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अक्टूबर - 2019

टेलीफोन न. 223353

मिथिलेश प्रियदर्शी

कहानी

 

 

पिछले कई सालों से सुबह नियमित अराधना की तरह अखबार पढ़ते मेरे पिता अपनी मृत्यु के दूसरे दिन ही उसका एक कॉलम बन गए थे, जिसे उन्हें कभी नहीं पढऩा था। उस छोटे से शहर में पिता की थोड़ी जुदा किस्म की मौत की ख़बर स्थानीय अख़बार में थोड़े अलग तरीके से छपी थी, जिसे कभी नहीं छपना था। पिता ज़िन्दा होते तो अपनी पसंदीदा तुलसी की चाय के ठंढी होते जाने की परवाह किये बगैर जोर से पढ़ रहे होते, 'मृत्यु शैय्या पर पड़े बूढ़े ने की आत्महत्या’। अखबार पढ़ते हुए कभी भी सो जाने की अपनी आदत से वाकिफ़ वह जिज्ञासा के मारे जल्दी से आगे पढ़ते, 'अस्पताल सूत्रों के मुताबिक एक 65 वर्षीय बूढ़े प्रभाकर सबल ने अपनी मृत्यु शैय्या पर सालों पुराने शहद और घी से बनाए अपने मिश्रण को पी कर आत्महत्या कर ली। अभी मौत के कारणों का ख़ुलासा नहीं हो पाया है, पर डाक्टरों का मानना है, अपनी बीमारी से बचने का बूढ़े का यह कोई देशी नुस्खा या जादू-टोटका था. पुलिस सूत्रों की मानें तो सम्पत्ति या अन्य किसी विवाद में हत्या की गुंजाइश से भी इंकार नहीं किया जा सकता।’ बोल कर पढऩे की विद्यार्थी जीवन की आदत के कारण पिता को इस ख़बर के अंत तक थककर सो जाना था।

और पिता अपने बारे में लिखी पहली ख़बर को पढ़े बिना हमेशा के लिए सो गए थे।

अस्पताल मुझे संसार की सबसे बदरंग जगह लगी थी। सबसे मनहूस। मौत के भय से इकठ्ठा हुए लोगों की शरणस्थली, जहां आवारा कुत्तों की आँखों में भी एक दार्शनिक शिथिलता और निराशा होती है। मुझे अस्पताल वालों पर बहुत क्रोध आया था, ख़ासकर उस दुबली नर्स पर, जिसके ज़िम्मे पिता थे। पहले रोज़ से जिस दिन से पिता को अनवरत पेशाब आने के कारण यहाँ भर्ती किया था, देख रहा था उसे गप्पें मारने की बुरी लत थी। वह मौका चुरा बगल के कमरे की नर्स से बतियाने चली जाती। छोटे-मोटे काम निपटाकर मैं जैसे ही कमरे में आता, अपने मजबूर चेहरे के साथ वह लौट आती। कभी उसने मौज़ में कहा था, पिताजी जब ठीक होंगे, मिठाई खिलानी पड़ेगी। अस्पताल में मिठाई का मतलब रुपयों में बख्शीश होता है। 'बेशक खिलाऊंगा’, आशा से भर देने वाली उसकी इस बात पर मैंने ख़ुश होते हुए कहा था। पर जब उसने बताया, पिता ने आत्महत्या कर ली, मैंने उसे धक्का देकर गिरा देने वाली नज़रों से देखा था और उसकी थोड़ी ललाई लिए गालों की मुलायमियत पर अपने तमाचे की निशान की कल्पना कर उसे छोड़ दिया था।

हालांकि मेरी कोशिश होती कि पिता के पास मौजूद रहूं, बावजूद बाहर के काम निपटाने के लिए मुझे जाना होता था। और उस ऊबड़-खाबड़ घड़ी में, जब सामने के महिला वार्ड में एक महिला चिल्लाकर ईश्वर को गालियाँ देते हुए बच्चा जन रही थी, पिता का शरीर ऐंठने लगा था, मुंह विकृत हो अत्यधिक लार छोडऩे लगा था, नर्स शौचालय की ओर दौड़ी थी। वह नि:संकोच पुरुष प्रसाधन में चिल्लाते हुए घुसकर शौचालय के सभी बंद दरवाजों को पिटते हुए कह रही थी, 'तुम्हारे पापा ने ज़हर पी लिया।’ लगभग तुरंत तीन दरवाजे बदहवासी में खुले थे। नर्स को सबने हड़बड़ाई नज़रों से देखा था, पर नर्स ने सिर्फ मुझे।

बस चार मिनट पहले की बात थी, जब भद्दे अल्फ़ाज़ों से भरे उस शौचालय में मैं गया था। इसके ठीक पहले शीत खाए चदरे की तरह पिता का सर्द हाथ मेरे हाथ में था और वह बेहद तनाव में थे, एकदम रो पडऩे की हालत में। ज़र्ज़र पलकों की हैसियत नहीं थी कि वे उनके दर्द से बोझिल आंसुओं को रोके रख सकें। वह जैसे बिलखना चाहते थे। काले पड़ रहे उनके होठों पर ढेर सारे बिखरे शब्द भटक रहे थे। उन्होंने टूटता-सा एक शब्द उच्चारा था... निलय और मैंने उनकी आंखों के कोरों में पानी भरता हुआ पाया था। उनके चेहरे पर काले बादलों के छाने जितना अन्धकार था। पिता का यह चेहरा मैंने पहली बार देखा था। मुझे डर से जोर की पेशाब लग आयी, जबकि मैंने पिछले चार-पांच घंटे से कुछ भी नहीं पिया था। मैं गया था पेशाब करने लेकिन वहां, उनसे महज़ तीस-चालीस कदम दूर, उनकी अवसाद भरी मरगिल्ली आवाज़ याद आई, निलय, और पेशाब की जगह रुलाई फूट पड़ी थी और मैं वहीं दरवाज़ा बंद कर बैठ गया था। नर्स के चिल्लाने पर जब मैं लौटा, पिता लगभग तड़पते हुए किसी पुरानी मोटर की घुरघुराहट वाली आवाज़ में कह रहे थे, जैनु... पानी... वह जब मुझसे प्यार जताते, जैनु बुलाते। मुझे गहरे अपराधबोध के साथ लगा, उन्होंने ये शब्द इन चार मिनटों में जाने कितनी बार दुहराया होगा। कोई प्रचलित सी गाली के साथ मुझे नर्स पर घनघोर गुस्सा आया। कमीनी गप्पे लड़ाने नहीं गयी होती तो ऐसा नहीं होता। उसने डॉक्टर को बुलाने की बजाय मुझे बुलाने में समय क्यों बर्बाद किया? मैं डॉक्टर के चैंबर की ओर भागा। डॉक्टर वहां नहीं था। मैं वहीं से पुकारता-चिल्लाता, उसके लिए गालियाँ निकालता, वापस भागता पिता के पास पहुंचा, जहाँ वे किसी साबूत केंचुल की तरह पड़े थे। नर्स के हाथ में वह पाव भर की शीशी थी, जिसके पुराने घिसे रैपर को वह पढऩे की कोशिश कर रही थी। उसने शीशी थमाते हुए एक आदमी के रूटीन तरीके से मर जाने भर के अफ़सोस के साथ मुझे देखा और बोली, 'इससे घी की महक आ रही है।’ मैंने सूंघा। सड़ी हुई घी की बदबू थी, जिसमें शहद और न जाने क्या-क्या मिला था। उन्होंने अपना ज़हर सालों लगाकर ख़ुद तैयार किया था।

कुछ मिनटों पहले रोने की इच्छाओं से लबालब, मेरे आंसू अब जाने कहाँ वाष्पित हो गए थे। मैंने उसी बदहवासी में नर्स का हाथ पकड़कर कहा, 'प्लीज, किसी को बताना मत।’ और उसने एकटक दीवार पर रुकी किसी छिपकली की तरह शांत मुझे देखते हुए एक विश्वसनीय हामी भरी थी। पर सब बेकार। उस गोरी मूर्ख लड़की ने सब कुछ बक दिया था। सम्भवत: उसने सबसे पहले ये बात डॉक्टर को बताई होगी, जब डॉक्टर एक बुजुर्ग के स्वाभाविक मौत का सर्टिफिकेट बना रहा होगा। क्योंकि आधे घंटे बाद जब डॉक्टर पहुंचा था, उसने पिता की बंद धडकनें देखी थी और बेहद ठंढे लहजे में कहा था, सॉरी। छींक के बाद की तरह की एक औपचारिक सॉरी। उसने पिता के चेकअप में किसी सस्ते होटल के सबसे पुराने ऊबे हुए नौकर-सी उदासीनता दिखाई थी और हार्ट अटैक को मौत का कारण बताकर चला गया था। मैंने पिता के तापमान खो चुके शरीर को उनकी ही शॉल से अच्छे से ढंक दिया था, जिसे वे बचाकर ओढ़ते थे कि किसी ने प्यार से दिया है।

मरना हमेशा के लिए अनुपस्थित हो जाने वाली एक ब्रह्मांडीय क्रिया थी और पिता हमेशा के लिए अनुपस्थित हो गये थे।

उन्हें बारिश बेतरह पसंद थी। दुनिया की सारी अनोखी चीजों में सबसे ज्यादा। बारिश एक साथ उन्हें ख़ुश और उदास दोनों करती थी। अपने कमरे की बालकनी में बेंत की कुर्सी पर बैठे पिता बारिश को देखते हुए घंटों निकाल देते। वह मां से कहते, एक रोज़ जब हाथ-पैर चलने बंद हो जाएँगे, कोई अच्छा-सा बरसात का दिन देख कर मर जाऊंगा। हूँ... एक अच्छा-सा बरसात का दिन... मैं बुदबुदाता। मैं मां से कहता, उन्हें कहना, उन्होंने अभी अच्छी बरसातें नहीं देखी हैं। आने वाले सालों में कुछ शानदार बरसातें होंगीं, उन्हें रुकना चाहिए। और हर बारिश में पिता जब हमारे साथ मौजूद होते, मैं हँसी छूट पडऩे वाली ख़ुशी में सोचता, वह मेरी जगाई उम्मीद की वजह से अपना मरना मुल्तवी किये बैठे हैं, किसी शानदार बारिश के इंतज़ार में।

हवा निकले बड़े गुब्बारे की तरह लुंज-पुंज उनका शरीर पड़ा था और मैं उन्हें झकझोर कर पूछना चाहता था, उन्होंने अपना वायदा क्यों तोड़ दिया? ये शानदार बरसात के दिन तो नहीं थे। हल्की मिठास सर्दियों वाले चटख दिन, उन्हें तो एक अदद शानदार बरसात का दिन चाहिए था न, फिर?

सर्दियाँ पिता को पसंद नहीं थीं। सर्दियाँ उन्हें हमेशा सीमित करतीं थीं। जीवन उन्हें स्थगित होता सा लगता था। सुबहें रजाइयों की अलसाई कृत्रिम गर्मीं में बिना गतिविधियों के निकल जातीं और शामें दिन के घंटे निगल कर रात के अनुत्पादक घंटों को बढ़ा देतीं। मौसमों को व्यक्तिगत तौर पर लेने या छोडऩे का विकल्प मौज़ूद होता तो पिता सर्दियों को छूते तक नहीं। सर्दियों के धूप वाले गुनगुने दिनों में ख़ुद को मोटे रोयेंदार कम्बलों और बन्दरटोपी में छिपाकर दुनिया का नक्शा देखते हुए वह उन देशों को ढूंढते रहते जहाँ सर्दियाँ नहीं पड़ती थीं। उन्हें उनके अज़ीज़ तस्लीम चौधरी ने कहा था, तुम्हें कोंकण के तटीय इलाके में पैदा होना चाहिए था, जहाँ सर्दी नहीं पड़ती और बारिश टूटकर होती है। बुजुर्गों के लिए वह जन्नत है। तब से उन्होंने जाने कितनी बार कितनों से कोंकण के तटीय इलाकों में ज़मीन की कीमतों की बाबत पूछा था।

दुकानों में टंगी बन्दरटोपियाँ हमेशा पिता की याद दिलाते थे। सर्दी से बचने के एक घरेलू नुस्खे के रूप में उनकी बंदरटोपी में मैंने हमेशा छिली लहसुन की कलियाँ देखी थीं, जब उनके कपड़े धोने के लिए मैं तालाब ले जाया करता। तब मेरी उम्र उतनी थी, जिसमें पिता को पलटकर सूअर कहना कहीं से भी बुरा या ग़लत नहीं लगता था। वह अपने आदेशों के ज़वाब में देरी पाकर मुझे कहते, सूअर, खेलना छोड़ो  और इधर आओ। मैं कहता, सूअर तुम आओ। फिर वह जहाँ भी होते मुझे झपटने के लिए दौड़ पड़ते और मैं भाग जाता। वह मेरे पीछे भागते और थककर अंत में हांफने लगते। हांफते-हांफते सर्दी खा जाने से खांसने लगते। फिर गिर पडऩे के अंदेशे से सहारा ढूंढने लगते। तब मैं दौड़ता हुआ डरते-डरते वापस आता। वह मुझे पकड़कर पहले संभलते। संभल कर खड़ा होते। मेरी उंगलियाँ जोर से भींचे हुए लम्बी सांसें लेते। जब ख़ूब सारी हवा उनके फेफड़े में इकट्ठी हो जाती, मेरा हाथ झटक एक भरपूर तमाचा मेरी कान के ठीक बीचोंबीच मारते। उस क्षण मेरे लिए पृथ्वी एक निर्वात में बदल जाती। दुनिया का सारा शोर ख़त्म हो जाता, तब मुझे सिर्फ एक फीकी आवाज सुनायी देती, 'सूअर कहीं का’। वह मुझे मारते और खाकर सो जाते।

पिता को खाकर सोना अशोक कुमार की फ़िल्में देखने या एक बाल्टी चौसा आम खाने जितना ही पसंद था। पर मुझे पढऩे बिठाने के लिए वह सब कुछ छोड़ सकते थे। मुझे पढऩे बिठाए रखने के लिए वह बस यूं ही बैठे रहते और दिन में भी झपकियाँ लेते रहते। पिता मुझे देखते रहते, मैं घड़ी को। पहला घंटा बीतता, दूसरा घंटा, फिर तीसरा। पिता बैठे रहते, उनकी झपकियाँ हवा से लहराते पेड़ों की मानिंद चलती रहती। मैं मजबूर-सा बस किताब खोले दोस्तों की दुष्टताएं और उन्हें सबक सिखाने के उपाय और उनसे जीतने के तरीके सोचता रहता। ऊबकर जब मैं पिता से कहता, क्या अब मैं बाहर जा सकता हूँ, मैं पढ़ते-पढ़ते थक गया हूँ। वह कहते, क्या वह थकते हैं जब रेल चलाते हैं? क्या उन्होंने लोगों से कभी ये कहा है कि अब वह थक गए हैं और रेल नहीं चला सकते? वे उतर जाएँ और कोई दूसरा साधन देख लें। पटरियों पर उतरे दंगाइयों के पत्थर से एक आँख गंवाने के पहले क्या उन्होंने रेल की नौकरी छोड़ी? क्या उन्होंने कभी अपनी जड़ी-बूटियों की दुकान बंद की? क्या उन्होंने दुकान की चौखट पर आये अपने परेशान ग्राहकों को कभी कहा कि आज वह दवाई नहीं कूट सकते, वह थक गये हैं?

मैं किताब के कई शब्दों को गुस्से से चबा डालता, जैसे उनके किताब में होने की सज़ा भुगत रहा हूँ। घड़ी मेरे पक्ष में जल्दी से खूब सारे घंटे एक साथ बजा देने की बजाय केवल सेकेण्ड की सुई को चलाकर मुझे ठगती रहती। तब घडिय़ाँ मुझे दुनिया की सबसे वाहियात आविष्कारों में लगती थीं जो मुझे पढऩे बिठाए रखने में पिता के काम आतीं। किताबों के पन्ने-दर-पन्नों पर पसरे वाक्यों को नफरत से भरकर मैं पिता के कुछ कहने के इंतज़ार में बैठा रहता। फिर अचानक किसी भी वक्त पिता कह उठते, जाओ खेल आओ। मैं पुस्तक बंद करता और भागता मानो ज़िन्दगी की सबसे बड़ी रेस में जीतने के लिए भाग रहा होऊं। मैं इसलिए जल्दी से नहीं भागता कि मेरा खेल छूट रहा होता, बल्कि मैं डरता था कि कहीं पिता अपना इरादा न बदल लें। पिता सच में बीच में अपना इरादा बदल लेते, रुको... आधा घंटा और बैठ जाओ।

और एक दफ़ा फिर, आगे और जीने को लेकर पिता ने अपना इरादा बदल लिया था। और जैसे उनके जाने के बाद मोहल्ले के पीछे एक परती ज़मीन में बेचारे नीम के अकेले पौधे को मैंने बिना पिता के बढ़ते हुए देखा था, मुझे अब ऐसे ही बढऩा था।

मैं पिता के बेजान शरीर को घर ला पाता कि बीच में पुलिस आ गयी थी। अस्पताल प्रशासन ने उन्हें फोन कर बुलाया था। मृत्यु के दु:ख में पुलिस का आगमन, यह पूस की सर्दी में फुटपाथ पर सो रहे किसी गरीब के लिए भीषण बारिश की तरह था।

दो कॉन्स्टेबल और एक दारोगा के जूतों की मिलीजुली चरमराहट फर्श के चिकनेपन से उठकर अस्पताल के कमरों में फैल गई थी। आते ही उस दारोगा की नज़रों ने मुझे हत्यारा मान लिया था।

'नाम क्या है तुम्हारा?’ गले के जाने किस हिस्से से उसने बोला था कि उसकी आवाज़ मुझे बेहद डरा गई थी।

'निलय।’

'निलय क्या?’

'निलय मित।’

'मित?’ उसके उपनाम दुहराने में जाति ढूंढने की एक असफ़ल कोशिश थी।

'कहाँ रहते हो?’ मैंने पिन कोड छोड़ पूरा पता बता दिया था।

इसके बाद मैंने एक सांस में ही दारोगा को सब बताना शुरू किया कि कैसे मैं पेशाब... कि नर्स चिल्लाती हुई... कि लौटा तो पिता...

'बस..’ उसने आधी बात के रास्ते में ही मुझे रोक दिया था।

'लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेजने की व्यवस्था करो। और इसे थाने लेकर आओ।’ उसने दोनों कॉन्स्टेबलों को पिता की ओर इशारा कर कहा।

उसकी दोनों बातें सुनकर मुझे समझ नहीं आया, मैं अपने थाने ले जाए जाने का विरोध करूँ या पोस्टमार्टम में पिता के देह को फिज़ूल में तहस-नहस किये जाने का। दारोगा की पहली पूछताछ कुछ इस तरह की थी, जैसे मैंने ही पिता को मारा हो।

नर्स मुझे अस्पताल से बाहर जाते देख रही थी। डॉक्टर और पुलिस को सब बता देने पर उसकी आँखों में गाहे-बगाहे अपनी ड्यूटी में ईमानदारी बरतने का सुकून और पिता रहित हुए एक आदमी का हताश भाव में पुलिस के पीछे चलने से उपजी सहानुभूति का मिला जुला भाव था।

पिता को पोस्टमार्टम वाली वैन में चढ़ा मैं थाने जाने वाली जीप में बैठा था। रोगी मां के आठ साल पहले गुजर जाने के बाद जीवन में बिल्कुल अकेले हो जाने की यह शुरूआत थी। दो भाई, जो मुझसे बड़े थे और कई सालों से बड़े शहरों में नौकरियों और दूसरे धंधों में थे, पिता की मौत की ख़बर पर घर आ रहे थे। वे कई सालों में एक बार भी नहीं आते, और कुछ सालों में एक-आध बार, जब बच्चों की छुट्टियों और परिवार में होने वाली शादियों का दुर्लभ संयोग बनता।

पिता जब तक जीवित रहे, बाज़ार के रास्ते में पडऩे वाला यह थाना हम लोगों के लिए ठीक शराब की उन दुकानों की तरह रहा, जिसके सामने से जीवन भर शराब नहीं छूने वाला आदमी गुजरता रहता है, पर उसे इन दुकानों के होने का एहसास तक नहीं होता। थाने में किसी मुजरिम की तरह दारोगा मुझसे सवाल किए जा रहा था। शायद उसे ज़वाब दुहराने की आदत थी। जिसकी वजह से मुझे हर ज़वाब को करीब-करीब हाँ के साथ फिर से बोलना पड़ रहा था। जैसे, मैं क्या करता हूँ के ज़वाब को उसने दुहराया था कि ट्यूशन पढ़ाते हो, तो मुझे कहना पड़ा, जी ट्यूशन पढ़ाता हूँ। तुम अपने पिता को परेशान करते थे? जी नहीं, मैं उन्हें प्यार करता था। अच्छा, उन्हें प्यार करते थे? जी, प्यार करता था। तुम्हारे पिता ने आत्महत्या क्यों की? मुझे नहीं पता? तुम्हें नहीं पता? जी नहीं, मुझे नहीं पता। उसने कहा था, ठीक है, अभी जाओ। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के बाद तुमसे मिलता हूँ।

उस रोज़ जीवन में अब तक की सबसे लम्बी दूरी मैंने पूरी की थी, थाने से घर तक की दूरी। मुझे पिता के बचपन के दोस्त तस्लीम चौधरी की बेहद कमी ख़ली थी जो इतने भारी झंझटों और संताप में शहर से बाहर होने के कारण मेरे साथ नहीं थे। वह होते तो दारोगा कम से कम सवाल नहीं दुहराता। वह पुराने वकील थे, जिन्होंने अपनी वकालत को उन बुजुर्ग वैद्यों की तरह सीमित कर लिया था जो सिर्फ अपने परिचितों के लिए ही दवाइयां बनाते हैं। पिता के पुश्तैनी जमीन के पुराने मुक़दमें, वसीयतनामा आदि को छोड़कर तस्लिम चौधरी पिछले दस सालों से कोर्ट-कचहरी से दूर थे।   

वह हमारे ही मोहल्ले में रहते थे और शाम होते ही हमारी जड़ी-बूटियों की दुकान पर आ जाते। उनसे जब मैं पिता के साथ उनकी यारी के किस्से पूछता, वह कहते, हम गाँव के तब के दोस्त हैं जब अकाल पड़ा था और मेरी अम्मी ने मेरे साथ तुम्हारे पापा को भी दूध पिलाया था। तुम्हारी दादी को दूध नहीं होता और वह प्रभाकर को मेरे यहाँ रख जाया करती। वह मुझसे आठ महीने बड़ा था, पर बेहद कमजोर दिखता था। लेकिन कुछ सालों में ही लम्बाई-चौड़ाई में मुझसे आगे निकल गया। जैसे हम एक साथ दूध पीकर बड़े हुए, वैसे ही हम एक ही डिब्बे के पानी से फ़ारिग होने वाले यार थे। एक से कपड़े पहनने की ज़िद, एक ही नायक की नकल, एक ही नायिका के दीवाने, एक ही मिठाई की लत, एक ही स्कूल, एक ही दर्जा। हमने सब साथ-साथ किया, प्रेम और शादी को छोड़कर। उसने प्रेम किया पर जिससे चाहा शादी नहीं हो पायी। मेरा न किसी से प्रेम हुआ, न शादी हुई। मैं रस लेकर जब पिता के प्रेम के बारे में पूछता, वह ठठाकर हंसते, 'बाप के रोमांस के बारे में जानने से बचना चाहिए। रिस्की मामला होता है. बाप पर गुस्सा भी आ सकता है।’

शहर से दोनों भाई आ गये थे। क्रिया-कर्म हो गया था। पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने पर थाने से बुलावा आया था। जब भैया को मैंने थाने का अपना पुराना अनुभव बताया, उन्होंने मुझे दुबारा जाने से मना किया और ख़ुद चले गए। लौटकर आये तो बोले, दारोगा को पैसा चाहिए था। उसी समय कुछ दे दिया होता तो मामला इतना नहीं खिंचता।

मुखाग्नि मैंने ही दी। इस जगह दूसरी बार आया था। पिछली दफ़ा मां के लिए। पंडित ने मुझे पहचान लिया। प्रणाम किया तो बोले, 'बहुत सज्जन और दयालु आदमी के बेटे हुए तुम। तुम भाग्यशाली थे जो इतना हीरे जैसा पिता पाए।’ वह कई बार दुकान से अपने काले और दुर्गंधयुक्त मल के लिए दवाइयां कुटवाया करते थे। इधर नहीं आ रहे थे तो मुझे लगा शायद मर्ज़ ठीक हो गया होगा, किन्तु घाट छोड़ते वक्त पास आये और बोले, 'ख्याल रखना बाबू। दु:ख सहने वाले तुम दुनिया में अकेले नहीं हो। क्या गुंडे, क्या साधू, क्या प्रधानमंत्री, सबको एक रोज़ यह दिन देखना पड़ता है। तेरहवीं के बाद दुकान खुलेगी न?’ मैंने हूँ कहा तो बोले, 'आऊंगा...दवाई याद है न...कूट देना.’

हमारे परिवार का दायरा बहुत सीमित था, सो थोड़े ही सगे-संबंधी आये थे। नानीघर की तरफ से एकलौते मामा और उनका लड़का, एकलौते मौसा-मौसी और दूर के एक फूफा, बस इतने ही लोग। सभी एक-दो दिन में लौट जाने वाले थे और वापिस तेरहवीं पर आने वाले थे। बड़े भैया के पास चार दिनों का और मंझले भैया के पास तीन दिनों की छुट्टियाँ थी। शहर में इनका काम हर्ज़ होता, इसलिए लौटने की जल्दी थी। इनकी योजना भी तेरहवीं के दो दिन पहले आने की थी।

शहर की एकरस-सी ज़िन्दगी और भागदौड़ के बीच जगह बदलने से दोनों भाभी और बच्चे फ्रेश लग रहे थे। बड़ी भाभी रसोई व्यवस्थित करने में लग गयी थी। मंझली भाभी ख़ाली डिब्बों को उलटती-पुलटती घर में हींग नहीं होने पर हैरानी जता रही थी। बड़ी भाभी की छोटी बच्ची को नहीं पता था कि कौन से वाले दादाजी मर गए? मंझले भैया बच्चों को ताकीद कर रहे थे, वे ध्यान से खेलें, यहाँ सांप-बिच्छू ख़ूब निकलते हैं। बड़ी भाभी दुखी होकर पिता को याद कर रही थी, 'जब हमलोग आते थे, पापा जाने कहाँ से रोज शाम को समोसे ले आते थे। उतने अच्छे स्वाद वाले समोसे मैंने फिर कहीं नहीं खाए। पुरे देश में समोसे में इसके आलावा शायद ही कोई किशमिश डालता हो।’ बड़े भैया फोन पर किसी से इस मकान का मौज़ूदा बाज़ार मूल्य समझने में लगे थे।

शाम को सामानों से लदे-फदे तस्लीम चाचा घर आये। उन्हें देखकर लग रहा था जैसे स्टेशन से सीधे घर आ रहे हों। वह घर के आदमी थे। सबने उनके पैर छुए। उनकी आँखों में आंसू आ गये। पिछले कई घंटों से मैं सामान्य था लेकिन उनको नम देख मुझे रोना आ गया और मैं गुसलखाने में घुस गया। निकला तो देखा, बड़े भैया चाचा के पास फाइलों में गड़े कुछ पढ़ रहे थे। मुझे देख चाचा बोले, 'तबीयत का ख्याल रखो। चाहो तो मेरे घर आ जाओ। कुछ देर वहीं बैठना।’ मैंने सिर हिला दिया। उन्होंने भैया को फाइलें लौटाते हुए कहा, 'कल आकर तुमलोगों को इन कागज़ों को समझाता हूँ।’

अगले दिन अहले सुबह तस्लीम चाचा एक फ़ाइल के साथ पहुंचे। मैं दुकान खोलने जाने के लिए तैयार हो रहा था। मंझले भैया को दोपहर में ट्रेन पकडऩी थी। वह सुबह से ही तेरहवीं के लिए एक किफ़ायती किस्म का कार्यक्रम बनाने में लगे थे। उनका ज़ोर था, ऐसी चीजों में ज्यादा पैसे ख़र्च करने का कोई मतलब नहीं होता।

तस्लीम चाचा आते ही बड़े भैया के साथ फाइलों में लग गये। उन्होंने मंझले भैया सहित मुझे बुलाते हुए कहा, 'प्रोपर्टी के इन कागजों को समझाने के लिए आज न कल तुमलोगों के साथ बैठना ही पड़ेगा। मुरली ने कहा उसे जल्दी वापस जाना है इसलिए ये मामला सुलझा लिया जाये। तुम लोग भी आ जाओ। एक साथ बैठना ठीक रहेगा।’

'प्रभाकर ने पिछली हार्ट अटैक से बचने के बाद मुझसे एक वसीयतनामा बनवाया था। इसमें उसकी सारी सम्पतियों का ब्योरा है। बिना तुम सबके समझे यह क्लियर नहीं होगा।’ तस्लीम चाचा ने कहा।

मुझे यह सुनकर एक बार फिर से लगा जैसे पेट के सारे अंग ऊपर मुंह की तरफ बढ़ रहे हैं। मैंने घबराकर कहा, 'आपलोग देख लीजिये। जो कुछ तय करें, मुझे बता दीजिये।’ चाचा तो नहीं, लेकिन दोनों भाइयों और भाभियों ने अजीब नज़रों से मुझे देखा। मैं चुपचाप बैठ गया।

'तो प्रभाकर ने इसमें मुख्य रूप से सारी प्रोपर्टी को तीन हिस्सों में बांटा है। एक हिस्सा गाँव की पैतृक सम्पति, जिसमें पुराना वाला घर, दो बिघे की ज़मीन और एक सात क_े में फैला आम-जामुन का बगीचा है। दूसरा हिस्सा उसका बैंक बैलेंस है, जिसमें दस लाख के आसपास रुपये हैं और तीसरा यहाँ की सम्पति, मतलब सात डिसमिल में बना ये घर और मेन रोड पर वाली जड़ी-बूटी की दुकान है। उसने बंदरबांट के लिए साफ़ मना किया है। मतलब हरेक भाई इन तीनों हिस्सों में से किसी एक को चुन ले। यह नहीं कि हर जगह की सम्पति में तीन हिस्सा हो। खुदरे के इस बंटवारे से एक तो नुकसान होगा। किसी को कुछ ठोस नहीं मिलेगा। दूसरा, भविष्य में विवाद की आशंका बनी रहेगी।’ यह कहकर चाचा ने हम तीनों पर एक नज़र फिराई। मैं चुप बैठा सामने खेल रही छोटी भतीजी को देख रहा था जो छुपम-छुपाई में हर बार एक ही जगह छिप रही थी और बारबार पकड़ी जा रही थी। मंझले भैया मन ही मन किसी गुना-भाग में लगे थे। बड़े भैया की नज़रें भाभी से उलझी थीं। दोनों ने जैसे एक साथ आँखों-आँखों में ही किसी बात पर सहमति बनाई हो।

बड़े भैया ने आहिस्ते से बात शुरू की, 'मैं यहाँ का घर और दुकान रख लेता हूँ।’

मंझले भैया की जैसे तंद्रा टूटी। उन्होंने उससे भी धीमी आवाज़ में कहा, 'यही तो मैं कहने वाला था।’

तस्लीम चाचा ने मेरी ओर देखा, 'तुम बताओ निलय।’

'आपलोग जैसा कहें...’ मैं वापस भतीजी की ओर देखने लग गया था।

'देखो यहाँ की प्रोपर्टी के साथ एक क्लॉज लगा हुआ है। प्रभाकर ने साफ़ लिखा है कि यहाँ कि सम्पति उसी को दिया जाए जो यहाँ कम से कम बीस साल स्थायी तौर पर रहने के लिए तैयार हो, तब तक यहां की सम्पति नहीं बेचे और वर्तमान टेलीफोन लाइन नम्बर 223353 को ज़िंदा रखे।’ तस्लीम चाचा ने बेहद गंभीरता से कहा।

यह एक ऐसी बात थी जिसे सुनकर दोनों भाइयों के साथ मैं भी चौंक गया। बड़े भैया ने अधीर होकर चाचा के हाथ से पेपर ले लिया और ख़ुद पढऩे लगे। मंझले भैया भी उत्सुकतावश झुककर उसमें झाँकने लगे। मैं जिज्ञासा के मारे तस्लीम चाचा को देख रहा था। उन्होंने अपनी पीठ सोफे पर टिकाई और मुझसे कहा, 'एक ग्लास पानी लाओ।’

पानी की तरावट महसूस कर उन्होंने दस्तावेज़ों को समझने में लगे बड़े भैया की ओर देखकर स्थिर भाव में कहा, 'वसीयतनामा में इसकी वज़ह तुम लोगों को नहीं मिलेगी। उस क्लॉज में बस इतना ही लिखा है, जितना मैंने बताया। हां, इसकी वज़ह क्या है, वह मैं ज़रूर तुम लोगों को बता सकता हूँ।’

बड़े भैया ने कागज़ रख दिया। उनके चेहरे पर का उतावलापन साफ़ दिख रहा था।

'तुम्हारे दादा ने यह घर प्रभाकर के दसवीं में जाने से पहले बनवाई थी कि दसवीं के बाद वह गाँव की बजाय इस शहर में रहकर पढ़ाई करेगा। उन्हें इसके लिए गाँव की काफ़ी जमीनें बेचनी पड़ी थी। उनकी देखा-देखी अब्बू ने भी मुझे इसी शहर में भेज दिया था। बारहवीं के बाद हमने साथ-साथ वकालत पढऩे की शुरूआत की लेकिन बीच में उसने पढ़ाई छोड़ दी और नौकरी की तलाश में लग गया। पढ़ाई छोड़कर नौकरी की तलाश का कारण थी ज़ैनब जो इसी मोहल्ले में रहती थी और हमारे कॉलेज में ही पढ़ती थी। उसके पिता सीआइडी इंस्पेक्टर थे और किराये का मकान लेकर यहीं रहते थे। उन दोनों के संबंधों ने जब उठान लिया तो बात शादी तक आ गयी। वह बोली, नौकरी कर लो फिर पिता से बात करना, शायद वह मान जाएं। और प्रभाकर जिसके साथ मैंने इस शहर के सबसे मशहूर वकील बनने के सपने देखे थे, रेलवे में ड्राईवर हो गया। उस समय हमारे मोहल्ले ने नियत समय से पहले दिवाली देखी थी, इतने पटाखे प्रभाकर ने नौकरी की ख़ुशी में छोड़े थे। पर नौकरी लगने के बाद भी ज़ैनब के पुलिसिया पिता से बात करने की हिम्मत उन दोनों को नहीं हुई। दोनों को लगता था, जो सीआइडी इंस्पेक्टर शहर के गुंडों की कारगुज़ारियों को सूंघता फिरता है, उससे कब तक बचा जा सकता है। किसी रोज़ वो पकड़े जायेंगे और सब ख़त्म हो जायेगा। मगर कुछ नहीं हुआ। कुछ साल ऐसे ही बीत गये। अगर वो पकड़े नहीं गये तो शादी की भी कोई सूरत नहीं निकली। इस बीच बुरा ये हुआ कि ज़ैनब के पिता को प्रमोशन मिल गया और उनका तबादला अस्सी किलोमीटर दूर बगल के शहर में हो गया। प्रभाकर ह$फ्ते के हर रविवार उससे मिलने जाता। वह जहाँ शॉर्ट हैंड सीखती थी, वहीं इनकी मुलाकातें होतीं। पर जल्द ही कोर्स पूरा हो गया और उनके मिलने का यह बहाना भी ख़त्म हो गया। नयी जगह पर ज़ैनब के यहाँ टेलीफोन लगा था। वह प्रभाकर से ज़िद करती किसी तरह टेलीफोन लगवा लो, फिर सब आसान हो जाएगा। और नौकरी के कई महीनों के वेतन का सारा रुपया, पिता से दो मर्तबा कुत्ता काटने के बहाने सुइयों वास्ते लिए गए पैसे, शहर के साहूकार से ब्याज पर उठाये गये कुछ क़र्ज़ और मुझसे लिए गए उधार आदि से उसने किसी तरह अधिकारियों के पीछे भागदौड़ कर टेलीफोन लगवा लिया। उस समय यह बहुत बड़ी बात थी। इसके बाद उनकी बातें तो होने लगी पर मामला उससे आगे नहीं बढ़ रहा था। उनके चक्कर में मैं भी मरते-मरते बचा। असल में ज़ैनब के पिता को शक हो गया था कि उसके पीछे मैं लगा हूँ और एक बार जब चिठ्ठियां पहुँचाने गया, उनके हत्थे चढ़ गया। उन्होंने मुझे बुरी तरह मारकर यह कहते हुए छोड़ दिया कि रोज़ा में इससे ज्यादा मैं किसी को नुकसान नहीं पहुंचा सकता। अब आइंदा इधर नज़र मत आना वर्ना जिंदगी मुहाल कर दूंगा। मैं व$कालत करना चाहता था, अपनी ज़िंदगी मुहाल नहीं। और मैंने वापिस उसके मोहल्ले को मुड़कर नहीं देखा।’

चाचा सोफे पर पालथी मोड़कर बैठ गए और पानी का दो घूँट लिया।

'इसी के बाद प्रभाकर और ज़ैनब को लग गया कि अब उनकी शादी होनी मुश्किल है। क्योंकि उसके पिता ने जब अपने समुदाय के ठीक-ठाक पढ़े लिखे लड़के को पीट कर उसका हाथ तोड़ दिया था तो प्रभाकर के पकड़े जाने पर उसका क्या-क्या तोड़ते? मजबूरन दोनों ने कोर्ट में शादी करना तय किया। ज़ैनब ने भागने की सारी तैयारियां कर ली। अपने ऑरिजनल सर्टिफिकेट इक_े किये। ख़ाला, फूफ़ी, मामू जिनसे भी पैसे मांग सकती थी, मांगी। प्रभाकर ने मुझे यारी की कसम देकर आख़िरी मर्तबा मदद करने को कहा। मैंने दिल्ली में अपने एक वकील यार से कहकर कोर्ट मैरेज के सारे इंतज़ामात किए। नियत तारीख़ का ज़ैनब का टिकट बनवाया। सब ठीक से हुआ। तय तारीख़ को हम सब कोर्ट ऑफिस पहुंच गए। पर ज़ैनब नहीं पहुंची। हम उसका सुबह से शाम तक इंतज़ार करते रह गये, पर वह नहीं आयी। प्रभाकर दो हफ्तों तक सुबह से शाम कोर्ट ऑफिस में पागलों सरीखे बैठा रहा कि शायद वह भूली-भटकी आ जाये। पर उसे नहीं आना था, वह नहीं आई।’

चाचा की आवाज़ धीमी हो गयी और वह अचानक चुप हो गये। फिर एक गहरे उंसास के साथ बोले, 'सब प्रभाकर की हालत देखकर उसे समझाने में लगे थे कि तुम्हारे साथ धोखा हुआ है। अब उसको बिसार देने में ही भलाई है। लेकिन वह एक ही बात रटता रहा, वह किसी परेशानी में पड़ गयी होगी, नहीं तो ज़रूर आती। उसने मेरे सामने हाथ जोड़ दिए. रोया, गिड़गिड़ाया कि मैं उसके मोहल्ले में जाकर पता करूं। यह ख़तरनाक काम था। क्योंकि वह दिल्ली नहीं पहुंची, मतलब संभव है पकड़ी गयी हो। ऐसे में उस मोहल्ले में दिख जाने भर से अपने ज़िन्दा देह को मृत करवा लेना था। मैं वहां ख़ुद तो नहीं गया, अपने एक दोस्त को भेजा। तीन-चार दिन की रेकी में भी कुछ हासिल नहीं हुआ तो मैंने ऊबकर छोड़ दिया। बाद में पता चला, उनका तबादला कहीं और हो गया है। इधर प्रभाकर की हालत ख़राब थी। वह हरदम मर जाने की जुगतें सोचता रहता। उसे जिलाए रखने के लिए मेरे पास कहने के लिए एक ही बात थी, 'तुम मर जाओगे और अगर उसने कभी बताना चाहा, उस रोज़ वह क्यों नहीं आयी थी, फिर? फिर वह किससे यह सब कहकर रोएगी?’

'प्रभाकर की एक महीने की छुट्टियाँ ख़त्म हो रही थी जो उसने शादी के बाद अंडरग्राउंड होने वास्ते लिया था। मैंने ठेल-धकेल कर किसी तरह उसे वापिस नौकरी के लिए भेजा। लेकिन पता चला, वह काफ़ी गड़बडिय़ाँ कर रहा है। तब तक वह मालगाड़ी ही चलाता था। उसने एक रात एक सुनसान जंगल में गाड़ी रोक दी और रोता हुआ रेल से उतर गया। किसी तरह साथी कर्मचारी उसे चुप करवाकर वापिस केबिन में लाये। उसकी दिमागी हालत देखते हुए इलाज के नाम पर उसे कुछ हफ्तों की छुट्टी फिर से दे दी गयी।’

'मेरे पास उसके पिता को यह सब बताने के अलावा अब कोई उपाय नहीं था। वह गाँव में रहते थे और महीने, दो महीने पर शहर आते। जब मैंने पूरी कहानी सुनाई, उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने उसी वक्त उसके लिए लड़की देखनी शुरू कर दी। और बस पांच-छह महीने के भीतर आनन-फानन में उसकी शादी हो गयी। बदहवासी में उसने ढंग से विरोध भी नहीं किया। वह रो-धोकर किसी तरह इस दुनिया में वापिस तो लौट आया पर उसका एक मन दिल्ली के उसी कोर्ट ऑफिस में इंतज़ार करता रह गया। उसे लगता था कि ज़ैनब के पास उसका टेलीफोन नंबर है और एक न एक रोज़ वह ज़रूर फोन करेगी और बताएगी, उस दिन क्या हुआ था। वह इस एक सवाल का ज़वाब जाने बगैर मरना नहीं चाहता था। वह हमेशा कहता, 'यह टेलीफोन लाइन मैं कभी नहीं कटने दूंगा। अपने मरने के बाद भी नहीं। शायद मैं मर गया और उसके बाद उसका फोन आया तो कोई तो होना चाहिए उसे सुनने वाला।’

'इसके बाद उसने हर दिन ज़ैनब के फोन का शिद्दत से इंतज़ार करते हुए एक सामान्य से आदमी की जिंदगी जिया। जमकर रेल चलाया। बिना देरी किये लोगों को उनके गन्तव्य तक पहुंचाया। परिवार पर बेपनाह मुहब्बत लुटाया। तुम लोगों को पढ़ाया-लिखाया। दोस्ती-दुनियादारी निभाई। दुर्घटना में एक आँख खोने के बाद लगन से वैद्य का काम सिखा। असली जड़ी-बूटियां बेचने वाला शहर का ईमानदार वैद्य कहलाया। हर दिन मरने की बात सोचने वाले आदमी ने एक भरापूरा जीवन जिया, सिर्फ इस बात के सहारे कि एक दिन वह उसे सुन पायेगा। उसने उम्र के जर्जर सालों में भी उसके ज़वाब इंतज़ार किया पर शायद जीवन के अंत में अस्पताल में उसका धैर्य ज़वाब दे गया और उसने ख़ुद को मार लिया।’

'मैं बस अंदाज़ा लगा पा रहा हूँ कि अपने आख़िरी दिनों में एक पहेली के साथ मरने की पीड़ा ने उसे कैसे ख़ुद ही मर जाने के लिए प्रेरित किया होगा। मैं बस अंदाज़ा लगा पा रहा हूँ, ख़ुद को मारने के लिए तैयार करता हुआ वह कितना टूटकर रोया होगा?’ तस्लीम चाचा यह सुनाते हुए रो पड़े।

बड़े भैया संज्ञा शून्य हो गये थे। भाभियाँ बैठी हुई फ़फकते तस्लीम चाचा का मुंह देख रही थीं। मंझले भैया बिना कुछ बोले उठ गये थे और सूटकेस तैयार करने लग गये थे। बच्चे अब भी खेल रहे थे। भतीजी ने छिपने की जगह नहीं बदली थी। और उसे देखता हुआ मैं पिता की आवाज़ में ख़ुद को जैनु बुलाता हुआ महसूस कर रहा था। 

 

 

संपर्क - जे.एन.यू, नयी दिल्ली, मो. 9013673144

 


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