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अक्टूबर - 2019

तीसरे नहीं,दूसरे रास्ते की तलाश

अच्युतानंद मिश्र

आलेख

अगली बार विजय देव नारायण साही

 

श्रीकांत वर्मा

 

 

श्रीकांत वर्मा का पहला संग्रह 'भटका मेघ’ 1957 मे प्रकाशित हुआ। श्रीकांत वर्मा की आरंभिक कविताओं में प्रकृति का रूमानी चित्र देखा जा सकता है। यह लगभग उस दौर के अधिकांश कवियों के यहाँ है। नई कविता की अधिकांश कविताओं में यह रूमानियत है, लेकिन यह रूमानियत छायावादी कविता की रूमानियत से भिन्न है। इसमें प्रकृति से एक तादात्म्य स्थापित किया जाता है। प्रकृति हमारे अस्तित्व के बाहर है। हम एक द्रष्टा की तरह प्रकृति को देखते हैं। नई कविता में प्रकृति को देखने पर बल है।

छायावादी कविताओं को अगर हम ध्यान से देखें तो वहाँ प्रकृति को बाह्य सत्ता के रूप में नहीं देखा गया है। छायावादी कवि अपनी अन्त: प्रकृति को ही प्रकृति का एक अंश मानते हैं। यही वजह है कि छायावादी कविता में अंदर और बाह्य का कोई स्पष्ट विभाजन हम नहीं पाते, परन्तु नई कविता तक आते-आते यह विभाजन स्पष्ट दिखने लगता है।

दूर उस अँधेरे में जो कुछ है, जो बजता है

शायद वह पीपल है ।

वहाँ नदी - घाटों पर थक कोई सोया है

शायद वह यात्रा है

दीप बाल रतजगा यहाँ करता है

शायद वह निष्ठा है 

इन शब्दों के पीछे कोई खड़ा है। कवि अपने भीतर के बोध को, संवेदना को, बाह्य दुनिया की संवेदना और बोध से जोड़ता है। यहाँ बाह्य प्रकृति और कवि का अंत:करण दोनों दो चीज़ें हैं। छायावाद की कविता में वह एक ही है, उनका विभाजन नहीं हुआ है। यह विभाजन कृषि समाज से औद्योगिक समाज की ओर प्रस्थान को भी इंगित करता है।

नई कविता के अधिकांश कवि प्रकृति को बाह्य सौन्दर्य के रूप में ही देखते और परखते हैं। देखने और परखने की यह प्रक्रिया हमें अक्सर चमत्कृत करती है। हम कह सकते हैं कि प्रकृति के प्रति यह जो चमत्कृति का बोध है, यह देखने की विलक्षणता पर आधारित है। इसका चरम हम अज्ञेय में पाते हैं। अज्ञेय दृष्टि को कविता में बदलते हैं। उनके लिए दृश्य से महत्वपूर्ण दृष्टि है। बाह्य सत्ता के केंद्र में व्यक्ति है। व्यक्ति स्वातंत्र्य का एक अर्थ यह भी है कि कवि बाह्य दृश्य को अपनी स्वतंत्र दृष्टि में ढालता है। जाहिर है ऐसे में कवि केंद्र में है। कविता के केंद्र में कवि की प्रतिभा है।

मुक्तिबोध दृश्य और दृष्टि के बीच यात्रा को कविता मानते हैं। वे प्रतिभा की जगह संवेदना और बोध की बात करते हैं। मुक्तिबोध के लिए कवि स्वयं को भी इसी यात्रा में निर्मित करता है। यानी मुक्तिबोध कविता को उपलब्धि नहीं काव्य-प्रक्रिया को उपलब्धि मानते हैं।

मुक्तिबोध नई कविता की इस आत्मवादी प्रवृत्ति के विरुद्ध संघर्ष करते हैं। मुक्तिबोध इस विलक्षणता या दृष्टि वैशिष्ट्य को काव्य-विलास की तरह देखते हैं। यही वजह है कि मुक्तिबोध का लेखन नई कविता को आत्मगतता के संकुचन से बाहर निकालकर आत्मसंघर्ष के मार्ग पर लाना चाहता है। आत्म की यह रगड़ उनके लिए चकमक की चिंगारी पैदा करती है। यह वही रगड़ है जिसने मनुष्य को ज्ञान के अंधकार से सभ्यता के उजाले तक आगे बढाया है।

हिंदी कविता के लिहाज़ से देखें तो 1964 का वर्ष बेहद महत्वपूर्ण है। 1964 में मुक्तिबोध की मृत्यु होती है और उनका पहला संग्रह प्रकाशित होता है। मुक्तिबोध की कुछ कविताओं ने हिंदी कविता की सूरत को बदल दिया। जिस तरह तीस के दशक में निराला की कविताओं के रास्ते हिंदी कविता में एक नये युगबोध का आरम्भ होता है, ठीक उसी तरह का परिवर्तन 60 के दशक में मुक्तिबोध की कविताओं के रास्ते आता है।

मुक्तिबोध की कविताओं का निर्णायक प्रभाव उस दौर की युवा पीढ़ी पर भी पड़ा। इस क्रम में रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा और राजकमल चौधरी का जिक्र किया जा सकता है। 'अँधेरे में’, 'ब्रह्मराक्षस’, 'चाँद का मुंह टेढ़ा’ आदि कविताओं से हिंदी कविता में एक नये तरह की समकालीनता का आरम्भ होता है। इस समकालीनता का अर्थ था कि कविता का संदर्भ न सिर्फ बाह्य-जगत से है, बल्कि वह कवि के अंतर्जगत से भी जुड़ा हुआ है। अंतर्जगत की अभिव्यक्ति ने कविता के नये आयाम विकसित किये। नई कविता के अंत:करण के आयतन के संकुचन के विरुद्ध मुक्तिबोध का संघर्ष निर्णायक रहा और नई पीढ़ी पर उसका अनुकूल प्रभाव पड़ा।

इस प्रभाव को सबसे अधिक श्रीकांत वर्मा की कविताओं पर देखा जा सकता है। श्रीकांत वर्मा की आरंभिक कवितायें धीरे-धीरे रूपांतरित होने लगती हैं। वे रूमानियत से आरम्भ करते हुए आधुनिकता की ओर प्रस्थान करते हैं। इस रूपांतरण के केंद्र में मुक्तिबोध तो हैं ही साथ ही अपने परिवेश के साथ एक आलोचनात्मक सम्बन्ध भी है। यह आलोचनात्मक सम्बन्ध श्रीकांत वर्मा की कविताओं की खास भावभूमि है। इसे ही धीरे-धीरे वे एक परिपक्व भाषिक लय में बदलते हैं।

मुक्तिबोध की आत्मालोचना अपने अन्त:करण को संबोध्य है। लेकिन श्रीकांत वर्मा के यहाँ यह आत्मालोचना आत्म को बाह्य में बदलती है। वहाँ अंत:करण का एक प्रतिबिम्ब है, जो बार-बार कवि के सामने आता है।वे अपने मैं के उस बाह्य स्वरुप से संवाद करते हैं। इसलिए यहाँ भाषा अधिक मूर्त और मुखर है ।

मैं एक अदृश्य दुनिया में, न जाने क्या कुछ कर रहा हूँ।

मेरे पास कुछ भी नहीं है-

न मेरी कवितायें हैं न मेरे पाठक हैं

न मेरा अधिकार है

यहाँ तक कि मेरी सिगेरेटें भी नहीं हैं

मैं गलत समय की कवितायें लिखता हुआ

नकली सिगरेट पी रहा हूँ।

यह जो मुखर आत्मालोचन का स्वर है- यह आत्म के बाह्य प्रतिरूप को संबोधित है। यह मुक्तिबोध के उस अन्त:करण का अगला चरण है। एक तरह से कहें तो ये कवितायें उत्तर मुक्तिबोधीय कवितायें हैं। हिंदी कविता में मुक्तिबोध एक वृहद् क्रमभंग को रचते हैं। कहना न होगा श्रीकांत वर्मा की कवितायें उस क्रमभंग की एक महत्वपूर्ण और अनिवार्य कड़ी साबित होती हैं।

इस आत्मालोचन के बाह्य प्रतिरूप को रखते हुए वे एक नई काव्य भाषा की तलाश करते हैं। यह काव्यभाषा सपाट बयानी में एक मोड़ पैदा करती है। हर वाक्य कई अर्थों को अन्तध्र्वनित करते हैं। कुछ-कुछ थ्री डी वाले उन चित्रों की तरह जिसमें अलग-अलग कोणों से देखने पर अलग अलग चित्र नज़र आते हैं। मायादर्पण शीर्षक कविता की आरंभिक पंक्तियों को देखा जा सकता है।

देर से उठकर

छत पर सर धोती

खड़ी हुयी है

देखते-ही-देखते

बड़ी हुयी है

मेरी प्रतिभा

इस आखिरी पंक्ति से पहले क्या हमारे जेहन में किसी स्त्री का चित्र नहीं घूमता? आखिरी पंक्ति कोण बदल देती है। स्त्री की जगह कवि की प्रतिभा और फिर उसका अस्तित्व आ जाता है। ऐसा क्यों है? यह अंत:करण का बाह्यरूप है।आत्मालोचना की यह नई शैली है,जिसमें एक साथ पारम्परिक और आधुनिक दोनों की तरफ पाठक जाता है। उसकी चेतना पर दोनों अर्थों का प्रभाव पड़ता है। पाठक के भीतर ये भिन्न अर्थ छवियाँ एक तनाव उत्त्पन्न करती हैं। एक ऐसा तनाव जिसमें हम वास्तव के प्रति शंकित हो जाते हैं-

मैं अपनी मार खायी हुयी-

पीठ

सेंक सकता हूँ

धूप में

बेटियां और बहुएं

सूप में

अपनी अपनी

आयु के

दाने

बिन

 रही

 है।

मार खायी हुयी पीठ को धूप में सेंकने से क्या तात्पर्य है? पीठ को कल मार खाने लायक दोबारा तैयार करना। अपनी उपयोगिता को बचाए रखना। धूप और सूप की तुकबंदी दो अलग सी प्रतीत होती चीज़ों को जोड़ती है, वहीँ कविता में शोषण की एक आंतरिक संगति भी विकसित करती है। क्या हम यह नहीं देख पाते कि शोषण की यह प्रक्रिया कितनी मज़बूत और व्यापक है? वह जितनी बाहर है, उतनी ही भीतर भी। ऐसे में यह संगति ताकत के विरोध की एक भाषिक शैली भर नहीं है, बल्कि वहमाक्र्यूज़ के उस वृहद् नकार की चेतना को भी इंगित करती है, जहां रोजमर्रा के छोटे-छोटे प्रतिरोध एक व्यापक विरोध की चेतना के लिए जगह बनाते हैं। यह जगह सिर्फ कवि का बाह्य परिवेश भर नहीं है, वह कवि की आंतरिक चेतना के भीतर भी जगह बनाती है।

आज जिसे हम समकालीन कविता के रूप में रेखांकित करते हैं, उसका 1967 में प्रकाशित तीन कविताओं से महत्वपूर्ण रिश्ता है। इन तीन कविताओं ने हिंदी कविता के समय-बोध और अंतर्वस्तु दोनों को बदल दिया। कविता समकालीनता और तात्कालिकता में फर्क करने लगी। ये कवितायें थीं 'आत्महत्या के विरुद्ध’, 'मायादर्पण’ और 'मुक्तिप्रसंग’।

मायादर्पण कविता निजता, परिदृश्य और आन्तरिकता सबको एक ही स्थान पर ला देती है। किसी कोण से देखने पर जिसे हम एक बाह्य परिवेश समझ रहे होते हैं, वह दूसरे कोण से कवि का आंतरिक संसार बन जाता है। यह कविता इस ओर इंगित करती है कि कविता किसी विषयवस्तु से संगति भर नहीं है। जीवन और दृष्टिकोण में जो व्यापक विसंगति है, विडंबना है, कविता उससे बच नहीं सकती। कवि का काम संतुलन या भाषिक करतब दिखाना नहीं है - हालाँकि कविता ऐसा भी करती है और स्वयं श्रीकांत वर्मा की कविताएँ इसे अंजाम देती रही हैं- लेकिन मायादर्पण कविता समकालीनता को कई कोणों से उठाते हुए हमारे समय की उस व्यापक विडंबना और विसंगति को रख देती है जिससे एक वृहद् नकार की चेतना विकसित हो सकती है। इस कविता में जगह-जगह तुकबंदी देखी जा सकती है। यह तुकबंदी कविता के हमारे पारम्परिक आस्वाद को बदल देती है, क्योंकि भाषा की लयाताम्कता से उत्त्पन्न तुकबन्दी यहाँ नहीं है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि भाषा की लयाताम्कता जिस तुकबन्दी को इंगित करती है, वह एक खास गति से,जीवन बोध से, सांस्कृतिक चेतना से निर्मित हो रही थी। मायादर्पण कविता हमें यह बताती है कि वह गति, जीवन बोध और सांस्कृतिक चेतना बदल चुकी है।

मैं कविताएँ बकता नहीं हूँ।

मैं थकता नहीं हूँ

                 कोसते ।

सर्दी में अपनी संतान को

केवल अपनी

हिम्मत की रजाई में लपेटकर

                   पोसते

कोसते और पोसते की यह तुकबंदी भाषा की एक नई गति और सांस्कृतिक चेतना को इंगित करती है। यह भाषा की उस रूढि़ के भी विरुद्ध है, जहाँ कविता के सौन्दर्यबोध को पाठक के मस्तिष्क में पहले ही आरोपित कर दिया जाता है। यह मान लिया जाता है कि कुछ चीज़ें ही काव्यात्मक हो सकती हैं और शेष चीज़ें नहीं।

श्रीकांत वर्मा की कवितायें, कविता के इस वैशिष्ट्य का विरोध करती हैं। कविता की एक समानान्तर भाषा विकसित करती हैं।

मुक्तिबोध की कवितायें विषय की केन्द्रीयता को तोडती है। यह टूटन कविता में बड़ा मोड़ ला देती है।कविता के केंद्र में विषय नहीं बल्कि समय का आना कविता की एक नई भूमिका निर्मित करता है। हिंदी कविता में मुक्तिबोध की यह बड़ी देन है। मुक्तिबोध की की कविताओं के केंद्र में समय तो है, लेकिन वह मूर्त होता है 1967 में प्रकाशित उपरोक्त तीन कविताओं में। यहाँ से हिंदी कविता में समकालीनता की उठान एक नई भावभूमि की खोज करता है।

समय को हम वस्तु या विषय की तरह नहीं देख सकते लेकिन समय हर विषय और वस्तु में मौजूद है। हर विषय और वस्तु की अपनी ज्यामिति होती है। समय हर तरह की ज्यामितिक सीमाओं का अतिक्रमण करता है। यह स्वाभाविक ही है कि मुक्तिबोध हमेशा इन प्रश्नों से उलझते रहें कि कविता का न तो कोई अंत है और न ही कोई आरम्भ। यह बात हम मायादर्पण कविता के संदर्भ में कह सकते हैं। यह कविता किसी भी तरह के आकार और प्रकार में समाविष्ट नहीं हो सकती। इसमें किसी भी तरह के संतुलन की तलाश नहीं की जा सकती। मायादर्पण समय के एक व्यापक असंतुलन की कविता है। यह असंतुलन जीवन बोध और संस्कृति में आये परिवर्तन को इंगित करती है। कविता के पाठक के लिए यह एक परेशानी का सबब बनता है। वह जीवन के असंतुलन से भागकर कविता में संतुलन की तलाश करता है। कविता उसके लिए उतनी ही देर की एक राहत है। कविता की पारम्परिक भूमिका यही थी। समकालीन कविता पाठक को किसी तरह की राहत देने से मना कर देती है। वह पाठक के पाठकीय संस्कार को चुनौती देती है। वह पाठक को छद्मराहत की जगह उसे और बेचैन करती है। जीवन के असंतुलन को कविता में संतुलन की तरह पढने से पाठक एक ही समय में दो जगहों पर रहने लगता है। छद्म और वास्तविकता के बीच झूलते पाठक के लिए ऐसे में कविता का छद्म जीवन के यथार्थ से बचने का एक विकल्प हो जाता है। कविता एक मनोरंजन की वस्तु बनकर रह जाती है। यह प्रक्रिया कविता को एक उपभोग्य वास्तु में बदल देती है जहाँ शाश्वत और क्षणिकता की कोटियाँ बन जाती हैं।

श्रीकांत वर्मा की कवितायें हमें बेतरह परेशान करती हैं। वे हमारी उलझनों को बढाती हैं। लेकिन ऐसा करते हुए वे हमें जीवन यथार्थ के प्रति सचेत करती हैं,ऐसे में अगर कवि यह कहता है  ''जो मुझसे नहीं हुआ वह मेरा संसार नहीं’’ तो प्रकारांतर से यह बात प्रमाणित ही होती है कि कवि, कविता को छद्म संसार की कविता में नहीं बदलता। जीवन के ताप और बेचैनी ही उसकी कविता का उत्स है ।

साठोत्तरी कविता में श्रीकांत वर्मा को कैसे देखें? साठोत्तरी कविता के मूल में मोहभंग की मनोभूमि है। श्रीकांत वर्मा के यहाँ भी मोहभंग है, लेकिन यह भी देखना महत्वपूर्ण है कि साठोत्तरी कविता के कवि जहाँ विरोध के लिए भाषिक दायरे का उल्लंघन करने लगते हैं, वहीं श्रीकांत वर्मा भाषा के नये औजारों की तलाश करते हैं ताकि कविता में एक नई भाषिक संवेदना पैदा हो। यह भाषिक संवेदना कविता के पुराने दायरे का न सिर्फ अतिक्रमण करती है बल्कि नये इलाकों की खोज भी करती है। कहना न होगा कि जहाँ साठोत्तरी कवियों का भाषा पर यकीन कम होने लगा था वहीँ श्रीकांत वर्मा भाषा के नये मिजाज़ को विकसित करने की कोशिश कर रहे थे।

मायादर्पण संग्रह की कई कविताएँ समय के व्यापक विस्तार को और जीवन के वृहद असंतुलन को इंगित करती हैं। उदहारण के तौर पर बुखार कविता को देखा जा सकता है।

यह कविता आंतरिक ताप और बाहरी विरोधाभाषों को एक साथ प्रस्तुत करती है, कविता में एक तरफ बाहरी जीवन के ब्योरें है। प्रकट तौर पर इन ब्योरों में एक तरह की असंगति नज़र आती है, लेकिन ज्यों ही हम उसके भीतर प्रवेश करते हैं तो हम पाते हैं कि ये सारे असम्बद्ध से लगते दृश्य भीतरी ताप से जुड़े हुए हैं।

मेरे जीवन में एक ऐसा वक्त आ गया है

जब खोने को

कुछ भी नहीं मेरे पास-

दिन दोस्ती रवैया

राजनीति,

गपशप, घास

और स्त्री हालाँकि वह बैठी हुयी है

मेरे पास

कई साल से

इस कविता की भाषा पुराने भाषिक दायरे को न सिर्फ तोडती है, बल्कि व्यापक अर्थों में कविता के अर्थ और संदर्भ को बदल देती है। यह कविता में एक नये प्रारूप को दर्ज़ करती है।

अकविता के अधिकांश कवि सिर्फ भाषा को काव्य विहीन बनाने में शक्ति गंवा रहे थें, वहीं श्रीकांत भाषा की नई तुर्शी की तलाश कर रहे थे। श्रीकांत भी भाषा की कुलीनता से लड़ रहे थे, वे कविता में जीवन के सामानांतर असंतुलन की मांग कर रहे थे। लेकिन बावजूद इस सबके वे भाषा के जाल में उलझ नहीं रहे थे।वे भाषा के नये क्षितिज की तलाश कर रहे थे।

मूर्खों देश खोकर ही

मैंने प्राप्त की थी

यह कविता

जो किसी की भी हो सकती है

जिसके जीवन में

वह वक्त आ गया हो

जब कुछ भी नहीं उसके पास खोने को

 

2

 

श्रीकांत वर्मा की कविताओं में व्यंग्य नागरिक जीवन की उहापोह असमर्थता, निराशा ऊब और छटपटाहट से पैदा होता है। प्रगतिशील कवियों के व्यंग्य से यह भिन्न है। इसमें एक खास गति और नोंक है।

श्रीकांत वर्मा की कविताओं में शहर, शहरी जीवन जी रहे मनुष्य का आत्मिक संसार, उसका भय, उसकी कुंठा और उसका अकेलापन आदि प्रमुख हो चले थें। आधुनिकता और क्रूरता, विचारधारा और वर्चस्व उनके लिए सत्ता, ताकत और इतिहास के ही अलग अलग नाम थें। एक कवि इनके सामने क्या कर सकता है? यह बेचैनी जहाँ श्रीकांत वर्मा के यहाँ बार बार नज़र आती है वहीँ वे कविता लिख कर उसका अनावरण भी करते हैं।

वे इस बात से वाकिफ थे कि निराशा का भी अपना आनंद होता है। निराशा के रास्ते भी एक बौद्धिक अनुकूलन विकसित होने लगता है। प्रश्न पूछने को ही हम मुक्ति मान लेते हैं। इस तरह मुक्ति की एक छद्म चेतना हमें नियंत्रित करने लगती है। कई बार श्रीकांत वर्मा इस तथ्य को जानते हुए भी इसका शिकार होने लगते हैं। वे इतिहास, वर्तमान, देश, राष्ट्र, नागरिक, समाज सभी को प्रश्नों के दायरे में ले आते हैं। लेकिन इन सीमाओं के बावजूद जब वे अपने ही प्रश्नों के धुंध से बाहर आते हैं तो एक इमानदार आत्मस्वीकृति उन्हें इस बौद्धिक अनुकूलन से बचा लेती है।

पृथ्वी में सबके लिए जगह है, यह कहकर

शामिल हो गया शोर

स्वाद में

बरसों तक लिखते हुए मैंने प्रमाद में

अनुभव किया,

दूसरी कोई भाषा न थी।

श्रीकांत वर्मा की कविताओं में यह बात बार-बार सामने आती है कि संस्कृति और जीवन बोध के रास्ते मनुष्य और मनुष्यता दोनों को बदला जा रहा है। आखिर ऐसी स्थिति में एक कवि के पास विकल्प क्या है? कविता मनुष्य की सामूहिक चेतना की खदबदाहट है, जिसे कवि समयानुकूल भाषा के अव्यवों से चेतना की हांडी पर चढ़ाता है।

श्रीकांत वर्मा की बेचैनी दरअसल इसी विकल्प-हीनता से निकलती है। उनकी भाषा एक रचनात्मक नैराश्य को स्वर देती है। श्रीकांत के यहाँ बहुत सचेत अर्थों में झूठी आशावादिता से बचने की कोशिश हम देखते हैं।

कहाँ से शुरू करूँ, यहाँ से, वहाँ से, कहाँ से शुरू करूँ

अपना रोजनामचा

जिसमें सिर्फ बढ़ता हुआ दिन ही नहीं गिरता हुआ हौसला भी

है,

कहाँ से शुरू करूँ

आधुनिकता के अन्तर्विरोधों के प्रति वे धीरे धीरे सजग होने लगे थे। वे आधुनिकता के पक्षधर तो थे ही, लेकिन वे उसके आलोचक भी थे। वे जहाँ आधुनिकता की वकालत करते थे वहीं उसे लेकर भय और आशंका से भी घिरे थे। 70 के दशक की उनकी कविताओं में आधुनिकता के इस द्वंद्व को बखूबी महसूस किया जा सकता है।

श्रीकांत वर्मा का जन्म एक कसबे में हुआ था। वे अपनी तरुणाई की उम्र में दिल्ली पहुंचे। उन्होंने दिल्ली और बिलासपुर के अन्तर्विरोध में हिंदुस्तान को समझने की कोशिश की। यह द्वंद्व उनके आरम्भिक तीनों संग्रहों में नज़र आता है। चौथे संग्रह तक आते-आते उनकी दृष्टि में एक फैलाव नज़र आता है, वे बिलासपुर और दिल्ली के द्वंद्व से बाहर आकर मनुष्य समाज और दुनिया के अंतर्विरोधों को समझने की कोशिश करते हैं।

'बीसवीं शताब्दी के अँधेरे में’ की भूमिका में वे लिखते हैं ''18 वीं शताब्दी में मनुष्यता ने एक दूसरा ही रास्ता पकड़  लिया। यह रास्ता था विज्ञान और टेक्नोलॉजी का। इस पर चलती हुयी मनुष्यता इन ढाई सौ वर्षों में जिस जगह पहुंची है, क्या वही उसका गंतव्य था, यह सवाल स्वयं मनुष्यता के सामने मुंह बाए खड़ा है। युद्ध का भय इन्सान को जकड़े हुए है, परमाणु संहार का खतरा उसकी गर्दन पर डिमॉक्लिज़ की तलवार की तरह झूल रहा है, समृद्ध समाजों में दिशाहीनता है, गरीब देशों में भुखमरी है, काले और गोरे का भेद आज पहले से अधिक तीव्र है , उर्जा के श्रोत सूख चले हैं, क्रांतियाँ अपने वायदे पूरे नहीं कर सकी हैं, विचारधाराएँ निष्प्राण जान पड़ती हैं’

ज्ञान और तर्क ने मनुष्यता को मध्युगीन गह्वर से निकाला। मनुष्य अपने इर्द गिर्द को लेकर प्रश्न उठाने लगेगा। हेगेल ने कहा था कि जो कुछ भी मनुष्य के विवेक से बाहर है, वह तर्क से परे है। यह मनुष्य की स्वतंत्र चेतना पर बहुत बड़ी टिप्पणी थी। पहली बार मनुष्य ने ईश्वर को विस्थापित किया। लेकिन आधुनिकता की परिणति विज्ञान के रास्ते वर्चस्व में ही हुयी। मनुष्य एक गह्वर से निकलकर दूसरे गह्वर में उलझ गया। उसकी स्वतंत्र तार्किकता तकनीकी तार्किकता में बदल गयी। युद्ध, घृणा, उन्माद और लोभ के एक ऐसे दलदल में वह फंसता चला गया, जहाँ से कोई वापसी संभव नहीं नज़र आती थी। कहना न होगा कि श्रीकांत वर्मा की बेचैनी और प्रश्नाकुलता के मूल में बीसवीं सदी का मनुष्य, उसका जीवन बोध और भविष्य की आशंकाएं थीं।

आधुनिकता ने शहरों को पैदा किया। शहरों ने मनुष्य को गति और रौशनी दी। आधुनिक यांत्रिकी और चिकित्सा दिया। लेकिन इस सबके बदले मनुष्य के आत्मिक संसार को नष्ट-भ्रष्ट भी कर दिया। मनुष्य की आध्यात्मिक चेतना का वस्तुकरण होने लगता है। वस्तुकरण की इस प्रक्रिया के द्वारा विवेक का यांत्रिकीकरण होने लगता है। वह स्वयं ही एक स्वचालित वस्तु में बदल जाता है। विवेक की अपनी निजी विशिष्टताएं समाप्त हो जाती हैं। यांत्रिकता ही विवेक के ऊपर हावी हो जाती है। आधुनिकता के फलस्वरूप विवेक का यांत्रिकीकरण और अंतत: यांत्रिक बुद्धिवाद की स्थापना- इसके घातक परिणामों को श्रीकांत वर्मा बार-बार अपनी कविताओं में रखते हैं। श्रीकांत वर्मा मनुष्य के यांत्रिक विवेक को बार-बार परखते हैं और उसकी आत्मिक दुनिया के पुन:सृजन को अनिवार्य मानते हैं-

जरुरी नहीं था युद्ध में मारा जाना

मगर मैं मारा गया युद्ध में !

युद्ध से मतलब युद्ध भूमि से नहीं

बल्कि युद्ध से बचकर

सड़क पर चलता हुआ

सहस्त्रों सूर्यों के प्रकाश की तरह

एक बूम के फटने से

          मारा गया मैं

***

जो घटा है

बीसवीं शताब्दी के मनुष्य के साथ!

कांपते हैं हाथ !

यहाँ एक कवि का बयान है, हलफनामा है। शताब्दी की, सभ्यता की, संस्कृति की रपट है। निश्चय ही यहाँ कविता छूट जाती है। एक कवि कविता के चौखाने से बाहर आ जाता है। इन कविताओं में एक आवेग है। ये आवेग महज़ कल्पना नहीं हैं। आप इसे पढ़ते हुए कवि के मस्तिष्क में रेंगते हुए शब्दों से उत्पन्न थरथराहट को महसूस कर सकते हैं, लेकिन कई बार कवि इसके आवेग में खुद ही बह जाता है। इसलिए इन कविताओं में प्रामाणिक अनुभव होने के बावजूद संवेदनात्मक ऊष्मा का अभाव पाठक को विरक्त कर देता है। हम पाते हैं कि इन कविताओं में कवि का विवेक अधिक चैतन्य हो जाता है।सूरज की रौशनी और सौन्दर्य को जिस तरह हम खिड़की से या रोशनदान के पास खड़े होकर देख पाते हैं, क्या उसे किसी खुले मैदान में देख पाना संभव है? विवेक जब संवेदना को नियंत्रित करने लगती है तो अक्सर ही कविता पीछे छूट जाती है और कवि आगे निकल जाता है।

इन सीमाओं के बावजूद जलसाघरकी कविताओं का ऐतिहासिक महत्व है।यह संग्रह उनके पिछले संग्रहों से इस अर्थ में भिन्न था कि इसमें उनकी चिंताएं समय-बोध के साथ विश्व-दृष्टि को भी समाहित करने लगी, मनुष्य समाज और जीवन के कुछ गंभीर और अनिवार्य प्रश्नों को वे कविता में बार -बार उठाने लगे। रूमानियत का मेघ उनके व्यक्तित्व से लगभग पूरी तरह निस्तार पा चूका था। अब वे गहरे यथार्थ में उतर चुके थे। यह यथार्थ कल्पना से अधिक त्रासद और भयावह था। आशंका, घबराहट, भय को जिस तरह श्रीकांत वर्मा ने लिखा, वह हिंदी कविता की एक बड़ी उपलब्धि थी। उनकी कविताओं में प्रश्न, हैरानी और खीझ बढऩे लगी। जिन कविताओं में कवि कविता के साथ और उसकी संरचना में विन्यस्त नज़र आता है वहाँ हम विचार और संवेदना के अविभक्त धरातल पर नये तरह की कविता को पढ़ते हैं।

किसको दूँ अपना बयान? हलफनामा

उठाऊं

किसके सामने? कोई है? या केवल

बियाबान है ?

 

3

जलसाघर कविता तक आते-आते श्रीकांत वर्मा के यहाँ एक बौद्धिक परिपक्वता दिखने लगती है, उनकी बौद्धिकता कविता में प्रश्नाकुलता उत्पन्न करती है। वे वर्तमान और इतिहास के बीच सूत्र तलाशने की कोशिश करते हैं। इस बीच उनके जीवन में भी परिवर्तन हुए। वे साहित्य की चिंताओं के रास्ते राजनीति में आये। राजनीति में वे कांग्रेस की तरफ थे और ऐसा लगता था कि वामपंथ के प्रति जो उनका आलोचनात्मक रवैया रहा है, उसके मूल में उनके कांग्रेसी मन की महत्वपूर्ण भूमिका है। परन्तु क्या यह बात उनकी कविताओं को पढ़कर भी कही जा सकती है? श्रीकांत वर्मा की आलोचना के केंद्र में उनके व्यक्तित्व और जीवन की भूमिका ही अधिक रही कविता की कम। जहाँ कविता पर बात हुयी भी वहाँ भी निष्कर्ष जीवन और व्यक्तित्व ही से निकाले गये।

श्रीकांत वर्मा की कविता में और उनके व्यक्तित्व में किसी तरह की केन्द्रीयता या सूत्रात्मकता की तलाश व्यर्थ है, उनका स्पष्ट मानना था कि कविता हर तरह के केन्द्रों का विरोध करती है। ऐसे में प्रश्न यह है कि उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने क्या उनकी कविता और उनके काव्यबोध को प्रभावित नहीं किया? यह कहना कठिन है कि वे चाहते हुए भी पूरी तरह बचे रह गये होंगे। लेकिन दोनों के बीच एक तीखा द्वंद्व तो था ही।शायद इसी द्वंद्व, ऊहापोह और दुविधा में उन्होंने लिखा था -

चाहता तो बच सकता था

मगर कैसे बच सकता था

जो बचेगा

कैसे रचेगा

श्रीकांत वर्मा ने बचने की जगह उलझने का रास्ता अपनाया। कविता और जीवन दोनों में जूझने को ही उन्होंने आपद्धर्म माना।

श्रीकांत वर्मा की कवितायें प्रश्नों से भरी है। संभवत: समकालीन कविता में इतने प्रश्न किसी कवि ने नहीं पूछे होंगे। परन्तु ये प्रश्न उनके व्यक्तित्व की बेचैनी को ही दिखाते हैं।

जलसाघर की कविताओं तक आते-आते उनके उनके प्रश्नों के केंद्र में मनुष्य नियति और इतिहास आ गये, लेकिन ये प्रश्न एक स्तर पर उनके अपने जीवन-बोध से तो दूसरे उनके वर्तमान परिवेश से जुड़े हुए थे। मगध की कविताओं में बहुत से आलोचकों और विद्वानों ने इतिहास, इतिहासबोध और जातीय स्मृति की तलाश की है और ऐसा करते हुए वे बहुत गलत या असंगत निष्कर्षों की तरफ पहुंचे हैं।

मगध की कविताओं को अगर जलसाघर की कविताओं के साथ रखकर पढ़ा जाए तो इन कविताओं के मर्म को पाया जा सकता है। जलसाघर से लेकर मगध तक की कविताओं का जो समय है, वह भारतीय राजनीति का एक बेहद बेचैन दौर है। 1970 से 1985 तक के समय को अगर हम ध्यान में रखें तो मगध की रचनाओं को समझा जा सकता है। ये कवितायें इतिहास या इतिहासबोध की कवितायें नहीं हैं। ये वर्तमान और वर्तमान के द्वंद्व की कवितायें हैं। इन कविताओं में वर्तमान के अन्तर्विरोध गहरे तक विन्यस्त हैं।

इन कविताओं को पढ़ते हुए हमारा साबका दो श्रीकांत वर्मा से पड़ता है। एक कवि श्रीकांत वर्मा से जो अपने समय के प्रति प्रश्नाकुलता से और बेचैनी से भरा हुआ है। दूसरे व्यक्ति श्रीकांत वर्मा से जो जीने के लिए और दृश्य में बने रहने के लिए समझौते करता है। राजनीतिज्ञों पर पुस्तके लिखता है, उन्हें सलाह देता है। अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए योजनायें बनाता है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये अन्तर्विरोध सिर्फ श्रीकांत वर्मा के हिस्से नहीं है, बल्कि यह आधुनिक सभ्यता की मूल प्रवृति है। वह हमें इसी तरह विभक्त करती है। लेकिन मगध की कविताओं में जो प्रश्न श्रीकांत वर्मा पूछते हैं- वे प्रश्न वे उन सत्ताओं और ताकतों के विरुद्ध ही हैं, जिसके साथ व्यक्ति श्रीकांत को हम पाते हैं। यह एक कवि की ईमानदारी ही है कि वह अपने भीतर के इस विभाजन को ढंकता या छिपाता नहीं हैं। वह उसे अपने समय के दाय की तरह स्वीकार करता है। इन कविताओं में श्रीकांत वर्मा बार-बार इस बात पर बल देते हैं कि जो दिखाई दे रहा है, जो कहा जा रहा है, जो हमारी चेतना ने स्वीकार कर लिया है, उस पर पूरी तरह यकीन नहीं किया जा सकता।

न मगध है, न मगध

तुम भी तो मगध को ढूढ़ रहे हो

बन्धुओं

यह वह मगध नहीं

तुमने जिसे पढ़ा है

किताबों में ,

यह वह मगध है

जिसे तुम

मेरी तरह गँवा

चुके हो

इन कविताओं को पढ़ते हुए हमारे मन में ये प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि 'मगध’, 'कोसल’, 'लिच्छवी’, 'वैशाली’ आदि बड़े गणराज्य जो कि इतिहास के अवशेष हैं, यहाँ वर्तमान में क्या कर रहें हैं? दरअसल जन-स्मृतियों में ये ताकत के केंद्र के रूप में मौजूद रहे हैं। इनके इतिहास से ज्यादा शक्तिशाली इनकी स्मृतियाँ हैं, जो जनसमूह में जीवित है। श्रीकांत वर्मा ताकत के इन प्रतीकों को वर्तमान के ताकत के केन्द्रों पर आरोपित करते हैं। वास्तव में ये सभी गणराज्य वर्तमान के सत्ता प्रतिष्ठान हैं। इस दृष्टि से पूरे संग्रह को एक वृहद् कविता की तरह पढ़ा जा सकता है ।चिल्लाता कपिलवस्तु कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं-

उज्जयिनी

उज्जयनी नहीं रही -

न न्याय होता है

न अन्याय

***

किसी में दया नहीं

किसी में हया नहीं

कोई नहीं सोचता

जो सोचता है

दोबारा नहीं सोचता

***

मिथिला को लीजिये -

कल की बात है

राज्य करते थे विदेह

उसी मिथिला में

शासन करता था संदेह

क्या ये सभी वर्तमान लोकतंत्र की संस्थाएं नहीं है? क्या ये प्रकारांतर से वर्तमान न्यायालय, संसद और विधान सभाएं नहीं है? लोकतंत्र का वर्तमान, अतीत की सत्ता स्मृतियों से किस तरह जुड़ा हुआ है, कैसे वह जनता के अवचेतन में अब भी मौजूद है -अगर इस बात को समझना हो तो मगध की कवितायें पढ़ी जानी चाहिए। इस संदर्भ में भी कि किस तरह सामूहिक चेतना को स्मृतियों में मौजूद चेतना के रास्ते रूपांतरित किया जाता है।

सत्ताएं पहले अतीत के शोषण और ताकत केन्द्रों की प्रशस्ति गाती हैं। परिणामस्वरूप जनता के अवचेतन में मौजूद सत्ता और ताकत के केंद्र सामूहिक चेतना में जगह बनाने लगते हैं? अशोक,चन्द्रगुप्त, राणा प्रताप से लेकर अकबर और औरंगजेब तक को हमारी सामूहिक चेतना का हिस्सा बनाया जाता है।हमारी संस्कृति हमें यह नहीं कहती कि ये शासक थे और बर्बर थे। ये सामन्ती थे और क्रूर थे। फिर नये शासक आते हैं। वे लोकतंत्र सत्ता और लोकतांत्रिक संस्थाओं के रास्ते आते हैं लेकिन वे वास्तव में उन्ही शासकों की तरह होते हैं, होना चाहते हैं। जनता के अन्तर्विरोध इसलिए नहीं उभरते क्योंकि लोगों के भीतर यह आत्मविश्वास जगाया जाता है कि वे शासक के रूप में उन्हीं शासकों को देखना चाहती है जो अतीत में हुए हैं। जनता के भीतर पुराने प्रतिमानों को ही संरक्षित किया जाता है। इसकी जिम्मेदारी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर होती है। आतीत की स्मृतियों को जनचेतना की आकांक्षा में बदल दिया जाता है। श्रीकांत वर्मा की ये कविताएँ इसीको ठीक उलट देती हैं।वे अतीत के शासकों को वर्तमान पर आरोपित करती हैं। क्या इस तरह सत्ता की संस्कृति के विरुद्ध आलोचनात्मक विवेक तैयार किया जा सकता है?

कोसल मेरी कल्पना में एक गणराज्य है

कोसल में प्रजा सुखी नहीं

क्योंकि कोसल सिर्फ कल्पना में गणराज्य है

इस तरह की पंक्तिया सामूहिक विवेक पर प्रहार करती हैं। जहाँ एक और वे अतीत की सामूहिक स्मृति के विरुद्ध खड़ी होती हैं, वहीं वे वर्तमान सत्ता के प्रति भी आलोचनात्मक विवेक निर्मित करती हैं। पूछा जा सकता है कोसल क्या है। क्या कोसल वर्तमान भारत नहीं? क्या भारत में प्रजा सुखी नहीं है? क्या भारत सिर्फ कल्पना में ही गणराज्य है? इस तरह अगर हम पूरे संग्रह को विखंडित कर पढने की कोशिश करें तो हम पायेंगे कि यह संग्रह इतिहास और इतिहासबोध का पाठ नहीं दरअसल हमारे वर्तमान का आलोचनात्मक पाठ निर्मित करता है।

मगध संग्रह की कविता तीसरा रास्ता की हिंदी में चर्चा रही है। आखिर तीसरा रास्ता क्या है? क्या सचमुच का कोई तीसरा रास्ता है या कवि सिर्फ एक युक्ति के रास्ते तीसरा रास्ता की बात करता है। प्रश्न यह भी है कि क्या कोई पहला और दूसरा रास्ता भी है? क्योंकि तीसरा रास्ता तो इन दो रास्तों के बाद ही आएगा। मोमिन के उस प्रसिद्ध शेर को याद करें -

तुम मिरे पास होते हो गोया

जब कोई दूसरा नहीं होता

यहाँ क्या उसका होना दूसरा नहीं होना चाहिए लेकिन मोमिन तो तीसरे की बात ही नहीं करते। यह तो एक अबूझ पहेली हुयी। दरअसल मैं और तुम यहाँ दो नहीं हैं एक ही हैं। मैं और तुम के बीच कोई बाइनरी नहीं है, कोई द्वैत नहीं है। वे एकमेक ही हैं, इसलिए कोई अन्य वहाँ दूसरा है। श्रीकांत वर्मा जब तीसरे की बात करते हैं तो वे यह मानते हैं कि दो पहले से ही मौजूद हैं। एक बाइनरी है। दोनों के बीच एक संघर्ष है। सत्ता के दो प्रारूप हैं। एक पक्ष है एक विपक्ष। हमें दोनों में से एक को चुनना है। यह बाइनरी,यह पक्ष और विपक्ष वास्तव में एक छद्म है।आप ज्योंही एक को चुनते हैं, आप दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार कर लेते हैं।

 

मित्रों-

दो ही

रास्ते हैं :

        दुर्नीति पर चलें

              नीति पर बहस

                    बनाये रखें

दुराचरण करें

     सदाचार की

         चर्चा चलाये रखें।

असत्य कहें -

     असत्य करें

        असत्य जियें-

  सत्य के लिए

     मर-मिटने की आन नहीं छोड़ें

क्या यहाँ पर हम उन दो रास्तों के छद्म विरोध और विभाजन को नहीं देख सकते? वास्तव में पहले और दूसरे दोनों ही रास्ते ताकत और सत्ता से नाभिनाल बद्ध हैं। दोनों के बीच कोई मूल विरोध नहीं है, लेकिन दोनों छद्म विरोध के रास्ते ही एक दूसरे को पोषित करते हैं। जो तीसरा रास्ता है, दर हकीकत वही दूसरा रास्ता है ।

मित्रों, तीसरा रास्ता भी

है-

मगर वह

  मगध

   अवंती

    कोसल

    या विदर्भ

  होकर नहीं

       जाता

क्यों? क्योंकि ये सभी सत्ता के केंद्र हैं। इनमे एक छद्म संघर्ष है। एक झूठा विरोध है। लेकिन ये दोनों एक ही हैं। इसलिए श्रीकांत वर्मा तीसरे नहीं दूसरे रास्ते की तलाश करते है।

तीसरा रास्ते का एक अर्थ यह भी है कि वह पहले दूसरे से पूरी तरह भिन्न है। क्या श्रीकांत वर्मा की पूरी कविता ही इस तीसरे रास्ते की तलाश नहीं लगती। आधुनिकता हमें लोकतंत्र के नाम द्विआयामी चेतना में कैद कर देती है। धीरे -धीरे इन दोनों आयामों का भेद मिटता जाता है। उनके बीच का विरोध मिटता जाता है और हम चाहे अनचाहे पहले रास्ते में शामिल हो जाते हैं।

श्रीकांत वर्मा की समूची कविता विचारधारा के ताकत में बदलने और दो रास्तों के छद्म संघर्ष के रास्ते एक सामूहिक चेतना निर्माण करने की प्रक्रिया के विरुद्ध रही है।

सुनो,

वे बड़बड़ा रहे हैं ' हमने न्यायधीश की

हत्या कर दी है । जज अब्रकुआ

अँधा था गोरे और काले में

भेद नहीं करता था !

श्रीकांत वर्मा की कविताओं में सतत आलोचनात्मक विवेक का जो प्रवाह हम देखते हैं, वह हिंदी कविता की एक बड़ी उपलब्धि है।आज समाज में आलोचनात्मक विवेक के लिए कोई जगह नज़र नहीं आती। सारे रास्ते पहले ही रास्ते में बदल चुके है। हमारीपहचान संख्याओं में महदूद होने लगी हैं। हर तरह की बाइनरी समाप्त हो चुकी है। सारी संस्थाएं उसी एक सत्ता के प्रतिरूप में बदल चुकी हैं, तो ऐसे में श्रीकांत वर्मा को पढना पहले की निस्बत अधिक जरुरी लगने लगता है। जब आग बुझ जाती है, धुआं और धुंए का जिक्र जरुरी लगता है। वह जगह जहाँ कभी आग जली थी, वहाँ बैठना नये सिरे से आग जलाने की एक कोशिश का हिस्सा हो उठता है।

 

 

रघुवीर सहाय के बाद श्रीकांत वर्मा बड़े और प्रासंगिक कवि-कथाकार। न्यू इंडिया में 'मगध’ का कवि दोबारा याद आता है। हमारे साथी आलोचक अच्युतानंद ने श्रीकांत वर्मा का मूल्यांकन किया है। अगली बार वे विजय देवनारायण साही पर लिखने जा रहे हैं।

 


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