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दिसंबर - 2019

इरशाद कमिल की पांच कविताएं

इरशाद कमिल

कविता

 

 

ग़लत जीने का स्वाद

 

वो मेरी पसंद की थी

रह नहीं सकी मेरी पसंद की

उसके भीतर से निकल

आये ज्वालामुखी

कोयले की खदानें

सोना-हीरा-तेल

पोटाश-नमक और ज़हर

 

खिलौने और किताबें

किताबों के पात्र

अनलिखे पत्र

टूटे कांच के बर्तन

काँटे और रिश्ते

 

जंगल साफ़ हो गये

उसकी देह से

उसकी ऊंचाइयों से

बर्फ पिघल गयी

सीढ़ी-सपाट-सख़्त हो गई

वो उसी तरह रह नहीं सकी

मेरी पसंद की

जैसे मैं नहीं रहा वही

 

दूधवाले की घण्टी

गैस सिलेंडर की रसीद

बिजली के बिल

पानी के जाने और

ग़ुस्सा आने के बीच

कविता लिखता हुआ

 

रंग बदलता हुआ

मौसम बदलता हुआ

समय, गणित, वृत्त, सप्तऋषि

और आकाश-गंगायें

 

ये हमारे जीवन का वो अध्याय है

जिसके पृष्ठ कोरे हैं

इतने लिखे या फिर

जगह नहीं एक और बिंदु की भी

हमारी मात्रायें

उलझ गयी हैं आपस में

 

ज़्यादा सही जीने की ललक में

ग़लत जीने का स्वाद जाता रहा

 

अब

उसकी एक मुट्ठी में

समंदर भर ग़ुस्सा है

मेरी एक मुट्ठी में

बादल भर ख़ामोशी

दोनों एक-

एक मुट्ठी ख़ाली हैं हम ।

 

तिनके

 

ये वो नहीं

जिससे प्रेम किया मैंने

ये वो है

जिससे प्रेम करना है अभी

जो अकेला कर रही है

दु:ख दे रही है

दर्प-सर्प सी प्रेम की इच्छा

पुरानी इच्छा का अजनबी होना

नयी इच्छा का जन्म

मौसम बदलने का वहम है

जबकि नये मौसम में भी

वही होगा जो पुराने में हुआ

बस आग रास्ता बदलेगी

भूख से भूख पैदा होगी

बन्दूक से बन्दूक

गुलाब से गुलाब

देह से देह, शब्दों से शब्द

 

ये मामूली जानकारी

मामूली रहने नहीं दे रही हमें

भीड़ के विरोध में खड़ा कर रही है

 

हम नजऱ में हैं

मगर नींद नहीं नियमित नहीं

सपने नहीं तिनके हैं

तिनकों से बनता है घोंसला

घर-समाज-देश

जिसके प्रेम को चम्मच से पिला रही है

एक दर्प-सर्प सी इच्छा

मन डूबता है

दिन डूबता है

व्यापार डूबता है

आधार डूबता है

कश्ती डूबती है

ख़ुदपरस्ती डूबती है

 

हर डूबने वाले को

हर तिनका सहारा नहीं देता ।

 

अच्छा हुआ

 

अच्छा हुआ

तुम्हें देख लिया खिड़की से

आकाश देखते हुये

मोहल्ला, मोहल्ले जैसा हो गया

वसूली हो गयी

 

अच्छा हुआ

बात हो गयी कोई

अख़बार के चुटकुले जैसी

हंसी, धूप हो गयी

हवा शुद्ध हो गयी

शोर कम हो गया

मुनाफ़ा हो गया

 

अच्छा हुआ

प्रेम सरीखा कुछ हुआ

आभास या सचमुच

मिटटी गीली हुई

ज़मीन हरी हुई

मरुस्थल जंगल हुआ

नयी शाखा खुली

 

अच्छा हुआ

जंगल में तुमने मुझे मार दिया

मिट्टी लाल नहीं हुई

पंछियों ने शोर नहीं किया

दुनिया ख़त्म नहीं हुई

 

 

चूमना एक राजनैतिक चाल है

 

तुम्हें देखा

आँख ख़ुश हुई

सोचा, दिमाग़

बात हुई तो

भाषा ख़ुश ही

चूमा तो होंठ

 

हिस्सों में बँटी हुई खुशियाँ

बाँटने लगीं समय को

चकोरख़ानों में, कोई

चकोर सियाह कोई सफ़ेद

लाल, पीला, भगवा हरा या नीला

जय निशान और मोहर की लीला

देखना निशानदेही है

लाभ के आभास की

नज़र का चकोर

बाँध देता है सीमा

कहाँ से कटेगा जंगल

गेहूँ की खड़ी फ़सल पर

बरसात की चिंता किये बिना

सोचना प्रक्रिया है

नियम से कपड़े उतारने की

मोह को-नेह को

धरती की देह को

नंगा करके संवारने

सजाने-बजाने की

बात संसद की तरह साफ़ नहीं,

खम्बों का जाल है

चूमना

एक राजनैतिक चाल है ।

 

इन्सान

 

उसे आती थी बदलने की कला

इन्सान था वो

 

बदलने की कला तब भी होती उसमें

यदि पेड़ या पत्थर होता

समय या मौसम होता

हवा या समंदर, गाँव या शहर

धूप या धरती होता

 

तब कोई नहीं सोचता

उसके बदलने के बारे

न किसी को चिंता होती

न चर्चा, न राय, न एतराज़

न अफ़सोस, न विरोध

और न समय होता

धरती, हवा या मौसम के

बदलाव पर बात करने का

 

इन्सान था वो

उसे घड़ी के कांटे की तरह चलना था

पटरी पर मुस्कान के साथ

विज्ञापन वाली

निजी और भावनात्मक

नुक्सान के साथ समाज का

सबसे सही इंसान बनते हुये

मूर्ख बने रहना था

 

इन्सानों में भगवान् की गाय

या भगवान् बनते हुये।

 

इरशाद लोकप्रिय सिनेगीतकार हैं। मूलत: साहित्य संसार के नागरिक है। शायद कभी पूरी तरह लौटें। 'पहल’ में और दूसरी पत्रिकाओं में भी कविताएं छपीं। संग्रह की प्रतीक्षा।

सम्पर्क - मुंबई

 


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