मुखपृष्ठ पिछले अंक सामयिक देसगाँव (अभिषेक श्रीवास्तव )
मार्च - 2020

देसगाँव (अभिषेक श्रीवास्तव )

सुनील सोनी

भारत के लोगों और आंदोलनों की ज़िंदा दास्तान

 

 

मौज़ूदा आंदोलनों से जुड़ती है

देसगाँव के आंदोलनो की डोर

 

 

''पृथ्वी सभी मनुष्यों की ज़रूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त संसाधन प्रदान करती है, परंतु वह मनुष्य के लालच को पूरा नहीं कर सकती।’’

-महात्मा गांधी 

 

2019 की छूटती हुई देह और 2020 के कायाप्रवेश की संक्रांति में सत्ताधारी जब समूचे भारत में नाना प्रकार संविधान के वटवृक्ष को नष्ट करने पर तुले हैं और इसके खिलाफ उठती हर आवाज़ को नृशंसता से कुचलने पर आमादा हैं, तब हमें देश के देहातों में 'विकास’ के नाम पर लंबे अरसे से चले आ रहे दुष्चक्र और उसके प्रतिरोध में उठे स्वरों को मुड़कर देखने की जरूरत भी महसूस करनी चाहिए। राजनीतिक सत्ता के मार्फत जनता को कुचलकर संसाधनों को हड़पने और मुनाफा कमाने का यह अंतहीन पुराना खेल इतना उजागर और भौंडा है कि इस समग्र प्लॉट पर जेम्स कैमरून को अपनी हॉलीवुडिया फिल्म 'अवतार’ को दिलचस्प बनाने के लिए एक नए ग्रह की कल्पना करनी पड़ी। यह कल्पना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं है कि पूँजीपतियों और उनके राजनीतिक गुर्गो के लालच के सामने यह दुनिया छोटी है।

'देसगाँव’ में अभिषेक श्रीवास्तव भारत के कुछ हिस्सों में कई दशकों से अनवरत जारी इस लूट-खसोट और उसके जनप्रतिरोध से हमें वाकिफ करवाते हैं। वे उसकी परतों को खोलते हैं और उसमें जाति-धर्म जैसी सामाजिक संरचनाओं के राजनीतिक इस्तेमाल का पर्दाफाश भी करते हैं. वे यह भी बताते हैं कि सत्तर साल का आजाद भारत जिस अनिवार्यत: द्वंद्व से गुजर रहा है, वह उसके शहरों और गाँवों में बँटा हुआ है। मुट्ठीभर शहर और चुटकीभर शहरी समुदाय, गाँवों/जंगलों में बिखरे संपूर्ण संसाधनों को कुछ लोगों के मुनाफे के समंदर में तब्दील कर देने की डिजाइन का हिस्सा हैं। यह भी कि प्रतिरोध को बेअसर करने के षड्यंत्र में सत्ता कैसे पुलिस, फौज जैसे हथियारबंद बलों के साथ व्यापक असर रखनेवाले मीडिया को भी औज़ार की तरह इस्तेमाल करती है। इसकी कमाल की निरंतरता इतने स्थिरभाव में है कि सिलसिला कभी टूटता ही नहीं है।

'देसगाँव’ की हकीकत उजागर करनेवाली कहानियां हमें यह भी बताती हैं कि आमतौर पर पूरी दुनिया में कथित विकास का रास्ता देहातों की बरबादी से होकर गुजरता रहा है, जिसमें डूबने से लेकर जिंदा दफन होने और कई बार उबरकर फिर डूबने की दास्तानें अनगिनत हैं. भारत में ऐसी व्यथा कथाओं के मैग्मा का दरिया लगभग हर गाँव और उसमें रहने या पलायन करनेवालों के भीतर से बहता है। उसकी आँच बहुत बार सत्ता प्रासादों को झुलसाती है, पर हर बार त्वचा बदल जाती है। इस अटूट सिलसिले की कुछ कहानियों का मैग्मा 'देसगाँव’ में भी जमा है, जो उनसे होकर गुजरनेवालों की आत्मा को झुलसाएगा भी और षड्यंत्र के उस तिलिस्म से रूबरू भी करवाएगा, जिसे उजागर करने के खतरे इतने बड़े हैं कि जान न भी गई तो ज़बान नहीं बच पाएगी।

'देसगाँव’ अपने आवरण पर ही ऐलान करती है कि यह भारत के लोगों और आंदोलनों की जिंदा दास्तान हैं। रबी उल इस्लाम के शफ्फाक पृष्ठभूमि के आवरण में गांव और देस जिस तरह काले घेरे में बंद हैं और कोई निकलने का रास्ता नहीं दिखता.. घूम-फिर कर सारे रास्ते वहीं खत्म हो जाते हैं.. यही दुष्चक्र का दस्तावेज है, जो दिखाता है कि कैसे पूरे देश में समानांतर व्यवस्था उस घेरे से बाहर एक खास वर्ग के लिए काम कर रही है।

2009 से 2017 के बीच लिखे गए ये नौ राज्यों के 20 रिपोर्ताज हैं, जो न केवल हमारे संसदीय लोकतंत्र के ढांचे और प्रबंध की पोल खोलते हैं, जो मूलत: मिजाज में सामंती है और जनता से उसी तरह से बरताव करता है। यानी लोकतंत्र में कैसे लोक हाशिये पर है और किस तरह तंत्र भ्रष्ट है. ये रिपोर्ताज इस बात को भी रेखांकित करते हैं कि कैसे सतह के नीचे जातिगत विभाजन काम करता है और धर्म का चोला पहनकर जाति कैसे शोषण की राह खोलती है।

ये यह भी पड़ताल करते हैं कि जन आंदोलनों को बोथरा बनाने के लिए सत्ताधारियों के पक्ष में एनजीओ किस तरह सेफ्टीवॉल्व का काम करते हैं। राजनीतिक दलों के पास जन आंदोलनों और लोगों के बीच फूट डालने का क्या हुनर है और वे संवैधानिक पदों पर चुने गए लोगों का इस्तेमाल कैसे माहिर हैं। पुलिस का बरताव कैसे अब भी राजा के गुलाम की तरह है, जो खुद को राजा मानती है, जातिगत भेदभाव रखती है और अंग्रेजों को हुक्मबरदारों की तरह जनता को शत्रु मानती है। ये रिपोर्ताज राजनीतिक आंदोलनों और उनकी जमीन की पड़ताल भी करते हैं। बारीकी से सूंघते हैं और पता लगाते हैं कि जनांदोलन सचमुच काम कर रहे हैं या नहीं।

'देसगाँव’ लिखते हुए अभिषेक कई मुहावरे भी गढ़ते हैं। ये मुहावरे लोक में व्याप्त नहीं हैं, पर उनके अनुभवों से सजे हुए हैं। वे संसदीय लोकतंत्र को आईना दिखाने के लिए धूमिल का उल्लेख करते हैं, सद्भाव के फ़ना होने पर आसी गाज़ीपुरी का और व्यवस्था को चुनौती देने के लिए उषा मकवाना की कविता का भी। वे कभी बुंदेली लोकगीत का संदर्भ लेते हैं, तो कभी हिमाचली 'लोकगीत’ का।  रिपोर्ताज न केवल गवाहियों के मार्फत तरतीब से साक्ष्य जुटाता है, बल्कि लोगों की प्रवृत्तियों की पड़ताल भी करता है, जो मनोदशा में बदलाव के किस्से भी कहती हैं।

'देसगाँव’ के हर अध्याय का शीर्षक दरअसल देहातों के प्रतिरोध का सौंदर्यशास्त्रीय आयाम हैं। नौ राज्यों की इस दस्तान में सबसे पहला राज्य उत्तरप्रदेश है, जहां के अलग-अलग इलाकों और नए भू-राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक समीकरणों पर छह रिपोर्ताज हैं।

सोन का पानी लाल है (2015), सियासत के धुँधलके में डूबता जनपद (2014), हिंदू राष्ट्र और राजपूताने की दोहरी सियासत में फँसा 'द ग्रेट चमार’ (2017), बुँदेलों की सूखी छाती पर ताजा घाव है सुखलाल की मौत (2016), एक माता ललितपुर की, भीख माँगती-मिट्टी फाँकती (2016), भुखमरी के साम्राज्य में अश्लीलता के हरे-भरे बाँध (2016), महाराष्ट्र के सदा सूखापीडि़त मराठवाड़ा पर 2013 में लिखे गए एकमात्र रिपोर्ताज का शीर्षक शमशेर बहादुर सिंह की कविता 'काल तुझसे होड़ है मेरी’ पर आधारित और मौजूं है।

मध्यप्रदेश के तीन रिपोर्ताज हैं.. 'सत्याग्रह’ की डुबकी : कहानी तीन गाँवों की (2012), इंसान और ईमान का नरक कुंड (2014), बेटी का सौदा करने की झूठी कहानी (2016)।

ओडिशा पर दो कथाएं; 'नियमगिरि की जंग’ (2013) और गिरता पानी खंडधार, बिक गया तो रक्तधार (2016) हैं। उत्तराखंड की अकेली रिपोर्ट ज़ुल्मतों और इंसाफ के बीच ठिठकी ज़िंदगी (2015) और  हिमाचल प्रदेश के दो इलाकों की दास्तान : बदलती-सुलगती देवों की धरती (2009) और पचास साल की नाइंसाफी और शर्म (2009) वह बताती हैं, जो आमतौर पर खबरों में बताने से खारिज कर दिया जाता है।

राजस्थान की बिल्कुल अलहदा रिपोर्ट : चुनावी साजिशों की 'रिफाइनरी’ (2013) और आदिवासी अस्तित्व का संघर्ष पत्थरगड़ी : एक संवैधानिक विरासत का आँखों देखा इतिहास (2018) भी यहां हैं।  पंजाब के इतिहास में दक्षिणपंथी चुनावी छौंक की छानबीन 'नरेंद्रभाई, सुरैण सिंह अभी जिंदा हैं !’ (2013) और इस प्रदेश के बारे में व्याप्त मिथकों का खंडन 'मीडिया पंजाब के दलितों का संघर्ष नहीं जानता (2017)’ हैं। 'यहाँ कदम-कदम पर मोटा समढियाला बिखरे हुए हैं’ (2016) और 'दलित आंदोलन के ऐतिहासिक आईने में ऊना रैली का अक्स’ (2016) : गुजरात पर दोनों पड़तालों के केंद्र में राज्य में दलितों का उभार है और राजनीतिक बुनाई तथा साम्प्रदायिक आवरण में छिपी वर्ण-व्यवस्था की मजबूत किलेबंदी का पर्दाफाश करता है।

सबसे आखिर में संदर्भ और नोट हैं, जिसमें हर रिपोर्ट पर 2019 का अपडेट दिया गया है. यह भी ये रिपोर्ट कहां छपी या छापी गई थीं.  इनमें खासतौर पर गुजरात में दलित आंदोलन से उभरे नेता जिग्नेश मेवाणी के कभी लौटकर उस गाँव में न जाने का भी आश्चर्य समेत जिक्र है, जहां से उनके विधायक बन जाने की ताकत की बुनियाद पड़ी। इसी रिपोर्ताज में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा बौद्ध दलितों को आश्चर्यजनक रूप से अपनाए जाने का जिक्र भी है।

जैसे ही देसगाँव का आरंभ  होता है, 'सोन का पानी लाल है..’ राज खोल देता है कि यह रंग सोनभद्र के संघर्ष में बहे आदिवासियों के खून का है। छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों से सटे उत्तरप्रदेश के इस जिले में सघन वनों और पहाड़ों के बीच आदिवासी रहते-जीते आए हैं। आधी सदी पहले पांगन नदी पर कनहर सिंचाई परियोजना का बाँध बनना तय हुआ था, अचानक 2014 में मोदी के 'विकास उफान’ के जवाब में तत्कालीन अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार ने उसे पुनर्जीवित कर दिया है और आदिवासियों को उनके घरों, खेतों और पहाड़ों से बेदखल करना शुरू कर दिया है। आदिवासी इसका विरोध कर रहे हैं। राजा के हुक्म की नाफरमानी पुलिस को बहुत नागवार गुजरी है। नतीजा है कि जेल और उनका दूसरा रूप बना दिए गए अस्पताल आदिवासियों की टूटी-फूटी देहों, चीख-चीत्कारों, विलाप और कराहों के साथ विवाह से वंचित रह गईं युवतियों के टूटे सपनों की किरचियों से भरा है. श्मशान और कब्रिस्तान में पहुंचे शव पुलिस की राइफलों की गोलियों के सटीक निशानों के गवाह बन गए हैं।  दिलचस्प ये है कि यह बाँध जिन्हें फायदा पहुंचानेवाला है, वे सोनभद्र के नहीं हैं।

यह सिर्फ सोनभद्र के आदिवासियों की जबरन बेदखली से उपजी विस्थापन की कहानी नहीं है, बल्कि विकास की फूहड़ समझ, संगठित (या असंगठित) रूप से अपनी बात कहने को राजा के खिलाफ देखने के पुलिस और राज्य के सामंती नजरिये, आंदोलन, उसके नेतृत्व, उसमें फूट और उसके मार्फत पीडि़तों के पीडि़तों के खिलाफ बेदर्दी से इस्तेमाल, मुनाफे की लूट और उसमें हिस्सेदार, विस्थापित और लाभान्वितों का रोचक हिसाब, पीडि़तों के खिलाफ समानांतर अर्थव्यवस्था खड़ी किए जाने, एनजीओ एवं मीडिया की भूमिका की समग्रता से पड़ताल और उन्हें बेनकाब करने की दास्तान है।

इसमें सबसे रोचक और महत्वपूर्ण है धारा 144 का इस्तेमाल, जिसे आम तौर पर हर जगह पुलिस मनमर्जी से इस्तेमाल करती रही है, यहां भी व्यापक रूप से दहशत फैलाने में काम आती है। वह भी तब, जबकि धारा 144 लागू करना निचली न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में आता है ..और जैसा कि हाल ही में 'कश्मीर’ में पाबंदियों के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इसका इस्तेमाल लोकतांत्रिक अधिकारों और बोलने की आजादी छीनने के लिए नहीं किया जा सकता; लेकिन, राज्य की जनविरोधी मंशा के खिलाफ जनांदोलन जब ताकतवर हो उठे, वह पुलिस के मार्फत इसके असीमित और अन्यायी इस्तेमाल से नहीं चूकता। इसमें वे षड्यंत्र भी रेखांकित हैं, जिनसे आंदोलनों को कभी 'नक्सल’ या कभी 'उग्रवादी’ नाम देकर बदनाम किया जाता है और उत्पीडऩ का नया दौर शुरू हो जाता है। इन षड्यंत्र को व्यापक बनाने का औजार जाने-अनजाने में मीडिया ही बनता है और उसका ही एक हिस्सा इसका पर्दाफाश भी करता है. सतरों के बीच में झांकेंगे, तो पता चलेगा कि उत्तरप्रदेश का समाज अब भी सदियों पुरानी सामंती जड़ता में जी रहा है।  2020 में यह मुद्दा और महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि बड़े बाँधों से नदियों का प्रवाह रोक देने और उनमें जंगल को डुबा देने के भीषण खतरे जलवायु परिवर्तन के तौर पर सामने आए हैं। लेकिन, स्थानीय स्तर के आंदोलन के वैश्विक आयामों में देखने की फुरसत किसी को नहीं है।

'सियासत के धुँधलके में डूबता जनपद’ :

गाज़ीपुर की यह कहानी बताती है कि सदीभर आजादी की लड़ाई में खपा देनेवालों का खून अचानक 20वीं सदी के ढलते-ढलते लाल से कैसे भगवा हो गया और कैसे जातिवादी सामंती वर्चस्व ने साम्प्रदायिक सौहार्द की जगह ले ली। दिलचस्प ये है कि गाज़ीपुर से ह्वेनसांग और फाहियान के गुजरने का जो सफर है, उस डोर के सिरे चीनी रणबाँकुरों को इस इलाके के शूरवीरों से जोड़ते हैं। गाज़ीपुर अपने प्रभाव से स्वामी विवेकानंद और गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर तक को खींचता है। 1857 के मंगल पांडे विद्रोह से 1942 की अगस्त क्रांति और फिर अब्दुल हमीद की शहादत से 1974 में जमींदारों के खिलाफ भूमिहीनों के विद्रोह और फिर वामपंथी आंदोलनों तक का इतिहास रखनेवाला गाज़ीपुर अब साम्प्रदायिक राजनीति के मार्फत वर्ण व्यवस्था का उभार देख रहा है। जाहिर तौर पर इस उभार में आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी ने खुद के लिए जमीन तैयार की और अब फल-फूल रहे हैं, इसे समझाने के लिए इसमें जरूरी ऐतिहासिक दृष्टांत और आंकड़ों का ढेर है। लेकिन, यह रिपोर्ताज इसे गंगा की कटान से मिट रहे गाँव और उनमें डूबते लोगों के विस्थापन और राजनीतिक/सामाजिक ताकतों के भेदभाव को उजागर करने की पृष्ठभूमि तैयार करने में भी बखूबी इस्तेमाल करता है। विस्थापन ने स्वाभाविक रूप से यहां आंदोलन खड़ा किया है, जिसका सामना अब नेता-अपराधी-पुलिस गठजोड़ से है, जो जातिगत वर्चस्व संचालित है।

'हिंदू राष्ट्र और राजपूताने की दोहरी सियासत में फँसा 'द ग्रेट चमार’

यह कथा उत्तरप्रदेश के ही सहारनपुर की है, जहां बहुजन समाज पार्टी की दलित राजनीति की कालांतर में विफलता ने सवर्णो को जबरदस्त ढंग से संगठित हिंसक भीड़ में तब्दील कर दिया. इसके प्रतिरोध ने भीम आर्मी को जन्म दिया है, जिसका नेतृत्व चंद्रशेखर आजाद 'रावण’ के हाथ है। दलितों के खिलाफ राजपूतों की जानलेवा हिंसा की पुरानी कहानी के बजाय यह इस बात की पड़ताल है कि कैसे सूचना प्रौद्योगिकी (मोबाइल फोन और इंटरनेट) और खेतिहर काम के बजाय शहरी अर्थव्यवस्था में छिटपुट काम से आए  पैसों ने दलितों को उनकी आवाज तब उजागर करने की हिम्मत और सहारा दिया है, जब वे पुलिस के संरक्षण में एकतरफा घातक हमले ङोलने के बावजूद सामंतवादी और सवर्णवादी मानसिकता से मीडिया की एकतरफा रिपोर्टिग के शिकार हैं। उत्तरप्रदेश में चूंकि निजाम बदलकर भाजपा के उग्र राजपूत नेता योगी आदित्यनाथ (अजय सिंह बिष्ट) के हाथ है, इसलिए यह हिंसा बढ़ी है और जनप्रतिरोध भी। यह भी दिखता है कि मुख्यधारा का मीडिया यहां औजार नहीं, सीधे राजपूतों का पक्ष बन गया है, जबकि फोन के कैमरे से ली गई तस्वीरें और वीडियो के मार्फत सोशल मीडिया दलितों को भी कुछ जगह दे रहा है। यहां योगी के अलावा फूलनदेवी की हत्या का दोषी शेर सिंह राणा राजपूतों का 'वीर नेता’ बनकर उभरा है। प्रतिरोध के बावजूद दलितों की कृषि अर्थव्यवस्था में भागीदारी न के बराबर है, पर उनके संगठनों ने अपना ध्यान बच्चों और नौजवानों की शिक्षा-दीक्षा में लगा रखा है, जो उन्हें अंतत: शहरों में निजी या सरकारी नौकरी तक ले जाए और आर्थिक रूप से सबल करे। हालांकि, इसमें भी विघ्न हैं और दलित छात्रवासों को 'मिनी जेएनयू’ तक पुकारा जा रहा है। सात खंडों की सिलसिलेवार पड़ताल में यह भी उभरकर आता है कि आरएसएस अगर यहां की जमीन में गहरे धँसा हुआ है, तो कई दलित संगठनों ने भी काम शुरू किया है। लेकिन, योगी सरकार के संरक्षण में उनकी काट के कई खेल जारी हैं।

'बुंदेलों की सूखी छाती पर ताजा घाव..’ और ''एक माता ललितपुर की..’’ वे कहानियां हैं, जो देश के सबसे पिछड़े इलाके बुंदेलखंड के बड़े कस्बे ललितपुर में अकाल और भुखमरी के बीच जिजीविषा की झलक पाने की शिद्दत महसूस करवाती है, वहीं सरकारों के साथ समाज की अमानवीयता पोल भी खोलती है। भूख से बेहाल होकर पुरुषों का शहर की ओर पलायन और मौत, जबकि महिलाओं का भूख मिटाने के लिह मिट्टी खाकर जिंदा रहना, मदद की आस में हर अजनबी के समक्ष बेझिझक हाथ फैलाना और फिर भी मृत्यु का सामना करना करुण कथा है। यह संयोग नहीं है कि दोनों असली कथाओं के व्यथा-पात्र दलित हैं। लंबे समय से अकाल के शिकार बुंदेलखंड की तीसरी कहानी का शीर्षक 'भुखमरी के साम्राज्य में अश्लीलता के हरे-भरे बाँध’ खुद पूरी व्यथा कह देता है। यहां 'अकाल’ के बजाय मराठी 'दुष्काल’ का इस्तेमाल अकाल के दुष्चक्र की व्याख्या को एक शब्द में समेटने के लिहाज से है, जो ललितपुर में कचनौंदा बाँध के मार्फत प्रकृति की मार से तिल-तिल मर रहे लोगों को सूली पर चढ़ा देने की मानवीय त्रसदी में काम आता है।

अकाल और भूख से त्रस्त बुंदेलखंड के मध्यप्रदेश में मौजूद इलाके में मुख्यधारा का मीडिया कैसे बिना खोजबीन के 'फेकन्यूज’ चलाकर जिंदगी तबाह करता है, इसकी कहानी, 'बेटी का सौदा..’ शीर्षक से टीकमगढ़ के आदिवासी बहुल मोहनपुरा गाँव की आदिवासी विधवा की नाबालिग बेटी की मजबूरी में शादी की 'सौदे’ की खबर बनकर छपी 'अफवाह’ है। एक सनसनीखेज अखबारी 'फेकन्यूज’ ने कैसे समूचे देश के प्रिंट और विजुअल मीडिया को यहां ला दिया और उन्होंने फिर वही किया कि सिर्फ टीआरपी की परवाह में अक्षम्य लापरवाही से अधनंगे-भुखमरों को 'सौदेबाज’ साबित कर दिया। वह भी बिना जाँच-पड़ताल के सतह से नीचे फिर इस कहानी में जातिगत वर्चस्व की चाह है, जहां इस बार ओबीसी सरपंच खलनायक है।

महाराष्ट्र के मराठवाड़ा के अकाल, अर्थव्यवस्था और उसकी राजनीति पर आधारित 'काल तुझसे होड़ है मेरी..’ में जॉर्ज ऑरवेल के लेख 'पॉलिटिक्स एंड द इंग्लिश लैंग्वेज’ के जरिये 'दुष्काल’ के जरिये इस शब्द की सार्थकता को खोजने के साथ ही यहां की परिस्थितियों को कुख्यात 'सोमालिया’ से 'कालाहांडी’ से परिभाषित करने का प्रयास है। बुंदेलखंड और मराठवाड़ा की स्थितियों में यह फर्क जरूर है कि यहां संसाधनों पर कब्जे की होड़ में टैंकर से जलापूर्ति राजनीतिक पैंतरा है. कपास की फसल तबाह होने पर किसानों की आत्महत्या के लिए कुख्यात विदर्भ के बरअक्स मराठवाड़ा से ऐसी खबरें देर से सही, आने लगी हैं, पर बाँध, विस्थापन, पलायन, सिंचाई के सपने से लेकर नेता-कार्यकर्ता तक संदर्भ सब वही हैं। सिर्फ यहां पुलिस नेपथ्य में है और मीडिया नए चोगे में पुरानी भूमिका में. पार्टियां बदल गई हैं। भाजपा-सपा-बसपा की जगह शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस या शिवसेना आ गई है।  वामपंथी दल और संगठन यहां भी यूपी की तरह दरकिनार हैं. यहां जाति संरचना की पड़ताल उतने जरूरी ढंग से नहीं उभरती, जितनी यूपी में क्योंकि पूरे महाराष्ट्र की तरह यहां प्रतिरोध की ताकत आंबेडकरी आंदोलन के रूप में, भले ही अलग-अलग संगठनों या दलों में मौजूद है। लेकिन, वर्चस्व सवर्ण ताकतों का ही है, जो भाजपा की सरकार के बनते ही सतह के नीचे खदबदाने वाले दलित-मुस्लिम विरोध के तौर पर ऊपर आ गया है। लेकिन, यहां के संकट उत्तरप्रदेश के बिल्कुल अलग हैं। अपेक्षाकृत अधिक संपन्नता, शराबखोरी, सिंचाई के लिए बने बाँधों का सूखा पड़ा होना, किसानों का गन्ने जैसी नकदी फसलों में फँसना और बहुफसली पैदावार का ठुकराना, सहकारिता आंदोलन से धन्ना सेठ बने नेताओं की गन्ना मिलों पर किसानों का करोड़ों बकाया और रोजगार गारंटी योजना तथा मनरेगा जैसी योजनाओं के बावजूद खेतिहर मजदूरों का शहरों की ओर पलायन जैसे मुद्दे यहां मौजूद हैं। इन सबमें बड़ा मुद्दा सरकार की ओर से कई बार कजर्माफी जैसी मदद और उसका भारी भ्रष्टाचार एवं पक्षपात के बावजूद किसानों तक पहुंचना है, जिसके बाद वे फिर से पुरानी स्थिति में लौट आते हैं। यह पड़ताल स्पष्ट करती है, यह संकट योजना और ढांचे के साथ सामाजिक स्तर पर भी है, जिसका खुलासा लेखक इन पंक्तियों से करते हैं, ''दरअसल यह दुष्काल सिर्फ पानी का नहीं है.. सिर्फ अन्न का भी नहीं. मेहनत, ईमान, सहजता, साहस, शुचिता.. यह सबका दुष्काल है.. यह दुष्काल सामाजिक है, राजनीतिक है, नैतिक है।’’

महाराष्ट्र से सटे मध्यप्रदेश के हिस्से की पड़ताल 'सत्याग्रह की डुबकी : कहानी तीन गाँवों की..’ नर्मदा नदी पर बननेवाले विशाल ओंकारेश्वर बाँध की डूब में आनेवाले खंडवा और हरदा के तीन गाँवों में सत्याग्रह के विभिन्न कोणों की है. इन कोणों में फिर से प्रमुख भूमिका में पुलिस है, जो सरकारी औजार होने के साथ ही अपने सामंती पूर्वाग्रहों को भरपूर बेशर्मी से इस्तेमाल करती है। यहाँ मुख्यधारा का मीडिया (जिसमें अंग्रेजी के बड़े अखबार भी हैं) चिर-परिचित जनविरोधी भूमिका में न केवल दिखता है, बल्कि सत्तारूढ़ भाजपा के नेताओं के हाथों में खेलता हुआ जातिगत भेदभाव और घृणास्पद होने की हद तक साम्प्रदायिक उभार को रूढ़ करने में मदद करता है. विस्थापन, पलायन, मुआवजे और धोखाधड़ी, अफवाहों के सच में तब्दील होने की विडम्बना के साथ यह कहानी नर्मदा बचाव आंदोलन के भीतरी अंतर्विरोधों और फूट को भी रेखांकित करती है, जिसमें मेधा पाटकर, आलोक अग्रवाल और चित्तरूपा पालित अलग-अलग धड़ों में मौजूद हैं। उत्तरप्रदेश की तरह यहां भी 'धारा 144’ अपने खूंखार रूप में मौजूद है. इस आदिवासी बहुल इलाके में स्वाभाविक रूप से सबसे बड़े पीडि़त आदिवासी ही हैं, जिनके पास अब तक न संगठित भू-राजनीतिक ताकत है और न आर्थिक-शैक्षणिक बुनियाद।

मध्यप्रदेश के ऊर्जाचल कहे जानेवाले सिंगरौली में बार-बार विस्थापन, दमन, राजनीतिक दुर्भाव का पर्दाफाश करनेवाली 'इंसान और ईमान का नरक कुंड’ शीर्षक कथा प्रतिरोध के आंदोलन और पुलिस के मार्फत सत्ता दमन की भीषण दास्तान है। लोगों को दरकिनार करके कोयला खदानों और ताप बिजलीघरों को स्थापित करनेवाली यह जगह असल में कस्बा नहीं, युद्ध का मैदान है। लोगों और पुलिस के बीच यहां अनवरत युद्ध चल रहा है. सत्ताधीशों के 'विकास मंत्र’ की आड़ में मुनाफे के धंधे को चलाते रखने के लिए पुलिस 'भारतीय’ कानून की आड़ में 'भारतीय’ तंत्र की मदद से 'भारतीयों’ पर ही कैसे अथक जुल्म ढाती है, यह उसकी अनोखी नजीर है। इस प्रहसन में जनता के अलावा कई पात्र हैं, जिनमें 'ग्रीनपीस’ जैसे एनजीओ की संदिग्ध स्थिति भी है। यह रिपोर्ट यहां की सामाजिक स्थिति भी जाँचती है और कहती है कि इस बेहद पिछड़े इलाके में 'अल्पसंख्यक’ ब्राह्मणों और राजपूतों का वर्चस्व है। राजनीतिक भी और सामाजिक भी। विस्थापन, बेदखली और पुनर्वास के आंदोलनों में भी या तो वे अगुआ हैं या जिन कुछ जगहों पर ऐसा नहीं हैं, वहां पुलिस-प्रशासन की मदद से समानांतर संगठन खड़े कर चुके हैं। मुख्यधारा का मीडिया पुरानी भूमिका में ही है और इक्का-दुक्का स्थानीय अखबार प्रतिरोधी आंदोलन के पक्ष में लिखने के कारण दमन के शिकार हैं। रिपोर्ताज में इलाके का अध्ययन करनेवाली अमेरिकी वकील डाना क्लार्क के हवाले से कहा गया है, ''सिंगरौली इस बात का गवाह है कि कैसे विदेशी पूँजी और उससे होनेवाला विकास तबाही करता है। विदेशी पूँजी यहाँ लाखों लोगों को बरबाद करने, उनसे उनकी सहज मनुष्यता छीनने और इंसानियत को दुकानदारी में तब्दील कर देने के गुनहगार है।’’

'नियमगिरि की जंग’ ओडिशा में रायगढ़ा जिले में नियमगिरि की पहाडिय़ों में पसरे विशाल संसाधन के दोहन के लिए सरकारी आमंत्रण पर जुटी विदेशी बहुराष्ट्रीय खनन कंपनी 'वेदांता’ के मुकाबले आदिवासियों के प्रतिरोध की कहानी है। संविधान की अनुसूची छह से संरक्षित इस इलाके में विरोध सघन है और पेसा जैसे कानूनों से मिले हक से ग्रामसभा के मार्फत लड़ा जा रहा है। लेकिन, यहाँ भी सरकार जनता, खासतौर पर जब वह आदिवासी हो, के मालिक के तौर पर बरताव कर रही है और जबरन विदेशी पूँजी को थोपना चाहती है। यहाँ न केवल संसाधनों की आसान लूट का सवाल है, बल्कि उससे होने वाले भौतिक और सांस्कृतिक विस्थापन का भी खतरा है। हालांकि, आदिवासियों के जीवन में यह पूँजी कहीं न कहीं से घुसी चली आ रही है और उनकी जीवनशैली को बदल रही है। उनके नौजवान जंगलों और गाँव से बाहर निकलकर केरल जैसे दक्षिण भारतीय राज्यों में मजदूरी करने जा रहे हैं और लौटकर स्थानीय प्रतिरोध में मुब्तिला होने के बजाय मोबाइल फोन के मार्फत तकनीक के नशे में डूबे हैं। पुलिस का चरित्र कहीं बदला नहीं है और वह पुरानी शक्ल में सत्ताधारियों के निर्देश पर आंदोलन को तोडऩे के लिए षड्यंत्र रच रही है। इस दमनचक्र में अब केंद्र सरकार के अर्धसैनिक बल, जो मूलत: फौजी ट्रेनिंग से सीमा पर दुश्मन के खिलाफ युद्ध के लिए प्रशिक्षित हैं, यहां तैनात हैं. मुख्यधारा का मीडिया, खास तौर पर जनपक्षधर माना जानेवाला टीवी न्यूज चैनल भी, गिमिक में व्यस्त है। पूँजीपतियों ने फूट का बीज बोया है और इसने भली-भाँति काम किया है। नतीजे में लालच के फेर में छोटी-मोटी धोखाधड़ी आम हो चली है। एनजीओ और जन आंदोलनकारी संगठन अपने-अपने तरीकों से आदिवासियों को संगठित कर रहे हैं। कुछ संगठनों पर 'नक्सली’ होने ठप्पा भी लग गया है। इनमें कुछ गाँव इतने सघन वन और दुर्गम पहाड़ी इलाकों में हैं कि वहां पैदल भी बमुश्किल जाया जा सकता है। कई गाँवों में दुपहिया ही जाती हैं, चुनिंदा गाँवों में चारपहिया। यहाँ वेदांता को जमीन देने की जनसुनवाई का नाटक खेला जा रहा है। अधिकतर ग्रामसभाओं की नामंजूरी के बावजूद जिसका नतीजा सरकार ने पहले से ही निकाल रखा है। बस दूसरी जगहों के मुकाबले फर्क इतना ही है कि यहाँ आदिवासियों में चेतना का स्तर ऊँचा है, जिसने वेदांता को 'सीधी कार्रवाई’ में उतरने का ख्याली पुलाव भी नहीं पकाने दिया है।

ओडिशा के ही सुंदरगढ़ जिले में 'गिरता पानी खंडधार, बिक गया तो रक्तधार’ शीर्षक से अंडमान की विलुप्तप्राय जारवा जनजाति के पूर्वजों से निकले पौड़ीभुइयां आदिवासियों के अस्तित्व को बचाने के 'सत्याग्रह’ का बयान है। यहाँ आदिवासियों की लड़ाई दक्षिण कोरियाई कंपनी पॉस्को से है, जो उनकी धरती के बचे हुए हिस्से को हड़पना चाहती थी। हालांकि, लगातार संघर्ष के दबाव में केंद्र सरकार ने इजाजत वापस ले ली, पर आदिवासी सत्याग्रह की धार को बनाए रखने के मंसूब हैं, ताकि खतरा फिर सिर न उठाए।

उत्तराखंड के पूँजीसंपन्न रामनगर के पड़ोस की तराई में संसाधनसंपन्न बीरपुर लच्छी गाँव के आदिवासियों के अपनी जमीन और नदी को लालची व्यापारियों से बचाने की संघर्षगाथा का शीर्षक 'जुल्मतों और इंसाफ के बीच ठिठकी ज़िंंदगी’ है। यह दिखाती है कि यहाँ फिर संसाधनों की लूट में सत्ताधीशों की सीधी मिलीभगत और पुलिस के मार्फत लोगों को दबाने का तौरतरीका वही है, सिर्फ लोग और उनके प्रतिरोध का तरीका बदला है। संघर्ष लगातार जारी है और दमन भी। सरकारें बदली हैं.. नेता और अफसर भी.. लेकिन, उनकी कुर्सी का चरित्र नहीं बदला। नतीजतन, और कुछ नहीं बदला। अद्यतन नोट्स में नेताओं के क्रैशर पर छापे पडऩे, उन्हें बंद करने और फिर उनके शुरू हो जाने का जिक्र है।

देवभूमि की मान्यता के बावजूद हिमाचल को देवता, मानवीय लालच से कैसे बचा नहीं पा रहे हैं, 'बदलती-सुलगती देवों की धरती’ और 'पचास साल की नाइंसाफी और शर्म’ में इसका लेखा-जोखा है. भाखड़ा-नंगल समेत बाँध बनने, भारी विस्थापन, मुआवजे के दिवास्वप्नों का भंग होना, पंजाब से अलग होकर हिमाचल बनने के दौरान कानूनी पेंच और अब बिलासपुर में एसीसी और जेपी समेत कई कंपनियों की सीमेंट फैक्टरी ने न केवल लोगों को उजाड़ा है, बल्कि उनके फेंफड़ों में टीबी और कैंसर का जहर भी भरा है। यहां लोगों की गोलबंदी के साथ शुरुआती दौर में जन संगठनों के साथ राजनीतिक दल दिखते हैं। लेकिन, बाद के नोट्स दिखाते हैं कि उन्होंने इसे हड़प लिया। हिमाचल, खास तौर पर बिलासपुर के लोग अब किसी दल के बजाय खुद की सरकार की बात करने लगे हैं, पर इसके लिए कोई संगठित प्रयास नहीं है। यहां विस्थापन की दास्तानें आजादी के साथ से अब तक लगातार चली हैं, इसलिए वे विविधरूपा हैं। लेकिन, वह जनप्रतिरोध, जो बाकी जगह दिखता है, वह बिलासपुर में नजर नहीं आता। बस इतना है कि डूब में पूरी तरह समा जाने वाले टिहरी के मुकाबले बिलासपुर में कुछ रोशनी नजर आती है. लेकिन, नोट्स में जिक्र है कि यह रोशनी भी अब डूब चुकी, क्योंकि आंदोलनकारी संगठन ही बैठ गया। 'ग्रीनपीस’ की दुकान भी उठ चुकी।

राजस्थान में 'चुनावी साजिशों की रिफाइनरी’ सबसे गजब की कहानी है। यह कहानी मारवाड़ के बाड़मेर जिले में एचपी की 'कथित’ विशालतम रिफाइनरी के खिलाफ लीलाणा समेत पाँच गाँवों में आंदोलन से शुरू होती है, जिनका विस्थापन तय था। लेकिन, धीरे-धीरे यह कहानी जमीनों के दाम अविश्वसनीय रूप से बढ़ाकर बेचने, केयर्न के तेल कुएं और कंपनी के कांग्रेस और भाजपा के नेताओं के साथ बराबरी से नत्थी होने, सीएसआर के नाम पर संस्थाओं की जगह हड़पने, रिफाइनरी के 'झूठ’, नमक की खदानों, सूखी लूणी नदी और पर्यावरण चिंता, सुजलान के बिजली के खंभों, मोरों और साइबेरियाई सारसों के मरने की घटनाओं से गुजरते हुए कुछ ताकतवर गाँववालों की कंपनी से सौदेबाजी और ब्लैकमेलिंग तक पेचीदा फिल्मी स्क्रिप्ट में तब्दील हो जाती है. गौरतलब यह है कि बाड़मेर में शिक्षा की दर घटी और बलात्कार की अतितीव्रता से बढ़ी है। बिना विस्थापन के पलायन हो रहा है। इनके केंद्र में है चुनाव, जिसे इस प्रदेश में कांग्रेस या भाजपा, बारी-बारी से जीतते हैं। नोट्स में जिक्र है कि अब रिफाइनरी पूरी करने की नई तारीख आ गई है।

'पत्थरगड़ी : एक संवैधानिक विरासत का आँखों देखा इतिहास’ गुजरात से सटे राजस्थान के आदिवासी बहुल गाँवों में तलाश है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और कॉर्पोरेट ताकतों ने मीडिया के साथ मिलकर षड्यंत्रपूर्वक कैसे इसे ईसाई मिशनरी के धर्मातरण से जोड़कर बदनाम कर दिया, जबकि यह 1998 में देश के पहले आदिवासी आयुक्त डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा ने आदिवासी विरासत बचाए रखने के लिए यह अभियान चलाया था। राजस्थान में अरावली की पहाडिय़ों बीच तलैया गाँव में पंचायती राज के पेसा कानून के तहत पत्थरगड़ी का पहला पत्थर डॉ. शर्मा ने लगाया था और उसे 'गाँव गणराज्य’ घोषित कर दिया था। 1996 में इस कानून में आदिवासी क्षेत्रों में ग्रामसभा को सारे अधिकार दे दिए गए थे और उसके बाद संविधान की प्रस्तावना और ग्रामसभा के अधिकार अंकित कर हर गाँव में ऐसे पत्थर गाड़े गए थे। डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा 'ग्रामीण भारत का मैग्नाकार्टा’ कहकर गाँवों को गणराज्य घोषित करने की अलख आदिवासियों में जगा रहे थे और यह इतिहास खोजती यह कहानी राजफाश करती है कि कैसे इस मुहिम को बदनाम करने के तार जिंक का खनन करने और उदयपुर तथा डुंगरपुर जैसे शहरों से आदिवासियों को खामोशी से बेदखल करने से जुड़े हैं। यह पड़ताल आदिवासियों के राजा डूंगर बरंडा के नेतृत्व में अपनी धरती पर राजपूतों के कब्जे के खिलाफ संघर्ष और बिना दस्तावेज बने मिट जाने का जिक्र भी करती है। यही नहीं, वे भीलों को मिली जमीनों और उनके संसाधन को गैरआदिवासियों को सौंपे जाने का षड्यंत्र भी बताती हैं। यही वह समय है, जब ग्रामसभा के मार्फत जमीनें और संसाधन वापस लेने के लिए आदिवासियों ने संगठित पहल की और हर गाँव में शिलालेख लगाए। झारखंड और छत्तीसगढ़ के पत्थरगड़ी आंदोलन के मुकाबले यहां यह अभियान अतिशांत है। कौडिय़ागुण गाँव के बहाने इसने पेसा के बरअक्स वनाधिकार कानून के लागू होने और फिर पंचायत राज कानून में संशोधन से बने पेंच को उजागर किया। इन संशोधनों, जिनका लागू किया जाना मोदी सरकार ने लटका दिया है, ग्रामसभा की स्थिति को हालांकि कुछ कमजोर किया और अदालती दाँव-पेंच बढ़ा दिए। बहरहाल, यह अनूठी कथा कहती है कि पत्थरगड़ी आंदोलन राजस्थान में जैसे जारी है, वैसे कहीं नहीं।

पंजाब के पक्ष को रखती कहानियां हैं, 'नरेंद्रभाई, सुरैण सिंह अभी जिंदा है!’ और 'मीडिया पंजाब के दलितों का संघर्ष नहीं जानता।’ पहली कथा पंजाब के समाज के साम्प्रदायिक विभाजन की भाजपा की साजिश को चुनौती देने की कथा है, जिसे बेहद दिलचस्प ढंग से सुरैण सिंह के बहाने लिखा गया है। यह दिलचस्प ढंग से प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेंद्र मोदी के वैसे ही दुष्प्रचार को चुनौती है, जैसा अब पूरे देश में अलग-अलग तरीकों से किया जा रहा है। दूसरी कथा पंजाब के 308 दलितों की है, जो यहां लगातार जानलेवा हमले ङोलते हुए भी प्रतिरोध करते रहे हैं। उनकी धार्मिक मौजूदगी डेरों के रूप में ज्यादा प्रतिबद्ध है। जमीनों पर आरक्षण के बावजूद उनका कब्जा नहीं है और जाट सिख उन पर कैसे 'दलितों’ से बोली लगवाकर ही उन पर कब्जा जमाए हुए हैं। अकालियों और बसपा की मिलीभगत और हर जगह संगठित राजनीतिक ताकत न बन पाने के बावजूद पंजाब के दलित गाँव के स्तर पर अपनी भूमिहीनता को दूर करने में जुटे हुए हैं। कभी कांग्रेस का वोटबैंक कहा जाने वाला दलित विकल्प के चलते उससे छिटककर कर कांशीराम की बसपा की ओर गया था, पर मायावती की बसपा में उससे अलग होकर 'आप’ की ओर चला गया। अब फिर से उसके कांग्रेस की ओर खिसकने के बावजूद कांग्रेस को उसके मुद्दों में दिलचस्पी नहीं है।

गुजरात के दलितों की स्थिति बयान करती रिपोर्ट 'यहाँ कदम-कदम पर मोटा समढियाला बिखरे हुए हैं’ बताती है कि कैसे लंबे समय से भाजपाशासित राज्य में ऊना कांड जैसी दुर्घटनाएं सियासत पर बहुत असर नहीं डालती हैं। रिपोर्ट में सवर्णो या ताकतवर ओबीसी समुदाय के हाथों बुरी तरह से उत्पीडि़त दलित समुदाय की अलग-अलग घटनाओं पर गवाहियां हैं। खासतौर पर ऊना कांड से चर्चा में आए मृत गायें उठाने वाले और उनकी चमड़ी अलग करनेवाले दलितों की। गजब की बात यह है कि सरकार ने गाँवों से दलितों के निष्कासन को मान्यता दे दी है और दोषियों को दंडित करने के बजाय उन्हें कहीं दूर अलग जगह बसाने का नियम बना दिया है, जो अक्सर लागू नहीं होता. गुजरात के 'विकास मॉडल’ की चौंधियाहट का असली रूप उजागर करती कहानी, यह भी बताती है कि खास तौर पर सौराष्ट्र में दलितों के प्रतिरोध को बोथरा करने के लिए 'गणमान्य’ यानी सवर्णो के प्रभावशाली लोग उन्हें आरएसएस के वर्ण व्यवस्था को मानने के सिद्धांत 'समरसता’ के तहत समन्वय बनाने के लिए मना लेते हैं। वे मान भी जाते हैं, क्यों उन्हें रोजाना मजदूरी करनी है, ताकि अपना और परिवार का अस्तित्व बचा सकें। वरना, भूखों मरने की नौबत ही नहीं आएगी, उससे पहले ही मार दिए जाएंगे।

गुजरात पर ही दूसरा विश्लेषण  'दलित आंदोलन के ऐतिहासिक आईने में ऊना रैली का अक्स’ में राज्य की आबादी में कुल 6-7 फीसदी दलितों की राजनीतिक स्थिति का जिक्र है, जो वास्तव में किसी का वोट बैंक नहीं हैं और दलितों के लिए आरक्षित सीटों पर भी निर्णायक स्थिति में नहीं हैं। यह बात वे खुद भी जानते हैं और इसलिए चुनावी राजनीति के बजाय सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलनों से बदलाव लाने के पक्षधर रहे हैं यानी पटेल जैसे ताकतवर और संगठित उग्र समुदाय के खिलाफ खड़े होने की ताकत पूरे राज्य के दलितों के लिए भी आसान नहीं है। यह जानना दिलचस्प है कि यह वही गुजरात है, जहां बड़ौदा के महाराज सैयाजी गायकवाड़ ने 1882-83 में ही दलितों को आरक्षण देकर शिक्षा अनिवार्य कर दी थी और खुद 1931 में बाबासाहब आंबेडकर यहाँ दलित आंदोलन का नेतृत्व कर चुके हैं। इसके बावजूद कि यहां कई दलित संगठन काम करते हैं, दलितों में सामाजिक चेतना और आर्थिक संपन्नता का स्तर वैसा नहीं हो पाया है, जहां वे काम का बहिष्कार करने का साहस कर सकें. रिपोर्ट कहती है कि ऊना रैली के बाद गाँव-गाँव में दलितों पर लगातार घातक हमले हुए हैं और उन्हें सबक सिखाया जा रहा है। एक और महत्वपूर्ण समीकरण जो यहां नहीं बना है, वह है दलित-मुस्लिम एकता। इतिहासकार ज्योतिकर के हवाले से कहा गया है, ''दंगों के दौरान मुस्लिम दंगाई दलितों को हिंदू मानकर निशाना बनाते हैं और दलित दंगाई मुस्लिमों को।’’ इस रिपोर्ट से गुजरात के 2001 के दंगों का चेहरा बने दो व्यक्ति अशोक मोची और कुतुबुद्दीन अंसारी याद आते हैं, जो पिछले तीन साल में किसी न किसी बहाने दो बार मिल चुके हैं और दलित-मुस्लिम एकता पर जोर दे रहे हैं। कहानी में मुख्यधारा के अकादमिक इतिहास में दलित आख्यान को दरकिनार करने और 1979 की उषा मकवाना की कविता 'हरिजन तो बनी जो’ का जिक्र है, जिसमें ईश्वर को दलित बनने की चुनौती दी गई है। इस रिपोर्ताज का इस लाइन के साथ समापन उपसंहार है, ''गुजरात के दलितों की बागी चेतना का क्या इससे बड़ा प्रमाण है?’’ बहरहाल, गुजरात की दोनों कहानियों में वाम आंदोलन की अनुपस्थिति का जिक्र नहीं है. लेकिन, नोट्स में जिक्र है कि ऊना कांड के बाद दलित आंदोलन का सबसे बड़ा फायदा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उठा लिया और उसके प्रमुख किरदारों को भाजपा में शामिल करवा लिया।

मौजूदा आंदोलनों से जुड़ती है

देसगाँव के आंदोलनों की डोर

 

लोकतंत्र का ककहरा सीख रहा भारतीय समाज इन दिनों उन अलोकतंत्रिक धारणाओं को सच होते देख रहा है, जिन्हें अविश्वसनीय, कल्पना और झूृठी डरावनी कहानियाँ कहकर ठुकराया जाता था. भारत को 'हिन्दू राष्ट्र’ बनाने का सपना देखनेवाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके संगठन संसद से लेकर हर नागरिक संस्थान पर या तो काबिज हो चुके हैं अथवा सरेआम बेहद आदिम ढंग से उनके विध्वंस में जुटे हैं। यह विध्वंस दबा-छिपाकर नहीं, बाकायदा दिनदहाड़े चुनौती भरे अंदाज में दिखाकर किया जा रहा है। इन ताकतों में कुछ न बिगड़ पाने का जो भरोसा है, वह सात दशकों में बोये गए धीमे जहर के बीजों से उगनेवाले वोटों की भारीभरकम पैदावार से पैदा हुआ है। जाहिर है, संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा ने लोकतंत्र में संसदीय शासन प्रणाली पर बहुमत के मार्फत काबिज होने का आसान रास्ता भी खोजा है. जब बात विरोध को पूरी तरह से कुचल देने और शुद्धतावादी सफाये तक पहुँच गई है, तो इसको चुनौती देने के लिए युवा उठ खड़े हुए हैं। शक्तिशाली राज्य के साथ उनका सामना समानांतर सत्ता से भी है, जो बिना किसी वर्दी के हर आयाम, भौतिक एवं अभासी, में पूरे जोर से मौजूद है। मौजूदा वक्त में उनकी आँखों की किरकिरी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, उस्मानिया विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय या शांति निकेतन जैसे हर उस शिक्षा संस्थान विद्यार्थी ही हैं, जिनका (अ) दर्शन औपचारिक शिक्षा से ऊपर है। इन विश्वविद्यालयों में भी जहर के पौधे उगे हुए हैं। उनके नाम अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद समेत कुछ भी हो सकते हैं।

बहरहाल, एमयू, जामिया या जेएनयू में सत्ता के संरक्षण में जो हमले हुए हैं, उन्होंने प्रतिरोध के स्वरों को गाढ़ा किया है। ये स्वर देश के कई शहरों-कस्बों को अब दिल्ली शाहीन बाग में तब्दील करते जा रहे हैं, जहां मुसलमानों, दलितों-आदिवासियों को दरकिनार करने के नागरिकता संशोधन बिल (सीएए), राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) और राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी (एनआरपी) के षड्यंत्र के खिलाफ लोग लामबंद हुए हैं। भाजपा और संघ के इरादे के विपरीत यहां मुसलमानों के साथ हिंदू, ईसाई, सिख, पारसी और एंग्लो-इंडियन भी हैं। उनमें ओबीसी, दलित और आदिवासी भी हैं। हालांकि, ऊध्र्व विभाजन के इन हथियारों ने दक्षिणपंथी और नव-दक्षिणपंथी ताकतों को साथ ला दिया है, जो हिंदू-मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण के रूप में चुनावों में दिख सकता है। इसके बावजूद इस आंदोलन ने 'हिंदू राष्ट्र’ की अवधारणा पर बहस छेड़ दी है। भारतीय राष्ट्र या हिंदू धर्म को खारिज किए बगैर इसने हिंदुत्व के अमानवीय संघी स्वरूप को भी उजागर किया है। यह आंदोलन ज्यादा सांस्कृतिक और लोकवादी है, जिसने नए-नए नारों, गीतों-कविताओं, सिनेमा, स्त्रियों की भागीदारी और सामाजिक विमर्श के अंतर्राष्ट्रीयकरण से नया सौंदर्यशास्त्र रचा है। यह आंदोलन यह सवाल भी खड़ा करता है कि मौजूदा नौजवान और कमसिन पीढ़ी के सामने क्या इससे आज़ादी के आंदोलन का खांचा उभरेगा, जहां राज्य इसी विभाजनकारी, विद्वेषी और दमनकारी भूमिका में था। हालांकि, उससे कुछ आगे अब यहां जातीय सफाये का मंसूबा भी है।

पिछले सात दशकों में ऐसे आंदोलन का लंबा सिलसिला है, जो देशभर में छितरे रहे हैं। कुछ व्यापक तौर पर उभरे हैं और कई दमन से दब गए हैं। लेकिन, सभी आंदोलनों ने यह बात जरूर याद दिलाई है कि तमाम तरीकों से खारिज करने के बावजूद अस्तित्व की लड़ाई की आग सुलगती रही है।

'देसगाँव’ में मौजूद आंदोलनों की डोर को इस आंदोलन से जोडऩा ही चाहिए..

 

 

 

सुनील सोनी

मध्यप्रदेश के सिवनी जिले से आते है। विगत 25 वर्षों से नागपुर के लोकमत समाचार में पत्रकारिता कर रहे हैं। साहित्य, सिनेमा, रंगमंच के विषयों पर गहरी रुचि के साथ सक्रिय लेखन।

 

अभिषेक श्रीवास्तव

उत्तरप्रदेश के मशहूर गाज़ीपुर में जन्मे अभिषेक का बचपन से युवावस्था तक का सफर बनारस में रहा है, जहां से वे दिल्ली चले गए और पत्रकारिता करते रहे। दो दशक उन्होंने लेखन, शिक्षण और घुमक्कड़ी में बिताए हैं. कई मीडिया संस्थानों में दस साल की नौकरी के मकडज़ाल से आज़ाद होकर वे अब लघुपत्रिकाओं और लघु वेबसाइटों से अर्थपूर्ण पत्रकारिता कर रहे हैं। बकौल अभिषेक : बाकी की ज़िंदगी गीत-संगीत, बकैती, पठन-पाठन, भजन-भोजन, घूमने-फिरने और पगुराने की नाकाम कोशिशों में कट रही है।

 


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