रुचि भल्ला की कविताएं
रुचि भल्ला
कविता
बत्तीस दाँतों का सच
जब मेरे दाँत दूध के थे
मोहनदास करमचंद गाँधी की तस्वीर मैं तबसे बापू के नाम से पहचानती रही
नमक का स्वाद चखने के पहले नहीं जानती थी नमक सत्याग्रह के मायने
एक किताब में पढ़ा था जवाहरलाल नेहरू हिन्दोस्तान के खजाने का जवाहर हैं
किताबें झूठी नहीं थीं उनका सच ज़्यादा सच बोलने वालों ने पढ़ते-पढ़ाते बदल दिया
मैं कलयुग का काला जादू देखती रही
देखते-देखते टूटते रहे मेरे दूधिया दाँत
दाँत टूटना करिश्मा नहीं था हैरतअंगेज़ था जानना कि बापू को अपने देश में गोली मार दी
इंदिरा जो थीं लौह महिला सफ़दर जंग रोग पर एक सुबह सारा लोहा पिघलता देखा
सन् 84 के बाद किसी ने इंदिरा प्रियदर्शनी को देखा नहीं
अचानक वह इतिहास की किताब के एक पन्ने में दर्ज हो गईं
यह अलग बात है राजधानी की किसी लाइब्रेरी में इतिहास की वह किताब हाथ लगती नहीं
बाईबिल में लिखा है यीशू ने जहाँ सलीब को ढोया मैं उस जेरूसलेम को उनका जन्मस्थल समझती थी।
सुकरात का जीवन दर्शन इतना तो कठिन नहीं था जितनी सरलता से थमा दिया क्रीटो ने विष का प्याला
मैं और नाम नहीं गिनाऊँगी टूट कर गिरते जाएँगे मेरे बत्तीस दाँत
जिन किताबों को पढ़ कर बड़ी होती गई सीखा जीवन का पाठ
उनका लिखा खारिज करते देखता उतना ही कठिन है जितना कठिन है देखना अपने टूटते हुए दाँत
मेरी आँखों में ठहरा शहर
इससे पहले कि कह सकूँ आई एम प्राउड टू बी एन इंडियन
हिन्दू होने का मतलब तब तक नहीं जाना जब तक मुस्लमाँ को नहीं देखा था
बशीर मियाँ की बगीची में खिला गुलाब देखती हूँ जाना नामदास माली के हाथों का बोया बीज है
बंटी बिल्ली को देखा करती हूँ सकीना बी के घर के दूध से उसका मन भर पेट भरता है
दादी बताती थीं सन् 66 में हामिद मियां लाते थे अंडे रसोई में तबसे बनती है एग करी
लाल कॉलोनी के बाहर जाने का रास्ता रसूलपुर की सड़क से होकर गुज़रता है
रियाज़ होता था नुक्कड़ की दुकान में दालमोठ खाता हुआ
उससे निगाह मिलने का मतलब हिन्दू-मुस्लमाँ होना नहीं होता था
आज भी उसके पठानी सूट का बादामी रंग याद है मुझे
रियाज़ से ज्यादा उसकी हीरोहौंडा अच्छी लगती थी
वह हीरोहौंडा का ज़माना था
उस ज़माने में हुई दोस्ती की बात करूँगी कहकशाँ के नाम का अर्थ है- सितारों का झुरमुट
मेरे लिए कहकशाँ चाँद है
चाँद वह नहीं जो मस्जिद का ताज होता है मंदिर में जलता दीपक भी नहीं
मेरे लिए चाँद तश्तरी है जिस पर रख कर खाते थे तहरी कहकशाँ के हाथ से लेकर पहला निवाला
हाँ! मैं हिन्दू हूँ यह मैंने जाना मुस्लमाँ की नज़र के आईने में देख कर जाना कि ज़्यादा हिन्दू होने के लिए थोड़ा मुस्लमाँ भी होना पड़ता है
उतना जितना तहरी में होता है नमक
दोस्ती के नमक को चखते हुए मैंने देखा एक दोपहर मौलवी और पंडित को खाट पर बैठे हुए
दो दोस्त एक बीड़ी सुलगा रहे थे
उसके कश में धुँआ हो रहा था धर्म और मज़हब
दो जाम
'ग़ालिब’ छुटी शराब पर अब भी कभी-कभी पीता हूँ रोज़-ए-अब्र ओ शब-ए-माहताब में’
ग़ालिब कूच कर गए दुनिया से चाँद रह गया तन्हा
मोहब्बत करने वाले अब भी हैं मोहब्बत का दुनिया में निशाँ नहीं रहा
जैसे मयखाने नहीं रह नहीं गए बीच बाज़ार में रह गई है नाम की मधुशाला शहर की आखिरी गली के संग्रहालय में
यकीन न आता हो मयखाने में जाकर पूछ लो क्या अब भी आती है बच्चन की साकी हाला
मेरा शहर तो इस दौर में गुमनाम हुआ किस पथ पर चल कर जाएगा कोई मधुशाला
जिस शहर के बाशिंदे अपने शहर का नाम न बचा सके क्या खोल सकेंगे मयखाने का बंद ताला
चले गए हैं शहर के सारे शराबी जैसे चले गए ग़ालिब-बच्चन जहाँ से
बची रह गई है चुनावी पार्टियाँ
कुछ हिन्दू रह गए रह गए मुसलमाँ
भाईचारे के नाम पर टकरा सकें ऐसे दो अदद जाम न रहे
यूँ तो काँच के बर्तन बहुतेरे बिक रहे हैं हिन्दोस्ताँ के सरे बाज़ार में
पहल में दूसरी बार
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