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अक्टूबर - 2019

घटाटोप का समकाल और स्त्री लेखन की पदचाप

प्रभात मिलिंद

क़िताबें

 

स्याही की गमक

यादवेंद्र का अनूदित कहानी संग्रह 'स्याही की गमक’

 

 

 

"Every act of communication is a miracle of translation." - Ken Liu.

अपनी मौलिक भाषा में कुछ भी पढऩे का एक भिन्न और अलहदा आनंद है। और, यदि वह सामग्री कोई साहित्यिक कृति हो तब तो यह सुख निर्विकल्प और अकथ हो जाता है। किंतु एकाधिक भाषाओं के जानकारों की भी अपनी सीमाएं हैं। विश्व में विविध भाषाओं में रचे गए विपुल साहित्य के पारस्परिक अतिक्रमण से परिचित हुए बिना हम हिंदी लेखन की वैश्विकता का समुचित संधान नहीं कर सकते। इस स्थिति में विश्व-भाषा के संदर्भ में हिंदी के समकालीन लेखन के स्टीरियोटाइप होने की आशंका उतनी ही प्रबल हो सकती है जिस हालत से समकालीन बांग्ला लेखन फ़िलहाल अन्य भारतीय भाषाओं के साथ जूझ रहा है। हम एक साथ समस्त विश्व भाषाओं के जानकार हो भी नहीं सकते। भाषाओं के बीच विभेद की यह आधारभूत मानवीय प्रवृति कमोबेश हर देश और काल में उपस्थित रही है। पिछड़े, विकासशील अथवा विकसित तीनों ही देशों के परिप्रेक्ष्य में यह बात समान मुखरता के साथ परिलक्षित होती रही हैं - ख़ास कर हम यदि बच्चों और स्त्रियों को किसी भी उद्देश्यपूर्ण लेखन और ज़िम्मेदार समाज के केंद्र में रख कर देखें तो यह फांक कितनी भी बारीक़ हो, एक सजग पाठकीय दृष्टि से दिख ही जाती है। अनुवाद के महत्व और अनिवार्यता पर हमारी पाठकीय निर्भरता इसलिए भी बढ़ जाती है।

इस दृष्टि से हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ अनुवादक और अन्य विधाओं के सिद्धहस्त वरिष्ठ लेखक यादवेंद्र का संभावना प्रकाशन, हापुड़ से सद्य प्रकाशित अनूदित कहानियों का संग्रह अपने सार्थक हस्तक्षेप और अनूठी प्रस्तुति के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस संग्रह में विश्व की विभिन्न भाषाओं की इकत्तीस प्रतिनिधि कहानियाँ शामिल हैं जिन्हें स्त्री कहानीकारों ने लिखा है। प्रकारांतर में यह स्त्रियों की सार्वभौमिक परिस्थितियों और प्रतिकूलताओं का एक विश्वव्यापी वक्तव्य है। लेकिन इन कहानियों का पाठ केवल जेंडर राइटिंग की हदों में महदूद रह कर करना मुनासिब नहीं होगा। स्त्रियों की अपनी अन्तर्दृष्टि और रचना का अपना संसार होता है जो आनुभूतिक धरातल पर कहीं अधिक विस्तृत और गहरा होता है। यादवेंद्र ने इस संग्रह में शामिल कहानियों के ज़रिए उनके अनुभव-संसार और सामाजिक-मानसिक अंतद्र्वद्व को रेखांकित करने का उल्लेखनीय प्रयास किया है। सनद रहे, आज की स्त्री अपनी अस्मिता के संघर्ष के साथ-साथ देश और दुनिया की राजनीति, विज्ञान, अर्थव्यवस्था और समाजशास्त्र से जुड़े प्रश्नों को भी संबोधित कर रही है। चेतना, मनुष्यता, अनुभव और सहिष्णुता के धरातल पर भी वह पुरुष की तुलना में अधिक समृद्ध और पूर्वाग्रह मुक्त है। उसकी इन विशेषताओं की चर्चा लेखक ने संग्रह की भूमिका में भी की है।

वैसे तो लूज टर्म में अनुवाद का सर्वमान्य आशय भाषा के रूपांतरण, भाषांतरण और लिप्यन्तरण तीनों से ही है लेकिन इस रूढ़ अर्थ की परिधि से बाहर लेखन के व्यापक सन्दर्भ में इसका अर्थ मानवीय संवेदनाओं के विस्तार और मानवीय सरोकारों की एकात्मकता के शायद ज़्यादा क़रीब है। 'स्याही की गमक’ की कहानियों को भी हमें इसी रोशनी में पढऩे की ज़रूरत है। शीर्षक के अतिरिक्त लेखक ने संग्रह के आवरण पृष्ठ पर 'औरत की नज़र से दुनिया’ नाम का जो कैप्शन दिया है, वह संग्रह के वैचारिक धरातल और उनमें शामिल कहानियों के चयन की तार्किकता को समग्रता से प्रकट करता है। संग्रह में इरीट्रिया जैसे अत्यंत छोटे और पिछड़े अफ्रीकी देश से लेकर अमेरिका जैसे सत्ता और पूंजी से संपन्न देश की कहानियाँ शामिल हैं। भले ही ये देश-देशांतर की कहानियाँ हैं लेकिन स्त्री-जीवन के परिप्रेक्ष्य में इन कहानियों में एक अलक्षित साम्य है। यह साम्य पृथ्वी के सुदूर कोनों में अपने स्थूल और सूक्ष्मतम दोनों ही रूपों में उपस्थित है, और यही साम्य इस संग्रह को एक  विशिष्ट पक्षधरता भी देता है।

मिसाल के तौर पर मरजिए मेशकिनी की ईरानी कहानी 'बच्ची के औरत बनने का दिन’ का ज़िक्र किया जा सकता है, जो इत्तेफ़ाक़न संग्रह की पहली कहानी भी है। यह कहानी संवादों के साथ शुरू होती है और संवादों के साथ ही ख़त्म भी होती है लेकिन अपने मेटाफ़र्स के कारण यह कथ्य में अपने जॉनर की अन्य कहानियों से बिल्कुल भिन्न और बहुत हद तक एक प्रयोगधर्मी रचना मानी जा सकती है। चूंकि मरजिए मेशकिनी फ़िल्म-निर्माण के क्षेत्र से भी जुड़ी हैं, ज़ाहिर है कि कहानी भी अपने पढऩे वालों के सामने दृश्य-बिंबो की तरह गुजरती है। यह कहानी उस सामाजिक जड़ता की ओर संकेत करती है कि जेंडर के मुद्दे पर मध्य एशिया से दक्षिण एशिया तक हमारी पितृसत्तात्मक विचारों  की जड़ें हमारी जीवन पद्धति में कितने गहरे रूप में पैबस्त हैं! और, इस असंगत मान्यता की क्रमवार दृढ़ता के उपक्रम में एक स्त्री का दूसरी स्त्री के ख़िलाफ़ इस्तेमाल कैसे-कैसे हथकंडों के ज़रिए किया जा रहा है! हव्वा जब अपनी दादी से पूछती है कि 'यह क्या बात हुई, मैं सोई तो बच्ची ही थी और जब जगी तो औरत बन गई?’ तो, इस प्रश्न का उत्तर वह केवल अपनी दादी से नहीं बल्कि हमारी उस पूरी प्रजाति से पूछती है जिसे तथाकथित रूप से अपने सभ्य, प्रगतिशील और अन्तर्विरोधों से मुक्त होने का हसीन मु$गालता है। कहानी मूलत: हव्वा, उसकी अम्मी, दादी और उसके बचपन के साथी हसन के इर्दगिर्द घूमती है। हव्वा की ज़िंदगी में उसके नौंवे साल की घुसपैठ उसके ख़ुद के बचपन को अगवा करने के लिए होती है क्योंकि ईरानी समाज के रिवाज़ के मुताबिक नौ बरस की होते ही वह रातोंरात एक बच्ची से एक औरत में तब्दील हो जाती है। यहाँ तक कि उसकी दादी और अम्मी दोनों ही हसन के साथ उसके खेलने के हक़ से भी उसे मरहूम करने पर आमादा हैं, जिसके साथ किसी आम संगी-साथी की तरह वह फ़क़त एक रोज़ पहले तक खेलती रही थी। हव्वा बहरहाल इस रवायत से नावाकिफ़ है लेकिन पीढिय़ों से चली आ रही इस बंदिश के पीछे की परंपरा या तर्क को उसकी अम्मी और दादी भी नहीं जानती हैं। वे तो बस इन सामाजिक वर्जनाओं और निषेधों को किसी विरोध अथवा तार्किकता के बग़ैर पिछली नस्लों से अगली नस्लों तक फॉरवर्ड करने वाले पुर्ज़ों के रूप में कहानी में इस्तेमाल होती दिखती हैं।

प्रसंगवश संग्रह की दो अन्य कहानियों जॉयस केरोल ओट्स की अमेरिकी कहानी 'कहाँ हो तुम?’ और ब्रिजेट एटकिंसन की ब्रिटिश कहानी 'औरत और साइकिल’ का भी उल्लेख करना चाहूंगा। प्रथम दृष्टया 'कहाँ हो तुम?’ पति-पत्नी की सहयात्रा और 'औरत और साइकिल’ पत्नी के प्रति प्रेम के अधीर और तुलनात्मक रूप से शिष्ट दिखते एकाधिकारवाद या स्त्रीत्व के उत्सव की कथा है। लेकिन यह कहानियों का कदाचित सपाट और सतही पाठ है। अपने अन्तरपाठों ये मूलत: पुरुष की स्त्री पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की आदिम चेष्टा का सूक्ष्म और परिष्कृत विस्तार है। इस दृष्टि से इन कहानियों को 'बच्ची के औरत बनने का दिन’ से असंपृक्त करके देखा जाना संभव नहीं है। इन कहानियों में सि$र्फ टूल्स बदलते हैं, लेकिन मक़सद वही पुराने हैं। ख़ास बात यह है कि इन कहानियों की इतर व्याख्याएँ भी की जा सकती हैं। अच्छे अनुवाद की गुणवत्ता और विश्व साहित्य में गहरी रुचि का प्रमाण भी यही है, और यादवेंद्र जैसी पैनी दृष्टि रखने वाला और विश्व-साहित्य की गहरी और विस्तीर्ण समझ वाले कोई अनुवादक ही इस कार्य को इस सहजता और सफलता के साथ अंजाम दे सकता है।

यादवेंद्र की स्त्री पात्र समूची पृथ्वी पर अपनी सीमागत पीड़ा और स्त्रीत्व की घटाटोप विवशता के साथ उपस्थित हैं, लेकिन अपनी चिरंतरता और सर्वव्याप्ति के कारण वे हमारे इर्दगिर्द की और परिचित स्त्रियाँ हैं। इन कहानियों में विचार तो दिखते हैं लेकिन ये विचारों के दवाब से मुक्त कहानियाँ हैं। साथ ही इनमें वे तमाम सामाजिक और पारिवारिक परिस्थितियाँ भी दिखती हैं जिनके कारण पारंपरिक-मनोवैज्ञानिक भावनाजन्य अवरोध और वंचना की ज़मीन तैयार होती है। इन कहानियों की स्त्रियों के जीवन में प्रेम एक नैसर्गिक वैभव की तरह नहीं बल्कि एक परिघटना, उसके दुष्परिणाम और उस दुष्परिणाम से जुड़े संत्रासों की तरह आता है। जुकिस्वा वैनर की अफ्रीकन कहानी 'सूट का रखरखाव’ में टिली के जीवन में भी प्रेम किसी परिकथा सा नहीं बल्कि एक दु:स्वप्न की तरह आता है। दो अलग-अलग दुनिया में जीने की विवशता उसे थका ही नहीं देती बल्कि उसकी आत्मा को निचोड़ लेती है। वैसे भी स्त्री का प्रेम और जीवन संश्लिष्ट होता है, पुरुष की तरह उथला और एकरेखीय नहीं। अफ्रीका में श्वेतों की दमनकारी नीतियों के बैकड्रॉप में लिखी गई 'कोट का रखरखाव’ फिल, टिली और टेरी के प्रेम-त्रिकोण की कहानी है। फिल जहाँ संजीदा और ज़िम्मेदार है वहीं टेरी उन्मुक्त और बेफ़िक्र। दोनों दीगर कारणों से टिली की ज़िन्दगी की ज़रूरतें हैं। एक दिन टिली पति फिल के द्वारा प्रेमी टेरी के साथ प्रेम करती हुई देख ली जाती है। उसके बाद ही फिल के हाथों टिली की मानसिक यंत्रणा का एक अनवरत सिलसिला शुरू होता है जो ताउम्र चलता रहता है। यह स्थिति स्त्री और पुरुष की जटिल भावनात्मक अपेक्षाओं को परिभाषित करती है, लेकिन टिली को आख़िरकार जेंडर के खांचे में फिट कर के ही ख़त्म होती है।

कितना भी सभ्य प्रतीत होता समाज हो और मनुष्यता के प्रति परिपक्वता का कितना भी गोपन पाखंड हो, एक जेंडर के रूप में स्त्री को कमतर समझने का कोई भी अवसर यह समाज शायद ही कभी चूकता है। रोमान की खुमारी भरा वक़्त एक तय बिंदु पर पहुँच कर ठिठक जाता और फिर एक अप्रत्यक्ष निष्ठुरता में परिणत हो जाता है। वाई जेड चिन की मलेशियाई कहानी 'टोन’ की आख़िरी पंक्तियों में सैंडी की आत्माभिव्यक्ति में इस बात का एकदम साफ़ खुलासा होता है। 'स्याही की गमक’ की कहानियाँ की लेखक स्त्रियाँ हैं, इसलिए अपनी मौलिकता में ये स्त्री-स्वर की कहानियाँ हैं, लेकिन इन कहानियों की अंतर्वस्तु का वैविध्यपूर्ण चयन उनकी रचनात्मक सतर्कता को प्रकट करता है। तसल्ली की बस एक ही सूरत है कि इनमें से अनेक कथा नायिकाएँ किसी उद्धारक की प्रतीक्षा में नहीं हैं बल्कि अपने दु:खों के प्रतिकार की जिजीविषा से भरी हुई हैं।

क़त्ल किए जाने की ढ़ेर सारी तरकीबें है - प्रेम उनमें से एक है। जेंडर के लिहाज से ये दो तरफ़ा आज़माई जाने वाली तरकीब है। इसकी शिकार कई बार टिली बनती है तो कई बार लुईजा वेलेंजुएला की अर्जेंटीनियाई कहानी 'सेंसर’ का कथा नायक जुआन जैसा पुरूष भी बनता है।

'स्याही की गमक’ की एक बड़ी ख़ासियत कंटेंट, किरदार और भाषा के अर्थ में इस संग्रह का समावेशी होना है। श्री लंकाई कहानीकार पुण्यकांते विजयनायके की कहानी 'वानर सेना’ अपने नैरेटिव मे एक भिन्न आस्वाद की कहानी है। करुणा से मनुष्यता को पृथक करने वाली शै को हम जो चाहें नाम दे लें लेकिन यह धर्म हरगिज़ नहीं हो सकती है। यह एक बौद्ध बालभिक्षु की साधारण सी कहानी है जिसे वानरों और उनके निरीह बच्चों के एक गिरोह से बेइंतहा लगाव हो जाता है। उनसे मिलने वह गाहे-बगाहे उनके एकांत में चला जाता है और भिक्षा में मिले भोजन को उनके साथ साझा भी करता है। वानरों का झुंड भी धीरे-धीरे उसके साथ बेतकल्लुफ़ हो जाता है और एक बार उनका पूरा गिरोह खाने को कुछ मिलने की आस में मठ में आ धमकता है और अफरातफरी मचाने लगता है। उसकी इस अशिष्टता से नाराज़ मुख्य भिक्षु दण्डस्वरूप बालभिक्षु को एक अंधेरे-बंद कमरे में बंद कर देता है। यह जितनी सरल कहानी है, अपने कथ्य में उतनी ही सारगर्भितत भी है जो अपने अन्तरपाठ में पाठकों को आस्था और अध्यात्म के निहितार्थ तलाशने को उकसाती है। बौद्ध दर्शन का पूरा अवलंबन ही करुणा पर आधारित है, ऐसे में वानरों के प्रति ऐसी संवेदनहीनता और उस निष्कलुष बालभिक्षु के प्रति यह क्रोधातुर व्यवहार हमें धर्म के अंतर्तत्व का पुनरानवेषण करने को उकसाती है।

ओके एकपाघा की नाइजीरियाई कहानी 'क्या तुम्हें खाना बनाना आता है?’ अपने शीर्षक में ही पूरी कहानी का स्टेटमेंट है। उसी तरह अश्वेत अमेरिकन कहानीकार क्लॉडिया रैंकिन का 'जगह बनाना : तीन बिंब’ है, जिसे  आप चाहें तो कहानी के तौर पर खारिज़ भी कर सकते हैं। लेकिन उनकी इस बहु-उद्धृत उक्ति को अस्वीकार कर पाना समूची दुनिया के लिए दुश्वार है - 'रंगभेद अलगाव का सबसे कम समझा गया, घातक और कपटी रूपशब्द है।’ इन तीन लघु दृश्य कथाओं का भी मैसेज यही है - अश्वेत दुनिया की इनविजिबल आबादी नहीं हैं।

हेनरी ग्रेटॉन डॉयल ने कहा है, 'किसी अन्य संस्कृति के बारे में कुछ भी नहीं जानने से कहीं बेहतर है कि उसे अनुवाद के माध्यम से जाना जाय।’ गेटे ने भी अपने एक साक्षात्कार में जोहान पीटर एकरमन को बताया था कि आने वाले वर्षों में साहित्यिक रचनात्मकता के मुख्य घटक के रूप में राष्ट्रीय साहित्य की जगह विश्व-साहित्य ले लेगा। इसीलिए आज अनुवाद लेखन को एक मौलिक और स्वतंत्र विधा माना जाने लगा है।

उल्लेख्य कहानियों के अतिरिक्त संग्रह में लेबनानी, कुवैती, ट्यूनीशियाई, एंटीगुआई, ताइवानी, चीनी, वियतनामी,  तुर्क, एस्टोनियाई, क्यूबाई आदि कहानियां भी सम्मिलित हैं। इन कहानियों का संबंध बेशक़ भिन्न-भिन्न संस्कृतियों और भाव-भूमियों से है लेकिन उन्हें औरतों के मानसिक परिदृश्य और जीवन-बोध को दृष्टि में रख कर लिखा गया है। यह अकेली बात संग्रह को आला दर्ज़ा देती है और साथ ही इसे एक उत्कृष्ट अर्थबहुलता भी प्रदान करती है।

हिंदी में कविताओं के उपन्यासिका कृतियों के अनुवाद की परिपाटी ख़ासी पुरानी रही है लेकिन उस तुलना में विश्व भाषा में लिखी गईं कहानियाँ सुव्यवस्थित तरीके से पाठकों से होकर कम गुज़री हैं। यादवेंद्र जैसे निष्णात और समादृत अनुवादकों ने इसका विस्तार कहानियों तथा अन्य गद्य विधाओं तक करने का चुनौतीपूर्ण और श्रमसाध्य काम सफलता के साथ किया है। विगत तीन-चार दशकों की कालावधि में लिखी गईं अधिकांश कहानियों की निर्मिति को समझने के लिए उन सभी स्त्री कहानीकारों को अपने-अपने सामाजिक परिवेश के बरअक्स देखने की ज़रूरत है जो बाहर-बाहर बेशक़ बदला हुआ दिखता है लेकिन अपने भीतर-भीतर कमोबेश जस का तस उपस्थित है। यादवेंद्र के अनुवादक की सहज भाषा इन विविधवर्णी कहानियों के मूल भावों के यथासंभव इर्दगिर्द रहने की कोशिश करती है। कोई भाषागत शुष्कता या विचलन कभी-कभार अगर दिखता भी है तो वह अनूदित भाषा की  नैसर्गिक और स्वीकार्य सीमाओं के अंदर ही दिखता है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि विश्व भाषा की समकालीन लेकिन अनिवार्य स्त्री कहानी लेखकों को एक ही आवरण में देखना एक सुखद और दुर्लभ पाठकीय संयोग है। दुनिया भर में बोली जाने वाली मुख़्तलिफ़ बोलियाँ और भाषाओं के अंतरीपों के बीच के दुरूह जलमार्ग तय करने के लिए 'स्याही की गमक’ जैसे संग्रह निश्चित रूप से बहुत कारगर पतवार साबित हो सकते हैं।

 

यादवेन्द्र पिछले तीन दशक से, विश्व भाषाओं से लड़ाकू, हिम्मती और प्रतिरोधी व्यक्तियों के कारनामे हिन्दी में लाते रहे हैं। उनका लेखन ओजस्वी, प्रेरक और जनप्रिय है। अब उनके लेखन के संकलन आ गये हैं। प्रभात मिलिंद उनके रचनात्मक यश को रेखांकित कर रहे हैं। प्रभात मिलिंद की कविताएं पाठकों ने हाल ही में पढ़ी हैं।

संपर्क : 70046 27459

 


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