बैंगलुरु की आवाजें
जया श्रीनिवासन, अतुल जैन, लवली गोस्वामी, मोहित कटारिया, अभिनव यादव, अंशु पितलिया, विष्णु पाठक, सौरभ राय
कविता
बारहमासा - जया श्रीनिवासन
पृथ्वी कहती नहीं खुद उस से अपने मन की बात हाँ! पलाश की सुलगती उंगलियां उसकी ओर इंगित कर लजा जाती है कुछ छेड़ती है फाग सा कुछ बिना उसकी ओर देखे आसमान में बहुत से नीले कमल खिले होते हैं तब
धूप चढ़ती है धरती की देह पर कनक के वरक आसमान नाचता है धूल के ढोल बजाता हुआ हांफते हैं पहाड़ जंगल थके भूरे बैल से मटमैली नदी रातभर खोजती है तारों में चैती का धीमा राग...
प्रकृति रोपती है धान के साथ एक किसान के हिस्से का अवसाद एक मौसम गुज़रता है बादलों का कुशल छेम पूछते हुए जंगल भीगी हुयी बरसाती में झींगुरों की फौज लिए सीले खड़े रहते हैं पूरे भादो पेड़ों की जड़ों में उग आती खिले-हरे रंग के मखमल पर कुकुरमुत्तों की बरात मंत्रमुग्ध कोई गाता है कजरी आसमान को पिघलता देख
दरवेश सी पृथ्वी नाचती है लगातार अपनी धुरी पर किसी अनहद नाद के आनंदातिरेक में अंतरिक्ष में टंकी हुयी कवितायें गिरने लगती हैं उसकी और मौसमी उल्काओं सी कि सहसा एक स्त्री उन्हें उठाकर गाने लगती है एक मीठा गीत।
कंचे - अतुल जैन
कंचे बोतलों में भर पचीतो पर रखे हैं, किसी रोज़ नौकरी से छूटूँ तो उतारुंगा उन्हें
हिसाब लगाना है सब सौदों का जो उनके बदले होते थे, उस वक्त तो मेरी इमली की चूरन, पतंगो की डोरे, बर्फ के गोले, चौराहे की चाट और नमकीन छोले सारे सौदे इन्हीं से होते,
अब कि बहुत फासले हो गये है उम्र में, मुमकिन है कीमत घट गयी होगी, कोई मिनन्नतें नहीं करता होगा नीरे रंग वाले कंचे की वो जो सबसे छोटा था जिसे पलटता था कि ताक न लगा पाओगे, उसे लेने को दबाने को कोई तकता नहीं होगा, जब जेबें भी उनके भार से फटती नहीं होंगी, संगमरमरी फर्शों पर कंचे ठहरते नहीं होगे, तारकोल की सड़कों पर गुप्पिया खोदना मुश्किल होता होगा, नस्लें जानती न होंगी इनसे गुजरती रोशनी को
मुमकिन है खज़ाने की कीमत कुछ भी नहीं होगी।
आदतें-जैसी मैंने देखीं - लवली गोस्वामी
पत्ती कांप कर एक साँस खींचती है फिर गिर जाती है हरापन एक आदत है, बदरंग होकर गिर जाना, एक फैसला
कुछ इच्छाओं को हमने कभी नहीं पहना वे वार्डरोब में पड़ी-पड़ी बदरंग हो गयीं जिन इच्छाओं को हम जी भर पहन कर घूमे वे अब कई जगह से फट गयी हैं।
एक पत्थर इसलिए खफ़ा है कि नदियों ने उससे किनारा कर लिया
एक दीवार दीमकों से डरकर असमय खुद को ढहा लेना चाहती है।
काया के तल में गहरे बैठता जाता है दु:ख इसलिए उम्र बढऩे के साथ आदमी धीमा हो जाता है
चलते समय उनके पांव जमीं पर नहीं पड़ते खुशियाँ, आदमी को हल्का कर देती हैं।
हम ऐसी जलधारा हैं, जिन्हें हिचकियाँ आती हैं लेकिन हम अपने मुहानों तक कभी लौट नहीं पाते एक दिन मैं पत्तों को झिंझोड़कर जगाऊंगी उनसे पूछूंगी, क्या तुम परिंदों को देखकर बहक गए थे जब उडऩे के लिए तुमने टहनी से छलांग लगा दी?
हैदराबाद - मोहित कटारिया
रात में कभी 'फ्लाईट’ पकड़ो हैदराबाद से तो नीचे बसा हुआ ये शहर यूँ नज़र आता है, मानों इक घनी झाड़ी में छिपे हों अनगिनत जुगनू।
हर एक जुगनू की अपनी रोशनी जो 'प्लेन’ की बढ़ती ऊँचाई के साथ बदलती है अपना रंग
मिठास नज़र आती है हर रंग में, इस शहर की मीठी ज़ुबान की तरह, जो सुनी थी मैंने अपने टैक्सी ड्राईवर के मुँह से जब वो 'पार्कां’ की 'बातां’ करता हुआ बता रहा था मुझे, शहर की 'मैडमां’ के बारे में
और 'चार मीनारां’ के पीछे वाले 'लाड बाज़ार’ में बिकने वाली 'चूडिय़ों’ के बारे में
अपने छह 'भाईयां’ और दो 'बहनां’ के बारे में
और
दो ही साल पहले गुज़रे अपने अब्बा के बारे में, जिनके जाने के बाद घर का आधा बोझ आ गया था उस पर; मगर ख़ुश था वो बताकर - 'जब तब अब्बा थे ना 'दोस्तां’ के साथ मैं ख़ूब 'मौजां’ किया साब।’
'अब तो बहुत मेहनत करना है साब’ कहकर जब मुझसे आधी उम्र के उस ड्राईवर ने 'रियर व्यू मिरर’ में से एक नज़र डाली थी मुझे पर, उस आईने में दिखाई दिए थे, दो चमकते हुए जुगनू मुझे।
फ्लाइट 'टेक-ऑफ़ ‘ हो चुकी थी और मेरी नज़रें नीचे बिछे अनगिनत जुगनूओं में वो दो जुगनू ढूंढ रही थी।
सारा शहर रोशन लग रहा था बस, उन दो जुगनूओं के कारण मुझे।
मेरा कमरा - अभिनव यादव
कैसे बुलाऊँ तुम्हें यहाँ? मेरी गलियां बहुत तंग है रास्ते भी सीधे नहीं पता भी छोटा नहीं
किराये का एक कमरा है दरवाज़ा सीधे सड़क पर खुलता है धूल बहुत आती है मग़र धूप नहीं
जगह कम है, बस एक बिस्तर ही अट पाता है उस पर लेटो तो ये कमरा ताबूत नज़र आता है बल्ब जल गया तो दिन हुआ न जला तो दिन नहीं
सड़क पार तिरछे में एक कूड़ेदान है कूड़ा लटकता रहता है उससे जैसे कोई बच्चा मुंह खोले खाना चबा रहा हो बहुत गालियां देता है मकान मालिक मेरा पर लोग यहाँ सुनते नहीं
जब भी बादल रोते हैं तो आंसू मेरे कमरे तक आ जाते हैं दिन भर उनके ग़म में शरीक होना पड़ता है बस वजह कभी पता नहीं
यहाँ तो पखाना जाना भी मस्जिद की दौड़ लगता है ऐसे कामों की भी यहाँ कतार लगती है आने वाला कोई भी तो यहाँ फ़ र्क नहीं
बगल में एक बुढिय़ा हमेशा खाँसती रहती है और जब खाँसती नहीं तब सोती है घरवाले कहते हैं कि दमा है, मुझे तो लगता है टीबी हैरां हूँ इन हालातों में वो अब तक मरी नहीं
शाम को कुछ बच्चे खेलने आते हैं इसी सड़क को पिच बना क्रिकेट खेलते हैं वो ही यहाँ सबसे खुश नज़र आते हैं शायद ज़िन्दगी उन्होंने देखी नहीं
खिड़की को देखता हूँ तो कटे छटे आसमां का पोट्रेट लगती है सोचता हूँ की एक माला चढ़ा दूँ के यहाँ इससे ज़्यादा आसमां फिर दिखेगा नहीं
सच कहूँ, ये कमरा पिंजरा लगता है और ये शहर चिडिय़ाघर दूर दूर से इंसान पकड़ कर लाए जाते हैं यहाँ अपनी अपनी कलाबाजियाँ दिखने को पता नहीं कभी वापस जा पाएंगे या नहीं
अब तुम ही बताओ कैसे बुलाऊँ तुम्हें यहाँ?
रसोईघर और दुनिया - अंशु पितलिया
मसालेदानी में खाली करते वक़्त सूखे धनिए का पाउडर वह बना देख लेती है पहाड़ सब्जियों में ढूंढ़ लेती है पेड़, जंगल और वादियां बरसात में छत से चूते पानी में दिखती हैं नदियां और उसे साफ करते वक़्त पार कर लेती है सात समंदर
वह जानती है कि बर्तन उनकी सही जगह पर न हो तो हाथ के हल्के से टुल्ले से गिर जाते है एक दूसरे पर और भर देते है घर भर को शोर से वह जमाए रखती है बर्तन
वह जानती है एक हल्के के जामन से दूध हो जाता है दही और दही नहीं चढ़ता शिव पर वह बचाए रखती है पवित्रता दूध की वह राजनीति नहीं जानती पर जानती है कि कभी-कभी पिस जाता है घुन भी गेंहू के साथ
वह जानती है अंतर है पीसने और दलने में कि चना दाल होगा या बेसन यह निर्भर करता है पाटों के दबाव पर और कितनी देर से घूम रही है चक्की इस बात पर वह दाल होते होते बेसन हो जाती है
वह जानती है रोटी के स्वाद में छिपा है सही मात्रा में मिलाया गया नमक और पानी और एक अच्छी मियाद तक उसका आटे में गूंथना मगर कभी कभी नहीं मिलता है बराबर आटा या उसमें ठीक से मिलना वह सेंक लेती है नमकीन पानी से रोटियां
वह जानती है कूटते वक़्त लाल मिर्च अगर छुट भर तेल मिला दें हमामदस्त में तो बचा सकते है उसकी धाँस से नाक को और इसलिए सजा लेती है वह पति का लाया गजरा बालों में और उसकी खुशबू में नजरअंदाज कर देती है इतनी समझदारी से घर चलाने वाली को अपढ़ और मसालों की गंध से भरी होने की गाली दी थी उसने
रसोईघर में कैद स्त्रियों को हम नाहक ही कह देते हैं बाहर निकलो, घूमो, दुनिया देखो उन्होंने हमसे ज़्यादा दुनिया देखी है।
जाड़े की रात - विष्णु पाठक
दिन भर का थका किसान कंधे से बंदूक हटा लेट गया है खलिहान में
और सुलगा रहा है सिगरेट
तीली की 'चिस्स...’ एक लंबी सांस और अंधेरे में खिल उठती है लाल रोशनी
माथे की टिकुली सुलगा रही है उसके बदन को लालटेन दिखाने के बहाने सामने वाली छत पे खड़ी इंतेज़ार में
वह जानता है, लाल झंडे और होंठों के बीच उसे करना है चुनाव जाड़े की रात के हासिल का सिगरेट के आखिरी कश से पहले।
स्कूल छुट्टी - सौरभ राय
ये तनाव-क्षेत्र है
घंटी ठीक उतनी देर बजती है जितने में टकरा जाती है सड़क से गेट लांघती बच्ची की जूती
व्हीलर रोड फ्लाईओवर के नीचे मैं फंस जाता हूँ सड़क चौड़ाने के बावजूद कोई लाल बत्ती नहीं गेट लांघती बच्ची की रिब्बन देख लेकिन निकल जाती है ट्रक की भी हवा। दौड़ते आते हैं दो लड़के गेट पूरा खोलते हुए शर्ट निकाल सड़क पार कर जाते हैं क्लास की मसखरी बची हुई है एक मारता है दूसरे को तेज़ चाँटा दोनों हँसते हैं
मेरी मोटरसाइकिल की ब्रेक कराहती है धंस-धंसकर चलती गाडिय़ों के बीच हम सड़क के बीचोंबीच धूप में खड़े हैं और पेड़ों की छाया सिर्फ बच्चों के ऊपर है हमारी राजनीति लेकिन थोड़ी अलग है बच्चों से दूरी बनाकर चलते हैं हम एक-दूसरे से सटने से बचते हुए।
और अब बच्चों का जुलूस निकल आया है जिनकी कोई मांग नहीं हवा बच्चों की चंचल बुदबुदाहट से भर गई है मजाल किसी की बजा दे हॉर्न! इनके लिए पृथ्वी तेज़-तेज़ घूमती है और इन्हें फुर्सत ही फुर्सत है। ये सड़कों पर घास बनकर उग आये हैं मेरे लिए गहरा आतंक पैदा करते हुए ये गलियों में फैल रहे हैं नसों में खून बनकर धरती की जड़ें बनकर
नहीं, रुकना नहीं है मुझे ज़रूरी है निकलना यहाँ से दुनिया की सबसे अड़बंग पलटन का कब्ज़ा है यहाँ... पतली टांगों खुले फ़ीते वाला एक लड़का अंगूठा निकालकर मांगता है कार से लिफ्ट फिर मिडिल फिंगर देता है आँख में आँख गड़ाकर देखते हुए अब सभी दृश्यों में बच्चे भर गए हैं इत्ते सारे बच्चे! फ्लाईओवर पर चढ़ते-उतरते बच्चे लैंप पोस्ट पर हाथों के निशान छोड़ते बच्चे जूता-मोजा पहने नीली शर्ट और नीली से अधिक नीली स्कर्ट-पैंट में जेबों में स्याही के दाग भरकर मोरपंख आसमान और च्विंग-गम जेबों में भरकर बच्चे मुझे दिखाई दे रहे हैं नदी हवा और आग की तरह।
अपने-अपने डिब्बे हेलमेट में बंद इनसे बचते हुए हम पार कर रहे हैं सड़क एक एक कर
जबकि बच्चे आगे निकल चुके हैं बहुत आगे।
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