मुखपृष्ठ पिछले अंक आलोचना / विमर्श हाशिए की विडम्बना
दिसंबर - 2019

हाशिए की विडम्बना

अखिलेश गुप्ता

आलेख

 

 

महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित 'सरस्वती’ पत्रिका के सितम्बर, 1914 अंक में प्रकाशित हीरा डोम की कविता 'अछूत की शिकायत’ से यह भ्रम दूर हुआ कि हिन्दी और सारे जग की कविता का उत्स कोई वियोग-जनित आह है। अभिजन कहे जाने वाले समाज ने जिसे सदियों से उपेक्षित, अपमानित एवं पददलित किया; उस तबके ने अत्याचार को सहते समय पीड़ा और बेबसी से उत्पन्न कराह को जब वाणी दी, तो उसकी बड़ी मार्मिक अभिव्यक्ति इस कविता में संभव हुई है -

''हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी,

हमनी के साहेब से मिनती सुनाइबि।

हमनी के दुख भगवनओं ने देखता जे,

हमनी के कबले कलेसवा उठाइविब

 

हमनी क इनरा के निगिचे ना जाइलेजां,

पांके से पिटि-पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,

हमनी के एतनी काही के हलकानी।।’’1

सम्पन्नों का अन्ध जयघोष करने वाले समाज के ख़िलाफ़, शताब्दियों से जाति-प्रथा के शोषण और दमन की चक्की में पीसे जाने की यातना का यह मुखर प्रतिरोध है। आधुनिक साहित्य में यह कविता 'प्रथम दलित कवि का सुन्दर छन्द’ मात्र न होकर असंख्य उपेक्षित, दमित और हाशिए पर पड़े साधारण जनों की चेतना का आख्यान भी है। साहित्य  में स्व-अनुभवजनित दृष्टि के कारण, यह आत्मतुष्ट और सामाजिक यथास्थिति पर आधारित रूढ़ साहित्यिक अभिमतों एवं उनसे बावस्ता जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि और अभिव्यक्ति-प्रणालियों को भी झकझोर देती है। उरुग्वे के मशहूर लेखक एदुंआर्दो गालियानो का कथन है कि ''गाय हाँकने वाली बिजली की छड़ी किसी को भी उर्वर कथाकार बना सकती है।’’ 2 सदियों से पशुओं पर किए जा रहे अत्याचार से भी ज्यादा हिंसा और क्रूरता भारतीय समाज में दलितों और शोषितों के प्रति बरती जा रही है। इसका प्रत्याख्यान करते समय यही घटनाएँ उनकी आवाज़ बनती हैं, साथ ही उस व्यवस्था पर प्रश्न भी करने लगती हैं, तब यह आवाज़ किसी एक की न होकर हाशिए पर धकेल दिए गए उस पूरे जन-समुदाय की वाणी बन जाती है। मर्म को भेद जाने वाली इस कविता की प्रासंगिकता का सबब भी यही है। ऐसे में इन आवाज़ों को दबाया या झुठलाया नहीं जा सकता।

अपने समय की पदचाप को सुनते और उन पर मुनासिब रचनात्मक कार्रवाई करने के मामले में साहित्य कहीं भी पीछे नहीं रहा है। मनुवाद पर आधारित वर्ण-विभाजित व्यवस्था में अमानुषिक दर्प के कारण सवर्ण कही जाने वाली जातियाँ आज भी अस्पृश्यता, ऊँच-नीच एवं भेदभाव पर आधारित समाज बनाए रखना चाहती हैं, ताकि वर्ण और वर्गभेद कायम रहे। यह सारा पाखण्ड धर्म और अध्यात्म के नाम पर क्रियाशील है। हरिशंकर परसाई के अनुसार देवताओं को प्रसन्न करने के नाम पर आयोजित यज्ञ का असल प्रयोजन देश के नागरिकों को अविवेकी, पौरुषहीन और कायर बनाए रखना है - ''देश में जब करोड़ों आदमियों को अन्न खाने को नहीं मिलता, तब ये धार्मिक पाखण्डी उसे आग में झोंकेंगे। मेरे खयाल से यह यज्ञ कराने वाले समय-समय पर परीक्षा करते रहते हैं कि देश का अविवेक और पौरुषहीनता अभी बरकरार है कि नहीं। लोग देखते रहें कि हमारा अन्न, घी, शक्कर आग के हवाले किया जा रहा है और वे जय बोलते हैं। यानी लोग अभी अविवेकी और कायर हैं। इन लोगों से डरने की अभी कोई जरूरत नहीं है। इन्हें लम्बे समय तक शोषित रखा जा सकता है। यज्ञ में वास्तव में अन्न, घी, शक्कर नहीं जलते। विवेक स्वाहा! बुद्धि स्वाहा! विज्ञान स्वाहा!’’ 3

अगर वंचित तबकों में-से कोई व्यक्ति परिश्रम के सहारे आर्थिक रूप से सशक्त हो भी जाए, तब भी वह घृणा का पात्र बना रहता है। संपत्ति होने के बावजूद उस असुविधा में जीने के लिए सवर्णों द्वारा विवश कर दिया जाता है। यदि एक दलित घोड़े पर सवार होकर निकल जाए, तो उनको वह नहीं सुहाता। उसको पीट दिया जाता है। अत्याचार एवं निर्ममता का आलम आज भी यह है कि ऐसे दलित की हत्या करने से भी सवर्ण कहीं जाने  वाली जातियाँ नहीं कतराती हैं। भूमण्डलीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सहारे अमेरिका भारत में अपना वर्चस्व स्थापित कर देश को पुन: अदृश्य गुलामी की राह पर धकेल देने को उद्यत है; लेकिन हम देशवासी अब भी वर्गभेद और जाति-प्रथा की जकडऩ के साथ ही धार्मिक आडम्बर और अन्धविश्वास की पिछड़ी हुई रुग्ण मानसिकता से ग्रस्त हैं। हरिशंकर परसाई इस पर ज़बरदस्त प्रहार करते हुए आँखें खोले देने वाली सचाई से रुबरु कराते हैं, ''कुछ चतुर लोग बड़े काँइयाँपन से इस सबको सही बताने की कोशिश ककरते हैं। एक सज्जन मुझसे कह रहे थे - यज्ञ से विश्व कल्याण होगा। मैंने कहा - महाराज, विश्व का कल्याण होगा अमेरिका और रुस में निरस्त्रीकरण संधि से। विश्व कल्याण होगा चीन की आक्रामकता रोकने से। विश्व कल्याण होगा शोषण के खत्म होने से, क्या इस यज्ञ का असर जिमी कार्टर और डेंग सियाओ पिंग पर पड़ेगा?’’ 4

ओमप्रकाश वाल्मीकि की 'जाति’ कविता की चारुता इसी में है कि वह केवल जाति-आधारित मानसिक गुलामी का प्रत्याख्यान नहीं करती, बल्कि भूमंडलीकरण के वृहद् तंत्र के सहारे भारत में गृह-प्रवेश कर चुकी वैश्विक सत्ता की गुलामी के प्रति भी आगाह करती है - '' 'जाति’ आदिम सभ्यता का/नुकीला औज़ार है/जो सड़क चलते आदमी को/कर देता है छलनी/एक तुम हो/जो अभी तक चिपके हो जाति से/न जाने किस...ने/तुम्हारे गले में/डाल दिया है जाति का फंदा/जो न तुम्हें जीने देता है/न हमें/लुटेरे लूटकर जा चुके हैं/कुछ लूटने की तैयारी में हैं/मैं पूछता हूँ/क्या उनकी 'जाति’ तुमसे ऊँची है?’’ 5

केन्द्राभिमुख बुर्जुवा समाज में हाशिए की समस्याओं पर आधारित चिंतनधारा को भूमण्डलीकरण की देन माना जाता है। भारत में उत्तर-आधुनिकता के लक्षण ढूँढ़कर असल में बुर्जुआ समाजा मुक्त बाज़ार की राजनीति को ही और अधिक प्रश्रय देता है। दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक अथवा स्त्री-संबंधी सबाल्टर्न विमर्शों में मुक्त बाज़ार की राजनीति अपनी विरोधी विचारधारों के प्रति उन्हें भयावह ढंग से असहिष्णु बना देती है। दलितों को अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ भड़का कर, आर्य एवं अनार्य विवाद और स्त्री-पुरुष के मध्य विषमता को मानव-मुक्ति के समग्र एजेण्डे से स्वायत्त या पृथक आरै खंड-खंड समस्याओं के रूप में प्रचालित कर उनमें और भी अधिक खाई पैदा की जा रही है। इसलिए मुक्त बाज़ार की राजनीति के विरोध में जैसी संगठित आवाज़ें उठनी चाहिए थीं, वह संभव नहीं हो सका। उसने इन आवाज़ों का रुख़ मोड़कर स्वयं को सुरक्षित करने में दक्षता हासिल कर ली है। टेरी ईगल्टन ने अपनी किताब 'द इल्यूजन ऑफ पोस्ट मॉडर्निज्म’ में उत्तर-आधुनिकता के इस सिद्धान्त की आलोचना की है। 'साहित्यालोचन और माक्र्सवाद’ में टेरी ईगल्टन के विचारों की व्याख्या करते हुए वैभव सिंह बताते हैं - ''सत्य और यथार्थ की सापेक्ष उपयोगिता पर बल देने वाली उत्तर-आधुनिकता कई बार गलत और सही, मानवीय और अमानवीय, क्रूरता और विरोध के बीच के अंतर को समझने की व्यक्ति की चेतना को कमजोर करने का प्रयास करती है। वह जीवन में जो कुछ भी भद्दा और कुरुप है, उसका विरोध करने के स्थान पर उससे तटस्थ होने की प्रेरणा देती है। विचारधाराओं के अन्त की बात कहकर वह दुनिया के, पूँजीवाद की लगातार निरंकुश होती विचारधारा का विकल्प ढूँढऩे के किसी प्रयास को ही बचकाना करार देती है। उसके जरिए फासीवाद के खिलाफ एकजुट लड़ाई को कमजोर किया जा सकता है और समानता के सार्वभौमिक मूल्यों के खिलाफ निरर्थक संशय को फैलाया जाता है। टेरी ईगल्टन ने उत्तर-आधुनिकता के उस पक्ष पर भी हमला किया है, जिसे उत्तर-आधुनिकता की सबसे बड़ी ताकत के रूप में प्रचारित किया जाता है और वह स्थानीय और उपेक्षित संस्कृतियों का समर्थन करना और वृहद् विचारधाराओं (मेटा नैरेटिव्स) की अलोकतांत्रिकता की निंदा करना। टेरी ईगल्टन का मानना है कि बहुलता, खुलेपन और स्थानीयता पर बल देने वाली उत्तर-आधुनिकता की विचारधारा भी विरोधी विचारों के प्रति भयानक असहिष्णु हो सती है।’’ 7

स्थानीय और उपेक्षित संस्कृतियों के प्रति उत्तर-आधुनिकतावादियों का यह वैचारिक समर्थन विभ्रम के अलावा और कुछ नहीं है। आदिवासी कवयित्री निर्मला पुतुल उनके वाकछल से बखूबी परिचित हैं-

''तुम्हारे पास शब्द हैं, तर्क है, बुद्धि है/पूरी की पूरी व्यवस्था है तुम्हारे हाथों/तुम सच को झुठला सकते हो बार-बार बोलकर/कर सकते हो खारिज एक वाक्य में सब कुछ मेरा/आँखों देखी को/गलत साबित कर सकते हो तुम/जानती हूँ मैं/पर मत भूलो!/अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुए/सच को सच/और झूठ को/पूरी ताकत से झूठ कहने वाले लोग!’’8

(जो कुछ देखा-सुना, समझा, लिख दिया)

ओमप्रकाश वाल्मीकि जाति की निस्सारता को समझते हुए वर्णभेद के कारण मंदिरों में उनके प्रवेश को प्रतिबन्धित करने वाली नियमावलियों पर गहरी चोट करते हैं। यह विशिष्ट आर्थिक परिक्षेत्रों में शोषित एवं वंचित जनों पर प्रवेश-संबंधी प्रतिबन्ध को भी कभी नहीं भूलते, जो इस सारे शोषण-तंत्र की रणभूमि है-

''मुझे डर है/मेरी ज़रूरतों का पता चलते ही/वे हथिया लेंगे/तमाम चीज़ें/कर देंगे प्रतिबन्धित/पेड़ की छाँव/बाँध देंगे नदी का जल/सुदृढ़ दीवारों से/लिख देंगे-/'चेतावनी’/दूर रहो/यह प्रतिबन्धित क्षेत्र हैं!’’ 9

उदय प्रकाश का यह कथन है कि 'मैकाले की शिक्षा नीति से अंग्रेजी पढ़-लिखकर बाबू की नौकरी पाने वालों ने यहाँ से अंग्रेजों को खदेड़ कर रख दिया।’ सुखद अचरज की बात यह है कि बहुत-कुछ ऐसी ही चेतना आज हाशिए पर जीने को विवश लोगों की कविताओं में निहित है। वे भले ही आर्थिक, आधार पर बुर्जुआ वर्ग की बनिस्बत दरिद्र हों, लेकिन उनकी कविताएँ वैचारिकी, संवेदना एवं नैतिक अंतर्वस्तु के लिहाज़ से संसार के सबसे समुन्नत साहित्य की कोटि में रखी जा सकने लायक हैं।

आलीशान इमारतों में रहने वाले साधन-संपन्न सुविधाभोगियों को नष्ट होते पर्यावरण एवं विलुप्त हो रहे पशु-पक्षियों की चिन्ता सताते ही आदिवासियों के शिकार पर रोश लगा दी जाती है। अपनी प्रकृति, पेड़ों, नदियों और पहाड़ों से प्रेम करने वाले आदिवासी जंगल में पेड़ों के काटे जाने का विरोध करते हैं। पहाड़ों को औद्योगिक परिक्षेत्र बनाए जाने का विरोध करने के कारण उनके घर तक उजाड़ दिए जाते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ खनिज, कोयला एवं अन्य कच्चे माल पर कब्ज़ा कर आज अन्धाधुन्ध दोहन कर रही हैं। जंगल खत्म हो जाने से जंगली पशु बदहवास शहरों की ओर भागते समय सड़कों पर मार दि जाते या दुर्घटनाओं में मर जाते हैं। आदिवासी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ख़िलाफ़ जब एकजुट हो जाते हैं, तो नक्सली करार दिए जाते हैं और विस्थापन की ज़िंदगी जीने को विवश किये जाते हैं। पशु-पक्षियों के विलुप्त होने की शिकायत पर सत्ता, व्यवस्था और पुलिस-प्रशासन की गाज बहुराष्ट्रीय कंपनियों, औद्योगिक परिक्षेत्रों या 'टिम्बर मर्चेंट’ पर नहीं, इन्हीं आदिवासी बहेलियों पर गिरती है।

उदय प्रकाश पक्षियों के विलुप्त होने के संकट की पड़ताल करते हुए बताते हैं - ''मेरी चिंता यहाँ यह नहीं है कि यौन संबंधों में उत्तर-आधुनिक पोलिगेमी के बढ़ते हुए प्रभाव और सारस, धनेश, लालसर या क्रौंच जैसे मोनोगेमस पक्षियों के विलुप्त हो जाने के पीछे क्या रिश्ता है। और यह कि क्या किसी वाल्मीकि की तरह किसी क्रौंच या ऐसे किसी दूसरे पक्षी के किसी व्याध द्वारा वध पर किसी महाकाव्यात्म विस्फोट की अब संभावना है या नहीं। यह तय था कि धनेश की नस्ल कभी वर्षों में एकाध के शिकार किये जाने से नहीं, बल्कि उन वृक्षों के न रह जाने से हुई है, जिनमें वह अपना घोंसला बनाता था। जैसे कीकर, पाकड़ आदि। और शायद उन वृक्षों के न रह जाने से, जिनके फलों से वह अपना पेट भरता था। जैसे गूलर, कोसम, चार वगैरह। आज़ादी के बाद का भयावह निर्वण्यीकरण ही इसके पीछे है। बचपन में अपने गाँव के गरीब बूढ़ों की गठिया ठीक करने के लिए मेरे कच्चे हाथों से चली हुई गोलियाँ नहीं या उन आदिवासी बहेलियों के जाल नहीं, जो औषधि के लिए कभी-कभार गाँव के बूढ़ों के दबाव में एकाध धनेश भी फाँस लाते थे।’’ 10 महज़ संयोग नहीं कि जसिंता केरकेट्टा की कविता में भी प्रकृति के साथ जीव-जंतुओं की इसी जीवनधर्मी संसक्ति को हम देख सकते हैं -

''बच्चों का विश्वास है/जब तक बचा है पृथ्वी पर एक भी फूल/तितलियाँ मर नहीं सकती/वे लौट सकती हैं/दुनिया के किसी भी कोने से/इसलिए हाथों में फूल लेकर/बच्चे ढूँढ़ रहे हैं तितलियाएं की कब्र/यहीं-कहीं इसी शहर में...।।’’11

दरअसल, शोषण को प्रदूषण की खाल ओढ़ाना आदिवासियों के ख़िलाफ़ हो रही हिंसा, अत्याचार और निर्ममता पर परदा डालने की एक नयी शैली है। पर्यावरण के सवाल की इस जटिलता की ओर पहले रघुवीर सहाय ने भी हमारा ध्यान आकर्षित किया था - ''पर्यावरण का सवाल बहुत फैशनेबल बन गया है, लेकिन उसका जो रूप हमारे यहाँ होना चाहिए था, उस पर नहीं सोचा जा रहा है। उदाहरण के लिए आप कितना पानी का और जमीन का बन्दोबस्त करते हैं, वह हमारे यहाँ पर्यावरण की मुख्य समस्या है। समस्या यह नहीं है कि प्रदूषण हो रहा है, समस्या यह है कि शोषण हो रहा है। प्रदूषण तो यूरोप ने हमारे यहां के कच्चे माल को ले जाकर अपने यहाँ प्रोसेस करने के कारण अपने यहाँ पैदा किया है और जब वह एक ऐसी मात्रा में पहुँच गया है कि उनको बहुत परेशानी होने लगी है, तो उन्होंने यह शुरु किया है कि हमारे यहाँ का कच्चा माल हमारे यहाँ ही प्रासेस करेंगे और उसके तैयार माल का मुनाफा अपने यहाँ ले जाएँगे। प्रदूषण की दुनिया में जो शोर मच रहा है, वह यूरोप की परेशानी है।’’12

भारतीय समाज में पाँचवें वर्ण की नियति को प्राप्त, 'स्त्री’ से संबंधित प्रश्नों, उनकी वाजिब समस्याओं एवं चुनौतियों को आज भी हम बखूबी समझना नहीं चाहते। आज की कविता में भी अक्सर वह पुरुषों के बराबर की सत्ता अथवा उसकी सहचरी की भूमिका में शामिल नहीं की जा सकी है। कवि एवं आलोचक विजय कुमार के अनुसार, ''स्त्री अभी भी हमारे लिए आतंक है। हम नकचढ़े हैं या फिर लट्टू। हमारी कविता में स्त्री सब कुछ त्याग करने वाली वात्सल्यमयी माँ है, करवाचौथ का व्रत रखने वाली पत्नी है या फिर नदी की खिलखिलाहट और शरद की चाँदनी से भरी प्रेयसी अथवा एक वेश्या। ये माताएँ, पत्नियाँ, प्रेमिकाएं और वेश्याएँ हमारे दिमागी संतुलन को कभी झकझोरेंगी नहीं। वे हमारे  प्रति हमेशा समर्पित रहेंगी और हमें मृदु, शान्त, तन्द्रिल और सौम्य कविताएँ लिखने के लिए प्रेरणाएँ मुहैया करती रहेंगी। वह स्त्री जो इस बेमेल औद्योगिक विकास और शिक्षा के प्रसार में अचानक कहीं किसी कोटर से बाहर निकल आयी है, जो हमारी तरफ चुनौती फेंकती है, हमसे समान स्तर पर बात करना चाहती है, हम उस 'कम्पेनियन को अपनी कविता में अभी ढूँढ नहीं  पा रहे हैं।’’13 गुमनामी के कोटर से बाहर निकल कर ग़ैर-बराबरी का विरोध करती हुई स्त्री को आज पश्चिमी मूल्य का 'सिम्बल’ घोषित कर भारतीय संस्कृति की विकृति साबित कर दिया जाता है। नतीजतन आज भी वह पुरुष की 'कम्पेनियन’ नहीं बन पाती, अन्तत: देह तक ही सीमित रह जाती है। अनामिका की 'भूख के बयान और बियाबान’ शीर्षक कविता के इस अंश में इसकी बेचैन कर देने वाली टीस मौजूद है -

''कभी-कभी मैं बिस्तर में भी जगती हूँ

एक दु:स्वप्न की तरह!

दिन-भर की घुड़की जब

शिश्न उठा देती है-हैंड्स-अप मुद्रा में!

तीन मिनट की ट्रैफिक लाइट के बाद

धाँय-धाँय, धक-धक-सब धूल-धूआँ।

वितृष्णा इसको ही कहते होंगे, भन्ते! है न?’’14

यह अकविता के समय विषम सामाजिक संरचना से उपजे असंतोष के विरुद्ध 'शिश्न की तोप दाग कर’ व्यवस्था पलट हेतु यौन कुंठा या अतिरंचना का सहारा लेना नहीं है, बल्कि आज की स्त्री-त्रासदी का एक कड़वा सच है। प्रसंगवश, रीति-कालीन काव्य में प्रचलित राज्याश्रम, पाण्डित्य-प्रदर्शन, ऐहिक स्त्री श्रृंगार के अंतर्गत नख-शिख वर्णन, कलात्मक चतुराई एवं सामाजिक मूल्यों से अनभिज्ञता उसकी प्रमुख प्रवृत्तियाँ मानी जाती हैं। इन सबसे अलग हटकर कवि पद्माकर अपनी कविता में स्त्री-पुरुष असमानता के बरअक्स स्त्री सशक्तीकरण का एक अनूठा अध्याय रच गये हैं-

''फागु की भीर, अभीरन में गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी।

भाई करी मन की पद्माकर, ऊपर नाइ अबीर की झोरी।

छीनि पितंबर कम्मर तें सु बिदा दई मीडि़ कपोलन रोरी।

नैन नचाय कही मुसुकाय, 'लला, फिर आइयो खेलन होरी’ ।।’’15

गोचारण के बाद गोपियाँ दूध एवं उससे निर्मित उत्पादों को गाँवों की गलियों में बेचती थीं। इससे आर्थिक रूप से सशक्त गोपिकाओं का पितृसत्तात्मक समाज में प्रभावी होना और उसे विचलित करना असंभव नहीं था। इसके विपरीत समकालीन कवि रघुवीर सहाय की छोटी-सी कविता 'चढ़ती स्त्री’ निर्मम पूँजीवादी सभ्यता में निम्नतर सामाजिक सोपानों पर घिसटने को विवश आधुनिक समय की विपन्न स्त्री की करुणा नज़र आती है -

''बच्चा गोद में लिये

चलती बस में

चढ़ती स्त्री

और मुझमें कुछ दूर तक घिसटता जाता हुआ।’’16

वर्तमान के दृश्यपटल पर संभावित भविष्य की कुछ चित्र वीथिकाएं किसी दु:स्वप्न की भाँति रघुवीर सहाय के अंतस को औन्दोलित करती हैं। यह उद्वेलन गृहस्थी, नौकरी और पितृसत्ता में संघर्ष की तिहरी ज़िम्मेदारी निभारी हुई स्त्री के जीवन-दुख की स्मृति से जनमा है। इसकी सार्थकता इस बात में है कि इससे विचलित होकर हम अपने भीतर कहीं-न-कहीं ऐसी असह्य यथास्थिति को तोडऩे और बदलने के लिए प्रतिश्रुत होते हैं।

इनके अलावा आज का कवि जब देश में अल्पसंख्यक मुसलमानों की विडम्बनाओं का गवाह बनता है, तो उसे चारों ओर धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिक हिंसा से उपजे वहशीपन का वातावरण नज़र आता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय समाज में मुसलमानों की इकहरी सांस्कृतिक संरचना के राजनीतिक प्रवक्ताओं और प्रचारकों द्वारा छवि विधर्मी, गद्दार और सीधे शब्दों में कहें, तो पाकिस्तान के एजेंटों की गढऩे की साज़िश की जाती रहती है। उन्हें हरदम शक की नज़र से देखे जाने का 'माइंडसेट’ बना दिया गया है। जब तक कवि हिन्दुओं के दिमाग में भरे गए इस वैमनस्य और कटुता की विष-बेल की जड़ों तक नहीं पहुँचेगा, उसके कारक तत्वों की शिनाख़्त नहीं करेगा; तब तक सिर्फ़ सद्भावना के बल पर उसकी कविता अच्छी तो हो सकती है, लेकिन प्रभावी नहीं हो पायेगी। असद ज़ैदी की कविता 'हिन्दी पत्रकारिता’ द्वेष, उन्माद और नफ़रत को फैलाने वाली घातक हिन्दुत्ववादी मानसिकता को सामने लाती है और उस पर व्यंग्य करती है-

''मेरी जेब में एक पुडिय़ा है/इसे आप खरीदेंगे नफ़ा होगा/देखेंगे और अपनी सामथ्र्य पर अचरज करेंगे/किसी बुरे मुसलमान को खिला दें तो/वह अच्छा हिन्दू हो जाएगा/कोई अच्छा सिख इसे खा ले तो/वह सचमुच छूमंतर हो जाएगा/बेशक इसे आप खा लें तो जल्दी ही आपके एक पोता होगा।’’ 17

सत्ता सरंचना, देशी पूँजीपति और बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ हमारी चेतना के इलाके में विघटनकारी भ्रम प्रक्षेपित करने वाले वाहकों को प्रश्रय देते हैं, ताकि हाशिए पर जीने को मजबूर अधिसंख्य जनता कहीं संगठित न हो जाए। लेकिन कविता की शक्ति तो इस दुरभिसंधि को पहचान कर अवाम में जागरण, संगठन, आंदोलन और परिवर्तन का ज•बा जगाने में निहित है। समकालीन कवि इसी संजीवनी की खोज करते हैं-

''वे डरते हैं

किस चीज़ से डरते हैं वे

तमाम धन-दौलत

गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद?

वे डरते हैं

कि एक दिन

निहत्थे और ग़रीब लोग

उनसे डरना

बंद कर देंगे।’’ 18

(उनका डर : गोरख पाण्डेय)

लेकिन हाशिए पर एकाग्र लेखन की विडंबना यह है कि हिंदी साहित्य से वाबस्ता विमर्शों के दरमियान इसकी जगह आज भी प्राय: 'सबाल्टर्न’ या निम्नमध्यवर्गीय अध्ययनों के प्रकरण तक सीमित है। हाशिए के समाज की कविता में अगर रोजमर्रा की ज़िन्दगी से जुड़ा प्रेम-प्रसंग अभिव्यक्त होता हो, तो उसे तत्काल लोक-साहित्य की कोटि में गिना जाता है। पानी में घुले हुए अदृश्य नमक की मानिंद साहित्य के इतिहास की मुख्यधारा में वह शामिल नहीं की जाती। केवल दलित, आदिवासी, स्त्री अथवा अल्पसंख्यक केन्द्रित 'सबाल्टर्न विमर्श’ के प्रसंग में उसे याद किया जाता है।

 

संदर्भ-सूची :

1. वेबलिंक-/http:/kavitakosh-org/kk/अछूत की शिकायत/हीरा डोम. 2. नीलाभ (सं.) अनरुन्धति रॉय, 'कठघरे में लोकतंत्र’, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2012, पृ. 106. 3. हरिशंकर परसाई, 'पाखण्ड का अध्यात्म’, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1998, पृ.101। 4. वही, पृ. 103। 5. ओमप्रकाश वाल्मीकि, 'अब और नहीं...’ राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2009, पृ. 20-21। 6. प्रभाकर श्रोत्रिय, 'कालयात्री है कविता’, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1993, पृ. 78। 7. वैभव सिंह (अनुवाद एवं प्रस्तुति), टेरी ईगल्टन, ' मार्क्सवाद और साहित्यालोचन’, आधार प्रकाशन, पंचकूल, 2006, पृ. 16-17। 8. निर्मला पुतुल, 'नगाड़े की तरह बजते शब्द’, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 2012, पृ. 95। 9. ओमप्रकाश वाल्मीकि, 'अब और नहीं...’, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2009, पृ. 60। 10. उदयप्रकाश, 'ईश्वर की आँख’, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1999, पृ. 104। 11. वैबलिंक - http:/www.advasiresurgence.com/ यहीं-कहीं-इसी-शहर-में/। 12. कृष्ण कुमार (सं.), 'रघुवीर सहाय संचयिता’, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2003, पृ. 180। 13. विजय कुमार, 'कविता की संगत’, आधार प्रकाशन, पंचकूल, 2012, पृ.52। 14. अन्विता अब्बी (संयोजन), 'उर्वर प्रदेश: 3’, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2010, पृ. 198। 15. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, 'हिंदी साहित्य का इतिहास’, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2001, पृ. 213। 16. रघुवीर सहाय, 'आत्महत्या के विरुद्ध’, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1985, पृ. 13। 17. असद ज़ैदी, 'सरे-शाम’, आधार प्रकाशन, पंचकूल, 2014, पृ. 132। 18. गोरख पाण्डेय, 'जागते रहो सोने वालो’, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1983, पृ. 26।

 

संपर्क- मो. 08085913848, बिलासपुर

 


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