, अधिकतर ऋग्वेद से- कल्पित पहले चयनित ऋचा को मूल संस्कृत में प्रस्तुत करते हैं, फिर उसका हिंदी भावानुवाद और तत्पश्चात अन्तर्वस्तु का काव्यात्मक प्रत्याख्यान। यह कम चुनौतीपूर्ण नहीं है जिसे कल्पित ने बखूबी साधा है। एक उदाहरण देखते हैं -

द्वा सुपणआ सयुजा सखाया

समानं वृक्षं परिषस्वजाते

तयोंरन्य: पिप्पलं स्वाद्वात्ति

अनन्शनन्नोया अभिचाकशीति! (ऋग्वेद- 1,164.20)

(एक पीपल - वृक्ष, दो मित्र - पत्री। एक बरबंटा स्वाद से खाता है - दूसरा स्वाद से परे है।)

ऋग्वेद मनुष्य - मनीषा का

प्राचीनतम दस्तावेज है

और ऋग्वेद की यहऋचा

इस पृथ्वी पर

प्रेम-बंधुत्व-सहिष्णुता और सह-अस्तित्व का

प्रथम-गान है

इहैव प्राण: सख्ये नो अस्त...!

(यह सख्यता कभी अस्त न हो!). (39)

 

इसी भांति कल्पित समुच्चयों की अक श्रृंखला प्रस्तुत करते हैं। फिर इसे अपने चंद काव्यात्मक उदगारों से एक नया अर्थ दे देते हैं। जैसे एक कविता में पहले वे कामगारों-दस्तकारों की एक पेशागत नामावली पेश करते हैं। इसके बाद अंतिम पंक्तियाँ हैं -

 

ये सब शूद्र वर्ग के थे

जिनके बिना भारतदेश की कल्पना भी संभव नहीं

यह महादेश शुद्रों की निर्मिति है! (17)

 

एक अन्य कविता में कल्पित गणराज्यों व देशों, यथा- केकेयदेस, चोलदेश, मत्स्य देश आदि की फेहरिश्त प्रस्तुत कर कहते हैं -

 

इस एक महादेश में

कितने सारे देश समाहित थे! (68)

एक कविता में पृथ्वी की नाप-जोख को बताने के बाद वे कहते हैं - हम इस पृथ्वी को 27 नामों से पुकारते थे। कहना न होगा कि ये सभी नाम इस कविता में विन्यस्त हैं। (11) अगली एक कविता जल-संग्रह के उपादानां का विवरण देती कहती है-इस महादेश में असंख्य जलस्त्रोत थे। (13)

भारत पर विदेशी आक्रान्ताओं - महमूद गजनबी, तैमूर और सिकन्दर- का जिक्र करते हुए कल्पित उनकी शक्ति को कोई अहमियत नहीं देते, ठोस दस्तावेजी आधार पर वे उनकी नश्वरता और नियति से साक्षात्कार कराते हैं। ऐसे में कार्ल सैंडवर्ग की प्रसिद्ध कविता घास की याद आना स्वाभाविक है जिसमें वे कहते हैं कि अंतत- विशाल दुर्ग और राजप्रसाद ध्वस्त हो जाते हैं और वहाँ घास उग आती है।

कल्पित विभिन्न आधिकारिक स्रोतों के लिए गये प्रसंग, अनक्डोट अथवा उद्धरण का चयन पहले तो अपनी काव्य- दृष्टि से इस तरह करते हैं उसके जरिए कोई पायटिक ट्रुथ सामने लाना संभव हो। दूसरे, उसका पुनर्लेखन ऐसे अंदाज में करते हैं कि वह स्वमेव दिपदिपाने लगता है। जैसा कि वह अपनी एक कविता में कहते हैं, बढई अपने रंदे से खुरदरी और शुष्क लकड़ी को नयी आभा दे देता है। तीसरे, उसके साथ कल्पित का नजरिया जुडता है, और हम वहाँ कविता होते पाते हैं।

सांस्कृतिक विमर्श के सिलसिले में कविता की निकटता दर्शन से होती है। ये दोनों ही अनुशासन मनुष्य के अस्तित्वगत प्रश्नों से जूझते रहे हैं। वेदो से लेकर जैन, बौद्ध और लोकायतों तक कल्पित की कविता दर्शन से साहचर्य रखने की कोशिश करती है। सिद्धार्थ से बुद्ध बनने में सत्य-संधान के विभिन्न चरणों को चीन्हते हुए वे लिखते हैं -

 

बुद्ध बनने के रास्ते में

कितना संघर्ष कितनी रुकावटें थीं! (63)

 

अप्प दीपो भव के साथ बुद्ध की देशनाओं में जाते हुए उनका एक उल्लेख देखें -

अपनी क्षुधा की पूर्ति उस तितली की तरह करो जो फूल को गन्ध या उनके स्वभाव को हानि पहुंचाए बिना उसका मधुपान करती है। (66)

 

राज- सत्ता से जुडऩे के बाद बौद्धों का भी चरित्र बदल गया-

बौद्ध भिक्षा ही नहीं मांगते थे

षडयंत्र भी रचते ते। (161)

 

और आजीवकों के बारे मे, कल्पित की एक कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं-... यदि आजीवक नहीं होते तो संभवत: बुद्ध भी नहीं होते! इसी कविता में पहले यह उल्लेख है... बौद्ध और जैन ग्रंथों में कोई बासठ विपथगामी विचारकों के नाम गिनाये गये हैं जिनमें प्रमुख पूरन कास्सप मखलि गोसाल अजित केशकम्बलि पकिध कच्चायन निगण्ठ नतपुत्त और संजय वेलथिपुत्त थे। ये सभी विचारक दलित और दस्तकार वर्ग से आते थे और आजीवक कहलाते थे... (102)। ... लोकायत के मूलग्रंथों और उनकी टीकाओं को नैतिकतावादियों ने विलुप्त कर दिया या जला दिया फिर भी इस देश में चार्वाको के सिद्धान्तों की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई...

ऋण लेकर धृत पीने वालों की

इस महादेश में किसी भी काल में कोई कमी नहीं रही! (104)

 

सामूहिक स्मृतियाँ लिखित इतिहास के समानांतर चलती हैं। कालान्तर में वे किंवदंती और जन- श्रुतियों का रूप लेती रहती हैं। इसमें से कुछ इतिहास में शामिल हो जाती हैं, बाकी बाहर रह जाती हैं। कल्पित ने प्रचलित के साथ अनेक नैपथ्य में चली गयी चीजों को याद किया है, कई भूले-बिसरे कवियों का पुनर्वास किया है। भारत खुद में एक सामुहिक स्मृति है-

कोई नहीं था भारत का

कोई नहीं आया भारत से

भारत कल्पना में एक देश था(12)

 

अमरसिंह विचरित अमरकोश के जरिए कवि बताता है कि किस जाति की स्त्री के किस जाति के पुरुष के साथ संसर्ग से उत्पन्न संतान शूद्र कहलाती थी (51)

 

लेकिन यह देश हर- बार

अपनी राख से उठ खड़ा हुआ (51)

 

यहां वैशाली की नगर-वधू और आम्रपाली थी(70)

 

शून्य इस देश का महा-आविष्कार था (91) एक कविता में यह कहने से पहले एक अन्य कविता में असंख्य संख्याओं का विवरण देकर कवि कहता है कि बिना धन-धान्य के इस गिनतियों का विकास संभव नहीं था।

 

जादू के प्रचलन के बारे में अंग्रेज इतिहासकारों के संदर्भ से अपनी बात के साथ कहा गया है -

ज्ञान जहाँ समाप्त होता है

जादू वहीं से शुरू होता है

यह देश जादूगरों का देश था! (99)

दिल्ली सिर्फ देश की नहीं

प्रेतात्माओं की जिन्नातों की राजधानी थी!(100)

 

...हर कार्य की शुरुआत

नारियल फोड कर की जाती थी (112)

 

नदियों की पूजा होती थी तो सर्वत्र जुए का चलन था।

लेकिन लोक में लिखि के मेटे सो सोई जाने जैसे गान गूंजते थे। और-

स्त्रियों का सामूहिक रुदन सुनायी देता था

रंग-बिरंगे चिथडे हवा में उड़ते थे (123)

 

ठगी एक व्यवसाय था, लाखों लोग बेघर थे, बाहर काम की तलाश में चले जाते थे, आवागमन एक निरंतर चलने वाली कार्रवाई थी।

गलियां इस महादेश में

प्रेम की अभिव्यक्तियाँ थीं(143)

 

इस देश के कथित बुद्धिजीवी

इस देश को नहीं पहचानते हैं (198)

 

ब्रिटिश औपनिवेशिक लूट के वृतान्त में कवि ने संसादनों के दोहन में पं. सुन्दरलाल और देशज ढांचे को ध्वस्त करने से संदर्भित डा. धर्मपाल के इतिवृत्तों का सहारा न लेकर सीधे ब्रिटिश स्रोतों को प्रयुक्त किया है। इस लूट से केवल अर्थ-व्यवस्था ही नहीं बर्बाद हुई बल्कि इसने भारतीय समाज के समस्त ताने-बाने को तहस-नहस कर दिया।

इस महादेश में

लुटेरों की नयी यह नयी खेप ती

इस बार वे व्यापारियों के भेस में आए थे! (72)

 

क्लाइव से लूट आरंभ हुई तो आद्यंत चल रही है। कल्पित की कविता यहां ऐसे सामने आती है-

अंतत: ब्रिटिश साम्राज्य इस महादेश में अपनी ही चलायी हुई रेलगाड़ी से कुचल कर मर गया!(111)

 

लेकिन इससे पहले इसने सुदूर अंचलों तक लक्खी बंजारों के जरिए फैली बनिज व्यवस्था को तबाह कर दिया। भारत का कपड़ा उद्योग पहले ही खत्म कर दिया गया था। नील की कुख्यात खेती की स्मृतियाँ त्रासद हैं। सन्यासी विद्रोह और वंदे मातरम् जैसे प्रसंगों से कवि नयी बनती प्रतिरोध- चेतना को इंगित करता है।

 

3

कविता के निष्कर्ष अपनी ही तरह के होते हैं जो पारंपरिक रूप में सूक्ति या सुभाषित कहे जाते रहे हैं। हिन्दी की आधुनिक कविता में ये प्राय: प्रच्छन्न और परोक्ष रूप में आते हैं और विरल हैं। समकालीन कविता में सबसे ज्यादा सुभाषित त्रिलोचन की कविता में हैं और उसके बाद मुझे लगता है, कृष्ण कल्पित के यहाँ हैं।

सिद्धार्थ गौतम के संदर्भ में कही एक उक्ति देखें -

 

एक युद्ध दूसरे युद्ध को जन्म देता है (57)

 

जैसे सूखे हुए फूल बिखरने लगते हैं (87)

 

आग ने हमें बसना सिखाया (97)

आग को आग नहीं लगायी जा सकती (132)

 

इस महादेश की सभी भाषाएं

हर अच्छे-बुरे समय सन्नद्ध खडी रहती थीं! (151)

 

कबाडीवाला...

इन तीन शब्दों में हमारी

महान सभ्यता की समीक्षा छुपी हुई थी (170)

 

गरीब-गुरबे अपना अभिलेख खुद थे (176)

 

दोनों ही गडरिये थे

एक ईसा मसीह बना दूसरा तैमूर लंग! (210)

 

कालांतर में वर्णों को पशुओं की तरह बांदने के लिए बनाए गये इस मजबूत

रस्से जेबडे को हिन्दू धर्म के नाम से पुकारा गया! (218)

 

पुराना सब कुछ अच्छा नहीं

नया सब कुछ वन्दनीय नहीं (219)

कोई एक किताब नहीं थी

कोई अंतिम किताब नहीं थी

हर नई किताब

पुरानी किताब का खंडन थी

यह महादेश

एक लिखी जा रही किताब था! (231)

कुछ पूरी कविताएँ:

 

जब कुछ नहीं बचता था

तब भी कोई आस बची रहती थी

अलाव बुझ जाते थे

लेकिन गरमास बची रहती थी

जिसे अपने पंजों से श्वान कुरेदते रहते थे! (162)

 

पान वाले बहुत दूर तक साथ निभाते थे

दुर्दिन में

सबसे पहले रंडियां साथ छोड़तीं थीं

फिर जिगरी दोस्त

पुरानी प्रेमिकाएं पर

मृत्युपर्यन्त नहीं छोड़तीं थीं

वे हाल-चाल लेती रहतीं थीं

जीवत हो या मर गए

इस महादेश को पुरानी प्रेमिकाओं ने थाम रखा था (139)

 

पहले हम पाप करते ते

फिर उनका प्रक्षालन करते थे

और धूप में सूखने के लिए डाल देते थे

अगले दिन हम उन्हें फिर पहनते थे

और फिर पाप करते थे

कभी-कभी हम पुण्य भी करते थे

लेकिन हम उसे किसी दरिया में बहा देते थे! (128)

 

किसी ने मेरे भारत को देखा है

किसी ने

एक फटेहाल स्त्री

इस महादेश के फुटपाथों पर भटकती थी

अपने भारत को खोजती हुई

जैसे अपने खोये हुए पुत्र को। (81)

 

हमने मंदिर बनाए

मस्जिदें गुरुद्वारे गिरजाघर

हमने बौद्ध- विहार जिनालय

चैत्यों और स्तूपों का निर्माण किया

हमने ही बनाए

हमने ही ढाये

यह दुनिया हमारे आगे

बच्चों के खेलने का मैदान थी!(28)

 

कविता में कवि के लाउड होने को दोष माना गया, जो ठीक भी था। किन्तु संयत और सांद्र स्वर को भी सदैव उचित नहीं ठहराया जा सकता। यह किसी कवि के लिए कंफर्ट जोन भी हो सकता है - बाह्य जगत् से पलायन। इसी क्रम में, कविता में राजनीतिक तेवर को अक्सर कवि की राजनीतिक सम्बद्धता के साथ देखा गया है। जबकि इसे वास्तव में जन-सम्बद्धता में देखा जाना चाहिए। इसका एक संकेतक है कि कवि कहां खड़ा होकर किसे सम्बोधित कर रहा है। इसके मानी हैं कि वह पब्लिक डोमेन में है या नहीं। पब्लिक डोमेन के बिना वह कविता को किसी सार्वजनिक बहस अथवा विमर्श में कैसे ले जा सकता है। और जब वह पब्लिक डोमेन में जायेगा तो उसकी कविता अपेक्षाकृत मुखर होगी, जैसे मुक्तिबोध, धूमिल, आलोक धन्वा, कात्यायनी और इधर निर्मला पुतुल व अनुज लगुन की कविता है। कल्पित की कविता पब्लिक डोमेन में जन-साधारण को सम्बोधित करती, उनके समक्ष विमर्श का प्रस्ताव करती और सहभागिता के लिए पुकारती हुई पुकार है।

समकालीन कविता से असंतुष्टों की शिकायत है कि यह लंबे समय से ठहरी हुई और ठंडी है। इस शिकायत में आंशिक नहीं बल्कि बहुलांश में सचाई है। आज के कई प्रतिष्ठित माने जाने वाले कवियों की दशकों से अनवरत रचनाशीलता में हम एकरसता और सृजनात्मक ठहराव को लक्षित कर सकते हैं। हिन्दी की कविता से पाठकों के विरत होते जाने का सह-सम्बन्ध भी प्राय: इससे जोड़ा जाता है। सामान्य पाठक की कविता से अक्सर अनेक और बहुपक्षीय अपेक्षाएं होती हैं और वह निराश होता रहा है। ऐसे में कल्पित जैसे कुछ कवि उदासीन पाठकों को आकृष्ट ही नहीं कर रहे बल्कि वे कविता के पाठकीय पाट को विस्तार दे रहे हैं।

अंत में, यह पुस्तक भी अपनी संरचना में इस महादेश का ही जैसे रूपक है - काल को परस्पर अतिक्रमित करती और विश्रंलित।

 

 

कवि और आलोचक वर्तमान में समान्तर संस्थान के निदेशक हैं।

संपर्क- जयपुर, मो. 9828169277

 


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