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दिसंबर - 2019

जाने कब पिघलेगी बर्फ़

अशोक कुमार पाण्डेय

रिपोर्ताज/कश्मीर

एक कविता के साथ

 

 

पाँच अगस्त ने जैसे कश्मीर और दिल्ली की दूरी अचानक बढ़ा कर इतनी कर दी थी कि मैं यहाँ से सदा लगाऊँ तो वहाँ न पहुँचे और कोई वहाँ से याद तो करे लेकिन कह न पाए कुछ। 14 को जाना महीने भर पहले से तय था। 'कश्मीर और कश्मीरी पण्डित’ तैयार थी और बस कुछ इंटरव्यूज लेने थे। लेकिन 5 अगस्त के बाद मेरे फोन मे मौजूद सारे कश्मीरी नम्बर अचानक जैसे बेमानी हो गए थे और उनमें दर्ज़ चार की रात के संदेशे जैसे धीरे-धीरे दु:स्वप्नों में बदलते जा रहे थे। जाना तो था लेकिन कुछ समझ नहीं आ रहा था, एक भय कह लीजिए या फिर चाहते-न चाहते दुनियादार हो चुके दिल और देह की फ़िकरें। अफवाहें तो थीं ही चारों तरफ़ और घाटी से आने वाली हर ख़बर सनसनी बनाकर पेश की जा रही थी तो जितना जानता हूँ घाटी को, यह तो समझ गया था कि श्रीनगर जाकर लौटना कोई बड़ा रिस्क नहीं। आसान नहीं होता उन सड़कों पर सेना के जवानों और कँटीले तारों की मौजूदगी देख पाना जहाँ आपने दोस्तों के साथ शानदार शामें गुज़ारी हों। हालाँकि यह जितना भावुक हमें करता है उतना कश्मीरियों को नहीं। उन्होंने ऐसे-ऐसे भयावह मंज़र देखे हैं कि अब मुश्किल से मुश्किल वक्त आसान लगता है।  ग्वालियर में रमाशंकर सिंह जी द्वारा कश्मीर पर आयोजित कार्यक्रम में हाल मे घाटी से लौटीं दो पत्रकारों आरफ़ा खानम शेरवानी और प्रदीपिका सारस्वत से मुलाकात होने के बाद इतना समझ में आया कि आप शोर मचा के नहीं जाएँगे और बहुत बड़े आदमी नहीं होंगे तो रोका नहीं जाएगा। हिन्दी के लेखक को 'बड़े’ होने का भरम वैसे भी नहीं होता तो पहचाने जाने का बहुत खतरा था नहीं। तो लैंडलाईन नम्बर शुरू होने और कुछ मित्रों से संपर्क के बाद तुरत-फुरत में श्रीनगर जाने की योजना बनी।

पहला झटका फ्लाइट कराते हुए ही लगा। पिछले 7-8 सालों में कई-कई बार कश्मीर गया हूँ लेकिन इतना सस्ता टिकट कभी नहीं रहा। अक्टूबर के महीने में जब कश्मीर के लिए पर्यटकों का तांता लगा रहता है। फ्लाइट में इस बार या तो कश्मीरी थे घर जाते हुए या कुछ पत्रकार और कुछ आर्मी के लोग। बच्चों की उत्सुक आवाज़ों की जगह एक मुर्दा सी खामोशी में जरा सी हरकत तब दिखी जब लैंडिंग का समय आने लगा। बर्फ़ में ढँके पहाड़ों के बीच तिरते बादलों का वह मंज़र हर उस शख्स को याद होगा जो श्रीनगर गया होगा। वह मंज़र जो कई-कई बार देखने पर भी पुराना नहीं होता। खिड़कियों से लोगों ने अभी तस्वीरें उतारना और वीडियो बनाना शुरू ही किया था कि अनाउंसमेंट शुरू हुआ - खिड़कियों के शटर बन्द कर दें। यह जैसे कश्मीर की विडम्बना है। सौन्दर्य ऐसा कि आँखें ठहर जाएँ और प्रतिबन्ध ऐसे कि रूह सिहर जाए। आज़ादी शायद कश्मीरी मानस में इसीलिए इतनी गहरी बैठती गई है। महजूर की कविता पढि़ए तो समझ आता है कि इस आज़ादी के राजनैतिक मानी से इतर वैयक्तिक और सामाजिक अर्थ है। मुगलों से लेकर अफ़गानों, सिखों और डोगरा राज में प्रतिबन्ध झेलते पैदा हुई वह तड़प न जीने देती है न मरने देती है। नब्बे के दशक में जो उभरा वह एक दिन का गुस्सा नहीं था और बदली हुई दुनिया ने उस गुस्से में इतना कुछ जोड़-घटा दिया कि सुलझने की जगह गुत्थियाँ लगातार उलझती चली गई हैं और अब तो शायद उस भूलभुलैया में पहुँच गई हैं, जहाँ से निकलने की राह कोई नहीं जानता।

श्रीनगर एक सैनिक हवाई अड्डा है तो सेना की उपस्थिति और चौकसी हमेशा ही रहती है। बाहर निकलकर आदतन मोबाइल देखा तो पूरे सिग्नल दिख रहे थे। एक बार तो लगा जैसे सरकार बहादुर ने तोहफ़ा दे दिया और घाटी मे मोबाइल सेवाएं शुरू हो गईं लेकिन ज़ाहिर है यह भरम था, भरम जैसे कश्मीरियों को था कि सारी दुनिया उनके साथ हुए अन्याय पर उठ खड़ी होगी या नब्बे मे पण्डितों को था कि उन्हें कुछ हुआ तो पूरे देश में आग लग जाएगी, जैसे शम्स चक को था कि अकबर दिल्ली बुलाकर इज्जत से व्यवहार करेगा या जैसे हमारी सरकारों को रहा कि विकास के नाम पर चंद वजीफों और योजनाओं से कश्मीरी बहल जाएगा। खैर, भरम का मुस्तकबिल है टूट जाना, सो जब टूटा ये भरम तो एकदम से लगा टाइम मशीन में बैठकर दो दशक पहले चले गए हैं और याद आया कि जावेद ने यह तो कहा था कि एयरपोर्ट आएगा लेकिन यह तय नहीं किया गया कि मिलेंगे किस जगह पर। मोबाइल ज़िंदगी का इस क़दर हिस्सा बन चुका है यह एहसास इस यात्रा मे लगातार साथ रहा। तय हुआ कि जहाँ से लोग निकाल रहे थे वहीं इंतज़ार किया जाए। अक्टूबर की सुबह हल्की सी सर्द और खुशनुमा होती है कश्मीर मे। सिगरेट जलाकर यहाँ-वहाँ देखना शुरू किया ही था कि 'हाउसबोट सर?’ की पहचानी हुई आवाज़ आई। थोड़ा आश्चर्यजनक था यह। राज्य सरकार की पर्यटकों को कश्मीर न आने की एडवाइजरी अभी प्रभाव में थी, मैने मना किया तो उन्होंने रेट्स बताने शुरू किए। इतने सालों मे एयरपोर्ट से हाउसबोट स्टे के इतने सस्ते दाम कभी नहीं सुने थे। चार दिन पहले जब होटल सैमसी रिवेरा फोन किया था तो पहचानने के बाद रेट पूछने पर उन्होंने भी कहा था  - सारे रूम्स खाली पड़े हैं सर, आप तो आ जाओ। कश्मीर की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा पर्यटन पर आधारित है और यह साल उनके लिए किसी दु:स्वप्न सा गुज़र रहा है। जावेद की प्रतीक्षा जारी थी कि नज़र एक युवा पर पड़ी। बातचीत के लहज़े से मैं पहचान गया कि वह पूर्वी उत्तर प्रदेश का है। बात हुई तो पता चला कि हब्बा कदल के किसी तकनीकी संस्थान मे पढ़ता है। 4 अगस्त को चला गया था और अब वापस आया है। अभी उससे बात चल ही रही थी कि सामने से जावेद आते दिखे। ऐसा लगा जैसे वर्षों बाद देखा हो। सहज होते ही बोला - मुझे पता था आप दोनों आओगे। जावेद कश्मीर के जाने-माने फोटोजर्नलिस्ट हैं और नब्बे के दशक के  खूनी सालों के गवाह।

कश्मीर सिर्फ़ विषय नहीं हो सकता। कश्मीरियों की मेहमाननवाज़ी  सिर्फ़ मेहमाननवाज़ी  नहीं होती। वह जैसे उनके जीवन और संस्कृति का हिस्सा है। याद आता है कि जामिया मस्जिद इलाके में एक दुकान से कुछ सामान लेते-लेते घर रुकने और साथ डिनर का प्रस्ताव मिल गया था। जब फोन शुरू हुए तो जिसका भी फोन आया उसने ऐसे हाल पूछा कि जैसे वे नहीं हम किसी मुश्किल हालात से गुज़र रहें हों। एयरपोर्ट से निकलते हुए उस असमान्यता का एहसास होता है जो 5 अगस्त के बाद से ही कश्मीर के हर कोने में पसर गई है। दुकानें बन्द, रोड पर सैनिकों की बढ़ी हुई संख्या, गाडिय़ों की घटी हुई तादाद और एक तनाव जो सिर्फ़ तभी महसूस होगा अगर आप कश्मीर आते-जाते रहे हैं और यहाँ के इतिहास से परिचित हैं। हमारा होटल राजबाग मे है जो शहर के एलीट इलाक़ों में से है। बगल मे हैट्रिक की बेकरी है और स्कूल जहाँ से शहला राशिद की पढ़ाई हुई है। आमतौर पर यह पर्यटकों से भरा रहता है लेकिन जब हम पहुँचे तो केवल चार कमरों मे गेस्ट थे।

सबसे पहले हमें खेमलता वखलू से मिलना था। कभी शेख अब्दुल्ला परिवार की क़रीबी रहीं खेमलता बाद में फ़ारूक़ की कृपा से विधान परिषद की सदस्य बनीं और जब जगमोहन की सहायता से फ़ारूक़ सरकार गिराने के लिए उनके बहनोई गुल शाह के नेतृत्व में दलबदल हुआ तो उनके साथ चली आईं और पर्यटन विभाग में मंत्री बनीं। फिर कांग्रेस में शामिल हुईं और फ़िलहाल वहीं हैं। उनका लैंडलाइन काम नहीं कर रहा था लेकिन घर का मोटा-मोटा पता था। बुलवार्ड के पास ददरीबल रोड पर दो-तीन लोगों से पूछने के बाद हम उनके भव्य घर पहुँच गए। पूर्व मंत्री के तौर पर उनको सुरक्षा मिली हुई है। घर के कैंपस मे ही दो होटल बने हुए हैं। श्रीमती वखलू बड़े खुलूस और एहतराम के साथ मिलीं और हम उनके बेहद खूबसूरत लॉन में जम गए। वहीं उनके भाई की पत्नी डॉ. विमला धर भी थीं। नब्बे के दशक में खेमलता जी और उनके पति 53 दिन हिजबुल के आतंकवादियों की क़ैद मे रहे थे और डॉ। विमला धर के पति तथा मेडिकल कॉलेज के विभागाध्यक्ष डॉ. एस.  एन.  धर 83 दिन अल-उमर की क़ैद में।

वखलू 370 हटाने के निर्णय को सकारात्मक मानती हैं लेकिन राज्य का दर्ज़ा छीनकर केंद्र शासित प्रदेश बनाने के निर्णय को अपमानजनक। इसका अंदाज़ा मुझे था। 7 अगस्त को ही पुणे से उनके पुत्र भारत वखलू का फोन आया था और उन्होंने इस निर्णय की बधाई दी थी मुझे, मैं असहज था जो शायद उन्होंने एक्सपेक्ट नहीं किया था। फिर नब्बे के दशक की बातें निकलती हैं। कई क़िस्से, कहानियाँ। मैं इस वक्फे पर लिखा उनका संस्मरण पढ़ चुका था, कुछ सवाल थे, कुछ शंकाएं जो उनके जवाबों के बाद कुछ और उलझ गए, इसका विवरण यहाँ देना विषयांतर हो जाएगा तो वह अगली किताब में आएगा । अगले दिन राजबाग़ के अपने आलीशान बंगले में डॉ विमला धर अधिक वोकल थीं दिल्ली के समर्थन में। फ़ारूक़ अब्दुल्लाह को लेकर उनकी तल्खी आश्चर्यजनक थी - फ़ारूक़ उनके पति के मित्र और बैचमेट रहे थे!

देखें तो श्रीमती वखलू और डॉ. धर ने नब्बे के दशक मे कश्मीर तो नहीं छोड़ा लेकिन उनकी अगली पीढ़ी ने अपना भविष्य कश्मीर में नहीं ढूंढा। दोनों लोग यहाँ अकेले रहती हैं। विमला धर बड़े गर्व से अपने सेवक से मिलवाती हैं - इसे मैने झारखंड से पकड़ा है। उनके इकलौते सुपुत्र अमेरिका मे डॉक्टर हैं। जिस दिन हम मिले उसी दिन उन्हें आना था, अगले दिन हम जब किताब लौटाने गए तो उनसे मुलाकात हुई। इतना सख्त और अनवेलकमिंग चेहरा कि हमारे दिमाग मे बस इतना ही आया कि अच्छा हुआ डॉ धर का लंच का प्रस्ताव हमने विनम्रता से ठुकरा दिया था। हालाँकि उस वक्त तो हमारा लालच श्रीनगर का प्रसिद्ध आदूज रेस्त्रां था। आदूज को महाराज हरि सिंह ने अंग्रेजों का होटल व्यापार पर एकाधिकार तोडऩे के लिए शुद्ध कश्मीरी रेस्त्रां के रूप मे स्थापित कराया था। आमतौर पर यहाँ खूब भीड़भाड़ रहती है लेकिन इस बार न खाने वाले थे न व्यंजनों की वह सूची। खैर, नब्बे के दशक मे जो पण्डित परिवार घाटी से नहीं गए उनमें से ज़्यादातर ने अपने बच्चों को बाहर भेज दिया। छानपोरा में एक ऐसे ही प्रो. रैना के परिवार से हम मिले थे। ये आमतौर से कश्मीर के एलीट ब्राह्मण परिवारों में से हैं। लेकिन बर्बरशाह इलाके मे साधारण से घर मे रहने वाले संजय टिक्कू जैसे लोगों के पास यह विकल्प नहीं था। संजय घाटी मे रह रहे पण्डितों के संगठन 'कश्मीरी पण्डित संघर्ष समिति’ के अध्यक्ष हैं। हब्बा कदल स्थित गणेश मंदिर इन पण्डितों के मिलने की जगह भी है और संगठन का दफ्तर भी। वहाँ से पूछते-पूछते उनके घर पहुँचते हैं। कश्मीर में एक तरह का बन्द समाज होने से एक फ़ायदा यह है कि आप अगर किसी मोहल्ले मे पहुँच जाएँ तो पूछते-पूछते किसी का घर ढूँढ़ सकते हैं। संजय हमें देखकर पहले तो आश्चर्यचकित होते हैं फिर बोल पड़ते हैं - दिल्ली वालों को कश्मीर में मुश्किल हालात का इंतज़ार होता है, आप भी आ गए हेडलाइन ढूँढऩे। उनसे पहले कई मुलाकातें हो चुकी हैं दिल्ली और श्रीनगर में, इस तल्खी को भी समझता हूँ तो बस मुस्कुरा कर कहा - कोई इंटरव्यू नहीं संजय भाई, बस इस बार दोस्तों का हाल पूछने आ गया। बर्फ़ एकदम से पिघलती है और उनके छोटे से कमरे में हम सब पसर गए।

संजय बेहद स्पष्टवादी हैं। टेलीग्राफ मे उनका इंटरव्यू पढ़ चुका था। वही दुहराया उन्होंने। दिल्ली समझ नहीं पा रही उसने क्या किया है। घाटी मे बेहद गुस्सा है। इस बार हालात नब्बे से भी बदतर होंगे, पण्डितों के लौटने की तो बात छोडि़ए, जो हैं उन्हें भी जाना पड़ सकता है। अगले सौ साल के लिए उलझ गई है कश्मीर समस्या। मैं कहता हूँ कि श्रीमती वखलू तो कह रही हैं कि सही निर्णय हैं तो संजय मुस्कुरा कर कहते हैं - उनका कश्मीर में स्टेक क्या है अब? बच्चे बाहर हैं। करोड़ों की प्रापर्टी जिस दिन चाहेंगी बेचकर कहीं चली जाएंगी। उनसे पूछिए जिन्हें रहना है यहाँ। मैने उसी क्षण वांचू परिवार से मिलना तय किया।

कश्मीर का इतिहास पढ़ते हृदय नाथ वांचू के नाम से परिचित हुआ था। 25 मई 1925 को श्रीनगर के हब्बा कदल के मालियार में एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे वांचू छात्र जीवन में ही डोगरा शासन के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो गए थे और दो बार जेल हो आए थे। कश्मीर छोड़ो आन्दोलन में उन्हें एक साल की जेल हुई थी। एस. पी. कॉलेज से स्नातक की परीक्षा पास कर उन्होंने समाजसेवा के लिए रेड क्रॉस सोसायटी चुनी और जम्मू-कश्मीर में वरिष्ठ चिकित्सकों के साथ मिलकर अनेक योजनाएँ लागू करवाने में प्रमुख भूमिका निभाई, फिर 1952 में श्रीनगर नगरपालिका में मुलाज़िम हुए। वहाँ ट्रेड यूनियन गतिविधियों तो सफ़ाई कर्मचारियों की यूनियन बनवाई और उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ी। जब उनकी बातों का सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा तो सफाई कर्मचारियों के साथ सचिवालय पर उन्होंने बड़ा प्रदर्शन किया जहाँ कर्मचारियों ने शहर की सारी गंदगी डाल दी तो प्रशासन चेता और न केवल सर पर मैला ढोने की परम्परा ख़त्म हुई बल्कि नियमित नौकरी से लेकर इंश्योरेंस तक की सुविधाएँ मिलीं। बटमालू में सफाई कामगारों के बच्चों के लिए स्कूल खोला और इसके बाद उन्होंने 'श्रीनगर म्यूनिसपल इम्प्लाइज़ यूनियन’ गठित की जिसकी शाखाएँ पूरे प्रदेश में फैली थीं. यह एटक से जुड़ी यूनियन थी, वांचू कालांतर में महासचिव बने और इंडो-यूएसएसआर फ्रेंडशिप सोसायटी सहित कई संस्थाओं में महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं। इसके साथ ही, उन्होंने साठ के दशक में समाज के ग़रीब वर्गों के लिए एक कंज्यूमर सोसायटी बनाई जो नो प्रॉफिट नो लॉस के आधार पर उचित मूल्यों पर लोगों को ज़रूरियात के सामान उपलब्ध कराती थी। 1989 में जब कश्मीर में आतंकवाद शुरू हुआ तो कश्मीर छोडऩे की जगह उन्होंने वहाँ सुरक्षा बलों द्वारा कश्मीरियों के मानवाधिकारों के हनन के मुद्दे पर लड़ाई छेड़ दी।  65 साल के होते हुए भी वे उन मुश्किल हालात में घर से निकलकर दूर-दराज़ के गाँवों में जाते, पुलिस और सुरक्षा बलों द्वारा गैर-कानूनी तरीके से गिरफ्तार किये और मार दिए लोगों के आँकड़े जुटाते और हेबियस कार्पस मुक़दमे दायर कर उनका हिसाब माँगते। बलराज पुरी लिखते हैं कि कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघनों के दस्तावेज़ी करण का काम जितनी निष्पक्षता और जितने व्यवस्थित तरीके से हृदय नाथ वांचू ने किया उतना किसी ने नहीं किया। वह विभिन्न देशों के दूतावासों, प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपति को मानवाधिकारों के हनन के बारे में पत्र लिख रहे थे और वहाँ आकर कश्मीर के ज़मीनी हालात को देखने की अपील कर रहे थे। वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने कुनान पोषपुरा मामले में बलात्कार पीडि़तों के मामले दर्ज़ कराए थे। अल्पसंख्यकों की मदद के लिए उन्होंने 'हिन्दू वेलफेयर फोरम’ भी बनाई थी जहाँ वह भयग्रस्त अल्पसंख्यक समुदाय की सहायता के लिए सदा तत्पर रहते थे। ज़ाहिर है सरकारें उन्हें पसंद नहीं करतीं थीं। आज के दौर में भी तो ऐसे लोगों को एंटी नेशनल कहे जाने का चलन है ही। 5 दिसम्बर 1992 को जब अयोध्या में हिन्दूवादी ताक़तों ने बाबरी मस्जिद के चारो ओर घेरा डाला हुआ था श्रीनगर के जवाहरनगर और करण नगर के बीच का क़िस्सा मुख़्तसर सा है। तीन लोग आए, दो ऑटो में और एक स्कूटर पर। उस दिन हृदय नाथ जी जोड़ों के दर्द से परेशान थे लेकिन जब उन्हें बताया गया कि एक सफ़ाई कर्मचारी के बेटे को पुलिस उठा ले गई है तो वह नि:शंक ऑटो में बैठ के चल दिए। आधे घंटे बाद जब सवा दस बजे घर का फोन बजा तो उनके पुत्र कुमार वांचू के लिए ही नहीं किसी के लिए भी भरोसा करना मुश्किल था कि वह अब दुनिया में नहीं रहे। देखते-देखते ख़बर आग की तरह फैल गई। अगले दिन जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद तबाह की जा रही थी तो हृदय नाथ जी के घर के सामने लाखो लोगों का हुजूम उन्हें श्रद्धांजलि देने पहुँचा। परिवार को लगा कि शवयात्रा निकालने पर लोगों का गुस्सा बाहर आ सकता है तो घर के पास डीएवी स्कूल के मैदान में उनकी अन्तिम क्रिया की गई। उस जगह पर ही उनकी समाधि बनी हुई है। न्यूयार्क टाइम्स में पी एम वरदराजन ने लिखा - 5 दिसम्बर को जब अयोध्या में हिन्दू कट्टरपंथ और फ़र्ज़ी  राष्ट्रवाद की ताक़तों के अयोध्या की मस्जिद पर हमले के एक दिन पहले कश्मीर के सबसे प्रमुख मानवतावादी हृदय नाथ वांचू की तीन अनजान बंदूकधारियों ने हत्या कर दी। ह्यूमन राइट्स वाच की एक रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि वांचू की हत्या तत्कालीन राज्यपाल गिरीश सक्सेना के कहने पर एक भारतीय अधिकारी द्वारा करवाई गई थी क्योंकि वे गैरकानूनी हत्याओं के अनेक मामलों की पैरवी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में कर रहे थे लेकिन नंदिता हक्सर का मानना है कि उनकी हत्या आतंकवादियों ने की क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि कोई पण्डित कश्मीर के प्रतिनिधि के रूप में सामने आये ।ऐसे लोग सबके अप्रिय होने के लिए अभिशप्त हैं शायद। उनकी हत्या के ज़ुर्म में आशिक़ हुसैन फ़क़तू उर्फ़ डॉ. कासिम को 1993 आजीवन कारावास की सज़ा हुई और उसके बाद से वह जेल में है। प्रसंगवश बताता चलूँ फ़क़तू दुख्तरान-ए-मिल्लत की लीडर आशिया अंदराबी का पति है।

वांचू परिवार से मेरी मुलाक़ात पहले भी हो चुकी थी - कुमार साहब से और अमित से भी। अमित मेरे साथ जयपुर के समानांतर साहित्य समारोह में भी कश्मीर पर एक सेशन में थे। दरवाज़ा श्रीमती वांचू ने खोला। देखते ही बोलीं एन डी टी वी पर आपने बिल्कुल सही बोला था। कुमार साहब उसी एहतराम से मिले। 370 हटाने को लेकर वह हँसते हैं। उनका मानना था कि अनुच्छेद 370 हटाने और राज्य को केन्द्रशासित प्रदेश में बदलने के पीछे के पीछे भारत-पाकिस्तान और अमेरिका का कोई मिला जुला गेमप्लान है और सरकार ये निर्णय जल्दी ही वापस ले लेगी। कुमार साहब आगे कहते हैं - प्लेबिसाईट का जहाँ तक सवाल है आप सोचिये मान लीजिये 65 प्रतिशत लोग चुनें और 35 प्रतिशत लोग हिन्दुस्तान को तो क्या होगा? अगर जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान में चला गया तो वे 35 प्रतिशत लोग विद्रोह कर देंगे और समस्या फिर वहीं की वहीं चली जाएगी। हम आज़ाद कश्मीर या गिलगिट-बाल्टिस्तान के लिए लड़ेंगे और वहाँ के लोग बोल दें हम पाकिस्तान के साथ ख़ुश हैं, फिर आप क्या करेंगे? क़ब्ज़ा हो भी गया तो नई समस्या शुरू हो जाएगी। दूसरी समस्या यह है कि जम्मू के लोगों को साथ लेने की कोशिश नहीं की गई। जब तक ऐसा रहेगा कि कुछ हिस्से खुद को उपेक्षित महसूस करेंगे शान्ति नहीं होगी। सबसे अच्छा होता कि भारत और पाकिस्तान लाइन ऑफ़ कंट्रोल को स्थायी मान लेते और जम्मू तथा कश्मीर में 370 के तहत जो स्वायत्ता का वादा किया गया था उसे लागू किया जाता। उसमें जम्मू के लिए भी बात होनी चाहिए. दिक्कत यह है कि लड़के मर रहे हैं और लोग लाशों पर राजनीति करते हैं। जो अपने बच्चे खोते हैं उन्हें पता है कि यह दर्द क्या होता है। नब्बे नहीं होता अगर इतनी राजनीति नहीं होती. पण्डित भी हिस्सा बने उस राजनीति का। ग़लती उनकी भी है। आज 'पनुन कश्मीर’ दक्षिणपंथी राजनीति का एक खिलौना बन गया है। वे अलग राज्य मानते हैं। चलो मान लो उनको अलग राज्य मिल गया। फिर? हमारे लोग न बेकरी चला सकते हैं न चावल उगा सकते हैं न मैकेनिक बन सकते हैं। अलग ज़मीन मिलने पर घर बना सकते हो आप। समाज सबसे मिलकर बनता है।’

वहाँ से निकल कर हम निगीन झील के इलाके में जाते हैं जहाँ मीरवायज़ रहते हैं। हजरतबल के पीछे से डल को देखना मुझे हमेशा से रोमांचित करता है। खूब भीड़भाड़ है। कफ्र्यू जैसे पिकनिक बन जाता है कश्मीरियों के लिए। इस बार तो उन्होंने सविनय अवज्ञा की राह चुनी है। स्कूल कॉलेज दुकानें सब बन्द रखी गई हैं तो परिवार के साथ लोग यहाँ-वहाँ निकल गए हैं। वहाँ लोगों से बात होती है तो दो बातें एकदम साफ़ निकाल कर आती हैं -भारत के इस निर्णय के प्रति गुस्सा और यह अफवाह की मीरवायज़ समझौता कर चुके हैं। अफ़वाहें कश्मीरी के जनजीवन का हिस्सा हों जैसे। अर्थशास्त्री और पूर्व मंत्री हसीब द्राबू कहते हैं -कश्मीर में ख़बर ग़लत हो सकती है, अफ़वाह नहीं। वहीं ख़बर मिलती है कि फ़ारूक़ अब्दुल्ला नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेताओं से मिलने के बाद प्रेस से मिलने वाले हैं। हम भागकर गुपकर रोड पहुँचे। फ़ारूक़ के घर के सामने पत्रकारों की भीड़ थी। फ़ारूक़ आए और जो कुछ कहा उसमें 370 का कोई जिक्र नहीं था। अगले दिन शहर मे चर्चा था कि फ़ारूक़ का केंद्र के साथ समझौता हो गया! जाना हमें पुलवामा भी था जहाँ मित्र निदा नवाज़ इंतज़ार कर रहे थे, लेकिन न उनका फोन मिल सका न ही श्रीनगर के दोस्तों ने बिना संपर्क जाने की इजाजत दी। दक्षिण कश्मीर से लागतार बुरी खबरें आ रही थीं। उधर तनमर्ग से आए खुर्शीद ने बताया कि लगातार घुसपैठ की खबरें हैं, कई मुजाहिद और आर्मी वाले मारे गए हैं। सरकारी आंकड़ा था कि कोई 40 लोग आए हैं तो स्थानीय अफवाह हजार से ऊपर की थी।

मैने ढेरों ग्राउंड रिपोर्ट्स पढ़ी थीं जाने से पहले, लौटने के बाद भी कई पढ़ चुका और तय किया था कि कोई ग्राउंड रिपोर्ट नहीं लिखूँगा। ग्राउंड इतना असमतल है कश्मीर का कि सब अपने-अपने हिस्से का ही बता सकते थे, उसको पूरा मानना धोखादेह होगा। लौटते हुए जावेद ने एयरपोर्ट पर कहा - पता नहीं घुसपैठ की ख़बर कितनी सच है। मैं डरा हुआ हूँ। अगर ऐसा है तो बर्फ़ पिघलने के बाद यह बहुत तेज हो सकता है। नब्बे से भी भयावह मंज़र हो सकते हैं।  बहुत मुश्किल होगा अगर ऐसा हुआ तो।

मैं भी दिल्ली में बर्फ़ पिघलने के इंतज़ार में हूँ।

 

 

कश्मीर पर एक कविता

 

एक आवाज़ बेआवाज़

 

एक

मानसबल झील पर मुँह उचका कर देखती होंगी मछलियाँ

डोंगियों में बहते उदास चेहरे

पचास दिनों से कहकहे के इंतिज़ार में

मछलियों को तो कुछ समझ नहीं आता

रात के सन्नाटे में खीर भवानी से आती होगी कोई आवाज़

तो उदास हो जाती होंगी मछलियाँ?

 

दो

वलरहामा के पुराने शिव मंदिर में

क्या प्रार्थना करते होने इन दिनों रतनलाल?

तीस साल पुरानी वह उदास रात

सपनों में आती होगी रंग बदलकर

गूँजते होंगे कानों में नारे नए-पुराने

सस्ती शराब के टूटते हुए नशे में उभरता होगा कौन-सा दृश्य?

चिल्लाँ के लिए जुटाते लकडिय़ाँ

किसी चिता की याद

जाने तोड़ रही होगी

या कि जोड़ रही होगी।

 

तीन

मेरी अँगुलियों की तरह बेचैन होंगी उसकी आँखें

आख़िरी सिगरेट मसलता एश-ट्रे में

किस निगाह से देखता होगा कैमरे को रात के तीसरे पहर

कैमराज् जिसमें द$फ्न है तीस सालों का तरबतर इतिहास

श्रीनगर, माछिल, वंधामा, शोपियान

धूल और धुएँ से भरी कार में भटकता यहाँ से वहाँ

पथरीली आँखों में मुस्कुराता होगा शायद

कितने असहाय होते हैं एक मुर्दा शहर के ज़िंदा बाशिंदे!

 

चार

उधर से आती है एक आवाज़ पहचानी

और भीग जाता हूँ

अपना हाल बताने से पहले पूछते हैं मेरा हाल

मैं देश की राजधानी में हूँ

चौबीस घंटे बिजली

सुरक्षित सड़कें

एक डंडी कम होती है सिग्नल की तो गरियाता हूँ सिस्टम को

तिरालिस दिन बाद उनकी बैठक में बजा था फ़ोन

तिरालिस दिन बाद खुली थी धूल भरी खिड़की

तिरालिस दिन बाद पूछा था उन्होंने दोस्तों का हाल

और आप लोग?

गाढ़ी उदास हँसी में

हिंदी के उस कश्मीरी कवि ने कहा—

ज़िंदा हैं बस

और किताबों से भरी मेरी आलमारी ख़ामोश हो गई।

 

पाँच

लिद्दर बहती होगी उसी ग़ुस्से से

वैसे ही उठती होगी कराह और गुर्राहट की आवाज़

मट्टन पर वैसे ही छाया होगा भूरा आबशारी आकाश

वैसे ही खिले होंगे फूल हरियाली की वैसी ही क़ालीन

वैसे ही उदास होगी पत्थर मस्जिद उस पार देखती ख़ानक़ाह को

वैसे ही फ़ौजी कहकहे मुजाहिद मंज़िल में

वैसे ही मकान ख़ाली हब्बा कदल के

बंद दुकानों में वही चीज़ें पुरानी

बंद होंठों में वही ग़ुस्सा पुराना

वही पुरानी उदासी वीरान आँखों में

सब वैसा ही दिल्ली में

वैसा ही होगा लाहौर

जो बदलता है

कहाँ बदलता है?

 


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