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अक्टूबर - 2019

पुरुषोत्तम अग्रवाल के वैचारिक लेखन के कुछ मुद्दे

कर्मेन्दु शिशिर

पहला विशेष/दो

अकथ कहानी प्रेम की

अगली बार ओम प्रकाश बाल्मीकि के विचारों और गद्य पर

 

 

पुरुषोत्तम अग्रवाल के लेखन से गुजरते हुए यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि वे अपनी वैचारिक यात्रा के लिए किसी पूर्व निश्चित विचारधारा के आसान रास्ते का चयन नहीं करते। जाहिर है इसके लिए एक तरह की साहसिकता की दरकार होती है जो बिना समृद्ध बौद्धिक आत्मनिर्भरता के संभव नहीं क्योंकि इसमें विचलन की गुंजाइश हर पल बनी रहती है। ज्ञात की यात्रा हमेशा सुगम होती है लेकिन ज्ञात से अज्ञात के लिए तो हमेशा एक जोखिम के लिए तैयार होना होता है। मुक्तिबोध ने इसकी चर्चा करते हुए एक खतरे की ओर इशारा भी किया है। उनके अनुसार बाजदफा अज्ञात की यात्रा एक अजानी रहस्यमयी कुहेलिया की ओर भटका देती है, जिससे वापसी मुश्किल हो जाती है। यह अकारण नहीं है कि पुरुषोत्तम अग्रवाल को पढ़ते हुए उनमें एक सतत सावधानी दिखाई देती है। साथ ही उनकी बीहड़ यात्रा की आश्चर्यजनक तैयारियों का अहसास भी पाठक को बार-बार होता है। उनके अध्ययन की पहुंच इतनी व्यापक, विस्तृत और बहुमुखी है कि वे पलभर को ईष्र्य विस्मय से भर देते हैं। भारतीय ज्ञानकांड हो या पाश्चात्य, आधुनिक हो या प्राचीन, लोक हो या शास्त्रीय, वे कोई कोना बाकी नहीं छोड़ते। दरअसल ज्ञान के इन विभिन्न इलाकों की अनवरत यात्रा के बिना वह साहसिकता संभव ही नहीं थी, जो उनमें दिखाई देती है। सच पूछिये तो सवाल यह भी महत्वपूर्ण नहीं होता कि कोई विचारक किसी विचारधारा की पूर्व निश्चित डगर का चयन करता है अथवा खुद कोई नई राह तलाशता है। असल महत्व तो उस तीक्ष्ण और सूक्ष्म दृष्टि का है जिससे वह किसी तथ्यों या अवधारणाओं का विश्लेषण करते हुए परत-दर-परत उकेरता है और उसके अंदरूनी गह्वर से छुपे अर्थ को उद्घाटित करता है। उद्घाटित अर्थ की नवीनता या मौलिकता बिना उस विशिष्ट दृष्टि के संभव नहीं हो सकती। ऐसा करते हुए उसकी मुठभेड़ उन पारंपरित मान्यताओं, रूढ़ स्थापनाओं अथवा प्रचलित अवधारणाओं से होती है जो लोक या शास्त्र से बद्धमूल हो चुके होते हैं। कभी-कभी तो वे इस कदर आस्थाओं में तब्दील हो चुके होते हैं कि असहमति के स्पेस तक की कोई गुंजाइश नहीं मिलती। उनके पीछे शास्त्रों या लोकश्रुतियों की एक लंबी श्रृंखला होती है। ऐसी मुठभेंडों से पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहीं कोई परहेज नहीं किया है। ऐसे मौकों पर न तो उनमें तनिक संकोच दिखता है, न निर्भीकता की कमी और न ही उनका वैचारिक आत्मविश्वास ही कहीं लडख़ड़ाता हुआ दिखाई पड़ता है।

पुरुषोत्तम अग्रवाल के वैचारिक लेखन की यह खूबी है कि वे किसी स्थापना, मान्यता या अवधारणा को लेते हैं तो पहले उसे अनगिनत सवालों और शंकाओं से बेंधते चले जाते हैं। सवाल-दर-सवाल की यह शैली बाज़दफा नामवर सिंह की याद दिला देती है। वे एक-एक कर जिरह का सिलसिला शुरु करते हुए उसे साहित्य, समाज और इतिहास की विभिन्न कसौटियों से गुजरते हुए व्यापक विस्तार दे देते हैं। इस तरह एक ऐसा पब्लिक डिस्कोर्स उपस्थित हो जाता है जिसमें साहित्य, समाज या इतिहास का कोई भी छात्र शामिल हो सकता है। प्रचलित अवधारणाओं या स्थापित मान्यताओं पर उनके उठाये सवाल कोई मनोगत नहीं होने, उसके पीछे विभिन्न ज्ञान अनुशासनों के गहन अनुसंधान से उपलब्ध प्रामाणिक साक्ष्य होते हैं। कभी-कभी बिल्कुल नये और लगभग अकाट्य! उनके अनुसंधान का भूगोल भी विचित्र और बीहड़ है। उसमें गुजरात से उड़ीसा के, राजस्थान के और न जाने कहाँ-कहाँ के सुदूर इलाके में मालूम-नामालूम मठों या अल्प ज्ञात-अज्ञात दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ तक शामिल हैं। उनकी यात्रा समन्दर पार रूस के अनजान भूभाग में बसे अस्त्राखान तक फैली हुई है। बहस के लिए पूर्व मध्यकाल के तमाम इतिहासकारों और पूर्व-पश्चिम के विचारकों से भरी पूरी लाइब्रेरी ही है। सवाल इसका भी नहीं है, सवाल तो उस तलाश की है! वास्तविक या यथार्थ की खोज में भटकते साक्ष्यों की उसकी प्रामाणिकता की पुष्टि की है। अकथ कहानी प्रेम की तो उनकी इसी तलाश और साक्ष्यों की पुष्टि का जीवित दस्तावेज है।

 

(ii)

 

पुरुषोत्तम अग्रवाल साहित्य के विद्यार्थी रहे। साहित्य के अध्यापक भी रहे लेकिन उनकी प्रारंभिक दोनों पुस्तकों संस्कृति: वर्चस्व और प्रतिरोध (1995) और तीसरा रुख (1996) में संकलित लेखों पर गौर करें तो उनकी प्रकृति वैचारिकता की रही है। संस्कृति और समकालीन सामाजिक सरोकारों से जुड़े वैचारिक लेखन में ही उनकी रुचि दिखती है। मूल साहित्यिक समकालीनता उन्हें ज्यादा रास नहीं आयी। साहित्यवाद से दूर वैचारिकता और बहस उन्हें लगातार बड़े व्यापक सामाजिक और सांस्कृतिक सवालों की ओर खींचते हैं। अकथ कहानी प्रेम की तक की पूरी वैचारिक यात्रा में निरंतरता ही नहीं रहीं, बल्कि व्यापकता और विस्तार भी आया। भारतीय समाज की संरचना में वर्ण-व्यवस्था और सांप्रदायिकता के पक्ष हमेशा अहम रहे हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल की वैचारिकता में ये दोनों कारक हमेशा बने रहे। लेकिन इसकी गहन छानबीन और विश्लेषण के क्रम में भारतीयता, उसकी छद्म और वास्तविक पहचान, हिन्दू संस्कृति और भारतीय संस्कृति का घालमेल, छद्म और कृत्रिम हिन्दुत्व के बरक्स वास्तविक हिन्दुत्व और इस्लाम जैसे सवाल उनकी वैचारिकता में बड़ी प्रमुखता से मिलते हैं। यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि उनका विमर्श कहीं से बौद्धिक विलास नहीं होता, वे इसे समकालीन सामाजिक संरचना के स्वरूप की संगति में ही लेते हैं। भले ही इस क्रम में उनकी विचार यात्रा साहित्य, शास्त्र अथवा इतिहास के सुदूर इलाकों में जाये। अकथ कहानी प्रेम की तक आते-आते उनके वैचारिक भूगोल का फैलाव और गहन अनुसंधान के बीहड़ के पीछे कोई बौद्धिक प्रदर्शन नहीं है, जैसा कि कुछ लोग मानते हैं। बल्कि समकालीन सामाजिक संरचना की जड़ों की तलाश में उन्हें इतिहास के सुदूर अतीत में जाना पड़ा। मौजूदा सामाजिक संरचना का स्वरूप अथवा जनप्रवृत्तियाँ बाहर से जितनी आसान और सरल दिखाई देती हैं, वास्तविकता में वे ऐसी हैं नहीं। यही कारण है कि उन्हें अपनी वैचारिक यात्रा में शास्त्रीयता और लोक के साथ पूर्व और पाश्चात्य विमर्शों में जाना पड़ा। जाहिर था इसमें परंपरा, आधुनिकता और उपनिवेशवाद के साथ विचार का दायरा न सिर्फ विस्तृत हुआ बल्कि उसकी प्रकृति ही बदल गई। भारत में परंपरा और आधुनिकता के सवाल पर उपनिवेशवाद के हस्तक्षेप का विमर्श बहुत ही सघन रूप से बहस तलब रहा है। इसमें शामिल होने का मतलब है एक अंतराष्ट्रीय बहस का हिस्सा होना। भारत में औपनिवेशिक हस्तक्षेप अथवा उसकी भूमिका को लेकर जो भिन्न-भिन्न नैरेटिव विकसित हुए हैं उसका संबंध समकालीन भारतीय समाज की संरचना से ही नहीं बल्कि, सत्ता विमर्श से भी जुड़ा है। ऐसे में उनकी वैचारिकता के प्रतिपक्ष का हमेशा मौजूद रहना सहज स्वाभाविक है। जाहिर है जैसे-जैसे उनकी वैचारिकता के भूगोल में विस्तार हुआ उनके प्रतिपक्षियों का दायरा भी पढ़ा।

बहरहाल! पुरुषोत्तम अग्रवाल के वैचारिक नैरेटिव को शुरुआत से अभी तक आप समग्रता में देखें तो यह बात स्पष्ट है कि उनकी वैचारिकता में साहित्य हमेशा बना रहता है। समाज, राजनीति अथवा इतिहास का कोई भी विचारक अगर अपनी वैचारिकता में साहित्य को शामिल किये रहता है तो यह बात तय मानिए कि उसका उपक्रम सिर्फ दिमाग तक ही सीमित नहीं है। कम या अधिक उसकी वैचारिकता में मानवीय संवेदना अवश्य शामिल होती है। मसलन यह विचारगत ही नहीं रहता, मूल्यगत भी होता है। यह अकारण नहीं है कि उनकी वैचारिकता के केंद्र में है भारतीयता, सांप्रदायिकता और वर्ण-व्यवस्था जाहिर है। इसके अनुषंग में और भी बहुत सारे मुद्दे आते हैं। उनसे बनने वाली पहचान धीरे-धीरे वर्चस्व में बदलती है और अंतत: सत्ता से इनका रिश्ता बनता है। इस पूरी प्रक्रिया और संरचना को पुरुषोत्तम अग्रवाल ने विश्लेषित करने की कोशिश की है। इसी क्रम में परंपरा, आधुनिकता की बहस आती है जो स्वभावत: औपनिवेशिक काल तक जाती है। फिर सवाल दर सवाल की उनकी शंकाएँ उन्हें औपनिवेशक सोच, उसके वर्चस्व और छद्म तक ले जाती है जो उनको मध्यकाल के पुनर्मूल्यांकन को विवश करती है। अकथ कहानी प्रेम की के सघन अनुसंधान और दीर्घ वैचारिक मशक्कत को इसी एकतानता में देखा जाना चाहिए। उनकी इस लंबी विचारयात्रा के किसी एक पड़ाव पर रुककर किसी अंश विशेष को लेना और उसकी तन्कीद करने का मेरी समझ में कोई मतलब नहीं। उनके आलोचकों में बहुतों ने यही पद्धति अपनाई है।

भारतीयता की खोज अथवा उसकी अस्मिता की पहचान की अब तक जितनी कोशिशें हुई हैं, जितने नैरेटिव सामने आये हैं पुरुषोत्तम अग्रवाल ने बड़ी बुद्धिमता से उसमें निहित जटिल शक्ति-संघर्ष को समझने की कोशिश की है। इससे मौजूदा सामाजिक संरचना के ऐतिहासिक सूत्रों की तार्किकता समझ में आ जाती है। उनके दो लेखों ... और क्या होंगे अभी और प्रामाणिक भारतीयता की खोज को इस आसंग में खासतौर से देखा जाना चाहिए। पुरुषोत्तम अग्रवाल का कहना है कि महापंडित से सर्वसाधारण तक यह मानता है कि भारतीयता की विशेषता है समन्वय और सहिष्णुता (34)। उसके ऐतिहासिक तथ्यों की तलाश करते हुए यह पाते हैं पंडितों से सामान्यजन का यह मानना है कि भारतीय संस्कार का गठन महाभारत-काल तक हो चुका था। (38) इसे वैदिक काल तक खींचने वाले अथवा इस्लाम के आगमन से मानने वाले भी हैं। आगे पुरुषोत्तम अग्रवाल का सवाल यह है कि भारतीयता अलग-अलग पहचानों के आपसी संबंधों, मनुष्य और समाज के रिश्तों में भावना विकसित करने वाली है अथवा सबको कुचल कर अपनी पहचान बनाने वाली है। फिर ऐसे लोग यह भी कहते हैं कि ''भारतीय इतिहास में दमन और अत्याचार का सिलसिला शुरु होता है इस्लाम से। उसके पहले युद्धकालीन अत्याचार, किसी सत्ताधारी की व्यक्तिगत बुराई से उत्पन्न हिंसा हो, तो हो, लेकिन विभिन्न सामाजिक समूहों पर निरंतर अत्याचार नहीं होता था।’’ (34) जाहिर है यह धारणा विवादास्पद है। बौद्धों और सनातनियों के बीच और शैवों तथा शाक्तों के बीच जो विरोध और लड़ाइयाँ रही हैं वह तो बहुत ही रक्तरंजित रही है और उसमें कब्जे को लेकर भीषण नरसंहार भी हुए थे। इसलिए वे इस नैरेटिव को गलत मानते हैं। इतना ही नहीं वे इस नैरेटिव के भीतर मौजूद भारतीयता के मूल्य-बोध को ही प्रश्नांकित करते हैं। धर्म, जाति, भाषा या जेंडर से इस भारतीयता का क्या रिश्ता है? जाहिर है यह इतना सरल और आसान नहीं है जितना प्रचारित किया जाता है। उनका सवाल है क्या भारतीयता एक स्थिर अवधारणा है? ऐतिहासिक क्रम में इसमें कोई बदलाव, कोई जोड़-घटाव नहीं? दरअसल इस शुद्धतावादी हठ के पीछे जोर यह है कि हिन्दुत्व और भारतीयता पर्याय है। हिन्दुत्व को पर्याय मानने से भी वर्ण-व्यवस्था और स्त्रियों की सामाजिक हैसियत का मसला अनसुलझा ही रह जाता है। दरअसल लक्ष्य पर है इस्लाम और उसका अलगाव या निषेध। हिन्दू संस्कृति ही भारतीय संस्कृति है इसलिए वर्चस्व कायम कर सत्ता से इसके मूल स्वरूप को बनाये रखना है। पुरुषोत्तम अग्रवाल इस पर सवाल यह उठाते हैं कि ''भारतीयता ऐतिहासिक अनुभवों की संचित स्मृतियों और विशेष सामाजिक मर्यादाओं के समुच्चय का नाम है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इसकी प्रामाणिकता का मानदंड यही है कि इसके जरिए ऐतिहासिक अनुभवों का सत्य किस हद तक व्यंजित हो रहा है, और इसके द्वारा प्रतिपादित मर्यादाएँ किस हद तक सामाजिक न्याय-चेतना के अनुकूल हैं।’’(35)

सवाल यह है कि संस्कृति तो इकहरी हो नहीं सकती। संस्कृति अपनी प्रकृति में ही यौगिक, संश्लिष्ट और गतिशील होगी इसलिए ऐतिहासिक अनुभवों से उसमें विकास और बदलाव होगा ही होगा। पुरुषोत्तम अग्रवाल शुद्धतावादियों की असल नस पकड़ते हैं। उनके अनुसार चिढ़ का कारण यह है कि ''इस्लाम ने ब्राह्मणवादी सामाजिक संगठन जाति-व्यवस्था का एक विकल्प प्रस्तुत किया।’’ दरअसल ''इस्लाम में सामूहिक धर्मांतरण उन इलाकों और जातियों में सबसे ज्यादा हुआ, जिनमें नाथपंथ सरीखे मतों का प्रभाव अधिक था और जो इस्लाम के आगमन के पहले से ही वर्ण-व्यवस्था के प्रति उपेक्षा का रवैया अपनाने लगे थे। भारतीय संस्कृति में इस्लाम का सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह है कि इसने दलित जाति-समूहों के सामने शोषण और आत्मगौरव-विलोपन से मुक्ति पाने की एक संभावना प्रस्तुत की। इस्लाम ने भारतीय जनमानस में सदियों से घुमड़ रही बेचैनी का ठोस रूप देने और ब्राह्मणवाद के राजनीतिक-सामाजिक तथा विचारधारात्मक प्रभुत्व को चुनौती देने का क्रांतिकारी काम किया।’’(35) आगे वे इस्लाम की इस भूमिका से भारत के असमान समाज में आये उथल-पुथल की चर्चा करते हुए इस यथार्थ को उद्घाटित करते हैं कि यह क्रांतिकारिता कायम नहीं रह सकी। ऐसा इसलिए नहीं हो सका क्योंकि मुस्लिम शासक वर्ग का हिन्दू वर्ण-व्यवस्था को श्रेष्ठ जातियों से पूरी तरह तालमेल बैठ गया। शासक वर्ग के लिए इस्लाम की क्रांतिकारी भूमिका से भी ज्यादा जरूरी था - राज्य की व्यवस्था। उसका संचालन और मजबूती। यह ऊँची जातियों के बिना संभव नहीं था क्योंकि सामंती ढाँचे में राजस्व वसूली में उनकी अहम् भूमिका थी और उनके संगठित विद्रोह की भी आशंका पैदा हो सकती थी। बात ताकत तक ही नहीं थी। शासन-पद्धति को नये सिरे से बदलने की भी थी। तब मुस्लिम शासक बाहर से आये थे और उनकी संख्या सीमित थी और उन्हें राज एक ऐसी सामाजिक संरचना वाले देश में करना था जो भिन्न धर्मावलंबी था। वे भिन्न शासन व्यवस्था में थे और उनका सामाजिक जीवन बिल्कुल भिन्न था। इसलिए ''मुस्लिम शासकों ने अपने साथ लाये प्रशासन तंत्र का तालमेल बहुत जल्द ही जाति-व्यवस्था के साथ बैठा लिया। जाति के चौधरी और गाँव के मुखिया मालगुजारी सामंत के बजाय इक्तादार को पेश करने लगे। जाति के निर्धारित जन्मगत पेशे बने रहे। नयी जातियाँ जरूर उत्पन्न हुई और परंपरा के अनुसार उन्हें जाति-व्यवस्था की किसी-न-किसी सीढ़ी पर जगह मिलती चली गयी।’’(107)

पुरुषोत्तम अग्रवाल को पढ़ते हुए, खासतौर से उनकी आलोचना करने वालों को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वे एक ही विषय पर बार-बार विचार करते हैं। कहीं-कहीं भिन्न संदर्भों में रखकर विचार करते हैं। इसीलिए किसी विषय पर उनके विचारों का एक लंबा सिलसिला है। अब कहीं से किसी अंश को संदर्भच्युत कर उद्धरित कर लेना और आक्रामक आलोचना करना एक तरह की बचकानी हरकत है। आश्चर्य होता है कि ऐसी हरकत उनके योग्य शिष्यों ने ही की है। बहरहाल! संस्कृति: वर्चस्व और प्रतिरोध से लेकर अकथ कहानी प्रेम की तक में एक लंबा अंतराल जरूर है लेकिन विचार-प्रक्रिया की यात्रा अबाध है। उसमें न तो विचलन है, न उलटफेर! वे गहन अनुसंधान और विचार विस्तार के साथ लगातार गंभीर और सघन होते गये हैं। उसी तरह उनका वैचारिक भूगोल बहुत चौड़ा और गहरा होता गया है। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि उनकी समझ में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आता। जैसा कि मैंने कहा उनमें शुरू से ही प्रश्नाकुलता रही है जो उनको लगातार गहरे उतरने को विवश करती है। जाहिर है बिना एक तरह की बावली जिद्द के आप बत्तीस वर्षों की दीर्घ यात्रा नहीं कर सकते। लेकिन आप संस्कृति: वर्चस्व और प्रतिरोध को ही गौर से पढिय़े तो उनकी प्रकृत्ति शुरु से ही किसी विषय को स्वीकार कर लेने वाली नहीं रही है। वे हर प्रचलित से प्रचलित विषय को भी बारीकियों से विश्लेषित करते हैं। अपने-नये-नये और तीखे सवालों की नोंक पर उसे परत-दर-परत उकेरते हैं। इसलिए मेरा विनम्र आग्रह है कि उनके आलोचकों को उनके विचारों के सूत्र शुरू से आज तक एकतान निरंतरता में देखना चाहिए। आखिर बिना उनके नैरेटिव को समग्रता में समझे हुए आप उनकी आलोचना कैसे कर पायेंगे।

पुरुषोत्तम अग्रवाल की सबसे अधिक आलोचना जाति-व्यवस्था और वर्ण-व्यवस्था के आसंग में की गई है। इस पर तो हम लेख के दूसरे भाग में विचार करेंगे क्योंकि यहाँ मैंने खुद को उनके शुरुआती विचारों तक ही महदूद रखा है। वर्ण-व्यवस्था के स्वरूप और संरचना को लेकर पुरुषोत्तम अग्रवाल कभी, कहीं दुविधा में नहीं रहे। वे इस संरचना के पीछे विभिन्न समुदायों के स्वार्थ और शक्ति-संरचना की भूमिका को ठीक-ठीक समझ रहे हैं। वे उनकी विभिन्न रूपों में व्यक्त अभिव्यक्ति को भी समझ गये थे। लिखते हैं - ''वर्णाश्रम, अधिकार भेद और जाति-व्यवस्था के जरिये वर्ण, वर्ग और लिंग परक उत्पीडऩ का जो तंत्र बनता है, उसे सनातन धर्म, लोकधर्म और मर्यादा जैसे मोहक अभियान न दिये जायें, तो वह चले कैसे?’’(109) इतना ही नहीं, इस तंत्र को समझने के लिए वे समाजशास्त्री डेक्लान क्विगंली के पास भी जाते हैं और उनके हवाले से यह कहते हैं कि उन्होंने जाति को विशुद्ध धार्मिक विषय के रूप में देखा है।’’ (110) अब जाति की सामाजिक संरचना को ज्यों ही आप धार्मिक मान लेते हैं आपके सामने वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मणवाद की रची तमाम कुटिल व्यवस्थाएं समझ में आ जाती हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल इस बात को समझ रहे होते हैं कि लक्ष्य तो इहलोक ही है लेकिन इसके तार परलोक तक गये हैं। लिखते हैं - ''इहलोक से परलोक तक इस जन्म से पीछे और आगे अनंत जन्मों तक चलने वाले इहलोक-पारलौकिक शक्ति-विमर्श और सत्ता-तंत्र का काम है वर्णाश्रम और जाति-व्यवस्था।’’ (111) यहाँ तक तो बात ठीक है। वे अस्मितावादियों के निशाने पर तब आते हैं जब वे बात इससे आगे ले जाते हैं। सवाल यह उठता है कि वर्ण-व्यवस्था की यह संरचना क्या शुरु से बद्धमूल और अपरिवत्र्तनशील रही है? इसके यथार्थ की सघन तलाश में वे मध्यकाल की गहन वीथियों में आते हैं। अकथ कहानी प्रेम की दीर्घावधि के पीछे असल कारण यही है। इसलिए तंज करने या आलोचना करने से बेहतर है कि उनके अनुसंधान से लाये गये प्रमाणों, तथ्यों के बरक्स ऐसे प्रमाण और तथ्य खोज लायें जिससे पुरुषोत्तम अग्रवाल के प्रस्तुत ऐतिहासिक यथार्थ गलत सिद्ध हो जायें। मार्क्स के इस कथन को याद रखना चाहिए कि यथार्थ चाहे जैसा हो, वह हमेशा जनता और समाज के पक्ष में जाता है।

 

(iii)

 

नवजागरणकाल को लेकर पुरुषोत्तम अग्रवाल एक बुनियादी सवाल करते हैं कि इस काल में आत्मबोध का दायरा या नेतृत्व भद्रलोक तक ही सीमित रहा। तमाम सकारात्मकता के बावजूद इस भद्रलोक की समस्या यह थी कि एक ओर तो यह स्वर्णिम अतीत की बात करता था तो दूसरी ओर उसका उदय और उसकी सक्रियता ही औपनिवेशिक बौद्धिकता से प्रेरित थी। उन्होंने अंग्रेजी उपन्यासकार राजाराव का एक कथन उद्धृत किया है कि ''अंग्रेजी हमारी बौद्धिक बनावट की भाषा है, भावात्मक बनावट की नहीं, वैसे ही जैसे संस्कृत और फारसी हमारी बौद्धिक बनावट की भाषाएँ रही हैं।’’ इस पर पुरुषोत्तम अग्रवाल की यह टिप्पणी गौरतलब है कि ''बुद्धि और हृदय के बीच यह फॉक ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न की यह स्थिति नवजागरण के बावजूद बनी रही। आजतक बनी हुई है। आधुनिक राष्ट्र जनता की भाषा को बौद्धिक विमर्श की भाषा बनाता है, इस तरह राष्ट्रीय आत्मबोध के विकास की एक बड़ी बाधा दूर होती है।’’ (23) अगर पूरी परिणति के रूप में देखो तो यह बात बिल्कुल सच है। लेकिन नवजागरण काल के तमाम बौद्धिक विमर्शों को लेकर हम इतना सरलीकृत निष्कर्ष नहीं निकाल सकते। नवजागरण के बौद्धिक विमर्श का इलाका बहुत ही विस्तृत है और उसका बहुलांश अभी भी ओट में है। पूरे देश और भारतीय भाषाओं की अपनी भिन्नताएं और मौलिकताएं हैं। उनके बोलने वाले समुदायों में काफी असमानता और भिन्नता है। उनकी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक भिन्नताओं के अलावे भी उनकी भौगोलिक भिन्नताओं से भी काफी अंतर विकसित होता है। उपनिवेशवाद के संघर्ष में उनकी भूमिकाएं भी एक समान नहीं रहती। नवजागरण के मुद्दों में भी और उसके स्वरूप में काफी फर्क देखने को मिलता है। उसमें ऐसा काफी कुछ है जिसकी अपेक्षा पुरुषोत्तम अग्रवाल करते हैं। भले वे लोग अंग्रेजी या कुछ अन्य यूरोपीय भाषाओं को जानते रहे हों, पढ़ते रहे हों मगर वे लोग औपनिवेशित बौद्धिकता की छायाप्रति नहीं थे। अपनी परंपरा के प्रति एक आलोचनात्मक विवेक के साथ वे उसे आधुनिक शक्ल में ही प्रतिपक्ष के रूप में रखने की आकांक्षा और हैसियत रखते थे। उनके पास एक ऐसा नजरिया था जो औपनिवेशिक ज्ञानकांड से बिल्कुल आक्रांत नहीं था। उनके पास अपनी परंपरा को आधुनिक ढंग से देखनेवाली निगाह भी थी। यह सब नवजागरण काल को विपुल साहित्य में जगह-जगह दिखाई देता है।

अब लाख टके का सवाल यह उठता है कि ऐसा क्यों हुआ? कैसे हुआ? क्या कोई और रास्ता था? अगर था तो उस पर देश क्यों नहीं चला? ऐसी बात नहीं कि यह सवाल पहली बार उठा है। यह विमर्श कोई नया नहीं है। इस पर हमारे देश में और हिन्दी में भी काफी बहस चली है। इसमें वामपंथी, समाजवादी और गाँधीवादी भी शामिल हुए हैं। बहस में बहुत सारे नैरेटिव हैं। औपनिवेशिक ढाँचे को यथावत बनाये रखना। अर्थ-व्यवस्था की परनिर्भरता। उपनिवेशवादी साम्राज्यवाद का पूंजीवादी साम्राज्यवाद में बदलना। धीरे-धीरे भूमंडलीकरण और संचार का विस्तार होना। भारतीय समाज में वर्गों या समुदायों की सत्ता-संरचना। क्या यह सच था, जैसा कि शुरु में कहा जाता रहा कि हमारी आजादी अधूरी थी। अगर आप आजादी के समय पर गौर करें तो संभवत: गाँधीजी ऐसे अकेले बड़े नेता थे जो इस खतरे को समझ रहे थे। देश उनके सबसे योग्य उत्तराधिकारों के हाथों में ही गया था। फिर भी आखिर क्या कारण थे कि नये भारत की दशा और दिशा में गाँधी की सोच की कोई भूमिका नहीं थी। वे पूरी तरह बेदखल कर दिये गये थे और वे आजाद भारत में बिल्कुल अकेले थे। नये भारत की दशा और दिशा के केन्द्र में उसके सर्वाधिक प्रतिभाशाली शिष्य पं. जवाहरलाल नेहरू थे। एक व्याख्यान में खुद पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा था कि उन्हें खुद को नेहरूओबियन कहे जाने पर भी कोई एतराज नहीं है। डॉ. राममनोहर लोहिया सहित ऐसे बहुत सारे लोगों का मानना था कि भारत के औपनिवेशिक सोच के अनुरूप विकसित होने के पीछे केन्द्रीय भूमिका पं. नेहरू की थी। बेशक नेहरू विरोध के भी बहुत सारे नैरेटिव हैं जिससे सबसे पिछड़ा और भद्दा कट्टर हिन्दुत्ववादियों का भी है, इसे हम विचार से बाहर रखते हैं। लेकिन औपनिवेशिक सोच की आधुनिकता के बरक्स मौलिक भारतीय देशज आधुनिकता के आधार पर बहस की गुंजाइश बनती है या नहीं? जब यह सवाल पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसा विचारक उठा रहा है तो उनसे यह अपेक्षा बनती है कि वे इस बहस को मौजूदा संदर्भ में उठाये, विश्लेषित करें और आगे बढ़ाये। आखिर आधुनिक भारत के देशज निर्माण में कैसे और कहाँ-कहाँ चूक हुई? आखिर औपनिवेशिक ज्ञानकांड से निर्मित नजरिया ही क्यों पसरता चला गया? इस पूरे प्रसंग को विस्तार और बारीकी में जाकर विश्लेषित करने की अपेक्षाा हिन्दी में किसी एक विचारक से होगी तो वह नि:संदेह पुरुषोत्तम अग्रवाल ही होंगे।

 

(2)

(i)

 

पुरुषोत्तम अग्रवाल की अकथ कहानी प्रेम की उनकी वैचारिक यात्रा की सर्वोत्तम उपलब्धि है। इसको पढ़ते हुए जैसी विस्मित कर देने वाली विचारोत्तेजकता महसूस होती है, वैसी अपने किसी समकालीन विचारक को पढ़ते हुए बहुत कम ही महसूस होती है। इसमें अनुसंधान के बीहड़ से गुजरते हुए पुरुषोत्तम अग्रवाल के अकथ श्रम और अपार धीरज के साथ यथार्थ की बारीक छानबीन, पाठक को नई वैचाकि ऊँचाइयों तक ले जाती है। पाठ हो, काल हो या कथन; उसके निर्धारण क्रम में उनकी सावधानी और रैशलनिज्म आपको बार-बार सोचने को विवश करता है। किसी यथार्थ की पुष्टि में प्रमाणों का आधिक्य ही काफी नहीं होता, असल बात होती है यथार्थ तक पहुँचने की प्रक्रिया। पुरुषोत्तम अग्रवाल के जिस बौद्धिक आत्मविश्वास की मैंने बात की है, यहाँ उसके जगह-जगह साक्ष्य मिले हैं। देशी-विदेशी विचारकों से सहमत-असहमत की बात तो अलग, एक पुस्तक के भिन्न संस्करणों, अनुवादों में आये फर्क अपना बदलाव से यथार्थ तक पहुँचने की बाधाओं से उनका जूझना आपको बार-बार विस्मित कर देता है। जो लोग बत्तीस वर्षों से दीर्घ अनुसंधान अवधि पर तंज करते हैं उनको उस सामग्री पर गौर करना चाहिए जो पहली बार उपलब्ध होती है और परंपरा से चली आ रही, बड़े-बड़े विद्वानों द्वारा पुष्ट धारणा को पूरी तरह बदल डालती है।

पुरुषोत्तम अग्रवाल इस पुस्तक से कबीर के कवि व्यक्तित्व को एक सर्वथा नई शक्ल में ही प्रस्तुत नहीं करते, वे एक तरह से पूरे भक्ति आंदोलन का ही पुनर्पाठ प्रस्तुत कर देते हैं। वे विवश करते हैं कि पूरे भक्तिकाल को और उसके कवियों को नये सिर से देखा जाये। वे इसमें समकालीन समाज के जड़ों की तलाश कर लेते हैं। वे बुनियादी अवरोध को बात करते हुए बताते हैं कि ''भारत, बल्कि किसी भी गैर-यूरोपीय समाज के अतीत और वत्र्तमान को समझने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है- चेतना का उपनिवेशीकरण।’’(15) दरअसल हमने अब तक अतीत को, परंपरा को और इतिहास को इसी रूप में देखा है। जाहिर है एक लंबे समय तक अपने अतीत, परंपरा या इतिहास को लेकर हमारी अवधारणाएँ इतनी बद्धमूल हो गई हैं कि उनके पुनर्पाठ की बात हम सोच ही नहीं सकते। यह बात ध्यान में रखनी होगी कि पुरुषोत्तम अग्रवाल के भीतर यह बात, यह बोध अचानक पैदा नहीं हुआ होगा। इसकी एक लंबी प्रक्रिया रही होगी, एक कठिन वैचारिक जद्दोजहद का सिलसिला रहा होगा। इसके साक्ष्यों की गहरी छानबीन और जाँच-पड़ताल की प्रक्रिया रही होगी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इसको विभिन्न विधाओं, ज्ञान परंपराओं की संगति में सोचा-विचारा गया होगा। इसलिए आलोचना और बहस की बात तो बाद की बात है, पहली जरूरत उनके नैरेटिव को ठीक-ठीक समझने की है।

अकथ कहानी प्रेम की को लेकर जो मुद्दा सबसे ज्यादा बहस-विवाद में आया- वह था देशज आधुनिकता और औपनिवेशिक आधुनिकता। गो कि मेरी समझ से कुछ और भी मुद्दे और पक्ष हैं जो शायद महत्वपूर्ण हैं। कुछ तो संभवत: पहली बार हिन्दी विमर्श में शामिल हुए हैं - जैसे धर्मेत्तर आध्यात्मिकता। बावजूद आलोचकों ने इसी पर केन्द्रित होकर आलोचनात्मक लेख तक लिखे। शब्दावली अथवा पद्धति में भले ही भिन्नता रही हो, लेकिन मूल रूप से यह अवधारणा कोई नयी नहीं है। न ही पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहीं इसको खुद के मौलिक अवदान के रूप से पेश किया है। इस अवधारणा से रामविलास शर्मा के मार्फत हिन्दी जगत परिचित भी रहा है। बावजूद इसके यह बात भी सच है कि इतने विस्तार और अनेक नई उद्भावनाओं के साथ इसको इस तरह समग्रता में प्रस्तुत करने का श्रेय पुरुषोत्तम अग्रवाल को ही जाता है। इसमें वे बहुत कुछ नया जोड़ते हैं और इस बहस को लगभग पूर्णता तक ले जाते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि रामविलास शर्मा जिस रूप में भारतीय आधुनिकता को रूपायित करते हैं और जिस पद्धति से तत्कालीन भारत और यूरोप के समानान्तर समय-समाज का विश्लेषण करते हैं, पुरुषोत्तम अग्रवाल उससे भिन्न रास्ता अपनाते हैं। ऐसी बात नहीं कि पुरुषोत्तम अग्रवाल को इस बात की समझ नहीं थी कि भारत में व्यापारिक पूँजीवाद का औद्योगिक पूँजीवाद में रूपांतरण नहीं हुआ। कारण चाहे जो रहे हों, मगर जो लोग भारतीय समाज को जड़ और परिवत्र्तनशील मानते थे, उस समाज में व्यापारिक पूँजीवाद की तेज और लगातार गतिविधियों का प्रभाव पड़ा या नहीं? उससे भारतीय समाज में हलचल हुई या नहीं? उससे भारतीय समाज में बदलाव आया या नहीं? भारत में भले ही व्यापारिक पूँजीवाद को औद्योगिक उछाल नहीं मिला लेकिन एक समृद्ध और सांस्कृतिक क्रांति का नेतृत्व तो था! उसका सबल स्वर था, उसको सुननेवाली, उससे प्रभावित होनेवाली एक विशाल जनता थी। इसलिए पुरुषोत्तम अग्रवाल ने मूल्य को महत्व देते हुए देशज आधुनिकता को रूपायित किया। आप उनसे असहमत होइये, विरोध कीजिए लेकिन धैर्य से उनके नैरेटिव को तो समझिये! जैसा कि पुरुषोत्तम अग्रवाल की शैली है, सवाल से विचार की ओर बढ़ते हैं। उनका सवाल कबीर के कनिष्ठ समकालीन मार्टिन लूथर से शुरू होता है। उनकी गिनती यूरोपीय आधुनिकता के प्रारंभिक प्रणेताओं में थी। उनकी पुस्तक यहूदी और उनके झूठ की चर्चा करते हुए पुरुषोत्तम अग्रवाल ने लिखा है कि वे अपने लोगों को धिक्कारते हैं कि शर्म करो, यहूदी जिन्दा हैं। वे उनके घर, उपासना स्थलों और धार्मिक ग्रंथों को जलाने का आह्वान करते हैं। उनको जहरीला कीड़ा कहते हैं। कहते हैं। वे उनको जहन्नुम भेजने को कहते हैं, नहीं तो वे दास बनकर रहे। दक्षिण भारत में भी उनके अनुयायियों ने प्रोटेस्टेंट बाइबिल जलाई। जेनेवा के प्रोटेस्टेंटों ने तो मिशेल सर्वेंटस को पुस्तकों के साथ जिन्दा जला दिया। पुरुषोत्तम अग्रवाल ब्रिटिश अध्येताओं ने जो कबीर को भारतीय लूथर कहते हैं, उससे यह सवाल करते हैं कि ''कबीर शाक्तों से काफी चिढ़ते थे, और तुलसीदास निर्गुण पंथियों से, लेकिन अपने प्रशंसकों को दोनों में से किसी ने नहीं धिक्कारा कि शर्म करो, ये चिढ़ाऊ लोग जिन्दा हैं। पुस्तक-दहन ने ऐसी लेकप्रियता कबीर और तुलसी के समाज में कभी नहीं पाई।’’(66)

पुरुषोत्तम अग्रवाल के ऐसा मानने के पीछे तर्क और समझ है। वे लिखते हैं- ''मध्यकालीन और आधुनिक केवल समय सूचक शब्द नहीं, मूल्यबोध टम्र्स भी हैं। आधुनिकता के बाद ही समाज प्रबोधन की दिशा में बढ़ता है। आधुनिक की मूल्यपरक व्यंजना के ही कारण, ऐतिहासिक समकालीनता के बावजूद कबीर मध्यकालीन और लूथर आरंभिक आधुनिक कहलाते हैं।’’(67) वे आगे और स्पष्ट करते हैं कि ''प्रबोधन के मूल्य हैं - व्यक्ति सत्ता की स्वीकृति, सहिष्णुता और विवेक। बोलचाल में आधुनिक और प्रबुद्ध घुलमिल जाते हैं। आधुनिक का अर्थ हो जाता है विवेकपर व्यक्ति-सत्ता स्वीकार करनेवाला, सहिष्णु चित्त, और मध्यकालीन का मतलब व्यक्ति सत्ता को नकारने वाला।’’(68) ऐसी बात नहीं है, इसी मूल्य के आलोक में पुरुषोत्तम अग्रवाल ने तत्कालीन राजसत्ता को देखा है- जो समाज को सीधे प्रभावित करती है। उन्हीं के शब्दों में - ''अकबर ने हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदायों की स्त्रियों की दशा सुधारने का प्रयत्न किया, दासों के व्यापार पर रोक लगाने की कोशिश की - दूसरे शब्दों में व्यक्ति-सत्ता के सम्मान को, हर मनुष्य की मनुष्यता की स्वीकृति को राजकीय नीति और व्यवहार का आधार बनाने का यत्न किया। सुलहकुल (विभिन्न धर्मों का सम्मान) को राजकीय नीति बनाया।’’(68) इसलिए उस काल में आधुनिकता को रखकर विभिन्न इलाकों से उन्होंने परखने का काम किया है। उन्होंने इक्तदार आलम खान, मुक्तिबोध, दिलीप चित्रे और रवीन्द्र नाथ ठाकुर के हवाले से आधुनिकता की पुष्टि की है। इसमें से किसी ने औद्योगिक क्रांति के अभाव में, अकबर, कबीर और तुकाराम को आधुनिक मानने से तनिक संकोच नहीं किया है। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि सवाल रामविलास शर्मा का हो या पुरुषोत्तम अग्रवाल का इन दोनों के पास आधुनिकता का कोई भारतीय मॉडल नहीं है। इस तरह की थोड़ी-बहुत कोशिश रवीन्द्रनाथ ठाकुर के निबंधों में देखने को जरूर मिल जाती हैं। प्रसन्न कुमार चौधरी ने पाश्चात्य या कहिये औपनिवेशिक आधुनिकता के बरक्स महात्मा गांधी की आधुनिकता को रखकर कुछ महत्वपूर्ण वैचारिक लेख जरूर लिखे थे, लेकिन यह बहस बौद्धिकों के बीच परवान नहीं चढ़ सकी। भारत में मार्क्सवादियों का एक बड़ा बौद्धिक वर्ग है जो मध्यकाल की व्यापारिक गतिविधियों को व्यापारिक पूँजीवाद मानने में ही संकोच करता है। उसके पास जो पूँजीवाद की कसौटी है उस पर यह खरा नहीं उतरता। उनके अनुसार रामविलास शर्मा ने मनमानी व्याख्या की है और व्यापारिक पूंजीवाद के विकास का अनैतिहासिक विवरण प्रस्तुत किया है। वे तत्कालीन समय में लूथर, मुंजर, काल्वें जैसे धार्मिक सुधार आंदोलन तलाश कर रहे थे। इरफान हबीब ने मध्यकालीन भारत पर बहुत गहराई से काम किया है। वे व्यापारिक पूंजीवाद के विकास को तो मानते हैं लेकिन उनके अनुसार कुछ जरूरी लक्षणों के अभाव में वह औद्योगिक पूँजीवाद के विकास में उत्प्रेरक नहीं हो सकता था। यह बहस इतनी उलझी, बिगूचन भरी और परस्पर विरोधी है कि हम ठीक-ठीक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते।

कम से कम यह बात तो कुछ अपवादों के बावजूद निर्विवाद है कि ब्रिटिश पूर्व भारतीय समाज न तो अपरिवर्तनीय था और न ही अवरुद्ध। ऐसे विपुल अनुसंधान और साक्ष्य सहित वैचारिक लेखन हुए हैं और यह सिलसिला बना हुआ है, जिसमें भारत की प्राचीन व्यापार की समृद्धि और उनकी निरंतरता पुष्ट होती है। कुछ अंग्रेजों ने ही अपने संस्मरणों में लिखा है कि भारत का मुर्शिदाबाद शहर लंदन से ज्यादा समृद्ध है। जाहिर है यह सब सामंती व्यवस्था में तो संभव नहीं हुआ होगा। लेकिन पूर्व तय कसौटियों पर खरे नहीं उतरने वाले आग्रही विचारकों से आप बहस भी तो नहीं कर सकते। पुरुषोत्तम अग्रवाल ने शुरू से अपने को ऐसी बहस से अलग रखा है। वे अपनी सोच और अपने अनुसंधान से लाये गये साक्ष्यों से अपनी बात आगे बढ़ाने की कोशिश करते हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल मानते हैं कि दसवीं सदी में व्यापार का पुनरोदय कबीर तक आते-आते बहुत विकसित हो चुका था। व्यापारियों तथा दस्ताकारों की आर्थिक ताकत और सामाजिक हैसियत बहुत बढ़ गई थी। तब नगर बहुत तेजी से विकसित हो रहे थे और भक्ति का लोकवृत्त प्रभावी हो गया था। कबीर या तुकाराम जैसे कवि इन्हीं तबकों की प्रभावशाली आवाज बन चुके थे। यह सिलसिला लंबे समय तक चला। डॉ. रामविलास शर्मा ने भी भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश में लेकसंस्कृति के अत्यन्त प्रभावशाली होने की बात कही थी। उन्होंने यह सवाल उठाया था कि रहीम के माता-पिता भारत के बाहर से विदेशी मुसलमान थे। वे अरबी और फारसी के विद्वान् थे। संस्कृत उन्होंने पढ़ी थी। वे खुद अकबर के दरबार में मंत्री थे। आखिर ऐसा क्या आंतरिक या बाह्य दबाव था कि उन्होंने तत्कालीन लोकभाषा ब्रजभाषा में रचनाएं की। रामविलास शर्मा ने अनेक साक्ष्यों से यह बात प्रमाणित करने की कोशिश की है कि उस समय लोक संस्कृति बहुत समृद्ध और प्रभावशाली थी। उन्होंने अनेक औपनिवेशिक विचारकों से बहस भी की है। उस बहस को नये रूप से पुरुषोत्तम अग्रवाल ने बहुत विस्तार दिया है और सोचना के लिए कई नई इलाके उजागर किये हैं। दूसरी बात यह कि पुरुषोत्तम अग्रवाल ने अनेक नये परवत्र्ती और आधुनिक  विचारकों से बौद्धिक मुठभेड़ की है। यह बहस ही फालतू है कि यह अवधारणा उन्होंने रामविलास शर्मा से ही ली है। संभव है ली हो, लेकिन जिस तरह उन्होंने इसे विकसित किया है, कबीर के आसंग में विन्यस्त किया है, वह किससे उधार लिया है? आप उनके पूरे पश्चिमी या औपनिवेशिक विचारकों से हुई बहस को गौर से पढिय़े। वे सिर्फ असहमति ही दर्ज नहीं करते बल्कि नये-नये साक्ष्यों को सामने लाकर इस विमर्श के स्वरूप को आधुनिक आसंगों में रखकर उसे अत्यन्त विचारोत्तेजक बना देते हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल की इस बौद्धिक लड़ाई के केन्द्र में है - औपनिवेशिक चेतना से मुक्ति!

पुरुषोत्तम अग्रवाल उस दौर में हो रहे बौद्धिक बदलावों को उठाते हैं। व्यापार के तीव्र विकास और दस्तकारों की बढ़ती हैसियत से हलचल भरे उस दौर में पंडितों का प्रभाव कम था। ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के साथ शास्त्र पीछे हो गया था लोक आगे आ गया था। वे थोड़े व्यंग्य भाव से पूछते हैं कि ''पांडित्य के भी लोक-जीवन की ओर झुकने को स्थानीय चिंता अभाव माना जाए या लोक-संवादी शास्त्र-चिंता की स्वाधीनता का रेखांकन?’’ इस सवाल का वे स्वयं उत्तर देते हैं- ''जिस काल में देशभाषा का चिंतन ही नहीं, संस्कृत पंडितों, निबंधकारों की शास्त्र चिंता भी लोक-व्यवहार से ऐसा मुखामुखम कर रही हो, परंपरा को लाठी की तरह भाँजने के बजाय वाद-विवाद-संवाद के जरिए आधुनिक बना रही, अपडेट कर रही हो, उसे स्तब्ध मनोवृत्ति का काल कहना निराधार है।’’(74-75) आप औपनिवेशिक विचारकों की तो बात छोडि़ए यहाँ तो शास्त्र लेकर पंडित ही लट्ठ के साथ खड़े हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल परंपरा और आधुनिकता के नाभि-नाल रिश्ते को बख़ूबी समझते हैं। उन्होंने एक जगह हजारीप्रसाद द्विवेदी के दिये पारिभाषिक महत्व के शब्द को नामवर सिंह के हवाले से दिया भी है - पुनर्नवता! परंपरा और आधुनिकता का रिश्ता ही ऐसा है कि हर आधुनिकता की अपनी परंपरा और हर परंपरा में आधुनिकता की संभावना। ऐसे में भक्तिकाल में शास्त्र का पीछे रह जाना और लोक का प्रभावशाली हो जाना कोई निराश करने वाली स्तब्धकारी बात नहीं थी।

वास्तविकता यह थी कि मार्टिन लूथर के समकालीन भारत और चीन आर्थिक गतिविधियों में, सांस्कृतिक-वैचारिक उपलब्धियों में यूरोप से बहुत आगे थे। आधुनिकता के लिए जिस औद्योगिक क्रांति की अनेक औपनिवेशिक सोच वाले भारतीय और यूरोपीय विरुदावली गाते हैं, उसे रामविलास शर्मा और पुरुषोत्तम अग्रवाल लूट पर आधारित मानते हैं। मसलन ब्रिटिश आधुनिकता साम्राज्यवादी लूट की ओर जाती है जबकि भारतीय आधुनिकता व्यक्ति-सम्मान, व्यक्ति-स्वातंत्र्य और लोक-संवाद संभव करती है। पुरुषोत्तम अग्रवाल की टिप्पणी है कि ''यूरो केन्द्रित इतिहास बोध, विश्व-बोध साम्राज्यवाद के स्वर्णयुग में रचा गया। इसके अनुसार यूरोप और गैर यूरोप में बुनियादी सांस्कृतिक और नस्ली भेद था।’’ पुरुषोत्तम अग्रवाल जब देशज आधुनिकता को एक मूल्य के रूप में लेते हैं तो उनके पास इसके आधार हैं। उनके देखने का एक देशज आधार है, देशज कारक हैं। ''भारतीय समाज की परंपरा में देश भाषाकरण, धर्मशास्त्र का अर्थशास्त्रीकरण और भक्ति के लोकवृत्त का विकास परस्पर सम्बद्ध चीजें हैं।’’ (83) इस आलोक में उनकी अवधारणा को परखने की कोशिश होनी चाहिए।

आज एक ऐसा समाज विकसित हुआ है कि उसे अपनी परंपरा, भाषा, सोच, संवेदन से कोई लगाव नहीं है। उसका सीधा संवाद आधुनिक अर्थशास्त्र से बना है। आधुनिक बाजार का उपभोक्ता बनना उसकी आकांक्षा है और उपलब्धि भी। उसके मूल्य बेशक आधुनिक हैं लेकिन उसका अपनी विरासत का ज्ञान नहीं और अपनी परंपरा से कोई लेना-देना नहीं। इसके समानान्तर जो हमारी देशज आधुनिकता थी, उसे उपनिवेशवादियों ने विकसित होने नहीं दिया। इसको उन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर के गोरा और महात्मा गांधी के हिन्द स्वराज के जरिये बताया भी है कि ये किस तरह औपनिवेशिक आधुनिकता के उत्पन्न आत्महीनता से मुक्त करने का बौद्धिक उपक्रम था। पुरुषोत्तम अग्रवाल दो कदम और आगे बढ़कर कहते हैं कि ''अंग्रेजी राज ने आधुनिकता का नहीं, आधुनिकता के अवरोध का श्रीगणेश किया। आधुनिकता के ऐतिहासिक उपकरणों-व्यापार और नगरीकरण-का विस्तार नहीं विनाश किया। उपनिवेशवाद ने जिस आधुनिकता को भारतीय समाज पर आरोपित किया, वह परंपरा से समाज को काटती, देशभाषाओं की अवहेलना करती, एक तरह खोखले, दयनीय आत्मभिमान को, और दूसरी तरफ आत्मदया और आत्मघृणा को जन्म देती आधुनिकता थी।’’(113) आप इस आईने में मौजूद समाज को साफ-साफ देख सकते हैं।

देशज आधुनिकता के विकास का अवरोध सिर्फ औपनिवेशिक आधुनिकता को, स्थापित ही नहीं करता बल्कि समाज में एक दूसरा संकट भी पैदा कर देता है। देशज आधुनिकता के विकास को रोक देने से परंपराएँ खत्म नहीं हो जातीं। उनकी ठूँठ से रह-रहकर नई-नई कनछियाँ निकलती हैं। जिस तरह बाजार की आक्रामकता के साथ औपनिवेशिक आधुनिकता समाज पर थोपी जाती है और जो ताकतें इसको संरक्षित करती हैं। वही ताकतें परंपराओं की नई कनछियों को आधुनिक स्वरूप में पूरी क्रूरता और भोंडेपन के साथ समाज पर बलात लादती भी जाती हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल की निगाह में ये दोनों ग्रंथियाँ भी हैं। उनके अनुसार कुछ भारतीयों के भीतर मौजूद ग्रंथि भारत जगद् गुरु रहा है और ठीक इसके बरक्स यूरोपियों की यह ग्रंथि के वे जगत्-उद्धारक रहे हैं। ये दोनों अतत: ग्रंथि ही हैं। ''उपनिवेशवादी विश्व-व्यवस्था की ओर दुनिया के बढऩे से पहले, विभिन्न परंपराओं का विकास और आधुनिकता में उसका रूपांतरम एक समानांतर चलने वाली प्रक्रिया थी, जिसमें विभिन्न समाज एक-दूसरे से सीख रहे थे, एक दूसरे को सिखा रहे थे।’’(91)

पुरुषोत्तम अग्रवाल ने जैक गुडी या संजय सुब्रह्मण्यम के कथनों का हवाला देकर बताया कि आधुनिक एक वैश्विक परिघटना थी। उसका संबंध अनिवार्यत: औद्योगीकरण से नहीं जुड़ता। ''कोई समाज आधुनिकता की ओर बढ़ रहा था या नहीं, यह तय करने का आधार औद्योगीकरण को नहीं बनाया जा सकता। यूरोप के संबंध में बनाया भी नहीं जाता। बनाया जाय तो यूरोप की आधुनिकता का इतिहास लूथर से नहीं, अठारहवीं सदी के अंत से ही आरंभ होगा। व्यापार के विस्तार से आधुनिक रुझान जन्म लेते हैं, व्यापार की जरूरतों के साथ मिलकर वे आधुनिक रुझान औद्योगीकरण के अनुकूल परिवेश का निर्माण करते हैं।’’(105) पुरुषोत्तम अग्रवाल आधुनिकता को मूल्यगत यों ही नहीं मानते। वे उसको विभिन्न संदर्भों में रखकर विचार-विमर्श करते हैं। वे रामविलास शर्मा की उठाई लड़ाई को नये सिरे से लड़ते हैं कि भारत में अंग्रेजों की भूमिका प्रगतिशील नहीं प्रतिगामी थी। जो लोग 1857 के विद्रोहियों को सामंती जड़े प्रतिक्रियावादी मानते हैं, वे ही अंग्रेजों के बारे में कहते हैं कि वे देर से आये और पहले चले गये। उस पर तुर्रा यह कि अंग्रेजों के जाने के बाद आजाद भारत में सबसे बड़ी हिस्सेदार के वे ही दावेदार हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल की इस अवधारणा की सबसे तीखी आलोचना इसी इलाके से आती है। पुरुषोत्तम अग्रवाल के अनुसार ''सच्चाई यह है कि 1857 का स्वतंत्रता संग्राम औपनिवेशिक आधुनिकता के विरुद्ध देशज आधुनिकता का विद्रोह था। उसके नेता समाज के आंगिक बौद्धिक थे, जिन्हें  तिरस्कार के साथ पिछड़ी चेतना से ग्रस्त पंडित, मौलवी, साधु, फकीर, कहकर डिसमिस करने की आदत औपनिवेशिक ज्ञानकांड ने अंग्रेजी शिक्षा के जरिये रचे गये भारतीय बुद्धिजीवियों के मन में व्यवस्थित रूप से डाली।’’ (117) अंग्रेज देर से आये और पहले चले गये - वाले औपनिवेशिक बौद्धिकों की एक विसाल संख्या है जो अंग्रेजों के जान के बाद खुद को सब पर अपने वर्चस्व का नैतिक और स्वाभाविक दावेदारी समझती है। उनकी मानसिक पराजीविता वाली है जो रुग्णता की हद तक रूढ़ है।

 

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पुरुषोत्तम अग्रवाल जिस देशज आधुनिकता को रूपायित करते हैं उसमें वर्ण-व्यवस्था में टूट-फूट का होना एक अहम् कारक है। इसको वे बहुत विस्तार और बारीकी में ले जाते हैं। मेरे लिये उनका यह पूरा विवेचन लगभग नया था। दसवीं सदी से अठारवीं सदी के मध्य का भारतीय समाज और अठारहवीं सदी के बाद जब अंग्रेज इसमें हस्तक्षेप करते हैं-बहुत अंतर आता है। भक्तिकाल की जात-पात पूछै नहीं कोई, हरि का भजै सो हरि का होई - अतीत बनता गया और एक सायास अनुशासित समाज बनाने की कोशिश शुरु हो गई। पुरुषोत्तम अग्रवाल ने 1773 से 1775 के बीच ग्यारह ब्राह्मणों की बनी समिति से बात शुरु की है जिसकी अध्यक्षता नेथेनियल हालहेड कर रहे थे। इसका उद्देश्य हिन्दू लॉ को मोडिफाई करना था। तारीफ यह कि जो अंग्रेज अध्यक्ष थे जो संस्कृत नहीं जानते थे। इसलिए संस्कृत से बंगला, फिर फारसी और आखिर में अंग्रेजी में तर्जुमा कर अध्यक्ष हालहेड साहब को बताया गया। जाहिर है यह तो अप्रमाणित होगा ही। पुरुषोत्तम जी के अनुसार इस की भ्रष्टता से जोंस भी दुखी थे। लेकिन तमाम इन औपनिवेशिक विचारकों का मानना था कि हिन्दुओं अथवा मुसलमानों के लिए नयी विधियाँ या कानून सोचना संभव नहीं। ''उन्हें इस बात का बोध था, न परवाह कि हिन्दु और मुस्लिम दोनों परंपराएँ, दोनों विधियाँ शास्त्र और लोक के सार्वत्रिक और स्थानीय के संवाद के कारण लगातार विकसित होती रही हैं स्वयं उनके समय में हो रही हैं।’’(75) लेकिन इन सच्चाई को दरकिनार कर जोंस ने अपने समय के श्रेष्ठ पंडितों की मदद से हिन्दू लॉ का प्रामाणिक पाठ तैयार किया। यह मनुस्मृति का पाठ था - दि इंस्टीट्यूट्स ऑफ हिन्दू लॉ आर दि आर्डिनेंसेज ऑफ मनु। लार्ड कार्नवालिस इस बात से आश्वस्त था कि पंडित जगन्नाथ तर्क पंचानन जैसे तत्कालीन समय के प्रतिष्ठित पंडित के समर्थन से वह इसे हिन्दूओं से मनवा लेगा। इसलिए पुरुषोत्तम अग्रवाल 1794 को मनुवाद के पुनर्जन्म का साल मानते हैं। बीस स्मृतियों में बस एक मनुस्मृति को अंग्रेजों ने हिन्दू समाज का संविधान बना दिया जबकि यथार्थ में ऐसा कहीं नहीं था, कभी नहीं था। यह भ्रम है कि अंग्रेजों को फूट डालो और राज करो की नीति सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम तक ही सीमित थी। उनके बहुत स्तर थे। वे परत-दर-परत भारतीय समाज के टूटन को संभव करना चाहते थे। ''जिस मनुस्मृति को देशज आधुनिकता कब का पीछे छोड़ आई थी, उसे हिन्दुओं की दि बुक बनाया जा रहा था, संवाद-विवाद के जरिए विकसित होती रही बहुवचनात्मक परंपरा को बर्फ में लगी, टेक्स्टवादी और केन्द्रीकृत परंपरा में बदला जा रहा था।’’(77) इसमें वे पूरी तरह सफल रहे और आज भी हैं। इसे भारतीय समाज का संविधान माना जाने लगा। बाबासाहब अंबेडकर का भी यह मानना था कि कोई एक व्यक्ति चाहे वह कितना भी प्रभावशाली क्यों न हो जाति-व्यवस्था का निर्माण नहीं कर सकता। कानून भी उसका बनाया नहीं था। उसके अनुसार जाति पहले से थ ीऔर मनु ने सिर्फ मौजूदा समय के सामाजिक कानूनों को लिपिबद्ध भर किया था। मनु के नाम पर एक से एक कहानियाँ सामने आने लगीं और फैंटेसी को यथार्थ की तरह प्रामाणिक माना जाने लगा। इसका लाभ दोनों ने उठाया-ब्राह्मणवादियों ने भी और अस्मितावादियों ने भी। ''कट्टरपंथी मनु को आदर्श बताने लगे तो क्रांतिकारी मनु के आधार पर थ्योरी बनाने लगे कि ब्रिटिश-पूर्व भारतीय समाज सिर्फ दण्ड और भय के बल पर ही संचालित होता था। वर्णाश्रमवादी फैंटेसी की ब्राह्मण सर्वोच्चता को, तथ्यों की उपेक्षा करते हुए, भारतीय समाजका शाश्वत सत्य मान लिया गया।’’(78) यह विचित्र बात थी कि कट्टरवादी ब्राह्मण भी अंग्रेजों से प्रसन्न थे और आज अस्मितावादी तो उनके पैरोकार की भूमिका में हैं ही।

पुरुषोत्तम अग्रवाल जिन व्यापारिक हलचलों के विकास की बात करते हैं, उसे बनिये के फेयरप्ले के रूप में देखना चिंतनीय और आश्चर्यजनक है! व्यापार से जुड़े बणिक समुदाय में विभिन्न जातियों के लोग शामिल थे। उसमें ब्राह्मण भी थे, राजपूत भी थे। जाहिर था वे समाज के सबसे उन्नत लोग थे और उनकी प्रतिष्ठा भी थी। कबीर वगैरह कवि उन्हीं के प्रतिनिधि स्वर थे। ऐसे में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता पीछे छूट गई थी। तथ्यों सहित इस पूरे विश्लेषण को पुरुषोत्तम अग्रवाल की जाति से जोड़कर देखना सर्वथा अनुचित और अस्वीकार्य है। अंग्रेजों को दलित-पिछड़े हितैषी माननेवालों को पुरुषोत्तम अग्रवाल के इस सवाल का भी जवाब देना चाहिए। ''ब्रिटिश राज को दलितों-पिछड़ों का उद्धारक और 1857 के विद्रोहियों को ब्राह्मणवादी बतानेवालों को अनुमान लगाना चाहिए कि चौथाई सदी में अकाल के कारण काल के ग्रास में समा जाने वाले हमारे ढाई-तीन करोड़, अभागे पूर्वजों में से कितने दलित-पिछड़े रहे होंगे और कितने ब्राह्मणवादी!’’(121) अब हर ऐतिहासिक यथार्थ को गढ़ंत कह कर नकार देने का कोई और इलाज नहीं। लेकिन ठीक इसी आसंग से कोई चाहे तो मेरे द्वारा संपादित सारसुधानिधि से प्रामाणिक स्रोत सामग्री देखकर तसदीक कर सकता है। मौजूद हित में उपनिवेशवाद के पक्ष में जाने पर हम कितनी बड़ी क्षति की अनदेखी कर देंगे, इसकी ओर भी पुरुषोत्तम अग्रवाल ने इशारा किया है। ''औपनिवेशिक सत्ता अनाज का अकाल पैदा कर रही थी तो औपनिवेशिक ज्ञानकांड स्मृति का। औपनिवेशिक सत्ता व्यापार को नष्ट कर रही थी, औपनिवेशिक ज्ञानकांड व्यापार द्वारा भारतीय इतिहास में निभाई गई भूमिका की स्मृतियों को व्यवस्थित रूप से मिटा रहा था। सिद्ध कर रहा था कि भारतीय समाज जातिप्रथा, जजमानी व्यवस्था और ओरिएंटल डेस्पॉटिज्म के ही आधार पर चलता आया है, पॉलिटिकल इकॉनॉमी तक तो भारत कम्पनी का राज कायम होने के पहले कभी पहुँचा ही नहीं।’’(123) मेरा ख्याल है पहले ही अपनी पक्षधरता तय कर हम उस काल के ऐतिहासिक यथार्थ को नहीं समझ सकते।

जो लोग ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और वर्चस्व के विरोध में ब्रिटिश सत्ता का समर्थन करते हैं, वही लोग इस बात का रोना भी रोते हैं कि अंग्रेजों के जाने के बाद सत्ता उन्हीं के हाथों में आती। आप विचार कीजिए क्या इसमें अंग्रेजों की कोई भूमिका थी? पुरुषोत्तम अग्रवाल न तो ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के और न ही वर्ण-व्यवस्था के पक्षकार हैं। वे तो इसमें आ रहे बदलावों को बाधित करने वाले औपनिवेशिक हस्तक्षेप को ही उद्घाटित करते हैं। ''आरंभिक आधुनिक काल के भारत की सामाजिक वास्तविकता वही (वर्णसंकरता) थी। वर्णमिश्रण के कारण नित नई जातियाँ उत्पन्न हो रही थीं। व्यापारजनित गतिशीलता के कारण स्वयं ब्राह्मण व्यापारी भी बन रहे थे, मजबूर भी और आदिवासी गोंड राजाओं के स्तुतिगायक भी। जातियों के नस्लाधारित होने की कल्पना का तो औपनिवेशिक आधुनिकता के पहले कही अता-पता नहीं चलता।’’ (123) हिन्दी बुद्धिजीवियों की सबसे बड़ी बीमारी है रैशलनिज्म का अभाव और ऑब्जेक्टिव न होना। पुरुषोत्तम अग्रवाल ने इतिहासकार विजयनाथ के हवाले से ब्राह्मणों के बारे में बड़ी दिलचस्प बात बताई है। उसमें ब्राह्मणों की जो दस कोटियाँ गिनाई हैं - उसमें शूद्र ब्राह्मण, मलेच्छ ब्राह्मण, चांडाल ब्राह्मण, निषाद ब्राह्मण और मार्जार ब्राह्मण भी शामिल हैं। विजयनाथ जी का कथन है - ''यह मानने के पर्याप्त प्रमाण हैं कि मध्यकाल तक आते-आते ब्राह्मण जाति समूहों में विशुद्ध और मध्यदेशीय ब्राह्मणों के अलावा भी कई तत्व शामिल हो चुके थे। आदिवासी पुरोहितों को ब्राह्मण जाति की निचली पायदानों पर जगह मिल चुकी थी।’’(125) इसलिए विश्वनाथ हों या क्रुक इनके निष्कर्षों को दरकिनार करते हुए ब्रिटिश सत्ता ने इसे नस्लीय ही माना। देखिए मध्यकाल हो या आधुनिक काल जातीय श्रेष्ठता का आधार पैसा और ताकत ही रहा है। यह अकारण नहीं है कि आज अनेक जातियाँ खुद को शूद्र में शामिल करवाने को अधीर हैं। विचार कीजिए ऐसा क्यों है? अगर ब्राह्मणों की शाश्वत रूप से श्रेष्ठता रहती तो छोटे-छोटे मुस्लिम बादशाहों से लेकर आदिवासी गोंड राजाओं का वे संस्कृत में स्तुतिगायन क्यों करते?

पुरुषोत्तम अग्रवाल ने क्रुक के हवाले से जन्मना ही ब्राह्मण होने के विपरीत प्रमाण भी दिये हैं। अवध गजेटियर और नेसफील्ड को उद्धरित करते हुए क्रुक ने बताया कि प्रतापगढ़ के राजा मानिकचंद ने किसी अनुष्ठान के समय जरूरी ब्राह्मणों की संख्या घटने पर कुर्मियों, अहीरों और भरों को बड़ी संख्या में ब्राह्मण बना दिया। ऐसा फतेहपुर में भी हुआ। कालांतर में ये सभी स्वीकार कर लिये गये। उसी तरह उन्नाव के राजा तिलोकचंद शिकार के समय प्यास से व्याकुल होने पर जिस लोध से पानी लेकर पिया उसे अमतरा पाठक ब्राह्मण बना दिया। 1775 के आसपास असोधर के राजा भागवत राय ने एक लूनिया को ब्राह्मण बना दिया था। मुझे भी जाति-व्यवस्था पर काम करते हुए पराजित राज्यों के पकड़े गये सैनिकों अथवा नागरिकों को दुसाध या कमकर अथवा कलवार बनाये जाने के पुष्ट प्रमाण मिले थे। इसलिए जातियाँ कोई स्थिर ईकाई नहीं रही है। इसमें परिवर्तन होते रहे हैं। बेशक ब्राह्मण अपनी श्रेष्ठता का दावा और सुख लेते रहे हैं लेकिन पुरुषोत्तम अग्रवाल का यह कथन सही है कि ''भारत जजमानी व्यवस्था और अपरिवर्तनशील वर्ण-व्यवस्था का समाज नहीं, परजीवी पुरोहितों, सामंतों, मेहनतकश किसानों, दस्तकारों और व्यापारियों के बीच संबंधों से परिभाषित होता समाज था।’’ (129) जाति कोई धार्मिक रिश्ता नहीं था यह सामाजिक ढाँचे की व्यवस्था थी। क्रुक ने नेसफील्ड का जो कथन उद्धृत किया है उसे पुरुषोत्तम अग्रवाल ने दिया है - ''जाति रक्तधारित समुदाय नहीं, प्रकार्य (फंक्शन) आधारित समुदाय है। प्रकार्य और केवल प्रकार्य की ही बुनियाद पर भारत की जाति-व्यवस्था का सारा ढाँचा गढ़ा गया है।’’(128) सवाल जायज है कि यह टूटता क्यों नहीं है, यह व्यवस्था खत्म क्यों नहीं होती? सीधा है कि इसका शुरु से, हर काल में राजसत्ता इस्तेमाल करती रही है। सामाजिक ढाँचे को बनाये रखना अथवा उसमें बदलाव करना सिर्फ राजसत्ता के हित-अहित पर ही निर्भर नहीं करता क्योंकि ताकत और पैसे की भूमिका हर काल में प्रभावी रही है।

पुरुषोत्तम अग्रवाल ने क्रुक के निष्कर्षों का सार प्रस्तुत कर दिया है जो बहुत महत्त्वपूर्ण और विचारणीय है। पहली बात यह कि क्रुक के अनुसार - ''ब्राह्मण कोई समांगीकृत (होमोजिनस) समूह नहीं है। उनमें तरह-तरह के समूह शामिल हुए हैं, इस तथ्य से उनके उद्भव को पेशे से जोडऩे वाली थ्योरी पूरी तरह प्रमाणित होती है’’। क्रुक के निष्कर्ष इस प्रकार हैं। (1) जाति कोई शाश्वत, अपरिवत्र्तनीय व्यवस्था नहीं, बल्कि हिन्दू पौराणिक काल और इतिहास में सतत विकासमान व्यवस्था रही है। (2) जाति भारत की कोई अनोखी व्यवस्था नहीं, सर्वव्यापी पेशाधारित सामाजिक व्यवस्था का भारतीय रूप है। (3) जाति का वास्ता रिलीजन से कम और समाजशास्त्र से अधिक है। (4) तथाकथित मूल विभाजन (ब्राह्मण, श्रत्रिय, वैश्य, शूद्र) का वास्तविक तथ्यों से कोई संबंध नहीं है। (128)

क्रुक हो, नेसफील्ड या पुरुषोत्तम अग्रवाल आप बिना तथ्य-तर्कों से इसे पूरी तरह नकार देंगे तो इससे इतिहास का यथार्थ बदल तो नहीं जायेगा। मन मुताबिक निष्कर्ष ही निकालना है तो इतिहास खुद गढ़ा जाता रहा है। पुरुषोत्तम अग्रवाल ने जो नैरेटिव तैयार किया है वह सीधे कहीं से आयातित नहीं है, न ही वे किसी एक पर निर्भर करते हैं। वे उसे बहुत कोणों से बहुत संदर्भों में रखकर विचार करते हैं जैसे इसमें स्थान भेद से अंतर आया है- ''दक्षिण के ब्राह्मण सभी अब्राह्मणों को शूद्र मानते थे। उत्तर में कई मध्यवर्ती जातियाँ थी, और ब्राह्मणों की सामाजिक हैसियत दक्षिण, महाराष्ट्र और बंगाल की तुलना में काफी कमजोर थी।’’(131) उन्होंने कहीं सरलीकरण का सहारा नहीं लिया है। यह औपनिवेशिक सत्ता का कमाल है कि उत्तर में भी वही मॉडल प्रचलित कर दिया गया। इसलिए पुरुषोत्तम अग्रवाल सचेत करते हैं कि ''ब्राह्मणवाद और उपनिवेशवाद की जुगलबंदी को समझे बिना, औपनिवेसिक ज्ञानकाण्ड की विरासत से संघर्ष किए बिना, ब्राह्मणवाद का विरोध करने के दावे निराधार हैं।’’(131) यह हम व्यवहार में देखते भी हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल की मूल चिढ़ इस बात से है कि जाति के बनने या बदलाव की, ''इस सारी प्रक्रिया की उपेक्षा करती, औपनिवेशिक आधुनिकता वर्णाश्रम को ही भारतीय समाज-व्यवस्था का सैद्धांतिक आधार बताते हुए, उसमें नस्लवादी की मिलावट भी कर रही थी।’’ (136) आश्चर्य तब और होता है जब बाबा साहब भीमराव अंबेकर इस नस्लीय थ्योरी को एकदम नहीं मानते मगर उनके नाम पर राजनीति करने वाले ऐसा मानते हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल जब कबीर के बहाने देशज आधुनिकता को उस युग में रुपायित करते हैं तो उनकी मूल द्वंद्व साफ दिखाई देता है। वे यह नहीं कहते कि जाति-व्यवस्था कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था थी। वे तो कहते ही हैं कि अगर ऐसा होता तो कबीर विरोध क्यों करते। ''लेकिन यह नस्लवादी व्यवस्था भी नहीं थी, जड़ता सारे समाज में नहीं, वर्णाश्रमवादी सोच में थी। इस जड़ता का उस गतिशीलता के साथ संघर्ष था, जो व्यापार के कारण समाज में उत्पन्न हुई थी। वर्णाश्रमवादी मिजाज कबीर से कुपित रहता था, तो दस्तकार और व्यापारी कबीर की अध्यात्मिकता में अपनी आकांक्षाएँ सुनने थे।’’ (137) देशज आधुनिकता को रूपायित कते हुए पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कबीर-रज्जब, दादू प्रभृति के साथ भक्ति के जिस लोकवृत्त को खड़ा किया है, वह समतापरक मूल्यों को स्थापित करने वाला है। उसमें संवाद है। किस तरह औपनिवेशिक ज्ञानकांड ने पूरी भक्ति के लोकवृत्त को अपनी व्याख्या से धूमिल किया है, उसकी मूल भूमिका को ओट में कर एक गलत नैरेटिव गढ़ा है। देशज आधुनिकता के स्वाभाविक विकास में वह किस तरह किन-किन स्तरों पर अवरोधक बना है, हमारी संवादी निर्मिति में किस तरह हस्तक्षेप कर वह पूरे नैरेटिव को अपने अनुकूल ढालता गया है - कबीर को लेकर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने बहुत ही विस्तृत और गहन विश्लेषण किया है। जाहिर है उसमें कबीर का काल, उनका काव्य, उनसे जुड़ी किंवदंतियाँ, उलटबाँसियाँ, उनका नारी-प्रसंग, उनकी धर्मेत्तर आध्यात्मिकता, रामानंद के साथ प्रसंग, उनका जीवन, उनकी रचनाओं का पाठालोचन और सबसे बढ़कर उनकी कविता - मुख कस्तूरी महमही। लेकिन इस सबके लिए एक स्वतंत्र आलेख अपेक्षित है। हम चाहकर भी उस मूल्यवान पक्ष को इसमें समेट नहीं सकते। बतौर एक हिन्दी पाठक अकथ कहानी प्रेम की हमारी भाषा की एक क्लासिक रचना है और मुझे गर्व है कि वह हमारे समय में हमारे समकालीन द्वारा लिखी गई है।

 

 

 

कर्मेन्दु शिशिर ने आलोचना में चार दशक उल्लेखनीय काम किया। मुस्लिम नवजागरण पर उनके दो खंड आये हैं। 'पहल’ के अंकों के जर्मनी पहुँचाने और पहल की अनुक्रमणिका तैयार करने में उनकी बड़ी भूमिका रही है। एक अंतराल के बाद वे एक सिरीज शुरु कर रहे हैं। पुरषोत्तम अग्रवाल के बड़े आलोचनात्मक हस्तक्षेप का विवेचन यहां है। अगली बार वे ओमप्रकाश वाल्मीकि के लेखन पर लिखेंगे।

 


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