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अक्टूबर - 2019

रामकुमार तिवारी की कविताएं

रामकुमार तिवारी

कविता

 

 

 

किसने सोचा था

 दूर-दूर तक मूर्त हो चुकी दुनिया में

अपने होने के लिए

किसी के न होने की शर्त

जब तर्क की तरह स्पष्ट हो जाए

और हर विश्वास आत्महत्या की तरह परिभाषित होने लगे

तब कोई विकल्प नहीं बचता

सिर्फ बचे रहना बचता है

 

इजरायल अपनी हिंसा से

जो भय पैदा करता है

वही उसे बचाता है उसका अपना तर्क है

जिसे उसका इतिहास जातीय वेदना के साथ पुष्ट करता है

और इस तरह बचे रहने के लिए, उसके नागरिक उसे समर्थन देते हैं

 

जिस दिन वह अहिंसक हो जायेगा

उस दिन कौन-सी सभ्यता का विश्वास उसके आस-पास होगा

कि वह किसी तर्क की ओट में

मारा नहीं जायेगा

 

हिंसा के पास सबसे स्पष्ट तर्क होता है

जिसे सत्ता ठीक-ठीक पहचानती है

और जिसमें राष्ट्र, क्षेत्र, धर्म, विचार, जाति और नस्ल के नागरिक

अपने-अपने भविष्य को देखते हैं

 

किसने सोचा था

इस नागरिक समय में एक दिन

मनुष्य होना इस तरह गैर जरूरी और तर्क हीन हो जाएगा

 

अपना-अपना पाठ

समय में छुपे हैं आकर

उजागर हुई बस्तियाँ

 

बस्तियों में छुपे हैं लोग

अपनी-अपनी शक्ल से अन्जान

 

आज से बीते कल को देखें

या बीते कल से करें आज का सत्यापन

विलुप्त हो जाता है बीच में बहुत कुछ

 

देखते-देखते जीवाश्मों से घिर जाता जीवन

जहाँ तथ्य हथियारों की तरह चमकते हैं

जिन्हें हर कोई इस्तेमाल करता है अपने लिए

 

सबके सब सीधी हिंसा तो नहीं करते

लेकिन शामिल होते हैं हर इतिहास में

अपना-अपना पाठ लिए

 

सत्ता पाठों के बीच

युगीन सच्चाइयां कितनी अकेलीं

कितने अकेले हैं शब्द

 

जानता हूँ

सभी का हित

समर्थ के धैर्य में वास करता है

उसकी परीक्षा नहीं होनी चाहिए

 

जो यह नहीं जानते

उन्हें अपने सामर्थ्य पर भरोसा है

उसकी अपनी तुक-तान है

 

पर मैं जानता हूँ

मैंने इतिहास की नजर से तुम्हें देखा है

इसलिए डरा हूँ इस हद तक कि

बच्चों, औरतों के लिए भी प्रार्थना करना भूल गया हूँ

 

मुझे तुम्हारे सामर्थ्य पर विश्वास है

लेकिन तुम्हारी भाषा पर नहीं

जो तुम बोलते हो

 

सामर्थ्य तुम्हारा

तुम्हारे काम आ रहा है

 

लेकिन जो विश्वास मैं

तुम्हारी भाषा में खो रहा हूँ

मेरा दुख है

 

यह कैसी विवशता है

रोज तुम्हारा कहना सुनना पड़ता

और रोज भटकना पड़ता

किसी सुरक्षित जगह के लिए

मैं जानता हूँ

तुम भाषा नहीं जीतना चाहते

फिर मैं भाषा क्यों हार रहा हूँ

रोज-रोज

 

निरंतरता

जो जिसमें खुश हैं

उन्हें रहने दो, वे

उसी के लिए जनमे हैं

 

या जो जिसके लिए दुखी हैं, उन्हें भी

 

एक ही तरह का सुख या

उसी के न होने का दुख

 

बस एक पहलू भर है

जिसमें डूबता है वक्त

इतिहास की इच्छा के लिए

 

उसकी बातें

गुजरे हुए का दुहराव हैं

दुहराव नहीं

जीवन में निरंतरता हो

 

उन कहानियों की तरह

जो इतिहास में जाने से मना कर देती हैं

और बस्ती में रहती हैं लोगों के साथ

 

उसी तरह जैसे

गुज़रते जाने के बाद भी

बस्ती में रहते हैं लोग

न जाने कब से

और रहते रहेंगे

न जाने कब तक

 

कहानियाँ सुनते हुए

कहानियाँ सुनाते हुए।

 


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