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अगस्त : 2019

राजकमल का मुक्तिप्रसंग

कृष्ण कल्पित

आलेख

उजड़े हुए मैख़ाने में कृष्ण कल्पित

 

 

 

                                                           (1)

कुछ नवीन ब्राह्मण आलोचक और संस्मरणकार राजकमल चौधरी को जनेऊ पहनाने की कोशिश या क़वायद कर रहे हैं, जबकि राजकमल चौधरी हिंदी का प्रथम रिबेल अथवा अवांगार्द लेखक था।

जनेऊ को तो राजकमल ने बहुत पहले ताख पर रख दिया था। फेंकी इसलिए नहीं कि देसी ठर्रे की बोतल का काग राजकमल जुन्नार से खोलता था। गाँजे की चिलम की डाट भी जनेऊ के धागों से बनाने की कला राजकमल चौधरी को ख़ूब आती थी!

 

                                                            (2)

राजकमल चौधरी का मूल्यांकन नहीं हुआ या हिंदी के आलोचकों के पास पैमानों की कमी थी, कुछ कहा नहीं जा सकता। राजकमल चौधरी हिंदी का अनिर्णित लेखक है। भुवनेश्वर और उग्र की तरह।

राजकमल चौधरी के हिंदी कविता के विलक्षण योगदान को एक बार भूल जाएं (जो कि असम्भव है) तब भी सिर्फ अपनी कथा-कृतियों के बलबूते राजकमल चौधरी हिंदी में मंटो की टक्कर का लेखक है। ऐसा क्या मंटो के पास है जो राजकमल के पास नहीं है?

'मछली मरी हुई’! यह अकेला उपन्यास राजकमल की अमरता के लिए पर्याप्त है। इस असाधारण उपन्यास को हिंदी वालों ने हिंदी की पहली लेस्बियन कथा कहकर परे सरका दिया जबकि यह उपन्यास अपने निहितार्थ में एक घोर राजनीतिक उपन्यास है। यह उपन्यास पूंजी का प्रत्याख्यान है। आज के कॉरपोरेट युग के वीभत्स चेहरे को राजकमल चौधरी ने छठे दशक में ही पहचान लिया था।

अपने कुर्ते की जेब में हर समय हिंदी के दस सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों की सूची लेकर घूमने वाले हिंदी के बूढ़े आलोचकों को कौन समझाए कि हिंदी के आधुनिक उपन्यासों की कोई भी लिस्ट 'मछली मरी हुई’ के बिना पूरी नहीं हो सकती।

'मछली मरी हुई’ अलबैर काम्यू की टक्कर का उपन्यास है, जिसका एक-एक वाक्य प्रत्यंचा की तरह तना हुआ है। कला और विचार का समन्वय किस तरह किया जाता है, यह हम राजकमल चौधरी के गद्य से सीख सकते हैं।

राजकमल चौधरी रेणु और नागार्जुन की तरह आँचलिक कथाकार नहीं था - राजकमल विश्वचेतना का लेखक था। हिंदी में यह विश्वचेतना या विश्वचिन्ता मुक्तिबोध के बाद सिर्फ राजकमल चौधरी में दिखाई देती है!

 

                                                                (3)

सआदत हसन मंटो और राजकमल चौधरी। एक जैसी क़द-काठी। एक जैसी शक्ल-सूरत। एक जैसा नज़र का चश्मा। एक 43 वर्ष जिया और दूसरा 38 वर्ष। दोनों मसिजीवी। दोनों ने अमर होने के लिये नहीं, रोज़मर्रा की ज़रूरत के लिये लेखन किया। दोनों ने समाज के वर्जित क्षेत्रों और तलछट से कथानक चुने। एक की बीवी सफ़िया दूसरे की शशि। एक ताँगा सवारी तो दूसरा रिक्शा सवारी का शौक़ीन। दोनों ओ हेनरी और मोपांसा के मुरीद। एक झटके का कथाकार दूसरा हलाल का। एक कश्मीरी पंडित दूसरा मैथिल ब्राह्मण। एक शैव एक तांत्रिक। दोनों पर अश्लीलता के आरोप। दोनों का जीवन अभावों का जीवन। दोनों बेअदब बद्तमीज़। दोनों शराबी और गंजेड़ी। एक हिंदुस्तान में मरा तो दूसरा मरने के लिये पाकिस्तान गया।

मंटो को उर्दूवालों और दुनियावालों ने आसमान पर बिठा दिया और हम कृतघ्न हिन्दीवालों ने राजकमल चौधरी को धूल में फेंक दिया!

 

                                                                  (4)

जब भी राजकमल चौधरी का नाम लिया जाता है हिंदी के विषधर फुफकारने लगते हैं, बिलों से संपोले निकलने लगते हैं। कोई बांदा, कोई पटना, कोई दिल्ली, कोई कोलकाता, कोई चंडीगढ़ से सर उठाने लगता है।

राजकमल अश्लील है, पतनशील है, अधम है। चारों तरफ़  हाहाकार मच जाता है।

ये विषधर और संपोले कभी मंटो पर फुफकार कर बताएं, जो (उनके अपने तर्क से) राजकमल से अधिक अश्लील, अधिक पतनशील और अधिक अधम है।

इन कमज़र्फों के हिसाब से तो मनुष्य मात्र अश्लील प्राणी है, जो कम्बख्त पैदा ही नंगा होता है।

धूमिल को छठ की छाबड़ी की तरह सर पर उठाये घूम रहे हिंदी के ठाकुर कृपया बतायें कि राजकमल चौधरी के बिना धूमिल पैदा कैसे होता?

लगता है राजकमल चौधरी जैसे विलक्षण, अभूतपूर्व और सही मायने में अंतरराष्ट्रीय कवि लेखक को समझने में हिंदी के मूढ़ आलोचकों को अभी सौ बरस और लगेंगे!

 

                                                                   (5)

आज तक मैं यह गुत्थी नहीं सुलझा पाया कि राजकमल चौधरी ने अपनी अंतिम काव्यकृति 'मुक्तिप्रसंग’ सचिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय’ को क्यों समर्पित की?

क्या यह एक संघर्ष करते हुये कलाकार की पराजय थी? शायद हाँ शायद ना। जब 'मुक्तिप्रसंग’ प्रकाशित हुई राजकमल पटना के अस्पताल में भर्ती थे और अपनी आसन्न मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे।

राजकमल चौधरी को लोकप्रियता की कभी कमी नहीं रही। जिस तरह से राजकमल चौधरी की रचनावली बिक रही है उससे पता चलता है कि आज भी लोकप्रियता के मामले में प्रेमचंद और निराला को छोड़कर राजकमल का मुकाबला कोई हिंदी का आधुनिक लेखक नहीं कर सकता। राजकमल चौधरी को लोकप्रियता तो मिली लेकिन साहित्य में मान्यता नहीं मिली। यह कांटा राजकमल के दिल में ज़रूर चुभता रहा होगा।

अज्ञेय 1967 में अपने उत्कर्ष पर थे। 'दिनमान’ के सम्पादक थे। नेहरू अभिनन्दन ग्रन्थ का सम्पादन कर चुके थे और पूर्णतया सत्तावान थे। तार सप्तक तब तक बीमार सप्तक में नहीं बदला था। अज्ञेय का जलवा था।

जब अज्ञेय बीमार राजकमल को देखने हवाई जहाज से पटना आये तो हंगामा मच गया। बिहार वालों को अपने बीमार लेखक की महत्ता का अहसास हुआ। उसी के आसपास अज्ञेय ने राजकमल चौधरी को एक 'अस्तित्ववादी’ पत्र भी लिखा था जिसमें संकोच के साथ स्वास्थ्य का ध्यान रखने की हिदायतें भी दी गयी थीं। यह पत्र 'मुक्तिप्रसंग’ के शुरू में प्रकाशित है।

जब 'मुक्तिप्रसंग’ के अंतिम फर्मे छप कर आये तो राजकमल ने अपने कांपते हुये हाथों से उसके समर्पण पृष्ठ पर लिखा - सचिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय’ के लिये। यह लिखते हुये राजकमल को क्या तक़लीफ़  नहीं हुई होगी? क्या कोई आँसू 'मुक्तिप्रसंग’ की पांडुलिपि पर नहीं टपका होगा?

क्या यह राजकमल चौधरी का दुश्मन के खेमे में हथियारों सहित समर्पण था? या यह दुश्मन के इलाके में फेंका गया कोई हस्तनिर्मित बम था? या यह एक मरते हुये कलाकार की अंतिम पुकार थी?

 

                                                                 (6)

'मुक्तिप्रसंग’ ने हिंदी कविता की कायापलट कर दी!

जो कृति अज्ञेय को समर्पित थी उसने अज्ञेय को ही कविता में अप्रासंगिक बना दिया। मुक्तिबोध के उदय ने अज्ञेय को निस्तेज कर दिया था और 'मुक्तिप्रसंग’ ने नई कविता धारा को पूरी तरह उलट दिया।

जिसे आज समकालीन हिंदी कविता कहा जाता है उसकी आधार भूमि यही 'मुक्तिप्रसंग’ है। गद्य की जिस लय में आज हिंदी समकालीन कविता लिखी जा रही है उसके आविष्कारक राजकमल चौधरी हैं।

राजकमल चौधरी नहीं होते तो धूमिल तो निश्चित ही नहीं होते, रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा भी नहीं होते। 'संसद से सड़क तक’, 'आत्महत्या के विरुद्ध’ और 'मायादर्पण’ जैसी काव्यकृतियाँ नहीं होती। यहाँ तक कि आलोकधन्वा की 'गोली दागो पोस्टर’ और 'जनता का आदमी’ जैसी ऐतिहासिक कविताएँ भी नहीं होतीं।

उक्त सभी कृतियों पर राजकमल चौधरी के डिक्शन, गद्य की लय और अंतर्वस्तु का भी बहुत सावधानी से अपनी राजनीति के अनुरूप-अनुकूल करते हुये बहुत गहरा असर है। कई बार तो बहुत साफ़  दिखाई पड़ता है।

राजकमल चौधरी की 'मुक्तिप्रसंग’; प्रसाद की 'कामायनी’, निराला की 'सरोज स्मृति’ व  'राम की शक्तिपूजा’ और मुक्तिबोध की 'अँधरे में’ की तरह मॉडर्न क्लासिक का दर्ज़ा रखती है।

'मुक्तिप्रसंग’ एक धधकती हुई कृति है। अपने समय की विडम्बनाओं को एक नयी भाषा में कसते हुये राजकमल ने इस कविता में अपनी आत्मा के लहू की अंतिम बूंद निचोड़ दी है।

'मुक्तिप्रसंग’ अंतिम कृति थी। इसके बाद इसे लिखने वाले महिषपुर मैथिल के लाल बाबू - एक जीनियस, एक अलबेले आवारा, अवांगार्द लेखक के प्राण पखेरू उड़ गये!

 

                                                                (7)

जब अघाई हुई पीढ़ी के प्रतिनिधि अज्ञेय भूखी पीढ़ी के प्रतिनिधि राजकमल चौधरी से पटना के राजेन्द्र सर्जिकल अस्पताल के वार्ड में मिले होंगे तो उन्होंने आपस में क्या बात की होगी? क्या इस मुलाकात का कोई गवाह बचा है?

उन दिनों राजकमल चौधरी का आवास पटना के भिखना पहाड़ी इलाके में था। नागार्जुन भी पटना प्रवास के समय भिखना पहाड़ी में ही रहते थे और हिंदी के क्रांतिकारी कवि आलोकधन्वा (तब किशोर) का घर भी भिखना पहाड़ी में ही था। यहाँ से कुछ दूरी पर राजेन्द्र नगर में फणीश्वरनाथ रेणु का निवास था।

तब तक पटना के डाक बंगला चौराहे पर स्थित इंडियन कॉफ़ी हाउस उजड़ा नहीं था। वह लेखकों, कवियों, पत्रकारों से आबाद रहता था जहां हर रोज़ हिंदी-साहित्य की खाक़ उड़ती रहती थी।

राजकमल चौधरी की मृत्यु पर देश की कई भाषाओं की कोई 37 लघु पत्रिकाओं ने राजकमल चौधरी की स्मृति में विशेषांक प्रकाशित किये। यह एक रिकॉर्ड ही होगा।  राजकमल चौधरी लघु पत्रिकाओं का सितारा लेखक था।

राजकमल चौधरी की मृत्यु पर नागार्जुन और धूमिल ने यादगार कविताएँ लिखीं, जो अब हिंदी साहित्य की निधि हैं ।

नामवर सिंह राजकमल चौधरी से लगभग नफ़ रत करते थे। उनकी अब नष्टप्राय: कृति 'कविता के नये प्रतिमान’ में राजकमल इस तरह है जैसे नहीं है।

मृत्यु के बाद भी राजकमल चौधरी को मिटाने की कोशिशें जारी रहीं लेकिन राजकमल आज तक ज़िंदा है।

आने वाले समय में राजकमल चौधरी अधिक प्रासंगिक होते जायेंगे। नामवर मंडली मिट जायेगी लेकिन राजकमल चौधरी शताब्दियों तक ज़िंदा रहेगा!

 

                                                           (8)

सबके लिये सबके हित में

अस्पताल चला गया राजकमल चौधरी

लिखने-पढऩे, गाँजा-अफ़ीम-सिगरेट पीने

मरने का अपना एकमात्र कमरा अंदर से बन्द करके

दोपहर दिन के पसीने, पेशाब, वीर्यपात

मटमैले अँधेरे में लेटे हुये

धुँआ, क्रोध, दुर्गंधियाँ पीते रहने के सिवा

जिसने कोई बड़ा काम नहीं किया

अपनी देह अथवा अपनी चेतना से इस उम्र तक!

 

'मुक्तिप्रसंग’ कविता का यह अंश बताता है कि राजकमल चौधरी को किसी आलोचक की ज़रूरत नहीं थी - वह ख़ुद ही अपना निर्मम आलोचक था।

हिंदी के एक विस्मृत आलोचक इंद्रनाथ मदान ने 'मुक्तिप्रसंग’ को मुक्तिबोध की 'अँधेरे में’ से बड़ी कविता कहा तो नन्दकिशोर नवल ने 'मुक्तिप्रसंग’ को 'अँधेरे में’ के बाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण कविता कहा। लेकिन 'मुक्तिप्रसंग’ कविता पर सबसे अच्छी और महत्वपूर्ण आलोचना सुरेंद्र चौधरी ने लिखी। सुरेंद्र चौधरी राजकमल चौधरी के मित्र थे और अपने समय के प्रखर आलोचक।

ये वही आलोचक सुरेंद्र चौधरी हैं जिन्होंने रघुवीर सहाय की कविताओं को रक्तचापहीन रिपोर्ताज़ कहा था।

1967 में आलोचना में प्रकाशित अपने लेख 'मुक्तिप्रसंग : एक और देहगाथा’ में सुरेंद्र चौधरी लिखते हैं - 'मुक्तिप्रसंग विद्रोह की कविता कहाँ है? वह तो अनुभव के एक नितांत आंतरिक स्तर पर मृत्यु के स्वीकार कर लेने का दर्शन है।’ इसी लेख में सुरेंद्र चौधरी आगे लिखते हैं - 'गहरी होती मृत्यु छायाओं के बीच भी राजकमल पारदर्शी हैं। रहस्य का रंग भरना उसे नहीं आता।’

नामवर सिंह 'कविता के नये प्रतिमान’ में कहते हैं - 'समाधि-लेख एक लंबी नाटकीय कविता है, आत्महत्या के विरुद्ध एक नाटकीय एकालाप है और मुक्तिप्रसंग एक लंबा प्रलाप है।’ जबकि सच्चाई यह है कि श्रीकांत वर्मा की 'समाधि-लेख’ और रघुवीर सहाय की 'आत्महत्या के विरुद्ध’ दोनों कविताओं पर राजकमल के डिक्शन और शैली का गहरा असर है। नक्ल की हद तक। दोनों के भीतर राजकमल बन जाने की विकट ख्वाहिश दिखाई पड़ती है।

सुरेंद्र चौधरी राजकमल के नकलचियों को सावधान करते हुये लिखते हैं - 'राजकमल की आत्मोद्रेकपूर्ण काव्य शैली के नकलची शायद ही उन घनीभूत क्षणों को पा सकेंगे, जिनमें राजकमल का कवि अपने अनुभवों के सम्मुख अकेला था।’

राजकमल चौधरी की भाषा पर सुरेंद्र चौधरी लिखते हैं - 'मुक्तिप्रसंग’ में जहाँ एक और सीधी साहित्यिक संस्कार वाली बोलचाल की भाषा है, दूसरी और वही तंत्र के सिद्धपीठ की भी भाषा है।’

क्या यह कहने की ज़रूरत है कि राजकमल चौधरी ने 'मुक्तिप्रसंग’ के पूर्व अज्ञेय का जो 'अस्तित्ववादी’ पत्र प्रकाशित किया उससे 'मुक्तिप्रसंग’ जैसी बेजोड़ काव्य कृति की महत्ता और अर्थवत्ता कम ही हुई है।

मृत्यु का सीधा सामना करते हुये विश्व कविता में कम ही कविताएँ लिखी गईं होंगी उनमें राजकमल चौधरी की 'मुक्तिप्रसंग’ भी एक है। मृत्यु से खेलते हुये ही 'मुक्तिप्रसंग’ जैसी अमर कविता लिखी जा सकती है।

 

जटिल हुये किंतु

कोई भी प्रतिमा बनाने के योग्य नहीं हुये

उसके अनुभव !

 

                                                           (9)

मंटो की कहानियाँ 'ठंडा गोश्त’, 'काली सलवार’ और 'खोल दो’ को अब क्लासिक का दर्ज़ा प्राप्त है।

पाठकों ने पूछा है तुम्हारे राजकमल चौधरी के पास इनके मुकाबले क्या है? 'जलते हुये मकान में कुछ लोग’ का नाम मैं नहीं लूँगा क्योंकि यह कहानी पढ़कर आप ट्रांस में जा सकते हैं। आज आपको राजकमल चौधरी की किशोरावस्था में लिखी एक मैथिल कहानी 'ननद भौजाई’ सुनाते हैं। पता नहीं यह कहानी राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित राजकमल चौधरी रचनावली में है या नहीं?

बीस हज़ार लोगों की एक बस्ती है। इस बस्ती में एक घर है जहाँ एक ननद और एक भौजाई रहती है। दोनों विधवा। कोई बाल बच्चा नहीं। कोई पुरुष नहीं। दोनों देह व्यापार करके जीवन यापन करती हैं। उन दोनों का मानना है कि बीस हज़ार की बस्ती में दो सौ बंटे तो होंगे ही - जो उनके लिये पर्याप्त है ।

कहानी ननद भौजाई के आपसी संवादों से आगे बढ़ती है। भाभी ननद से पूछती है कि कहाँ गयी थी तो ननद जवाब देती है कि किसी बंटे के पास गयी थी। पाँच रूपये मांगे थे लेकिन बंटे ने तीन रुपये शाम तक देने का वायदा कर दो रुपये चोली में ठूंसे। फिर बंटा उसे खेतों की तरफ़  ले गया। दोनों गुत्थम-गुत्था थे कि एक पुलिस का सिपाही आ गया। सिपाही को देखकर बंटा भगा। ननद तड़पती रही। सिपाही चला गया।

इतने में ननद ने सुना कि उसे कोई पुकार रहा है। वह भागकर गयी तो देखा बंटा तड़प रहा है और उसे पुकार रहा है। ननद ख़ुद कामातुर थी और उसे लगा बंटा भी कामातुर होकर तड़प रहा है। ननद जाकर उसको थामती है और उसके साथ सम्भोग करने लगती है।

काम का ज्वार उतरता है तो देखती है कि बंटे का शरीर नीला पड़ चुका है और बंटा उसकी बाहों में ही मर जाता है। दरअस्ल बंटे को सांप ने काट लिया था और वह उसे बचाने के लिये पुकार रहा था।

भाभी ने ननद से कहा - तो क्या हुआ। ननद कहती है उसे नींद नहीं आती है और बंटे का मृत शरीर मुझसे लिपटा हुआ है, ऐसा लगता है।

इस पर भाभी कहती है - अरे छोड़ कुछ नहीं हुआ। जा पोखर से नहाकर आ और गंगाजल छिड़क कर पवित्र हो जा। यह तो एक मामूली बात है।

क्या आप विश्व साहित्य में से 'ननद भौजाई’ से अधिक निर्मम कहानी ढूंढकर बता सकते हैं?

राजकमल चौधरी हमारा ओ हेनरी था, मोपासां था, गोर्की था। हिंदी का मंटो तो वह था ही!

 

                                                            (10)

अभी तक राजकमल चौधरी रचनावली मेरी नज़रों से नहीं गुज़री है फिर भी मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित रचनावली अधूरी है?

कल राजकमल चौधरी के पुत्र नीलमाधव चौधरी ने लिखा - 'बस स्टॉप’, 'सामुद्रिक’, 'बारह आँखों का सूरज’, 'खरगोश का बच्चा’ राजकमल चौधरी की सबसे अच्छी कहानियों में हैं, जो रचनावली में नहीं है।

यह सच है कि राजकमल चौधरी का रचनाकर्म इतना बिखरा हुआ है कि उसे समेटना मुश्किल है, लेकिन यह कहकर रचनावली के सम्पादक मुक्त नहीं हो सकते ।

रचनावली के सम्पादक प्रो. देवशंकर नवीन महत्वाकांक्षी दिखते हैं और हड़बड़ी में लगते हैं। अभी तो वे मुक्त विश्वविद्यालय से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पहुंचे हैं, पता नहीं और कहाँ पहुंचना चाहते हैं?

अधूरी रचनावली को पूर्ण कहकर बेचना पाठकों के साथ धोखाधड़ी है। यह ऐसा ही है कि पूरी फ़िल्म के पैसे लेकर अधूरी फ़िल्म दिखाना। लेकिन इसमें प्रकाशक से अधिक ग़लती सम्पादक की है ।

कायदा तो यह है कि रचनावली की सारी प्रतियां नष्ट करके रचनावली दुबारा प्रकाशित की जाये। लेकिन हिंदी प्रकाशन जगत से इस नैतिकता की आशा करना मूर्खता है।

इतनी आशा की जा सकती है कि आगामी संस्करण में इन ग़लतियों का परिमार्जन किया जायेगा ।

 

                                                              (11)

आज आपको राजकमल चौधरी की एक अद्भुत कविता पढ़वाते हैं - अमृता शेरगिल के लिये ।

अमृता शेरगिल (1913 : 1941) को one of the greatest avant-garde

woman artist of early 20thcentury  कहा जाता है। आधुनिक भारतीय कला की अग्रणी चित्रकार तो अमृता शेरगिल निसंदेह थी।

एक अवांगार्द चित्रकार पर हिंदी का एक अवांगार्द कवि जब कविता लिखता है तो एक अभी तक अलक्षित और क्लासिक कविता का जन्म होता है। गद्य कविता क्या होती है यह कविता उसका भी एक नमूना है। कला कला चिल्लाने वाले अशोक वाजपेयी और उनकी पूरी मंडली के लिये यह कविता किसी सबक की तरह है। राजकमल चौधरी की यह 1961 में लिखी कविता अपने आप में एक कलाकृति है।

 

अमृता शेरगिल के लिये

 

वक़्त के ताबूत में सिमट नहीं पाते हैं

गर्म उसके हाथ। लाल फूलों से

ढका पड़ा रहता है सिकुड़ा हुआ

उसका पूरा जिस्म एक अँधेरे कोने में ।

ख़ासकर बुझी हुई आँखों के पीले

तालाब। ख़ासकर टूटे हुये

स्तनों के नीले स्तूप।

लेकिन सफ़ेद उसके गर्म हाथ

ताबूत के बाहर थरथराते

रहते हैं!

 

 

 

                                                                  (12)

उग्र, भुवनेश्वर और राजकमल!

यह हिंदी साहित्य का विकट-त्रिशूल है। तीनों, आलोचकों के लिये अछूत पर चुनौतीपूर्ण। तीनों अश्लील, आवारा और पतनशील। तीनों अपने समय से आगे। तीनों विश्व-स्तरीय कलाकार। तीनों अपने लेखन के बल पर ज़िंदा। तीनों लोकप्रिय पर उपेक्षित। तीनों कापालिक।

प्रेमचन्द, निराला और मुक्तिबोध यदि हिंदी साहित्य की प्रथम परम्परा हैं तो उग्र, भुवनेश्वर और राजकमल निश्चय ही दूसरी परम्परा हैं और इसकी खोज के लिये किसी नामवर सिंह की या किसी फैलोशिप की ज़रूरत नहीं है।

इन तीन तिलंगों के बिना हिंदी साहित्य का कोई भी नक्शा, कोई भी इतिहास अधूरा है, नक़ली है और भ्रामक है। यह बात आज मैं अपने पूर्ण होशो-हवास में अपने हस्ताक्षर सहित लिख रहा हूँ, ताकि सनद रहे।

यही तिराहा है, जहाँ किसी उजड़े हुये मैख़ाने में कृष्ण कल्पित को ढूंढा जा सकता है!

 

 

संपर्क - 701, महिमा पैनोरमा, जगतपुरा, जयपुर 302017, मो. 7289072959

 


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