रवीन्द्र वर्मा की कविताएं
रवीन्द्र वर्मा
कविता
घाटी का रेप
ठंड कठोर थी वह नशे में धुत्त था जब वह बन्दूक लिए पीछे से किसी घर में घुसा वह किसी इंतज़ार में सो गई थी अस्त-व्यस्त बाल खोले वह हल्के से मुस्कुरा रही थी जैसे कोई सपना देख रही हो वह उस पर बाज़ की तरह झपटा: पता नहीं चीख़ पहले बाहर आई जैसे सपने में या वह पहले अन्दर आया जैसे सपने में फिर वह पलंग पर चित उतरा हारा हुआ सोया हुआ वह जब पलंग से उतरी उसके चेहरे पर आँसू थे
चुप सन्न आँसू तुरंत सूख गए जब वह एक तरफ बढ़ी- उस तरफ़ बन्दूक पड़ी थी चुप सन्न
मारुति भोजन है
उसने सपना देखा कि वह मारुति तोड़-तोड़कर खा रहा है उसने हड़बड़ाकर आँखें खोल दीं: वह फुटपाथ पर अपनी जगह लेटा था वह उठकर बैठ गया और सड़क की ओर देखने लगा जहाँ गाडिय़ाँ सर्र-सर्र आ-जा रहीं थीं
उसका पेट ख़ाली था पिछले हफ़्ते उसकी छटनी हो गई थी क्योंकि गाडिय़ों की बिक्री बैठ गई थी
आधी रात थी वह सड़क को घूर रहा था यदि कुछ देर गाड़ी न होती तो उसे पेट में शूल सा उठता लगता जैसे वह आँखों से गाड़ी खा रहा हो
यह अजीब सभ्यता थी जिसमें कुछ लोगों को गाड़ी की सवारी ज़रूरी थी ताकि बाकी लोग रोटी खा सकें
मोहम्मद, मोहम्मद
रामू और मोहम्मद एक खेत में मज़दूरी कर रहे थे गर्मियों के दिन थे, धूप कड़ी थी दोनों ने अपनी कमीज़ें उतारकर रख दी थीं जब एक फ़ोन बजा, मोहम्मद दौड़ा - रामू उसे बतियाते देखता रहा मोबाइल पर ईष्र्या से जब मोहम्मद फ़ारिग होने एक तरफ़ गया रामू उसकी कमीज़ की तरफ़ गया - उसने मोबाइल उठाकर अपनी जेब में रख लिया
कुछ देर बाद मोबाइल फिर बजा मोहम्मद की जेब ख़ाली थी उसने रामू की जेब की ओर देखा - मोबाइल झपट लिया और एक झापड़ दिया
रामू खेत से लगे गाँव में गया उसने लोगों को बताया कि एक कटुए ने उसे मारा चालीस लोग खेत की ओर दौड़ पड़े - मोहम्मद उसके पैरों की फुटबाल हो गया
जब अस्पताल में उसकी जान निकली तो कहीं ख़ून नहीं निकला था मौत ख़ामोश थी सिर्फ उसकी जेब में मोबाइल बोल रहा था: मोहम्मद, मोहम्मद!
यह दुनिया
मैं जान गया हूँ कि यह दुनिया अपनी बनाटव में कुछ टेढ़ी-मेढ़ी उल्टी-सीधी ऊलजलूल है मेहबूबा की लटों के पेंचो-ख़म की तरह पर मेरी हिमाकत देखिए कि मैं लटें सुलझाने में लगा हूँ- वह भी इन कविताओं से हालांकि मैं जानता हूँ कि मैं दरअसल अपनी तकलीफ़ बयान कर रहा हूँ इस उम्मीद में कि इसका रिश्ता आपकी तकलीफ़ से है
खाँसी
सुबह-सुबह बाग़ में पुराना पीपल कुछ अनमना लगा।
'दद्दू, क्या हुआ? मैंने पूछा। 'कुछ नहीं, भैया’ वह बोला, 'ढलती उम्र की साँवली छाया चेहरे पर उतर आई है।’ मैंने देखा: उसकी कुछ शाखें नंगी थीं, बाकी का हरा कुछ फीका था। 'तभी’, मेरे मुँह से निकला। 'क्या?’ उसके पत्ते खडख़ड़ाए। 'बस्ती में कुछ लोग खाँस रहे थे।’ 'क्यों?’ 'अरे दद्दू, जब तुम हमारी गंदी हवा पीते हो तभी तो हमें ऑक्सीजन मिलती है।’ 'अच्छा!’
अगली सुबह पीपल का हरा उजला था और नंगी शाखों पर कोयलें आ गईं थीं।
वरिष्ठ कवि कथाकार रवीन्द्र वर्मा का सबसे नया कविता संग्रह सेतु प्रकाशन में आया है। एक लम्बी कविता पहल में छप चुकी है। लखनऊ में रहते हैं। संपर्क - मो. 9839434149
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