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अक्टूबर - 2019

साहित्य-जगत् की अस्मिता को उभारती आत्मकथा

बली सिंह

पुस्तक/आत्मकथा

 

 

मैंने जो जिया

 

 

आत्मकथा लिखने का सिलसिला बहुत पहले से चला आ रहा है। राजनेताओं, क्रांतिकारियों, फिल्मकारों की तरह साहित्यकारों ने भी आत्मकथा-लेखन किया है। आत्मकथा लेखन कभी भी आत्मप्रशंसा के लिए नहीं किया जाता। वह वास्तव में अपने समय-समाज के अन्तर्विरोधों, व्यक्ति के भीतर की कमियों और तत्कालीन परिवेश में उसके संघर्षों को अभिव्यक्ति देने का काम करता है।

आज के अस्मिता के दौर में जैसे आत्मकथा लेखन की बाढ़ सी आ गयी है। स्त्री और दलित अस्मिताओं से जुड़ी अनेक आत्मकथाएं हिन्दी में आयी हैं और उनको सराहा भी गया है। वे ऐसी आत्मकथाएं हैं जिनमें किसी अस्मिता समूह का आत्म, उसकी निजता, समाज में उसकी स्थिति और उसके अस्तित्व तथा पहचान का संघर्ष अभिव्यक्त हुआ है। ऐसे दौर में रमाकांत शर्मा 'उद्भ्रांत’ की आत्मकथा 'मैंने जो जिया’ का पहला खण्ड 'बीज की यात्रा’ का प्रकाशन हुआ है। यह आत्मकथा अन्य आत्मकथाओं से इस रूप में भिन्न है कि इसमें लेखक ने 'मैं’ शैली नहीं अपनायी है। लेखक ने 'उद्भ्रांत’ को एक पात्र के रुप में देखा और चित्रित किया है। इससे आत्मकथा को एक आख्यान का रूप मिला है जो पढऩे में उपन्यास जैसा सुख देता है और आत्मकथा के बंधे-बंधाये ढंाचे को तोडऩे का काम भी करता है। यह खुद के बारे में उस खुद से भी अलग होने का काम करता है जिसे परिवार और समाज निर्मित करने की कोशिश करता रहता है, यानी उसे एक तटस्थ नज़रिया प्रदान करता है।

'मैंने जो जिया’ आत्मकथा दूसरी तमाम आत्मकथाओं से अलग महत्व रखती है, क्योंकि यह साहित्यकार की अस्मिता को केन्द्रित करके लिखी गयी है। साहित्यिक जगत् या कहें साहित्यिक समूह का आत्म इसमें अभिव्यक्ति पाता है। एक साहित्यकार का अस्तित्व से लेकर पहचान तक का संकट और संघर्ष इस आत्मकथा में आद्योपांत उपस्थित है। इसी के माध्यम से तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक माहौल की गहमागहमी मूर्त हुई है।

उद्भ्रांत ने अपनी आत्मकथा का खंड लिखा है वह अपने जन्म से पूर्व परदादा अजीत से प्रारंभ होकर उनके 28 वें वर्ष के दूसरे दिन तक चलता है। इसके शीर्षक में आया 'जिया’ शब्द 'जीया’ से बहुत मिलता है, वे अपनी मां को जीया से ही संबोधित करते रहे हैं। इसके पहले खण्ड का शीर्षक उन्होंने स्वयं अपनी कविता से लिया है - 'बीज की यात्रा’ और शरद दत्त के सुझाव अनुसार उन्होंने इस बड़ी कृति को अध्यायों में विभाजित किया है। हम अगर अध्यायों के शीर्षकों पर थोड़ा गौर करें तो पाएंगे कि ये सब भी काव्यात्मक है - 'नींद में जीवन’, 'कोहरे में सोने के पहाड़’, सूर्यफूल लहरों पर, 'उजले बिम्बों के पंखों पर’, 'यह पाल उठा दे’ इत्यादि। इससे यह बात बहुत साफ हो जाती है कि उन्होंने अपनी आत्मकथा में साहित्यिक अस्मिता की ही मूलत: पहचान की है। इसके अलावा अन्य अस्मिताएं और विमर्श जो थोड़े बहुत आए हैं तो वे रचनाकार से संबंधित होने की वजह से आए हैं। उन पर विस्तार से लिखना और उनके विभिन्न आयामों को उभारना, आत्मकथाकार का मन्तव्य नहीं रहा है। जातिगत संस्कार और विश्वास, रीति-रिवाज, श्रेष्ठता के प्रतिमान, विद्यार्थी, राजनीति, डाकू और दफ्तरी समूह ऐसे ही कुछ विमर्श हैं जो सीमित होते हुए भी आत्मकथा में अपनी चमक बिखेरते हैं।

स्त्री के संघर्षशीष रुप के संबंध में उद्भ्रांत ने अपनी दादी को चित्रित किया है। उनका नाम रामसिरी है, वह उसके दादा पेसीराम की दूसरी पत्नी थी, 13 साल की उम्र में ही बालिका वधू बन गयी थी। मां बनी 16 साल की उम्र में और 18 साल की उम्र तक दो बच्चों की मां बन चुकी थी- गौरीशंकर तथा उमाशंकर। रामासिरी को एक ही कसक थी कि वह आगे पढ़ नहीं पायी, लेकिन उसकी रुचि पढ़ाई में थी। वह यहां भी 'रामचरित्र मानस’ 'श्रीमद्भागवत’ पढ़ती और साथ में अखबार भी, उसने दोनों बच्चों को अक्षरमाला की किताबें बड़े 'लगन’ से पढ़ाई, इससे बच्चों में भी पढऩे की लगन पैदा हुई। विवाह के 12-13 साल ही हुए होंगे कि पति पेसीराम एक एक्सीडेंट में चल बसे, बच्चों की सारी जिम्मेदारी रामसिरी के जिम्मे आ गयी। वह बड़े जीवट की निकली, उसने बच्चों को पढ़ाया लिखाया और आगे बढ़ाया। भले ही उसे दूसरों के घरों में काम करना पड़ा। रामसिरी वास्तव में एक ऐसी स्त्री पात्र है जिसमें प्रतिकूल कठिन स्थितियों का मुकाबला करने का जीवट है। आज स्त्री विमर्श के दौर में ऐसे पात्रों की अहम जरूरत है जो अस्मिता के संघर्षशील आयाम को उभार सकें। स्त्री विमर्श में ऐसे पात्र कम आए हैं, उत्पीडऩ वाले पक्ष की अधिकता है। लेकिन यह आत्मकथा रामसिरी के चरित्र के माध्यम से उक्त कमी को थोड़ा पूरा करती है।

उद्भ्रांत का सामाजिक संस्कृतिक परिवेश भी ध्यान खींचता है। उनका जन्म ही जैसे उस समय पाए जाने वाले रीति रिवाजों, टोटकों विश्वासों में लिपटा हुआ है। उद्भ्रांत का पैत्रिक गांव तो 'अजीता का नंगला’ है जो उसके परदादा अजीता ने राजस्थान से आकर बसाया था, पर इनके पिता रमाशंकर उ.प्र. सरकार में श्रम अधिकारी होने की वजह से कानपुर में स्थानांतरित हो गए थे। एक बार रामपुर मुस्लिम बहुल इलाके में भी गए। वे उदार और श्रमिकों के हितों की चिंता करने वाले थे। उनकी पढऩे में बहुत रुचि थी। कामर्स के प्रोफेसर थे। वहीं पर 1948 के सितम्बर के महीने में रमाकांत शर्मा का जन्म हुआ। वे उद्भ्रांत बाद में बने, जब वे गीत लिखने लगे तो अन्य गीतकारों की तरह कोई साहित्यिक  नाम रखने की सोची और हरिवंशराय बच्चन जी को पत्र लिखा जिन्हें वे अपना काव्य-गुरु मानते थे। सदैव उनसे पत्र-व्यवहार करते रहे, बीच में बीच में मिलते भी रहे। बच्चन जी ने इनकी काव्य के प्रति दीवानगी को देखते हुए उद्भ्रांत उपनाम रखने का सुझाव दिया और इन्होंने इसे गंभीरता से लेते हुए उद्भ्रांत नाम रख लिया। रमाकांत शर्मा उद्भ्रांत में से रमाकांत गायब होता गया और शर्मा भी उन्हें जरुरी नहीं लगा, कई जगह उन्होंने उद्भ्रांत शर्मा भी लिखा है। अब रह गया उद्भ्रांत। इसी नाम से वे साहित्यिक रचना करते रहे और अब भी कर रहे हैं। साहित्य से लेकर अन्य संस्कार भी इन्हें एक 'सनाढ्य ब्राह्मण’ परिवार से मिले। परिवार ब्रज भाषी था। आत्मकथा में उद््भ्रांत जी ने संवादों में बहुत ही सुन्दर ब्रज भाषा का प्रयोग किया है जिसमें रवानगी के साथ-साथ मिठास भी है। विवाह के अवसरों पर इनके यहां एक दिन तुकबंदी होती है - दोनों पक्षों की ओर से। वह रिवाज और रीति उद्भ्रांत जी को बचपन में ही बहुत अच्छी लगती थी। साहित्य पढऩे और उससे लगाव के संस्कार उन्हें परिवार से मिले। घर में मौजूद 'रामचरित मानस’ और 'गीता’ का पाठ उन्होंने बचपन में कई बार किया, इनके यहां इनका धार्मिक आयोजनों में पाठ भी किया जाता था। 'चंदामामा’, 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, 'धर्मयुग’ जैसी पत्रिकाएं घर में आती थीं, उनको पढऩे का मौका मिला।

उद्भ्रांत के जन्म का प्रकरण भी विचित्र है जो उनसे सम्बद्ध समाज ब्राह्मण समाज में व्याप्त टोटके और अन्धविश्वासों की कलई खोलता है। सुपुत्र परिवार में पैदा तो होता था पर जीवित ही नहीं बचता था। सबको 'मोड़ा’ (लड़का) की इच्छा और उसके दीर्घजीवी होने की चिंता सता रही थी। एक सिद्धबाबा की भविष्यवाणी कि 'मोड़ा’ होगा पर उसके जीवन पर संकट है और संकट को टालने के लिए एक टोटका करना जरूरी है कि उसे पैदा होते ही किसी संतानविहीन स्त्री को सौंप दिया जाए फिर उसके बदले में खरीद लिया जाए। रमाकांत के जन्म पर ऐसा ही किया गया, उसे बाई को दे दिया, फिर बाई ने पैसे लेकर वापस दे दिया। यह प्रकरण पांडेय बेचैन शर्मा उग्र के साथ भी घटित हुआ है, जिसे उन्होंने आत्मकथा 'अपनी खबर’ में लिखा है। उग्र जी ने अपनी इस आत्मकथा में अपने समाज की विसंगतियों पर, मिथ्या दंभ और रुढिय़ों पर विस्तार से लिखा है और ब्राह्मण समाज की जमकर खबर ली है, पर उद्भ्रांत जी की आत्मकथा में इसकी कमी खटकती है। उन्होंने अपने पिता के हवाले से एक प्रवृति की ओर इशारा जरुर किया है। उनके पिता ने मार्क्स की 'पूंजी’ भी पढ़ी थी, वे उससे प्रभावित भी थे, लेकिन जब श्रम निरीक्षक के पद के लिए महीने भर बाद की इंटरव्यू की तारीख का पता चला तो वे सुबह शाम हनुमान का ध्यान करने लगे, शिव और हनुमान के वे भक्त थे, यानी प्रगतिशीलता और जाति-धर्म के संस्कारों की जकडऩ दोनों साथ-साथ उनमें मौजूद थे, खुद आत्मकथाकार के दिमाग में भी यह सवाल आया है - 'इतनी पढ़ाई करने और योग्यता अर्जित करने के बाद भी ऐसी चीजों पर विश्वास करने के पीछे क्या गरीबी का संघर्ष अवचेतन में था या ब्राह्मण संस्कार?’ यह तो बहुत पहले की बात है। बुद्धिजीवियों में यह प्रवृति अभी तक बनी हुई है। वे एक साथ दोनों होते हैं। इस द्वैतवाद को साधने में उन्हें गजब की महारत हासिल है, उन्हें कोई दिक्कत महसूस नहीं होती। दिक्कत तो तब होती जब द्वन्द्व होता, द्वैत में सह-अस्तित्व सहज संभव है। उद्भ्रांत के पिता एक व्यावहारिक व्यक्ति थे।

आत्मकथा में वर्णित उद्भ्रांत का विद्यार्थी जीवन हमारे समाज में व्याप्त उस प्रवृति को उजागर करता है जिसमें मां-बाप बच्चे पर अपनी महत्वाकांक्षा थोपते हैं और समाज का दबाव उसके मानस पर हावी होता है। उसके चलते बच्चा कुछ और चाहता है और पढ़ता कुछ और है। अरुचि से तथा परिवेश के दबाव से बच्चा 'डिरेल’ हो जाता है। और कुछ बच्चे तो हताशा में अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर लेते हैं। बच्चा डाक्टर, इंजीनियर, आइ.ए.एस. बनाने/बनने का दबाव पहले ही झेलता था और अब भी झेल रहा है। बच्चे की क्षमता या रुचि हो या न हो पर उसे स्कूल में पढऩी साइंस है। या जिसे माता-पिता अथवा समाज श्रेष्ठता का प्रतिमान समझता है। उद्भ्रांत के साथ भी ऐसा ही हुआ, उसका गणित में मन नहीं लगता था पर उसे पढऩा था, आगे बी.एस.सी. जो करनी थी और पिता तो दबाव बना रहे थे कि साथ में कानून की भी पढ़ाई करे। एक सुबह वाले कॉलेज में और दूसरा शाम वाले कॉलेज में। पिता ने उद्भ्रांत के साथ बचपन में ही ऐसा किया कि वह मानसिक दबाव में आ गया और पढ़ाई में पिछड़ गया जिससे उसकी दिलचस्पी साहित्य को छोड़ अन्य विषयों में घटती चली गयी। उसे कक्षा एक के बाद सीधे तीन में तथा तीन पास करने के बाद सीधे कक्षा पांच में 'जम्प’ करा दिया था - ''दर्जा एक और दर्जा तीन में प्रथम श्रेणी में प्रथम रहकर उसने शैक्षिक कैरियर की जो धमाकेदार शुरुआत की थी, वह पिता द्वारा उसे जेट गति से भागता देखने की महत्वाकांक्षा के कारण फुस्स हो गयी।’’ इस सबका नतीजा यह हुआ कि उद्भ्रांत का रुझान साहित्य पढऩे और लिखने की ओर दीवानगी की हद तक बढ़ता चला गया, वह उसे आसान भी लगता था और अच्छा भी, पर समाज में स्थापित प्रतिमान कुछ और ही थे, वे आज भी बने हुए हैं। कविता-कहानी पढऩा-लिखना एक बात है और कैरियर दूसरी। साहित्य खाने को नहीं दे सकता, उल्टा खर्चा अलग से मांगता है। साहित्य के प्रति समर्पित लड़के का तो विवाह भी नहीं होता, लड़कियों को उसका लिखा गीत व अन्य साहित्य अच्छा तो लगता है पर इस लायक नहीं कि उसे जीवन संगी बनाया जा सके। कवि अक्सर एकतरफा प्यार करता है और गम के गीत लिखता है, जैसा कि उद्भ्रांत ने भी किया। उद्भ्रांत का स्वभाव ही ऐसा बन गया कि उसने समाज में स्थापित श्रेष्ठता के मूल्यों का जीवन-व्यवहार में खंडन ही किया। उसने स्कूल के दिनों में साहित्य रचना शुरु कर दी। समाज में परीक्षा में अच्छे अंक श्रेष्ठता का प्रतिमान है, साहित्य फालतू निचले दर्जे की चीज है। पर उन्होंने फालतू नहीं वरन् अनिवार्य मानते हुए गीत लिखे, बाल-गीत लिखे, जासूसी उपन्यास पढ़े और लिखे, बाल-कहानियां लिखीं और चलकर नवगीतों तथा कुछ प्रौढ़ कहानियों की रचना की, नक्सल आंदोलन से प्रभावित हुए तो उन्होंने उस मिजाज की कविताएं भी लिखीं जिसमें लम्बी कविता 'नाटक तंत्र’ भी शामिल है। उन्होंने शैक्षणिक 'कैरियर’ की उपेक्षा करते हुए तमाम सांस्कृतिक गतिविधियां कीं - क्रिकेट खेलने, सिनेमा देखने, चित्रकारी करने, साहित्यिक आयोजनों में शिरकत करने तथा आयोजित करने, रचनाएं लिखने और पत्रिकाओं को भेजने तथा साहित्यकारों को पत्र लिखने और खासतौर पर हरिवंश राय बच्चन जी को, फिर पत्रों की प्रतीक्षा करने और प्रेम करने इत्यादि बहुत सारी गतिविधियों की गुस्ताखी की। बच्चन जी के पत्रों के जरिए हमें हरिवंश राय जी की गतिविधियों, उनकी जीवन शैली, जीवन में आए बदलाओं, घटनाक्रम तथा उनके साहित्य के बारे में भी पता चलता है, लगता है जैसे उद्भ्रांत उनकी छाया हो। उन्होंने बहुत पहले स्कूल की लाइब्रेरी से बच्चन जी की 'मधुशाला’ से लेकर अन्य रचनाएं, यहां तक कि उनकी आत्मकथा का पहला खंड ''क्या भूलूँ क्या याद करूं’ पढ़ डाला और उसकी बार-बार हिदायत, जो कि वे हरेक पत्र में लिखते थे, कि पाठ्यक्रम की पुस्तकों पर ध्यान दो तथा प्रथम श्रेणी में पास करो, को कभी अमल में नहीं उतारा, उल्टे साहित्यिक गतिविधियां बढ़ती गयीं और स्कूल पढ़ाई पिछड़ती चली गयी। यहां तक कि वे इंटरमीडिएट की बोर्ड की परीक्षा में बहादुरी के साथ फेल हुए। फिर सप्लीमेंट्री की परीक्षा दी और पुन: फेल हो गए, लेकिन इस बीच उन्हें सशर्त कॉलेज में दाखिला मिल गया - बी.एस.सी. में। पर दोबारा फेल हो जाने के बाद उन्हें निकाल दिया गया। यह बात उन्होंने घर में किसी को नहीं बतायी और तीन-साल झूठ-मूठ में ही घर से चल देता था, पार्क में साहित्य पढ़ता रहता था दिनभर। इन वर्षों में उनकी साहित्यिक गतिविधियां तूफानी हो गयी और संबंध भी साहित्यिक ही होते चले गये। इसी दौर में उद्भ्रांत ने मांस मदिरा आदि के कई ब्राह्मण संस्कार तोड़ दिए। यही क्रम उनका उस समय भी बना रहा जब उन्होंने साइंस में नहीं बल्कि आटर्स में इंटरमीडियट पास किया, कॉलेज में दाखिला लिया, बी.ए. और साहित्य में एम.ए. किया। एक अच्छे गीतकार के रूप में उनकी पहचान उसी समय से बनी हुई थी जब वे कॉलेज में गए। वहां के शिक्षकों ने पहचान लिया कि ये नाम तो कुछ और लिखते हैं पर हमने इनके गीत उद्भ्रांत के नाम से सुने हैं। सभी को जल्दी ही पता चल गया कि यही शख्स कवि उद्भ्रांत है, कुछ-कुछ वेषभूषा उनकी कवियों की सी थी - बड़े-बड़े बाल रखते थे। उनकी साहित्यिक सक्रियता ने उनको जरूरत के वक्त नौकरी दिलाने का भी काम किया है। आत्मकक्षा के अंतिम हिस्से में जब वे 'आज’ नामक डेली अखबार में कानपुर शहर के संवाददाता बने तब भी साहित्यिक संबंध ही काम आए थे। इसका रेखांकन उन्होंने कई बार किया है कि ये नौकरी भी साहित्य की ही बदौलत मिली। यानी ऐसे प्रसंगों से न सिर्फ साहित्य के फालतू और नाकारे की बनायी हुई धारणा टूटती है वरन् ऐसे प्रसंग साहित्य के दर्जे को उठाने वाले हैं, उद्भ्रांत जी अपनी आत्मकथा के जरिये यह काम करते हैं। वे समाज में साहित्य का दर्जा ऊंचा करने वालों में से हैं।

उद्भ्रांत ने अपनी इस आत्मकथा में साहित्य जगत् के आत्म को मूर्त करने का प्रयास किया है। असंख्य तो लेखकों के नाम आए हैं जो आयोजनों, कवि-सम्मेलनों में भाग लेते रहे हैं, गीतकार, समकालीन कवि, आलोचक, कथाकार, लेखक संघों के पदाधिकारी, आयोजन और मित्र- प्रशंसक, संपादक और प्रकाशक किसी का नाम शायद ही छूटा हो-दक्षिण हो या वाम। उद्भ्रांत जी ने, उन्हीं के शब्दों में, 'तूफानी साहित्य गतिविधियां’ की हैं। जगह-जगह साहित्य सम्मेलनों में गए हैं, और आयोजन कर लोगों को बुलाया भी है। वे सम्बंध बनाने में ही नहीं वरन् निर्वाह करने में भी निपुण हैं। इन आयोजनों के प्रसंगों में एक तो बार-बार नामों की पुुरावृत्ति होती है और दूसरे, रपट में इसका उल्लेख जरूर रहता है कि उद्भ्रांत का गीत बहुत पसंद किया गया और मंच पर छा गए। इससे आत्म-प्रशंसा का एक स्वर भी आत्मकथा में समा गया है। तीसरे, नामोल्लेख में एक बात अच्छी है कि वे स्थानीय कवियों-लेखकों का जिक्र जरूर करते हैं, उन्हें फालतू समझकर छोड़ नहीं देते। हां! महत्वपूर्ण लेखकों के नाम पहले आते हैं, उससे कार्यक्रम के साथ-साथ उद्भ्रांत का भी महत्व बढ़ जाता है। लेकिन इतने सारे आयोजनों के उल्लेख की आवश्यकता नहीं थी, कुछ प्रातिनिधिक आयोजनों को लिया जा सकता जिससे साहित्य जगत् के आत्म की किसी प्रवृत्ति का संकेत मिलता हो, बाकी को छोड़ा जा सकता था, पर उद्भ्रांत की आदत छोडऩे वाली नहीं है। उनकी दुविधा ही यह है कि क्या छोड़ूं क्या लिखूं। आत्मकथा के खंडन का एक शीर्षक यह भी होना चाहिए था। लेकिन सब कुछ के उल्लेख के बावजूद उद्भ्रांत के यहां कुछ साहित्यिक आयोजनों के प्रसंग अपने आप में बहुत महत्व रखते हैं। वे साहित्य जगत् में चल रही उल्लेखनीय हलचलों तथा वैचारिक मतभेदों को हमारे सामने लाने का काम करते हैं। इनमें से एक तो बांदा सम्मेलन है और दूसरा आगरा सम्मेलन जो प्रगतिशीलों में बढते मतभेदों को दूर करने के प्रयास में आयोजित किए थे, सी.पी.आई, सी.पी.एन. से जुड़े लोग थे जो गुटों में बंटे हुए थे, पर वैचारिक मतभेद दूर होने के बजाय और भी तीखे हो गए। उद्भ्रांत के अनुसार बांदा की तरह आगरा में भी दोनों खेमों के लेखकों के बीच 'वर्चस्व की लड़ाई’ जारी थी। इसमें साहित्य जगत् की विचारधारात्मक शक्तियों के बीच संघर्ष को द्योतित किया गया है जो उस समय बहुत तीखी थी, पर अब कम हो गयी है। यह अपने आप में चिंता की बात है।

एक अन्य प्रसंग जिसका उल्लेख उद्भ्रांत करते हैं वह 'युवा’ (लघु पत्रिका, संपादक उद्भांत) को लेकर हुई गोष्ठियों का आयोजन है। एक गोष्ठी में चंद्रदेव सिंह ने लघु पत्रिका आंदोलन को ऐसे कुंठित लेखकों की उपज बताया जो व्यवसायिक पत्रिकाओं में छप नहीं पाते। लेकिन मंच पर ही उद्भ्रांत जी ने उनका प्रत्याख्यान किया और बताया कि ये पत्रिकाएं एक बड़े वैचारिक आंदोलन की उपज हैं, जो अत्यंत सीमित साधनों के बावजूद निकाली जा रही हैं। उद्भ्रांत ने साहित्य जगत् के भीतर मौजूद उस महत्वपूर्ण पहल को उजागर किया है जो सत्ताधारी व्यावसायिक पत्रिकाओं को चुनौती देती रही है। उन्होंने ऐसी कई पत्रिकाओं का जिक्र भी किया है। वाम, कथा और उत्तराद्र्ध ऐसी ही पत्रिकाएं थीं जो आंदोलन का प्रतिनिधित्व कर रही थीं। इनमें 'युवा’ भी शामिल थी।

राष्ट्रीय संकट के अवसर पर आयोजित किए कवि-सम्मेलनों के प्रकरण भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। भारत, पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध की आपात स्थिति में कवि-सम्मेलन आयोजित किए गए। कवियों ने अपने गीतों के जरिये संघर्षात्मक अनुभूति लोगों में जगायी, उन्हें हताश निराश और भयप्रद स्थितियों से बाहर निकाला। सिर्फ यही नहीं, ऐसी कविताओं-गीतों के संकलन तैयार किए गए और उसके बदले मिली राशि को देश-हित में लगाने का प्रयास किया गया। यह वास्तव में व्यापक समाज में साहित्यिक समाज की भूमिका की पहचान करना है। जिस साहित्य को समाज फालतू समझता है वह कितना अनिवार्य है। या कहें वही अनिवार्य है। इस बात को भी रेखांकित करना है। वह व्यापक समाज को संवेदनशील बनाने का काम करता है। और उद्भ्रांत जी की आत्मकथा में आए ऐसे प्रसंग साहित्य की शक्ति की भी पहचान कराने का काम करते हैं।

इस साहित्य-जगत में कोई कमजोरी ना हो ऐसा नहीं है। इसमें भी ईष्र्या-द्वेष है, संपादकों की मनमानी है, नये रचनाकार को छपने के लिए कठिन संघर्ष करना पड़ता है, और किताब तो खुद ही छपवानी पड़ती है। उठाने-गिराने की राजनीति चलती रहती है, लेकिन इसमें दूसरे रचनाकारों-खासतौर से नये रचनाकारों की मदद करने की प्रवृत्ति भी है। साहित्य-समूह की ये सब खामियां और खूबियां उद्भ्रांत की आत्मकथा से ही उभरती है। खुद उद्भ्रांत ने एक लेखक की पहली कहानी को किसी बड़ी पत्रिका में छपवाने में मदद की थी। इस तरह देखें तो उद्भ्रांत की आत्मकथा 'मैंने जो जिया’ में एक साहित्य-समूह अपने कई आयामों में मूर्त हुआ है, उन्होंने इस समाज की पहचान की है और ुसे जीता जागता प्रस्तुत किया है, जैसे उसकी भी एक अस्मिता है। उसकी अपनी विशिष्टता है, उसकी भी अपनी शख्सियत है जिसका टकराव व्यापक समूह-समाज में चलता रहता है। उद्भ्रांत जी ने अपने आत्मकथा में साहित्य-समूह के आत्म को अभिव्यक्ति देने का अनोखा काम किया है। यही नहीं, उन्होंने कुछ आत्मीय यानी अपने आत्म से जुड़ी चीजों और जगहों का चित्रण भी आत्मकथा में किया है। जिनको पढ़कर उनकी उधर लिखी अनेकों कविताएं जहन में घूमने लगती हैं- 'नवलगढ़’ 'कानपुर’ जैसे स्थानों पर लिखी कविताएं और 'सूप’ जैसी बहुत ही धार्मिक कविता मूर्त होने लगती है जो कि 'पालने’ (सूप) पर लिखी गयी है - मां को याद करते हुए। वह उद्भ्रांत के जन्म दिन पर उसी पालने में बंधे धागे में गांठ बांध देती थी ताकि पता चलता रहे कि मुन्ना कितने साल का हो गया, उनके न रहने पर अब यह कौन करेगा! इस आत्मकथा की खास बात यह है कि इसमें आए प्रसंग-प्रकरण कवि की कविताओं में प्रतिबिम्बित हुए हैं। यह मूलत एक कवि की आत्मकथा है। इसके प्रसंगों को पढ़कर उनकी कविताएं आंखों के सामने मूर्त होने लगती हैं। किसी कवि द्वारा लिखी गयी आत्मकथा की यह एक बड़ी उपलब्धि है। साहित्य समूह के भीतर आखिर रचनाकार की भी तो कोई अस्मिता है। इसकी भी पहचान कराती है उद्भ्रांत की आत्मकथा। यह आत्मकथा साहित्य जगत् की अस्मिता को जैसे गहरे कुएं से बाहर निकलने का काम करती है। इसकी विशिष्टता भी यही है और विलक्षणता भी।

 

 

 

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