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अगस्त : 2019

मैं भूत बनकर आऊँगी

ऋचा जैन जिंदल

कविता

 

(चेतावनी एक कन्या की, एक किशोरी की, एक औरत की)

 

सुनो, मैं भूत बनकर आऊँगी

ये जो मैं रोज़ तिल-तिल कर मरती हूँ ना

उससे मैं थोड़ा-थोड़ा भूत बनती हूँ

मुझे यक़ीन है,

मैं जल्द ही पूरा मर जाऊँगी

मैं जल्द ही पूरा बन जाऊँगी

सुनो, मैं भूत बनकर आऊँगी

और तुम्हारी गंदी नज़रों की

रेखाओं को 90 अंश पे झुका कर

तुम्हें तुम्हारा ही गंदा-घिनौना

रूप दिखाऊँगी

ये मत समझना,

कि मैं पीपल में लटकी रहूँगी

या शमशान में भटकती रहूँगी

मैं पानी की टपरी में तुम्हारे बाजू में

खड़े होकर अपने होंठ लाल करूँगी

मैं भूत बनकर आऊँगी

मैं रात को बारह बजे मोमबत्ती लिए

वीराने में नहीं भटकूँगी

मैं बाइक पे आऊँगी

और जब तुम अपनी मर्दानगी के

नशे में चूर पब से बाहर निकलोगे

तो ज़ोर की एक लात मारकर

तुम्हें चारों खाने चित्त कर दूँगी

मैं, मैं भूत बनकर आऊँगी

मैं अपने लम्बे नाखूनों की

धार तेज़ कर रही हूँ

तंग गलियों में जब तुम्हारे

हाथ इधर-उधर बढ़ेंगे

तो अपने तेज़ नाख़ूनों से

तुम्हारी कलाई की नस काट दूँगी

तुम्हारा जो ख़ौफ़  है ना,

उससे भी ख़ौफ़ नाक भूत बनकर

सिर्फ तुम्हारे लिए

मैं भूत बनकर आऊँगी

तुम्हें क्या लगता है,

मुझे गर्भ से गिरवा दिया तो

मैं चली जाऊँगी

नहीं, मैं भूत बन जाऊँगी

तुम्हें तुमसे ही डराने के लिए

तुम्हारे वीर्य में जाकर बस जाऊँगी

मैं भूत बनकर आऊँगी

ये भी मत समझना,

सदियाँ लगेंगीं मुझे भूत बनने में

और मेरी ज़िंदगी नरक बना के

तुम अपनी ज़िंदगी आराम से जी लोगे

'डारविंस थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन’

तो पता होगा ना

मैं इवॉल्व हो जाऊँगी

मैं इवॉल्व हो रही हूँ

मेरे मानस की रीढ़ भी अब सीधी हो रही है

मैं और मेरा भूत,

अब साथ साथ बढ़ रहे हैं

लो, मैं भूत बन भी गयी

जीता जागता भूत

ख़बरदार...

 

आतंकवाद

 

छिपकली हूँ मैं, मेरा काम है दुम गिराना

और दुम गिरा के भाग जाना

मैं रोशनी पर नज़र रखता हूँ

रोशनी के लिए नहीं,

शिकार के लिए

कीट-पतंग बेसुध होके नाचते हैं

और मेरा काम आसान हो जाता है

कई तरह की होती हैं ये रोशनियाँ

हर रोशनी का अपना अलग शिकार

हर शिकार का अपना अलग मज़ा

 

पार्क की रोशनी

व्यस्त सड़क की रोशनी

कैफ़े की रोशनी

स्कूल की रोशनी

मंदिर की रोशनी

मस्जिद की रोशनी

बस की रोशनी

ट्रेन की रोशनी

 

रोशनी ही रोशनी

इतनी रौनक, इतनी रोशनी

बस-बस

यही तो मुझे बर्दाश्त नहीं

यही तो मुझे देखा नहीं जाता

लेकिन तुम कीड़े मकोड़ों

को ये बात समझ ही नहीं आती

 

आना पड़ता है मुझको बरबस

चुन-चुन के सबको खाने

और बस मैं आ जाता हूँ

शिकार करके भाग जाता हूँ

तुम दुम पकड़ते हो,

मैं दुम गिरा देता हूँ

तुम समझते हो मैं मर गया।

छिपकली हूँ मैं

मेरा काम है दुम गिराना,

गिरा के नई उगाना

 

तुम नहीं समझते

 

कुछ समझते हो?

ज़ेबरा की धारियाँ जाँघों पर

पीठ पर तेंदुए के धब्बे

ठुड्डी पर भालू के बाल

दिमाग़ में सींग

और बंदर की फ़ितरत लिए

चिडिय़ाघर हूँ मैं, एक चिडिय़ाघर में

 

तुमको लगता है, आदम हूँ?

कुछ समझते हो?

 

उलझा हुआ

जाल बुनता हुआ - मकड़ा

फँसा हुआ, हताश, निराश

अपने जाल में

अपना ही शिकार

 

तुम्हें लगा, दिमाग है मेरे पास!

कुछ समझते हो?

 

लिपता-पुतता,

झुलसता-छिलता

छिपता-उभरता

सँवरता-बिखरता

रंग हूँ मैं, बस एक रंग

तीन में से एक-

ब्लैक, ब्राउन या व्हाइट

 

क्या, तुम्हें लाग, हाड़-माँस हूँ!

कुछ समझते हो?

 

ख़ुद को ही खा जाने वाला

एक तनावग्रस्त साँप हूँ

 

अरे ओ ऊपर वाले, कुछ समझते हो?

 

 

ऋचा जैन हिन्दी-अंग्रेज़ी में समान रूप से लिखती हैं। लंदन में रहती हैं। उनकी कविताएं पहल में पहली बार।

 


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