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दिसंबर - 2019

संस्कृति और राष्ट्रवाद

रवि श्रीवास्तव

आलेख

 

 

संतों-भक्तों, पीर-फक़ीरों का प्रभुत्व या सत्ता से कभी नहीं बना। हमारे यहाँ आज जो स्वघोषित धर्म-गुरु हैं, उन्होंने सत्ता से कभी बैर मोल नहीं लिया। उल्टे वे तो सत्ता के संरक्षण में ही सर्वोच्च सांविधिक संस्थाओं के शीर्ष तक पहुँचे हैं। इतिहास बताता है कि धार्मिक कट्टरता के खिलाफ सबसे पहले लड़ाई संतों-भक्तों में ही लड़ी थी, वह भी धर्म के तसलसुल के भीतर लोक धर्म का आश्रय लोकर । 16 वीं सदी के जर्मनी में वाइक्लिफ, लूथर और टॉमस मुंजर के नेतृत्व में चलने वाले धार्मिक सुधार-आंदोलन चर्च की जड़ता और रूढि़वादिता के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज से शुरु हुए थे। इसी तरह 14-17वीं सदी के बीच भारत का भक्ति आंदोलन मुल्लाओं-मौलवियों, पंडों-पुरोहितों की पुरोहितो के साथ  संतों-भक्तों- फ्रीस्ट्स एंड प्रोफेट्स- के बीच असहमति और टकराव की काव्यात्मक अभिव्यक्ति था। स्वयं सूफी मत का जन्म अरब और ईरान के खलीफाओं की कट्टरता के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप हुआ था।

निस्संदेह रामायण, महाभारत, गीता, वेद-पुराण, उपनिषद-स्मृतियों आदि के साथ संतों-भक्तों-महात्माओं के दार्शनिक वचन हमारी बेशकीमती सांस्कृतिक विरासत हैं। उन्हें भूलना या अनदेखा करना अपनी राष्ट्रीय पहचान को खो देने जैसा है। लेकिन उस सांस्कृतिक विरासत को बदले हुए नये संदर्भों में नये मूल्यबोध के साथ पढऩा कठिन मामला है। इन ग्रंथों से संकीर्ण हिन्दू पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवादी के पक्ष में भी तर्क जुटाये जा सकते हैं और भारतीय समाज और दार्शनिक चिंतन की उस विराट मानवतावादी मूल्य-चेतना को भी दिखाया जा सकता है जो समन्वयकारी है और हमारे समाज के भीतरी अन्तर्विरोधों, समस्याओं और तनावों के बीच संतुलन और सामंजस्य स्थापित कर एक न्यायपूर्ण समतामूलक समाज के निर्माण के लिए स्थायी प्रेरणा का स्रोत भी बन सकते हैं।

एक ही परंपरा की दो विरोधी धाराओं के बीच एक के चुनाव का निर्णय कैसे हो? यह तब और भी मुश्किल है जब दोनों की कसौटियों पर उतरी भारतीय संस्कृति के साथ बुद्धि और विवेक भी दांव पर लगा हो। ऐसे में ऐतिहासिक साक्ष्य हमारी मदद करते हैं। वही दुराग्रपूर्ण सोच की अंत्येष्टि कर सकते हैं। लेकिन यही हथियार दोनों धाराओं के अलग-अलग समर्थक बुद्धिजीवियों के पास है।

अब क्या करें? देखिए, एक रुढि़बद्ध दिमाग और समाज कभी स्वीकृत सामाजिक मानदंडों से प्रश्न नहीं करता है। एक खुला समाज हमेशा प्रश्न करता है। यही प्राश्निकता सही और गलत का निर्णय कर सकता है। वही हमें गढ़ी गयी देशप्रेमी की परिभाषा से छूट भी दिला सकती है। यह प्रश्न करने की परंपरा हमारे यहाँ कब से है?

हमारे यहाँ जितने भी दार्शनिक मतवाद हैं वे एक दूसरे से टकराते हुए आगे बढ़े हैं। बौद्धों का सनातनवादियों से और शंकर का बौद्धों से दार्शनिक शास्त्रार्थ और प्रश्न-प्रतिप्रश्न विख्यात है। लोकायतवादियों के भौतिकवाद ने सतानवादियों और शंकर के अनुयायिों के दार्शनिक आदर्शवाद को हमेशा झूठ और फरेब के कठघरे में खड़ा किया है। 'बेचहि बेद धर्म दुहि लेहीं’ लिखने वाले तुलसी दास और 'तू कहां के बामन, हम कहां के सूद’ लिखकर स्वीकृत किन्तु जड़ एवं रूढ़ बन चुकी सामाजिक मर्यादाओं पर उँगली उठाने वाले कबीर की प्राश्निकता को अनदेखा करना वस्तुत: भारतीय परंपराओं से प्रतिरोध और इंकार का जो स्वर है उसकी पहचान से मुँह मोडऩा होगा। समर्पण नहीं इंकार, स्वीकृति नहीं संशय, आदेश-निर्देश नहीं बल्कि संवाद का साहस भारतीय नवजागरणकालीन दार्शनिक चिंतन के केंद्र में रहा है। उसके सहकार भारतीय नवजागरण के प्रतिनिधि बौद्धि राजनेता फुले, दयानंद, विवेकानंद, रामास्वामी नायकर पेरियार, अंबेडकर, गाँधी और नेहरू ही नहीं थे; बल्कि मिर्ज़ा ग़ालिब भारतेंदु और उनके मंडल के लेखक, रवीन्द्रनाथ, आनंद कुमार स्वामी, प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी भी थे।

आज का भारत गहरे संक्रांति काल से गुजर रहा है। भारत, भारतीयता, भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद की नयी परिभाषाएँ गढ़ी जा रही हैं। उससे इतर सोच रखन वालों की राष्ट्रद्रोही बताया जा रहा है। विरोधी मतों के प्रति उत्तरदायित्वपूर्ण असहमति, भिन्न मनावलंबियों की सोच-समझ के प्रति सहनशीलता, सहिष्णुता और सम्मान का स्थान क्रूरता एवं हिंसा ने ले लिया है जिनका भारतीय चिंतन परंपराओं में कहीं और कभी भी स्वागत-योग्य स्थान शायद ही रहा हो। प्रश्न करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता जब कि प्रश्न करें या न करें ही आज का वास्तविक प्रश्न है। अगर आपातकाल के काले दौर को अपवाद मानें (और अपवाद हमेशा सार्वभौम नियमों को ही प्रमाणित करते हैं।) तो आज़ाद भारत में विचारों पर लगाम का ऐसा ख़तरनाक समय कभी नहीं आया वह भी भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद की सुरक्षा के नाम पर जो हमारी बौद्धिक एवं सास्कृतिक परंपराओं का हिस्सा कभी नहीं रहा।

दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद सबसे पहले अपनी सत्ता को सुदृढ़ करने के लिए इतिहास और परंपरा को अपने पक्ष में खड़ा करता है। वह जिस अतीत को, इतिहास और परंपरा की अपने पक्ष में गढ़ता है उसके साथ राष्ट्रीय दुराग्रह एवं अहंकारपूर्ण जातीय स्मृतियाँ अनिवार्यत: जुड़ी होती हैं। वे ही भ्रांतियों एवं विकृतियों को जन्म देती हैं। उन भ्रांतियों और विकृतियों में भी जनता को सीधा अपील-प्रभावित करने की असीम जीवनशक्ति होती है। अयोध्या का मंदिर-मस्जिद और सबरीमाला वाला प्रसंग इसी तरह का है। इसलिए अतीत की परंपराओं के मोहधिकार से बाहर लाना 'डामिस्ट्रीफिकेशन’ बहुत जरूरी है जहाँ से दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद को संजीवनी मिलती है। यह अतीत के प्रेतों से इतिहास की सुरक्षा ही नहीं स्वयं हमारे विवेक की सुरक्षा के लिए जरूरी है। कुरेशी स्मारक व्याख्यान में रोमिला थापर ने उल्लेख किया था कि ''इतिहासकारों को समय-समय पर रुक कर स्थिति का जायजा लेना चाहिए।... उन्हें पूछना चाहिए कि वह जिसे हम परंपरा के रूप में स्वीकार करते हैं, इस रुप में स्वीकारे जन के योग्य (अब) हैं भी या नहीं।... विविधताओं वाला समाज जब अपने लिए एकरुप सांस्कृतिक परंपरा का निर्माण करता है तब इस प्रक्रिया में ऐतिहासिक तथ्यों की तोड़-मरोड़ हो सकती है। परंपराएं स्वयं निर्मित नहीं होतीं, सचेत रूप से उनका चुनाव किया जाता है। अतीत के विपुल खजाने से हम वही चुनते हैं जो हमारी वर्तमान आवश्यकताओं के अनुकूल होता है।’’ दरअसल अतीत को गढऩे के बहान दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद वर्तमान के प्रति अपने खास राजनीतिक रुझान को ही अभिव्यक्त करता है जिसका सीधा संबंध सत्तारोहण से है सत्ता विमर्श से है। कहने की जरूरत नहीं कि सम्यक इतिहासदृविृ और सांस्कृतिक परंपराओं का न्यायसंगत और विवेकपूर्ण मूल्यांकन समय सापेक्ष अध्ययन की दूसरी सामान्तर विचार-प्रणाली की मांग करता है जो सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में हमारे व्यवहार को सर्वस्वीकार का शिकार होने से बचा सके।

किसी देश का राष्ट्रीय स्वाभिमान उसका झूठ और पाखंड भी होता है। आज भी हम इस झूठ और पाखंड मोह से मुक्त नहीं हो पाये हैं कि भारत विश्व का आध्यात्मिक गुरु है, कि वेद और पुराण सभी ज्ञान के आदि स्रोत हैं, कि हमारे यहाँ चिकित्सा-प्रणाली इतनी विकसित थी कि हम आदी के शरीर पर हाथी का सिर लगा सकते थे, कि हमने टेस्ट ट्यूब बेबी की तकनीकी हजारों साल पहले महाभारत के सम में ही खोज ली थी, पुष्पक विमान उड़ा लिये थे, संचार-प्रौद्योगिकी इतनी विकसित थी कि घर बैठे महाभारत के युद्ध को एक अंधे को दिखा सकते थे, गोमूत्र पी-पिलाकर कैंसर का इलाज करा सकते हैं। यह सब भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री श्रीमन मोदी और एक ऐसी साध्वी के वक्तव्य हैं जो स्वयं कैंसर की दो बार शैल्य चिकित्सा करा चुकी हैं। यह सब मुंगेरीलाल के हसीन सपने हैं, राष्ट्रवाद के अमावस में सत्ता विमर्श की फुलझडिय़ां हैं।

निस्संदेह भारतीय धर्मशास्त्र भारतीय मनीषा की अमूल्य धरोहर हैं। लेकिन तब उनके संबंध में प्रश्न दूसरा है। क्या वे अपने समय का भी सही प्रतिबिंबन करते हैं? वे किसी मनोगत आदर्श को प्रक्षेपित करते हैं या जीवित समाज को? क्या उसमें पूरा भारतीय समाज सिमट आया है जिसके प्रति वह समानता का य्वहार करता है या उसके दायरे से समाज का एक हिस्सा तिरस्कारपूर्ण अवज्ञा का शिाकर होकर बहिष्कृत भी है? या उसमें चित्रित पंरपरा के अतिरिक्त अन्य स्वतंत्र परंपराएं भी इस देश में थीं - जनजातीय, ब्राव्य और क्षेत्रीय? धर्म और दर्शन से न जुड़ी हुईं धर्मनिरपेक्ष परंपराएं क्या इस देश में विकसित ही नहीं हुईं? और अंत में क्या यह परंपरा (वर्चस्वशाली परंपरा) भारतीय समाज के विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया के साथ न्याय करती है? ये असुविधापूर्ण प्रश्न किसी कन्हैयाकुमार या माक्र्सवादी द्वारा नहीं पूछे गये हैं जिन्हें आप देशद्रोह-राष्ट्रद्रोह के अपराद में किसी अंधे कानून के तहत मुकद्दमा चलाकर सुधा भारद्वाज और उनके साथियों की तरह जेल में जबरन ठूँस दें या 'पद्मावती’ फिल्म के पोस्टरों की तरह भारतीय संस्कृति की दीवार से नोच कर उतार दें। ये प्रश्न एक उदार विवेकवादी समाज वैज्ञानिक श्यामाचरण दूबे ने पूछा है। इनका उत्तर खोजना जरुरी है क्योंकि एक बहुलवादी समाज में जब कोई एक परंपरा अधिकारवादी परंपरा में बदल कर सारी आलोचनाओं से ऊपर उठकर पूजा-पाठ की वस्तु बन जाती है और दूसरी सहवर्ती परंपराओं के साथ सौतेला व्यवहार करने लगती है तो उसके अनर्थकारी परिणाम निकलने में देर नहीं लगती।

एजाज अहमद बिल्कुल ठीक कहते हैं कि जिनकी जेहनियत फासिस्टों जैसी होती है उन्हें उदार पूँजीवादी मूल्यों में भी माक्र्सवाद ही दिखायी देता है। वे राजनीति का खुमैनीकरण और संस्कृति का तालीबानीकरण करते हैं। चाहे वह मध्यकाल का लोक जागरण हो या आधुनिक काल का भारतीय नवजागरण हो उनकी बुनियादी प्रतिबद्धताओं की तस्वीर विवेकवादियों ने ही गढ़ी थी। उनमें बड़ी से बड़ी ताकत से टकराने का नैतिक साहस था, एक दृढ़ संकल्प भी। कंभनदास ने सम्राट अकबर के निमंत्रण पर लिखा, 'संतन को कहा सीकरी सो काम। आवत जात पन्हैया टूटी बिसरि गयो हरिनाम।।’ 'सीकरी’- आज का फतहपुर सीकरी। अकबरी सल्तनत की सांस्कृतिक राजधानी यानी राज्यसत्ता का प्रतीक। संतों को सत्ता से क्या लेना-देना। सत्ता का सुख ईश्वर को भुलाने के लिए पर्याप्त है। सत्ता-सुख और संरक्षण पाने की लालसा में साधक अपना ही अहित करेगा - पन्हैया यानी जूता टूटने का यही अभिप्राय है। कुंभनदास ने राजाश्रयी संस्कृति के मान-मूल्यों की प्रच्छन्न आलोचना और उसकी सीमा के साथ उसका विकल्प भी बता दिया है। वहाँ इनकार का साहस है। तुलसी जैसा विवेकवादी ही कर सकता था 'परहित सरित धर्म नहीं कोई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।’ यही विवेक था जो अकबर जैसे महाप्रतापी के निमंत्रण को शालीनतापूर्वक ठुकराने का नैतिक साहस देता था, 'हम चाकर रघवीर के पटो लिखे दरबार। तुलसी अब क्या होहिंगे नर के मनसबदार।।’ आज न वह शालीनता बची ही और न इंकार का साहस।

क्यों? इसलिए कि अगर सत्ता के पीछे कोई विराट जीवन-दर्शन कोई महान नैतिक संकल्प न हो, विवेक का साहस न हो तो वह निरंकुश और स्वेच्छाचारी होने के लिए अभिश प्त है। श्यामाचरण दुबे ने लिखा है, ''भारतीय संस्कृति को बचाये रखने में उसके प्रश्न, शंका, असहमति, विरोध, सुधार और विद्रोह की परंपराओं का बड़ा हाथ रहा है। भारत के अनेक संत कवियों ने सामाजिक विक्षोभ की अभिव्यक्ति और अन्याय से लडऩे का एक नया मुहावरा विकसित किया। परंपरा को प्रकट रूप से बिना अस्वीकार किये उन्होंने पैन प्रश्न पूछे, गंभीर शंकाए व्यक्त कीं, अपनी असहमति को शब्द दिये, विरोध को वाणी दी, सुधार की योजनाएं सुझायीं और आवश्यकता पडऩे पर विद्रोह का समर्थन किया। इन परंपराओं ने एक ओर सामाजिक तनावों को दूर या कम किया तो दूसरी ओर सामाजिक सामंजस्य उत्पन्न करने में भी सहायता दी।’’ (समय और संस्कृति, पृ. 39) रामानंद-रामानुज से लेकर और उनके आगे-पीछे भी भारतीय संस्कृति की यही धारा प्राणवान रही है। उनके प्रतिरोध के बिंबों की सबसे रोचक बात वह रूप है जिससे वे शोषण के अनुभवों को उल्ट करती है। आखिर शोषण और उसके प्रतिकार के केंद्र में यह अहसास होता कि उसे लूटा जा रहा है, लूटा गया है। उस संबंध को उल्टा करना यानी लुटरों को लूटना, फिर वह चाहे किसी का मालिक हो, लार्ड हो या बास हो भारतीय संस्कृतिक परंपराओं की यही स्थायीथाती है। जिस राजाश्रय को विवेकवादी महात्माओं, संतों, पैगंबरों ने सिरे से खारिज किया था और उससे दूर रहकर परलोक को साधने की नसीहत दी थी, जिस संस्कृति ने उन्हें प्रतिरोध का सहास सिखाकर बड़ी-से-बड़ी ताकतों के खिलाफ निश्कवच खड़ा होने की हिम्मत दी थी। आज उसके प्रतिभावान दावेदार और उत्तराधिकारी अपनी ही विरासत से बेखबर होकर राज्यसत्ता की चाकरी में हाथ बाँधे कतारबद्ध खड़े हैं। इन कलयुगी अवतारों, भगवानों, योगियों, बाबाओं और साध्वियों को राज्यसत्ता के संरक्षण की उतनी ही जरूरत है जितनी उसके भ्रष्ट राजनीतिक संरक्षकों को उनकी है। दोनों के बीच आज वही संबंध है जो एक शराबी का लैंप पोस्ट से होता है। दोनों को सहारे की ज़रूरत है, रौशनी की ज़रूरत दोनों को नहीं है। दोनों परले दर्जे के कायर है। यह कायरता ही उनके लिए भारतीय संस्कृति है।

यह कैसा 'डिजिटल इंडिया’ है जहाँ राष्ट्रीय विवेक और विवेकवादी दोनों दाव पर लगे और 'स्वच्छ भारत’ का रास्ता साफ करने के लिए पानसरे, कलबुर्गी, दाभोलकर और गौरीलंकेश के साथ रिजर्व बैंक के खजाने को भी साफ करने की ज़रूरत आ पड़ी? पूंजीवादी घरानों से संचालित और संरक्षित राष्ट्रवादियों से यह उम्मीद रखना कि वह इस बात का पड़ताल करेंगे कि बुद्ध ने जिस ब्राह्मणवाद और वर्णव्यवस्था की जड़ों में तर्क का मट्ठा डाला था, मूर्तिपूजा का विरोध किया था, अवतारवाद, पुनर्जन्म और कर्मफल के नासूरों को निकालने में अपने जीवन को होम कर दिया वे परवर्ती काल में पुनप्र्रभावी कैसे हो गए? यह उल्टी गंगा क्यों और कैसे बही कि कण-कण में भगवान का निवास मानने वाले हिन्दू समाज अयोध्या की एक खास जगह पर ही 'सौगंध राम की खाते हैं हम मंदिर वहीं बनायेंगे’ की झंझट में फँस गया? कैसे कोई अपने नाम के आगे पीछे, 'राम’ लगाकर राम-रहीम, आशाराम, और रामपाल बन सकता है? कैसे कोई अपने नाम के आगे-पीछे बाबा, साध्वी और राधा लगार बाबा रामदेव, ऋतंभरा, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और उमा भारती बन सकता है जबकि इनकी करनी इन नामों के पौराणिक अर्थ-संदर्भों के ठीक विपरीत हैं? ये सब कॉरपोरेट पूँजी के समर्थक हैं। उनके अगुआ हैं श्री नरेन्द्र मोदी। वैसे यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि कैसे खोटे सिक्कों ने अच्छे सिक्कों को चलने से बाहर कर दिया? जैसे ही आप यह प्रश्न पूछेंगे आप राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिये जायेंगे।

पूँजी धर्म और राष्ट्रवाद का यह संयुक्त खल-खेल वह नयी परिस्थिति है जिसने एकदम नये तरीके से 'हम’ और 'वे’ को भी परिभाषित किया है। अब वह 'हम’ परंपरागत ढंग से परिभाषित हिन्दू-समुदाय नहीं है और न 'वे’ कोई विजातीय मुसलमान या ईसाई समुदाय रह गया है। आज वह 'हम’ है कॉरपोरेट पूँजी के प्रशिक्षित दलाल और उनके राजनीतिक संरक्षक और 'वे’ हैं धर्म, पूँजी और राष्ट्रवाद के खल-खेल का रहस्योद्घाटन करने वाले विवेकवादी बुद्धिजीवी, रवीश कुमार जैसा खरा-खरा बोलने वाले पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और मानवाधिकार के पक्ष में आवाज उठाने वाले कार्यकर्ता। घोर अज्ञान और अंधविश्वास पर पली संक्रामक आस्थाओं और नपुंसक श्रद्धा में डूबी जनता 'हम’ है और जनता को उससे बाहर निकालने वाले लोग 'वे’ हैं। यह 'वे’ कभी कम्युनिस्ट, कभी माओवादी हैं, कभी अर्बन नक्सली हैं, कभी माक्र्सवादी विचारक हैं और कभी विरोधी राजनीतिक दल हैं और ये सभी सिरे से देशद्रोही-राष्ट्रद्रोही हैं!! मजे की बात देखिये कि संघ प्रायोजित राष्ट्रवाद और देशप्रेम के फिक़रमंद हजारों करोड़ रुपयों का घोटालेबाजी कर विदेश भाग गये महानुभावों को कभी देशद्रोही-राष्ट्रद्रोही नहीं कहते।

 

                                                            (2)

हमारा तथाकथित राष्ट्रीय दुराग्रह इस तरह से हमारे आलोचनात्मक विवेक पर रोग लगाता है। वह हमें यह सोचने ही नहीं देता कि एक सभ्य भारतीय भारतीयता की सच्ची परिकल्पना भारतीय संगीत, कला, साहित्य आदि ने मुगलों के योगदान की जानकारी के बिना नहीं कर सकता। संगीत के क्षेत्र में ग़ज़ल और ठुमरी ही नहीं, ख्याल की परंपरा भी हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों के अन्तर्घुलन से विकसित हुई है। उत्तर भारत में शास्त्रीय संगीत का इतिहास बताता है कि वह विगत पाँच-सात सौ वर्षों से दोनों धर्मों के अनुयायियों के पारस्परिक सहयोग एवं आदान-प्रदान का परिणाम है जिसे आज तक धार्मिक कट्टरपंथ बाधित नहीं कर पाया। बीजापुर के अब्राहिम आदिलशाह द्वितीय (1580-1620) के दरबार में तक़रीबन तीन सौ हिन्दू गायक थे। इब्राहिम आदिलशाह ने भारतीय गायकी को मुसलमानों में लोकप्रिय बनाने के लिए उर्दू में उन्सठ कविताओं की रचना 'क़िताबे नवरस’ तैयार की जिसका प्रथम छंद सरस्वती-वंदना से शुरु होता है। चैतन्य महाप्रभु एवं वैष्णव संप्रदाय ने मुस्लिम संतों को भी स्वयं से जोड़ा था। आज भी उड़ीसा के लोककंठ में मुस्लिम कवि साल बेग द्वारा भगवान जगन्नाथ की पूजा के स्वर गुंजित होते हैं। रामभक्त तुलसीदास ने न तो बाबर द्वारा अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढगाने की बात लिखी है और न उनकी कृतियों में मुसलमानों के प्रति वैमनस्य भाव ही है। वह अकबर के दरबार के नवरत्नों में एक रहीम के घनिष्ठ मित्र थे जो स्वयं कृष्ण भक्त कवि थे। उन्होंने राम की प्रशंसा में भी कविता लिखी है। रसखान ने तो कृष्ण के प्रति अपनी पूरी भक्ति उडेल दी है। उन्होंने अरबी-फारसी में नहीं ब्रजभाषा में रचना की है। जायसी ने अपनी रचना अवधी में की। उन्होंने यहीं के जन-जीवन और पात्रों को अपनी रचनाओं में प्रतिब्बित किया।

जिसे भारतीय वास्तुकला कहा जाता है उसकी ज्यामितिक आकृति के सौंदर्य को आगरे में जोधाबाई के पहल और एतमाद्दौला की नक्काशी में देखा जा सकता है। यह प्रभाव कहीं अधिक गहराई से राजस्थान और मध्यप्रदेश की हवेलियों, जयपुर-जोधपुर-बीकानेर और जैसलमेर के हिन्दू राजाओं के महलों की बनावट पर है। चित्रकला में रंगों की हिन्दू शैली एवं ईरानी तकनीकी के मेल-जोल को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता जो अपने दर्शकों में संगीत जैसा जादुई प्रभाव उत्पन्न करता है। चित्रकला में मुगल एवं राजपूत शैली का योग कला की पंथनिरपेक्षता का प्रमाण तो है ही, वह इस बात का प्रमाण भी है कि एक दूसरे पहचान को मिटाये अथवा थोपे बिना भी सामाजिक संस्कृतियां परस्पर सहयोग और सहकार से आगे बढ़ती हैं।

सामाजिक संस्कृतियाँ अपनी प्रकृति में ही जन - संवेदी जन-संवादी होती हैं। केल में सबरीमाला के अयप्पा मंदिर जाने के रास्ते में पीर ववर शमा का मक़बरा है जिसका याजक सबरीमाला जाने वाले भक्तों की ललाट पर 'विभूति’ से अलंकरण करता है। भारत का भक्ति और सूफी साहित्य दोनों धर्मों के कठमुल्लावाद के खिलाफ दोनों धर्मों के संतों-भक्तों के प्रतिकार की वाणी है। दोनों ने मिलकर भक्ति और तस्व्वुफ की सामान्य सांस्कृतिक धारा को निर्मित किया तथा भक्ति और प्रेम की इस समन्वित चेतना-भावधारा ने कोटिश: भारतवासियों के हृदय को सींचा। भारतीय भक्ति और सूफीवाद के संयुक्त प्रवाह ने भारत और भारतीयता को मिलकर गढ़ा है। फैज़ ने अपने प्रसिद्ध नज़्म 'लाज़िम है कि हम भी देखेगे’ में बड़े प्रतीकात्मक तरीके से भारतीय सगुण भक्ति और सूफी साधना में ऐकेश्वरवाद के मेल-जोल से निर्मित इसी समन्वित संस्कृति निम्न शब्दों में बाँधा है:

जब अज़-ए-ख़ुदा के क़ाबे से

सब बुत उठवाये जायेंगे...

बस नाम रहेगा अल्लाह का

जो ग़ायब भी है हाज़िर भी

जो नाज़िर भी है मंज़र भी

उट्ठेगा अनलहक का नारा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

और राज करेगी ल्क-एक रव़दा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो।

कहाँ फर्क है इस तथाकथित 'हम’ और 'वे’ के बीच? कला, साहित्य, संगीत और संस्कृति की इसी समावेशी भारतीयता को आज एक खास धार्मित पहचान देने की कोशिश की जा रही है।

भारत में विभिन्न मतावलंबियों के बीच परस्पर सम्मान की परंपरा रही है। भारत में मुसलमानों का शासन स्थापित होने के पूर्व जो मुस्लिम विद्वान भारत आये वे भारत को जीतने नहीं बल्कि सीखने की भावना लेकर आये थे। वे अपने साथ संस्कृत के जो ग्रंथ ले गए उनका उन्होंने अरबी में अनुवाद किया। याकूबी (895 ई.) एक ऐसे ही विद्वान थे जिन्होंने भारत का दार्शनिक उपलब्धियों को स्वीकार किया और उसकी प्रशंसा की है। उन्होंने स्वीकार किया कि भारतीय तारामंडल और नक्षत्रशास्त्र की विद्या में किसी भी विद्वान से अधिक निपुण हैं। ब्रह्म सिद्धांत हिन्दुओं की बौद्धिक प्रतिभा का प्रमाण है जिससे यूनानी एवं फारसी विद्वान भी प्रभावित हुए हैं। अब्दुल काज़ी  नामक अरबी विद्वान ने खुले मन से स्वीकार किया कि हिन्दू बौद्धिक संपदा के सबसे बड़े संरक्षक हैं।

कालान्तर में यह प्रक्रिया अकबर की उदार नीतियों तथा बीजापुर, मैसूर एवं अवध के दूसरे मुस्लिम शासकों के द्वारा और आगे बढ़ी और मजबूत हुई। सूफियों के ऐकेश्वरवाद को कोटिश: जनता ने अपनाया। अकबर ने कुछ महान पंरपराओं को जन्म दिया उन्होंने रामायण, महाभारत और बाइबिल का फारसी में अनुवाद कराया। उसके दरबार में विभिन्न मतावलंबियों के बीच उनकी दार्शनिक मान्यताओं के बीच संवाद स्थापित करने के लिए धर्म-सभाएँ आयोजित हुई। यह सब अशोक के उन प्रयासों का पुनराख्यान था जिसे उन्होंने बिना दूसरे धर्मों के मतावलंबियों को आहत किये अपने वचनों को प्रस्तुत करने की छूट थी। 16 वीं सदी में दक्षिण में अली आदिल शाह ने इसका अनुकरण किया। उन्होंने वामन पंडित को राजकीय पुस्तकालय का संरक्षक नियुक्त किया। इसके बाद इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय को उनकी दयालुतापूर्ण नीति, सभी धर्मों के प्रति सद्इच्छा के परिणामस्वरूप 'गरीबों का मित्र’ एवं 'विश्व शिक्षक’ की उपाधि दी गई। इब्राहिम आदिलशाह स्वयं कवि थे और उन्होंने अपने छंदों में ज्ञान की देवी सरस्वती की वंदना की है।

मध्यकाल के सांस्कृतिक वातावरण में सबसे महत्वपूर्ण काम मुगल राजकुमार दारा शिकोह ने किया। दारा ने उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया। फ्रेंच और लैटिन में उस अनुवाद का पुनर्अनुवाद हुआ जिसके माद्यम से योरोप उपनिषदों की गुणवत्ता से परिचिय हुआ। जर्मन दार्शनिक शॉपेनहावर ने भारतीय ज्ञान-मनीषा से पहला परिचय उपनिषदों के अनुवाद से प्राप्त किया जिसके वे बड़े प्रशंसक थे। निस्संदेह दारा को इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उन्होंने एक बंद समाज के तंग दायरे से ज्ञान के कुछ मोतियों को दुनिया के सामने ला दिया। अमत्र्य सेन ने 'आग्यूमेंटेटिव इंडियन’ में यह नोट किया है कि 'महाभारत’ का पहला बांग्ला अनुवाद 1325 में बंगाल के गौड़ क्षेत्र के शासक नसीर शाह के आदेश पर हुआ। नासिर शाह हुसैन ने भागवत पुराण का बंगला भाषा में अनुवाद किया।

इसी तरह 15 वीं सदी में कश्मीर के मुस्लिम शासक जैनुअल अब्दीन ने अपने पूर्ववत्र्तियों की प्रताड़क नीतियों के कारण प्रदेश छोड़कर भाग गए हिन्दुओं को वापस लौटने की अपील की। वे स्वयं संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे और उन्होंने उपनिषदों के कुछ अंशों का फारसी में अनुवाद भी किया। उन्होंने हिंदू धार्मिक उत्सवों में खुलकर हिस्सा लिया। इस तरह ब्रिटिश आगमन के पूर्व भारत में दोनों धर्मों के मतावलंबियों के बीच जो सहअस्तित्व की मिसाल कायम हुई थी उसे औपनिवेशिक शासकों ने ध्वस्त करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। 1857 की क्रांति में अंग्रेज हिन्दू-मुसलमानों की भावनात्मक एकता का स्वाद चक चुके थे। आज के हिन्दुत्ववादी अंग्रेज़ों की इसी फूटपरस्तता की विरासत के हकदार हैं। वे बहुलवादी भारतीय समाज के निर्माण में गैर हिन्दुओं विशेषकर मुसलमानों की किसी भी रचनात्मक भूमिका को स्वीकार नहीं करते हैं। इस मामले में उनका रवैया वैचारिक आदान-प्रदान के प्रति निषेधात्मक रहा है और उनका स्वपर्याप्तता का दावा भी बहुत प्रबल है। ये आका हिन्दुत्वादी अपने दुराग्रहों के कारण इतिहास और अतीत की खोज नहीं करते उसका आविष्कार करते हैं। अमत्र्य सेन द्वारा पूछा गया प्रश्न महत्वपूर्ण है कि ''यदि भारत का इतिहास मुख्यत: हिन्दुओं का ही इतिहास हो तो भी हमें यह जानने का प्रयास अवश्य करना चाहिए कि एक ही धर्म को अपनाये बिना एक बहुधर्मीय समाज किस प्रकार से एक साझी भारतीय पहचान को अपना सकता है।’’ (भारतीय अर्थतंत्र, इतिहास और संस्कृति, पृ. 312-13, 'द आग्यूमेंटेटिव इंडियन’ के हिन्दी अनुवाद से।) लेकिन तब हिन्दुत्ववादियों की सोच चर्चिल की उस समझ का ही हिस्सा है कि 'भारत वास्तव में उतना ही देश है, जितनी वास्तविकता भूमध्य रेखा की कल्पना में छिपी है,’ कि 'जर्मनों के बाद भारतीय ही विश्व के सबसे पाश्विकतापूर्ण व्यक्ति हैं।’ अब तो एक एनजीओ ने अपने एक नायाब रिपोर्ट में यह खोज निकाला है कि मुसलमानों में आपराधिक प्रवृत्ति अधिक होती है। भारतीय न सही पाशविकतापूर्ण मुस्लिम ही सही। कहाँ फर्क है चर्चिल और हिन्दुत्ववादियों की सोच में? उनके लिए भी भारत उतना ही छोटा है जितना चर्चिल के लिए भारत। इस शानदारल देशप्रेम और राष्ट्रवाद की जितनी प्रशंसा की जाये, कम होगी।

छोटे दिमाग में बड़ी सल्तनत कायम नहीं होती है। मुश्किल यह है कि यहाँ सल्तनत भी छोटी है और उसे बनाने वाले राजमिस्त्री का दिमाग़ भी। रियाया जब इस हकीकत को समझेगी तब उस सल्तनत की नींव भी खोद देगी। हम और आप समय पर ही तो अपने घर में लगे गमलों की फूल-पत्तियों को बढऩे देने के लिए उसकी मिट्टी को खोद देते हैं।

 

 

जयपुर विश्वविद्यालय से पिछले वर्षों में सेवानिवृत्त। आलोचना में खास हैसियत।

संपर्क - मो. 9116671126

 


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