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अगस्त : 2019

कहानी संरचना के प्रश्न और इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कहानी

शशिभूषण मिश्र

मूल्यांकन

 

हिन्दी कहानी की इक्कीसवीं सदी

संजीव कुमार

 

कथा-युक्तियों के सवाल को संजीदगी से उठाने और कहानी को महज 'युगीन प्रश्नों पर कहानीकार के स्टैंड के रूप में पढऩे-आंकने’ के प्रचलित सरलीकरण के बरक्स मुखामुखम रहने की मुद्रा आलोचक संजीव कुमार को नयी पहचान देती है। कहानी-आलोचना पर प्रकाशित उनकी नवीनतम पुस्तक 'हिन्दी कहानी की इक्कीसवीं सदी पाठ के पास:पाठ से परे’ इस प्रस्तावना के रूप में देखी जानी चाहिए कि कहानी को कैसे पढ़ा जाए! अच्छी कहानी में अच्छा क्या होता है और उसे समझने के कौन से तरीके हो सकते हैं, इसका कोई निश्चित पैमाना नहीं बनाया जा सकता पर कहानी की संरचना और उसके मूल्यांकन की पद्धति पर नए तरह से विचार तो किया ही जा सकता है मसलन, ऐसी कौन सी युक्तियाँ हो सकती हैं जिनसे कहानी के भीतर विशिष्ट प्रभाव पैदा होते हैं, कैसे कोई सम्भवनशील कथा-विचार एक कमजोर कहानी में भी विकसित किया जा सकता है और एक अति-साधारण विचार एक प्रभावशाली कहानी में कैसे ढाला जाता है! आलोचक की इस चिंता से जी नहीं चुराया जा सकता  कि 'कथा के रचना-तंत्र की बारीकियों के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं और शब्दों के अभाव में ऐसी कई बारीकियां हमारे लिए अस्तित्व ही नहीं रखतीं जिनका अर्थ-निर्माण और अर्थ-ग्रहण की दृष्टि से खासा महत्व है। संरचना का प्रश्न निरा ढांचागत प्रश्न नहीं है बल्कि यह सामाजिक-राजनीतिक दृष्टिकोण और उसकी प्रभावशाली-सम्मोहनकारी प्रस्तुति के विश्लेषण से गहरे तक जुड़ा है।’ हंस पत्रिका के 'ख़रामा ख़रामा’ स्तम्भों से लेकर अब तक वह कहानी की आंतरिक कलात्मक सत्ता, एकान्विति बोध और अंतर्दृष्टिपरकता जैसे बेहद जरूरी सवालों से टकराते आए हैं। संजीव कुमार की आलोचना -दृष्टि का सबसे मजबूत पक्ष कथा-संरचना सबंधी उनका संधान है जिसके बल पर वह कहानी मूल्यांकन की पद्धति विकसित करने की दिशा में आगे बढ़ते हैं। वह विचारधारा और भाषा के भारी भरकम बोझ तले दबी आलोचना के समानांतर 'बतरस की उम्मीद और उपस्थिति’ के आलोचक हैं। कहानी के पाठ-विश्लेषण  और अर्थ ग्रहण संबंधी संभावनाओं और सीमाओं पर बहस के लिए आमंत्रित करती 'इपंले’ (संजीव कुमार) की प्रश्नाकुल आलोचना को आपसे साझा करना ही इस आलेख का उद्देश्य है।

इक्कीसवीं सदी की कहानी की भूमिका को इपंले के ही शब्दों में पूछा जाए कि कहानी हमें जो अवलोकन बिंदु मुहैया कराती है वह कितनी तरह का हो सकता है, वह कब, क्यों, कहाँ बदल जाता है और इससे किस तरह की सूचनाओं को उभारा या दबाया जा सकता है? कहानी  में प्रकट या निहित रूप में एक संबोध्य होने के क्या मायने हैं? वो कौन सी हिकमतें हैं जिनसे एक कहानीकार स्थान और काल की छलयोजना बनाता है? इपंले का मानना है कि कहानी की संरचना से नाभिनालबद्ध ऐसे जाने कितने जरूरी आधारों के प्रति हमारी कथा-आलोचना सामान्यत: सजग नहीं है जबकि ये सवाल कहानी के अर्थग्रहण की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण हैं। ऐसे बिंदु पाठ के प्रभाव,सत्ता संरचना के साथ उनके रिश्ते इत्यादि को समझने-समझाने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। जहां ये प्रश्न राजनीतिक न लगकर शुद्ध रूप से 'टेक्नीक’ संबंधी प्रतीत होते हैं, वहाँ भी कथा परंपरा में आए मोड़ों की पहचान करने में इनकी निर्णायक भूमिका हो सकती है। मोड़ों की पहचान चिन्हित  करने के बाद ही उसके समाजशास्त्रीय हिस्से पर बात करने का कोई मतलब है। इपंले की इस आलोचकीय समझ से असहमत होने की गुंजाइश लगभग नहीं है कि 'अगर हम मानते हैं कि कहानियां मनोरंजन के अलावा दुनियाँ को जानने और दुनिया के बारे में बताने का साधन हैं, तो खुद इस साधन को भी बाहर-भीतर जानने की आवश्यकता है। मैंने महसूस किया है कि हमारे बहुसंख्य कहानीकार-आलोचक-पाठक मित्र अपने समय और समाज को लेकर अत्यंत सजग हैं और चाहते हैं कि कहानी पर जब भी लिखा जाए,चर्चा इन्हीं को लेकर हो,पर वे उक्त आवश्यकता को भूल जाते हैं।’ इपंले हमारी आलोचना की दुखती रग पर उंगली रखने से नहीं चूकते कि, 'आलोचक के साथ दिक्कत यह भी है कि वह भाषा और कथा युक्तियों के एक जानकार के रूप में कहानी पर बात करने का सामथ्र्य नहीं रखता। आज का आलोचक यह तो बता पाता है कि कहानी हमारे समय के कितने बड़े सवालों से टकरा रही है, पर यह नहीं बता पाता कि इन सवालों से टकराने वाले अधिक आंकड़ा संपन्न तथा तथ्यपरक विश्लेषणों के रहते एक गल्प को  क्यों पढ़ा जाए? आशय केवल इतना है कि आज की आलोचना का अधिसंख्य, कथा को पढ़े जाने का कारण रेखांकित कर सकने की क्षमता विकसित नहीं कर पायी है। दरअसल यह मामला सिर्फ कला संबंधी तत्वों का नहीं है, गरज ये कि इन पर विचार किए बगैर कहानी के दृष्टिकोण को निर्भ्रान्त रूप में समझना कठिन है।’

किसी रचना की संभावनाओं के निदर्शन के लिए जिस आलोचकीय क्षमता की अपेक्षा की जाती है उसी क्षमता की अपेक्षा रचना की सीमाओं के निर्धारण में भी होती है, किन्तु मैंने अपने व्यक्तिगत अनुभव से यह महसूस किया है कि रचना की तारीफ़  करने  और उसकी अंतर्वस्तु में गुम्फित संभावनाओं को चीन्हने के  बनिस्पत उसकी कमियों और सीमाओं को उभारना ज्यादा मुश्किल और चुनौती भरा कार्य है और आज की हमारी आलोचना इस चुनौती से जी चुराने की आदी हो गयी है। ऐसी बहुसंख्य कहानियाँ लिखी जा रही हैं जिनमें 'विमर्श’ की भरमार है पर कहानीपन लगभग नदारद, तिस पर मुझ जैसे दिशाहीन-चाटुकार समीक्षकों भी भरमार है जो ऐसी रचनाओं के प्रशस्ति पाठ भी  तैयार कर देते हैं और कृति की एक भी कमी रेखांकित नहीं कर पाते और धिक्कार तो उन कथाकारों को जो अपनी कमी की बात पढ़ते-सुनते-देखते ही भिनभिनाने लगते हैं और तत्काल समीक्षक को दो कौड़ी का साबित कर देते हैं। बहरहाल, इपंले के स्वर में अपनी भाषा का घालमेल करके कहूं तो एक 'उम्दा कथा-शिल्प या कथा-कला में विमर्श नहीं, विमर्श के सूत्र पिरोए जाते हैं’। वह एक ऐसा कथा-शास्त्र विकसित किए जाने की जरूरत को रेखांकित करते हैं जिसमें हमारे यहाँ विकसित हुई कथा-आलोचना की मौलिक दृष्टि के साथ बाहर से ली गयी कसौटियों के लिए भी जगह हो। इस क्रम में वह कहानी के पाठ और संरचना को विश्लेषित करने में जेरार्ड जेनेट के 'फ़ोकलाइजेशन’ और पर्सी ल्यूबाक के 'दृष्टिबिन्दु’ संबंधी दृष्टियों का अपनी आलोचकीय निष्पत्तियों में बहुत कुशल और व्यावहारिक प्रयोग किया है। नामवर जी की 'कहानी नयी कहानी’ की स्थापनाओं का ऋण स्वीकार करते हुए वह टिप्पणी करते हैं कि 'कहानी की  संरचना और उसकी सराहना की पद्धति पर इतने सारगर्भित सूत्र इस पुस्तक में मौजूद हैं कि अगर आप कहानियों पर सि$र्फ आजकल लिखे जा रहे लेखों के ही पाठक रहे हैं तो लगभग चकित हो जाएंगे।’ कहानियों  की 'दृष्टि और संवेदना के सामान्यीकरण’ को लेकर अकसर सवाल उठाए जाते रहे हैं कि क्या किसी ख़ास समय की कहानियों को लेकर कोई सामान्यीकृत सूत्र निकाला जा सकता है ! इस सन्दर्भ में इपंले की बात में खासा दम है कि ऐसा सामान्यीकरण करते हुए प्रति-उदाहरणों को लेकर आलोचक को सजग रहना चाहिए और अपने सामान्यीकरण को इस संदेह के साथ जरूर देखा जाना चाहिए कि कहीं उसमें अव्याप्ति या अतिव्याप्ति दोष तो नहीं है। कहीं उसमें बदलाव को चिन्हित करने के बजाए बदलाव की प्रस्तावना का आह्वान तो नहीं है क्योंकि दृष्टि और संवेदना के स्तर पर नए रुझानों की पहचान अक्सर अल्पसंख्यक रचनाओं के आधार पर होती है। इसका दूसरा कारण यह भी है कि आज की कहानी में प्रक्रिया पक्ष की बढ़ी हुई जटिलता और विस्तार के कारण कहानियों का ट्रेंड संक्षेपणीय से असंक्षेपणीय हुआ है।

पाठ-प्रक्रिया का आशय मूलत: इस बात में निहित है कि कहानी को 'सूक्ष्म और सक्रिय’ रूप से पढ़ा जाए। इस सूक्ष्म और सक्रिय पढ़त की माँग का मूल कारण है - कथा की अंतर्मुखता और शिल्प की जटिलता। कहानी की पाठ प्रक्रिया में सजगता,निर्णय-सक्षमता और कला-संवेदना के प्रति जिस क्रियात्मक तत्परता की जरूरत होती है उसे लगातार निबाह पाने में इपंले कितने सफल हुए हैं यह बता पाना मेरे लिए कठिन है; हाँ इतना जरूर कह सकता हूँ कि कथा-आलोचना की इतनी बेहतर समझ वाली पुस्तकें कम हैं और ये भी कि इस आलोचना-कृति के माध्यम से कहानियों के पाठ और अर्थ ग्रहण को लेकर मेरी समझ और विकसित हुई है। इधर के वर्षों में आयी विश्वनाथ त्रिपाठी की 'कहानी के साथ साथ’ शम्भु गुप्त की 'कहानी वस्तु और अंतर्वस्तु’, रोहिणी अग्रवाल की 'हिन्दी कहानी वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग’ राकेश बिहारी की 'केंद्र में कहानी’ ऐसी ही पुस्तकें हैं, जिनका कथा-आलोचना में योगदान असंदिग्ध है। कथा-आलोचना के समकालीन परिदृश्य की बात करें तो कहानी की आलोचना के संरचनागत प्रश्नों से जूझते हुए कथा-आलोचना की पद्धति विकसित करने में संजीव कुमार (इपंले) और शम्भु गुप्त एक पांत के आलोचक माने जा सकते हैं किन्तु दोनों में फ़ र्क यह है कि जहां संजीव कुमार अपनी आलोचना-दृष्टि को विचारधारात्मक मुद्दों और कथानक के संक्षेपीकरण से बरकाते हुए संबोधन शैली में विकसित करते हैं वहीं शम्भु गुप्त विचारधारात्मक मुद्दों में रमते हुए अंतर्वस्तु का  परत दर परत उत्खनन कर चिंतनपरक बिन्दुओं की तरफ बढ़ते हैं। जहां तक रोहिणी अग्रवाल और राकेश बिहारी की आलोचना का सवाल है वहाँ दोनों ही संरचनागत प्रश्नों में खुद को उलझाते नहीं। रोहिणी अग्रवाल कृति के पाठ में गहरे तक धंस कर रचनात्मक साझेपन के साथ उसका अंतर्पाठ बाहर लाती हुई समाजशास्त्रीय आधारों की संभावना तलाशती हैं वही राकेश बिहारी रचना के पाठेतर विकल्पों के साथ कृति से धैर्यपूर्ण संवाद करते हुए निर्णयात्मक दिशा में गतिशील होते हैं। बहरहाल, मुख्य विषय की ओर लौटते हैं और देखते हैं कि इस पुस्तक में इपंले की आलोचना का केन्द्रीय सूत्र क्या है? मेरी समझ से वह सूत्र है - 'अवलोकन बिंदु’। और भी कुछ सूत्र हैं जिनके सहारे उनकी आलोचना-दृष्टि विकसित होती है, उनमें प्रमुख हैं - वाचक की भूमिका, दृश्यात्मक-परिदृश्यात्मक प्रविधि, प्रक्रियाधर्मी शिल्प, कहन-अंकन आदि। इपंले का पूछना है कि 'मूल्य-निर्णय करना ही आपको आलोचना का काम क्यों लगता है? क्या सतह और तह की संरचना में उतरकर समय के साथ आए बदलावों को समझने की सूरत निकालना आलोचना का काम नहीं है? हर विधा में समय के साथ बदलाव आते हैं; उन बदलावों का अध्ययन आलोचना का जरूरी काम है और इस अध्ययन का मतलब यह कहीं से नहीं है कि बदलाव के पहले या बाद की स्थितियों में से अनिवार्यत: किसी एक को दूसरे के मुकाबले बेहतर ठहराया जाए? संरचनात्मक धरातल पर ऐसे मोड़ बिंदु जिन रचनाओं में प्रकट होते हैं अर्थात जिनसे बदलाव की शुरुआत होती दिखाई पड़ती है वे 'बड़ी’ रचना कहे जाने की योग्यता अर्जित कर लेती हैं।’ इस सन्दर्भ को आगे बढ़ाते हुए इपंले ने मनोज पाण्डेय की कहानी 'पानी’, पंकज मित्र की 'सेंदरा’ और चन्दन पाण्डेय की 'भूलना’ को आधार बनाकर कथा की संरचना को लेकर कई जरूरी बिन्दुओं को उभारने की कोशिश की है। 'पानी’ प्रकृति के साथ मनुष्य के रिश्ते और उस रिश्ते के बिगडऩे की एक ऐसी कथा है कि पढ़कर आप जब उससे बाहर निकलने के साथ अपने परिवेश में वापस लौटते हैं तब 'उस रिश्ते और उसे बिगाडऩे वाली ताकतों’ के प्रति अपनी दृष्टि को और भेदक पाते हैं। 'इससे कोई फ़ र्क नहीं पड़ता कि यथार्थवाद के रूपात्मक और प्राविधिक मानदंड उसे किस रूप में देखते हैं। ऐसी कहानी इन मानदंडों के आधार पर सत्यापनीयता की कसौटी पर खरी उतरे, यह भी बिलकुल जरूरी नहीं।’ पूरी कहानी परिदृश्यात्मक प्रविधि में घटनाओं और स्थितियों को बयान की तरह दर्ज करती है। यह एक ऐसे कथा-कौशल का नमूना है जिसमें कथाकार पाठक को एक ऐसे अवलोकन बिंदु पर खड़ा कर देता है जहां से सारी चीजें स्पष्ट दिखने लगती हैं। इपंले इस जरूरी बिंदु की ओर भी हमारा ध्यान खीचते हैं कि कोई भी कहानी 'दुनिया को देखने की जो निगाह हमें सौंपती है उसकी अपनी अन्धताएं क्या हैं’? अगले क्रम में वह 'भूलना’ कहानी के मार्फत 'कथा के संक्षेपीकरण’ की कठिनाइयों को उजागर करते हैं। 'भूलना’ कहानी  'प्रक्रिया पक्ष और प्रस्तुतीकरण के सापेक्षिक महत्व’ का एक ऐसा प्रारूपिक उदहारण है जिसके द्वारा हम समझने की कोशिश कर सकते हैं कि कहानी को संक्षेप में कहना अब कितना मुश्किल है! आज के कहानीकारों में 'प्रक्रिया पक्ष की बढ़ती दिलचस्पी’ संभवत: सबसे अधिक है। 'इस पीढ़ी का कहानीकार किसी भी घटना को अनेक कोणों से खंगालना चाहता है और कथा में कई तरह के प्रक्षेप-पथ चुनता है। वह कहानी विधा के शास्त्रीय आग्रह के अनुरूप किसी एक ठिकाने पर वार करके संतुष्ट नहीं होता और व्यौरों-विवरणों के मामले में जरूरत भर कह कर काम चलाने को बिलकुल तैयार नहीं बल्कि, यों कहें कि जरूरत को लेकर उसकी समझ पहले के कहानीकारों से आमूलत: भिन्न है। वह सूचना और संचार माध्यमों से जिस तरहां घिरा हुआ है उसके प्रति यह उसकी स्वाभाविक अनुक्रिया है। जिन कहानियों ने आगे बढ़कर इस सदी की कहानियों की पहचान गढ़ी है या यों कहिए कि पाठक आलोचक के रूप में हमने इस सदी में आई जिन कहानियों के दीर्घायु होने की संभावना पर मुहर लगाई है उनमें प्रक्रिया पक्ष और प्रस्तुतीकरण का सापेक्षिक महत्व इतना बढ़ गया है कि उन्हें संक्षेप में कहना पहले के किसी दौर की कहानियों की तुलना के मुकाबले कठिन है।’ इपंले कहानी को समझने का एक समीकरण प्रस्तावित करते हैं - कहानी= क1 + क2 +ख, जहां 'क’ कथावस्तु है जिसमें परिणति और प्रक्रिया के रूप में दो पक्ष (क1 + क2) मौज़ूद हैं और 'ख’ प्रस्तुतीकरण है। इस क्रम में वह कहानी की। श्रेणियां बनाते हैं जो निम्न हैं -

कहानी 1 = क1  + क2 + ख

कहानी 2 = क1  + क2 + ख

कहानी 3 = क1  + क2 + ख

कहानी 4 = क1  + क2 + ख

कहानी 5 = क1  + क2 + ख

कहानी 6 = क1  + क2 + ख

कहानी 7 = क1  + क2 + ख

'इसमें सिर्फ कहानी 7 ऐसी श्रेणी है जिसमें सापेक्षिकता का मामला नहीं बनता। इसमें तीनों पक्ष समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। बाक़ी सभी रेखांकित अंश ऐसे हैं जो अरेखांकित अंशों के मुक़ाबले अधिक महत्वपूर्ण हैं और कहानी की प्रतिष्ठा का आधार हैं। कारण सिर्फ यह नहीं है कि संरचना में बदलाव लाकर लेखक ने विशुद्ध कला के स्तर पर अपने को नवोन्मेषशाली साबित कर दिया है। ज्यादा बड़ा कारण यह है कि संरचना का बदलाव यथार्थ के प्रति बदली हुई अनुक्रिया का और उसे आयत्त करने के विगत प्रयासों के मुक़ाबले अलग तरह के प्रयास का प्रमाण है। स्वयं यह बदली हुई अनुक्रिया और अलग तरह का प्रयास यथार्थ में आए किसी गहरे बदलाव की सूचना देता है और इस तरह रचनाकार की अग्रगामी संवेदनशीलता का प्रमाण बन जाता है। इसी अर्थ में किसी रचना में  संरचनात्मक धरातल पर आए बदलाव का प्रतिनिधि उदाहरण है और उससे भी अधिक 'अगुआ उदाहरण बताना’ एक गुणवत्ता-संबंधी वक्तव्य है।’ इपंले ने आगे बहुत सी जरूरी बातें की हैं जिसका विस्तार यहाँ संभव नहीं है,अगर आप इन जरूरी बिन्दुओं को  विस्तार से पढऩा चाहते हैं तो किताब की शरण में जाने से बेहतर कुछ नहीं है।

इपंले कहानी में यथार्थ संबंधी अपनी मान्यता को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि कोई कहानीकार जिस हद तक कथा-संरचना या यथार्थ के सरलीकृत दबावों का प्रतिरोध कर पाएगा, उसी हद तक कहानीकार के रूप में पाठक संसार से एक नया रिश्ता बना पाएगा। कहानी के महत्वपूर्ण आलोचक शम्भु गुप्त की इस मान्यता को अगर इपंले  की मान्यता में समायोजित कर दिया जाए तो शायद कथा की इपंलेई मान्यता और व्यापक हो सकती है कि 'किसी भी सार्थक रचना में  यथार्थ-चेतना के साथ प्रश्नाकुलता का होना भी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यही प्रश्नाकुलता अपने समय का अतिक्रमण करते हुए नए मूल्यों की स्थापना में अपना योगदान दे पाती है। कहानी चूंकि इतिवृत्त नहीं है, एक कला रचना भी है अत: मानवीय दीप्ति का होना उसमें स्वाभाविक और अपेक्ष्य है। यह कला संभावना की एक उच्चतर स्थिति है और कला सम्प्रेषण का प्राण तत्व भी। यथार्थ का अतिक्रमण कर चुकने की स्थिति में  ही कोई रचना मूल्य या मानदंडों की स्थापना की स्थिति को प्राप्त  होती है।’ (कहानी वस्तु और अंतर्वस्तु, पृष्ठ 84) इस सन्दर्भ में उन तीन उल्लेखनीय कहानियों का ज़िक्र जरूरी होगा जिनकी इपंले ने जमकर सराहना की है। इन तीन कहानियों में अनिल यादव की 'दंगा भेजियो मौला!’ पंकज मित्र की 'सेंदरा’ और देवेन्द्र की 'नालंदा पर गिद्ध’ हैं। कथा-संधियों में गहरे धंसकर इपंले 'दंगा भेजियो मौला! को 'महान भारतीय राष्ट्र-राज्य के भीतर एक पराये राष्ट्र की तरह बरते जाने वाले मुहल्ले मोमिनपुरा’ को एक प्रतीक के रूप में उभारने वाली कहानी के रूप में; 'सेंदरा’ को राष्ट्र-राज्य और उसकी मशीनरी के साथ आदिवासियों के साथ बरते जाने वाले अमानवीय सिलसिलों की हकीक़त के रूप में और 'नालंदा पर गिद्ध’ को दुरभसंधियों और जातिवादी  मानसिकता के बजबजाते परिसर के सच को उघाडऩे वाली कहानी के रूप में देखते हैं। 'दंगा भेजियो मौला!’ में मोमिनपुरा  मुहल्ला अपनी बदहाली के लिए घृणा, उपेक्षा और उपहास का विषय क्यों है, इसे बतलाने की नहीं समझने की जरूरत है कि किस तरह भारतीय समाज में साम्प्रदायिक मिज़ाज का विस्तार हुआ है और राज्यतंत्र भी इसी कारण मोमिनपुरा की बदहाली को कम करने के लिए आगे नहीं आता, अलबत्ता बढ़ाने के लिए आता है। 'सेंदरा’ में ठीक यही हाल आदिवासियों का है जिसमें सत्ता और पुलिस के संगठित उत्पीडऩ से आजिज आकर कहानी का मुख्य पात्र सोमरा अंतत: माओवादियों के समूह में शामिल हो जाता है। पंकज मित्र के यहाँ राज्य के हाथो  दुश्मन सा बर्ताव झेलते आदिवासी जीवन की विवशता है तो अनिल यादव के यहाँ 'बिना असलहे और बिना शोर-शराबे के चलता दंगा’। आलोचक  का मानना है इतनी विचलित कर देनेवाली और इतने बड़े फलक पर अपनी रोशनी फैलाने वाली कहानियां पिछले सालों में गिनती की लिखी गई होंगी। 'भारत के उदारीकरण के साथ-साथ राज्य की मशीनरी से लेकर जनता के एक बड़े हिस्से का जो सांप्रदायीकरण हुआ है, या कहें कि इन सभी ठिकानों पर दबे पड़े बहुसंख्यावादी सांप्रदायिक विष-बीज को जिस तरह पनपने, फूलने-फलने का मौक़ा मिला है उसे गहरी चिंता के साथ अनिल ने कथा में ढाला है।’ 'सेंदरा’ के बारे में इपंले की स्थापना है कि 'यह वर्ग समाज में विशिष्ट वर्गीय हितों के रक्षक राज्यतंत्र द्वारा आदिवासी समुदाय के आखेट की कथा है जिसे पाठक तक पहुंचाने में जिन विवरणों और प्रेक्षणों का प्रयोग  किया गया है उससे कहानी का प्रक्रिया पक्ष इतना समृद्ध हुआ है कि उसके संक्षेपण की कोई भी कोशिश नाकाफी साबित होगी।’ कथा का परिणति पक्ष कहानी का सार नहीं है क्योंकि वहाँ कहानी की ताकत का वह बहुलांश छूट गया है जो इसके प्रक्रिया पक्ष के सघन रचाव में हैं। इपंले की टेक है कि, 'कहानी की रोचकता 'अंत की जिज्ञासा’ से नहीं बल्कि सफ़ र के दौरान मिलनेवाली तृप्ति/अर्थवत्ता से तय होती है। देवेन्द्र को कथा के 'प्रक्रिया-पक्ष और कहन की वापसी’ का कथाकार मानते हुए, स्थितियों में निहित विडंबना और पात्रों की भंगिमा का वैचित्र्य-वैशिष्ट्य उभारने की क्षमता के साथ कथा-भाषा पर उनके असाधारण अधिकार की आलोचक की सराहना मिली है।

बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक तक आते आते हिन्दी कहानी को उदय प्रकाश और शिवमूर्ति ने जिस प्रस्थान बिंदु पर लाकर खड़ा किया वह अभूतपूर्व है। उदय ने जहां टेपचू,वारेन हेस्टिंग्ज का सांड, पाल गोमरा का स्कूटर, मेंगोलिस, और अंत में प्रार्थना,  तिरिछ, छप्पन तोले की करधन, पीली छतरी वाली लड़की जैसी कहानियाँ सिरज कर हिन्दी कथा को नया मोड़  दिया वहीं शिवमूर्ति ने केशर कस्तूरी, तिरिया चरित्तर, बनाना रिपब्लिक, अकालदंड, कसाईबाड़ा, सिरी उपमा जोग, भारतनाट्यम, ओ ख्वाजा ओ पीर जैसी कहानियों से अपार लोकप्रियता अर्जित की। इन दोनों कहानीकारों की दो ऐसी कहानियों पर इपंले ने बहस को नए सिरे से बढ़ाया है जिन्हें शायद नयी सदी की सबसे चर्चित और विवादित कहानियों में शुमार किया जा सकता है। इनमें एक तरफ उदय प्रकाश की 'मोहनदास’ है तो दूसरी तरफ है शिवमूर्ति की 'कुच्ची का कानून’। ये दोनों कहानियां अपनी स्थापनाओं, मूल्यबोध को लेकर जितनी बहसतलब हैं उससे कहीं अधिक प्रस्तुति और संरचना को लेकर। इनके विश्लेषण क्रम से पहले इपंले के उन सवालों को नत्थी कर दूं जिनके प्रकाश में उनकी स्थापनाओं को समझने में मदद मिलेगी - 'क्या कहानी के बाहर की जो दुनिया है, उसके हवाले से किसी कथा-स्थिति को असंभव बताकर कहानी को ख़ारिज किया जा सकता है? क्या यथार्थवाद के सतही संस्करण से कहानी का मूल्यांकन किया जा सकता है? कहानी यथार्थ के नियमों में आबद्ध रहकर भी क्या ऐसी स्थितियों को नहीं दिखा सकती जो आज की दुनिया में भले ही सतह पर न आई हों पर जिसके पैदा होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता - बशर्ते कथा के भीतर वे बदलाव या नयी परिस्थितियाँ यथार्थ के नियमों की धज्जियां न उड़ाते हों।’ तो पहले बात 'कुच्ची का  कानून’ की; जिसके बारे में इपंले लिखते हैं कि 'कुच्ची के कानून पर जिस नुक्ते को लेकर ज्यादा बात होनी चाहिए थी - वह है कोख़ के अधिकार की लड़ाई में छिपी पुत्र लालसा। कुच्ची को बेटा चाहिए, यह बात कहानी में प्रकट स्त्रीवादी रुझान से ठीक उलट है और कहानी मुखर रूप से जो सन्देश देना चाहती है उससे इस पुत्रेषणा का अंतर्विरोध बहुत साफ़  है।’ इपंले की इस स्थापना से मेरी असहमति है कि 'कुच्ची का कानून’ एक 'मर्दाना प्रस्तुति की कहानी’ है; दूसरी बात - अगर संतान के रूप में कुच्ची पुत्र की माँग न करती तो किसकी मांग करती? यहाँ 'इच्छा’ और 'जरूरत’ के अंतर को समझना होगा। जब कुच्ची का पति जीवित था तब उसकी 'इच्छा’ थी कि बेटी हो पर पति की मौत के बाद उसे विवशता वश इस  'इच्छा’ को स्थगित कर 'जरूरत’ को चुनना पड़ा। यदि उसे बनवारी जैसे जाहिल मरदों से लाठी-डंडे वाली लड़ाई लडऩी है तो ऐसे में कौन औरत चाहेगी कि उसकी पुत्री हो? वह जिस वर्ग समाज का वह हिस्सा है और जिस तरह के संकटों से चौतरफा घिरी है उसमें पुत्री की मांग क्या संभव है? कुच्ची के गर्भधारण प्रसंग को लेकर इपंले  दिखाते हैं कि 'कहानीकार ने उन क्षणों का वर्णन करने से बिलकुल परहेज बरता है जब विधवा कुच्ची ने किसी मर्द से संसर्ग से गर्भधारण किया। उनके लिए कुच्ची की यौनिकता का, सुख के लिए किए गए रति कर्म का और इस तरह अपने शरीर पर अपने अधिकार के उत्सव मनाने का कोई मतलब नहीं है। कहानीकार की गढ़ी हुई कुच्ची ने जो किया है वह यौन क्रिया का निहायत उपयोगितवादी अमल है। शिवमूर्ति की स्त्री पक्षधरता अंतत: एक सदय सहानुभूतिशील 'पुरुष’ के सामान्य बोध की दुर्निवार सीमाओं में आबद्ध, सदाशयी विचार है।’ यहाँ भी इपंले से सहमत होने की गुंजाइश कम है क्योंकि यह कहानी से अतिरिक्त मांग है। दरअसल कहानी का यह उद्देश्य भी नहीं है कि वह काम सुख का वर्णन करे। इपंले के आलोचक का सितम तो देखिए कि एक ओर जहां वह मनोज कुमार पाण्डेय की गाँव आधारित कथा 'पानी’ (कहानी में जाहिर है कि ठाकुरों के कुओं से क्या मजाल कि कोई निम्न जाति का व्यक्ति पानी भर ले), का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि 'हर जगह जाति-आधारित उत्पीडऩ की खोज कहाँ तक उचित है? अगर कहानी का विषय कुछ और है तो कहानीकार से यह अपेक्षा क्यों की जाए कि इस पक्ष की ओर उसका ध्यान जाए ही? निश्चित रूप से, अगर कहानी का विषय कुछ और है तो न कहानीकार से यह अपेक्षा की जानी चाहिए और न ही आलोचक को इसकी इजाजत दी जानी चाहिए कि वे जबरन जाति के प्रश्न को घसीट लाएं।’ तो अब इपंले से मेरा सवाल है कि जब कहानी का उद्देश्य कुछ और है तो  'कुच्ची की यौनिकता’ के प्रसंग को जबरन क्यों घसीटा जाए और क्यों लेखक से अपेक्षा की जाए कि वह 'कुच्ची के गर्भधारण में यौन सुख’ का उल्लेख करे?

अब बात 'मोहन दास’ की। इपंले उदय प्रकाश को 'विधा की प्रकृति, परास और मार-क्षमता को बदल देने वाले एक मोड़ - बिंदु की तरह देखते हैं।  'मोहन दास’  को पढ़ते हुए आप महसूस करते हैं कि कहानीकार ने आपको एक ऐसे अवलोकन-बिंदु पर खड़ा कर दिया है जहाँ से आप किसी खंड को नहीं, अपने पूरे समय के सार को देख पा रहे हैं।’ वह आगे लिखते हैं कि 'उदय प्रकाश की इस युक्ति में खास क्या है? अगर वे 'टेपचू’, 'थर्ड डिग्री’, 'और अंत में प्रार्थना’, इन सारी कहानियों में सच की ऐसी दावेदारी पहले से करते ही आए हैं - 'तो 'मोहन दास’ में उसका दुहराव भर क्यों न माना जाए? इसलिए नहीं माना जाए कि उन कहानियों में सच की दावेदारी कथात्मक संसार के भीतर से आती थी। 'मोहन दास’ में वह एक ऐसी जगह से आ रही है जिसे कथात्मक संसार की अंतरंग जगह नहीं कह सकते। अव्वल तो इसलिए नहीं कह सकते कि इस जगह को जान-बूझकर कथा के मुख्य प्रवाह से निकाल कर गढ़ा गया है। उदय की कहानियों में बहुत पहले से आत्मसजग वाचक (सेल्फकॉन्शस नैरेटर) मिलता रहा है। ऐसा वाचक सर्वज्ञ-सर्वव्यापी होते हुए भी अक्सर 'मैं’ शैली में बातें करने लगता है और कई बार तो इस तरह की बहस भी छेड़ बैठता है कि कहानी कैसी है, कैसी होनी चाहिए, कैसी हो सकती थी इत्यादि’ यह कथात्मक संसार को गढऩे की शास्त्रीय शर्तों की  ऐसी अवहेलना है जिसे बहुतों ने एक युक्ति की तरह इस्तेमाल किया है, पर इस अवहेलना का अगला कदम उदय प्रकाश की 'मैंगोसिल’ और 'दिल्ली की दीवार’ जैसी कहानियों में मिलना शुरू होता है। हिंदी की दुनिया में अपने साथ हुए अन्यायों, दिल्ली से बाहर गाजियाबाद में विस्थापन, नौकरी से वंचित अपने जीवन के असुरक्षा-बोध, फ्रीलांसिंग का संघर्ष, बोन टीबी आदि-आदि का जिक्र करते हुए वे इन कहानियों में कहानीकार और वाचक का अभेद कायम कर देते हैं लेकिन समस्या घटनाक्रम की प्रस्तुति, यानी घटनाओं के कहानी बनने की प्रक्रिया में है।’ इपंले का मत है कि  'मोहन दास एक भाषणबाज कहानी है। इतना ज्यादा बोलने वाली कहानी हिंदी में दूसरी नहीं है। यह-ऐसा-समय-था-जब-वाली शैली उदय की कहानियों में पहले भी आई है, पर तब उसका अनुपात-बोध बहुत सधा हुआ होता था। यहाँ आकर वह बिल्कुल अनुपातविहीन हो गई है। उनकी कहानियाँ निबंध और भाषण जैसी विधाओं का बेहतरीन इस्तेमाल कर लेती थीं लेकिन  'मोहन दास’ पढ़ते हुए लगता है कि कहानी इस्तेमाल करने के बजाय इस्तेमाल हो रही है।’ इपंले इसे रेखांकित करना जरूरी समझता है कि कोष्ठकों में बहुत ज्यादा बोलने की झख न होती तो कहानी/कहानीकार के नजरिए में यह रुग्णता भी न दिखती। कहानियाँ अपने स्वभाव से ही मुक्तमुखी होती हैं, उनमें कई तरह से पढ़े जाने की संभावना होती है, बशर्ते कहानी के अंदर ही निबंध लिख कर कहानीकार उसके पढ़े जाने की दिशा निर्धारित न कर दे। उदय यही करते हैं और इस प्रकार हमें उक्त सर्व-अस्वीकार मुद्रा की अनदेखी कर पाने के लायक नहीं छोड़ते। इपंले की रायशुमारी है कि हमें कृति की पर्याप्तता,उसके आदर्श सामंजस्य के मुकाबले सुस्पष्ट अपर्याप्तता; उस अपूर्णता को जरूर उभारना चाहिए जो वस्तुत: कृति को आकार देती है।

'प्रेम और पातिव्रत्य’ शीर्षक के बहाने इपंले ने नीलाक्षी सिंह की कहानी 'रंग महल में नाची राधा’ और वंदना राग की 'शहादत तथा अतिक्रमण’ पर चर्चा की है। 'रंगमहल में नाची राधा’ में वह दिखाते हैं कि पातिव्रत्य और  पारिवारिक जिम्मेदारियों के बोझ को झटककर 'प्रेम’ जीवन के किसी भी चरण में एक बड़े निर्णय का कारण बन सकता है; सामाजिक नियम और व्यक्तिगत आजादी क बीच का द्वंद्व कहीं किसी मुकाम पर बहुत साहसिक तरी$के से आजादी के पक्ष में भी हल हो सकता है। 'शहादत और अतिक्रमण’ को वह राष्ट्रवाद, जाति-श्रेष्ठता और स्त्री शुचिता के प्रचलित आख्यानों के प्रतिपक्ष की कहानी के रूप में रेखांकित करते हैं। 'प्रेम के पक्ष में लिए गए स्त्री के साहसिक फैसले’ पर केन्द्रित इन कहानियों में नीलाक्षी जहां रचनात्मक भाषा और सधी हुई किस्सागोई शैली के लिए पहचानी जाएँगी वहीं वंदना राग कथा-स्थितियों की संप्रेषणीयता और वर्णन कौशल के लिए। इपंले का अभिमत है कि नीलाक्षी की मुख्य पात्र 'दीवानबाई जीवन के निर्णायक क्षणों में अचानक अतिशय भावुकता का शिकार हो जाती है, जोकि संभवत: दीवानबाई के निर्णय का औचित्य स्थापित करने और पाठक को उसके प्रति सकारात्मक बनाने के प्रयास में हुआ है।’ कहानी में आलोचकीय नजरिए के अनुसार 'दीवानबाई की अतिशय भावुकता का शिकार हो जाने’ के प्रतिपक्ष में मेरा सिर्फ इतना कहना है कि दीवानबाई अतिशय भावुकता का शिकार नहीं हुई है बल्कि अतिशय भावुकता के कारण ही वह पारिवारिक मर्यादा की लक्ष्मण रेखा को पार कर पायी है। कहीं न कहीं यही भावुकता उसके निर्णय का आधार बनती है। इपंले का मानना है कि 'कथा वाचक’ कथा के बहाव में कई बार हस्तक्षेप करता है और ऐसा लगता है कि कहानी को जबरन एक ऐसी आवेगपूर्ण रूमानियत में धकेला जा रहा है जिससे पात्र के अंतिम निर्णय का औचित्य स्थापित हो जाए जबकि होता यह है कि कहानी निर्जीव और सजीव का भेद भुला देने वाले अविवेक के हवाले हो जाती है और पाठक को दीवानबाई के पक्ष में लाने के लिए जैसा विश्वसनीय आधार तैयार होना चाहिए था, उसमें फांक आ जाती है। जबकि वंदना राग के सन्दर्भ में उनकी मान्यता है कि उनकी कहानी में न तो प्रेम का महिमामंडन है और न ही उस महिमामंडन का साधक बनने वाले भावुक रोमानी वर्णन। अपने पात्रों के अवलोकन बिंदु पर ही खुद को सख्ती से टिकाए रखने के कारण और वाचक की मुखरता के बगैर ही कहानी यह बताने में कामयाब रहती है कि मुन्नी सिंह के भीतर की गांठें, जितनी असंतुष्ट कामना की हैं, उतना ही 'शहीद की विधवा’ के रूप में बड़ी जिम्मेदारी से रहने के दबाव की भी।

'मुबाइल का चस्का और हिन्दी कहानी’ शीर्षक से राकेश तिवारी की 'कठपुतली थक गयी’, अवधेश प्रीत की 'चाँद के पार एक चाभी’ और टेकचंद की 'घड़ीसाज’ को इपंले ने भारतीय समाज में मोबाइल फोन की मौजूदगी को समान अवलोकन बिंदु से देखने वाली कहानियों के रूप में विश्लेषित करते हुए कथा-सरंचना के सूत्रों की पड़ताल की है। 'कठपुतली थक गयी’ के लिए इपंले की समझाईश है कि 'नए कहानीकार को यह एक सबक की तरह पढऩी चाहिए क्योंकि  पूरी कहानी में वाचक की ओर से केवल एक बार टिप्पणी आई है। यही कमाल का संयम है; कहानी की व्यंजना शक्ति पर लेखक को जिस तरह भरोसा है वह किसी भी नए कहानीकार के लिए सीखने की चीज है। ऐसा नहीं है कि वाचक के मुखर होने से कहानी अनिवार्यत: कमजोर कोटि की होगी बल्कि मुखर वाचक वाली कहानी अगर सन्देश को सुगम बनाने के लिए कटिबद्ध न हो तो एक अलग तरह का प्रभाव रचने का काम करती है; पर यह कला इन दिनों भेड़ चाल सी बन गयी है।’ अवधेश प्रीत की 'चाँद के पार एक चाभी’ और टेकचंद की 'घड़ीसाज’ को  वह उन कहानियों में शुमार करते हैं  जो अपने रचनात्मक उद्यम से आपको देखने के ढंग की ताईद करती हैं साथ ही आपकी निगाह में आनेवाली ढेर सारी चीजों के बीच से एक ख़ास चीज को उभारकर ले आती है। उनका मानना है कि वर्णन शैली, संवाद और चरित्रों को जीवंत करने की कला में परिपक्व इन दोनों कहानियों में मोबाईल की मौजूदगी को ठीक उसी तरह देखते नहीं रह सकते जैसे पहले से देखते आए थे। एक ओर अवधेश प्रीत जहाँ टेक्नोलॉजी और बाजार की मुक्तिकारी भूमिका को रेखांकित करते हुए प्रौद्योगिकी के विकास के सकारात्मक पक्ष को भी दिखाते हैं वहीं दूसरी ओर टेकचंद बाजार और दलित पात्र की नियति के साथ प्रौद्योगिकी की दौड़ में पीछे छूटते लोगों की ओर एक हमदर्द निगाह से देखने का नजरिया देते हैं, पर टेकचंद के टोन और कहानी के समग्र प्रभाव को लेकर इपंले को कुछ दिक्कतें हैं; मसलन 'नए बदलावों के प्रति एक सिनिकल किस्म की विरक्ति। क्या मोबाईल या किसी भी तकनीकी अग्रगति का कुल सामाजिक प्रभाव ऐसा ही है जो कहानीकार दिखा रहा है? यह अबाध पतनशीलता के मुहावरे का दुहराव भर है जिसने हिन्दी कहानी की एक बहुप्रचलित संरचना को जन्म दिया है। ऐसी प्रचलित संरचनाएं नए कहानीकारों पर अपना दबाव बनाती हैं और जब वे अपनी तईं इस बात को लेकर आश्वस्त रहते हैं कि ये 'यथार्थ’ का बयान कर रहे हैं, दरअसल तब वे प्रदत्त संरचना को दुहरा रहे होते हैं। कथानकोचित या कथानकोपयोगी सामाजिक यथार्थ उन्हें पहले से एक संरचना की मध्यस्थता से ही प्राप्त हो रहा है जिसका परिणाम यह होता है कि कहानीकार बहुत सारी चीजों को देखकर भी न देखने की पाबंदी अपने ऊपर लगा लेता है। अगर वह इस पाबंदी को तोड़ पाता तो उसे फैलता हुआ बाजार और रिचार्ज कूपन बेचती दुकानें और कानों में मोबाईल लगा तेजी से आते जाते लोग सिर्फ 'लांग-शार्ट’ में दिखाई नहीं देते शयद उसे 'क्लोज अप’ में नज़र आता कि धनपत और गुलारी के कई वर्ग बंधुओं के सामने रोजगार की नयी संभावनाएं खुल गयी हैं। प्लंबर और इलेक्ट्रीशियन जैसे कई छोटे धंधे करने वालों को अपनी जेब में ही एक दफ्तर हासिल हो गया है जहां काम लेने के इच्छुक लोग उनसे सम्पर्क कर सकते हैं। पिंटू कुमारों की नयी खेप तमाम मुश्किलों अभावों और सीमाओं के बावजूद तैयार हुई है।’ कहना न होगा कि इपंले ने कहानी के वृहत्तर आयामों को उभारते हुए संरचना तंत्र की जिन बारीकियों की पड़ताल की है उससे 'आलोचना का विकसित कथा-बोध’ विकसित करने की संभावना बनती है।

 

शशिभूषण मिश्र नये आलोचक हैं। काम उन्होंने कुछ सालों से शुरू किया है और स्वतंत्र चेता होकर लेखन कर रहे हैं। उनका मार्ग कई तरह से कठिन है, क्योंकि उनके पास वाम-दक्षिण का विभाजन नहीं है। इस आलेख को पढ़ते समय पाठक निश्चय ही स्वतंत्रता का अनुभव करेंगे। पहल में उन्हें कुछ अवसर मिले और हर बार उन्होंने प्रमाणित किया। वे मर्मज्ञ और कुशल पाठ करते हैं। अब उन्हें बड़ा काम चुनना होगा। इस अतिरिक्त टिप्पणी के बड़े संकेत हैं। यह उनके लिए भी है और सबके लिए भी। अगली बार वे कथाकार और यात्री अशोक अग्रवाल की सम्पूर्ण कहानियों पर लिखेंगे।

संपर्क - सहायक प्रोफेसर हिन्दी ,राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय बांदा (उ.प्र.) मो.9457815024

 


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