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दिसंबर - 2019

नाट्यपुरुष

राजेन्द्र लहरिया

आख्यान

 

 

 

बूढ़ा क्यू में था!

क्यू 'महामहिमावान’ के सार्वजनिक अभिनंदन करने के लिए लगी हुई थी, जिसमें स्त्री-पुरुष नौजवानों-जवानों से लेकर बूढ़ों तक की मौजूदगी थी। पर उन सबके बीच, क्यू में मौजूद वह बूढ़ा कुछ अलग ही दिखाई दे रहा था! वजह यह कि उसके चेहरे-मोहरे, पहनावे और हाव-भाव में औरों से कुछ अलग होने की फ़ितरत नुमायाँ थी: उसका चेहरा गोरा एवं लंबोतरा था; उसके सिर पर झक्क सफेद लंबे बाल थे; उसकी सफेद तराशी हुई दाढ़ी थी; उसने अपनी दुबली-पतली देह पर ढीली नीले रंग की जीन्स की पैन्ट और लाल रंग का लंबा कुरता पहन रखे थे; उसके पैरों में कोल्हापुरी चप्पलें थीं और उसके दाँये कंधे से एक डिज़ाइनर कढ़ाई वाला झोला टंगा हुआ था!

क्यू में लगने से पहले (चूँकि मुद्दा 'महामहिमावान’ के निकट तक पहुंचने का था, इसलिए) और लोगों की तरह बूढ़े की भी जाँच और तलाशी की गई थी, जिसमें उसके कुरते की बगल वाली दोनों जेबों में से एक, खाली पाई गई थी; दूसरी में एक मोबाइल फ़ोन मिला था और सामने की - छाती वाली जेब में एक पर्स पाया गया था, जिसमें दो हज़ार रुपये का एक मात्र नोट रखा हुआ था; पेन्ट की सभी जेबें खाली मिली थीं और कंधे से लटकते झोल में, काग़ज़ में लिपटी गेंदा के फूलों की एक माला एवं दो किताबें मिली थीं - जिनमें से एक अंग्रेज़ी  भाषा में थी और दूसरी हिन्दी में - अंग्रेज़ी  भाषा की किताब की ज़िल्द पर छपा हुआ था : MOTHER COURAGE AND HER CHILDREN BY Bertolt Brecht; और हिन्दी की किताब के ऊपर लिखा हुआ था: भारतेन्दु हरिश्चंद्र रचित 'अंधेर नगरी’। किताबों को देखने के बाद जाँचकर्ता अधिकारी ने एक उचटती नज़र बूढ़े के चेहरे पर डाली थी: किंचित् पसीने की बूँदों से भरा बूढ़े का चेहरा कुछ ऐसी सौम्यता के सहित था कि जाँचकर्ता अधिकारी ने एक पल को सोचा कि यदि इस बूढ़े को कभी कोई थप्पड़ भी मार दे, तब भी यह कोई प्रतिकार नहीं करेगा। और इसके साथ ही उसने बूढ़े को 'महामहिमावान’ के स्वागतार्थियों की क़तार में लगने के लिए आगे बढ़ा दिया था।

तो अब बूढ़ा 'महामहिमावान’ के अभिनंदन के लिए लगी लंबी क़तार में था। गर्मियों के दिन थे।। मई का महीना। ऊपर से आग की तरह तपा रही चटक धूप थी। लोग पसीने से तर हो रहे थे। फिर भी वे, दूर सामने बने मंच पर तनी चाँदनी के नीचे कूलर-पंखों की ठंडक में मौजूद 'महामहिमावान’ के स्वागत के लिए अपने साथ फूलमालाएँ सम्हाले हुए अपनी बारी के इंतज़ार में क़तारबद्ध थे। क़तार धीरे-धीरे आगे सरक रही थी। धूप से बूढ़े का गोरा चेहरा लाल हो रहा था और उस पर बार-बार पसीने की बूँदें उभर-उभर आ रही थीं जिन्हें वह अपने हाथ में लिये रूमाल से बार-बार पोंछ लेता था। परंतु इसके बावजूद वह शांत एवं दन्तचिन्त्त था

बूढ़ा एक रंगकर्मी था - एक विख्यात नाटककार, मंच-दीपनकर्ता, रंग-संगीतकार और नाट्य-निर्देशक! रंगमंच की दुनिया का एक नामी नाम। पर रंगमंच की दुनिया उजालों की बजाय अँधेरों से ज़्यादा वाबस्ता होती है, इसलिए अपने महान सृजनकर्म के बावजूद उस दुनिया के लोगों के चेहरे प्राय: बेपहचान ही बने रहते हैं। यही बूढ़े के साथ था।

बूढ़ा होलटाइम रंगकर्मी था। यों भी कोई कलाकर्म, पार्ट टाइम जॉब होता ही नहीं; वह तो पूरे वक़्त का ही काम होता है - ट्वेंटी फोर अवर्स जॉब! कोई भी कलाकार जागते-सोते, खाते-नहाते हर वक़्त अपने कलाकर्म से जुड़ा रहता है - सोते वक़्त भी कलाकार अपनी कला के ही सपने देखता है! बूढ़ा भी एसा ही कलाकार था।

उस वक़्त भी, मई महीने की तेज धूप में 'महामहिमावान’ के अभिनंदनार्थ लगी क्यू में खड़ा बूढ़ा रंगमंच के ही साथ था - उसके ज़ेहन में एक के बाद एक दृश्य आकार ले रहे थे :

रंग-मंच के एक चौथाई हिस्से पर हल्का प्रकाश उभरता है; और बाक़ी तीन-चौथाई पर घुप्प अँधेरा रहता है। प्रकाशित हुए हिस्से में रोल किये हुए अख़बार के गिरने की आवाज़ होती है; इसके साथ ही एक व्यक्ति चल कर आता है और पड़े हुए अख़बार को उठा कर उस तरफ़ जाता है जिधर कुर्सी रखी है। व्यक्ति कुर्सी पर बैठता है; और हाथ में लिये हुए अख़बार को खोल कर उसके पहले पेज़ की ख़बरों पर सरसरी निगाह डालने लगता है। अचानक उसकी निगाह एक ख़बर पर टिकती है और उसे वह पढऩे लगता है - ऐसी मुखर आवाज़ के साथ जो दर्शकों को सुनाई देती है- ''देश के लिए गर्व का अवसर! दुनिया के पचास अरबपतियों में पाँच भारतीयों के नाम शामिल है! देश के जिन पाँच अरबपतियों को दुनिया के पचास अरबपतियों में शुमार किया गया है उनके नाम है, (1) छोटाभाई-खोटाभाई चैन, (2) नरेश कुमार-धन्नाभाई लालपानी, (3) भोलादास-घनसुंदरदास बोदी, (4) चरखीमल-गेंडूमल चीतल (5) हीरालाल-पन्नालाल चमचैया! ... वाह! क्या बात है!’’ कह कर वह व्यक्ति नामों को एक बार फिर पढ़ता है, ''छोटाभाई-खोटाभाई चैन; नरेशकुमार-धन्नाभाई लालपानी; भोलादास-घनसुन्दरदास बोदी; चरखीमल-गेंडूमल चीतल; हीरालाल-पन्नालाल चमचैया!’’ उसके बाद व्यक्ति अख़बार को पलटकर अन्य पेजों में ख़बरें खोजता रहता है। और उसके बाद रंगमंच के उस हिस्से का प्रकाश गुम हो जाता है; और रंग-मंच का अब तक अँधेरे में डूबा रहा हिस्सा धुँधले से प्रकाश से उजागर हो उठता है। उस धुँधले-से और धूसर प्रकाश में मंच के कोने की तरफ़ से चलता आता एक आदमी दिखाई देता है, जिसकी चाल ढीली और मरी-मरी सी है, और जिसके चेहरे पर उदासी और माथे पर सलवटें हैं; जिसमें देह पर मटमैला-पुराना-मुचड़ा हुआ-सा पाजामा और वैसी ही कमीज पहने हुए हैं; जिसके सिर पर उड़ गये रंग की मैली साफी बँधी है और जिसके पैरों में बदरंग नीली-पुरानी हवाई चप्पलें पहनी हैं; जिसके एक हाथ में काँच की मैली-चिकटी बोतल है जिसमें थोड़ा-सा तेल है और दूसरे हाथ में काग़ज़ का गोल किया हुआ एक पन्ना है।...

क्यू में लगा बूढ़ा मंच के उस दृश्य को साफ़-साफ़ देख रहा था, जिसकी नाट्य-कथा का लुब्बोलुबाव यह था कि क़स्बे से गांव की ओर आने जाने वाली जंगली पगडंडी पर चलते मंगलिया ने अचानक अपने एक हाथ में ही हुई बोतल और दूसरे हाथ में लिये हुए तस्वीरी पन्ने को देखा; और उसके चेहरे की उदासी कुछ और गहरी हो गई। दरअसल उस वक़्त उसकी आँखों में उसका परिवार आ गया था - घरवाली, बेटी और बेटा - साथ ही उसके ज़ेहन में आ बैठा था एक बाप और पति का आत्म-भय, जो उसे अपने ही घर की तरफ़ जाने से रोक रहा था। बिना अनाज के पहुँचकर वह घरवाली से क्या कहेगा और अपने उन दोनों बच्चों को कैसे संतुष्ट कर पायेगा, जिनके पेट में सवेरे से अन्न का एक दाना तक नहीं पहुंचा है! यह सवाल अब उसकी अंतरात्मा को हलकान और शरीर को जड़ किये दे रहा था। पर वह चल रहा था - विवश-सा!

जब वह अपनी खपरैल के द्वार पर पहुँचा तो पल भर को ठिठका और गोबर से लिपे चबूतरे पर बैठ गया - निढाल-सा होकर। गोया सुस्ता रहा हो। फिर उठा और खपरैल के भीतर घुस गया।

''श्यामा!’’ आँगन में पहुंचकर उसने आवाज़ लगाई।

''आऽऽ ई!’’ कहने के साथ ही छपरे से एक काली-दुबली अधेड़ औरत निकल कर उसके सामने सवाल बन कर आ खड़ी हुई।

''जे लो!’’ मंगलिया ने बोतल और काग़ज़ के पन्ने को उसके सामने रख दिया।

''और...?’’ कहने के साथ घरवाली ने आँखें उठा कर उसके मुँह की ओर देखा।

''और कछु नहीं ऐ!’’ कहते हुए मंगलिया के चेहरे पर हताशा लक्ष्य हो गई, ''सिबके झाँ है आऔ... काऊ नें नहीं सोची कि हमऊँ आदिमी ऐं... त्यौहार ऐ तौ हमऊँ मनावेंगे... और कछू नहीं तो रूखी-सूखी तो खावेंगे ई... काऊ नें सेर भर नाज दैबौ कबूल नहीं करो... जे पाव भर तेल और पूजा की तस्वीर तौ चिंटू सेठ नें दै दई...’’

चिंटू सेठ का नाम सुनते ही आँखों के सामने एक घुप्पेनुमा मोटा आदमी कौंध गया, जो शहर से आने वाली सड़क की बाईं बाजू बसे क़स्बे के बस-स्टैंड पर दुकान खोल बैठा रहता है। कुछ दिनों पहले जिसकी दुकान पर उनकी भैंस का दूध जाता था, जिसकी ऐवज में दुकान से अनाज, नोंन, मिर्च, हल्दी, धनियाँ आदि सामान आता था। पर जब से उनकी भैंस नहीं रही है तब से न तो उसने कुछ उधार दिया है न ही दूध का हिसाब किया है - कहता है, हिसाब बराबर हो गया है!... पर उसने आज यह तेल कैसे दे दिया? श्यामा ने सोचा और मंगलिया से पूछा, ''जि तेल चिंटू सेठ ने दऔ ऐ?... नाज नहीं दऔ?’’

''नहीं...’’ मंगलिया ने घरवाली को बताया, ''जि तेल तौ मजूरी के लाने दओ ऐ... कल काम ऐ बिनके झाँ... घर की साफ-सफाई होइगी...’’

सुन कर श्यामा का अचरज जाता रहा। उसने पति से आगे पूछा, ''और कौन-कौन के झाँ है आये?’’

''सिबके झाँ!... कोऊ नहीं बचौ... अकेले चौधरी कक्का नहीं मिले... बिनके झाँ अब जाइँगो!’’ कह कर उसने चौधरी कक्का के यहां जाने के लिए द्वार की ओर रुख किया। पर चलते-चलते वह ठिठका और मुड़ कर घरवाली से बोला, ''रामू नाँइ दिख रहौ... कहाँ है?’’

जवाब में घरवाली ने कह दिया, ''झंईं खेल रहौ होइगो कहूँ!’’

''और सोना?’’

''बोऊ अबै हाल ई निकरि गई ऐ बाहिर!’’

मंगलिया ने आगे कुछ नहीं पूछा। एक गहरी सांस ली और बाहर को निकल गया।

लेकिन श्यामा को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके कलेजे को चीर दिया हो! अभी थोड़ी ही देर पहले हुई घटना की स्मृति उसके भीतर हाहाकार मचा गई...

...वह छपरे के द्वार की बग़ल में बैठी हुई थी। अधमरे विचार अतीत की जर्जर किताब के पन्ने पलट रहे थे - क़स्बे से लगभग मील भर दूर बसे आठ-दस टपरों के जंगलाती गाँव में कोई भारी परेशानी नहीं थी... मजूरी न मिलती तो भैंस घर का खर्चा निकाल देती थी और नोंन-रोटी में कोई हीला न हो पाता था... पेट भर जाता था! ... पर एक दिन ऐसी बिपदा आई कि अचानक भैंस के मुँह से फसूकर टपकने लगा, फिर गोबर पतला करने लगी; और उसके बाद पसर गई! पसरी तो फिर उठी ही नहीं! और भैंस गई तो उसके साथ ही नोंन-रोटी भी चली गई। उसके बाद सोना ढोबे पर काम करने लगी- कप-प्लेट और बर्तन साफ़ करने का काम! पर एक दिन ढाबे पर खाना खाते वे लोग कैसे घूर-घूर कर देख रहे थे उसकी तरफ! अभागी चौदह की ही उमर में कितनी स्यानी दीखने लगी कि चाय पीने वालों और खाना खाने वालों की निगाहें और कुछ देखती ही नहीं थी उसके शरीर के सिवा! तो हमने उसे नहीं रहने दिया ढाबे पर!... रहने देते तो घर की दाल-रोटी तो चलती रहती!... और अचानक अतीत श्यामा की पकड़ से छूटा और वर्तमान उसके सिर पर किसी प्रेत की तरह आ लदा था... सोना की तरफ़ उसका ध्यान गया था... उसने एक गहरी उसाँस भरी; और फिर उसके भीतर से एक मरी-सी आवाज़ उठने लगी थी, ''जे ऊ कोऊ जिन्दगी ऐ! रोज कुआ खोदों तब पानी पिओ! कल कहूँ मजूरी नहीं मिली, आज त्यौहार के कारन काम बंद ऐं, तो चुल्हों ऊ बंद ऐ आज! त्यौहार! पर हमार काजें काये कौ त्यौहार! त्यौहार तौ बिनके काजें होतएँ जो कोऊ काम नहीं करत और बैठें-बैठें मौज उड़ाउत ऐं!

श्यामा अपनी सोच में डूबी हुई थी, तभी अचानक उसके कानों में एक आवाज़ गूँजी थी, ''अम्माँ भूख लगी कई ऐ!’’ यह उसके बेटे रामदास की आवाज थी, जो उसके सामने आ खड़ा हुआ था।

श्यामा की झक्की-सी खुली थी अचानक। उसने अपने आठ साल के बेटे की ओर देखा और उसे बहलाते हुए कहा था, ''थोड़ी देर में रोटी करेंगे, तहीं खाइ लियो!’’

''नहीं, अबैई खावेंगे... भूख लगी ऐ!’’ बेटे ने कहा था।

''अबै नहीं, जब बापू आ जाइंगे, तब खावेंगे सिब!’’

''नहीं अम्माँ, अबैई खावेंगे... भूख लगि रहीं ऐ!’’

''अबै है नहीं लल्ला!’’ श्यामा ने समझाया था, ''थोड़ी देर में...’’

''है काए नहीं!... भूख तौ अबैई लगी ऐ! हम तौ अबैई खावेंगे!’’

और तभी रामदास की कनपटी पर एक थप्पड़ पड़ा था। इसके साथ ही वह तिलमिला उठा था और उसकी आँखों में आँसू छलछला आये थे। उसने अपनी आँसू भरी आँखों से अपनी माँ की ओर देखा था। उस वक़्त अपनी माँ को देख कर वह भयभीत हो गया; और उसके हलक में अटका हुआ रुलाई का बुक्का फूट पड़ा और वह रोता-बिलबिलाता हुआ ही बाहर की ओर भागा था। खीज से भरी श्यामा उसे रोते हुए बाहर जाता देखती रही थी।

उसके बाद के कुछ पलों तक वहाँ नि:स्तब्धता छाई रही। धीरे-धीरे श्यामा अपने-आप में लौटी। सोना उसकी तरफ़ देखती हुई कह रही थी, ''अम्माँ, तैंने रामू कें ऐसी थापर दई कि... बैसें भूँख तौ लग ई रही होइगी बाइ!... भूँक तौ मोऊ ऐ लगि रही, पर मैंने तौ कहीं नहीं...!’’

लड़की की बात सुन कर श्यामा की जैसे आँखें खुल गई थीं। उसे महसूस हुआ कि भूख तो खुद उसे भी लग रही...! और तब अपने मासूम बेटे का ख़याल कर उसके भीतर जैसे काँटे कंसकने लगे थे; और वह कह रही थी, ''भूँक तो लगि ई रही होइगी... भूँक तो सिबरे लगतै... पिछलारौ हैबे कों आऔ...’’ कहते हुए उसके कंठ के जैसे कुछ अटक गया तो, वह अब टुकड़ों-टुकड़ों में बोल रही थी, ''पर मैं का करौं! घर में तौ एक कबूफा नाज कौ नानें आज! लैकें आवें तब कछू होइ!’’ और उसके साथ ही उसकी आँखें भर आई थीं।

सोना अवाक् टुकुर-टुकुर उसकी ओर देखती रही थी।

थोड़ी देर में श्यामा ने धोती के छोर से आँखें पोंछीं, और सोना से कहा, ''सोना, जा रामू ऐ बुलाइ के ल्या... जानें कहाँ चलौ गओ...’’

सुन कर सोना उठी और द्वार की ओर निकल गई थी।

उसके बाद श्यामा फिर सोच की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में भटकने लगी कि तभी तेल और तस्वीर लेकर आये उसके पति ने उससे रामू के बारे में पूछा, तो उसकी आकुलता ऐसे बढ़ गई जैसे पुरवैया बयार चलने पर पुरानी चोट का दर्द बढ़ जाता है!

सोना ने रामदास को क़स्बे के मौहल्ले में पाया। बहुत-सारे लड़के-बच्चे थे वहाँ। कुछ-एक नये कपड़े पहने, हुए; कुछ पुराने भी। वे खेल रहे थे। पर रामू उसके साथ होते हुए भी उनके साथ न था। वह एक ओर खड़ा उन्हें खेलते हुए देख रहा था - उदासी में डूबा हुआ! उसके चेहरे पर ख़ुशी का नामोनिशान न था; और अपने लिए ख़ुशी रचने के लिए भी उसके पास कुछ न था!

सोना ने उसके पास पहुँच उसका हाथ पकड़ा आरै उसे घर की ओर ले चली। उस समय क्षितिज पर सूर्यास्त की लालिमा भर बची थी...

 

बूढ़ा  दृश्य में आगे देख रहा था कि रंग-मंच पर अब प्रकाश नहीं है; बल्कि एक उजास भर है - वैसा ही उजास, जैसा घनी-अँधेरी-काली रात में भी पाया जाता है। अब उस धुँधले उजास में मंगलिया, श्यामा और उनके दोनों बच्चों के सिर्फ़ चेहरों पर ही ढिबरी की पीली रौशनी-जैसा मद्धम प्रकाश उभरता-बुझता है।

बूढ़े की आँखों में आगे का दृश्य नमूदार था, जिसकी नाट्य-कथा यों थी कि अब धरती और आसमान के बीच हल्का अँधेरा उतर चुका था। उस अँधेरे में रेंगतें-से मंगालिया ने जैसे ही घर के आँगन में पांव रखे तो उसे ख़ाली हाथ देख कर श्यामा के छक्के छूट गये। उसने सूनी निगाहों से पति की ओर देखा।

मंगलिया का चेहरा उस वक़्त अँधेरे के बीच था; फिर भी श्यामा को उसकी खिचड़ी दाढ़ी-मूंछ और झुर्रियों भरे चेहरे पर हवाइयां उड़ती दिख गईं। उसके मुँह से निकला, ''मिले नहीं का, चौधरी कक्का?’’

''मिले काये नहीं...’’ मंगलिया की आवाज़ जैसे कंठ में फँसी हुई बाहर निकलने की कसमसा रही थी, ''मिले, पर बिनने ऊ बुही बात कही जो और सिबन्नें कही!... अब मैं का करों?’’ मंगलिया के बोलने में बेवशी की गहरी कसक मौजूद थी।

श्यामा सन्न रह गई। उसकी समझ में नहीं आया कि वह क्या कहे और क्या करें!

मंगलिया भी कुछ क्षणों तक किंकत्र्तव्यविमूढ़-सा खड़ा रहा। चुप्पी छाई रही।

इसके बाद मंगलिया ने सिर पर बँधी साफी को निकाला और कंधे पर रख लिया, चेहरे पर अपने सूखे-से हाथ फेरे। कुछ देर के लिए वह जैसे किसी गहरी सोच में डूबा रहा। उसके बाद बोल उठा, ''जे का अपने झाँ के काजें कोऊ नई बात ऐ? अपनी तौ तकदीर ई ऐसी ऐ!... पर त्यौहर तौ रोज-रोज ना आउतु! साल में एक बार आउतुए!... और त्यौहार का खाइबे-पीबे ते ई मनतुए?... अरे, त्यौहार की पूजा ऊ तौ होतै... आजा, पूजा करें!’’ पत्नी से कह वह आँगन से झोंपड़ी की तरफ़ चल दिया। उसके पीछे ही उसकी घरवाली भी - बिना कुछ कहे - यंत्रचालित-सी!

''ल्या, बु तस्वीर कहाँ ऐ!’’ झोंपड़ी के भीतर पहुँच कर उसने घरवाली से कहा।

श्यामा ने ला कर तस्वीर उसके हाथ में दे दी।

अमावस का अंधकार घना था, इसलिए मंगलिया को लक्ष्मी की चित्राकृति स्पष्ट दिखाई नहीं दे रही थी। उसने घरवाली से कहा, ''दीया तौ ल्या!’’

श्यामा गई औैर आँगन में से दीये उठा लाई। उसके बाद तेल की चिकटी बोतल और खपरैल की लकडिय़ों के बीच खोंस कर रखी गई थोड़ी-सी रुई भी।

मंगलिया ने लक्ष्मी का चित्र मँडैय़ा की कच्ची दीवाल के सहारे रख लिया। दो दीयों में बोतल में से तेल डाला; रुई की बातियाँ बनाईं और दीयों में डाल दीं। पास ही खड़ी घरवाली से कहा, ''तें ऊ बैठ जा... दीया मिलकाइ लें...!’’

श्याम बैठ गई। मंगलिया ने माचिस की तीली जला कर एक दीया चलाया, श्यामा ने दूसरा दीया जलाया। झोंपड़ी भर में हल्का उजास फैल गया। दोनों ने अपने-अपने दीये को उठाया और लक्ष्मी के चित्र के सामने रख दिया; हाथ जोड़े और मन ही मन अपनी खाली झोली पसार दी...।

उसके बाद दोनों खड़े हुए और आंगन में जाने के लिए झोंपड़ी के द्वार की ओर मुड़े; तो अचानक उन्हें लगा कि मँड़ैया में अभी-अभी जलाये दोनों दीये बुझ गये हैं: मँड़ैया के द्वार में अपना-अपना सूखा-सा मुँह लिये सोना और रामू खड़े थे!...

 

क्यू में लगा बूढ़ा अब देख रहा था: रंग-मंच पर मंगलिया एवं श्यामा; और मँडैय़ा के द्वार में खड़े उनके दोनों बच्चों-सोना और रामू - के मासूम रुखे-सूखे-भूखे चेहरों को पीली रौशनी का वृत्त डाल कर उजागर किया गया है; और उसके साथ ही वाइलिन का मंद्र स्वर उभरता है - ऐसा मंद्र - करुणाई स्वर जो दर्शकों के भीतर रुदन और हाहाकार पैदा करता हुआ कुछ देर तक माहौल पर तारी रहता है। उसके बाद मंच पर मौजूद वह दृश्य और स्वर धीरे-धीरे अँधेरे में विलीन हो जाते हैं।...

 

इस बीच बूढ़े का चेहरा पसीने से तर-बतर हो गया था। उसने रुमाल से चेहरे को पोंछा; और फिर उस मंच की तरफ़ देखा, जिस पर 'महामहिमावान’ का स्वागत हो रहा था। बूढ़े के आगे लगे लोगों की क़तार अभी बहुत लंबी थी।

तो बूढ़ा फिर अपने रंग-मंच का हो लिया:

 

रंग-मंच का एक-तिहाई भाग लाल रौशनी से उजागर होता है - ठीक रक्त की तरह के लाल रंग की रौशनी से। उसके बाद पाश्र्व से निकल कर एक आदमी उस लाल रौशनी में दाख़िल होता है, जिसका हुलिया कपड़ों-लत्तों और शक्ल-सूरत से फटेहाली और बदहाली का है। ख़ास बात यह है कि उसने अपने दाँये कंधे पर कुछ उठाया हुआ है- कुछ ऐसा जो उसके कंधे के आगे की तरफ़ और पीछे की तरफ़ भी लंबाई में तना हुआ-सा एक मैले कपड़े में लिपटा हुआ है; और जिसके वज़न के कारण उस आदमी की टाँगें डगमगाती-सी चाल से। तभी नेपथ्य से सूत्रधार की आवाज़ सुनाई देती है, ''यह है... आपकी ही दुनिया का एक आदमी! आपके ही जैसा एक इंसान! ...पर इसकी मुसीबत यह है कि इसने अपने जन्म से लेकर अब तक लगातार ग़रीबी की मार झेली है... ग़रीबी भी ऐसी क्रूर कि उसको इस पर कभी क्षण भर को भी दया नहीं आई; और उसी के कारण इसकी घरवाली एक दिन बीमार पड़ गयी! ऐसी बीमार कि उसका इलाज कराना ज़रूरी हो गया! तो इस आदमी ने उसका इलाज पहले तो गाँव के ही एक 'झोलाछाप डॉक्टर’ से कराया। पर उस 'झोलाछाप’ के इलाज से वह कई दिनों तक ठीक नहीं हुई, तो यह उसे ज़िला-शहर के सरकारी अस्पताल में लाया। वहाँ इसकी घरवाली का इलाज चलता रहा; पर उसके बावजूद एक दिन ऐसा आया, इसकी घरवाली अस्पताल के बिस्तर पर ही चल बसी। इस आदमी ने अपनी घरवाली को अपनी आँखों के सामने प्राण त्यागते देखा - इस आदमी ने अस्पातल के बिस्तर पर अपनी घरवाली की अचानक खुली रह गई आँखों को देखा, तो इसने ड्यूटी पर मौजूद डॉक्टर को बताया। डॉक्टर ने आकर इसकी घरवाली की नब्ज पकड़ी, जाँच-पड़ताल की; उसके बाद इस आदमी की तरफ़ देखते हुए निहायत मशीनी ढंग से कहा, 'तुम्हारी घरवाली नहीं रही।’ डॉक्टर की बात सुनकर यह आदमी जैसे सकते में आ गया था। इसने ऐसा तो कभी नहीं सोचा था कि इसके कंधे से कंधा जोड़कर मेहनत-मजूरी करने वाली इसकी घरवाली यों अचानक इसे छोड़ कर चली जावेगी!... इसने घरवाली की खुली हुई आँखों पर हथेली फेर कर बंद किया था। उसके बाद यह कुछ देर तक किंकत्र्तव्यविमूढ़-सा बना रहा। फिर उसे चेत आया कि अब इसको अपनी घरवाली की मिट्टी को गाँव ले जाना है! पर मुश्किल यह थी कि इसकी जेब ख़ाली थी- उसमें एक पैसा भी न था! इसी बीच अस्पताल-कर्मियों ने आकर इसकी घरवाली के शव को बेड से उतार कर बेड खाली कर दिया।... उसके बाद इस आदमी ने अपनी समस्या अस्पताल के डॉक्टर को बताई। उसने इसे एक अन्य डॉक्टर के पास भेज दिया। इसने उस डॉक्टर के पास जाकर गुहार लगाई कि इसकी घरवाली की मिट्टी को किसी तरह इसके गाँव तक पहुँचाने का इंतजाम हो जाये तो बड़ी मेहरबानी होगी; क्योंकि इसके पास उसे गाँव तक ले जाने के लिए पैसा नहीं है!.... उसके बाद इस आदमी को अस्पताल में इधर से उधर, उधर से इधर भटकाते रहा गया; और आख़िर में कहा गया कि अस्पताल के पास 'शव वाहन उपलब्ध नहीं है!...’ तो मजबूरन यह आदमी अपनी घरवाली के शव को अपने गाँव तक ले जाने के लिए खुद ही 'शव वाहन’ बन गया... इसके दाँये कंधे के ऊपर मैले-से कपड़े में लिपटा हुआ जो कुछ आप देख रहे हैं, वह अस्पताल में मर गई इसकी घरवाली की मुर्दा देह है! और यह आदमी उसे अपने गाँव अपने घर ले जाने के लिए अपने कंधे पर ढो रहा है।’’

रंग-मंच की लाल रौशनी में, अपने कंधे पर कपड़े में लिपटी अपनी घरवाली की अब तक जकड़ कर सख्त हो चुकी मृत देह को लिये वह आदमी बदस्तूर अपनी डगमग चाल से आगे बढ़ रहा है...

तभी रंग-मंच का वह दो-तिहाई हिस्सा जो अब तक अँधेरे में गुम था, यकायक दूधिया रौशनी से नहा उठता है। इसके साथ ही उस उज्जवल रौशनी में कारों का एक काफिला नमूदार होता है - ऐसा काफ़िला, जिसके आगे चलती हुई कार के हूटर की कर्कश आवाज़ से मंच की फ़ज़ा भर उठती है। और नेपथ्य से सूत्रधार की आवाज़ गूँजती है, ''ये हैं सूबे के माननीय... मंत्री जी, जो एक मजलिस को संबोधित करने अपने अमला फैला और सुरक्षा-बंदोबस्त की कारों के साथ निकले हैं!...’’

रंग-मंच पर लाल रौशनी में अपनी पत्नी का शव कंधे पर ढोते आदमी का दृश्य; एवं दूधिया रौशनी में... मंत्री जी के कार-काफिले का दृश्य एक साथ दिखाई देते हैं!

बूढ़े के ज़ेहन में आइडिया है कि रंग-मंच पर चलती कारों के रूप में गत्ते से बने कार-मॉडलों को ओढ़े रंग-कलाकार चल रहे हैं; और हूटर आदि की आवाज़ों को नेपथ्य से प्ले किया जा रहा है...

 

बूढ़े ने एक बार फिर रूमाल से चेहरे का पसीना पोंछा; और फिर 'महामहिमावान’ के अभिनंदन मंच की ओर देखा। वह अब तक क्यू में मंच से इतनी दूर (दरअसल इतने पास) पहुँच चुका था कि अब उसे 'महामहिमावान’ की शक्ल का आभास होने लगा था - ख़ास कर 'महामहिमावान’ के सिर के सफेद बाल, उसकी निगाह की जद में आसानी से स्पष्ट हो रहे थे - उन सफेद बालों के ऊपर से गुज़रती हुई स्वागतार्थियों की फूलमालाएँ 'महामहिमावान’ के गले तक पहुँच रही थीं...

और अचानक बूढ़ा एक स्मृति के घटाटोप से घिर गया। उसकी स्मृति-चेतना में सफेद बालों वाले उस आदमी का किरदार आकार लेने लगा, जिसके बारे में उसे रणजीत ने बताया था...

...रणजीत से बूढ़े की मुलाकात कुछ साल पहले हुई थी... उस दिन उसने 'अंधेर नगरी’ मंच पर उतारा था। सभागार खचाखच भरा था... उस मंचन में सभागार अनेक बार तालियों से गूंजा था। नाटक की समाप्ति के बाद, एक व्यक्ति उससे आ कर मिला था। उस व्यक्ति के बात करने में ही नहीं, हाव-भाव में भी नाटक-प्रस्तुति की तारीफ़ थी। उसने अपना नाम रणजीत बताया था, और उससे घर पर मिलने की इच्छा जाहिर की थी। उस व्यक्ति की आँखों में एक बेलौस सच्चाई दिखाई दे रही थी; इसलिए उसे मिलने के लिए अगले हफ्ते का दिन-समय दे दिया था।

और नियत दिन ठीक समय पर रणजीत उसके घर आ गया था। बैठते ही उसने बिना लाग-लपेट कहना शुरू कर दिया था, ''सर, आप एक नाटककार हैं, रंगकर्मी हैं... आपका 'अंधेर नगरी’ देखने के बाद मुझे लगा था कि आपको अपनी कहानी बताई जानी चाहिए... दरअसल कहानी नहीं, अपनी बीती!... क्या आप सुनने के लिए थोड़ा समय निकालना चाहेंगे?’’

''ज़रूर!...ज़रूर!...’’

सुन कर एक आश्वस्ति रणजीत के चेहरे पर झलकी थी; और वह बोला था, ''सर मैं एक ऐसा आदमी हूं, जो बहुत आसानी से ख़ुश नहीं होता हूँ और बहुत आसानी से किसी से नफ़रत भी नहीं कर पाता हूँ... आज मैं आपको जो आपबीती सुनाने का जा रहा हूँ, उसमें ऐसा हुआ था कि शायद मेरी नफ़रत ने ही मेरी ख़ुशी को चमकदार बना दिया था...’’

''ओह!...’’

''जी सर,’’ वह कह रहा था, ''वह शायद मेरी ज़िंदगी का सबसे चमकदार ख़ुशी भरा दिन था...

''प्रौफेसर पाणिग्रही मुझे तक़रीबन पंद्रह साल बाद मिले थे। उसके बाद पहली ही बार, जब वे यूनिवर्सिटी में राजनीतिशास्त्र पढ़ाते हुए वहीं रह गये थे; और मैं वहाँ से पढ़ कर दुनिया के अँधेरों-उजालों में भटकने के लिए निकल पड़ा था। मैंने इन पंद्रह-सोलह सालों में अपनी दुनिया को खँगाल डालने में कोई कसर न छोड़ी थी। इस काम के दौरान न जाने कितनी भूलभुलैयों से लेकर गुज़रना पड़ा था मुझे... पर मैं उन्हें नहीं भूला था।

''वे राजनीति के शास्त्र और विचार की दुनिया के आला शख्सियत माने जाते थे। उनकी कही हुई बात बुद्धिजीवियों के हलके में 'वेदवाक्य’ की तरह मान्य और स्वीकार्य मानी जाती थी। उनकी लिखी हुई किताबें राजनीतिशास्त्र के 'बाइबिल’ की तरह पढ़ी जाती थीं। वे देश के एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रौफेसर थे, जिनके 'कृपा-कटाक्ष’ के लिये राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थी तरसते रहते थे। यह उनकी भारी-भरकम और गरिमामयी पृष्ठभूमि थी।

''और मेरी पृष्ठभूमि महज़ इतनी थी कि मैं एक केंद्रीय मंत्री का बेटा था; और उनका विद्यार्थी!’’

''वे उस समय मेरी इस पारिवारिक पीठ से परिचित थे, और क्लास से बाहर आते-जाते जब भी सामना होता था तब मुझसे हाल-चाल पूछ लेते थे और कभी कभार घर पर आने के लिए भी कहते थे, इसलिए मैं एक-दो बार उनके घर भी जा चुका था। घर पर वे ख़ालिस, अनौपचारिक और मुक्त होते थे; खुलकर बातें करते थे। जो कि राजनीति के विचारक वे वहां भी होते थे।

''मेरी रुचि राजनीति के अध्ययन में थी; पर राजनीति करने में कतई न थी। मैं जब भी उनके यहां गया तब खुल कर बातें होती थीं - यहाँ तक कि कई बार बातें बहसज़दा - जैसी भी हो जाती थीं... एक दिन बातचीत के दौरान उन्होंने कहा, 'कुल मिलाकर यह कि फ़िलहाल लोकतंत्र से बेहतर राजनैतिक व्यवस्था दुनिया के सामने कोई और नहीं है...’

''पर मुझे लगता है सर,’ मैंने उनकी बात के बीच में ही अपनी बात रख दी, 'लोकतंत्र एक ढोंग भरी राजनैतिक व्यवस्था है!’

''तुम किस परिप्रेक्ष्य में यह बात कह रहे हो?’’ उन्होंने मेरी ओर देखा।

''परिप्रेक्ष्य अनगिनत हैं... मिसाल के तौर पर मैं कुछ छोटी-मोटी बातों आपके सामने रखता हूँ...’’

''वे गौर से मेरे चेहरे पर देख रहे थे। नि:शब्द।’’

''मैंने उनके कहा, 'जैसे कि मैं एक सांसद का बेटा हूँ, तो यह बिल्कुल संभव है कि कल को मैं भी भारतीय संसद का सदस्य बन जाऊँ - वो भी बिना कुछ किये-धरे, आसानी से! पर क्या ऐसी इस देश के हर एक नागरिक के साथ संभव हो सकता है?.... क्या किसी छोटे किसान मन्नू का बेटा पन्न्नू या दिहाड़ी मजदूर हलके का बेटा नेहने... या किसी घसीटा का बेटा खचेरा इस लोकतंत्र में महज़ इस बिनाह पर सांसद बनने की सामथ्र्य रखता है कि वह भी इस देश का नागरिक है? नहीं ना?.... मैं बन सकता हूँ, क्योंकि मेरा बाप सांसद है, मंत्री है; वे नहीं बन सकते, क्योंकि उनके बाप...। जबकि मैं और वे इसी एक ही राष्ट्र के नागरिक हैं! ...तो फिर यह लोकतंत्र नाम की व्यवस्था एक नौटंकी ही हुई ना!’’

''मेरी बात पूरी होने पर प्रौफेसर पाणिग्रही ने मुझे नाम से संबोधित कर कहा, 'देखो रणजीत, बात इतनी सतही नहीं है...!’’

''पर मेरा स्पष्ट मत है सर, लोकतंत्र में हर एक नागरिक को एक समान दर्जा हासिल नहीं होता... कुछ लोग बहुत नीचे रह जाते हैं, कुछ बहुत ऊपर उठ जाते हैं!’’

''नऽ! नऽ!... ऐसी बात नहीं है!’’ वे सिर हिलाकर आँखें बंद किये हुए मेरी बात को नकार रहे थे।

'' 'उस परिप्रेक्ष्य को जीने दीजिए सर,’ मैंने उनकी मुंडी हिलाती नकार के जवाब में कहा था, 'मैं आपसे ही पूछता हूं, कि आप, आप खुद अपने सामने बैठे मुझमें और गली में कचरा-कबाड़ बटोरते झींगुरी कबाडिय़े में कोई फ़र्क करते हैं या नहीं?’

''बिल्कुल नहीं!’’ उन्होंने तुरंत कहा था।

''उसके बाद मैंने कुछ नहीं कहा था। बस, कुछ देर तक उनके उस चेहरे को देखता रहा था जिसकी भंगिमाओं के द्वारा वे अपने कहे 'बिल्कुल नहीं!’ को धाराप्रवाह साबित करने में लगे थे। ... कुछ देर बाद मैं वहां से उठकर चला आया था।

''...तो सर, यही प्रौफेसर पाणिग्रही जब मुझे लगभग पंद्रह सालों के बाद मिले थे, तब...! वह बात आगे!... अभी मैं आपको अपने पिता के बारे में बताता हूँ... मेरे पिता का नाम अखिलजीत बाबू है। राजनीति के हलकों में उन्हें 'अखिलबाबू’ नाम से पुकारा-पहचाना जाता है। उनकी उम्र अब इकहत्तर-बहत्तर के आसपास है। मुझे नहीं पता कि वे बचपन में कैसे लगते थे; और नहीं याद कि जवानी के दिनों में कैसे दिखते थे.... पर जब से मैंने होश सम्हाला है, उन्हें शक्क-सफेद, कलफ़-इस्त्रीशुदा धोती-कुरते या पाजामे-कुरते के लिबास में श्वेतकेशी गरिमा के साथ चेहरे पर हमेशा एक अपाठ्य गंभीरता लिये देखा है। शायद चालीस के आसपास ही उनके सिर के पूरे बाल सफेद हो गये होंगे। चूँकि मेरी उम्र भी अड़तीस हो गई है!... बहरहाल अपने पिता से बावस्ता, अपने बचपन और उनके बाद की कुछ यादें मेरे ज़ेहन में बार-बार झलमलाती है... मेरे दस-ग्यारह साल का होने के बाद; पिता, जिन्हें मैं 'बाबूजी’ कहता था, मुझे अपनी निकटता में और अपने साथ रखना पसंद करने लगे थे। स्कूल जाने, होमवर्क करने, खाने, सोने आदि के अलावा बचे समय में मैं उनके ही पास रहा करूँ- ऐसी हिदायत वे मुझे अक्सर देते थे। मैं उनकी उस हिदायत का पालन करने की कोशिश करता था और बचे समय में प्राय: उनके साथ बैठकख़ाने में ही गुजारता था। वे जब घर से बाहर जाते थे तो फ्री होने पर मुझे भी जीप में अपनी बग़ल की सीट पर बैठाकर ले जाते थे। तब मैं सोचता था उनका इकलौता बेटा होने के कारण वे मुझे बहुत चाहते थे, इसीलिए हमेशा अपने साथ रखना पसंद करते थे। यह तो बाद में समझ में आया था कि बात वैसी नहीं थी जैसी मैं सोचता था। बात दरअसल यह थी कि वे मुझे हमेशा अपने साथ रखकर, व्यावहारिक रूप से, राजनीति सिखा देना चाहते थे ताकि भविष्य में मैं इस क्षेत्र का मँजा हुआ खिलाड़ी साबित हो सकूँ!... वे उस वक़्त सांसद नहीं थे। अलबत्ता राजनीति में थे; और लोगों के बीच ख़ासा रुतबा रखते थे। घर पर प्राय: लोगों की आवाजाही बनी रहती थी। कुछ लोग उनके पास आकर उनसे हाथ मिलाते थे, कुछ उनके पैर छूते थे; कुछ उनके पास बैठते थे, कुछ खड़े रहते थे; कुछ हँसते-खिलते होते थे, कुछ परेशान से दिखाई देते थे और उनके सामने तरह-तरह से विनतियाँ-चिरौरियां करते हुए गिड़गिड़ाते, हाथ जोड़ते, पैरों पड़ते थे! ...ऐसे लोगों पर मुझको दया आती थी। पर मैं बिल्कुल नहीं समझ पाया था कि उनकी समस्या क्या है!

''बाद में मेरे पिता विधानसभा-सदस्य चुने गये थे। उस समय मैं ग्यारवीं कक्षा में पढ़ता था। विधायक चुने जाने के दिनों में घर पर जश्न-जैसा माहौल रहा था। कई दिनों तक। लोग आते थे, जाते थे; मिठाइयाँ लाते थे, पिता को फूलों के गुलदस्ते देते थे, हँसते थे, ठहाके लगाते थे। पिता भी कभीकभार लोगों के ठहाकों में शामिल हो जाते थे। मैं चुपचाप यह सब देखता था।...

''उसके बाद पिता अपना ज़्यादातर समय राजधानी में बिताते थे। वहाँ से जब घर आते तो लोगों से घिरे रहते। पर तब भी वे मुझे अपने साथ ही रखते।

''तो उन दिनों वे राजधानी से घर आये हुए थे। मैं उनके साथ ही था। रात के नौ-साढ़े नौ बजे का समय रहा होगा। वे बैठकख़ाने में अपने सोफे पर बैठे थे। साथ में एक-दो लोग और थे।... तभी बाहर किसी गाड़ी की आवाज़ हुई और घर्राहट रुकी, तो पांच-छह लोग बैठकखाने के भीतर आये, जिनमें से एक ने पिता के पैरों को छूने के बाद साथ में लाये गये एक लड़के की तरफ़ इशारा कर धीरे-से कहा, 'यही है!’

''सुन कर पिता ने नितांत ठंडी निगाहों से उस लड़के की ओर देखा, जो तक़रीबन मेरी ही उम्र का था और मामूली से पैंट-शर्ट पहने था। बाक़ी लोग उस लड़के को जैसे घेरे खडे थे। मैं मामला समझ नहीं पा रहा था। कमरे में रोशनी मध्यम ही थी, इसलिए मैं लड़के के चेहरे को ठीक से पढ़ नहीं पा रहा था। इसके बावजूद मैं इतना देख समझ पा रहा था कि लड़का डरा-सहमा हुआ हल्के-हल्के कांप रहा था। मैंने उसकी तरफ़ देखते अपने पिता के चेहरे को देखा जो उस समय मुझे अपरिचित जैसा लग रहा था। मैंने लड़के के साथ आये हुए लोगों को देखा जो मुझे उस समय बैठक खाने में मौजूद रहस्यमय और खौफ़नाक पुतलों जैसे लग रहे थे!... और तभी मेरे वे पिता, जिन्हें मैं प्राय: एक अजीब तरह की गंभीरता से लिपटा हुआ देखता आया था, सोफ़े से उठे और उत्तेजना से लडख़ड़ाते हुए से एक कोने की तरफ़ बढ़े और तुरंत वहाँ से बेंत की एक छड़ी लेकर लौटे। उसके बाद उन्होंने उस लड़के की गर्दन को अपने बाँये पंजे से जकड़ लिया और वे उसकी टाँगों, बग़लों, बाहों और पीठ पर छड़ी फटकारने लगे। छड़ी का पहला वार होते ही लड़का ज़ोर से चीख़ा था और फिर मैंने देखा कि उसकी पैंट का सामने वाला हिस्सा भींग गया था। पिता उसे लगातार छड़ी से पीटे जा रहे थे और वह चीखें मारता हुआ रोये और कराहे जा रहा था!...उसके बाद पिता छड़ी को कोने की ओर फेंक कर बदहवासी की-सी हालत में अपने सौफे पर ठीक मेरी बग़ल में आकर बैठ गये थे। और लड़के को लेकर आये लोग, उसे पकड़कर वापस बाहर की ओर ले गये थे।

''मैं उस समय हक्का-बक्का था। मैं वहाँ वह सब होता हुआ देखता भर रहा था। उसके अलावा मैं कुछ कर भी नहीं सकता था!... आज मैं अनुमान लगा सकता हूँ कि वह सब कुछ होते हुए देखते हुए मेरा चेहरा सफ़ेद फ़क हो गया होगा, मेरी आँखों में डर भर गया होगा; और मेरी अंतरात्मा में हज़ारों की तादाद में पैनी-नुकीली हिंसक किलें चुभती रही होंगीं!.... मैं उस दिन भी, अपनी आँखों के सामने घटित हुई उसे रोंये कँपा देने वाली अमानवीय 'घटना’ का अर्थ नहीं समझा था और बरसों के बाद आज तक भी नहीं समझ पाया हूँ!... पर उस दिन यह हुआ कि उस 'घटना’ के बाद मुझे अपने पिता के चेहरे में हमेशा एक और चेहरा मौजूद नज़र आता था!...

''...बाद में मैं पढ़ाई की ठंडी और अंधेरी दुनिया में खोया हुआ धीरे-धीरे बड़ा होता रहा था... मेरे सामने एक दुनिया, बनती और मिटती रही थी; और मेरा एक मिज़ाज बनता रहा था...

''इसी तरह कुछ और समय गुज़र गया। और मेरे पिता लोकसभा का इलैक्शन जीत कर संसद सदस्य बन गये थे।

''उसके बाद का समय मेरे तईं टुकड़े-टुकड़े होकर मौजूद रहा; और उस समय के वे नुकीले टुकड़े मेरे ज़ेहन में इतने गहरे चुभे हुए हैं कि तमामा कोशिशों मशक्कत के बाद भी बाहर निकलने का नाम नहीं लेते!... उन्हीं में से एक टुकड़ा वह है... उस दिन पिता वैष्णोमाता के दर्शन के लिए निकले थे, कार से। संग में मैं था, माँ थी, बड़ी दीदी थी। सरकार के दिये हुए ड्राइवर और गार्ड तो थे ही। सांसद बनने पर पिता बहुत व्यस्त रहने लगे थे। पर वे धार्मिक आयोजनों और स्थानों पर जाने के लिए समय निकाल ही लेते थे। वैष्णो देवी की यात्रा भी उसी निकाले हुए समय के बीच हो रही थी। जाने के पूर्व पिता ने पंडित बुलवा कर मुहूर्त निकलवाया था और उसके अनुसार सायंकाल छह बजकर पैंतीस मिनट पर उन्होंने रवानगी डाली थी। कार तीन-चार घंटे दौड़ चुकी थी। अब आसपास अँधेरी-स्याह रात थी; और सामने हाइवे की सड़क, जिस पर दौड़ती एयरकंडीशंड कार में सन्नाटे के बीच कभी कभार हममें से किसी के बोलने-बतियाने की कोई आवाज़!... तभी एक झटके के साथ कार को रोकता हुआ ड्राइवर हकलाया था, 'सर, कोई सामने आ गया लगता है...’

''सुन कर पिता हैरत से भर गये थे,’ उनकी आवाज में झुंझलाहट थी।

'' 'जी सर,’ कह कर ड्राइवर ने कार का पल्ला खोला। गार्ड ने मुस्तैदी से गन सम्हालते हुए अपनी तरफ़ का पल्ला खोला। और दोनों कार के बाहर निकले। पिता सहित हम सब कार के भीतर ही बैठे रहे। कुछ ही पलों में ड्राइवर ने कार के भीतर मुँह डाल कर कहा, 'सर, एक आदमी है... न जाने कैसे इतनी स्पीड में सामने आ गया... कोई मजदूर लगता है... कट-फट गया है... पड़ा है... खूनखच्चर हो गया है... सॉरी सर!...’’ ड्राइवर ने बताते हुए अफ़सोस ज़ाहिर किया।

'' 'क्या सॉरी सर?’ पिता ने ड्राइवर को झिड़का, 'उसे तुरंत हटाओ सामने से... सड़क-किनारे एक तरफ फेंको!... और आगे बढ़ो!’’

''सुन कर ड्राइवर ने कहा, 'कराह रहा है सर... मरा नहीं है... साँस चल रही है अभी!’’

'' 'तुम बोलते बहुत हो!’ पिता की आवाज़ में कड़कड़ाहट थी, 'जो कह रहा हूँ, करो और आगे बढ़ो!... समझे कि नहीं!’

ड्राइवर ने 'जी सर’ कहा, और गार्ड के साथ मिलकर वही किया, जो मेरे पिता ने उससे कहा था।

''और फिर कार आगे दौडऩे लगी थी...’’

''नहीं निकलता समय का वह दु:खदाई टुकड़ा मेरे ज़ेहन के भीतर से कभी!... समय का वह टुकड़ा शब्दश: बजता है हमेशा मेरे कोनों में, और आँखों में बनाता है एक दृश्य कि मैं अपने सांसद बाप के साथ उस सरकारी कार में बैठा हूँ जिसके नीचे आ गया है एक आदमी... 'कट-फट गया है’... 'पड़ा है’... 'मजदूर लगता है’ ... 'कराह रहा है’ ... 'मरा नहीं है’ ...'सांस चल रही है अभी’ ...'खूनखच्चर हो गया है’ ...फिर भी एक सरकारी कार दौड़ी जा रही है नेशनल हाईवे पर - एक धार्मिक यात्रा के लिए!...’’

यह बताने के बाद रणजीत कुछ पलों तक चुप रहा। उस वक्त उसके चेहरे पर बेचैनी की रेखाएँ खिंची हुई थीं। उसके बाद वह फिर अपनी बीती पर आ गया, ''सर, पिता ने मेरा दाख़िला एक केंद्रीय यूनीवर्सिटी में कराया था - राजनीति पढऩे के लिए - इसलिए कि मैं आगे चलकर एक वेल ऐजूकेटेड राजनीतिक बनूँ और उनकी विरासत को आगे बढ़ाऊँ!... और मैं, राजनीति पढ़ रहा था - राजनीतिक बनने के लिए नहीं, बल्कि राजनीतिशास्त्रियों के विचारों से दो-चार होने के लिए! मैं मानता हूँ कि वह अध्ययन-काल मेरे जीवन का सबसे कीमती समय था; क्योंकि उसमें सब कुछ खुला था- खुलकर बातें करने के अवसर, खुलकर बहसें करने की छूटें और खुल कर निष्कर्ष निकालने की ज़हनियत...! और इसलिए भी कि उसी अध्ययन-काल ने मुझे अपने इस निष्कर्ष तक पहुंचने की सलाहियत दी थी कि 'राजनैतिक सिद्धांत’ और 'राजनैतिक जीवन’ दो बिल्कुल भिन्न चीजें होती हैं!

''और बहरहाल, अपना अध्ययन पूरा कर लेने के बाद मैं अपनी दुनिया या कहूँ अपनी मनचाही दुनिया के बीच आ गया था... मेरी दुनिया अब समाज के उन तबकों और लोगों के बीच थी जो हमेशा हाशिए पर ही रखे जाते रहे हैं और राजनीति के लिए महज़ वोट-संसाधन से अधिक कोई अहमियत नहीं रखते रहे हैं! मैं एक योजना के साथ कायदे से उनके बीच जाता और उनकी जीवन-शैली, उनके विचार, उनकी आकांक्षाओं, उनके सपनों और उनकी समस्याओं का अध्ययन कर उन्हें दर्ज करता... मेरा वह अध्ययन मेरी निधि है, मेरी पूँजी है, जो मेरे लिए मेरी एकेडिमिक अध्ययन के बाद मिली डिग्री से ज़्यादा महत्व रखती है!

''पर मेरे उस तरह से, अपनी दुनिया में चले जाने से मेरे पिता को निराशा हुई थी और खिन्नता भी।’’

''इस दरमियान मैं तक़रीबन कई वर्षों तक गांवों में रहा - किसानों और खेत मज़दूरों के बीच। दो साल मैंने बंजारों, बेडिय़ों, लोहपीटों - जैसे जनसमुदायों के बीच बिताये एक साल क़स्बों में चलने वाले छोटे-छोटे कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों, महिला-मज़दूरों और बाल-मज़दूरों की जीवन-स्थितियों को समझने में बिताया। उसके बाद, मैंने शहरों में तरह-तरह के पेशे करने वालों का अध्ययन किया... जैसे कि फेरी वाले, रेहड़ी वाले, खोमचे वाले, ताँगे वाले, ऑटोरिक्शा वाले... और मैं उन लोगों के बीच कभी जींस का पैंट और खाली कुरता पहन कर नहीं गया... उनके ही जैसी साधारण वेशभूषा के साथ उनके पास बैठता-उठता, उनके काम में हाथ बँटाता, उनके हमपेशा-जैसा बन कर रहा उनके बीच!...तो उसी सिलसिले में उन दिनों मैं ऑटोरिक्शा वालों के बीच था... तभी एक दिन वह वाक़या हुआ, जिसने मेरे भीतर नफ़रत की बजबजाहट और साथ ही एक चमकदार ख़ुशी पैदा की थी... यह बिल्कुल भी इत्तिफ़ाक नहीं था कि प्रौफेसर पाणिग्रही उस दिन वहाँ थे! मैंने उन्हें देखते ही पहचान लिया था - बावजूद इसके कि उनका चेहरा कुछ बदला-बदला सा था! बेशक वे तब भी अपने पैंट-कुरते वाले लिबास में ही थे; उनका चेहरा भी पहले की ही तरह क्लीनशेव्ड था - बेशक कुछ ढीला और लटका हुआ नज़र आ रहा था। हाँ, उनके सिर के बालों की सूरत पहले जैसी न थी। वे तब रिटायर्ड हो चुके होंगे; क्योंकि वैसा उनकी उपस्थिति साबित कर रही थी: यह पहली बार था कि उन्हें मैंने आम रोड पर उनकी कार के बिना पैदल देखा था!... पर बहरहाल, मैंने उन्हें पहचान लिया था। हालांकि वे मुझसे तक़रीबन पच्चीस तीस फीट की दूरी पर थे; और मुझे लगा था कि वे मेरी ही तरफ़ देख रहे थे। मैं थोड़ा-सा उनकी तरफ़ बढ़ा, और मैंने अपना दायाँ हाथ अपने सीने की तरफ़ ले जा कर उन्हें वहीं से 'नमस्ते सर!’ कहा, जिसे संभवत: उन्होंने सुना नहीं था; बेशक वे देख मेरी ही तरफ़ रहे थे। मेरे भीतर उस वक़्त उनके लिए पूर्व परिचय के कारण अपनापा और सम्मान पैदा हो रहा था जिसे मैं यह कह कर प्रकट करना चाह रहा था कि 'कैसे हैं सर?’... परंतु इससे पहले कि वे शब्द मेरे मुंह से निकल पाते, उन्होंने मुझसे कहा था, 'शकुंतलापुरी चलोगे?’ उनके वे शब्द मेरे लिए अप्रत्याशित थे। एक बारगी तो मैं कुछ समझ ही न पाया कि उनका आशय क्या है! फिर मुझे एक झटका-सा लगा था - दरअसल मेरे दिमाग की बत्ती जल उठी थी कि प्रोफेसर पाणिग्रही ने मुझे पहचाना ही नहीं था और वे मुझे एक ऑटोरिक्शा-ड्राइवर समझ रहे थे; क्योंकि मैं उस वक़्त ऑटोरिक्शा-ड्राइवरों के बीच था! वे जवाब के लिए मेरी तरफ़ देख रहे थे। और हठात् मेरे मुँह से निकला था, 'नहीं!’ यह सुन कर वे दूसरी तरफ़ देखने लगे थे।

''और सर, इनीशियली तो उस वाक़ये के कारण मैं इस तकलीफ़ से भर उठा था कि प्रोफेसर पाणिग्रही ने मुझे पहचाना नहीं! पर अगले ही पल मेरे भीतर ख़ुशी का एक फव्वारा-सा फूट उठा था कि प्रोफेसर पाणिग्रही ने मुझे सांसद अखिलजीतबाबू का बेटा रणजीत नहीं, बल्कि ऑटोरिक्शा-ड्राइवरों के साथ होने के कारण एक ऑटोरिक्शा-ड्राइवर समझा; और वे अपनी उन तमाम दलीलों के साथ ग़लत साबित हुए जो उन्होंने यूनीवर्सिटी के दिनों में एक दिन लोकतंत्र में 'आम’ और 'ख़ास’ के फ़र्क को सिरे से नकारते हुए दी थीं!... मुझे लग रहा था कि वह बहस अब तक जारी थी और उसमें अंतत: मैं सही साबित हुआ!

''और फिर मेरे भीतर अचानक उनके लिए नफरत की बजबजाहट उठ खड़ी हुई थी। शायद वह मेरी नफ़रत का विस्तार था - राजनीति से नफ़रत का विस्तार। राजनीति के कर्म के चेहरे के रूप में मैंने अपने पिता को देखा था, जिनसे मैं एक ठंडी क़िस्म की नफ़रत करता था; और उसके बाद मेरे सामने राजनीति के सिद्धांत के चेहरे के रूप में प्रोफेसर पाणिग्रही थे, जो मेरी नफ़रत के विस्तार का कारण बने थे! ...और उस वक़्त उस नफ़रत ने ही मेरी ख़ुशी को चमकदार बना दिया था।’’

अपनी आपबीती सुनाकर पूरी करने के बाद रणनीत के चेहरे पर एक अजीब तरह की ख़ुशी नुमाया थी...

 

क्यू में लगे बूढ़े ने हठात् 'महामहिमावान’ के अभिनंदन-मंच की ओर देखा, तो उसे रणजीत की आत्मकहानी के अखिलजीतबाबू के सफेद बालों और स्वागत-मंच पर मौजूद 'महामहिमावान’ के दूर से ही दिखाई दे रहे सफेद बालों में एक आश्चर्यजनक समानता दिखी!

उसके बाद बूढ़े ने एक बार फिर अभिनंदन-मंच से खुद की दूरी देखी: बहुत अधिक न थी! बस, कुछ ही समय और लगेगा कि वह 'महामहिमावान’ तक पहुँच जायेगा। उसी आत्म-आश्वस्ति ने उसे धूप और गर्मी से कुछ राहत दी।

और वह एक बार फिर अपने रंग-मंच के साथ था:

 

रंग-मंच पर ऐसा नीम उजाला है, जिसमें शक्लें ठीक-से दिखाई नहीं दे सकती हैं। महज़ आकृतियाँ भर नज़र आ सकती हैं। मंच के उस नीम उजाले में नेपथ्य से कुछ अस्पष्ट आवाज़ें आ रही हैं। और यकायक पाश्र्व से निकल कर कुछ मनुष्य-आकृतियाँ रंग-मंच के नीम उजाले में दिखाई देने लगीं। उन सभी आकृतियों के मुँह एक ही दिशा की तरफ़ हैं और उनकी तर्जनियाँ एक ही दिशा की तरफ़ तनी हुई हैं। अब उनकी आवाज़ें स्पष्ट सुनाई दे रही हैं:

एक आवाज़ : ''तुम बर्बर!...’’

दूसरी आवाज़ : ''लोकतंत्र में बर्बर!...’’

तीसरी आवाज़ : ''लोक ने तुम्हें शक्ति सौंपी थी... इस आस-उम्मीद के साथ कि तुम उसकी रक्षा करोगे, उसे प्रसन्नता दोगे...’’

चौथी आवाज़ : ''पर तुम बर्बर!.... पल-पल रंग बदलते हो- गिरकिट की तरह- अवसरानुसार...’’

पांचवी आवाज़ : ''तुम बर्बर! अपमान करते हो निर्दोष मनुष्यता का!... तुम ऐसे अमानुष कि सोफे पर बैठे धुले बालों वाले कुत्ते का लाड़ से भर कर सिर सहलाते हो; और उस मनुष्य-मजूर-बच्चे को दुत्कार देते हो जो अनायस तुम्हारी छाया के पास आ जाता है।’’

छठवीं आवाज़ : ''तुम बर्बर! शिकार करते हो स्त्री जात का-सरेराह, सरेआम और कभी अँधेरे की ओट में!...’’

पहली आवाज़ : ''तुम बर्बर!....’’

दूसरी आवाज़ : ''लोकतंत्र में बर्बर!....’’

तीसरी आवाज़ : ''लोक ने तुम्हें शक्ति सौंपी थी... इस आस-उम्मीद के साथ कि तुम उसकी रक्षा करोगे, उसे प्रसन्नता दोगे...’’

एक अन्य आवाज़ : ''पर तुम बर्बर! पशु की रक्षा हेतु मनुष्य की हत्या करते हो!...तुम धर्मभीरू! ...तुम जातिभीरु!.... तुम आत्मभीरु!... डरे हुए हर समय... पहने रहते हो मनुष्यों का कवच हमेशा - अपनी देह-रक्षा के लिए! और साथ ही लोक के अपमान के लिए!... तुम नृशंस!...’’

एक और आवाज़ : ''तुम बर्बर!... इंडिविजुअल नहीं हो तुम... तुम समूह हो - एक प्रवृत्ति हो!... 'लोक’ की सौंपी शक्ति से उन्मत्त तुम! मनुष्य-कवच से सुरक्षित होकर मदमस्त तुम। भूल गये हो कि तुम्हारी शक्ति 'लोक’ से मिली है तुम्हें!...’’

एक अन्य आवाज: ''बताओ, 'लोक’ द्वारा सौंपी शक्ति से सम्पन्न हो कर तुम कैसे बन गये 'लोक’ के ही भक्षक?... 'लोक’ द्वारा सौंपी शक्ति के कारण इतराते तुम अपने-आपको कैसे मान बैठे 'लोक’ से ऊपर?... बताओ, तुम बर्बर! यह ज़मीन-देश के नक्शे की ज़मीन क्या तुम्हारी बापौती है? क्या इस पर चलने का हक़ सिर्फ तुम्हारा है कि छेंक दी जायें तुम्हारे लिए चौड़ी-चौड़ी सड़कें; और 'लोक’ सिमट जाये एक तरफ़ को या दुबक जाये अपने-अपने घर में! कि जिनसे गुज़रना तो तुम्हें अपने लाव-लश्कर के साथ, अपने सुरक्षा-कवच के साथ- लंबी-लंबी, कानफोडू हूटर बजाती गाडिय़ों के काफ़िले के बीच, ख़ाली कर दिये जायें वे मार्ग!?!... तुम बर्बर! बताओ, लोक की सौंपी शक्ति से बने तुम कैसे बन गये लोक-विपरीत?... तुम नृशंस ऐसे कि अपने रसूख और रुतबे की रक्षा के लिए अपने मार्ग में आ गये मासूम 'लोक’ को बर्बरता से कुचल डालने पर आमादा...!’’

एक और आवाज़ : ''बताओ, तुम बर्बर!... बताओ! उस समय तुमको कैसा महसूस होगा, यदि कोई तुम्हारे मनुष्य-कवच को बेध कर तुम्हारी अस्मिता को कुचल डाले!... बताओ! तब तुम्हें कैसा लगेगा!?!...’’

रंग-मंच के नीम उजाले में अब तक स्थिर खड़ी बोल रही मनुष्य-आकृतियाँ, अब रंग-मंच पर आगे बढऩे लगती हैं। इसके साथ ही नेपथ्य से एक ख़ास लय-ताल में बजती तबला-ध्वनि सुनाई देने लगती है...

 

क्यू में लगा बूढ़ा अब अपने साथ था - अपने भीतर- अपनी पीडि़त-कराहती अंतरात्मा के साथ...

बूढ़े का एक परिवार है, घर है...

कुछ समय पहले तक बूढ़े का घर कलाओं और कलाकारों का घर था... बूढ़ा ख़ुद एक नाटककर्मी-मंचकर्मी-रंगकर्मी; बूढ़े का इकलौता बेटा हिन्दुस्तानी क्लासीकल संगीत का एक कंपोज़र-गायक; बूढ़े की पुत्रवधु मोहिनीअट्टम की एक निष्णात नृत्यांगना; और बूढ़े का चौदह वर्षीय पोता एक तैयार होदा फ्लूटिस्ट! ...बूढ़े का घर हमेशा जैसे कलाओं के कलरव से गूँजता रहता था... (बूढ़े की पत्नी इस दुनिया में नहीं थी - वह एक असाध्य बीमारी के चलते कई वर्ष पहले इस फ़ानी दुनिया को त्याग कर चली गई थी। और बूढ़े के परिवार ने उस विवशतापूर्वक हुई मृत्यु की क्षतिपूर्ति अपनी कलाओं के द्वारा की थी।)

कला का स्वभाव ही ऐसा होता है कि वह मनुष्य को उसके भीतर की ओर ले जाती है। तो बूढ़े के परिवार के, खुद उस सहित चारों लोग अपने-अपने भीतर व्यस्त चले आ रहे थे: बूढ़ा प्राय: अपने नाट्य-मंच के साथ होता था; उसके बेटा बहू अपने-अपने रियाज़ में खोये रहते थे; बूढ़े का पोता अपनी स्कूली पढ़ाई के बाद के समय में उस्ताद से बाँसुरी सीखने भी जाता था...

बूढ़े का घर शहर के एक मध्यवर्गीय इलाके में था, जहाँ का माहौल प्राय: शांत और अंतर्मुखी था। बूढ़े के घर में ज़रूरी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध थीं। परिवार के पास एक छोटी कार थी, जिसका उपयोग आवश्यक होने पर बूढ़े के बेटा और बहू करते थे। वे दोनों ड्राइव करना जानते थे। उन दोनों में से किसी को भी जब अपना 'कार्यक्रम’ प्रस्तुत करने जाना होता था, तब वे कार से जाते थे। अलबत्ता पोते को स्कूल से लौटने और खाना खाने के बाद उस्ताद के यहाँ बाँसुरी के रियाज़ के लिए बूढ़े का बेटा प्राय: रोज़ ही कार से छोडऩे जाता था...

...उस दिन बूढ़े के बेटे ने कार निकाली थी; और वह ड्राइवंग-सीट पर बैठकर सीट-बैल्ट बाँधने लगा था। उसके पीछे ही बूढ़े का पोता आकर अपनी बाँसुरियों का बैग कार की पीछे वाली सीट पर रख कर अपने पिता की बग़ल वाली सीट पर बैठ गया था। सीट पर बैठने के बाद उसने भी सीट-बेल्ट बाँधा था... उसके बाद बूढ़े के बेटे ने 'वॉकमॅन’ ले कर कानों पर चढ़ा लिया था। यह उसकी आदत थी कि वह जब भी कार ड्राइव करता था, तब उसके कानों पर 'वॉकमॅन’ चढ़ा होता था और वह सारी दुनिया के शोरोगुल से मुक्त होकर अपनी पसंदीदा बंदिशें सुनता हुआ कार आगे बढ़ाता होता था - उस वक़्त कार की रफ्तार बीच-पच्चीस से अधिक नहीं होती थी और वह हमेशा सड़क की बायीं तरफ़ ही बना रहता था।

...उस दिन भी उसने 'वॉकमॅन’ कानों पर चढ़ाने के बाद कार स्टार्ट की और हस्बेमामूल अपनी बँधीबंधाई रफ्तार से कार को सड़क पर आगे बढ़ाने लगा था। ठीक तभी उसके बेटे यानी बूढ़े के पोते ने अपना स्मार्टफोन निकाल कर उसमें कुछ सर्च किया था, उसके बाद फोन में तार जोड़कर प्लग कानों में लगा लिये थे। उसे उसके पिता यानी बूढ़े के बेटे से यह हिदायत मिली हुई थी कि समय बड़ा कीमती होता है इसलिए उसे बिल्कुल भी व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए; और हर पल का सदुपयोग करना चाहिए - यहाँ तक कि कार में बैठने के समय का भी! और इस हिदायत के साथ ही उसे एक स्मार्टफोन लाकर दिया था, जिसमें भारतीय शास्त्रीय संगीत के मूर्धन्य बाँसुरी-वादकों, जैसे कि पंडित पन्नालाल घोष, पंडित राजेन्द्र प्रसन्ना, पंडित हरिप्रसाद चौरसिया एवं पंडित रोनू मजूमदार आदि की रिकॉर्डिंग्स उपलब्ध थीं।... तो हिदायत के अनुसार बूढ़े के पोते ने उस वक़्त कार में सुनने के लिए पंडित रोनू मजूमदार की बजाई पहाड़ी धुन चुनी थी...

कार अपनी तयशुदा रफ्तार से सड़क की बायीं ओर चलती हुई अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी। कार में बैठे पिता-पुत्र अपने-अपने में मगन थे। कहना चाहिए, कार ख़रामा: ख़रामा सरकती हुई यात्रा पर थी और उसके भीतर बैठे पिता-पुत्र अपने-अपने भीतर की यात्रा पर थे। उस समय उन दोनों को यह दूर-दूर तक आभास नहीं था कि वे कार में बैठ कर जिस सड़क पर चल रहे थे, उस पर उनके पीछे-पीछे 'सियासत की आँधी’ चली आ रही है! उन्हें तो उस वक़्त इस बात का भी इल्म नहीं था कि मुल्क में भले ही 'लोकतंत्र’ नामक व्यवस्था लागू है, परंतु जब कभी भी मुल्क में भले ही 'लोकतंत्र’ का कोई 'राजपुरुष’ (गद्दी पर बैठने के बाद पुरुष तो 'राजपुरुष’ होता ही है, स्त्री भी 'राजपुरुष’ ही होती है!) गुज़रता है, तब 'लोक’ उस सड़क पर होने-गुज़रने का हक़ खो देता है; और उस सड़क का चप्पा-चप्पा उस पर से गुज़र रहे 'राजपुरुष’ की जागीर हो जाता है! चलती कार में बैठे बाप-बेटा अभी अपने-अपने 'लोकल’ और 'इन्स्ट्रूमेंटल’ में मुबितला सड़क पर आगे बढ़ रहे थे कि उनके पीछे से आती 'राजपुरुष की सवारी’ उर्फ़ 'सियासत की आँधी’ उनकी कार के पीछे आ पहुँची थी। उस 'आँधी’ के मुहाने पर सैकड़ों की तादाद में धड़धड़ाती हुई मोटरसाइकलें चल रही थीं; मोटरसाइकलों के पीछे लगभग आधा सैकड़ा बड़ी-बड़ी-लंबी कारों की कॉन्वॉइ चल रही थी; और उन सबके पीछे लोकतंत्र के 'राजपुरुष’ की सवारी जेड श्रेणी की सुरक्षा-व्यवस्था के बीच चल रही थी! और आलम यह था कि 'सियासत की उस आँधी’ के चलने से सड़क गोया थर-थर कांप रही थी...

और उस वक़्त अपने पीछे आती उस 'आँधी’ से बेख़बर बूढ़े के बेटा और पोता अपने-अपने संगीत में खोये हुए थे। उनके पीछे धड़धड़ाती मोटरसाइकलें अपने हॉर्नों की कर्कश आवजों के द्वारा गोया उन्हें सड़क से हट जाने की लगातार मुनादी किये जा रही थीं। परंतु अपने कानों को सिर्फ़ संगीत के लिए सुरक्षित-बंद किये पिता-पुत्र के कानों तक वह 'मुनादी’ पहुँच ही नहीं पा रही थी। पिता-पुत्र सड़क की बायीं ओर र$फ्ता-र$फ्ता रेंगती-सी चलती कार में बैठे खुद में डूबे हुए थे। उस वक़्त उनके ज़ेहन में यह बात कहीं भी नहीं थी कि किसी 'राजपुरुष’ की हस्तछाया में मौजूद लोगो के नाखून छह-छह इंच लंबे हो जाते हैं और दाँत पैने-नुकीले एवं दस-दस इंच लंबे!

पर उन पिता-पुत्र के ज़ेहन में किसी बात के होने-न होने से क्या फ़र्क पडऩे वाला था! वे तो अब उस स्थिति के सामने थे: अचानक उन्होंने देखा कि उनकी कार के ठीक आगे चार-पाँच मोटरसाइकिलें आ कर रुक गई थीं जिनमें से हर एक पर दो-दो लोक सवार थे और जिन्होंने जाफ़रानी रंग के गमछों से अपने-अपने मुँह को लपेट रखा था। बूढ़े के बेटे ने यह देखा और कार को ब्रेक दे कर रोक लिया था। वह हैरत से सामने वालों को देख रहा था और समझ नहीं पा रहा था कि माजरा क्या है। इस बीच मोटर साइकल सवार उतर-उतर कर कार के गिर्द जमा हो गये। उनमें से एक ने अपने मुँह पर लपेटा हुआ जाफरानी गमछा हटाया और कार की डाइविंग-सीट की तरफ़ वाली विंडस्क्रीन के पास आकर शीशे को हाथ से ठोका। साथ ही वह कुछ कह रहा था, जो शीशा बंद होने की वजह से भीतर सुनाई नहीं दे रहा था। यह देख कर बूढ़े के बेटे ने कार का इंजन ऑफ़ कर, अपने कानों पर मौजूद 'वॉकमॅन’ उतारा और शीशा नीचे कर उसमें से प्रश्नवाचक निगाहों से सामने वाले की ओर देखा। इसी दरमियान बूढ़े के पोते ने भी अपने कानों में फँसे प्लग निकाल लिये थे: और वह भी स्थिति को समझने की कोशिश में लग गया था। कार का शीशा नीचे सरकने के साथ ही, उसके पास खड़े व्यक्ति ने कार के भीतर हाथ डालाकर ड्राइवर-सीट पर बैठे बूढ़े के बेटे के कुरते का कॉलर पकड़ कर कहा, ''बाहर निकल मादरचोद!... निकल बाहर!...’’

बूढ़े के बेटे के लिए यह नितांत अप्रत्याीिशत था। उसने कहा, ''बात क्या है?’’ और इसके साथ ही उसने कार का डोर खोल दिया था। उसे लेशमात्र भी अन्देशा नहीं था कि आगे क्या होने वाला है। ...डोर खुलते ही वह कार के बाहर खींच लिया गया था और फिर कार के पास खड़े गमछाधारी उस पर टूट पड़े थे - लातें, घूँसे, थप्पड़ मारते हुए वे चिल्ला रहे थे, ''क्यों बे, कितनी देर से हौरन बजा-बजा कर बता रहे थे कि हट जा... बगल को हट जा!... पर तू क्या किसी गवर्नर की औलाद है!... सुन ही नहीं रहा था मादरचोद!... क्या तुझे पता नहीं था कि मंत्रीजी निकल रहे हैं... पर तू टस से मस नहीं हो रहा था... क्यों बे? ...सड़क को अपनी बपौती समझता है!... क्यों बे...?’’ उन लोगों के मुँहों से लगातार फ़ाहश गालियाँ निकल रही थीं और वे लगातार हाथ-पैर चलाये जा रहे थे - घूँसे, थप्पड़, लातें मारे जा रहे थे - एक निर्विरोध बने हुए आदमी पर! बूढ़े का बेटा नीचे-ज़मीन पर गिरा हुआ था और वे लोग उसकी धुनाई करते रहे थे! कार के भीतर बैठे यह सब देखते बूढ़े के पोते की घिघ्घी बँधी हुई थी - वह लगातार रोये जा रहा था - अरण्यरोदन!...

जब उस मारपिटाई से उन गमछाधारियों का अहम संतुष्ट हो गया, तब वे अपनी-अपनी मोटरसाइकलों पर लदे आरै अपने मंत्रीजी के काफिले का हिस्सा बन गये थे। यह सब कुछ- मिनटों के भीतर हो गया था।

कुछ ही देर में मंत्रीजी उर्फ़ 'राजपुरुष’ का उन्मत्त काफ़िला वहाँ से गुज़र गया था!

उसके बाद उस सड़क पर गोया फिर मामूलियत उतर आई थी। पर क्या वास्तव में वह मामूलियत थी?

उस पूरे घटनाक्रम से गुज़र जाने के बाद, सहमे हुए-से कार के भीतर बैठे बूढ़े के पोते ने देखा था: कार की बग़ल में सड़क पर उसका पिता अभी तक पड़ा था - बिना हिले-डुले, बेहरकत। बूढ़े के पोते के हाथ में अभी तक कानों से निकाले गये प्लगों की डोरी सहित स्मार्टफ़ोन था। उसने उसे सीट पर रखा और वह कार से उतर कर सड़क पर पड़े अपने पिता के पास आया था। उसने अपने पिता के हाथ को पकड़ कर हिलाया और रुआँसी आवाज़ में कहा, ''पापा!’’

पर उसे कोई जवाब नहीं मिला। उसने फिर अपने पिता के हाथ को ज़ोर से हिलाया, और कहा, ''उठो, पापा!’’

पर उसे पिता की तरफ़ से फिर कोई जवाब नहीं मिला। तो वह पिता का हाथ पकड़कर ज़ोर-ज़ोर से हिलाते हुए कह रहा था, ''उठो, पापाऽऽऽ... चलो, घर चलें... उठो, पापाऽऽऽ.... चलो....’’

परंतु उसका पिता सड़क पर बिना हिले-डुले पसरा हुआ, अपने पुकारते बेटे को कोई जवाब नहीं दे रहा था। यह देख-देख कर बूढ़े का पोता रोने लगा था और रोते-रोते ही अपने पिता को उठाने का प्रयास कर रहा था - वैसे ही जैसे कोई किसी सोते हुए व्यक्ति को जगाने की कोशिश करता है...

सड़क पर यह देख कर कुछ पैदल राहगीर दरयाफ्त करने के लिए रुके; कुछ-एक स्कूटर-बाइक-सवार भी मामले को समझने की उत्सुकता में रुक गये; और 'क्या हुआ?’... क्या बात हो गई?’...'क्या हुआ है?’ - जैसे सवालिया जुम्ले वहाँ सुनाई देने लगे। धीरे-धीरे एक मजमा वहाँ जुड़ गया।

उस मजमे में से निकल कर एक देहाती-सा दिखता व्यक्ति निकल कर बूढ़े के पोते के पास आया और उसके कंधे पर सांत्वना-भरा हाथ रख कर उससे बोला, ''बेटा, क्या बात है?’’ उसने सड़क पर पड़े बूढ़े के बेटे की तरफ इशारा कर आगे पूछा, ''क्या हुआ है इनको?’’

उस व्यक्ति की पूछताछ से बूढ़े के पोते को कुछ ढाढस मिला। उसने बताया, ''अंकल, मेरे पापा को कुछ लोगों ने मारा है...!’’

''क्यों?...’’

''पता नहीं!’’

सुनकर, पूछने वाले व्यक्ति ने एक बार गौर से, सड़क पर पसरे पड़़े बूढ़े के बेटे की ओर देखा था; फिर कहा था, ''लग रहा है कि बेहोश हो गये हैं’’, कह कर उसने बूढ़े के पोते की ओर देखा और कहा था, ''बेटा, घर पर कोई हो तो उन्हें बता दो, ये बेहोश हो गये हैं... घर पर और कौन है तुम्हारे?’’

''मम्मी हैं... दादू हैं...’’

''तो उन्हें फोन करके बता दो... फोन है तुम्हारे पास?’’ कहते हुए उस व्यक्ति ने अपने कुरते की जेब में हाथ डाल कर छोटा-पुराना-सा मोबाइल फ़ोन निकाल कर उसकी तरफ़ बढ़ाया, ''नहीं हो, तो लो, इससे बता दो...’’

''फ़ोन है अंकल मेरे पास...’’ कह कर बूढ़े के पोते ने कार के खुले डोर में से झुक कर, सीट पर रखा अपना स्मार्टफ़ोन उठा लिया; और उसमें कॉन्टेक्ट नंबर देखने लगा...

वहाँ जमा भीड़ को देख कर कुछ राहगीर रुकते; थोड़ी देर देखते; मामला समझने का प्रयास करते; फिर अपने रास्ते आगे बढ़ जाते। ज़्यादातर पैदल ही वहाँ रुक, भीड़ में घुस कर दरयाफ्त करते; कुछ देर खड़े रहते और फिर अपनी राह चले जाते। मोटर-बाइकों पर रेज रफ्तार निकलते लोगों में से कुछ-एक ने ही वहाँ रुकना मुनासिब समझा। सड़क से गुजरती कारों के सवार वहाँ जुड़े मजमे को देख कर कार को कुछ धीमी ज़रूर करते; पर कार से बाहर निकल कर मामले को जानने की ज़हमत उठाने से बचते हुए, आगे बढ़ जाते थे... उस भीड़ में अनेक लोग आ रहे थे और वहाँ से लौट कर जा रहे थे। अलबत्ता वह आदमी, जिसने बूढ़े के पोते के पास पहुंच उससे बात कर उसे ढाढस दिया था, अभी तक वहीं था - वह उस परेशान हाल मासूम बच्चे की मदद के लिए तत्पर था जिसका पिता सड़क पर बेहोश पड़ा था...

''हेलो, दादू!’’ बूढ़े के पोते ने नंबर डायल करने के बाद फ़ोन क़ान से लगाने के कुछ देर बाद कहा था, ''दादू, यहाँ कुछ लोगों ने पापा को मारा है... आप आ जाइए... यहाँ... रोड पर है हम.... कुछ लोग हमारे पास खड़े हैं.... एक अंकल ने मेरी हेल्प की... उन्होंने ही मुझसे आपको फोन करने को कहा... वे मेरे पास ही हैं... पर पापा उठ नहीं रहे हैं... कुछ बोल भी नहीं रहे हैं... सड़क पर पड़े हैं... कार के पास... आप जल्दी से आ जाइए यहाँ!’’ बूढ़े के पोते की आवाज़ पीड़ा, परेशानी और कंपन से भरी हुई थी।...

 

क्यू में लगे बूढ़े ने चेहरे पर आ गये पसीने को रूमाल से पोंछते हुए एकबार फिर 'महामहिमावान’ के अभिनंदन-मंच की ओर देखा; और आगे आगे क़तार में लगे लोगों की संख्या का जायजा लिया था। उसके बाद वह एक बार फिर अपने साथ था...

... अस्पताल में बूढ़े के बेटे की देर तक जाँच पड़ताल चलती रही थी। बूढ़ा, उसकी पुत्रवधू, उसका पोता अस्पताल के बरामदे में खड़े-बैठे व्याकुल थे और प्रतीक्षा कर रहे थे कि डॉक्टर उन्हें आकर बताये कि पेशेंट अब ठीक है और उसे वे घर ले जा सकते हैं। ...परंतु शाम होने को आ रही थी, पर डॉक्टर ने उसके पास आकर अभी तक कुछ नहीं बताया था। उस दिन बूढ़े को अहसास हुआ था कि 'होश और आवाज़ गँवाये हुए किसी मरीज़ की स्वस्थ आवाज़ सुनने की आकुल प्रतीक्षा, उस मरीज़ के परिजन के लिए कितनी कष्टदायी और बेचैनकुन होती है! समय का एक-एक पल भारी हो रहा था उनके लिए। पर वे बेचैनकुन अगर आशा भरी प्रतीक्षा के साथ थे...

और अचानक डॉक्टर आकर उनके सामने था। डॉक्टर की ओर देखते हुए बूढ़े की आँखों में उम्मीद की लौ दिपदिया उठी; उसकी पुत्रवधू और पोता भी डॉक्टर की ओर ही देख रहे थे।

डॉक्टर ने उन्हें बड़े सहज आरै सपाट शब्दों में बताया था, ''पेसेंट कोमा में चला गया है... ब्रेन हेमरेज के कारण...’’

''कोमा में...!’’ बूढ़े के मुंह से निकला और उसने डॉक्टर की तरफ़ देखा था, ''तो फिर... अब...?’’

''देखते हैं, जो भी कर सकते हैं....’’ कह कर डॉक्टर चला गया था। उसके पीछे वहाँ छूट गया था एक सन्नाटा और शून्य। शून्य, जिसके भीतर ख़ालीपन के अलावा और कुछ भी नहीं होता।

बूढ़े को आज तक याद है कि वह एक शब्द कितना अँधेरे से भरा और डरावना लगा था उस दिन - ''कोमा’’!

...और फिर उस दिन के बाद डेढ़ बरस - यानी अठारह महीने बीत गये; पर बूढ़े का बेटा कोमा से बाहर नहीं आया था! वह अस्पताल के बिस्तर पर ही था - निष्चेष्ट, आँखें बंद किये, चुपचाप, अपनी दुनिया से पूरी तरह टूटा हुआ, एक अँधेरे से भरी दुनिया में खोया हुआ! बूढ़े को लगता था कि बीते आठारह महीने, महीने नहीं, गोया अठारह युग थे - अँधेरे में डूबे अठारह युग!... बीते अठारह महीनों में कितना-कुछ बदल गया था बूढ़े के घर-परिवार में... इस बीच, बूढ़े की, कुशल नृत्यांगना पुत्रवधू जैसे अपना नृत्य-कौशल भूल कर दर्द की प्रतिमूर्ति बन गयी थी - 'मोहिनीअट्टम’ जैसे उसकी देह और भंगिमा से छिटककर दूर चला गया था - उसका पूरा समय घर और अस्पताल के बीच की आवाजाही में खप गया था! बूढ़े का, फ्लूटिस्ट बनने की चाहत से भरा पोता बाँसुरी को जैसे भूल ही गया था! उसकी बांसुरियाँ बैग से बाहर न आई थीं। वह स्कूल ज़रूर जाने लगा था; किंतु स्कूल से लौटने के बाद का उसका पूरा दिन उसके पिता के बिस्तर के पास ही गुज़रता था - वह जैसे खुद से ही दूर हो गया था! और खुद बूढ़े ने इस बीच नाटक के मंच पर पैर नहीं रखा था। वह अपना ज़्यादातर समय अपने बेटे के पास गुज़ारता था। अलबत्ता वह अपने भीतर के ख़ालीपन को नाटक के वल्र्ड क्लासिक्स पढ़ते हुए भरता रहता था! उसका रंग-मंच उसके भीतर समा गया था - वहीं मंचित होते थे उसके नये नाटक-एक के बाद एक-वे नये नाटक, जो बीते अठारह महीनों के अँधेरे से बावस्ता थे... बूढ़े के ज़ेहन में बार-बार पुलिस-थाने के दारोग़ा का 'संवाद’ गूँजता था... मेडिको-लीगल-केस होने के कारण अस्पताल-प्रशासन की सूचना पर पुलिस ने एफ.आई.आर. तो फाइल कर ली थी; पर उसके आगे कुछ नहीं हुआ था... बूढ़ा बीच में एक-दो बार थाने दरया$फ्त करने पहुंचा था; तो एक दिन दरोगा बोला था, ''अब हद हो गई यार!... बार-बार चले आते हो यहाँ - क्या हुआ?’’ ''क्या हुआ?....’’ पहले सावधानी बरती नहीं कि वीआईपी मूवमेंट के समय अपने-आप को थोड़ा बचा कर चलें... और अब...!’’ दारोग़ा के मुँह से यह सुनकर बूढ़े के भीतर जैसे पलीते में आग सुलग उठी थी, ''वीआईपी?... किसने बनाया वीआईपी...?’’ उसने दारोग़ा की आँखों में आँखें डाल कर कहा था, ''और वीआईपी का मतलब क्या होता है?... वीआईपी का मतलब क्या आदमखोर होता है, जिससे खुद को बचा कर चला जाय?’’ सुनकर दारोग़ा ने चंद पलों तक बूढ़े को घूरा था, फिर कहा, ''नहीं चले, तो अब भुगतो!... और जाओ यहाँ से...!’’ बूढ़ा जानता था कि आम आदमी के लिए पुलिस का चेहरा ऐसा ही होता है!... उस दिन के बाद वह फिर कभी पुलिस थाने नहीं गया था!... उसे हर तरफ अँधेरा ही अँधेरा नज़र आता था; और उसके भीतर सवालों की एक लंबी क़तार आकर खड़ी होती रहती थी;  मसलन, क्यों है यह हर तरफ अँधेरा?... कौन है इस अंधेरे का ज़िम्मेदार? - जैसे सवाल! गाहे-ब-गाहे उन सवालों में से कुछ के जवाब भी उसे मिल जाते थे - अपने भीतर से ही। तब वह बेचैन हो उठता था....

... उसके बाद एक दिन, एक खबर बूढ़े के हाथ लगी थी... वह ख़बर उसे 'महामहिमावान’ के अभिनंदन के लिए लगी क्यूं में ले आई थी...

 

...तो बूढ़ा क्यू में लगा हुआ था...

उसने एक बार फिर अभिनंदन-मंच की ओर देखा: अब वह 'महामहिमावान’ के अभिनंदन-मंच से थोड़ी-सी ही दूरी पर था। उसने अपने आगे लगे लोगों को गिना- कुल चार थे!... उसने एक बार फिर माथे पर आ गया पसीना पोंछा था।

और फिर वह पल आ पहुँचा, जिसका इंतज़ार करते हुए बूढ़ा इतने समय से क़तार में लगा हुआ था: अब वह 'महामहिमावान’ के ठीक सामने था। उसके हाथों में गेंदा के फूलों की बनी माला थी। उसने 'महामहिमावान’ के पद और प्रतिष्ठा के दर्प से चमकते चेहरे की भाव-भंगिमा को देखा... और अगले ही पल बूढ़े का माला को थामे कमज़ोर-सा दीखता हाथ, माला को छोड़कर, एक ख़ास वक्रता के हाथ हवा में लहराया और अपने ऊपर का आकाश नापता हुआ पूरे ज़ोर के साथ 'महामहिमावान’ के मुँह के ऊपर पड़़ा था। इसके साथ ही बूढ़े की देह और मुखमुद्रा में नाट्यभंगिमा नमूदार हो उठी थी: वह अब 'महामहिमावान’ की आँखों में देखता हुआ चीख रहा था, ''बताओ! 'लोक’ द्वारा सौंपी शक्ति से संपन्न होकर तुम कैसे बन गये 'लोक’ के ही भक्षक?.. 'लोक’ द्वारा सौंपी शक्ति के कारण इतराते तुम अपने-आप को कैसे मान बैठे 'लोक’ के ऊपर?... बताओ, तुम बर्बर! यह ज़मीन - देश के नक्शे की ज़मीन क्या तुम्हारी बपौती है?... क्या इस पर चलने का हक़ सिर्फ़ तुम्हारा है कि छेंक दी जायें तुम्हारे लिए चौड़ी-चौड़ी सड़कें; और 'लोक’ सिमट जाये एक तरफ़ को या दुबक जाये अपने-अपने घर में! ...तुम नृशंस ऐसे कि अपने रसूख और रूदबे की रक्षा के लिए अपने मार्ग में आ गये मासूम 'लोक’ को बर्बरता के साथ कुचल डालने पर आमादा..!’’ बूढ़ा लागातार अपने ज़ेहन में मौजूद नाटक के संवाद चीख-चीख कर बोल रहा था, ''तुम बर्बर! ...इंडिविजुअल नहीं हो तुम... तुम समूह हो - एक प्रवृत्ति हो! 'लोक’ की सौंपी शक्ति से उन्मत्त तुम...!’’

अभिनंदन-मंच पर अफरातफरी मच गई थी!... बूढ़े को सुरक्षा के कठोर हाथों में जकड़ लिया गया था।

 

                                                             (2)

बूढ़ा अब मुकदमें का सामना कर रहा था...

ट्रायल-कोर्ट के घुटन-भरे और बोसीदा-से कक्ष में वह दी गई हर तारीख़ को पर समय पर पहुँचता था। ....कार्यवाही के दौरान उसे कठघरे में खड़ा होने को कहा जाता, तो वह बिना हिचके कठघरे के भीतर जाकर खड़ा हो जाता था। कठघरे के भीतर खड़ा-खड़ा वह कोर्ट-कार्यवाही-डायस पर कुर्सी पर बैठे ज्यूडिशियल मस्जिस्ट्रेट फस्र्ट क्लास (जेएनएफसी) की मुखमुद्राओं, डायस के पास खड़े वकीलों के हाव-भावों और विटनेस-बॉक्स में मौजूद साक्षियों के बयान होते देखता रहता। साथ ही वह कोर्ट के पेशकारों - जो कक्ष की एक तरफ़ की दीवाल से सटी रखी अलमारियों के पास लगी टेबिलों के पीछे बैठे अपनी-अपनी टेबिल पर रखी फाइलों में कुछ कर रहे होते थे - और कोर्ट कक्ष के दरवाजे के पास खड़े अर्दली; और कोर्ट-कक्ष में आने-जाने वालों को भी देखता रहता। कठघरे के भीतर खड़े होने के बावजूद बूढ़े की मुद्रा में किसी तरह ही हीनभावना की झलक तक नहीं होती थी। उसकी वेशभूषा भी वही थी - जींस के पैन्ट-कुरता, पैरों में चप्पलें और कंधे पर टँगा डिज़ाइनर झोला। कठघरे में देर तक खड़े होने की ऊब के चलते वह कभी कभार झोले में से कोई किताब निकालता और खड़े-खड़े पढऩे लगता। उससे संबंधित कार्यवाही पूरी हो जाने पर उसे कठघरे से बाहर निकलने के लिए कह दिया जाता; तो वह कठघरे से बाहर निकल कर संबंधित पेशकार के पास पहुँच कर खुद से संबंधित फाइल पर दस्तख़त करता और अगली पेशी की तारीख़ जान कर अपने घर को रवाना हो जाता था।...

... इस तरह से मुकदमे का सामना कर रहा था बूढ़ा!

''तो इसी क्रम में अगली पेशी के लिए मिली तारीख को बूढ़ा समय पर कोर्ट-कक्ष में पहुंच कर दीवाल से सटी रखी बैंच पर बैठ गया था। कुछ समय बाद उसे विटनेस-बॉक्स में जा कर खड़े होने को कहा गया; तो वह चल कर विटनेस-बॉक्स में खड़ा हो गया। अब तक उसे कठघरे में खड़ा किया जाता रहा था; पर उस दिन विटनेस-बॉक्स में खड़ा किया गया था। उसके विटनेस-बॉक्स में पहुँचते ही, डायस की कुर्सी पर बैठे जेएमएफसी ने उसकी ओर देखा और कहा, ''तुम्हें अपने बचाव में कुछ कहना है?... यदि हाँ, तो कहो!’’

सुनकर बूढ़े ने कुर्सी पर बैठे तक़रीबन पचास वर्षीय जेएमएफसी के चेहरे पर देखा; फिर कहा, 'मुझे जो कुछ कहना था, मैं कह चुका हूँ...’’

''कह चुके हो? लेकिन कब?’’ कहते हुए जेएमएफसी ने बूढ़े के चेहरे पर देखा, ''अभी तक तो तुम कठघरे में रहे थे... सफाई में कुछ कहने के लिए तो आज ही यहाँ बुलाया गया है...?’’

सुनकर बूढ़ा बोला, ''ठीक कह रहे हैं आप... सफाई में कुछ कहने के लिए तो मुझे आज ही यहाँ बुलाया गया है... पर मुझे जो कुछ कहना था, उसे मैं अपने उस मंच से कह चुका हूँ जो मेरे भीतर भी मौजूद है और बाहर भी...’’ कह कर बूढ़े ने अपना हाथ विटनेस-बॉक्स के चौखटे के ऊपर से कुछ इस अंदाज़ में उठाया, जैसे वह किसी के बारे में इंगित कर रहा हो; फिर आगे कहा, ''उनका एक मंच होता है... आपका भी एक मंच है...’’ कह कर उसने उँगली से डायस की ओर इशारा किया, और आगे कहा, ''... इसी तरह मेरा भी एक मंच है... रंग-मंच!... मुझे जो भी कुछ कहना होता है, उसे मैं अपने मंच से कह देता हूँ...’’

यह सुनकर जेएमएफसी ने किंचित् हैरानी के साथ, विटनेस-बॉक्स में खड़े बूढ़े को देखा - ऊपर से नीचे तक; फिर उसकी आँखों की तरफ़ देखा: बूढ़ा गोया न्याय की आँखों में आँखें डाले, अपनी दुबली काया के साथ विटनेस-बॉक्स में तन कर खड़ा हुआ था!...

 

 

 

राजेन्द्र लहरिया अपने आख्यानों में माहिर हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार हैं। ग्वालियर से आते हैं।

संपर्क - 9827257361

 


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