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अक्टूबर - 2019

अनिल करमेले की ग्यारह कविताएं

अनिल करमेले

कविता

 

 

तस्वीर

 अख़बार के चौथे पेज़ पर

उठावने और तेरहवीं वाले संदेशों के बीच

कितने दिनों से आ रही है यह तस्वीर

 

इसी पेज पर नए मकानों के विज्ञापन हैं

नए रोज़गार के अवसरों के लुभावने प्रस्ताव

सरकारी कामों की निविदाएँ

पुलिस थानों के नंबरों सहित

फरार अपराधियों की तस्वीरें भी

इसी के आसपास हैं

 

पता नहीं वह किस काम से निकला था घर से

या बेकाम यूं ही टहलने

क्या पता किसी रोजगार का पता खोजने निकला

या नए घर के सपने के साथ

किसी मृतक की अंतिम यात्रा के लिए तो नहीं निकला

 

कौन होगा उसके घर में राह देखता

दिन रात अपने आँसुओं में डूबी उसकी पत्नी

या दरवाज़े से ताकती नन्हीं बेटियाँ

बूढ़े पिता घर के बाहर थके पैरों और

आँखों में उम्मीदी लिए बेचैन टहलते हुए

माँ होगी तो वह भरोसा रखकर

उसकी पसंद का कुछ बचा कर रखती होगी

 

पड़ोसी दिलासा देकर थक चुके होंगे

मित्र क्या कहें इसके सिवा कि कुछ नहीं होगा

वह लौट आएगा किसी दिन

भाई बहन होंगे तो कब से पड़े कामों को

अब धीरे धीरे सँभाल रहे होंगे

आखिर कब तक कोई रोता हुआ साथ रह सकता है

 

काम तो उसके भी रहे होंगे

नौकरी होगी तो पता नहीं उसका क्या हुआ

कोई धंधा होगा तो वह कब का मिट गया होगा

 

उसके होने और नहीं होने के बीच

रोज़ अखबार के चौथे पेज पर

छपी दिखती है यह तस्वीर

कई महीनों से आ रही यह गुमशुदा की तस्वीर

अब बेचैन करने लगी है

 

मैं रोज़ अख़बार लेकर

सबसे पहले चौथा पेज़ देखता हूँ

उम्मीद करते हुए कि आज यह तस्वीर नहीं होगी।

 

चिट्ठियाँ 

 

चिट्ठियाँ

 नई शताब्दी में हमारे साथ नहीं आईं

हमने चिट्ठियों के बिना ही घिसटते हुए

पार कर लिए इक्कीसवीं सदी के इतने साल

 

चिट्ठियाँ थीं तो

थोड़े लिखे को बहुत समझकर

पार करते थे हम बीच नदी की तेज़ धार

मुश्किल दिनों में और उदासी और दु:खों में

वे आतीं और गले से लगा कर सँभालतीं

वे हमारे आँसू सोख लेतीं

 

उनके भीगे शब्दों के बीच झिलमिल चमकता कोई चेहरा

जैसे कोई हाथ सहलाता प्यार से बालों को

कोई हाथ रखता कंधे पर

कोई गले से लगाता यह कह कर

कि ऐसे हौसला नहीं खोते

 

ऐसी भी कई चिट्ठियाँ रहीं जिनमें लिखा

मेरी प्रिय और सिर्फ तुम्हारा

लेकिन वे चिट्ठियाँ अक्सर अपने ठीक मुकाम तक नहीं पहुँच पाईं

अलबत्ता उनको खूब रस लेकर डूब कर पढ़ा उन्होंने

जिन्हें ऐसी चिट्ठियाँ पढऩे की तमीज़ भी नहीं थी

 

15 जुलाई 2013 को तार की मृत्यु हो गई

इसकी सूचना किसी ने चिट्ठि से नहीं दी

चिट्ठियों को मरे हुए तो बरसों बीत गए।

 

अच्छे दिनों की उम्मीद

अल्हड़ और मस्ती भरे दिन

दर्ज़ हैं इस डायरी में

इसी में पढऩे का टाइमटेबल

 

छोटे होटलों धर्मशालाओं और रिश्तेदारों के पते

प्रेम के दिनों के मुलायम वाक्य

और दुखी दिनों के उदास पैराग्राफ

बरसों इसी डायरी में जगह बनाते रहे

 

इसी में दर्ज़ हुई लाल स्याही से कई तारीखें

वे निश्चित थीं महत्वपूर्ण साक्षात्कारों के लिए

मगर एक अदद नौकरी तक नहीं पहुँचा पाईं

नब्बे फीसदी लोगों की तरह

मैं भी गलत जगह पर पहुँचा

 

प्रेम कविताएँ लिखी गईं इसी डायरी में

मगर कभी भी मुकम्मल नहीं हुईं

 

इसी में शामिल हुए कुछ नए रिश्ते

और असमय मृत्यु को प्राप्त हुए

शायद उन्हें किसी और बेहतर की दरकार थी

 

इसी में दर्ज़ हुआ

बनियों, दूधवालों और दवाइयों का हिसाब

और दो एक बार सुसाइड नोट के ड्राफ्ट भी लिखे गए इसी में

 

बुरे-बुरे दिनों में इसी में लिखी गईं कविताएँ

अच्छे दिनों की उम्मीद में।

 

उसके आगमन पर

 उसने रात के तीसरे पहर

जैसे ही भीतर की कोमल मुलायम और खामोश दुनिया से

बाहर की शोर भरी दुनिया में

डरते-डरते अपने कदम रखे

देखा वहाँ एक गहरी ख़ामोशी थी

और उसके रोने की आवाज़ के सिवा कुछ नहीं था

 

भीतर की दुनिया से यह ख़ामोशी

इस मायने में अलहदा थी

कि यहाँ कुछ निरीह कुछ आक्रामक चुप्पियाँ

और हल्की फुसफुसाहटें

बोझिल हवा में तैर रही थीं

वह नीम अँधेरे से जीवन के उजाले की दुनिया में आई

मगर माँ की आँखों में अँधेरा भर गया था

उसने भीतर जिन हाथों से

महसूस की थीं मखमली थपकियाँ

उन्ही हाथों में अब नागफनी उग आई थी

वह जानती थी

पूरा कुनबा कुलदीपक के इन्तज़ार में खड़ा है

 

वह सुन रही है माँ की कातर कराह

और देख रही है कोने में खड़े उस आदमी को

जिसे देखकर लगता है

वह अंतिम लड़ाई भी हार चुका है

 

इस आदमी ने कभी कोई युद्ध नहीं लड़ा

कभी किसी जायज़ विरोध में नहीं हुआ खड़ा

कभी अपमान के ख़िलाफ़ होंठ नहीं खोले

कभी किसी के सामने तनकर खड़ा नहीं हो पाया

 

यह उस आदमी के लिए घोर पीड़ा का समय है

आख़िर यह कुल की इज्ज़त का सवाल है

और उससे भी आगे उसके पौरुष का सवाल है

जो सदियों से उनके कर्मों की बजाय

स्त्रियों के कंधों पर टिका रहा

 

उसे नहीं चाहिए बेटी

वह चाहता है

अपनी ही तरह का एक और आदमी।

 

पुराना खेल

यहाँ आकर ख़त्म हो जाती हैं सारी इच्छाएँ

सारे लोभ और लालच हो जाते हैं तिरोहित

कुछ भी भूला हुआ लेना देना बाकी नहीं रहता

सारे हिसाब बराबर

हो जाता है बंद बहीखाता

 

कल तक जो लिए सारे फैसले आखिरी

की हुई सारी ग़लतियाँ आखिरी

कल तक जो प्यार किया जो घृणा की

जो भला बुरा किया वह सब अंतिम

अब बस अग्नि जल वायु पृथ्वी और आकाश बचा

 

कई ज़रूरी काम छोड़कर साथ आए चेहरों के माथों पर

हथौड़े की तरह गिरता है मृत्यु का सत्य

वे अपने अंदर की रंगीन दुनिया में

बेरौनक-बेरंग उदास टहलते हैं

कुछ पूछने पर बुझी-सी आवाज़ में जवाब देते हुए

जैसे यमराज के बुलावे पर अभी इसी वक़्त चल देंगे

सब कुछ छोड़कर खाली हाथ चुपचाप

 

मौन के दो मिनट में

एक क्षण याद करते हैं मरने वाले को

उसी वक़्त में याद आते हैं अपने ज़रूरी काम

जलती चिता हो जाती है दिमाग़ से गायब

और सबको शामिल होना ही पड़ता है

जीवन के उसी खेल में

 

श्मशान में ही बजने लगते हैं मोबाइल।

 

कविता की शक्ल

कभी किसी कवि को पढ़ते हुए

कवि की चुप्पी से संगत करने लगते हैं शब्द

 

कभी भीड़ में चलते हुए किसी चेहरे को देख कर

याद आ जाता है कोई दूसरा चेहरा

हर तरफ ढूँढते हैं उसी चेहरे को जो दिखता नहीं

और फिर उदासी से निकलती है कोई कविता

 

कभी किसी चमकते दिन में

दुनिया के तामझाम से छुट्टी लेकर

जाते हैं तमाम वीरानियों के पास

रास्ते में बिछे पीले फूल कनेर आँखों में समा जाते हैं

और ढल जाते हैं कविता में

 

एक कविता वहीं से निकलती है

जब ख़त्म हो जाती हैं सारी उम्मीदें

और जीवन खड़ा होता है अंतिम पायदान पर।

 

प्रेम के दो बरस

वे ही दो बरस एक तरह जीते हुए

पच्चीस बरस बीत गए

मगर उन छोटे से दो बरसों की

धूप छाया और बारिश संग-साथ चलती रही

मैं जहाँ कहीं रहा

 

उन छोटे से दो बरसों में

तुमने अंजुली से जो जल पिलाया था

अभी भी छलक उठता है आँखों से

जब कोई मेरी तरह पड़ जाता है प्रेम में

 

उन छोटे से दो बरसों में

कुछ भी अनोखा नहीं हुआ था

जो इन दिनों आम हो गया है

नहीं दिया गया हमें जहर

हमें पेड़ पर लटका कर नहीं मारा गया

हम किसी न्याय की शरण में नहीं गए

अपने जीवन की रक्षा के लिए

 

उन छोटे से दो बरसों में

ऐसा भी नहीं कि हमने

प्रेम के गीत गाए हों साथ-साथ

या खायी हों साथ-साथ जीने-मरने की कसमें

 

पर सच कहूँ तो उन छोटे से दो बरसों ने

मेरे अंधेरे में कई दीप जलाए

मेरी चोटें सहलायीं और खड़ा किया मुझे

सिखाया मनुष्य होने का सलीका

 

अब जबकि इन पच्चीस बरसों में

बहुत बदल चुकी है दुनिया

और थोड़ा-बहुत मैं भी

इतना कि कभी कहीं मिल जाओ तुम अचानक

किस्सों-कहानियों की तरह

तो दौड़कर नहीं मिल पाऊँगा मैं तुम्हारे गले

और शायद तुम भी।

 

राहत

अचानक एक दिन पता चलता है

बची हुई मनुष्यता

अंधे कुएँ में जा गिरी है

आँखों की शर्म दलाली में बदल गई है

मुस्कान एक धारदार छुरे में

और विचारों की पवित्रता

धर्म के धंधे में अवसर तलाश रही है

 

स्त्री की देह की ख्वाहिश

पवित्र महत्वाकांक्षा में शामिल हो गई है

 

हम एक सुबह फूलों को देखकर

प्रसन्नता से भर उठते हैं

और ठीक उसी समय पाते हैं कि

नि:शब्द थरथराते आलिंगन

सौदेबाज़ी में बदल गए हैं

 

हमें पता ही नहीं चलता कि नीचता

कैसे धीरे-धीरे पुण्य में बदल गई है

और एक दुखी बलात्कृत जलती हुई स्त्री को देखना

एक ऐतिहासिक अवसर में शामिल हो गया है

हम अपराधियों को सम्मान देते हैं

उन्हें चुनते हैं अपना नुमाइंदा

शोषक को करते हैं झुक कर नमस्कार

राष्ट्राध्यक्षों और मसखरों के शर्मनाक बयानों पर हँसते हैं

ऊँचे चरित्रों को ऊँचाई से गिरता देखते हैं

और अपनी गिरावट पर राहत महसूस करते हैं।

 

बैंडिट क्वीन के देह दृश्य में

यह ढलती हुई सदी की एक चमकीली सुबह थी

 

बैंडिट क्वीन को पानी लेने कुएँ पर जाना था

आसपास घृणा और बेचैनी से लथपथ

फैला था एक क्रूर सन्नाटा

 

लंबी काली रातों की लगातार दबोच के बाद

इस सुबह की मरियल सी रोशनी में

उस स्त्री को दिख रही थी

अपने भाई के जीवित बच जाने की उम्मीद

जो कुल हज़ार रूपये के एवज़ में

अपनी आत्मा को लहूलुहान करती

वह बैंडिट क्वीन की छाया

जा रही थी निर्वसन कुएँ पर पानी लाने

 

वहाँ नहीं था कोई चीर बढ़ाने वाला

मिथकों की तरह बेबस किंपुरूष भी नहीं थे

दृश्य में न दृश्य से बाहर

यह शताब्दी की अनोखी घटना थी

उस स्त्री को सब पहले से पता था

 

घूम रहे थे कैमरे

दृश्य से बाहर खड़ी वास्तविक नायिका नि:शब्द और अवाक थी

शायद वह सोचती हो कि उसे ही होना था इस दृश्य में

कला की ज़रूरत उस नायिका को थी

लेकिन एक स्त्री की मजबूरी ने

कला की ज़रूरत इस तरह भी पूरी कर दी

 

लांग शॉट की बारीक कैद में घूमती स्त्री

अंतत: धर ली गई दृश्य के केन्द्र में

और इस तरह हो गई अपनी देह से बाहर

 

जो दृश्य से बाहर थे

उन्हें रहना था हमेशा सफलता के केन्द में

दृश्य के बीच में रही उस स्त्री का अब कहीं पता नहीं।

 

देवताओं को सोने दो

जब बहुत ज़रूरत थी मनुष्यों को देवताओं की

वे निद्रा में थे अपनी आरामगाहों में

 

कथित नुमाइंदे निर्लज्ज तरीके से लगे हुए थे

अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए

वे वोटिंग मशीनों तक गायों को खींच लाए थे

वे बता रहे थे

हमारे सोने की चिडिय़ा रह चुके देश में

अब बहुत अच्छा समय आ गया है

अब कोई दलित नहीं, कोई ग़रीब नहीं बचा

 

स्त्रियाँ अभी भी शर्मसार थीं

बच्चे अभी भी फुटपाथों पर, प्लेटफार्म पर, होटलों में काम करते थे

भ्रूण परीक्षणों में लगे हुए थे धंधेबाज

बेरोज़गारों को गायों को बचाने की ज़िम्मेदारी दी गई थी

अल्पसंख्यक मारे जा रहे थे

गरीबों और मजलूमों की होली जलाकर

अमीर दिवाली मना रहे थे

 

देवता सो रहे थे चैन की नींद

 

देवता सोते ही रहेंगे चैन की नींद

उनके नाम पर किए जा रहे तांडव से

हमें ही बचानी होगी यह दुनिया

हमें बढ़ाना होगा आपसी प्रेम

भूखे पेटों को रोटियाँ देवता नहीं खिला पाएँगे

 

वे उठेंगे तो उनकी ज़रूरतें

हम कहाँ पूरी कर पाएँगे

 

उन्हें सोने दो मित्रो

वे कहीं भी रहें

इस पृथ्वी पर उनकी ज़रूरत नहीं रही।

 

छोड़ा हुआ शहर

रोज़ की दिनचर्या में दिखने वाली मुस्कराती लड़की

अचानक उतर आती है ज़हन में

 

फुटपाथ पर रेहड़ी लगाने वाला

उसी तरह बैठता है आवाज़ लगाता हुआ

नई चक्करदार गलियों में कोई मोड़

दिखता है बिल्कुल जाना पहचाना

कोई दीवार देखी हुई-सी लगती है

लगता है इस रास्ते पर हम कई दफ़ा चले हैं

 

कोई भीख माँगता बच्चा

लैम्प पोस्ट के नीचे ग्राहक ढूँढती औरत

जेबकतरों जैसी शक्ल के आवारा छोकरे

हर शहर में एक-से लगते हैं

 

छोड़ा हुआ हर पुराना शहर

नए शहर की उदासी जैसा ही लगता है।

 

उपस्थित

जाने से कोई चला नहीं जाता

तुम्हें पता ही नहीं चलता

और वह तुम्हारे साथ रहता है

 

कभी खुशियां में तुम

अचानक आयी उसकी याद में चुप हो जाते हो

उदासियों में तो वह कई दृश्यों में उपस्थित लगता है

 

रेल के डिब्बे में, दवाई की दुकान पर, सिनेमा हॉल में

किसी सड़क, किसी मोड, किसी सिग्नल पर

किसी पार्क के पास से गुजऱते हुए

पेन लाइटर पुस्तक फूल पक्षी पेड़ या बारिश को देख कर

किसी चेहरे पीठ हथेली या मुस्कान को देख कर

कभी सन्नाटे में डूबी दोपहर, ठंडे सूर्यास्त

या अचानक टूटी नींद के बाद

वह याद आता है

 

वह तुम्हारी सभी इंद्रियों में रहता है

तुम्हारी रग-रग में बहता है

और तुम्हें घूँट-घूँट पीता है

 

किसी दु:ख में एक दिन तुम पाते हो

कि वह धीरज बँधाता हुआ

हड्डियों में पर्याप्त कैल्शियम की तरह

तुम्हारे भीतर मौजूद है।

 

 

संपर्क - 58, हनुमान नगर, जाट खेड़़ी, होशंगाबाद रोड,भोपाल,मो- 95425675622, 8319113646

 


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