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मार्च - 2020

नैतिक लोक से परे भटकती हिन्दुत्व की राजनीति के भयावह होते संकट

त्रिभुवन

सामयिक विमर्श

 

 

किं वा तेषां सांप्रतं येषामतिनृशंसप्रायोपवेशनिर्घृणं कौटिल्यशास्त्रंप्रमाणम्,

अभिचारक्रियाक्रूरैकप्रकृतय: पुरोधसो गुरव: पराभिसंधानपरा मंत्रिण उपदेष्टार:,

नरपतिसहस्रभुक्तोज्झितायांलक्ष्मयामासक्ति:, मारणात्मकेषु शास्त्रेषु अभियोग:,

सहजप्रेमार्द्रहृदयानुरक्ता: भ्रातर: उच्छेद्या:।

-बाणभट्ट, महाकवि, कादंबरी-शुकनासोपदेश:, पृष्ठ 83-84-85

(चौखंभा विद्याभवन वाराणसी से प्रकाशित)

 

अर्थ: उन शासकों के बारे में कहा ही क्या जा सकता है, जो प्राय: अतिदूषित शिक्षाओं से युक्त होने के कारण अत्यंत कठोर चाणक्य रचित नीतिशास्त्र ही जिनके लिए प्रमाण है, जो बलि-प्रधान क्रूर यज्ञ-क्रियाओं के कारण निर्दय स्वभाव वाले पुरोहितों को ही अपना उपदेशक मानते हैं, जो दूसरों को छलने में कुशल मंत्रियों-अधिकारियों को ही अपना सलाहकार नियुक्त करते हैं, जो हजारों राजाओं के उपभोग कर लेने के बाद छोड़ दिए गए वैभव में ही आसक्त रहते हैं, जो हिंसा-साधक शास्त्रों में से आप्यायित हैं और जो स्वभाविक प्रेम से भीगे होने के कारण हृदयतल से अनुराग करने वाले भाइयों को ही समूल नष्ट करने में लगे रहते हैं। -बाणभट्ट, महाकवि, कादंबरी-शुकनासोपदेश:, पृष्ठ 83-84-85 (चौखंभा विद्याभवन वाराणसी से प्रकाशित)

 

कादंबरी और हर्षचरितम् जैसे अनूठे ग्रंथों के लेखक बाणभट्ट ने कभी नहीं सोचा होगा कि उनके शुकनासोपदेश की पंक्तियां 1200 साल बाद इसी देश के शासकों पर सटीक बैठेंगी। वह भले राम मंदिर के निर्माण का मामला हो या संविधान से कश्मीर संबंधी अनुच्छेद 370 को हटाने का या कि नागरिकता अधिनियम, 1955 में संशोधन का या फिर भारतीय नागरिकों की राष्ट्रीय पंजिका के पीछे की मानसिकता का हो। यह सहज, सामान्य या लोककल्याण के कारण लोकनीति से उपजी मानसिकता नहीं, यह अतिक्रमण के भाव से उठे कदम हैं। लंबी राजनीतिक यात्रा में उपजे शोक से उबरने के लिए रचे गए नए प्रपंच और चातुर्य हैं। देश की स्वतंत्रता के आंदोलन शुरू होने से पहले के ज्ञानोदय की वेला में बोए गए बीजों का जो पौधा भारतीय मुक्ति के आंदोलन में पल्लवित हुआ था, उस पर ऐसे विष पुष्प खिलेंगे, किसी ने स्वप्न में भी सोचा न होगा। जिन विचारधाराओं ने भीतर के साहस को तपाकर संघर्ष किया, वे एक दिन इतनी करुण और कातर हो जाएंगी, यह कल्पना भी किसी ने नहीं की होगी।

लेकिन यह होना ही था। मनुष्य को औज़ार और समाज को बाज़ार में बदलने की नियति और परिणति इसके अतिरक्त हो भी क्या सकती है। बाण से बाबुषा कोहली और पलटू से प्रांजल धर तक कवियों ने जिस सत्य और यथार्थ को उकेर कर रख दिया, वह प्रबुद्ध से सुबुद्ध नागरिकों तक की समझ से परे रहता है। पलटू की पंक्तियां देखिए:

कुसल कहां से पाइए, नागिनि के परसंग।

नागिनि के परसंग, जीव कै भच्छक सोई।

पहरू कीजै चोर कुसल कहवां से होई।

रूई के घर बीच तहां पावक लै राखै।

बालक आगे ज़हर राखि करिके वा चाखै।

कनक धार जो होय ताहि अंग लगावै।

खाया चाहै खीर गांव में सेर बसावै।

पलटू माया से डेरै करै भजन में भंग।

कुसल कहां से पाइए, नागिनि के परसंग।।

पलटू समझाते हैं कि नागिन के साहचर्य में सोते हो और कुशलता से रहना चाहते हो! चोर को पहरेदार रखते हो और मंगल की कामना करते हो! परिश्रम से कपास की खेती करते हो, उसके पुष्प चुनते हो और रूई निकालने के बाद उसके पास आग धर देते हो और खैर चाहते हो! घर के आंगन में भोला-भाला बच्चा खेलता है और आप उसके सामने ज़हर की कटोरी ला धरते हो! आपके पास खूब सोना है, लेकिन आप आभूषण में भी तीखी तलवार बनवा लेते हैं और उसे ही अंगों से लगाते रहते हैं और चाहते हैं कि आपके अंग-प्रत्यंग भी सुरक्षित रहें। आप खीर खाने के शौकीन हैं और गउएं पालते हैं, लेकिन शेर भी पालना आपको भाता है!

संत पलटू अवध के नवाब शुजाउद्दौला (1754-1775) तथा दिल्ली के मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय (1759-1806) के शासनकाल के दौरान समाज में अलख जगाते घूम रहे थे और रूढिय़ों पर प्रहार कर रहे थे। उन्होंने ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर इतना तीव्र प्रहार किया कि इस संत को एक झोपड़े में ही जीवित जला दिया गया। संभवत: यह प्रहार उन लोगों पर था, जिन्होंने क्रूर शासकों को समर्थन दिया और बर्दाश्त किया। अयोध्या के निकट एक गांव में पैदा हुए इस फ़कीर ने सरयू के किनारे खड़े होकर गाया : राम-नाम सुनि जूड़ी आवै, पूजौ दुर्गा चंडी। लंबा टीका कांध जनेऊ, बकुला जाति पखंडी। बकरी भेड़ा मछरी खायौ, काहे गाय बराई। रुधिर मांस सब एकै पांडे, थू तोरी बम्हनाई।।

विडंबना देखिए कि इस फ़कीर के 250 साल बाद आज के गति, प्रगति और आधुनिकता के इस युग में ज्ञानोदय पूरी तरह अज्ञानोदय में बदलता दिख रहा है। ये संत कभी हिन्दू धर्म के सच्चे प्रतिनिधि थे। लेकिन अब यह प्रतिनिधित्व जिन हाथों में है, वह तो एकदम उलटी गंगा बहा रहा है।

सरयू के किनारे हिंदुत्व की राजनीति आज भले छह लाख दीए जलाने की कोशिश करे, लेकिन इन दीयों से जिस तमस की धारा भारतीय मानस में समाहित हो रही है, वह नित्य नए अंधेरे बुन रही है। राम मंदिर प्रकरण में संघ परिवार और उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा ने शासकीय चातुर्य से भले सफलता पा ली हो, लेकिन क्या इससे नागरिक लोक को पीड़ाओं से मुक्ति मिलेगी? क्या भारतीयता अब मनुष्यता के नए और अप्रत्याशित संकटों से उबरेगी?

संघ परिवार की दशकों से मान्यता रही है कि संस्कृति जोड़ती और राजनीति तोड़ती है, लेकिन वह जिस शासन शैली को अपना रहा है, वह यह उम्मीद नहीं जगाता कि हिन्दू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या हिन्दू पुनरुत्थानवाद भारतीय लोक में एकात्मता स्थापित कर पाएगा। पांच साल बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना को सौ साल हो जाएंगे, लेकिन उसके इन पचानबे साल के ऐसे समय की क्या परिणति है, जब वह अपनी सत्ता, शक्ति और लोकप्रियता के शिखर पर है? साहित्य-संगीत-कला-विहीन को बिना सींग पूंछ का साक्षात् पशु घोषित करने वाली भारतीय मनीषा आखिर इसका आकलन किस तरह करेगी? यह प्रश्न स्वाभाविक है। हालांकि संघ ने नाना विवादों और वैचारिक संघर्षों के बावजूद अपनी छवि और शक्ति को भारतीय समाज में अन्य संगठनों की तुलना में छोटे-मोटे विवादों के बावजूद काफी हद तक सशक्त बनाए रखा है, लेकिन वर्तमान शासन शैली और संस्कृति ने नैतिकता के बढ़चढ़कर किए गए दावों से आप्लावित उसके सांगठनिक स्वर्णिम पात्र का ढक्कन उठा दिया है।

संघ परिवार का सत्तावादी रथ शक्ति और सफलता की दृष्टि से भले कितना ही वेगवान हो, लेकिन वह नैतिक मानदंडों की राह पर बहुत डगमगाता दौड़ रहा है। उसकी नैष्ठिक और नैसर्गिक सहयोगी शिव सेना तक उसका साथ छोड़कर 'अल्पसंख्यक तुष्टिकरण में डूबी मुस्लिमपरस्त’ कांग्रेस के साथ जा मिली है। हिन्दुत्व के मामले में कभी विश्व हिन्दू परिषद के नेता अशोक सिंघल की दृष्टि में कभी भाजपा से भी अधिक विश्वसनीय शिव सेना का यह कदम अपने भीतर बहुत निहितार्थ समेटे है।

देश में पिछले तीस साल से सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियां जिस तरह उथलपुथल भरी रही हैं और इस दौरान साहित्य की परिपक्व दृष्टि से जो कुछ समझा गया है, वह साफ बताता है कि इन वर्षों के दौरान राजनीति की भ_ी में राष्ट्र की आत्मा खूब ही जली और गली है। सत्ता के बाज़ार में आज राष्ट्रवाद खूब बिक रहा है और लोकतंत्र अपनी जिजीविषा को बचाने के लिए छटपटा रहा है। संघ परिवार की उद्घोषणा है कि भारत को परम वैभव पर पहुंचाना उसका लक्ष्य है। लेकिन पूर्ण बहुमत आने और दूसरी बार सरकार बन जाने के बाद भी हिन्दुत्व का अभियान दावों के प्रतिकूल परिणाम दे रहा है। संभवत: इसीलिए देश के क्रांतिकारियों, परिवर्तनकामियों, स्वतंत्रता सेनानियों और संविधान निर्माताओं ने एक खास तरह की विचारधारा और कार्यशैली से दूरी बनाई थी तो वे आज सही साबित हो रहे हैं। इसके कुछ विवेकसंगत और सुचिंतित कारण भी हैं।

अज्ञेय ने वत्सल निधि के एक कार्यक्रम में कभी कहा था, 'नैतिकता हर हाल में लोक-मंगल से जुड़ी रहती है और इसलिए हमेशा इस बात का महत्व रहता है कि लोक की हमारी अवधारणा क्या है?’ नैतिकता बुनियादी प्रश्नों का जवाब मांगती है। और अगर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो हिन्दुत्व के अभियान की सफलता में सबसे बड़ी बाधाएं तो संघ परिवार के अंतर्विरोध हैं। सबसे सशक्त होने के दावों की सत्यता देखें तो उसकी भीतरी तहों में तीव्र अंतर्विरोध सामने हैं। अयोध्या के राम मंदिर आंदोलन के सबसे मुखर नेता प्रवीण भाई तोगडिय़ा ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते ही प्रश्न उठाए कि अगर अदालत का ही फैसला मानना था तो इतने लोगों की हत्याएं क्यों करवाईं? संघ परिवार की आंतरिक नैतिक भित्तियां कितनी जर्जर हैं, उसका एक उदाहरण राम मंदिर आंदोलन के प्रमुख नेता रहे स्वामी चिन्मयानंद का अपने ही आश्रम की एक युवती के देह शोषण का प्रकरण है। विशेषकर इसलिए भी कि वे तो प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में गृह राज्य मंत्री बनाए गए थे। भाजपा नेता चिन्मयानंद और कुलदीपसिंह सेंगर के प्रकरणों ने बलात्कार की घटनाओं पर लोकसभा में फांसी-फांसी की आवाज़ें लगाने वाली इस परिवार की तेजतर्रार महिला नेताओं की सिट्टीपिट्टी गुम कर दी है।

साहित्य की दृष्टि से देखें तो मनुष्य हो या कोई संगठन, उसका सामाजिक, वैयक्तिक और लौकिक आचरण ही उसकी मानवीय संवेदनाओं का पैमाना होता है। इस मामले में संघ और इस परिवार के अनेक नेता उसे बार-बार प्रश्नों के घेरे में लाते हैं। तीव्र वैचारिक मतभेदों और आचरण में उलटबांसियों के बावजूद कोई संगठन कैसे मोनोलिथिक एंटिटि हो सकता है? इस परिवार में राजनीतिक और सांगठनिक मतभेद, विवाद और विद्वेष दबा ज़रूर दिए जाते हैं, लेकिन ये प्राय: प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मुठभेड़ों को जन्म देते रहते हैं।

देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम के वाचाल अभिनय के बावजूद वैचारिक तौर पर यह पांच परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों का संगम है। अगर इसका प्रारंभिक दृष्टिकोण इसे 1920 के जर्मन नाजीवाद के मॉडल पर विकसित आक्रामक नव हिन्दूवाद की संज्ञा देता है, लेकिन इसके अपने रणनीतिकार और प्रचारक इसे स्वीकार करने से परहेज बरतते हैं। लेकिन यह विचार उसकी शाखाओं में जाने वाले लोगों के सिर चढ़कर बोलता ही है। वे हिटलर, गोडसे जैसे लोगों की निर्द्वंद्व तारी$फें करते हैं। इस परिवार का दूसरा दृष्टिकोण अपने आपको पंडित दीनदयाल उपाध्याय के उस एकात्म मानववाद से अनुप्राणित मानता है, जो कि गांधीवाद के मूल्यों को ग्रहण करते हुए आगे बढ़ता है। लेकिन यह अपने सांस्कारिक मुस्लिम विरोध की ग्रंथि से मुक्त नहीं होता। इसका एक दृष्टिकोण गांधीवादी समाजवाद का है, जो 1980 से 1986 तक अटल बिहारी वाजपेयी युग में रहा। एक दृष्टकोण विहिप के पीछे रहे साधु-संतों के मनुवादी हिन्दुत्व का है, जिसमें ब्राह्मणवाद का वर्चस्व था। पांचवां, लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण मनु-मंडलवादी हिंदुत्व है, जिसकी प्राथमिकता ब्राह्मणवाद को थोड़ा पृष्ठभूमि में रखकर मंडलवादी जातियों को हिन्दुत्व के घेरे में लाना है। इसके शिल्पकार मोदी-भागवत हैं। जिस समय समाजवादी, कम्युनिस्ट और धर्मनिरपेक्ष दल अपने लिए पिछड़ी जातियों में कुछ संभावनाएं देख रहे थे, तब पूरी चतुराई से संघ परिवार ने उत्तर-मंडलवादी दौर में अपने कमंडलवाद के बरक्स ब्राह्मण नेताओं को सत्ता और राजनीति के मोर्चे पर थोड़ा पीछे करके दलित-पिछड़ों को आगे लाने की पैंतरेबाजी शुरू की है। देश के विभिन्न उच्च पदों और विभिन्न राज्यों में इसे स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। संघ ने अपने भीतर भी भारी बदलाव किए हैं और अब नामों के साथ जाति सूचक शब्दों का प्रयोग बंद-सा कर दिया है।

राजनीतिक तौर पर यह परिवार विभिन्न वैचारिक दृष्टिकोणों के साथ आसन-प्राणायाम करता रहता है। कभी यह वैचारिक धनुरासन करता है तो कभी यह कथनी-करनी के शीर्षासन। यह परिवार देशभक्ति और राष्ट्रवाद के दावे बढ़-चढ़कर करता अवश्य है और वीर सावरकर को हुतात्मा और गौरवशाली बताते थकता नहीं, लेकिन इसका यथार्थ क्या है? अगर वह अपने ही जीवन की खिड़की से बाहर झांके तो राष्ट्रवाद, देशभक्ति और स्वतंत्रता पर कई दिलचस्प पहलू मिलेंगे।

शिकागो और प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी के विद्वान इतिहासकार मायरॉन वीनर ने 1953-54 में भारतीय राजनीति पर अपने चर्चित शोधग्रंथ 'पार्टी पॉलिटिक्स इन इंडिया : दॅ डवलप्मेंट ऑव अ मल्टी पार्टी सिस्टम’ (प्रिंस्टन विवि :1957) में लिखा है : 'सावरकर मई 1937 में जेल से छूटे। वे चार साल के लिए हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने पूरे देश की यात्राएं कीं और कांग्रेस पर जमकर हमले किए। यह वह समय था जब सावरकर आरएसएस से बेहद असंतुष्ट थे। वजह ये कि सावरकर के कई प्रस्तावों के बावजूद आरएसएस के नेताओं ने हिन्दू महासभा की राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने से इन्कार कर दिया था।’ वीनर लिखते हैं, आरएसएस के नेता केआर मलकानी ने उन्हें मार्च 1954 में दिए एक इंटरव्यू में सावरकर की इस शिकायत का खुलासा किया और बताया था कि आरएसएस के तत्कालीन नेता केबी हेडगेवार ने राजनीति में संघ के प्रवेश से मना कर दिया था और चरित्र निर्माण के लिए शाखाओं के अभियान को वरीयता दी। बाद में गोलवलकर भी इसी लाइन पर चले। कोई भी यह आसानी से समझ सकता है कि उस समय राजनीति में सक्रिय होने और उससे दूरी बनाए रखने का क्या अर्थ था? लेकिन देश के आज़ाद होने के बाद 1951 में उस परिवार के विचार पूरी तरह बदल गए, जो आज बात-बात पर देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम के सर्टिफिकेट इश्यू करता है और यह तय करता है कि कौन इस देश का नागरिक होगा और कौन नहीं?

क्या यह उस शासन शैली के विपरीत नहीं है, जो इनकी अपनी ही रही है। अटल बिहारी वाजपेयी जिस समय भाजपा के अध्यक्ष रहे, वे हिन्दुत्व के एजेंडे से कन्नी काटते रहे और नेहरुवियन मॉडल के ही एक रूप बनकर रहे। इसके बाद आडवाणी युग में हिन्दुत्व के एजेंडे को आक्रामक रूप से लाया गया, लेकिन कालांतर में जिन्ना संबंधी एक विवाद के चलते उन्हें हाशिए पर डाल दिया गया और अंतत: उनके ही शिष्य नरेंद्र मोदी के उत्कर्ष के बाद उन्हें राजनीति के वानप्रस्थाश्रम के हवाले कर दिया गया, जिसे मार्गदर्शक मंडल का नाम दिया गया। आप अब हिन्दुत्व के उस दर्शन को भी स्मरण कर सकते हैं, जिसमें गुरु को देवता, विष्णु और परमब्रह्म बताया जाता है और उसके साथ वास्तविक व्यवहार क्या किया जाता है। अगर गुरु का यह हाल है तो अनुयायी का क्या होगा? मोदी-शाह और भागवत अब आक्रामक हिन्दुत्व के रथ पर सवार होकर सत्तावादी राजनीति के कुरुक्षेत्र में उतरे हुए हैं।

हिन्दुत्व बार-बार वसुधैव कुटुंबकम, अतिथि देवो भव और यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, तमसो मा ज्योतिर्गमय, सत्यमेव जयते, सर्वेभवंतुसुखिन: जैसे उद्घोष करता है, लेकिन वास्तविक आचरण इसके एकदम विपरीत प्रतीत हो रहा है। यह परिवार 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ के दर्शन को गाहे-बगाहे गाता है, लेकिन भाजपा के भीतर उमा भारती, सुमित्रा महाजन, आनंदी बेन पटेल, वसुंधरा राजे जैसी नेताओं को मोदी-शाह के पुरुष वर्चस्ववाद का स्वाद चखना पड़ा है। स्वदेशी जागरण के अभियान को तो स्वयं इस परिवार की सरकार ने ही एकदम उलट दिया है। मोदी ने संघ के इस कार्यक्रम को 'मेक इन इंडिया’ में बदल दिया। विदेशी उद्योगपति को देशी श्रम सस्ते में मुहैया करवाने की यह नीति हिन्दुत्व दर्शन के बिलकुल उलट है। बड़े कारपोरेट घरानों की लिप्सा और साम्राज्यवादी अंधड़ के आगे हिन्दुत्व का स्वदेशी जागरण अभियान दम तोड़ गया है। भाजपा ने एफडीआई पर अक्टूबर 2012 में एक पुस्तिका जारी की। इसमें आज के प्रधानमंत्री और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री के नाते नरेंद्र मोदी ने एफडीआई पर कहा, 'सपा-बसपा अगर वाकई ईमानदारी से एफडीआई के विरोध में हैं तो वे ममता बैनर्जी की तरह सरकार से समर्थन वापस लें। एफडीआई के कारण ही यूपीए विदेशियों के द्वारा विदेशियों के लिए विदेशियों की सरकार है। मुझे नहीं मालूम प्रधानमंत्री क्या कर रहे हैं। उन्होंने छोटे दुकानदारों की दुकानों को बंद कराने का पूरा बंदोबस्त कर दिया है।’ भाजपा सहित संघ परिवार का ऐसा कौनसा संगठन और कौनसा नेता था, जिसने स्वदेशी जागरण के दृष्टिकोण से विदेशी पंूजीनिवेश का विरोध नहीं किया हो। लेकिन अब वही अंधेरा इनके लिए एक प्रकाश पुंज में बदल गया है।

भारतीय दृष्टि को संघ परिवार अब हिन्दू दृष्टि कहता है, लेकिन वेदों से लेकर बाद तक के साहित्य से यह प्रमाणित होता है कि इस देश में गोमांस भी एक आहार के रूप में रहा और इसीलिए उसकी वर्जना भी की जाती रही। लेकिन भाजपा और संघ परिवार इसी बिंदु पर दो तरह का व्यवहार करते हैं। गोवा में उसकी सरकार गोमांस विक्रेताओं से वादा करती है कि वह उन्हें कर्नाटक से समुचित मात्रा में गोमांस मुहैया करवाएगी, लेकिन उत्तर भारत में कोई मुस्लिम भूखी गाय को चारे के लिए ले जाते भी दिख जाए तो ये उस पर टूट पड़ेंगे। हर विचारधारा का एक नैतिक लोक होता है। गांधी ने खादी के लिए अभियान चलाया तो कांग्रेस के हर नेता के लिए जरूरी कर दिया कि वह चरखा कातेगा ही। अगर संघ को वाकई गोप्रेम है तो वह अपने हर स्वयं सेवक या हर कार्यकर्ता या नेता के लिए गोपालन अनिवार्य क्यों नहीं करता?

इस परिवार का अंतर्विरोध मोदी-शाह की ताकत के बावजूद अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा की आवाज़ों में प्राय: दिखता रहा है। परिवार उच्च नैतिक मानदंडों की वकालत करता है, लेकिन इसने भारतीय दंड संहिता की धारा 497 और 377 को बदला है। इस बदलाव के बावजूद वह आज भी पुराने रूढि़वादी दृष्टिकोण से चिपकी हुई है। यह परिवार बात तो करता है एकात्म मानववाद की, लेकिन आचरण में सावरकर की हिन्दू महासभा का कट्टरवाद और मुस्लिम विरोध उबलता रहता है। यह कभी गांधीवादी समाजवाद की बातें करता है तो कभी वसुधैव कुटुंबकम् के गीत गाता है, लेकिन धरातल पर वही मुस्लिम विरोधी और संकीर्णताओं से भरे शो दिखाता है, जिसके निर्माता-निर्देशक संघ परिवार के लोग ही होते हैं।

वह स्वयं सपा, बसपा से गठबंधन करे तो यह देशहित में उठाया गया कदम, लेकिन कोई और करे तो यह संघातक। वह पीडीपी से हाथ मिलाए तो यह राजनीतिक अनिवार्यता, लेकिन कोई और करे तो वह विघटनवादी। वह विश्वनाथ प्रतापसिंह की सरकार चलाने के लिए 'देशद्रोही’ कम्युनिस्टों का भी साथ दे सकता है। उसकी नैतिकता का आंगन इतना फिसलन भरा है कि वहां कोई भी गिर सकता है। वह कांग्रेस की तरह ही अवसरवादियों का प्रिय ठिकाना रही है और इन दिनों तो कुछ ज़्यादा ही है। वह बलात्कारियों तक के लिए द्वार की अर्गलाएं खोल सकती है। उन्नाव कांड के खलनायक कुलदीपसिंह सेंगर को बलात्कार प्रकरण में दोषी मान लिया गया है और यह प्रकरण भाजपा के नैतिक लोक की सारी कलई खोल देता है। आखिर उसके सांसद कैसे साधु हैं कि वे जेल में जाकर एक बलात्कारी से मिलते हैं। उसका हिन्दुत्व दलितों को आत्मसात नहीं कर पाता।

यह कितनी बड़ी हैरानी की बात है कि उसके राष्ट्रवाद और देशभक्ति के लोक में उन स्वतंत्रता सेनानियों के लिए कोई जगह नहीं है, जिन्होंने कांग्रेस की पहचान रखते हुए मुक्ति आंदोलन में कोई योगदान किया या फिर वे घोषित कम्युनिस्ट, मुस्लिम या ईसाई हैं। कुछ समय पहले एनसीईआरटी की किताबों से हेनरी डेरोजियो जैसे क्रांतिकारी के पाठ हटाना इस बात का प्रमाण है। वह ऐसे हिन्दुओं को भी अपना शत्रु घोषित करता है, जो उससे मुखर वैचारिक असहमतियां जताते हैं।

इतिहास में ऐसे कालखंड भी आते हैं जब मनुष्य अन्याय का प्रतिकार करने में सक्षम नहीं हो पाता, लेकिन यह उतना बुरा दौर नहीं कि आप अपनी असहमतियों को भी प्रभावी ढंग से नहीं जता पाएं। गांधी ने इन्हीं असहमतियों के प्रश्न उठाते हुए कभी कहा था कि किसी समाज की सभ्यता और सुसंस्कृति का पैमाना यह है कि वह अपने आसपास के प्राणियों के साथ कैसा व्यवहार करता है, लेकिन आज प्राणियों की बात ही दूर, मनुष्यों के साथ क्या हो रहा है, यही प्रश्न सबसे अहम है। किसी संगठन की अच्छाइयां उसके नैतिक लोक से ही प्रकट होती हैं। लोकोन्मुखी लोकतंत्र के इस युग में संसदीय लोकतंत्र के आयामों को विस्तार देने की आवश्यकता थी, ताकि मनुष्य का हृदय लोक विस्तार पा सके और मनुष्यता की कोपलों पर एक नए स्वप्न संसार के पुष्प खिलें।

आज के सत्तावादी राजनीतिक समाज में जब धनबल का ही डिंडिंम घोष हो रहा है तो भला संघ परिवार क्यों पीछे रहता। इसकी राजनीतिक शाखा ने इस काम में बहुत चातुर्य से काम लिया। कांग्रेस ने आज तक की राजनीतिक संस्कृति में जो पगडंडियां उलीकी थीं, उन्हें उसके नए उत्तराधिकारियों ने पूरे परिपथ की तरह प्रयुक्त किया है। अब वह धन बल के सहारे पूरे तकनीकी तंत्र पर अपना प्रभुत्व कायम कर चुका है।

आचार्य चतुरसेन ने अपने निबंध धर्म और पाप में नेहरू युग के समय ही लिख दिया था: 'यह धन का काल है। यहाँ तक धन का महात्म्य बढ़ गया है कि प्राचीन काल में जो राज्य शासन तलवार पर होता था, आज धन पर है। कालिदास ने दिलीप की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि उसकी सेना आदि तो दिखावे की शोभा थी। वास्तव में राज्य-संचालन के योग्य तो उसके पास दो वस्तु थीं - चढ़ा हुआ धनुष और दूसरी तीव्र बुद्धि। आज चढ़ा हुआ धनुष कुछ काम का नहीं है, तीव्र बुद्धि आज भी दरकार है, किंतु चढ़े हुए धनुष के स्थान पर भरा हुआ खजाना चाहिए।’

हिन्दुत्व की राजनीति के पैरोकार हालांकि प्राय: कांग्रेस की राजनीति को लेकर गांधी-नेहरू परिवार पर ठीक ही  निशाना साधते हैं, लेकिन उनकी अपनी राजनीतिक व्यवस्था भी एथॉरिटेरियन और हायरार्किकल नियंत्रण पर टिकी है। संस्कृति और अर्थव्यवस्था में भी कमोबेश यही हाल है। हवाला घोटाले का कलंक माथे पर ले चुके भारतीय राजनेताओं में उनके भी शीर्ष नेता रहे हैं। लेकिन अब तो उन्होंने चुनावी पैसा लेने के लिए नई तरह के बोंड की नई गलियां निकाल ली हैं। अब उसके मोरल स्ट्रेचर और एथिकल क्रेडिब्लिटी के दावे बहुत पिलपिला गए हैं। वह भी भारतीय राजनीति के दूसरे मॉडलों को मात कर रही है।

वह आक्रामक हिन्दू एजेंडे पर अब तेजी से दौड़ रहा है। पारदर्शिता का अभाव रखता है। वह हिन्दुत्व का मनुवादीकरण और मनुवादीकृत हिन्दुत्व का मंडलीकरण कर चुका है। यह अलग बात है कि उसके मॉडल की एक बड़ी बाधा भारतीय समाज का सामाजिक ढांचा है, जो एकरूपतावादी संस्कृति, नैतिकता, जातिवादिता या भाषायी रूप रखने से बहुत परहेज रखता है। उसमें वैविध्य है। वह अपने शादी समारोहों में 'सिलाम’ की प्रथा को अंगीकार करता है और ईसाई नव वर्ष पर 'न्यू ईयर सेलिब्रेशन’ करता है।

दक्षिण के लोग हों या उत्तर के, पूर्व के हों या पश्चिम के, पिछड़े हों या अगड़े, दलित हों या ब्राह्मण, आम भारतीय जनमानस में राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा संबंधी हितों को लेकर मुस्लिमों से कोई चिंता नहीं है। अपितु इसका उलटा हो रहा है। अब नए विभ्रमों और नई घृणाओं के नए शिल्पकारों ने देश को एक लिजलिजे वातावरण की तरफ बढ़ा दिया है।

ऐसा नहीं कि इस सब के लिए हिन्दुत्व के पैरोकार ही दोषी हैं, बल्कि मूल रूप से इसके लिए वे शासक जिम्मेदार और जवाबदेह हैं, जिन्होंने शासन में लंबा समय बिताने के बावजूद इस देश के आम लोगों की भाषा से जुड़े साहित्य, संस्कृति और कला लोक को सशक्त किया। स्वतंत्रता के बाद शासकों ने जिस धर्मनिरपेक्षता को सशक्त किया, वह बहुसंख्यक लोक की चिंताओं को ही केंद्र में रखती थी। सही में वह वैज्ञानिक चेतना पर आधारित धर्मनिरपेक्षता नहीं थी, अपितु उसे राष्ट्रवादी धर्मनिरपेक्षता कहना अधिक उचित होगा। भारतीय राष्ट्रवाद में बहुसंख्यक वर्ग की एक सहज अभिव्यंजना है। नेहरुवियन शासन पद्धति में मेजोरिटेरियन ईडियम्स और सिंबल ही स्टेट ईथॉज के रूप में मजबूत किए गए। इस तरह की शासन पद्धति, धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवादिता की त्रिवेणी में बहुसंख्यक कट्टरतावाद का घट ही निकला। परिणति हमारे सामने है। अब इस घट को कौन अपने कंठ में रखे? यह घट जिनके नियंत्रण में है, वे इसके रस का पान हर किसी को करवाए जा रहे हैं और इसकी अप्रतिम महिमाएं गाते हुए उछाहों में हैं।

लेकिन क्या इस युग में किसी ने यह देखा कि देश के राजनीतिक दलों के राष्ट्रीय और प्रांतीय नेताओं की जीवन शैली कितनी अलग है? क्या आप इन्हें देखकर यह अंतर कर सकते हैं कि ये किस दल के हैं? मंदिर-मंदिर जाते, यज्ञोपवीत दिखाते और अधखुली धोती को संभालते राहुल गांधी या कोलकाता में दुर्गा पूजा के समारोहों में अग्रपंक्तियों में उपस्थित वामपंथी नेता वाराणसी के मंदिरों में शीश नवाते नरेंद्र मोदी से किस तरह भिन्न हैं? यह बात देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू तक जाती है, जिन्हें आधुनिक भारत का निर्माता माना जाता है। आज जीवनशैली के आधार पर संघ के स्वयं सेवकों से लेकर कम्युनिस्ट नेताओं तक यह भेद मिट चुका है।

हिन्दुत्व की राजनीति के तीन प्रमुख सिद्धांतों को अंतरराष्ट्रीय तौर पर सार्वभौमिक यथार्थ के बरअक्स आंकें तो हम इन्हें अंतर्विरोधों का शिकार पाते हैं। इनके स्वदेशीवाद का आज के ग्लोबल इंटीग्रेशन से कोई तालमेल नहीं है। प्रसिद्ध साहित्यकार निर्मल वर्मा ने एक निबंध में कहा था, 'क्या हम एक ऐसे राज्य-तंत्र का निर्माण कर सकेंगे, जिसमें भारतीय परंपरा का बोध - जिसे हमने भारतीय सभ्यता का धार्मिक भाव-बोध माना है - उसे अपनी मांस-मज्जा में रूपायित कर सकें?’ लेकिन सच ये है कि इस परिवार के समस्त लोग भाषणों में 'मैकाले की अंग्रेज़ी शिक्षा पद्धति’ की जमकर आलोचना करते हैं और अपनी संतानों को आइआइटी, आइआइएम और विदेशी शिक्षण संस्थानों में भेजने पर गर्वीले भाव व्यक्त किए जाते हैं। नेहरूयुग के आत्मनिर्भरतावाद का उपहास करने वाली विचारधारा के लोगों ने अपने स्वेदशीवाद को न कभी परिभाषित किया, न कभी जीवन में आत्मसात किया और न कभी शासन में अंगीकार किया।

कांग्रेस के परिवाद की आलोचना करते हुए वह स्वयं को इकलौता लोकतांत्रिक दल घोषित करता है, लेकिन एथॉरिटेरियन और हायरार्किकल मैथडोलॉजी पर चलने वाला यह परिवार कभी अपने संगठनों में स्वतंत्र चुनाव नहीं करवाता और मनोनयनवाद पर चलता है।

यह सच है कि हिन्दुत्व दर्शन के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विकास से कोई लय-ताल नहीं है। न ही रीजनल कम्युनिटीज की अस्मिताओं का मोनोलिथिक कल्चरल प्रिंसिपल्स से कोई लेनादेना है। हम भारतीय सभ्यता के चाहे कितने भी प्रशस्ति गान करें, लेकिन सच यह है कि अब किसी भी देश की एकल संस्कृति नेशन स्टेट के विकास की बुनियाद नहीं रही। और यह वह दौर है जब हम पोस्ट नेशन स्टेट एरा की ओर से तीव्रता से बढ़ रहे हैं।

यह सही है कि आज भी नेशन स्टेट हमारे दिलोदिमाग़ में किसी नॉस्टेलजिया की तरह छाया हुआ है। राष्ट्रप्रेम चीज़ ही ऐसी है। यह वह पुराना नशा है, जो जल्दी से उतरता नहीं। मनुष्य इसके सुरूर और खु़मार में रहता ही है। राष्ट्रप्रेम ताज़ा मोती की आब जैसा है। लेकिन कुछ यथार्थ बहुत स्पष्ट हैं।

एक भाषा, एक धर्म ओर एक संस्कृति के बावजूद 22 अरैबिक देश एक ढीलाढाला परिसंघ तक नहीं बना पाए हैं। एक भाषा, एक संस्कृति, एक विश्वास और एक जैसी विचार परंपरा के बावजूद ब्रिटेन योरोपीय संघ से बाहर आने को छटपटा रहा है। सुदूर पूर्व के देश हों या दक्षिण एशिया के, बौद्ध धर्म संस्कृति को जीते रहने के बावजूद इनमें कोई सुख चेतना वाले रिश्ते नहीं हैं। नेपाल एक हिन्दू देश है, लेकिन वह कम्युनिस्ट चीन के निकट है, हमारे नहीं। चेकोस्लोवाकिया टूटा तो कई गणतंत्रों में खंडित हो गया। एक धर्म, एक संस्कृति, एक विश्वास और निर्मल वर्मा की असीम स्मृतियों के बावजूद। नॉर्वे और स्वीडन भी कभी इसी तरह विघटित हुए थे। किंग्डम्स ऑव स्वीडन एंड नॉर्वे 1814 से 1905 तक दोनों देशों का साथ रहना जूटलैंड या किंब्रिएन पेनिनस्यूला को लेकर था और वह ठीक ऐसा ही था मानो भारत और पाकिस्तान 1965 में ही इस सोच के तहत किंग्डम्स ऑव इंडिया एंड पाकिस्तान के बैनर तले इसलिए एक हो जाते कि हम शत्रुता भुलाकर कश्मीर के वैभव पर आंच नहीं आने देंगे।

सोवियत संघ का विघटन भी याद किया जा सकता है। एक जैसे धर्म और संस्कृतियों के बावजूद यह 26 दिसंबर 1991 को 15 अलग देशों में विघटित हो गया। धार्मिक-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आधार पर बना पाकिस्तान भी टूटा तो दक्षिण और उत्तर कोरिया आज भी एक दूसरे के रक्तपिपासु बने हुए हैं।

हम अगर ये तर्क किसी हिन्दुत्ववादी के समक्ष रखें तो वह कहेगा कि हमारा धर्म अपूर्व, अतुलनीय और अपराजेय है। हमारे सांस्कृतिक वैभव के सामने कोई नहीं ठहरता। लेकिन पिछले 3500 साल के इतिहास को खंगालें तो सनातन धर्म के शिविर विनाशकारी विवादों और हाहाकारी युद्धों से भरे पड़े हैं।

लेकिन ब्रिटिश उपनिवेशी साम्राज्यवाद के खिलाफ चलाए गए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के पन्नों को खंगालें तो समस्त प्रकार के वाक्छल के बावजूद संघ परिवार या उसके हरावल दस्तों की भूमिका ही नहीं मिलेगी। यहां तक कि वीर सावरकर ने एक समय बहुत सक्रिय भूमिका निभाई, लेकिन वे जब रिहा होकर आए और हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने तो संघ के नेतृत्व ने उनके आग्रहों के बावजूद राजनीतिक मोर्चे पर सक्रियता से भाग लेने से साफ़ इन्कार कर दिया।

अब वह भारतीय आजादी के आंदोलन में गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की भूमिका पर तरह-तरह के प्रश्न दागता है, लेकिन उस समय यह औचित्य ही नहीं था कि गांधी के अहिंसक संघर्ष सही था या गलत या फिर भगतसिंह या अन्य क्रांतिकारियों का रास्ता उचित था, प्रश्न ये है कि उस समय भारत भूमि पर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ किस की क्या भूमिका थी? बस एक ही सवाल उस समय था कि भारत में ब्रिटिश राज सही नहीं था और उसका मुखर विरोध ही राष्ट्रप्रेम और देशभक्ति की निशानी था। अगर उस समय कोई संगठन चुप था तो वह भारतीय राष्ट्र के विरुद्ध विश्वासघात नहीं था?

इतिहासकारों ने भले इस बिंदु को अछूता छोड़ दिया हो, लेकिन यह प्रश्न तो उठता ही है कि गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस का रास्ता बहुत नरम, कमज़ोर या ब्रिटिश सरकार परस्त था और भगतसिंह या सुभाषचंद्र बोस जैसे क्रांतिकारियों का रास्ता अधिक उग्र था तो इनसे असहमति रखने वालों ने भारतीय लोकमानस के सामने अपना क्या विकल्प प्रस्तुत किया? अगर नहीं किया तो यह ब्रिटिश सरकार को ही समर्थन था, न कि कांग्रेस या क्रांतिकारियों को। संघ ने कभी भी उस काल खंड में अपनी भूमिका की सार्वजनिक आत्मालोचना का लेखाजोखा प्रस्तुत नहीं किया।

संघ परिवार और उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा के नेता नरेंद्र मोदी कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देते हैं। संघ परिवार सदा से कांग्रेस को छद्म धर्मनिरपेक्ष, मुस्लिमपरस्त और हिन्दू विरोधी बताता रहा है। लेकिन यह तथ्य बेहद दिलचस्प है कि आरएसएस सुप्रीमो एमएस गोलवलकर (1938 से 1973) की सहमित से संघ के महासचिव एकनाथ रानाडे और गृहमंत्री और कांग्रेस के नेता सरदार वल्लभभाई पटेल के साथ सहमति हुई थी कि संघ के सदस्यों को स्वतंत्र पहचान रखने के बजाय कांग्रेस की सदस्यता दिलाकर देशभक्तिपूर्ण गतिविधियों और कार्यकलापों को जारी रखने दिया जाए। यह वह समय था जब गांधी की हत्या के बाद संघ पर लगाया गया प्रतिबंध हट गया था, लेकिन संघ की गतिविधियों पर केंद्र सरकार की कड़ी निगरानी थी। कांग्रेस का रिकॉर्ड बताता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जिस समय विदेश दौरे पर थे तो कांग्रेस कार्यसमिति ने 9 अक्टूबर 1949 को प्रस्ताव पारित कर दिया कि आरएसएस के लोगों को कांग्रेस में प्राथमिक सदस्य के रूप में शामिल कर लिया जाए। लेकिन पंडित नेहरू के स्वदेश लौटने के बाद 17 नवंबर 1949 को यह प्रस्ताव निरस्त कर दिया गया। इस तरह पटेल के हस्तक्षेप से आरएसएस के कार्यकर्ताओं का कांग्रेस में प्रवेश रुक गया और पटेल-रानाडे समझौता बेअसर हो गया। फलत: पटेल आरएसएस के प्रिय हो गए और नेहरू आंख की किरकिरी।

यह पहली और अंतिम बार नहीं था। 1983 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की नेता श्रीमती इंदिरा गांधी ने दिल्ली, पंजाब और जम्मू और कश्मीर में चुनाव जीतने के लिए हिन्दू कार्ड का जमकर इस्तेमाल किया तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने इंदिरा गांधी का समर्थन किया। इसके एक दशक बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तत्कालीन सर संघ चालक बाला साहब देवरस के भाई भाउरा देवरस ने 1992 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव के समक्ष प्रस्ताव रखा कि देश के हालात को देखते हुए कांग्रेस आई और भाजपा एक साझा सरकार बना लें। अगर ऐसा संभव नहीं हो तो कम से कम चुनौतीपूर्ण हालात को देखते हुए दोनों एक न्यूनतम कार्यक्रम पर चलें और एक-दूसरे को सहयोग प्रदान करें। यह बयान भारतीय मीडिया में खूब छपा, लेकिन न तो इसे कांग्रेस के किसी नेता ने नकारा ओर न भाजपा के। इसका किसी ने खंडन भी नहीं किया। यह वही साल था, जब बाबरी मस्जिद ध्वस्त की गई और केंद्र में नरसिंह राव की सरकार थी। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि बहुसंख्यकवाद और अल्पसंख्यकवाद के बीच ऐसा आह्लाद भरा मौन अनुकूलन पहले कभी रहा होगा? क्या कोई नैतिक सिद्धांत इसे न्यायोचित साबित करेगा कि हिंदुत्व और मुस्लिमपरस्त अल्पसंख्यकवाद में कोई संधि या दुरभिसंधि हो सकती है?

प्रधानमंत्री के तौर पर इंदिरा गांधी ने 1977 में आपातकाल लगाया तो आरएसएस प्रमुख बाला साहब देवरस ने श्रीमती गांधी को दो पत्र लिखे और संघ से प्रतिबंध हटाने और स्वयं को रिहा करने की याचना की। इसके बदले में सहयोग का आश्वासन दिया गया। महाराष्ट्र विधानसभा में ये दोनों पत्र 18 अक्टूबर 1977 को रखे गए थे। जयप्रकाश नारायण ने कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन का आह्वान किया था तो संघ भी सक्रिय हो गया था। भारतीय जनसंघ का जनता पार्टी में विलय कर दिया गया। जनता पार्टी की सरकार बनी और गिरी तो 1980 में भाजपा का जन्म हुआ। इस तरह इस दल ने 1986 तक गांधीवादी समाजवाद की राह गही। राजीव गांधी की सरकार 1984 में बनी और बोफर्स घोटाले की गूँज हुई तो 1989 के आते-आते चुनाव हुए और वीपी सिंह की सरकार बनी। उसे वामदलों और भाजपा ने बाहर से समर्थन दिया। ये सरकार गिरी तो भाजपा ने हिंदुत्व का एजेंडा हाथ में लिया और बाबरी मस्जिद के ख़िलाफ़ राम मंदिर आंदोलन के तहत रथ यात्रा शुरू कर दी। यह वह मोड़ था, जहाँ देश साम्प्रदायिक हिंसा से उबल रहा था। ऐसा क्या हुआ कि देश अचानक हिंसक हो उठा।

दरअसल 1947 के उपरांत मुख्यधारा के राजनीतिक दलों ने अपनी राजनीतिक घोषणाएं पूरी करने के लिए भ्रष्टाचार, अपराधीकरण आदि अपसांस्कृतिक मूल्यों को जमकर इस्तेमाल किया। मुस्लिम विरोधी पूर्वग्रहों की परंपरा को पोषित किया। हिंदू मुस्लिम के बढ़ते टकराव और पाकिस्तान विरोधी वातावरण को मजबूत किया।  पुरानी सांप्रदायिक सोच को लोगों के दिलोदिमाग में बिठाया गया। भेदभाव पूर्ण नीतियों को जन्म दिया गया। भारतीय साहित्यकारों के यथार्थवादी दृष्टिकोण से आम जनमानस को दूर रखा गया और उसे लोकप्रिय बनाने से परहेज बरता गया। कांग्रेस की सरकारों ने भारतीय साहित्यकारों और मनीषियों के सृजन को लोकमानस तक ले जाकर लोकमंगल रचने के बजाय एक परिवार के यशोगान में लगाए रखा। गैरकांग्रेसी दलों ने इस पर यथास्थितिवादी रुख रखा और हिन्दुत्व परिवार तो जैसे साहित्यकारों का रक्तपिपासु ही हो उठा। उसने उनकी अभिव्यक्ति और सृजनलोक को ही देशद्रोही घोषित करने के अभियान जारी रखे।

इसका एक दीर्घकालीन कारण भी रहा है। वह यह कि 1947 के उपरांत और पहले की परिस्थितियों ने भारतीय लोक मानस पर सांप्रदायिक और जातिवादी दृष्टिकोण को उकेर दिया। लोकतांत्रिक चेतना के अभाव वाले वातावरण में भारतीय लोकमानस सांप्रदायिकता के नाना रूपों के लिए उर्वर भूमि साबित हुआ। आजादी से थोड़ा पहले डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने जो चेतावनियां जारी कीं, उन्हें अनसुना कर दिया गया।

प्रश्न उठता है कि अगर सांप्रदायिकता और धर्मांधता वास्तव में लोक विरोधी हैं तो ये भारतीय राजनीति में एक सशक्त प्रवृत्ति की तरह क्यों उभरी हैं? वैचारिक और भौतिक आधार पर पड़ताल करें तो इसके कई पहलू हैं, जिन्होंने इस हिंसक प्रवृत्ति में योगदान किया है।  भारतीय स्वतंत्रता के वर्ष 1947 से पहले ही लोगों में वैचारिक संप्रदायता का प्रवेश दो राहों से हुआ। एक तो उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के हिंदू और मुस्लिम सुधारकों ने ब्रिटिश इतिहासकारों की तरह ही इतिहास की धर्म आधारित और सांप्रदायिक व्याख्या को ही पकड़ा और भक्तिकाल से लेकर पुनर्जागरण काल के उन मानवतावादी स्वरों की अनदेखी की, जो भारतीय जनजीवन को एक मानवतावादी और गैरसांप्रदायिक संस्कृति का जीवन दे सकते थे। दूसरे, गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस और जिन्ना के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग तथा ब्रिटिश सरकार ने राजनीति में धर्म और धार्मिक प्रतीकों के अलग तरह के प्रयोग किए, जिनसे सांप्रदायिकता का अलग रूपायन हुआ।

राजनीतिक स्वतंत्रता के समय संसाधनों के विभाजन में हिंदू और मुस्लिम ईलीट की भूमिका प्रमुख रही। राष्ट्रवाद के गांधीवादी सिद्धांत की आधार चेतना मुस्लिम लोगों को संतुष्ट करने और अपने साथ लेने में पूरी तरह विफल रही। मुस्लिम लीग भी हिंदू उच्च कुलीन वर्ग को संतुष्ट न कर पाई। सांप्रदायिक टकराव बढ़ता रहा और क्रिया की प्रतिक्रिया होती रही। भारतीय साहित्यकार उर्दू और हिन्दी के खेमों में बंट गए। वे साहित्य में रुपहले मानवतावाद के गीत गाते रहे, लेकिन यथार्थ के धरातल पर अपने-अपने सांप्रदायिक खेमों को मज़बूत करते रहे। ऐसे में कुछ स्वर ऐसे ज़रूर रहे, जिन्होंने साहित्य के लोक को यथार्थवादी मानवतावाद के सरोकारों से मज़बूत किया। मंटो से मुक्तिबोध तक की इस पंक्ति में कई साहित्यकार गर्व से देखे जा सकते हैं।

लेकिन अंततोगत्वा सांप्रदायिक विभाजन हो गया और राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की भूमिकाओं पर प्रश्न उठते रहे, जिनमें से कुछ अनुत्तरित भी रहे हैं। लेकिन जहां तक हिन्दुत्व परिवार का प्रश्न है, नाना धर्म संसद, मार्गदर्शक मंडल, यज्ञमंडपों और हिंदू हितों के नाम पर की जाने वाली पवित्र यात्राओं के बावजूद घोषित किया जाता रहा कि हिन्दू अपने ही देश में अभागा और डरा हुआ है। लेकिन इससे हिन्दू समाज का कोई हित नही हुआ, अपितु अहित अधिक हुआ, लेकिन इसका बोध भी नहीं हो सका।

यदि हालात का आकलन करें तो 1980 के बाद निरंतर साधु संत महंत आचार्य महर्षि मठाधीश हिंदू राष्ट्र के लिए प्राण-पण एक करते रहे हैं। लेकिन जितना धर्मोन्माद बढ़ा, राष्ट्रीय जीवन में नैतिक आचरण का उतना ही अवमूल्यन हुआ और पतनशीलता मौसम की तरह स्वरूप बदलती गई। भारतीय जीवन के  विविध क्षेत्रों में अपराधीकरण और बाजारवाद बढ़ते गए। राजनीति संस्कृति और अर्थव्यवस्था तक का अपराधीकरण हो गया। धनबल-भुजबल नियंता हो गए। बाबा लोग दुस्साहस करते गए और बलात्कारी हो गए। हालात में हिंसा घुलती गई और आतंकवाद बढ़ता गया। यहां तक कि भारत के दो प्रधानमंत्री हिंसा की भेंट चढ़े।

जहां पहले 1984 में दंगे हुए और उनकी दोषियों को सजा हो भी नहीं पाई थी कि 2002 में गुजरात में दंगे हुए। महिलाओं पर अत्याचार बढ़ते रहे। महिलाओं की हालत तो अल्पसंख्यकों के बावजूद बदतर है। और इस तथ्य के बावजूद कि वे आधा भारत हैं। हिंसा और असुरक्षा का आलम ये है कि आज एक भी वीवीआइपी बिना कमांडो एक कदम नहीं धर सकता। कश्मीर एक बंद कालकोठरी जैसा राज्य बना दिया गया है। अल्पसंख्यकों पर निरंतर प्रहार हो रहे हैं। वैचारिक असहमति के केंद्रों को ध्वस्त किया जा रहा है। उत्तर पूर्व में अशांति बढ़ रही है। जातिवाद अप्रत्याशित ऊंचाइयों को छू रहा है। जाति आधारित टकराव बढ़ रहे हंै। दलितों का दमन हो रहा है।

देश में हिन्दुत्ववादी राजनीति के उभार के साथ ही सती, कन्या भ्रूण हत्या, बलात्कार, बाल विवाह, अपसंस्कृति के गिरे हुए मानदंडों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है और ये कम होने का नाम नहीं ले रहे हैं। भाषा का प्रश्न हो या धर्म या संस्कृति का, इनकी समय-समय पर अलग-अलग व्याख्या की जाने लगती है। कभी कहा जाता है कि संस्कृनिष्ठ हिन्दी ही हमारी पहचान होगी, लेकिन व्यवहार में पूरा का पूरा संघ परिवार अब अंग्रेज़ीप्रिय हो गया है। हिन्दी साहित्य के तो शायद ही किसी लेखक को वह पढ़ता या प्रचारित करता होगा। कला और संस्कृति के सरोकारों के प्रति भी उसका रुख यही है। वह मनु को गर्व से स्वीकार करता है, लेकिन मनु भी धर्म की परिभाषा में कहते हैं :

 

धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।

धीर्विद्या सत्येमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। (मनुस्मृति 6.91)

 

अर्थ - धृति (धैर्य), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी (सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना)। सत्यम् ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध (क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना)।

लेकिन धर्म की यह परिभाषा संघ परिवार की राजनीतिक संस्कृति के आचरण में कहीं दिखाई देती है? व्यवहार को परखें तो आचरण एकदम विपरीत प्रतीत होता है। हिन्दुत्व परिवार के लेखों और साहित्य का अध्ययन करें तो भारत के इस धार्मिक स्वरूप की वह आलोचना करता है और मानता है कि इस आचरण के कारण ही भारत को गुलाम रहना पड़ा, जबकि गुलामी और परतंत्रता के कारण सनातन, वैदिक या हिन्दू धर्म के मानवीय मूल्य कदापि नहीं हैं। हिन्दुत्व का सिद्धांत देश के सैन्यीकरण पर बल देता है, जबकि सनातन मूल्य कुछ अलग ही हैं। उनका मूल भाव करुणा के आसपास है।

लेकिन इस सबके लिए सिर्फ हिन्दुत्ववादी विचारधारा से जुड़े लोग ही दोषी हों, ऐसा नहीं है। वस्तुत: 1857 के बाद से ही भारतीय लोकजीवन का निरंतर सांप्रदायिकरण होता रहा है। दयानंद सरस्वती जैसे पुनरुत्थानवादी सुधारक तक ने मुखर शब्दों में चेताया था कि मतांधता और मताग्राहिता हमें मनुष्यता से परे ले जाएगी और यह किसी भी तरह ठीक नहीं है। वे सांप्रदायिकता के साथ-साथ मतवाद, मतांधता या आंख के अंधे गांठ के पूरे जैसे शब्द प्रयुक्त करते थे। राहुल सांकृत्यायन ने घुमक्कड़ शास्त्र में दयानंद सरस्वती के दर्शन का सार इस तरह प्रस्तुत किया है: दयानंद सरस्वती ने कहा था कि मनुष्य स्थावर वृक्ष नहीं, वह जंगम प्राणी है। चलना मनुष्य का धर्म है। जिसने इसे छोड़ा वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं है।

उपनिवेशवादी शासकों, हिन्दू नेताओं, मुस्लिम प्रतिनिधियों आदि ने मिलकर सांप्रदायिक वातावरण की राहें तैयार कीं। कांग्रेस के नेताओं ने मुस्लिम ईलीट के साथ पहले तो गलबहियां डालीं और बाद में उनसे इतनी दूरियां कर लीं कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया। कांग्रेस ने ख़िलाफ़त आंदोलन में शामिल होने का $फैसला लिया। लेकिन इस गठबंधन के टूटते ही देश में जैसे सांप्रदायिक दंगों की झड़ी लग गई। कट्टरतावादियों के मंच दोनों तरफ बढ़ते चले गए। सुधारवादी संगठनों ने कट्टरता और धर्मांधता पर प्रहार की राह छोड़कर शुद्धिवाद की पगडंडिया निकाल लीं। कहीं तब्लीगी तो कहीं तंज़ीमी इदारे फैलते चले गए। संकीर्णतावाद की हवाएं पाकर जातिवादी कट्टरता ने भी आकार लेना शुरू कर दिया। आज़ादी के आते-आते कुछ उम्मीदें बंधी, लेकिन मनुष्यतावादी आवाज़ें धीमी होने लगीं और लोहिया जैसे नेता उभरे, जिन्होंने जिस जाति की जनसंख्या जितनी, सत्ता में उसकी उतनी भागीदारी का नारा दिया और वामपंथ में ब्राह्मणवाद पर प्रश्न खड़े करके जातिवादी मानसिकता को तर्कातीत बना दिया। यह भूलकर कि ऐसी बातें करने वाला सामाजिक न्याय का पुरोधा खुद एक मारवाड़ी बनिया है। अगर वह अपनी जाति नहीं देख रहा तो मानवतावादी और सम्यकामिता के लिए लड़ रहे लोगों की जाति कैसे रेखांकित कर सकता है। लेकिन यह भी भारतीय राजनीति का एक दु:खांत है। लोहियावादियों ने भारतीय समाज को अस्थिर और उद्वेलित किया तो उसके हिले हुए हिस्से पर हिन्दुत्ववादियों ने बहुत चातुर्य से अपना अतिक्रमण कर लिया। मानवीय सरोकार कुचले जाते रहे और संवेदनाएं लहूलुहान होती रहीं।

हिन्दूवाद के पैरोकार कांग्रेस और इंदिरा गांधी को आपातकाल के लिए सदैव ही कठघरे में खड़ा करते हैं, लेकिन आज कश्मीर को लेकर उनका आचरण कैसा है? क्या यह शक्ति और सैन्यवाद की वैसी ही पूजा पद्धति नहीं है, जो आज तक कांग्रेस ने की। हम देखते हैं कि अब कांग्रेस के सारे प्रतीकों पर उसने अपना एकाधिकार जमा लिया है। लेकिन यह भी सच है कि आज तक इस गांधी के हत्यारे की शायद ही कभी निंदा के स्वर इस खेमे में सुनाई दिए हों। गांधी के हत्यारे को गौरवान्वित करने वाला साहित्य आखिर कहां उपलब्ध होता है?

राष्ट्रीय परिदृश्य पर अक्सर सीता, सावित्री, रानी झांसी आदि की नभस्पर्शी चर्चाएं होती हैं, लेकिन उमा भारती,  आनंदीबेन पटेल, जसोदा बेन आदि की पीड़ाएं अनसुनी और अनचीन्ही रह जाती हैं। शाखाओं में भी महिलाओं की भूमिका नहीं है। परिवार के नेतृत्व में भी पुरातन पुरुष वर्चस्व यथावत है। सामाजिक न्याय के मानदंडों की बातें की जाती हैं, लेकिन सबरीमाला, नित्यानंद, आशाराम, राम रहीम और चिन्मयानंद के मामले में चुप्पी साध लेना ही श्रेयस्कर समझा जाता है। चिन्मयानंद ने परिवार के आंतरिक नैतिक लोक की समस्त झूठी आभाओं को धूलधूसरित कर दिया है। ऐसा कहीं नहीं लगता कि वह कांग्रेस के लिजलिजे सांस्कृतिक वातावरण से अलग छवि प्रस्तुत करता है।

भारतीय स्वतंत्रता के आंदोलन से दूरी बनाए रखने के बावजूद उसके परिसर भारतीय साहित्य की मनीषा से बंजर प्रतीत होते हैं। प्रेमचंद, निराला, महादेवी, चतुरसेन, हजारी प्रसाद द्विवेदी, वियोगी हरि, राहुल सांकृत्यायन, भीष्म साहनी, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध, कैफी, कबीर, केदारनाथ, नागार्जुन, यशपाल, वृंदावनलाल वर्मा, मुक्तिबोध आदि से लेकर अब तक के किसी स्तरीय साहित्यकार के लिए उसके परिसरों में कोई स्थान प्रतीत नहीं होता। साहित्य, संगीत और कलाविहीन लोक में जैसी अपसंस्कृति अंकुरित हो सकती है, भला उसके अलावा हमने क्या पाया है? क्या इसमें विज्ञान की चेतना का प्रकाश फैल सकता है? इस कालखंड की घटनाओं की शृंखला बताती है कि नैतिकता से दूर हो जाना कितना भयावह है।

 

संपादक, दैनिक भास्कर, 5ए, सहेली मार्ग, यूआईटी ऑफिस भवन के पास, उदयपुर, 313001, फोन नंबर : 9672863000 मेल : thetribhuvan@gmail.com

 


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