मुखपृष्ठ पिछले अंक बांग्ला कविताएं शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएं
दिसंबर - 2019

शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएं

अनुवाद: मीता दास

कविता (बांग्ला)

 

 

 

 

जा तो सकता हूं पर क्यों जाऊँ

 

सोचता हूँ पलट कर खड़े होना ही बेहतर है।

 

इतनी कालिख जो मली है दोनों हाथों में

                          इन बीते वर्षों में!

कभी तुम्हारी तरह से इसे सोचा ही नहीं।

 

अब खांई के करीब रात में खड़े रहने पर

चाँद आवाज देकर बुलाता है, आओ... आओ

अब गंगा के घाट पर सुप्त अवस्था में खड़े रहने से

चिता की लकडिय़ाँ बुलाती हैं, आओ... आओ

जा तो सकता हूँ

किसी भी दिशा में जा सकता हूँ

पर, क्यों जाऊँ?

 

अपनी संतान का चेहरा अपने हाथों में थाम कर एक चुम्बन लूंगा

 

जाऊँ....

पर, अभी नहीं जाऊंगा

तुम लोगों को भी संग ले जाऊंगा

अकेला नहीं जाऊंगा मैं यूँही

असमय।

 

सोया हुआ हूँ, टूटी नींद और फटे सपने लिए

 

अल सुबह नींद में दिखी तुम,

सिर के ऊपर के आकाश को खिड़की के सीखचें कर देती है हिस्से

नमक युक्त केश, हाथ गड्डमड्ड, बिस्तर पर बिखरा हुआ रेत

दोनों ओर कपास के टीले, घर के भीतर ही झाऊ के पेड़

अँधेरे में दूध में जल पड़ता है होटल के बरामदे में ही...

सोया हुआ हूँ, टूटी नींद और फटे सपने लिए

तुम्हारा ताजा चेहरा अनमने में थामे कमल की तरह

सोया हुआ हूँ, समीप ही समंदर का पानी पछाड़ें खा रही हैं

किस्मत है की टूटता ही नहीं है सपने में भी,

उस दिन की तरह उनींदे पन में

जब किशोरी सी तुम दरवाजे की फांक से झांककर कहा था, जाओ

चले जाओ, और कभी मत आना

नहीं आना मेरे करीब, किसी भी दिन, कभी भी नहीं आना।

नहीं आया, दु:ख की राह में दुखित होकर गया और

मुंह के बल जा गिरा

उठ नहीं पाया सांप की तरह फन उठा हिंसक होकर

पूँछ के बल खड़ा भी नहीं हुआ चाँद खाऊंगा सोचकर

तेज भूख, तेज प्यास थी फिर भी खड़ा नहीं हुआ चाँद खाऊंगा सोचकर

आधी किस्मत खाऊंगा सोचकर भी नहीं जागा कभी

सोया हुआ हूँ, टूटी नींद और फटे सपने लिए

तुम्हारा ताजा चेहरा अनमने में थामे कमल की तरह

सोया हुआ हूँ, समीप ही समंदर का पानी पछाड़ें खा रही हैं।

 

लड़का

 

लड़के ने बेहत गलत किया, सख्त पत्थर को तोड़ कर

आदमी था नरम स्वभाव का, काट कर बिखरा सकता था

आदमी था लड़का, बंधा हुआ लड़का, जीवन बंधा हुआ था खिड़की में

पत्थर काटकर राह बनाना, हुआ है इसीलिए व्यर्थ।

अपने ही दोनों हाथों से अपना गला दबाकर मृत्यु का वरण करना

दिमाग में कीड़ा था, उन्हें लौटाने का जितना भी हो अभ्यास पर

लड़के ने बेहद गलती की है, सख्त पत्थर को तोड़कर

आदमी था नरम स्वभाव का, काटकर बिखरा सकता था।

राह की खोज राह ही जाने, मन की बातों में लीन

आदमी बड़ा सस्ता है, काटकर बिखरा ही सकता था।।

 

मृत्यु

 

जल रही है इस श्मशान में

ढेरों लकडिय़ां

 

जलना मुझे भी अच्छा लगता है,

 

खूब अच्छा लगता है

पर मैं जलना चाहता हूँ

किसी नदी के तट पर।

 

कारण, एक समय ऐसा आता है

आ भी सकता है जब

आग असहनीय सा लगने लगती है

 

नदी के तट पर

और मुर्दा भी मांग ही सकता है

आचमनी भर जल।

 

तब वह मृत्यु नहीं हो पाती सफल,

कभी हो भी नहीं सकती सफल।

 

निहारता हूँ मैं

 

उठा लाओ पेड़ों को, यहाँ बगीचा बनाओ

हमे अब पेड़ों को निहारने की जरूरत है

सिर्फ पेड़ों को निहारना

पेड़ों में जो हरापन है इसकी जरूरत है देह को

आरोग्य बने रहने के लिए

इसलिए हमें हरेपन की सख़्त जरूरत है

अनेक दिन हुए मैंने जंगल में नहीं काटे दिन

अनेक दिन हुए मैं गया भी नहीं जंगल

अनेक दिन हुए मैं शहर में ही हूँ

शहर में सारी बीमारियां मुंह खोले खड़ी हैं

वे सिर्फ हरापन ही निगलती हैं

हरेपन की हो रही है कमी...

 

इसलिए पेड़ों को यहीं उठा लाओ

यहाँ बगीचा बनाओ,

मैं निहारूं

आंखें तो देखना ही चाहती है हरापन।

देह भी चाहती है हराभरा बगीचा

पेड़ लाओ,

बगीचा बनाओ।

 

मैं निहारूं।।

 

राह चलते कष्ट होता है

 

राह चलते हुए मुझे कष्ट होता है,

इसलिए राह के किनारे बैठा रहता हूँ।

घने पेड़ के नीचे बैठा रहता हूँ ऐसे जैसे कोई सूखा पत्ता-

पत्ते की ही तरह रहता हूँ पड़ा,

कष्ट होता है, हवाओं से

उड़ जाऊंगा सोचकर डरता रहता हूँ,

जल भी सकता हूँ।

 

राह पर चलते हुए कष्ट होता है,

इसलिए राह के किनारे ही बैठा रहता हूँ

 

पड़ा रहता हूँ टीले या किसी पुराने पत्थर की तरह-

आधुनिक नहीं, न ही गृह सज्जा के लिए किसी निश्चित पत्थर की तरह।

काम का पत्थर नहीं, कि काम-काज छोड़कर पड़ा हुआ हूँ राह के किनारे,

राह के बीचों बीच नहीं, जरा हटकर, राह के एक किनारे

राह के बीचों बीच नहीं, जरा हटकर, राह के एक किनारे

घने पेड़ के नीचे पड़ा हुआ हूँ पत्थर की तरह।

 

राह पर चलते हुए कष्ट होता है,

इसलिए राह के किनारे ही बैठा रहता हूँ।।

 

तोडऩा गढऩे से ज्यादा मूल्यवान है

 

पता नहीं किस तरह छंदों का बरामदा तोड़ा जायेगा

मिस्त्री मौजूद हैं, हैं उनके पास है सब्बल, गैंती

जन बल है, और है तोडऩे के निश्चित निर्देश भी,

तोडऩे की क्षमता भी है, जरूरत भी।

 

बरामदे ने भी जान लिया: सभी तोडऩे में नहीं है सक्षम।

तोडऩे का भी एक निजी छंद होता है, रीति होती है - प्रथा होती है,

उबड़-खाबड़ तरीके से तोडऩे पर, तोडऩे का विज्ञान थूँकेगा देह पर

और लोग कहेंगे, इसे ही नष्ट-भ्रष्ट करना कहते हैं।

अशिक्षित भी कहेंगे कई लोग, कोई कहेगा मूर्ख,

तोडऩा सीखना पड़ता है-

सुंदरत तरीके से तोडऩा, गढऩे से ज्यादा होता है मूल्यवान

कभी-कभी।

 

एपिटाफ (समाधि लेख)

 

कुछ दिनों का सुख भोगा उसने, मनुष्य की ही तरह

हुई मृत्यु उसकी। कवि था वह, बेहद था कंगाल भी।

जब वह मरा तब प्रकाशकों ने महोत्सव मनाया था,

क्योंकि, वह आदमी गया, बच गये, अब और परेशान नहीं करेगा

हर साँझ वह सजधज कर अब आकर नहीं कहेगा, पैसे दो...

न तो अब तोडफ़ोड़ ही होगी और न ही नष्ट होगा अभिलेखागार,

न ही कहेगा जल्द पैसे दे दो, नहीं तो आग लगा दूंगा इस घर को

 

जबकि आग में ही जल गया वह आदमी जो था - कवि और कंगाल।

 

 

पहले भी अनुवाद कर चुकी हैं।

संपर्क - मो. 9329509050

 


Login