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अक्टूबर - 2019

चन्द्रमा के अकेलेपन के साथ अँधेरे में

पंकज चतुर्वेदी

पहल विशेष/एक

आलेख

 

 

 ''कोई यह नहीं कहे कि मैं गाँधी का अनुयायी हूँ। मैं जानता हूँ कि मैं अपना कितना अपूर्ण अनुयायी हूँ।’’

-महात्मा गाँधी

 

हिंदी कविता के आईने में जब भी महात्मा गाँधी का अक्स पहचानने की चेष्टा करता हूँ, सबसे पहले मुझे छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत  की अप्रैल, 1936 में लिखी 'बापू के प्रति’  शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ याद आती हैं :

 

''सुख-भोग खोजने आते सब,

आये तुम करने सत्य खोज,

जग की मिट्टी के पुतले जन,

तुम आत्मा के, मन के मनोज!...

पशु-बल की कारा से जग को

दिखलाई आत्मा की विमुक्ति,

विद्वेष, घृणा से लडऩे को

सिखलाई दुर्जय प्रेम-युक्ति...

आए तुम मुक्त पुरुष, कहने-

मिथ्या जड़-बन्धन, सत्य राम,

नानृतं जयति सत्यं, मा भै:

जय ज्ञान-ज्योति, तुमको प्रणाम!’’

जिन प्रमुख मानवीय मूल्यों को गाँधी ने अपने चिंतन और आचरण से सर्वोत्तम ढंग से चरितार्थ किया, उनकी सारगर्भित अभिव्यक्ति यहाँ मिलती है। वे हैं : सादगी, सत्यनिष्ठा, सेवा-परायणता, स्वतंत्रता, साहस, अहिंसा और करुणा। सादगी की आधारशिला आत्म-संयम एवं अपरिग्रह है और सत्यनिष्ठा की बुनियाद औपनिषदिक काल से चला आ रहा भारतीय मनुष्य का चिरंतन विश्वास कि अंतत: सत्य ही जीतता है, झूठ नहीं : 'सत्यमेव जयति नानृतम्’ । सेवा का मक़सद साधारण जन-समाज की पीड़ा का निराकरण है और स्वतंत्रता का लक्ष्य संपूर्ण स्वराज है एवं उसका साधन स्वदेशी। बेलाग आलोचना के साहस और सतत संघर्ष के बग़ैर न साम्राज्यवाद की बेडिय़ों से मुक्ति पायी जा सकती है, न अपने देश की सामाजिक रूढिय़ों से। मनुष्यमात्र की एकता की शिनाख़्त की बदौलत गाँधी अन्यायी सत्ता-प्रतिष्ठान और उससे लगी-लिपटी शक्ति-संरचनाओं के संहार नहीं, बल्कि हृदय-परिवर्तन के ज़रिए व्यवस्था के नवनिर्माण का स्वप्न प्रस्तावित करते हैं। वह अपनी आत्मा की संचित करुणा के जल में जनसाधारण का प्रतिबिम्ब देखते हैं। इसलिए राज्य को तब तक सफल नहीं मानते, जब तक कि वह अपने सबसे ग़रीब और कमज़ोर नागरिक की आँख के आँसू न पोंछ सके। 

मनुष्यता के आरम्भ से ही यह एक स्थापित मान्यता है कि कविता का जन्म पीड़ा से होता है। चाहे वह अन्याय के प्रति क्षोभ हो या निजी जीवन में अपमान का दंश। ग़मे-इश्क़ हो या ग़मे-रोज़गार। दिलचस्प है कि रघुवीर सहाय ने महात्मा गाँधी के प्रसंग में हमारा ध्यान इस दुर्लभ सचाई की ओर आकृष्ट किया है कि 'एक नये संसार की रचना में समर्थ’  उदात्त राजनीति भी पीड़ा से गुज़रकर ही संभव है। उनके शब्दों में : ''गाँधी ऐसी ही राजनीति करनेवालों में एक थे। दक्षिण अफ्ऱीका में रंगभेद की उनकी लड़ाई एक व्यक्तिगत लड़ाई नहीं थी, यह सब जानते हैं; हालाँकि उन्होंने पीड़ा को वैसे ही झेला था, जैसे एक कवि ने झेला होता। पर उन्होंने उसका व्यापक अनुभव किया...।’’  वह इंग्लैंड में ऊँची शिक्षा अर्जित कर बैरिस्टर बने थे, सूट-हैट-टाई पहनते थे, फ्रेंच और लैटिन भाषाएँ, वायलिन-वादन, नृत्य और भाषण-कला वग़ैरह सीख चुके थे; यानी वह सब कुछ उनके पास था, जो उस समय और परिवेश में 'आधुनिक सभ्य पुरुष’  बनने के लिए चाहिए था। फिर भी गोरी 'सभ्यता’  ने उन्हें स्वीकार नहीं किया, क्योंकि वह काले थे और एक गुलाम देश से आते थे। कोई अचरज नहीं कि ऐसी प्रताडऩा के तमाम अनुभवों के कारण एक नैतिक आक्रोश से आप्लावित गाँधी 1909 में 'हिन्द स्वराज’  में आधुनिक सभ्यता को 'अधर्म की सभ्यता’  या 'शैतानी सभ्यता’ की संज्ञा देते हैं और ब्रितानी संसद को 'बाँझ’  कहते हैं। भारत आकर जब वह अवाम के जीवन-दुख से रूबरू होते हैं, तो उसकी विपन्नता और बेचारगी उनसे सही नहीं जाती और वह अपनी समस्त भौतिक सत्ता, ऐश्वर्य, सुख और सुविधाएँ तजकर- साम्यवादी मुहावरे में कहा जा सकता हो, तो वर्गमुक्त होकर सर्वहारा बन जाते हैं। अपने भीतर के कवि एवं रचनाकार की बदौलत गाँधी ने वास्तविक भारतमाता के आभ्यंतरिक सत्य को पहचाना था, जो मुख्य रूप से ग्रामवासिनी है, जिसके जीवन में अभाव और आँसू हैं और जो पराधीन होने के कारण 'अपने ही घर में प्रवासिनी’  होने को अभिशप्त है।

 

''भारत माता

ग्रामवासिनी।

खेतों में फैला है श्यामल

धूल-भरा मैला-सा आँचल,

गंगा-यमुना में आँसू जल,

मिट्टी की प्रतिमा

उदासिनी।’’

 

लाज़िम है कि कविता, साहित्य और कलाओं से गाँधी का बहुत सहज, नैसर्गिक और गहन संवाद था। उन्होंने भक्ति-काव्य के विशद नैतिक, सांस्कृतिक और कलात्मक कैनवस पर अपने राजनीतिक दर्शन का निर्माण किया। शायद इसलिए भी कि भक्ति-काव्य कविता का स्वर्ण-युग था और आज भी जनमानस को सुंदर, सुसंस्कृत और समुन्नत बनाने के प्रयोजन से वह सर्वाधिक लोकप्रिय और अद्वितीय है। गाँधी मीराँ को आदि-सत्याग्रही मानते थे। यहाँ तक कि लीक से अलग हटकर उन्होंने लिखा कि विभीषण ने देशद्रोह नहीं, बल्कि अपने भाई के साथ सत्याग्रह किया था। प्रसंगवश सच्ची देशभक्ति को परिभाषित करते हुए वह कहते हैं : ''विभीषण का दृष्टांत हमें यह सिखाता है कि अपने देश या अपने शासन के दोषों के प्रति सहानुभूति रखना या उन्हें छिपाना देशभक्ति के नाम को लजाना है, इसके विपरीत देश के दोषों का विरोध करना सच्ची देशभक्ति है।’’  बेशक मैनेजर पाण्डेय का यह अभिमत मूल्यवान् है कि 'आज भारत ही नहीं, सारी दुनिया में राष्ट्रवाद का उन्माद हर तरह की आलोचनात्मक चेतना को कुचलना चाहता है’- इस हक़ीक़त के मद्देनज़र 1929 में गाँधी में ''अनभै साँच कहने का कबीर जैसा असाधारण साहस था।’’ कबीर की ही तरह उन्होंने चरखे को पवित्र और उपयोगी समझा। वह सत्याग्रह की प्रेरणा मीराँ से, चरखे का प्रयोग कबीर से, रामराज्य का स्वप्न तुलसीदास से और परायी पीर जानने एवं उसके समाधान के लिए निरभिमान ढंग से आत्मोत्सर्ग करने का महान् आदर्श नरसी मेहता से हासिल करते हैं।

गाँधी ने कहा कि 'अधभूखी जनता न कोई धर्म रख सकती है, न कला, न संगठन।’ वह उसी सौंदर्य की अंतरंग सराहना कर सकती है, जो ज़िंदगी में उसके काम आये, यानी उसके लिए उपयोगी हो। ग्राम-स्वराज, यानी गाँवों की आत्मनिर्भरता और प्रगति को गाँधी ने अपनी प्राथमिकता इसलिए बनाया कि यह उनके लिए केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, कलात्मक और सौंदर्यात्मक कार्यक्रम भी था। उनकी सौन्दर्य-दृष्टि इससे गहन और अविभाज्य तौर पर जुड़ी थी। 'शान्तिनिकेतन’ में शिल्प-कला के आचार्य और विख्यात चित्रकार नन्दलाल बसु पहलेपहल उनसे मिलने सेवाग्राम के आश्रम में गये, तो उनकी कुटिया की अनलंकृत ग्रामीण सादगी, निर्मलता और शान्ति से बहुत प्रभावित हुए। मगर जिस चीज़ ने उनका ध्यान सबसे अधिक आकृष्ट किया, वह 'चमचमाता हुआ 'फूल’ का गुजराती लोटा था, जिस पर पीपल के पत्ते की आकृति का लोहे का ढक्कन था।’  गाँधी उनके मनोभाव को समझ गये और बोले : ''देखो, सुन्दर है न! इस पर प्रकृति की छाप है और साथ ही इसे गाँव के एक लोहार ने मुझे गढ़कर दिया है।’’ यानी कला तभी आत्म-साक्षात्कार में मददगार और सुन्दर हो सकती है, जबकि उसने प्रकृति की सहजता, सचाई और नैसर्गिकता को आत्मसात् किया हो।   

उनका बयान है : ''मैं ऐसी कला और साहित्य चाहता हूँ, जो करोड़ों जनता से बोल सके।’’ आश्चर्य नहीं कि 1995 में प्रकाशित केदारनाथ सिंह  के कविता-संग्रह 'उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ’ की 'भिखारी ठाकुर’ शीर्षक कविता में गाँधी आते हैं। भिखारी ठाकुर भोजपुरी समाज के एक बड़े लोक-कवि एवं लोक-कलाकार थे। उनका रचा हुआ 'नाच’ या गीतनाटिका 'बिदेसिया’ बेहद लोकप्रिय हुई। वह बीसवीं सदी के तीसरे और छठवें दशक के बीच रचनारत और सक्रिय रहे। यही कमोबेश भारत में गाँधी के राजनीतिक जागरण और आंदोलन का भी समय है। उन्होंने स्वाधीनता संग्राम की शुरूआत बिहार में चम्पारन से की थी, जहाँ अंग्रेज़ों ने निरीह किसानों को नील की खेती के लिए विवश करके अकल्पनीय भयावहता से उनका शोषण और दमन किया था। बाद में चम्पारन के संघर्ष को उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर फैला दिया। केदारनाथ सिंह की पंक्तियां देखें:-

 

''और महात्मा गाँधी आकर

लौट गये थे चम्पारन से

और चौरीचौरा की आँच पर

खेतों में पकने लगी थीं

जौ-गेहूँ की बालियाँ

 

पर क्या आप विश्वास करेंगे

एक रात जब किसी खलिहान में चल रहा था

भिखारी ठाकुर का नाच

तो दर्शकों की पाँत में

एक शख्स ऐसा भी बैठा था

जिसकी शक्ल बेहद मिलती थी

महात्मा गाँधी से’’

 

इस कविता की सफलता की एक वजह यह है कि कवि लोक से गाँधी के वाह्यांतर व्यक्तित्व की अभिन्नता का सच पहचानने में सक्षम है। साधारण जन से वह इस क़दर एकात्म थे कि दोनों को एक-दूसरे से अलगाना भी एक िकस्म का अन्याय है। मिसाल है 1945, यानी गाँधी के जीवन-काल में प्रकाशित त्रिलोचन के कविता-संग्रह 'धरती’ की एक कविता 'चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती’  में उनका ज़िक्र। चंपा एक ग्वाले की लड़की है, जो चरवाही करती है, कवि की पढ़ाई-लिखाई के काम से चकित रहती और उससे पूछती है। ''तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर/क्या यह काम बहुत अच्छा है?’’ कवि उसे प्रेरित करता है कि वह भी पढ़-लिख ले, कठिन समय में पढ़ाई काम आयेगी : ''गाँधी बाबा की इच्छा है- सब जन पढऩा लिखना सीखें !’’  चंपा को यह काम मुश्किल लगता है, इसलिए चिढ़कर, गाँधी की अच्छाई पर ज़रा शक जताते हुए सवाल करती है : ''तुम तो कहते थे गाँधी बाबा अच्छे हैं / वे पढऩे लिखने की कैसे बात कहेंगे?’’ तब कवि एक दूसरे उपाय से उसे समझाता है कि भविष्य में जब तुम्हारा ब्याह होगा, कुछ दिन संग-साथ रहकर तुम्हारा पति कमाने-धमाने कलकत्ते चला जायेगा, तो कैसे उसे संदेश भेजोगी, ''कैसे उसके पत्र पढ़ोगी?’’  कविता का सौंदर्य इस बात में है कि अवाम को दी गयी पढऩे-लिखने की गाँधी जी की सलाह से असहमति के बावजूद आख़िरकार चंपा जो जवाब देती है, उसमें आधुनिक महानगरीय सभ्यता को लेकर उनके नज़रिये का ही इज़हार है :

 

''मैं तो ब्याह कभी न करूँगी

और कहीं जो ब्याह हो गया

तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूँगी

कलकत्ता मैं कभी न जाने दूँगी

कलकत्ते पर बजर गिरे।’

 

गाँधी यह मानते थे कि आधुनिक औद्योगिक सभ्यता मनुष्य जाति के लिए अंतत: विनाशकारी साबित होगी। उन्हें भय था कि स्वाधीन भारत में महानगरों की तरक्क़ी गाँवों की क़ीमत पर होगी, केंद्रीय सत्ता उनकी उपेक्षा और दमन करेगी और रोज़गार की तलाश में ग्रामीण जन विस्थापित होकर नितांत ग़ैर-मानवीय शर्तों पर शहरों में मज़दूरी करने के लिए विवश होंगे। इसलिए दूसरा विश्व युद्ध ख़त्म होने पर, विदेशी शासन के अंत और स्वराज की आहट नज़दीक आते ही 5 अक्टूबर, 1945 को उन्होंने अपने घोषित राजनीतिक वारिस और भारत के भावी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को आज़ाद भारत के नवनिर्माण की बाबत एक ख़त लिखा, जिसमें बदले हुए संदर्भों में कुछ संशोधन के साथ 1909 के 'हिन्द स्वराज’ के अपने आदर्श की याद दिलायी : ''मैं यह मानता हूँ कि अगर हिन्दुस्तान को सच्ची आज़ादी पानी है और हिन्दुस्तान के मार्फत दुनिया को भी, तब आज नहीं तो कल देहातों में ही रहना होगा- झोंपडिय़ों में, महलों में नहीं। कई अबज आदमी शहरों में और महलों में सुख से और शान्ति से कभी नहीं रह सकते, न एक-दूसरे का ख़ून करके, मायने हिंसा से, न झूठ से- यानी असत्य से। सिवाय इस जोड़ी के (यानी सत्य और अहिंसा) मनुष्य जाति का नाश ही है, उसमें ज़रा-सा भी शक नहीं है। उस सत्य और अहिंसा का दर्शन हम देहातों की सादगी में ही कर सकते हैं। यह सादगी चर्खा में और चर्खा में जो चीज़ भरी है, उसी पर निर्भर है। मुझे कोई डर नहीं है कि दुनिया उलटी ओर जा रही दिखती है। यों तो पतंगा जब अपने नाश की ओर जाता है, तब सबसे ज़्यादा चक्कर खाता है और चक्कर खाते-खाते जल जाता है।... मेरे कहने का निचोड़ यह है कि मनुष्य जीवन के लिए जितनी ज़रूरत की चीज़ है, उस पर निजी $काबू होना चाहिए- अगर न रहे, तो व्यक्ति बच ही नहीं सकता है। ...अगर ऐसा समझोगे कि मैं आज के देहातों की बात करता हूँ, तो मेरी बात नहीं समझोगे! मेरा देहात आज मेरी कल्पना में ही है।... इस काल्पनिक देहात में देहाती जड़ नहीं होगा- शुद्ध चैतन्य होगा। वह गंदगी में, अँधेरे में जानवर की तरह की ज़िंदगी बसर नहीं करेगा। मर्द और औरत दोनों आज़ादी से रहेंगे और सारे जगत् के साथ मु$काबला करने को तैयार रहेंगे। वहाँ न हैजा होगा, न मरकी होगी, न चेचक होंगे। कोई आलस्य में नहीं रह सकता है, न कोई ऐश-आराम में रहेगा। सबको शारीरिक मेहनत करनी होगी।... मैंने कहा है कि मेरे वारिस तुम हो! कम-से-कम उस वारिस को मैं समझ लूँ और मैं क्या हूँ, वह भी वारिस समझ ले, तो अच्छा ही है और मुझे चैन रहेगा।’’

ज़ाहिर है कि गाँधी सत्ता के संपूर्ण विकेन्द्रीकरण के ज़रिए सामाजिक समता लाना चाहते थे और गाँवों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाकर सच्चे ग्राम स्वराज का सपना उन्होंने देखा था। इसलिए देश के आज़ाद हो जाने पर 14 जनवरी, 1948 को उन्होंने यह बयान भी दिया : ''मैं तो कहूँगा कि सात लाख गाँव हैं, तो सात लाख हक़ूमतें बनीं, ऐसा मानो...।’’  प्रसंगवश, गौरतलब है कि इसके लगभग सत्रह साल पहले 22 सितम्बर, 1931 की शाम लंदन में उनसे अपनी मुला$कात की बाबत महान् फ़िल्मकार चार्ली चैप्लिन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है : ''महात्मा गाँधी ने मुझे यह भी बताया कि सर्वोच्च स्वंतत्रता वह होती है कि आप अपने आपको अनावश्यक वस्तुओं से मुक्त कर डालें और कि हिंसा अंतत: स्वयं को ही नष्ट कर देती है।’’  क्या यह महज़ इत्तिफ़ाक़ है कि गाँधी के जीवन-दर्शन से मिलती-जुलती बात चैपलिन भी कहते हैं : ''सत्ता की ज़रूरत तब पड़ती है, जब तुम कुछ नुक़सानदेह करना चाहते हो! अन्यथा सब कुछ के लिए प्यार काफ़ी है।’’  बहरहाल, 1931 की इस भेंट से विचारवान् चार्ली ने क्या प्रेरणा हासिल की, यह 1936 में पता चला, जब वह अपनी फ़िल्म 'मॉडर्न टाइम्स’  लेकर पेश हुए।

चार ही दिन बाद 9 अक्टूबर, 1945 को नेहरू हिन्दुस्तानी में लिखे गये गाँधी के पत्र का जवाब अंग्रेज़ी में लिखकर भेजते हैं, मगर ऐसा कि उसे पढ़कर हैरान और अवाक् रह जाना पड़ता है : ''मैं नहीं समझ पाता कि क्यों गाँव अनिवार्यत: सत्य और अहिंसा की मूर्ति ही हो। गाँव आम तौर पर बौद्धिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़ा होता है और पिछले वातावरण में प्रगति नहीं की जा सकती। संकीर्ण मानस वाले लोगों के झूठे और हिंसक होने की संभावना ज़्यादा है।... मैंने बहुत साल पहले ''हिन्द स्वराज’’ पढ़ा था और अब उसकी सिर्फ एक धुँधली तस्वीर मेरे दिमाग़ में है, लेकिन जब मैंने इसे बीस साल पहले पढ़ा था, तब भी यह पुस्तक मुझे बिलकुल अवास्तविक लगी थी।... मुझे तो ताज्जुब हुआ, जब आपने हमें बताया कि आपके दिमाग़ में अभी तक वही तस्वीर बरक़रार है। जैसा कि आप जानते हैं, उसको अपनाना तो दूर, कांग्रेस ने उस तस्वीर पर कभी विचार तक नहीं किया है।... मुझे यह भी लगता है कि यातायात के आधुनिक साधनों और दूसरी आधुनिक सुविधाओं को अनिवार्य रूप से बनाये रखना और विकसित करना चाहिए। उनको अपनाये बग़ैर कोई रास्ता नहीं है। अगर ऐसा है, तो कुछ मात्रा में भारी उद्योग रहेगा ही। उसका कहाँ तक एक विशुद्ध ग्रामीण समाज से मेल बैठेगा? मैं स्वयं आशा करता हूँ कि भारी या हलके उद्योगों का विकेन्द्रीकरण हो और बिजली की शक्ति के विकास से अब ऐसा हो भी सकता है। अगर देश में दो प्रकार की अर्थव्यवस्थाएँ रहीं, तो या तो उनके बीच संघर्ष होगा या उनमें-से एक दूसरी को खा जायेगी।’’

इस पत्रोत्तर की रौशनी में कहने की ज़रूरत नहीं कि आपसी प्यार और श्रद्धा के बावजूद दोनों राष्ट्र-निर्माताओं के संसार, विचार और व्यवहार में काफ़ी फ़ासिला, यहाँ तक कि अंतर्विरोध की हालत थी। सुखद है कि हिंदी कविता ने इस विडम्बना को उजागर करने में चूक नहीं की। 1980 में लिखी एक प्यारी-सी, मार्मिक कविता 'अब बात हुई प्राचीन’  में बचपन के दिनों को याद करते हुए कवि वीरेन डंगवाल  लिखते हैं :

 

''यह भी कहते लोग कि यद्यपि हैं नेहरू जी

गाँधी के शागिर्द स्वदेशी के हिमायती

लेकिन आला ख़ानदान में रख-रखाव में

उनका जलवा अंग्रेज़ों से भी बढ़कर है’’

 

इसका मतलब यह नहीं कि समकालीन भारतीय राजनीति में जो हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिक तत्त्व नेहरू की छवि को निरन्तर विकृत करने के अभियान में मुब्तला हैं, वे गाँधी के हिमायती हैं। बेशक वे गाँधी से भी उतनी ही नफ़रत करते हैं। गाँधी महात्मा और राष्ट्रपिता हैं और उनका क़द इतना बड़ा है कि सामान्यत: उनके विरोध की हिम्मत वे नहीं कर पाते। भले ही राजनीतिक विवशता और लिहाज़ में वे लोग गाँधी के प्रति सहिष्णु या उनके आंशिक प्रशंसक नज़र आते हों; सच यही है कि उनके अंतरतम में गोडसे की छवि विद्यमान है। हिंदू राष्ट्र की परियोजना अगर कामयाब हुई, तो सुदूर भविष्य में संसद में सावरकर की तरह गोडसे की भी तस्वीर लगा दी जाये, तो किसी को अचरज न करना चाहिए। नेहरू से गाँधी के मतभेद ज़रूर थे- ख़ास तौर पर ग्राम-स्वराज, भारी उद्योगों के विकास, आधुनिकतम टेक्नोलॉजी और अंग्रेज़ी के इस्तेमाल को लेकर- लेकिन तत्कालीन भारत में उनका सर्वोत्तम चयन वही थे। हिंदुत्ववादियों की नज़र में अल्पसंख्यकों की पक्षधरता के अलावा यह उनका सबसे बड़ा गुनाह था।

उन्हें बराबर लगता था कि नेहरू जहाँ भी हैं, देश का नेतृत्व करने के अपने ज़रूरी कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं। उनका यह बयान मशहूर है कि 'नेहरू हीरे के मानिंद सच्चे हैं और उनकी निष्ठा असंदिग्ध है।’ सच तो यह है कि उन्हें अपने इस चुनाव पर बहुत गर्व था। शायद नोआखाली से ही नेहरू को लिखे गये उनके आख़िरी ख़त का आख़िरी वाक्य यह था-'हिंद के जवाहिर बने रहो!’ गाँधी के अपने ख़ास देशज और बेहद आत्मीय अंदाज़ में जवाहर नहीं, जवाहिर! बाद में गाँधी की विडम्बनापूर्ण हत्या हो जाने पर रेडियो पर नेहरू ने अपने डबडबाये हुए स्वर में राष्ट्र के नाम जो संदेश दिया, उसका पहला ही वाक्य महज़ चार शब्दों का एक अत्यन्त मार्मिक शोकगीत है : '' The light is gone.’’ -  'आलोक चला गया!’ वे महान व्यक्तित्व थे। वह इतिहास का महान दौर था। हम अभागे हैं कि ऐसे लोगों के मुकाबिल हैं, जो हर तरह के आलोक को बुझा देने के लिए कटिबद्ध हैं।

नेहरू ने अपनी वसीयत में लिखा था कि उनकी चिता की राख का कुछ हिस्सा हिमालय पर, कुछ गंगा नदी में और कुछ हिंदुस्तान के खेतों में डाल दिया जाये, जहाँ किसान खेती करते हैं। सरकार ने विधिवत् उनकी अंतिम इच्छा पूरी की। लेकिन कांग्रेसियों की स्वार्थी, भ्रष्ट और हृदयहीन जमात के मद्देनज़र- जिसका निराकरण शायद नेहरू भी नहीं कर सके थे- यह अनुष्ठान बहुत सारहीन और विडम्बनापूर्ण जान पड़ता था। इसलिए नागार्जुन ने 2 जून, 1964 को लिखी गयी 'तुमने कहा था’ शीर्षक कविता में इस पर ज़रूरी और ज़बरदस्त व्यंग्य किया ।

 

''लेकिन, अब इस वक़्त

एक बात उठ रही है मन के अंदर

किससे कहूँ ?

देगा जवाब कौन?..

राखवाली ज़मीन में

निश्चित ही उपजेंगे प्रचुर अन्न...

लेकिन, टिड्डों का हमला रुकेगा कैसे?

राखवाली नदी का जल

निश्चित ही अधिक निर्मल होगा...

लेकिन, मगर कहाँ जायेंगे?’’

 

यह अकारण नहीं कि 1962 में प्रकाशित मुक्तिबोध  की 'अँधेरे में’  शीर्षक क्लासिक कविता की $फैंटेसी में महात्मा गाँधी बहुत जीर्ण-शीर्ण, असहाय, अशक्त और म्रियमाण अवस्था में नज़र आते हैं। सर्दी में काँपते और ठिठुरने से बचने के लिए बोरा ओढ़े हुए। चुपचाप अपने देश का जायज़ा लेते हुए, जिसे उन्होंने करोड़ों भारतवासियों के सहयोग से आज़ाद कराया था। ब$कौल मुक्तिबोध,  आज़ादी मिलने के महज़ दस-पन्द्रह साल के वक्$फे में ही वह 'देव अँधेरे की स्याही में डूबा हुआ है’।  हालाँकि वह दो अनमोल बातें कहते हैं : पहली, 'दुनिया कचरे का ढेर नहीं, जिस पर दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी मुर्गा ज़ोरदार बाँग दे उठे, तो मसीहा बन जाये’  और दूसरी, ''मिट्टी के लोंदे में किरणीले कण-कण / गुण हैं / जनता के गुणों से ही संभव / भावी का उद्भव।’   मगर उन्हें लेकर कवि का जो निजी उद्गार है, उसमें हमारे राष्ट्र और राष्ट्रपिता के बीच सम्बन्ध की ट्रेजेडी झलक जाती है : ''ध्यान से देखता हूँ--वह कोई परिचित, / जिसे ख़ूब देखा था, निरखा था कई बार / पर, पाया नहीं था।’’  फिर क्या तअज्जुब कि अपनी भयावह उपेक्षा से व्यथित गाँधी कवि से कहते हैं : ''भाग जा, हट जा / हम हैं गुज़र गये ज़माने के चेहरे / आगे तू बढ़ जा।’’  उनकी बाँह में एक बच्चा शांत सोया हुआ है और आख़िर में उसे कवि को सौंपते हुए उस  'द्युति-पुरुष’  ने मुस्कराकर कहा : ''सँभालना इसको, सुरक्षित रखना’’।  मुक्तिबोध के समय से कहीं अधिक आज यह जलता हुआ सवाल है कि क्या हम अपनी आज़ादी को सुरक्षित रख पा रहे हैं? इसलिए गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है कि इसी कविता में गाँधी के आगमन से पहले रात के अँधेरे में एक पागल जो 'आत्मोद्बोधमय गान’  गाता है, उसमें ये पंक्तियाँ- ''लोकहित-पिता को घर से निकाल दिया / जन-मन-करुणा-सी माँ को हकाल दिया’’ -क्या कवि ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और उनके हृदय की असीम करुणा को ही लक्ष्य करके नहीं लिखी थीं? आख़िर ये लोकहित-पिता गाँधी नहीं तो, और कौन हैं, जिन्हें 1975 में इमरजेंसी लागू करते वक़्त इंदिरा गाँधी ने अपने स्मृति-पटल से ही पोंछ दिया। तब जनकवि नागार्जुन ने इस विपर्यय पर बेधक प्रश्न किया था :

 

''इन्दु जी, क्या हुआ आपको?............

....................................................

बचपन में गाँधी के पास रहीं

तरुणाई में टैगोर के पास रहीं

अब क्यों उलट दिया 'संगत’ की छाप को?’’

 

गौरतलब है कि बीसवीं सदी के पाँचवें से लेकर सातवें दशक तक नागार्जुन ने गाँधी पर एकाग्र कई मूल्यवान् और मार्मिक कविताएँ लिखीं। उनकी हत्या से वह इतने विचलित हुए कि उन्होंने उसके लिए ज़िम्मेदार सम्प्रदायवादी और फ़ासिस्ट तत्त्वों की शिनाख़्त करती, उन्हें 'हिटलर के पुत्र-पौत्र’ की संज्ञा देती हुई 'तर्पण’ और 'शपथ’ सरीखी अहम कविताओं की रचना की। इसके अलावा 'गाँधी’ शीर्षक कविता में वह उन्हें हमारे 'दुखी देश का फ़क़ीर’ कहते हैं और 'बापू महान’ में 'ग्रामात्मा’ एवं 'ग्राम-प्राण’ के साथ-साथ 'कठिन साधना का प्रतीक’  बताते हैं।

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में गाँधी के व्यक्तित्व, अवदान और स्मृति पर केन्द्रित जितनी कविताएँ लिखी गयी हैं, उतनी शायद ही किसी और महापुरुष पर लिखी गयी होंगी। उनकी संख्या हज़ार से भी ज़्यादा होगी। सुमित्रानन्दन पंत, निराला, अकबर इलाहाबादी, मैथिलीशरण गुप्त, सुब्रह्मण्य भारती, माखनलाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, मुकुटधर पाण्डेय, सुभद्रा कुमारी चौहान, रामधारी सिंह 'दिनकर’, सियारामशरण गुप्त, सोहनलाल द्विवेदी, हरिभाऊ उपाध्याय, हरिवंशराय बच्चन, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध, नरेन्द्र शर्मा, रघुवीर सहाय, भवानीप्रसाद मिश्र, केदारनाथ सिंह, 'सीमाब’ अकबराबादी, वसन्त दत्तात्रेय गुर्जर, के. सच्चिदानन्दन, वीरेन डंगवाल, अरुण कमल, अदम गोंडवी, बोधिसत्त्व सरीखे प्रमुख कवियों ने उन पर लिखा है। गाँधी के अपरिमित यश का स्तवन करती हुई सोहनलाल द्विवेदी की ये काव्य-पंक्तियाँ स्वाधीनता आंदोलन और उसके बाद के ज़माने में भी कई दशकों तक बच्चे-बच्चे की ज़बान पर रहती थीं : ''चल पड़े जिधर दो डग मग में / चल पड़े कोटि पग उसी ओर’’ एवं ''युग-निर्माता, युग-मूर्ति ! तुम्हें / युग-युग तक युग का नमस्कार !’’

गाँधी के इस प्रभामंडल से कवियों ने ही रौशनी हासिल नहीं की; बल्कि शीर्ष वैज्ञानिक आइन्स्टाइन, विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर, महान फ़िल्मकार चार्ली चैप्लिन, अश्वेत आंदोलनकारी मार्टिन लूथर किंग, कम्युनिस्ट क्रांतिकारी हो ची मिन्ह और रंगभेद एवं साम्राज्यवाद-विरोधी नेता नेल्सन मंडेला सरीखे व्यक्तित्व उनसे निरन्तर बहुत गहरे प्रभावित रहे। यों पारम्परिक शब्दावली में कहें, तो उन्होंने अपने औदात्य को 'लोक और वेद’, दोनों कसौटियों पर सत्यापित किया।

प्रसंगवश, विचारणीय है कि वह सबसे बड़ी बात क्या है, जो गाँधी को इस क़दर अद्वितीय और असाधारण बनाती, मोहनदास करमचंद को महात्मा में बदल देती है? वह उनकी एक अटल प्रतिज्ञा है कि जो शब्द मैं कहूँगा, ज़िंदगी में उनका पालन भी करूँगा। एक साधारण-सी जान पडऩेवाली बात है, मगर सचाई अक्षुण्ण रखे जाने पर वही असाधारण हो जाती है और तब उस शिखर पर पहुँचकर मानव-जाति को अलग से कोई नसीहत देने की ज़रूरत नहीं रह जाती। गाँधी कहते हैं : ''मेरा संदेश मेरा जीवन है।’’ इसीलिए गाँधी-युग को विजयदेवनारायण साही के द्वारा 'सत्याग्रह युग’ की संज्ञा दिया जाना बेहद सार्थक है। किसी भी क्षेत्र की अभिव्यक्तियाँ अगर निष्प्रभ होती हैं, तो उसकी बुनियादी वजह है कि उनमें जिये गये जीवन का सत्त्व नहीं होता। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस ख़ालीपन की ओर ध्यान आकृष्ट किया था कि 'हमारे पन्द्रह आने साहित्य में मन की बात नहीं है।’ कैसी विडम्बना है कि जिन्हें हम राष्ट्रपिता कहते हैं, उनके कहे और लिखे हुए शब्दों की दुहाई बहुत दी जाती है; मगर उनके मार्ग पर चलने के लिए ज़्यादातर लोग तैयार नहीं हैं, राजनेता तो ख़ास तौर पर नहीं। क्या यह याद दिलाने की ज़रूरत है कि गाँधी का रास्ता राजधानियों से होकर नहीं जाता था?

गाँधी ने विदेशी हुकूमत की अर्थव्यवस्था विफल करने और अवाम को आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर बनाने के संयुक्त प्रयोजन से स्वदेशी का नारा दिया और विलायती वस्तुओं के बहिष्कार का अभियान चलाया। इसलिए कहा कि हर व्यक्ति को उतना ही उपभोग करने का अधिकार है, जितनी कि वह मेहनत करता हो। उनका चिंतन और व्यवहार इस मानी में क्रांतिकारी था कि उससे वे वर्ण-व्यवस्था के आदी समाज की स्थापित मान्यताओं और प्रथाओं को उलटकर एक बिलकुल नयी संस्कृति का निर्माण और उससे नि:सृत एक सर्वथा आधुनिक सौन्दर्य-बोध का विकास कर रहे थे। अपना शौचालय स्वयं साफ़ करना होगा और उसे किसी मंदिर जितना ही स्वच्छ और पवित्र रखना है- विषमताजन्य रूढिय़ों पर गर्व करनेवाले एक धर्मप्रधान समाज के लिए यह चीज़ों को रोज़मर्रा की ज़िंदगी में उतारने, देखने-समझने और सराहने का अप्रत्याशित रूप से अभिनव नज़रिया था। अपने खाने भर का अनाज पीसने के लिए ख़ुद चक्की चलाने और पहनने जितना कपड़ा तैयार करने के लिए चरखे पर सूत कातने के काम उन्होंने शुरू किये और करवाये। 1921 में जब रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस बाबत उनसे कोई बहस की, तो उन्होंने अभिजात लोगों को किसी िकस्म की रिआयत के अनुमान को ख़ारिज करते हुए यह वक्तव्य दिया : ''चरखा सबको चलाना होगा। रवीन्द्रनाथ स्वयं चलावें!’’

भवानीप्रसाद मिश्र की कविता 'तुम काग़ज़ पर लिखते हो’ गवाह है कि गाँधी जी और उनके आश्रमवासी, सभी नियमत: और प्रसन्नता से जुलाहों की तरह कपास धुनने, सूत कातने, कपड़ा बुनने, अनाज के कंकर चुनने, चक्की पीसने, किताबों की जिल्दसाज़ी करने और मेहतरों के मानिंद सफ़ाई करने के कामों में प्रवीण और व्यस्त रहते थे : ''गाँधी जी के लेखे पूजा के समान था श्रम।’’ सांसारिक तौर पर सफल, सम्पन्न और सुविधाभोगी मध्यवर्गीय लोग- जिनमें गाँधी-मार्ग पर चलने का 'अविचारित’ उत्साह होता था- कभी-कभी उनसे मिलने आ जाते थे। एक बार एक वकील साहब आये, तो गाँधी उस वक़्त चक्की पीस रहे थे। जब उन्होंने मिलकर यही काम करने के लिए उन्हें आमंत्रित किया, तो वह अभिजन-सुलभ संकोच में पड़ गये। उनके इस असमंजस पर गाँधी जी को बहुत हँसी आयी, लेकिन वकील साहब इस सेवा-कार्य की अहमियत समझ नहीं पाये :

 

''बापू जी ने कहा- बैठिए, पीसेंगे मिलकर

जब वे झिझके

गाँधी जी ने कहा और खिलकर

सेवा का हर काम

हमारा ईश्वर है भाई

बैठ गये वे दबसट में

पर अक्ल नहीं आयी’’

 

वर्णाश्रमधर्म से गाँधी की सहमति बेशक आलोच्य है, मगर जो बुद्धिजीवी सि$र्फ उसको निगाह में रखते हैं, वे जाने-अनजाने उस पूरी परिस्थिति को नज़रअंदाज़ करते हैं, जिसमें रहकर गाँधी को काम करना पड़ा था। स्थापना के अगले ही बरस उन्होंने एक मेहतर परिवार को साबरमती तट पर स्थित सत्याग्रह-आश्रम का सदस्य बनाया था। नतीजा यह हुआ कि अहमदाबाद के सेठों ने समवेत रूप से आश्रम के संचालन के लिए एक साल तक कोई चंदा नहीं दिया। लेकिन गाँधी पीछे नहीं हटे। बाद में एक सेठ ने पहल की और इस गतिरोध का समाधान हुआ। गाँधी के विचारों और जीवन-कर्म की आभा और अनुगूँज उन कविताओं में भी दिखती और सुनायी पड़ती है, जो सीधे न तो उनसे मुख़ातब हैं, न ही उन पर लिखी गयी हैं। मसलन उनके समकालीन न होते, तो क्या मुक्तिबोध 'मैं तुम लोगों से दूर हूँ’  शीर्षक कविता में ये पंक्तियाँ लिख सकते थे :

 

''फिर भी मैं अपनी सार्थकता से खिन्न हूँ

विष से अप्रसन्न हूँ

इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए

पूरी दुनिया साफ़ करने के लिए मेहतर चाहिए

वह मेहतर मैं हो नहीं पाता

पर, रोज़ कोई भीतर चिल्लाता है

कि कोई काम बुरा नहीं

बशर्ते कि आदमी खरा हो

फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता।’’

 

मलयालम के मशहूर कवि के. सच्चिदानन्दन की रचना 'गाँधी और कविता’ में एक दुबली-सी कविता गाँधी के आश्रम में उनसे मिलने जा पहुँचती है। उस समय वह ''कात रहे थे सूत / राम की ओर।’’ चरखे और राम के प्रति अनुरक्ति की यह संहति ज़ेहन में सहसा कबीर के बिम्ब को साकार कर देती है। कबीर का-सा वैराग्य और एक तल्ख़ यथार्थ-चेतना गाँधी के व्यक्तित्व में भी थी। इसलिए वह ''नरक देख चुके अपने चश्मे की कनखी से’’ कविता को देखते और उससे पूछते हैं : ''क्या तुमने कभी सूत भी काता है? / कभी मैले से भरी हुई गाड़ी खींची है? / कभी सुबह रसोईघर के धुएँ के बीच रही हो? / कभी भूख से भी तड़पी हो?’’ कविता जवाब देती है कि वह जंगल में एक बहेलिये के मुँह में जनमी और एक मछुआरे ने अपनी झोंपड़ी में उसका पालन-पोषण किया है। उसे कोई काम नहीं आता, वह सिर्फ गाती है। पहले दरबारों में गाती थी, तब 'मांसल और सुंदर’ थी; लेकिन अब सड़क पर और अधपेट है। गाँधी उसकी संघर्षशीलता पर ख़ुशी ज़ाहिर करते हैं, मगर ये सुझाव देते हैं कि उसे 'संस्कृत में कहने की आदत छोडऩी होगी, खेतों में जाना होगा और किसानों की बातें सुननी होंगी।’ कविता अंत में एक बीज बनकर, खेतों में जाकर किसान का इंतिज़ार करने लगती है कि ''वह आये और /बारिश से नम ज़मीन को गोड़ दे।’’ कविता का नया जन्म और उस जन्म की मार्फत संसार को नया जीवन दे सकने की उसकी आकांक्षा तभी चरितार्थ हो सकती है, जब वह प्रभु-वर्ग द्वारा गढ़े गये अपने क्लासिक स्वरूप की सीमाओं का अतिक्रमण करे और नये ज़माने में अवाम के दुखों से मुख़ातब होकर, उनसे मुक्ति की उसकी जद्दोजेहद में हिस्सेदार होने की अपनी बदली हुई भूमिका को पहचाने और अंगीकार करे।

प्रसंगवश, उल्लेखनीय है कि गाँधी की सबसे बड़ी ख्वाहिश थी कि साहित्यकार किसानों और मज़दूरों के लिए सहज-सरल, मार्मिक और मूल्यवान् लेखन करें। उनके ही शब्दों में : ''मैं लेखकों से बाणभट्ट की 'कादम्बरी’ नहीं, तुलसी की रामायण माँगता हूँ।’’ प्राचीन काल में जैसे संस्कृत शासक वर्ग की भाषा थी, वैसे ही आधुनिक समय में अंग्रेज़ी। इसलिए गाँधी स्वाधीन भारत में उसके बजाए हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को तरजीह दिये जाने के पक्ष में थे। 15 अगस्त, 1947 को देश के आज़ाद होने के दिन बी.बी.सी. ने बार-बार उनका संदेश हासिल करने की कोशिश की और अपने संवाददाता के ज़रिए कहलाया कि उनके बयान का प्रसारण पूरी दुनिया में समस्त भाषाओं में किया जायेगा। मगर गाँधी अपने सचिव से महज़ इतना बोले : ''उनसे कह दो कि गाँधी अंग्रेज़ी नहीं जानता।’’ अंग्रेज़ी के प्रति उनका यह रुख़ बहुत अहम है, क्योंकि हिंदी कवि लाल्टू समकालीन भारत में साम्प्रदायिक फ्ऱासीवाद के पनपने और जड़ें जमाने की एक प्रमुख वजह अंग्रेज़ीपरस्ती को मानते हैं। हाल ही में मुझे लिखे गये एक पत्र में उन्होंने अपने इस विवेकसम्मत क्षोभ का इज़हार किया है : ''नेहरू अंग्रेज़ीपरस्ती के सरताज थे। उर्दू शायरी से वाबस्ता रहते हुए भी हिंदुस्तानी ज़बानों को नेहरू ने कभी नहीं स्वीकारा और आज आम हिंदुस्तानी में बुद्धिजीवियों के लिए जो गुस्सा है, वह इस वजह से भी है कि उनकी भाषा को दरकिनार किया गया है।’’

गाँधी अंग्रेज़ी के अलावा अंग्रेज़ों के रहन-सहन, खान-पान, मानसिकता और शासन-प्रशासन के तौर-तरी$कों से भी गहरी नाइत्तिफ़ाक़ी रखते थे। बकौल पत्रकार नितिन ठाकुर, पामेला माउंटबेटन ने अपनी किताब 'इंडिया रिमेम्बर्ड’ में लिखा है कि गाँधी वायसराय हाउस या आज के राष्ट्रपति भवन को महल कहते थे। उन्हें लगता था कि एक इंसान के रहने के लिहाज़ से वह बहुत बड़ा है। वह चाहते थे कि माउंटबेटन की विदाई के बाद उसे म्यूज़ियम या कॉलेज में बदल दिया जाये। ख़ुद माउंटबेटन से उन्होंने अपनी यह इच्छा ज़ाहिर की थी। माउंटबेटन ने उन्हें सांत्वना दी कि जो इस घर में रहेगा, उसे निजी तौर पर नहीं, बल्कि भारत के प्रतिनिधि के ही रूप में रहना होगा। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में जब तमाम देशों के राष्ट्राध्यक्ष आया करेंगे, तो उनका स्वागत और उन्हें प्रभावित करने के लिए राष्ट्रपति भवन इसी स्तर का होना चाहिए। लेकिन गाँधी की चिंता और ही थी। अगली मुला$कात में उन्होंने माउंटबेटन से अपना भय और सरोकार साझा किया: 'एक बार सत्ता मिलते ही मंत्री रूखे हो जायेंगे। मैं उन्हें विनम्र बनाये रखने का रास्ता खोज रहा हूँ।’  'रामराज्य’ की उनकी आदर्श परिकल्पना में वर्णाश्रमधर्म का अंतर्विरोध तो बद्धमूल था ही, शासकों के असीमित वैभव और विलासिता के चलते वह पूरा स्वप्न तार-तार होकर बिखर गया। बकौल अदम गोंडवी, साम्प्रदायिकता, अपराध और भ्रष्टाचार से दुरभिसंधि ने उसे और पाखंडपूर्ण, असह्य और शर्मनाक बना दिया है :

 

''काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में

उतरा है रामराज विधायक निवास में

 

पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत

इतना असर है खादी के उजले लिबास में’’

 

हाल में प्रकाशित अरुण कमल की लम्बी कविता 'प्रलय’ आज के भारत में 'प्रलय, परतंत्रता और फ़ासिज़्म’ का बहुआयामी आख्यान है, जिसके कुछ अंश विचलित कर देते हैं। घर से लेकर देश की सीमा तक प्रत्येक स्तर पर एक युद्ध जारी है और उसमें भाग लेने और लगभग अकारण शहीद हो जाने के लिए ज़्यादातर ग़रीब और निरपराध लोग मजबूर कर दिये गये हैं। धर्म और अधर्म से जुड़ी ताक़तों ने ऐसी संधि कर ली है, मानो वे एक ही हों! चारों ओर वैमनस्य, विभाजन, अशांति, अराजकता, छल-छद्म, शोषण, दमन, हिंसा और विनाश का एक अंतहीन सिलसिला नज़र आता है : ''पूरा देश वधस्थल की ओर जा रहा है’’ और स्त्री के लिए तो उसका घर ही वधस्थल है। सबके लिए 'आधार’ नामक पहचानपत्र अनिवार्य है। इसके बग़ैर इस देश में न किसी के लिए समाई है, न कोई सुनवाई। इंसान को महज़ नंबर में 'रिड्यूस’ कर दिया गया है। उसकी गरिमा, स्वतंत्रता और न्याय की बात अब एक ख़ूबसूरत ख़याल भर है। इस ज़िक्र के दरमियान कवि को याद आता है कि गाँधी ने छापे या पहचानपत्र की इसी तानाशाही के ख़िलाफ़ दक्षिण अफ्ऱीका में संघर्ष शुरू किया था। तभी जैसे कोई उससे पूछता है : ''कौन एम. के.?’’ यह सवाल ही बताता है कि गाँधी से एक देश के रूप में हम दरअसल कितनी दूर आ गये हैं, यहाँ तक कि हम वह भाषा भूल गये हैं, जिसमें उन्हें पहचाना जा सकता था।

 

''गाँधी का नाम मत लो

गाँधी तो अब एक झाड़ू का नाम है

नोट रुपइये पर आश्रम है धाम है

कब की सूख चुकी साबरमती’’

 

जीवन, समाज, राजनीति, प्रकृति और संस्कृति से सम्बन्धित गाँधी के दर्शन की बहुस्तरीयता का गहन, संश्लिष्ट और कलात्मक अन्वेषण करनेवाली कविताएँ भी लिखी गयी हैं, भले उनकी संख्या कम हो। के. सच्चिदानन्दन की वर्ष 2009 में लिखी गयी 'अहिंसा पर एक विमर्श’ ऐसी ही कविता है। प्रसंगवश, गाँधी से एक बार पूछा गया था कि कायरता और हिंसा में-से चुनने की मजबूरी हो, तो आप किसे चुनेंगे? उन्होंने बेसाख्ता जवाब दिया था कि ऐसी स्थिति में हिंसा ही सही विकल्प है। उनका मानना था कि न असहाय महसूस करना अहिंसा है और न अकर्मण्यता : ''मेरी राय है कि निष्क्रियता का अहिंसा के साथ कोई मेल नहीं है। अहिंसा को मैंने जिस तरह समझा है, उसमें वह एक बेहद सक्रिय ताक़त है...।’’ प्रसिद्ध गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने सही लिखा है कि आत्मशक्ति के बावजूद हृदय की कोमलता और आत्मीयता से व्यवहार करना अहिंसा है। ज़ुल्म को चुपचाप सहन कर लेना अहिंसा नहीं है; क्योंकि वह कायरता नहीं, बल्कि 'बहुत बहादुर लोगों का काम है।’ इसके समर्थन में वह एक प्रसंग का ज़िक्र करते हुए गाँधी का नज़रिया स्पष्ट करते हैं : ''गाँधी जी से जब लड़कियों ने पूछा कि बापू, हमारे शील पर हमला करनेवाले बलात्कारियों के साथ क्या हमें अहिंसा का व्यवहार करना चाहिए? उन्होंने कहा: अगर तुम्हारे पास तलवार है, तो तलवार लेकर अपने शील की रक्षा करो और हमलावरों का सामना करो! मैं तुम्हें अहिंसा का प्रमाणपत्र दूँगा।’’

के. सच्चिदानन्दन की उपर्युक्त कविता में मराठा इलाके से एक गर्भवती महार लड़की, गाँधी के अपने क्षेत्र से एक गूँगा भील नवयुवक और मध्यभारत से बैसाखियाँ थामे हुए एक कोरबा धनुर्धर अपंग आदिवासी गाँधी से मिलने आते हैं। बलात्कार की शिकार नवयुवती अपने गर्भस्थ शिशु की ओर इशारा करते हुए कहती है कि 'मैं इसे काटकर टुकड़े-टुकड़े कर देती, मगर आपने हमें हिंसा को नापसंद करना सिखाया है।’ गूँगे भील नौजवान ने अस्फुट स्वरों और भावमुद्राओं के सहारे बताया कि ज़मींदार ने उसे क़र्ज़ के दुश्चक्र में फँसाकर गुलाम बनाया, पेड़ से बाँधकर उसकी जीभ काट ली और कुएँ से पानी भरने के जुर्म में उसके शरीर को जला दिया। उसने यह सब बरदाश्त किया, क्योंकि प्रतिरोध करने का मतलब हिंसा होता। अपाहिज कोरबा आदिवासी ने कहा कि उसने अपने धनुष-बाण से तेंदुए को मार डाला होता, जिसने उसे अपंग बना दिया; लेकिन अहिंसा का परित्याग करने के बाद हमारे पास रह क्या जाता है? गाँधी ने अपने ईमानदार शिष्यों को जवाब दिया - 'तुमने अहिंसा का महज़ शाब्दिक अर्थ समझा। बलात्कारी, ज़मींदार और तेंदुए में-से केवल भयभीत तेंदुए को मालूम नहीं था कि वह हिंसा कर रहा है। वह सिर्फ अपनी प्रवृत्ति का अनुसरण कर रहा था, मगर बाक़ी दो किसी दया के योग्य नहीं थे। प्यारी बच्ची, अगर दाँत और नाख़ून नाकाफ़ी थे, तो तुमने अपने हँसिये या रसोई के चाकू से अपने सम्मान की रक्षा की होती!’ फिर वह भील की ओर मुड़े और भाव-भंगिमा से उसे समझाया : 'जहाँ शब्द तुम्हें विफल कर रहे थे, कुल्हाड़ी तुम्हारी मदद करती।’ कोरबा ने पूछा - 'फिर अहिंसा का क्या मतलब?’ गाँधी उत्तर देते हैं : 'मैंने यह कहीं नहीं कहा है कि अपने जीवन और सम्मान की रक्षा के लिए अत्याचारी को क्षति पहुँचाना ग़लत है, अलबत्ता इसे सिर्फ आख़िरी उपाय की तरह अपनाना चाहिए।’ कविता में इस बातचीत के एक गवाह से कुछ और बहस भी है, मगर अंत में तीनों पीडि़त कहते हैं कि वे समझ नहीं पाये। तभी महार नवयुवती की कोख में पल रहे शिशु का कोमल-सा स्वर सुनायी पड़ता है : 'मैं समझ रहा हूँ।’ यह कविता हमारे वर्तमान और आगामी समयों में गाँधी-दृष्टि को उसके विभिन्न आयामों में विकसित और प्रासंगिक बनाये रखने के लिहाज़ से बेहद सार्थक, सशक्त और मर्मस्पर्शी है।

गाँधी सिर्फ भारतीय नहीं, एक वैश्विक उपस्थिति हैं और इतनी महत् कि किसी के लिए चाहकर भी उन्हें नज़रअंदाज़, उपेक्षित या विस्मृत करना संभव नहीं। भारत के ऐतिहासिक एवं समकालीन संदर्भ में उनकी महत्ता असंदिग्ध है, पर उसके अभिज्ञान के लिए भारतीय होना कोई अनिवार्यता नहीं। आख़िर उन पर सबसे अच्छी फ़िल्म 'गाँधी’ एक विदेशी रिचर्ड एटनबरो ने बनायी, जिसे 1983 में आठ ऑस्कर पुरस्कार मिले। इनमें दुर्लभ उत्कृष्टता, संजीदगी और समर्पण के साथ काम करने के लिए अभिनय, निर्देशन और पटकथा-लेखन के पुरस्कार सबसे ख़ास थे। गाँधी के रूप में बेन किंग्सले को कोई कैसे भूल सकता है? यह गाँधी की श$िख्सयत के बेहद जीवंत, समृद्ध और बहुआयामी होने का सबूत है कि जितना वह सम्मोहित करती है, उतना ही संवाद और विवाद के लिए आमंत्रित भी। यह अद्भुत ही कहा जा सकता है कि उनके मित्र, शत्रु और उनसे उदासीन लोग भी कई बार उन्हें 'बनिया’ मानने के दैन्य से उबर नहीं पाते या ऐसे बयान देने का लालच उन्हें परेशान करता रहता है। वर्ण-व्यवस्था के समर्थक कहें, तो ठीक; मगर विरोधियों का यह वर्णवाद नहीं, तो और क्या है? मसलन नागार्जुन सरीखे बड़े कवि, जो अपनी कविता के स्तर पर गाँधी से अत्यन्त प्रभावित हैं; एक साक्षात्कार में गाँधी-दर्शन से भवानीप्रसाद मिश्र के लगाव के आधार पर उनके मूल्यांकन में यह ज़्यादती करते हैं : ''गाँधीवादी कवि वणिक-केन्द्रित होने को बाध्य है। भवानी भाई इसके परम उदाहरण हैं। इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बनियों--दोनों को प्रिय हैं।’’ मुमकिन है कि ऐसा हो, मगर क्या गाँधी सचमुच कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रिय थे या हो भी सकते हैं? दूसरे, गाँधी के बजाए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कथित 'बनियों’ की निकटता तो सर्वविदित है, फिर ऐसे बयान का क्या औचित्य? इसी तरह मुक्तिबोध की जन्मशती के उपलक्ष्य में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में 12-13 नवम्बर, 2017 को आयोजित 'अँधेरे में अंत:करण’ शीर्षक राष्ट्रीय संगोष्ठी में वक्तव्य देते हुए विष्णु खरे ने एक अजीब बात कही : ''मुझे लगता है कि गाँधी कहीं-न-कहीं मुक्तिबोध सरीखे मार्कि्सस्ट कवि की कमज़ोरी थे। मैं समझ नहीं पाता हूँ कि उनकी क्लासिक कविता 'अँधेरे में’ में गाँधी बैठे क्या कर रहे हैं?’’ मैंने एक महत्त्वपूर्ण कवि से जब विष्णु जी का यह एतराज़ साझा किया, तो उन्होंने आश्चर्य और असहमति जताते हुए एक अहम और दिलचस्प बात कही : ''कवि की विचारधारा चाहे जो हो, मगर उसकी कविता में उसके देश और समाज के ही जननायक तो आयेंगे! मुक्तिबोध की उस कविता में गाँधी न आते, तो क्या लेनिन आते?’’

बहरहाल। बीते तीन दशकों में हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिकता के निरन्तर मज़बूत, व्यापक और हमलावर होते जाने के साथ और इस ख़ास वजह से भी गाँधी की ज़रूरत और प्रासंगिकता लगातार बढ़ती गयी है। उनकी अहमियत को भिन्न या विपरीत ध्रुवों पर मौजूद विचारधाराओं के हामी उन प्रबुद्ध और संवेदनशील साहित्यिकों एवं बुद्धिजीवियों ने भी पहचाना है; जो इससे पहले के समयों में उन्हें नापसंद, अवमूल्यित या ख़ारिज करते आ रहे थे। वामपंथी प्रगतिशीलों ने उन्हें व्यंग्य की निगाह से देखा, क्योंकि वे उन्हें महज़ पूँजीपतियों का समर्थक एक धार्मिक हिन्दू मानते रहे और कलावादियों ने इसलिए कि जन-जीवन से कटी हुई अतिशय कला या अलंकारप्रियता से वह हमेशा परहेज़ करते रहे। उन्होंने कहीं कहा है कि 'भाषा के लिए अलंकार वैसे ही है, जैसे कि स्वस्थ उदर के लिए लाल मिर्च।’ गाँधी से वामपंथियों की दूरी या अरुचि का कारण यह भी रहा है कि उन्होंने 'रामराज्य’ की अवधारणा पर इसरार किया और तुलसी को वह बड़ा कवि मानते थे। ऐसा नहीं कि ये आक्षेप वाजिब नहीं, मगर दिक्क़त यह है कि ये गाँधी की खंडित और अधूरी तस्वीर सामने लाते हैं। इसलिए कि वह आस्तिक ज़रूर थे; पर उन्हें मंदिरों में जाते, स्थूल $िकस्म की धार्मिकता को वैधता एवं प्रोत्साहन देते और कर्मकांड करते कभी नहीं देखा गया। आज जबकि ज़्यादातर सगुणपंथी कट्टर सम्प्रदायवाद के खेमे में खड़े नज़र आते हैं, गाँधी का निर्गुण ईश्वर साधारण मनुष्यता का हमदम हो, तो क्या तअज्जुब? यह एक दिलचस्प अंतर्विरोध है कि तुलसी और 'रामराज्य’ से घोषित नज़दीकी के बावजूद गाँधी का व्यक्तित्व और अवदान कबीराना दृष्टि, तेवर, भक्ति, राग-विराग, श्रमशीलता और मनुष्य-सत्य एवं न्याय की सतत पक्षधरता की याद दिलाता है।

इन सब बातों के बावजूद उदास हक़ीक़त यह है कि जो भारत मुख्यत: गाँधी के नेतृत्व में आज़ाद हुआ, उसमें उन्हें गिनती के 169 दिन ही बरदाश्त किया जा सका! यह गाँधी-दृष्टि और कविता, दोनों से कट्टर सम्प्रदायवादी ताक़तों के बैर का अमिट प्रमाण है। अदम गोंडवी के शब्द याद आते हैं :

 

''ख़ुदी सुकरात की हो या कि हो रूदाद गाँधी की

सदाक़त ज़िंदगी के मोर्चे पर हार जाती है’’

 

कानपुर में जब साम्प्रदायिक दंगों में शांति कायम करने की अपनी कोशिशों के नतीजे में 'प्रताप’ के सम्पादक गणेशशंकर विद्यार्थी की हत्या हुई, तो गाँधी ने कहा था कि 'मुझे विद्यार्थी जी से ईष्र्या होती है और मैं उनकी-सी ही मौत मरना चाहूँगा।’ यह और बात है कि बहुत विडम्बनापूर्ण ढंग से गाँधी का यह सपना पूरा हुआ! शहादत पर हम नाज़ करते हैं, मगर ऐसी सभ्यता नहीं बनायी जानी चाहिए, जिसमें शांति और सौहार्दपूर्ण स्थिति की बहाली के लिए हमारे महापुरुषों को शहीद हो जाना पड़े। रही गाँधी की बात, तो सबको मालूम है कि पहले वह 125 साल जीना चाहते थे। मगर भारत-विभाजन के दौरान और उसके कारण जब वह अपनी ही सरज़मीं पर विश्व इतिहास में दुर्लभ एक अप्रत्याशित और भयावह नरसंहार के रक्तरंजित मंज़र के गवाह बने, तो उन्होंने उसे अपनी सबसे बड़ी नाकामी और बदनसीबी माना। 2 अक्टूबर, 1947 को अपनी 79वीं वर्षगाँठ पर उन्होंने कहा था : ''आज तो मेरी जन्मतिथि है।... मेरे लिए तो आज यह मातम मनाने का दिन है। मैं आज तक ज़िंदा पड़ा हूँ। इस पर मुझको ख़ुद आश्चर्य होता है, शर्म लगती है, मैं वही श$ख्स हूँ कि जिसकी ज़बान से एक चीज़ निकलती थी कि ऐसा करो, तो करोड़ों उसको मानते थे। पर आज तो मेरी कोई सुनता ही नहीं है।... ऐसी हालत में हिन्दुस्तान में मेरे लिए जगह कहाँ है और मैं उसमें ज़िंदा रहकर क्या करूँगा? आज मेरे से 125 वर्ष की बात छूट गयी है। 100 वर्ष की भी छूट गयी है और 90 वर्ष की भी। आज मैं 79 वर्ष में तो पहुँच जाता हूँ, लेकिन वह भी मुझको चुभता है।’’ वह और जीना नहीं चाहते थे, क्योंकि अपने ही सपने को लहूलुहान और छटपटाता हुआ देख रहे थे।

30 जनवरी, 1948, यानी वह मनहूस दिन, जबकि गाँधी की हत्या हुई, राहुल सांकृत्यायन मथुरा में थे। वृन्दावन के गुरुकुल, गोविन्दराज मन्दिर एवं गीता मन्दिर और मथुरा के प्रसिद्ध संग्रहालय एवं टीलों का अवलोकन करके एक कॉलेज में भाषण देकर जब वह मंदोबाई हॉल में दूसरे कार्यक्रम में वक्तव्य देने जा रहे थे, सहसा उन्हें वह ख़बर सुनायी पड़ी, जिस पर विश्वास करना उनके लिए असंभव था। लेकिन विश्वास करने के सिवा कोई चारा भी न था। आत्मकथा 'मेरी जीवन-यात्रा’ के चौथे खंड में उन्होंने इस दिन का बहुत मार्मिक वृत्तांत दर्ज किया है : ''कुछ-कुछ मिनट पर रेडियो बराबर दोहरा रहा है : गाँधी जी को किसी हिन्दू आततायी ने आज दिल्ली में मार डाला। भला यह विश्वास करने की बात थी? गाँधी जी अजातशत्रु थे, वह किसी का अनिष्ट नहीं चाहते थे। उनके भी शत्रु पैदा हो सकते हैं? और सो भी हिन्दू सभ्यता और संस्कृति का अभिमान करनेवाले लोगों में? पर महाराष्ट्र को कलंक लगाने वाले, ब्राह्मणों के मुख को काला करने वाले, नाथूराम गोडसे ने यह काम किया था। बुद्ध के बाद क्या भारत में कोई इतना महान् व्यक्ति पैदा हुआ? हमारे देश की परम्परा ने हमेशा विचार-सहिष्णुता को जगाकर रखा। बुद्ध अनीश्वरवादी थे, जात-पात और कितनी ही दूसरी रूढिय़ों के ज़बरदस्त शत्रु थे, स्पष्टवक्ता थे, और गाँधी की तरह प्रियभाषी भी। ऐसे ही और भी कितने ही महापुरुष इस धरती में पैदा हुए। लोगों ने विचारों का विरोध विचार से किया, तलवार और गोली का सहारा कभी नहीं लिया। अधम गोडसे ने न जाने क्या समझकर ऐसा किया! लेकिन गोडसे को बुरा-भला कहना ठीक भी नहीं है, जबकि हम जानते हैं कि प्रभुता को हथियाने के लिए उतावले उच्च जाति के कितने ही लोग गोडसे के पीछे थे, जो फिर से पेशवाशाही स्थापित करने का स्वप्न देख रहे थे। लेकिन यह स्वप्न कभी पूरा नहीं होगा। अंग्रेज़ों के पंजे से निकलकर कुछ उच्च जाति के तानाशाहों के हाथ में भारत अपने भविष्य को नहीं दे सकता।... बहुजन-हित जिस ओर है, उसी ओर भारतीय जनता और उसका देश जायेगा। नदियों की धारा सरल रेखा में नहीं बहती, उसी तरह जनता की धारा भी सरल रेखा से अपने गंतव्य स्थान पर नहीं पहुँचती...।’’

गाँधी की हत्या से विचलित राहुल प्रसंगवश यह भी लिखते हैं : ''जहाँ तक गाँधी जी का सम्बन्ध है, उनका जीवन यशस्वी रहा और मृत्यु भी। कायर आततायी के कर्म पर विचार करते हुए मुझे उसी समय एक हिन्दू नेता की बात याद आयी : 'ऐसे नहीं मानेंगे, तो हम जवाहरलाल को मारेंगे, मंत्रियों को मारेंगे।’ ‘‘ आकस्मिक नहीं कि गाँधी की हत्या पर केन्द्रित 'गांधी-मार्ग’ के हाल ही में जारी विशेषांक में प्रकाशित अमेरिकी शांतिवादी अध्येता जेम्स डब्ल्यू. डगलस के लेख के मुताबिक़ गोडसे को मूल आदेश गाँधी के साथ-साथ नेहरू और बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सुहरावर्दी को भी 'ख़त्म’ कर देने का दिया गया था। आज हमारे देश का माहौल धीरे-धीरे कुछ ऐसा होता जा रहा है, जिससे भारत-विभाजन के दौर के हिंस्र साम्प्रदायिक तनाव की कल्पना की जा सकती है। आसन्न इतिहास से नावा$िकफ़ लोग सिर्फ इस बात से चिंतित हो जाते हैं कि सम्प्रदायवादी राजनीति नेहरू की छवि ख़राब कर रही है; जबकि वह 'सेक्युलरिज़्म’ के नामोनिशान को हमेशा मिटा देने पर आमादा रही है और बुनियादी तौर पर उसकी दुश्मनी आधुनिक वैज्ञानिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी दृष्टि के हर प्रतीक से है।

गाँधी की बाबत राहुल सांकृत्यायन सरीखे इतिहास-संस्कृति के उद्भट विद्वान् और साम्यवादी विचारक ने लिखा है कि 'बुद्ध के बाद भारत में कोई इतना महान् व्यक्ति’ नहीं हुआ और सम्प्रदायवाद के उस भीषण दौर के बावजूद--जिसने गाँधी की जान ले ली-भारत के भविष्य के सम्बन्ध में अपना यह विश्वास व्यक्त किया है : ''बहुजन-हित जिस ओर है, उसी ओर भारतीय जनता और उसका देश जायेगा।’’ आलोकधन्वा के शब्दों में आज बेशक यह 'एक उम्मीद है, जो तकलीफ़ जैसी है’; मगर इसलिए कि सत्य का कोई विकल्प हमारे पास नहीं है।

बुद्ध और गाँधी- इन दोनों में सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, शील, करुणा, समतामूलक समाज की स्थापना के लिए सम्यक् परिवर्तन की कामना और दृढ़ता के तत्त्व लगभग समान हैं। मनुष्यता जब भी अपने विनाश से बचना चाहेगी और उसके लिए सृजन का कोई वैकल्पिक रास्ता खोजेगी, उसे लौट-लौटकर बुद्ध और गाँधी के पास आना होगा। मैं अपनी बात का समापन शायद इसी भावना को शब्द देती हुई के. सच्चिदानंदन की कविता के एक हिस्से से करना चाहूँगा :

 

''घास और ख़रगोश के बीच

छाया के साथ

शब्द और उसके अर्थ के बीच

आग से गुज़रते हुए

चलो, चलो

सूर्य के सपनों के साथ लालिमा में चलो

चन्द्रमा के अकेलेपन के साथ अँधेरे में चलो

 

हवा की दिशा के ख़िलाफ़ चलो

पानी के बहाव के आर-पार चलो

 

रंगपट्टिका थामे हुए

मृत्यु से जीवन की ओर

चलो, चलो

तुम शिल्पकार हो

और तुम्हीं, शिल्प

 

रुको, और तुम गिरोगे

बग़ैर किसी विराम के चलो

जैसे राजप्रासाद से विदा लेकर जाते बुद्ध

जैसे दांडी की ओर क़दम बढ़ाते गाँधी

 

कभी पीछे न देखते हुए, चलते रहो

चलो!’’

 

(साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली और गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित 'गाँधी और 1980 के बाद का हिंदी-गुजराती साहित्य’ शीर्षक राष्ट्रीय संगोष्ठी में 10 मई, 2019 को गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गाँधीनगर में दिये गये वक्तव्य का संशोधित एवं परिवर्धित पाठ।)

पाठक गांधी के विविध संदर्भों के साथ प्रसिद्ध पत्रिका 'अकार’ का अगस्त 2019 अंक भी देखें

 

 

 

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