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अक्टूबर - 2019

कविता का असमाप्त संघर्ष-देवीप्रसाद मिश्र

मीना बुद्धिराजा

कवि की शख्शियत

 

देवीप्रसाद मिश्र

 

 

देवी प्रसाद मिश्र समकालीन हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हिंदी सहित्य मे वे एक दुर्लभ उदाहरण बन चुके हैं और पुरस्कार,सुविधा-सम्मान और सोशल मीडिया की चकाचोंध से दूर वे जो भी रच रहे हैं, वह बहुत मानीखेज और समसामयिक है। जब वे लिखते हैं तो साहित्य की पारिस्थितिकी का असंतुलन दूर होता है उनका लेखन हमारे वर्तमान समय का जीता-जागता बयान है और समय से एक अनिवार्य संवाद भी करता है। इस समय के सबसे प्रयोगधर्मी कवि और सच के लिये सभी जोखिम और खतरे स्वीकार करने वाले रचनाकार जिन्हे दरकिनार करना असंभव है। कवि होने की अनिवार्य यंत्रणा और बेचैनी जो उनकी कविता में असमाप्त संघर्ष के रूप में मौजूद रहती है क्योंकि उनका स्वयं मानना है-'बहुत दु:ख की तुलना में,बहुत सुख से खत्म होती है आत्मा।’ आत्मबोध और विंडबना बोध की यह अंतर्यात्रा जो उनकी कविताओं में मिलती है वह समकालीन कविता में विरल है ।

बीसवीं सदी के सामाजिक-राजनीतिक विचारक 'अंतोनियो ग्राम्शी’ का कथन है-'उस क्षण से जब एक पराधीन वर्ग वास्तव में स्वतंत्र और शक्तिवान हो जाता है और एक नये प्रकार के राज्य की स्थापना पर बल देता है-तब आवश्यकता पैदा होती ह ैएक नई बौद्धिक और नैतिक व्यवस्था के वास्तविक निर्माण की अर्थात एक नए तरह के समाज की और इसीलिये आवश्यकता होती है अधिकतम सार्वकालिक अवधारणाओं के प्रतिपादन की,  अधिकतम संवद्र्धित और निर्णायक वैचारिक अस्त्रों की। इस आधार परआत्मग्लानि और अपराध का यह दौर जो त्रासदी और प्रहसन के रूप मे लगभग समान रूप से ही गतिमान हो रहा है। उसमें समाज व्यवस्थायें और राज्य-तंत्र भी इस प्रक्रिया से अछूते नहीं हैं बल्कि उसमे सक्रियता से हिस्सा ले रहे हैं। इस स्मृतिविहीन समय मे सब कुछ खुले बाजार के नियमों से तय हो रहा है।

समकालीन हिंदी कविता में हमारे समय के कवि देवी प्रसाद मिश्र अमानवीयता और अन्याय के विरुद्ध सबसे प्रतिबद्ध ईमानदार और प्रखर आवाज हैं। उनके लेखन मे सच कहने का साहस उनके प्रति बहुत बडी उम्मीद जगाता है। जब देश और समाज मे सत्ता तथा पूंजी का कोई वास्तविक विकल्प न बचे तो कविता जीवन का अंतिम मोर्चा होती है। इस लड़ाई में साधारण व्यक्ति की नियति को देवी प्रसाद भयंकर अन्याय मानते हैं और अनवरत लड़ रहे हैं। उनकी कवितायें वर्तमान से एक लगातार बहस है जिसमें वे मनुष्य की त्रासदियों को बहुत निकट जा कर देखते हैं। देवीप्रसाद जी की वैचारिक प्रतिबद्धता और मानवीय पक्षधरता स्पष्ट है। जनसामान्य को वो सारी सुविधायें और स्वतंत्रता हासिल होजो उनका बुनियादी हक है। उनके लेखन के सरोकार व्यापक समाज और व्यवस्था की आंतरिक तहों से जुड़े हैं। दमन और बदलाव की शक्तियों के निर्णायक संघर्ष मे ऐसा वैकल्पिक चिंतन जो सत्य के करीब तार्किक हो और स्थापित व्यवस्था के विरुद्ध असहमति के रूप मे उपस्थित हो। अपने एक वक्तव्य मे उन्होने लिखा है-'कविता के मेरे स्त्रोत फिलहाल भारतीय पावर स्ट्रक्चर की विसंगतियो और विद्रुपताओं को समझने में है जो भारतीय संकट की मूल अंतर्वस्तु भी है। कविता लिखने की प्रक्रिया मेरे अंत:करण की दैनंदिनता है। यह प्रतिदिन की नैतिकता है। 'वास्तव मे उनकी कविता उन शक्ति-संरचनाओ को समझने की एक निरंतर प्रक्रिया है जो सिर्फ राज्य-सत्ता तक ही सीमित नहीं है बल्कि  प्रत्येक स्तर पर समाज से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संबद्ध है। यह ऐसा जटिल व्यूह है जिसके सभी संस्तरो को प्रकट करना और उसके प्रतिरोध का आलोचनात्मक विवेक विकसित करना ही उनकी कविताओ की केंद्रीय चिंता है। लोकतंत्र मे साधारण नागरिकों और हाशिये के लोगों से जुड़े जरूरी सवालों पर चुप्पी और निष्क्रियता उनमें एक गहरी बेचैनी उत्पन्न  करती है। परंतु कविता में जटिल राजनीतिक सवालो का सामना करते हुए देवीजी अति वाचालता से बचते हैं। उनकी कविताएँ साधारण से लगते दिखायी देते उन बुनियादी प्रश्नों तक ले जाती है जिसका इतिहास और वर्तमान के पास कोई जवाब नही है-

 

जैसे भारतीय राजनीतिज्ञों जिनमें

पूंजीवादी, समाजवादी, उदारवादी,

हिंदुवादी, साम्यवादी, एकाधिकारवादी

मुस्लिमवादी वगैरह सारे शामिल हैं

को यह पता ही होगा कि

एक आदर्श राष्ट्र की संरचना के

क्या क्या घटक होते हैं

वे एक आदर्श राष्ट्र नहीं बना पा रहे

और मैं एक आदर्श कविता ।

 

देवी जी के काव्यात्मक अंत:करण का रेटरिक काफी बेचैनी भरा है लेकिन एकसचेतन विवेक उसे सयंत बनाये रखता है। उनके शब्द और वाक्य अपने में हमेशा पूर्ण होते हैं किसी घटना या बयान की तरह। इसके लिये वे सजग रहते हैं कि प्रतिरोध करते हुए उनकी भाषा या शिल्प कहीं खुद ही एकशक्ति संरचना मे ना बदलने लगे। भाषा को असाधारण बनाना उनकी कविता के रचनात्मक-व्यवहार का अंग नही है। यहाँ कविता में उनकी भाषा नये आयामो एवं उपकरणो का प्रयोग करती है और रचना को वहां ले जाती है जहाँ वह शब्दों से अधिक अभिप्रायों मे निवास करती है। जीवन के रोजमर्रा के दृश्य व अनुभव इन कविताओं में विंडबनाओं तथा अंतर्विरोधों से टकराते हुए सामने आते हैं और अपने विस्तार में हमारे समय के भीषण प्रश्नों को सामने रख देते हैं। इसलिए हमारे समय की बर्बरता, हिंसा और शोषण की किसी भी आहट को उनकी कविता विस्मृत नहीं करती है-

 

इस गणतंत्र के नियम

इस तरह नहीं बनते

कि जैसे जनभाषा बनती है

अभिजन जब सुरक्षाओं के लिए चीखते हैं

गणतंत्र के नियम उसी दिन निर्मित होते हैं ।

 

एक कवि के रूप में देवी जी समकालीन सवालों और क्रूरताओं को किसी अवधारणा के आधार पर नहीं बल्कि उसकी समकालीन जटिलता की समग्र संरचना के स्तरों पर संप्रेषित करते हैं ।समाज के जटिल ढांचे में जाति, वर्ग, धर्म, लिंग, समुदाय की भी बहुत सी पेचीदा स्थितियाँ हैं जिन पर सरलीकृत तरीके से नहीं सोचा जा सकता और उत्पीडऩ की यह अमानवीय परम्परा सूत्रबद्ध रूप में चलती है-

 

नौकरशाह का सम्बन्ध मिल मालिक से है

और मिल मालिक का मेल- मिलाप बैंकर से है

और बैंकर की गलबाँही कारपोरेट से है और

कारपोरेट का गठबंधन फाइनेंसर से है और

उसका रिश्ता उद्योगपति से है और

उद्योगपति का गठजोड़ अपराधी से है और

माफिया का लेन-देन पुलिस से है और

पुलिस की दाँतकाटी सरकार से है और

सरकार का सम्बंध राजनीतिज्ञ से है

राजनीतिज्ञ कहता है कि उसका जनता के साथ

रिश्ता अटूट है

अंतत: सारी मुश्किलें जनता के साथ

जनता के सबंध में आती थीं।

 

देवी जी की कविताओं में अपने समय की सभी संकीर्णताओं पर जो कड़ा प्रहार है वह पाठक की चेतना को जिस तरह झकझोरता है, आत्मविश्लेषण के लिए विवश करता है। वह दरअसल उनके शब्दों के द्वारा हमारे सोचने के तरीके पर कुठाराघात करता है कई पूर्वाग्रहों से मुक्त करता है और हमारी सीमाएँ बताते हुए संकेतित करता है कि इस तरह भी सोचा जा सकता है और इस नज़रिए से सोचा जाना चाहिए। इस दृष्टि से उनकी कविता पाठकीय चेतना का परिष्कार भी करती है। इस बौद्धिक बियाबान में एक वैकल्पिक मनुष्य और व्यवस्था की तलाश के संघर्ष में अपनी इस बेचैनी को वे स्वीकार भी करते हैं-

 

यह भाषा को ना बरत पाने की निराशा है

या मनुष्य को न बदल पाने की असंभाव्यता

एक भाषा मुझे क्यों नहीं बनाती निर्विकल्प

एक भाषा में क्यों नहीं बोल पाता पूरा सच

एक भाषा में क्यों नहीं हो पाता मैं असहमत

एक भाषा में क्यों हैं, इतनी अफवाहें

और क्यों है इतने सांमत और नौकरशाह

और इतने दुकानदार और इतने दलाल और

सांस्कृतिक माफिया और टर्नकोट और ओवरकोट

पहनकर घूमते नकली कवि और गिरोह और क्लाइंबर

कविता में क्यों है सत्ता सुख।

 

रचना में व्यक्तित्व और कृतित्व का यह ऐक्य उनके समकालीनो में दुर्लभ है। लोकतंत्र में राष्ट्र की अमूर्त अवधारणा को देवी एक सामाजिक परिघटना के रूप में देखते हैं। समकालीन परिवेश में बाजारवाद के चमकीले यथार्थ में निहित हिंसा, बर्बरताएँ तथा विद्रूपताएँ आज भी एक दु:स्वप्न की तरह मनुष्य की नियति को निर्धारित कर रहे हैं। देवीजी जानते हैं कि समाज की चेतना के जड़ और गतिहीन होने का परिणाम भी सामान्य मानव को ही भुगतना होगा। समाज और सत्ता के एक बड़े हिस्से का क्रूर और खतरनाक हो जाना जिस अन्याय और शोषण को जन्म देगा उसके भयावह परिणामों को भुगतने वाली भी हाशिये की वंचित मानवीय ईकाई ही है और शोषण की यह परंपरा अबाध गति से चलती रहेगी। वैचारिक संघर्ष से रहित समाज में शक्तिशाली प्रभुता सपन्न वर्ग और व्यवस्था की भूमिका पर उनकी प्रतिक्रिया स्पष्ट निर्भीक है-

'तमाम लामबंदियों के खिलाफ मेरे पास एक गुलेल थी और नदियों की तरह शहरो और शिल्पों और वस्तुओ को छोड देने का वानप्रस्थ। मेरे पास शाप थे। मेरे पास बहुत आदिम क्रोध था और सत्तावानों को घूर कर देखने का हुनर। मेरे पास यातनाएँ थी और खुशी मे मनहूस हो जाने का प्रतिकार। सलाहों और सत्ताओं का मुझ पर कम असर था- मैं पेचीदा था- अपनी ही चाबी से खुलने वाला। मणिकर्णिका की तरह मैं लगातार सुलगता रहता था।’

कविता के लिए एक ऐसा समय जिसमें अत्याचार और अन्याय के तरीके और हथियार बिल्कुल नये हैं संवेदनशीलता लगभग अपराध है और एक ऐसा संकीर्ण उन्माद व उभार जो मनुष्य को समूह में, उपभोक्ता मे बदल रहा है और प्रतिरोध असहाय है। अपने समय की पड़ताल करते हुए उसी परिदृश्य के बीच सहने की जगह को कहने की जगह बनाती ये कविताएँ उम्मीद और प्रतिरोध से बंधी मूलभूत आवाज की तरह नये दुर्गम रास्ते पर निरंतर गतिशील है।

 

सत्य को पाने मे मुझे अपनी दुर्गति चाहिये

चे ग्वेरा का चेहरा और स्टीफन हाकिंग का शरीर

फासबिन्डर की आत्मा और ऋत्विक घटक का काला-सफेद

बचे समय में मैं अपने दु:स्साहस से काम चला लूंगा और असहमति से।

 

देवी जी ने अपनी कविताओं में मनुष्य की निराशा और कथ्य की सादगी को जिस तरह साधा है उसमें अनौपचारिक सी लगती भंगिमा के बावज़ूद भाषा की आंतरिक तहों में खास तरह की विकलताएँ हैं, मानवीय चिंताएँ हैं। यह कविता की संरचना में समकालीन असंगतियों और विरोधाभासों के बीच बुनियादी प्रश्नों का ऐसा मेल है जो ताकत की दुनिया में कवि के नैतिक प्रतिरोध का एक अनिवार्य हिस्सा लगता है आरोपित नहीं। ये कविताएँ जिन तल्ख किस्म की विडंबनाओं की ओर हमे ले जाती हैं वह समय का भयावह सच है-

 

यहाँ कुछ बदलता था तो नागरिक

दलित में, मनुष्य मुसलमान में

विवेक पूँजी में

फोन पर षडयंत्र सारे

लीक से हटकर कहीं पर लोकतंत्र ।

 

देवी यहाँ खोये हुए गणतंत्र के साथ खोई हुई कविता की खोज का नैतिक उपद्रव भी बार-बार करते हैं जिनमें इतिहास की विसंगतियों और सत्ता की कुटिलताओं के प्रति सतर्क होकर ऐसे प्रश्नों से निरंतर टकराते हैं-

कह सकते हैं कि आदिवासी की बंदूक की तरह भरा हूँ

लेकिन फिलहाल तो अपने राज्य और जाति और

भाषा से डरा हूँ

और विद्रोह के एन जी ओ से और इस समकालीन

सांस्कृतिक खो-खो से।

 

 इस समय जबकि कुछ भी सीधा और आसान नहीं रह गया है तब देवी जी की कविताएँ अपने यूटोपियाई स्वप्न के साथ किसी भी समकालीन क्रूरता के भयावह यथार्थ से भिडऩे के लिए अभिशप्त हैं।

 

मुझे साफ पानी और

कम क्रूरता वाला शहर चाहिये जहाँ

अगर कोई हमला करने वाला आए तो बचाने के लिए बगल वाला आए

वह न आए तो उसके बगल वाला आए

मुझे मॉल और दलाल वाला

स्मार्ट सिटी नहीं चाहिए

मुझे ऐसा शहर नहीं चाहिए जहाँ रामदास को मालूम हो कि

रामदास की हत्या होगी

 

 इस बहुआयामी चुनौतियों के पतनशील दौर में जब अत्याचार और अन्याय के हथियार और तरीके बिल्कुल नये हैं नागरिक पराभव के इस परिदृश्य में देवी एक पुराने यकीन, उम्मीद और प्रासंगिक लोकतांत्रिक मांगों के साथ एक नयी कठिन राह पर चलते हैं जहाँ यातनाओं, निर्मम यथार्थ और बर्बर परिवेश के बीच उनकी कविता सत्ता और उसके आसपास एकत्रित निर्मित क्रूरता को निशाने पर लेती है। बुर्जुआ और मुक्त पूँजीवादी व्यवस्था में आभिजात्य संपन्न, और मध्य वर्ग की दोहरी नैतिकता, छदम और पाखंड पूर्ण सामाजिक- राजनीतिक तंत्र,असमान वितरण और हाशिये की अस्मिताओं का शोषण, बिचौलिया संस्कृति, और सेवा सेक्टर में व्याप्त भ्रष्टाचार इन सभी अंतर्विरोधों  कठोर सच्चाईयों को ये कवितायें ईमानदारी से मारक ढंग से बयान करती हैं। देवी जी हमारे समय के उन विरले कवियों में हैं जिन्हें सत्ता सरंचनाएँ कभी प्रदूषित नहीं कर पाईं और उनकी कविता की विश्वसनीयता जनपक्षधरता अटूट है।

उनकी इधर हाल में प्रकाशित बहुत सी कविताएँ जैसे- कोई और, एक फासिस्ट को हम किस तरह देखें, यातना देने के काम आती है देह, एक कम क्रूर शहर की मांग, किसी कम्युनिस्ट पार्टी का दफ्तर, वेटिंग रूम समसामयिक चिंताओ और सवालों से जुड़ी जरूरी कविताएँ हैं। कविता की परंपरागत संरचना को तोड़ती आक्रामक लेकिन सच के पूरी तरह करीब ये कविताएँ शिल्प ही नहीं संवेदना और विचार के धरातलपर भी दुर्लभ उपस्थिति हैं। अपनी रचना प्रक्रिया के लिए स्वंय देवी जी के शब्दो में-

'मेरे लिए कविता लिखने की प्रक्रिया फोर-बी पेंसिल के उपयोग जैसी है जहाँ खुद को बार-बार शार्पनर में डालना पड़ता है। यह नोक को खोजने की निरंतरता है।  यह प्रतिदिन की नैतिकता है। यहां अंतत: एक कैलेंडर बनता है जिसमें रोजमर्रा मे न्यस्त हिंसा और प्रतिरोध, अकेलापन और मदद, दुरभिमान और लोकतंत्र, नर्क और निर्वाण, दुविधा और इलहाम की कथाएं बनने लगती हैं। इस तरह शिल्पवस्तु का विस्तार कर देता है।’ 'विश्वविख्यात आलोचक बेलिंस्की भी मानते है कि-हमारे युग की कला न्याय की घोषणा और समाज का विश्लेषण है। यदि वह कोई सवाल याकिसी सवाल का जवाब नहीं तो वह कला निर्जीव है।’

युवा कवि-आलोचक 'अविनाश मिश्र’ को दिये एक साक्षात्कार मे देवी प्रसाद मिश्र ने यह माना है कि-'रचना के एक फ्रेम में जितना अधिक प्रतिकार हो सकता है, एक ईमानदार प्रतिकार -मैं वह करता हूं। लेकिन मै इसको किसी स्वांग में नहीं बदल सकता। इससे वह अविश्वसनीय हो जायेगा।’ इस दृष्टि से मुक्तिबोध के बाद देवी प्रसाद हिंदी कविता में ऐसे कवि हैं जिनमें युगीन कार्यभार को उटाने की बौद्धिक क्षमता और साहस है। मध्यवर्गीय महत्वाकाक्षाओं, दुविधा और दोहरेपन के प्रखर विरोध में जीवन की सच्चाई और मासूमियत के खो जाने का दुख उनकी कविताओं में स्पष्ट दिखाई देता है-

 

लौटते हुए गुजरते हुए बगल से दरगाह के

मैने बहुत सारी मनौतियां मांगी कि मेरा

राजनीतिक एकांत आंदोलन मे बदल जाये

मेरा दु:ख अम्बानी की विपत्ति में

वित्त मंत्री एक भूखे आदमी का

वृतांत बताते हुए रोने लग जाए।

मेरा बेटा घड़ा बनाना सीख जाए

एक कवि का अकेलापन हिंदी की शर्म मे बदल जाये।

 

वस्तुत: देवी प्रसाद मिश्र की कविताएँ कविता में  उस असमाप्त संघर्ष और मुक्ति की अनवरत खोज का आख्यान है जिसके विषय मे प्रसिद्ध कवि 'असद जैदी’ की कविता की पंक्ति के माध्यम से कहें तो- 'लडाईयां अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद में पूरी होने के लिये’। अपनी सम्पूर्ण मानवीय प्रतिबद्धता, जनपक्ष से जुड़ी क्रांतिधर्मिता के साथ उनकी रचनाएँ तमाम तरह की विद्रूपताओं और निराशा के बावजूद वैश्विक समाज के सर्वाधिक मूल्यवान शब्दों प्रतिरोध और उम्मीद को खोज कर सामने ला देती हैं जो हिंदी कविता मे उन्हें एक मील का पत्थर बनाती हैं। उनके कविता के प्रयोग गहरे और कठिन हैं जिनके बारे में प्रख्यात समकालीन कवि राजेश जोशी का कहना है- '' देवी प्रसाद मिश्र की कविता शक्ति संरचनाओं को समझने की एक निरंतर प्रक्रिया है जिसमें मनुष्य के स्वाभिमान की अवहेलना और स्वतंत्रता का अपहरण करने वाली शक्ति संरचनाओं के प्रति दो टूक अवज्ञा और असहमति उनकी कविता के स्वभाव में ही विन्यस्त है।’’ यह मात्र बौद्धिक विमर्श नहीं है बल्कि अवध के उनके गहरे अनुभवों से जुड़ा है। उनके पहले कविता-संग्रह-प्रार्थना के शिल्प में नहीं- की कविताओं में मिथक परंपरा से एक अलग किस्म का संबंध बनाने की जो कोशिश है उसके पुनर्पाठ से यह स्पष्ट होता है कि सत्ता केंद्रित शक्ति संरचनाएँ जो राज्य के प्रत्येक स्तर पर मौजूद थीं उनके प्रतिरोध की चिंता इन कविताओं का मूल स्वर है। जिनके नियत्रंण में वे प्रकृति से लेकर समाज तक को मुक्त करना चाहते हैं। इसलिए उनकी कविता कोई काल्पनिक प्रतिरोध नहीं, प्रतिरोध का विवेक उत्पन्न करती है और सत्ता-तंत्र की कुटिलताओं के प्रति सतर्क और चौकन्ना बनाती है।

 

यथार्थ दबंग है तो

कहना भी जंग है

कितने ही मोर्चे हैं

कितने ही संस्तर

कलह और झड़पों की

कितनी ही ज़बानें

और कितनी ही लडाइयाँ

कितने ही डर

और कितने ही समर ।

 

नि:सदेह देवी प्रसाद मिश्र की कविता इस अथक असमाप्त संघर्ष की दुर्गम राह पर जिस जनतांत्रिक स्वर के साथ निर्भीकता से अग्रसर हो रही है वह मनुष्य की बुनियादी अस्मिता को बचाने का एक मात्र विकल्प है ।

 

 

 

मीना बुद्धिराजा दिल्ली के एक कॉलेज में प्राध्यापक हैं। पहल में उनकी लेखनी को यह दूसरा अवसर मिला है। देवी प्रसाद की कविताओं पर लिखना बहुत चुनौतीपूर्ण है। उन्होंने देवी की सबसे नई प्रकाशित कविताओं को शामिल किया। देवी ह्दिी के कम लिखने कम छपने वाले कवि-कथाकार हैं। उनकी प्रतीक्षा रहती है।

आलोचनात्मक लेख, समीक्षाएँ तथा कविताएँ पत्र- पत्रिकाओं मे प्रकाशित।

ऐसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग- अदिति महाविद्यालय, बवाना, दिल्ली-39, दिल्ली-विश्वविद्यालय। संपर्क - 9873806557

 


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