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अक्टूबर - 2019

अगन मानुष

मनीष वैद्य

कहानी

 

 

तोकसिंह के आसपास आग है। वही आग, जिससे उसके ये हाड़-पिंजर बने हैं। आँगन में धधकती भट्टी में सरई की सूखी लकड़ी के सुर्ख लाल अंगारे उसकी आँखों में चमकते हैं और भीतर दूर तक फैला घना अँधेरा चमकता है। अंगारों के चटखने से चिंगारियाँ भट्टी से ऊपर उड़ती है। वह उन्हें ऊपर की तरफ बढ़ते हुए और धुएँ की अदृश्य लकीर के साथ आसमान की तरफ उड़ते हुए गौर से देखता है। क्या वे आसमान में चली  जाती हैं, नहीं धरती पर लौटकर राख हो जाया करती हैं। धरती में सब पनाह पाते हैं। धरती ही हमको जगह देती है। जहाँ हम अपे पाँव टिकाकर खड़े हो सकते हैं। बड़े समुद्र हों, नदियाँ, ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और हाँ हरे-भरे खेत, दूर तक फैले जंगल हों या धातुओं का खजाना सब इसी धरती की कोंख से ही उमगते हैं।

काली अँधेरी रात में लपलपाती भट्टी के सामने उसकी काली सुड़ोल देह पर पसीने की बूँदें मोतियों की तरह दमक रही हैं। भट्टी की उजास में उसका साँवला रंग कत्थई आब बिखेरता है। औसत कद- काठी में कमर से घुटनों तक एक तौलिया लपेटे खुले बदन और सिर पर फेट्टा बाँधे उसके चेहरे पर छितरी हुई बेतरतीब काली-सफेद दाढ़ी-मूँछे हैं। गले में काले धागे में एक लोहे का टुकड़ा बंधा हुआ है। चौड़ा सिर, मोटी नाक, धँसे हुए गाल, सूखी हुई कोटरों में उदास फीकी आँखें और चिकने लहरियादार बाल। उसके पूरे बदन पर झुर्रियाँ लटक आई हैं। काली देह पर तपे हुए लोहे की तरह की कसावट साफ़ झलकती है।

इधर के कुछ सालों से उसके कलेजे में भी एक भट्टी जलती रही है... बाहर की भट्टी से ज्यादाउसने भीतर की भट्टी की आँच इन दिनों शिद्दत से महसूस की है। उसके भीतर की आग कभी ठंडी नहीं पड़ती। जैसे सरई के पेड़ों का यह जंगल उसके भीतर धधक उठा हो। हवा के झौंको के साथ आग फिर-फिर चटखने लगती है। एक साथ कई सवाल मथने लगते हैं। क्या वाकई वह आग का आखरी आदमी है। इन पच्चीस सालों में कितनी बार कितनी तरह के सवाल उसके भीतर उठते रहे पर उसके पास किसी का कोई जवाब नहीं है। आसपास के बारह गाँवों में किसी के पास नहीं। कुछ सवाल ऐसे ही होते हैं, बिना जवाबों के, जिनका किसी के पास कोई जवाब नहीं होता। भट्टी की आग की तरह वे धधकते ही रहते हैं।

अँधेरी रात में ऊँचे-ऊँचे सरई, साल और सागौन के पेड़ों वाले जंगल में धँसे इस छोटे से गाँव के सन्नाटे को तोकसिंह का घन-हथौड़ा बीच-बीच में तोड़ता है जैसे वहाँ की एकरस ज़िंदगी को तोड़ रहा हो। रात की ख़ामोशी में घन का संगीत किसी विलम्बित लय की तरह दूर तक गूँजते हए गाँव के लोगों की नींद में बजता है। वे अपने सपनों के बीच उसकी धमक सुनते हैं लेकिन वह रात की ख़ामोशी को अपने भीतर उतारता है। भट्टी पर काम करते हुए वह न कुछ गाता है और न कोई बात करता है। इस वक्त तो उसका पूरा ध्यान उन पत्थरों के ढेर में छुपे लोहे को गलाने और उस गले हुए लोहे से हंसिया ढ़ालने पर है।

भट्टी के पास धौंकनी पर जुगरी के पाँव लगातार चलते जा रहे हैं। उसके हाथ में कलारी है। उसकी एंड़ी जैसे ही धौंकनी को दबाती है तो उसके बीच में बना छेद वाल्व की तरह काम करते हुए भट्टी में तेज़ी से हवा फेंकता है। पैर का दबाव कम होते ही इसके पीछे लगी बाँस की खपच्चियाँ ऊपर उठ जाती है। छेद खुल जाते हैं और इस वाल्व में फिर हवा भरने लगती है। फिर दबाव, हवा भीतर, फिर... इस तरह भट्टी की आग जुगरी के पैरों से होकर बहती है। उसकी धौंकनी की हवा ही भट्टी की आग को बनाए रखती है। उसने धौंकनी पर चढऩे से पहले धुकान माता और पवन कुमारी से हाथ जोड़कर प्रार्थना की है, परसाद का भोग लगाया है। भट्टी को हवा मिलती रहे तभी तो वह धधकती रहेगी।

हजारों सालों से भट्टी को इसी तरह हवा मिलती रही। कुआँरा लोहा पिघलता रहा और ढलता रहा हल की फाल में, कुल्हाड़ी के फल और हंसिया में। मिट्टी की इन छोटी-छोटी भट्टियों में पिघले लोहे के हल ने ही धरती पर सबसे पहले हरे-भरे खेत उपजाए, हंसिये ने फसलें काटी, तीरों ने शिकार किया और कुल्हाड़ी ने कोयले के लिए सरई की सूखी लकडिय़ों को काटा। अगरिया असुर अग्यासुर के सेवक। गौंड, बैगा सहरिया, परधान, भरिया आदिवासियों और अहीरों का पैतृक लुहार। रात के अँधेरे में नंग बदन भूत की तरह भट्टी की आँच पर काम करने वाले असुर। पत्थरों वाले युग में अगरिया ही पहली जाति हुई जिसने धरती की कोंख में छुपे लोहे को पहचाना और उसे बाहर निकालकर दुनिया को लोहे की सौगात दी। मनुष्य के शुरूआती दिनों में हजारों सालों तक लोहा इन्हीं भट्टियों से आता रहा।

धौंकनी और आग धधकने की आवाज़ उस नीरवता में जुगलबंदी करती है। लाल-पीली रोशनी में आँगन जगमगा रहा है। लोह अयस्क भट्टी से नीचे धसकता है तो वह थोड़ा कोयला और कच्चा लोहा कलारी से उसमें फिर भर देती है। वह चुप है लेकिन भीतर ही भीतर कोई गीत गुनगुना रही है। वह सब कुछ भूल सकती है पर गीत नहीं। वे तो उसकी आत्मा से हिलगे हुए हैं। उसका मन गाता है। शांत और निर्जन वन में पेड़ों की झुरमुट से वह गुज़रती है। तोकसिंह मुस्कुराते हुए दादरिया गाता है - ''आओ प्रिय, मेरी झोपड़ी में रहने आओ, मेरी भट्टी के लिए धौंकनी को चलाओ...’’ शरमाकर हँसती हुई जुगरी ताल पकड़कर जवाब देती है... ''मुझे अपने साथ रहने दो, मैं तुम्हारे असुर घर में रहूँगी। मैं धौंकनी चलाऊँगी...’’ बरसों बीत गए उसे इस घर आए लेकिन उन दिनों को याद करती है तो अब भी उसके भीतर कुछ सरसराने लगता है। जैसे कल ही की बात है।

बाएँ हाथ की ऊँगली में पड़ी कुआँरे लोहे की चूल मुंदरी पहनाने के लिए तोहसिंह ने उसके पीछे कैसी दौड़ लगाई थी और आख़िरकार उसकी ऊँगली में पहनाकर ही दम लिया था। गाँव भर की औरतें और किशोरियाँ खिलखिला उठी थी। वह तो खुद ही उसके हाथों में चूल मुंदरी पहनना चाहती थी पर रीत तो यही है कि दूल्हा खुद दौड़े, मनुहार करे और एक लोहे का टुकड़ा पहनाकर उसे ज़िंदगी भर के लिए अपना ले।

सात भाँवरे पडऩे आए तोकसिंह के गले में लोहे की की हँसुली और माथे पर सजे छिन्दी खजूर के मुकुट की धज अब तक उसकी आँखों में बसी है। भाँवर के बाद सब लोग ढोल बजाते हुए नदी पर गए थे और उसने नदी में लोटे को छुपाया था। तोकसिंह ने थोड़ी ही देर में उसे ढूंढ निकाला था। फिर मेरी मुड़ी हुई बाँह के बीच से हिरण की मूर्ति पर निशान लगाना तो जैसे उसके बाएँ हाथ का काम था। वह इन दिनों कैसा तो बलिष्ठ था। शादी से पहले वह घन चलाने से लेकर लोहे को आकार देने के कई गुर सीख चुका था। बाद में तो उसके हाथ में वह हुनर आया कि इलाके में उसका नाम हो गया। ससुराल की देहली पर लोहे की बड़ी कील को लांघकर पहली बार वह इस घर में आई थी। भट्टी तैयार करना वह अपने पिता के वहां से सीखकर आई थी। उसकी सास ने भट्टी को पहली धूप  दिलवाई तो उसने कामना की थी - 'हम पर कृपा बनाए रखें, हमें अपनी छाया में रखें।’ फिर निहाई और घनों को झुककर प्रणाम किया। उसे वे दिन याद आते हैं जो आज भी देह गुलाबी होने लगती है।

जुगरी दिन में अपने सिर पर बाँस की टोकरियों में जंगल से कच्चा लोहा और कोयला भरकर लाती है। शाम को भट्टी से राख निकालकर उसे लीपती है। कच्चे लोहे के पत्थरों को साफ और कूट-कूटकर छोटा करती है। लकड़ी और पेड़ों की छाल में धीमी आँच पर गरम करती है और आधी रात के बाद कभी भी तड़के उठकर धौंकनी चलाती है। इस बीच घर के बाकी काम भी करती रहती है। पीछे खपरैलों की छत और आगे घास के छप्पर वाले इस छोटे से आयताकार घर का लिपा-पुता साफ़-सुथरा आँगन, एक तरफ भट्टी, कोयले और कच्चे लोहे का ढेर तो दूसरी तरफ बुझे हुए कोयले का ढेर और लोहा बनाने के बाद बचे हुए अवशेष। दीवारों पर खडिय़ा से बने मांडने, खपरैलों के ऊपर से लटकती साग-सब्जियों की बेलें। उसके बेटे हँसते हुए कहते हैं - जितनी कम आमदनी, उतना छोटा घर।

दुबली-पतली, सामान्य कद-काठी की जुगरी उम्र के इस पड़ाव पर भी चुस्त-दुरुस्त है। अधेड़ उम्र में भी उसके बाल काले और घने हैं। चेहरे पर झुर्रियाँ न हों तो उसकी उमर का सही-सही पता लगाना भी मुश्किल है। उसके हाथों में काँच या लाख की चूडिय़ाँ नहीं है और न ही नाक में लौंग या मांग में सिन्दूर। साँवली रंगत लिए गले में लोहे के सिक्कों की माला पहने एक सूती साड़ी को लूगड़े की तरह अपने शरीर पर डाले वह फुर्ती से अपने काम में जुटी है। पुराने दिनों में लौटती है तो सुख के साथ दु:ख की बदलियाँ भी घुमडऩे लगती है। उसके जिगर के टुकड़े नानस और मुनरा, उसकी पत्नियाँ और पोते-पोतियाँ... उनकी याद आती है तो आँखें भींगने लगती है। दु:ख के बादल उसके आसपास से गुज़रते हैं। वे चले गए और बच गए हम दोनों। उनके जाने का दु:ख उसने धरती की तरह अपने आँचल में छुपा लिया है। इस दु:ख की हिलोरें उसकी आत्मा में टीस मारती हैं।

तोकसिंह ने बड़े चिमटे से कजलाए हुए कोयलों को अलग किया और लपलपाते अंगारों में लोहे के दो टुकड़ों को दबा दिया। धौंकनी भट्टी की आग को हवा दे रही है। धीरे-धीरे पर आग का रंग चढऩे लगा है। पहले बैंगनी, फिर पीला और उसके बाद लाल बरम। धौंकनी, कच्चे लोहे, चिमटे और आग में बदलते लोहे के टुकड़ों पर उसका बराबर ध्यान है। किसी अद्भुत लय में उसके दोनों हाथ काम में जुटे हैं। तन्मय भाव से वह उन टुकड़ों को बाहर निकालता, परखता और फिर अंगारों के नीचे दबाव देता।

खेत-ज़मीन तो बाप-दादाओं से उसके पास नहीं रहते आए हैं, लेकिन कभी ऐसा लगा नहीं। गाँव के सब खेत उनके हुआ करते थे। इतना अनाज आ जाया करता कि मिट्टी की कोठियाँ सालभर भरी रहती। इन घने जंगलों के बीच इसके अलावा उनके पास खाने कमाने को था भी क्या? गाँव का हर किसान साल में फसल आने पर लुहारी काम के बदले पाँच से दस कूड़ो मोटा अनाज दे देता था। रुपए-पैसे का कोई मोल नहीं था। उड़द की दाल और भाजियों के साथ कोदो-कुटकी की खुराक इतनी ताकत देती कि शरीर मेहनत-मशक्कत के बाद भी सरपट दौड़ता रहता था। साग सब्जियाँ घर के पिछवाड़े उग आतीं। बकरियों का दूध और जंगल से कभी-कभार शिकार। उसके पुरखों को इससे ज्यादाऔर क्या चाहिए था। न उन्होंने कभी इससे ज्यादाकुछ माँगा और न उन्हें मिला।

वे अपने काम में ख़ुश थे। उन्हें अपने काम पर, अपने हुनर पर बड़ा फख्र था। उनका काम भी ऐसा कि कोई नहीं कर पाए। खेतों और घर के तमाम कामों के लिए उसके पुरखे गाँव ही नहीं आसपास के दर्जनों गाँवों में पहचाने जाते थे। बरसात से पहले ही खेती के औजारों के लिए भट्टियों पर लोगों की आवाजाही बढ़ जाती। काम करते हुए पसीना बहाते कब गरम हवाएँ पुरसुकून ठंडी हवाओं के झौंकों में बदल जाती, उन्हें इसका भान ही नहीं रहता। कभी-कभी तो पूरा परिवार जुटता तब कहीं काम पूरा हो पाता।

तोकसिंह की निगाहें काले बादलों से घिरे आसमान को ताकती हैं। खुशनुमा मौसम में दूर कहीं से बाँसुरी की मीठी तान सुनाई देती है। छोटी-सी पहाड़ी पर खपरैलों छप्पर वाले कुछ घर और उसके पीछे से आसमान में झाँकता इंद्रधनुष। जैसे इंद्रधनुष ने इन गाँव को अपनी बाँहों में समेट लिया है। पहली बारिश ने धरती का रंग बदल दिया है। धूसर-कत्थई पहाडिय़ों ने कच्चा हरा रंग ओढ़ लिया है। साल-सरई के ये बड़े-बड़े नंगे-बूचे पेड़ नवजात पत्तों से खिलखिला रहे हैं। इस बार कितने सालों के बाद अच्छी बारिश के आसार हैं। पहले कम बारिश में भी कोदो-कुटकी हो जाया करती थी। बच्चे गाते 'कुटकी रानी, तीन पानी’ लेकिन अब नई फसलों को ज्यादापानी चाहिए। बीते तीन सालों से मानसून हर बार दगा दे जाता है। शायद इस बार ऐसा नहीं होगा। अभी तो सगुन अच्छे हैं।

खेतों को हाँकने-बोने के बाद धरती की छाती से उमगते नन्हें पौधों को देखने की होड़ मची है। गाँव में घरों से ज्यादालोग खेतों पर हैं। खेतों पर अभी कोई काम नहीं है पर आँखों को सुकून देती है नन्हें मेहमानों की आमद। इन्हीं मेहमानों की उम्मीद तो साल भर होती है पूरे गाँव को। इन्हीं से गाँव निहाल हो उठता है। तोकसिंह के पास खेत-ज़मीन का कोई टुकड़ा तक नहीं लेकिन गांव की ख़ुशी, उसकी खुशी।

वह सोचता है कि उसे यदि लोहे का काम नहीं आता तो वह अपनी ज़िंदगी कैसे गुज़ारता। अपने इस फन पर कई बार वह खुद ही मोहित हो जाता है। खासकर जब उसके हाथों लोहा सुगढ़ आकार लेता है। किसी पारखी की तरह वह उस ठोस कुल्हाड़ी या धारदार हंसिये को बार-बार उलट-पलट कर देखता है। फिर आँखों के पास ले जाकर फिर थोड़ी दूरी से और हल्के से मुस्कुरा उठता है। यह मुस्कुराहट उसके लंबे वक्त की मेहनत का हासिल है और सुकून भी। उसे अपने बापू का वह गीत याद आता है जो वे अक्सर कुदाली बनाने के बाद इसी तरह मुस्कुराते हुए गाते थे। इसका भावार्थ है-

ओह्ह, वे तुम्हें दूर ले जाएँगे और तुम्हारी आत्मा रोएगी

कुदाली कहती है - ओ अगरिया, तुम मुझे मत बनाओ

तुम्हारी मृत्यु के बाद कल या किसी दिन

मुझे तुम्हारी कब्र खोदने में काम में लगाया जाएगा।

इसे फख्र है कि ईश्वर की तरह अपनी बनाई चीजों में वह भी फर्क नहीं करता। जैसे उसके लिए उसके बनाए सारे आदमी एक सरीखे, वैसे ही मेरी बनाई हर चीज एक जैसी तलवार हो या हंसिया। हर एक का लोहा उसी आग से पकाता हूँ और उसी घन से गढ़ता हूँ। हमारी सभ्यता में लोहे का मिलना सबसे बड़ी घटना है। मैं अपनी भट्टी का राजा हूँ, यह बलिष्ठ देह इसी से है। लोहे के काम के लिए हर किसी को मेरे पास आना पड़ता है। मेरे कुआँरे लोहे से जादुई शक्ति है, जो दुनिया को भूकम्प, आसमानी बिजली, परियों, अतृप्त आत्माओं और भूत-प्रेतों से बचाती है। कई बार इसने हमारे पूर्वजों की रक्षा की है। पत्थरों के औजारों वाले उस आदिम समय में लोहे का जादुई शक्ति में बदल जाना कोई आश्चर्य नहीं। शुरुआत में तो आदमी भी इससे डरता था। वे खुद डरते थे तो बुरी आत्माओं को भी इससे डराने लगे। देवीय गुणों की वजह से ही कभी कोई इसका अपमान नहीं करता। इसे न कोई अगरिया ठोकर मारता और न कोई पैर में लेता है। कहते हैं कि ऐसा करने पर उस आदमी के पैर जलेंगे। धातुओं की खोज के वक्त से ही यहां बच्चे-बच्चे में यह बात बैठी हुई है। वे अग्यासुर, लोहासुर, कोयालासुर, पवन देव और धुआँधरणी की पूजा करते हैं। उनसे डरते हैं कि जरा-सी गलती करने पर वे क्रोधित होकर भक्त से बदला ले सकते हैं।

जंगल से लौटता गौंड पंडा उसकी भट्टी पर अनायास रुक गया है। उसने तोकसिंह से राम-राम की तो उसने कहा-जुहार। वह भट्टी के पास एक पत्थर पर बैठ गया है। जुगरी उठकर भीतर चली गई है। यह उससे कुआँरे लोहे का ताबीज बनाने को कहता है और दोनों में बातें शुरु हो जाती हैं। वह भट्टी पर काम करते हुए •यादातर हूँ-हाँ ही करता है। लेकिन पंडे के पास तो बातों का खज़ाना है।

पंडा उससे उसके बेटों के बारे में पूछते हुए कहता है - अच्छा किया, जो उन्हें कमाने बाहर भेज दिया। अब इन गाँव-टपरों में क्या रखा है। तोकसिंह ने अपने सीने में कोई जलता हुआ तीर महसूस किया था, जो कलेजे को भेदता हुआ सीधे उसकी आत्मा में चुभा था। उसने एक पल को पंडे को घूरा। उसकी नज़र में आगे थी। पंडे का ध्यान उसकी तरफ नहीं था, होता तो वह उस आग में भस्म हो गया होता। फिर पंडा टपरे के कुछ और बाहर गए बच्चों के बारे में बताता रहा। उस वक्फे में तोकसिंह वहाँ नहीं था। वह कहीं खो गया था। उसके हाथ चीजल और घन भर थे लेकिन मन कहीं और भटक रहा था।

वह उन्हें कब भेजना चाहता था। उसका मन तो उन्हें यहीं रोककर काम सिखाने का था। उसके बापू की तरह वह अपने बच्चों को भी इस काम की एक-एक बारीकी सिखाना चाहता था। सदियों में मिला पूर्वजों का ज्ञान बेटों से होते हुए आगे तक पहुँचाना चाहता था। लेकिन अब अगली पीढ़ी औजार बनाना सीखना ही नहीं चाहती। उनकी इसमें कोई दिलचस्पी ही नहीं है। उसने बचपन में कितनी शिद्दत से इस काम को सीखा था। तब इसका कितना मान था और बापू को इस पर कितना गुमान हुआ करता था। बापू कहते थे, सुनार ज्यादाकमाते हैं पर सुखी नहीं है। उनकी सोने पर सौ ठक-ठक के बराबर हमारी लोहे पर एक घन की मार होती है। महँगे सोने के कारण सुनार की जान को खतरा रहता है लेकिन लोहा तो जान की हिफाजत करता है।

वह पुराने दिनों में लौटता है तो आँखों में ठंडक घुलने लगती है। इन कुछ सालों में वह ठंडक कहीं खो गई है। खो गया है वह सुकून, जो सारी उम्र से भीतर कहीं स्थाई भाव में रहता आया था। घूमते हुए वक्त के पहिए ने सब कुछ बदल दिया। उसे बापू याद आते हैं और उनकी लोक कथाएँ। हर बात के पीछे कोई न कोई कहानी। कहते थे, जब हिन्दू राजा भीमसेन ने नगर के नीचे बनी सुरंगों में चूहों को भेजा था तो पिघला लोहा बाहर आया और वही सारी दुनिया में फैल गया था। अगरिया को धरती में लोहे की जगह खुद लोहासुर सपने में आकर बताता है और वहाँ जब वे हवा में तीर चलाते हैं तो तीर गिरने वाली जगह पर खोदते हैं। ज़मीन की ऊपरी परत में ही कच्चा लोहा मिल जाता है। शायद लावे की परतों के कारण और नीचे नहीं जा पाते। वे बताते थे- लोहासुर बहुत गहरे में रहता है और ज़मीन में छेद कर रास्ता बनाता हुआ ऊपर आता है और उस छेद के पास खदान मिल जाती है। जैसे चूहे अपने बिलों से कभी-कभी बाहर आते हैं, वैसे ही लोहा अपने बच्चों को खुली हवा में घूमने के लिए भेजता है। खुदाई से पहले वे लोहासुर से प्रार्थना करते हैं। हल्दी और शराब चढ़ाते हैं।

पंडा चला गया है पर तोकसिंह की आँखों में पुराने दिन उसी तरह चमक रहे हैं। पीतल की थाली में जुगरी कुटकी का पेज बना लाई है। उसके सामने धरते हुए वह फिर भीतर की कोठरी में समा गई है। जुगरी न आती तो वह पुराने दिनों में भी भटकता रहता। जैसे जुगरी ने उसे आसमानी ऊँचाईयों से हकीकत की जमीन पर ला पटका था। उसके सामने भट्टी में सुर्ख दहकते अंगारे थे और उसके बाजू में पीतल की थाली में गरम पेज। उसने थाली होंठों से लगाई और कुछ ही पलों में पेज पी लिया। मूँछों पर आ गए पेज की बूँदों को हथेलियों से समेटा और भट्टी पर झुक गया।

वह संड़सी से पकड़कर अंगारे में बदल चुके लोहे के टुकड़े को बाहर निकाल कर आकार देने के लिए उस पर लोहे का बड़ा घन बरसाने लगा है। कुँआरे पर घन के लोहे का जबर्दस्त प्रहार। घन पड़ते ही गरम लोहा फैलने लगता है। तय आकार में बदलने लगता है। लोहे का टुकड़ा अब दराती में बदलने लगा है। अब यह टुकड़ा तोहसिंह के ख्यालों में दराती की तरह रहा होगा लेकिन अब साफ़ शक्ल ले चुका है। वह इसे पानी भरे हौद में डालता है। पानी आग को शांत करता है। आग और पानी का यह बैर सदियों पुराना है।

सदियों पुराना तो उसका यह पेशा भी है लेकिन क्या यह उसी पर आकर ख़त्म हो जाएगा। क्या उसके बाद इस पूरे इलाके में लोहे का काम करने वाला कोई अगरिया नहीं होगा। कभी इस इलाके में सौ से ज्यादाभट्टियाँ हुआ करती थीं, घर-घर लोहा गलता था। आधी रात से सुबह तक जंगल घन की मार से थरथराता रहता। हुनर तो आज भी हाथ में रखा है लेकिन इसका अब क्या मोल। जिस धंंधे के सहारे ज़िन्दगी कटी, अब भी वह जीने की एक आस है। कुछ और औजार बना लेते हैं, लेकिन अब उन्हें कौन पूछता है। भट्टी तो दूर हाट में भी हमारे पास कोई नहीं फटकता। कोई इक्का-दुक्का ग्राहक ही मिल पाता है। इतना भी नहीं आता कि घर लौटते समय तेल-मसाला ले जा सकें। बड़ी मुश्किल से गुजर-बसर हो पाती है। पास के कस्बे में सब कुछ मिल जाता है। एक सरीखे करीनेदार औजार। लोग उन्हें ही खरीदते हैं। कंपनी की चमचमाती कुल्हाडिय़ाँ, दरातियाँ, हल की फाल और कुदालियाँ कस्बे के चौक की दुकानों में लटकी हुई हम पर हँसती हैं।

लोग कहते हैं कि बाज़ार का लोहा उसके लोहे से कमज़ोर है। लेकिन इस दौर में मज़बूती और हुनर कौन देखता है। अब तो पैसों के बूते सब-कुछ खरीद सकते हैं। बड़े सेठ ने कव्वागढ़ की पहाडिय़ों पर बड़ी-बड़ी खदानें लगा दी हैं। सैकड़ों आदमी रोज़ मशीनों से लोहा उलीच कर डंपरों में भरते हैं। हमारा लोहा बाहर जा रहा है। धरती का लोहा अगरिया का है जैसे माँ का दूध बच्चे की अमानत। धरती उसीक माँ, आग उसके देवता, लोहा उसका धर्म और यह जंगल उसकी कर्मभूमि। आज़ादी के पहले अंग्रेजों के समय से वे यह पत्थर आसानी से लाते रहे लेकिन अब यह जंगल सरकार का यानी फारेस्ट का हो गया है। अब साहब लोग पत्थर लाना तो दूर उधर फटकने तक नहीं देते। फारेस्ट बाबू मना करता है। केस लगाने और जेल भेजने की धमकी देता है। मालिक का मालिक कौन? हमसे हमारी ही ज़मीन छीन ली गई। अब यह धरती, इसका लोहा हमारा नहीं रहा। जिस पृथ्वी को हमारे पूर्वजों ने अपनी ऊँगली काटकर स्थिर किया, जिसने उसके लिए खम्भे गढ़े, जो सदियों से उसकी कोंख से लोहा चुनते रहे। जिन्होंने उसे हरा-भरा और खुशहाल बनाए रखा... वे रातों रात बेदखल कर दिए गए।

तोकसिंह याद करता है अगरिया की कथा और पृथ्वी के सिर होने का रहस्य। कैसे पृथ्वी को घूमने से रोक कर स्थिर करने के लिए अगरिया के पूर्वज नांगा बैगा ने पहली कील के रूप में अपनी ऊँगली काटकर ज़मीन में गाड़ दी थी। कैसे उसने एक पहाड़ को चीर दिया था। जिससे उनके दैवी देवता निकले। गोंड तथा हिन्दू जातियाँ बहुत बाद में आई। कैसे प्रथम अगरिया राजा ने गर्म लोहा खाने में आनंद का अनुभव किया था। भगवान ने अगरियों (असुर) के देवता को धोखे से जीता। देवता (सुर) और असुरों के बीच लंबा संघर्ष चला था। जंगलों से कोयला पाने के लिए पांडवाों से संघर्ष हुआ। बाद में सरई के पेड़ों के लिए हिन्दू जमींदारों से भी लड़ाइयाँ हुई।

सबसे पहले ईश्वर ने पानी के ऊपर एक बड़े कमल की छतरी बनाकर उस पर पृथ्वी बनाई। लेकिन सूरज ने तेज़ गरमी से इस कमल की पंखुरियों को सुखा दिया। फिर ईश्वर ने लाख की दुनिया बनाई लेकिन जब वह उस पर चला तो वह हजार टुकड़ों में टूट गया। आखिर में ईश्वर ने अपनी छाती के मेल से कव्वा बनाया। उसे अपनी छाती से ढाई बूँद दूध पीने दिया और कहा कि तुमने मेरा दूध पिया है तो तुम्हें कभी भूख-प्यास नहीं लगेगी। हम और तुम मिलकर पृथ्वी की खोज करेंगे। कव्वा लगातार उड़ता रहा, उड़ता रहा जब तक वह थक नहीं गया। आखिरकार उसने एक केंकड़े से पृथ्वी को खोज लिया। घूमने से रोकने के लिए मज़बूत खम्भे की ज़रूरत पड़ी तो अग्यासुर को बुलाया गया। अग्यासुर की तेज़ लपटों से अगरिया का जन्म हुआ। पहले अगरिया के बारह भाइयों ने कुआँरे लोहे के बारह खम्भे बनाए और दुनिया के चार कोनों पर गाड़ दिए, इससे पृथ्वी का घूमना थम गया। भीतर कोई गीत फूटने लगता है।

''बारह भय मुकिया कुटी धुकय्या हो न आगिन जाव लोहारी, नयी जुडावन आगी न जारा लोआ

कौन चिरय्या ऐली मेली... कौन चिरय्या दू वेली... औन चिरय्या मांग सुधारे बैठी अलवेली

नयी जुडावन आगी न जार लोआआआआ...’’

...हम उन बारह भाइयों की संतान हैं और वह आगी जिसमें हमारा शरीर पका रहता है

उसमें हवा आती है तो आत्मा को ठंडक मिलती है

उसी प्रकार धूकने वाले फूफा मारकर भट्टी का जीवन बचाते हैं।

कुबरा की राम-राम से उसकी तंद्रा टूटती है। वह जोहार कहते हुए पत्थर पर बैठने को कहता है। कुबरा ने अपनी दराती उसके सामने रख दी है। उसकी धार फिर से बनानी होगी। तोकसिंह दराती को भट्टी के अँगारों में दबाता है। उसका लोहा लाल होने लगता है।

वह कुबरा से पूछता है - ''वह आखरी भट्टी है, कल को मेरे आँख मूँदने पर यह बंद हो जाएगी तो क्या होगा?’’ उसके स्वर में आर्द करुणा और गहरी बेचैनी है।

कुबरा क्या जवाब देता। उसने सिर झुका लिया। कुबरा के अपने दु:ख हैं। कुछ देर की चुप्पी के बाद वह कहता है- ''खेती भी अब पहले जैसी कहाँ रही। जिससे शरीर बनता था, कोदो-कुटकी का मोटा अनाज अब कोई नहीं उगाता। दाम के लालच में हर कोई गेहूं या दूसरी फसलें ले रहा है। अगरियों के शरीर की तरह ही अब खेतों की ज़मीन में भी ताकत नहीं बची। खाद और दवाइयों का खर्चा बढ़ता जा रहा है। बड़ी मुश्किल से गुजर-बसर हो पाती है। किसानों के बच्चे भूखे मर रहे हैं और बढ़ते कर्जे से घबराकर किसान जहर पी रहे हैं।’’

गहरी खामोशी के बाद कोई टूटती-सी आवाज़ कुबरा के कानों में पड़ी थी- ''मेरे मरने के बाद इस भट्टी को कोई नहीं चला पाएगा। जब वह नहीं रहेगा तो कुछ नहीं बचेगा। कुछ दिनों तक अगरियों की कहानी किस्सों में कही-सुनी जाएगी और धीरे-धीरे सब कुछ भुला दिया जाएगा। जैसे हम भूलते आ रहे हैं अब तक... मैंने सारी कोशिशें कर लीं पर कुछ नहीं बदला। मैंने अपने काम को आगे नहीं बढ़ा सका। मेरे बेटे पहले ही शहर जा चुके हैं। गाँव में ऐसा कोई लड़का नहीं है जो भट्टी चला सके। मैं इस सफ़र का आखिरी मुसाफिर हूँ। कई बार मन रोता है। परेशान हो जाता हूँ कि पीढिय़ों का ज्ञान और उसकी सीख मैं अपने देह के साथ ही कब्र की मिट्टी में मिला दूँगा। ऊपर जाकर अग्यासुर को क्या जवाब दूँगा। क्या अब दुनिया में कम्पनी का लोहा ही रह जाएगा। अगरियों का लोहा खत्म हो जाएगा। वह लोहा और आग जिससे हमारी देह बनी है।’’

रुँधे हुए गले से हिचकी लेते हुए वह कहे जा रहा था- ''पहले मेहनत का अनाज खाते थे अब सरकारी गेंहू खाते हैं। सरकार का नमक। इससे अब के लोग-लुगाई का न तो शरीर चलता है, न वैसी मेहनत रही। हमारे काम की किसी को चिंता नहीं। नई पीढ़ी का कोई भी लड़का अब इस काम को करना नहीं चाहता। दिन-रात घन बजाने के बाद मुट्ठीभर पैसे भी नहीं मिलते। एक दिन में इस काम से आधी मेहनत में ही उन्हें अच्छी मज़दूरी मिल जाती है। वे अपनी भट्टी के राजा नहीं, अब दूसरों के यहाँ नौकर हैं।’’

कुछ देर वहाँ ख़ामोशी टंगी रह जाती है जैसे कहने-सुनने को उन दोनों के बीच अब कुछ नहीं बचा। कुबरा की भोथरी दराती अब धारदार हो गई है। कुबरा उसकी धार को गौर से देखता है और उसी भाँय-भाँय सन्नाटे के बीच उसे उठाकर अपने खेत की तरफ चल देता है। उसकी जूतियों की चर्र-चर्र वहाँ पसरी खामोशी को तोड़ रही है।

तोकसिंह ख़ामोशी में डूबता जाता है। पास के गाँव में सरकार ने पक्की इमारत में अगरियों का संग्रहालय बनाया है। अगरिया की कला मर रही है और संग्रहालय में भट्टी पर काम करते अगरियों की आदमकद प्रतिमाएँ बनाई जा रही हैं। हम अब संग्रहालय में देखे जाने वाले इतिहास में दफ़न लोगों में बदलते जा रहे हैं। एक जीवंत समाज मिट्टी की बेजान प्रतिमाओं में बदला जा रहा है। हमें भूखों मरने से बचाने के लिए एक रुपये किलो का अनाज दे रहे हैं। कभी-कभी तो यह इतना सड़ा होता है कि जानवर भी न खा सकें। नए लड़कों को मुर्गी पालना सिखाया जा रहा है। हमें इन खैरातों की ज़रूरत नहीं। आप तो हमारे काम को आगे बढ़ाइये, यही है हमारा देसी विकास। भूखे रहकर भी हम लोहे का काम करना चाहते हैं। कर सकें तो इसमें हमारी मदद कीजिए।

उसके बाद इस भरी-पूरी दूनिया में कोई आग का आदमी नहीं बचेगा। क्या उसके साथ आग की यह वसीयत यहीं खत्म हो जाएगी। वह पहला ऐसा आदमी होगा जो अपनी वसीयत अपनी देह के साथ ही ले जाएगा। आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ। आखरी होने का लांछन उसी पर लगेगा। उसके भीतर का घना अंधेरा आँखों में समाने लगता है। सिर धरती की तरह घूमने लगता है। साँस फूलने लगती है। धड़कनें तेज़ हो जाती हैं। गले में कुछ फँसने लगता है। भट्टी का दर्द उसके सीने में घुल कर कचोटता है। पीड़ा का लावा बह निकला है। भीतर कहीं कोई आग महसूस करता है। उसे लगता है कि वह एक खतरनाक और विरोधी दुनिया में जी रहा है।

जुगरी बाहर आई है। उसने न तो भट्टी की तरफ देखा और न ही तोकसिंह की तरफ। वह आँगन के बाहर बँधी बकरियों को पत्तियों का चारा और चहलकदमी करते मुर्गे-मुर्गियों को दाना डाल देती है। पेज की खाली थाली उठाती वह फिर भीतर जाकर गुम हो गई है। बादलों में छिपा सूरज धीरे-धीरे जाग रहा है। वह मिट्टी का घड़ा उठाए झरने की तरफ़ जा रही है। जुगरी के भीतर कल रात के सेला नृत्य की मस्ती छलक रही है। इसकी छटा अनूठी होती है। कौन कहेगा कि ये दिन भर काम करने के बाद थके हुए लोग नाच-गा रहे हैं। बहुत तेज़ कदमताल पर थका देने वाला नृत्य। 'तरीना को नारा रे... मोर हारिल सुआ...’ फुर्ती और जोश इनकी आवाज़ और कुर्राटियों में झलकता है। मांदल, मजीरे और ढपली के सुर तैरते हैं। लोकगीत की सुमधुर आवाज़ उसे अपनी तरफ़ खींचती हैं। पुरुष अपने हाथों में लकड़ी से बने चटकोला बजाते हुए नाच रहे हैं। अब औरतें भी शामिल हो गई हैं। रात के नीरव एकांत में कुर्राटी भरते मर्द-औरतें एक साथ झुण्ड बनाकर इस पारंपरिक लोकनृत्य में बड़ी मस्ती से नाच रहे हैं। बीच-बीच में उनकी हँसी-ठिठौली की आवाज़ गूँज रही है। उनकी खिलखिलाहटें जंगल से गुजरती हुई पहाडिय़ों पर बिखर रही हैं।

डगूना जल प्रपात में एक पहाड़ी नदी की जलधारा बहुत ऊंचाई से शोर मचाती दूधिया फेन की तरह गिरती है। इस जगह पानी ने अपने लिए सफेद चट्टानों को घिस-काटकर रास्ता बनाया है। यहां नदी बहुत सँकरी हो गई है। ऊपर से छोटी-सी दिखने वाली यह धार मामूली नहीं है। इतनी गहरी है कि सात खाट की रस्सी डालने पर भी थाह नहीं मिलती। तोकसिंह की इससे बहुत पुरानी पहचान है। बचपन के दिनों में वह इसमें गोता लगाता आया है। यहाँ की एक-एक चट्टान को वह जानता है और वे उसे पहचानती हैं। वह गोता लगाकर देर तक पानी के भीतर ही रह जाता है, बुलबुले बाहर आने लगते हैं कि कुछ देर में वह कहीं आगे तैरता हुआ बाहर निकलता है। इसी नदी में उसने शादी के दूसरे दिन लौटा छिपाया था और रिवायत के मुताबिक तोकसिंह ने उसे ढूँढ निकाला था। पानी से भरा घड़ा उठाए पहाड़ी पर चढ़ते हुए आसमान में सूरज चमकने लगता है।

आँगन में भट्टी के कोयले राख हो चुके हैं। तोकसिंह दरवाज़े और भट्टी के बीच की जगह में चित पड़ा हुआ है। वह आवाज़ देती है लेकिन उसकी अचेतन देह में कोई हलचल नहीं। जुगरी के सिर से मिट्टी का घड़ा धड़ाम से गिरता है। पूरे आँगन में पानी फैल गया है। भट्टी में पानी के रेले समा गए हैं। वह पास जाकर देखती है और उसे झिंझोड़ती है। तोकसिंह की आँखों में गहरी निराशा है और चेहरे पर वही फीकी हँसी... जुगरी चीखना चाहती है पर उसकी आवाज़ गले में ही घुट जाती है। वह फटी-फटी आँखों से उसके निस्तेज चेहरे को देख रही है।

 

 

 

 

मनीष वैद्य देवास से आते हैं। पहल में प्रकाशित उनकी कहानी फुगाटी का जूता चर्चित और सम्मानित हुई है।

 


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