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अगस्त : 2019

कविता और शहर

लवली गोस्वामी

बेंगलुरु की हिंदी कविता

 

 

कोई कविता क्यों लिखता है, जब यह सवाल खुद से पूछती हूँ तो कई बातें महसूस होती हैं। इसलिए कि जिन भावनाओं को कोई विधा आश्रय नहीं देती उन्हें कविता संजोती है या इसलिए कि वह आपके वल्नरेबल और निरीह होने पर सवाल नहीं करती...वह आपके राजनैतिक रूप से सही होने को बहुत महत्व नहीं देती। अच्छी कविता आपके मन के सबसे मासूम भाव को सबसे अधिक दुलार देती है। उसे पोषित करती है, उससे पोषण पाती है। वह भावनाओं में आई बनावट के लिए आपकी कभी सराहना नहीं करेगी। अगर आप बहुत बनावट करेंगे तो वह आपसे धीरे - धीरे दूर होती जायेगी। मन को निष्कवच करके सच्ची कला का आवाहन किया जाए तब ही इसमें सफलता मिलती है, आप चाहें तो इस वाक्य के साथ फ्रीदा काहलो की पेंटिंग्स ''दी वूंडेड डिअर’’ और ''दी ब्रोकन कॉलम’’ का स्मरण कर लें। क्षण भर के लिए मान लें कि ये दोनों चित्र एक सच्चे कवि के ह्रदय का प्रतीकात्मक चित्र है। यह दोनों उस क्षण के चित्र हैं, जहाँ से कविता का जन्म होता है।

कोई युवा जब कविता लिखना शुरू करता है तब उसका भी यही कारण होता है। वह मन के सबसे तीव्र और लहालोट कर देने वाले भाव को सामने रखना चाहता है। उसे कोई मतलब या ज्ञान नहीं होता कि जिस तरीके से वह शब्दों को रख रहा है वह कविता कही जा भी सकती है या नहीं? क्या है उसका शिल्प? वह नहीं जानता कि आधुनिक कविता किस स्तर पर है? दुनिया में कविता को लेकर किन बातों पर चर्चा हो रही है। कविता के किन प्रतिमानों को मान्यता दी जा रही किन्हें ध्वस्त किया जा रहा है? कोई युवा लिखने से पहले यह सब नहीं सोचता। कविता धारा की तरह मन के शिखरों/या गर्तों से फूटती है। और उसमे अक्सर वही तत्व होते हैं जो समाज में लोकप्रिय रहे हैं और कविता के रूप में सुने और पढ़े जाते रहे हैं। इसलिए भी युवा कविता से बहुत अधिक अपेक्षा करना एक तरह से अतिवाद है। लेकिन इस तात्कालिक प्रस्फुटन के एक समय के बाद भी जो लोग कविता में बने रहते हैं वे ही कविता की परम्परा के किसी काम के होते हैं। कविता उनसे और वे कविता से पोषण पाते हैं।

मैं अपवाद रूपी महान प्रतिभाओं की बात छोड़ दूं तब भी औसत प्रतिभाएं भी कविता के लिए समाज में माहौल तो बनाती ही हैं। ऐसे कवि लिख भले ही बहुत सुन्दर न सकें लेकिन इतनी उम्मीद हमेशा होती है कि वे कविता को पढ़े जाने और स्वीकारे जाने में मददगार साबित होंगे। उनके द्वारा कुछ और लोग कविता में आयेंगे। सारी दिक्कत तब शुरू होती है जब आने वाले लोग अच्छी कविता की जगह इन्ही औसत प्रतिभाओं को अपना आदर्श मान लेते हैं और उनका लक्ष्य कविता नहीं रह जाता... सिर्फ प्रसिद्धि और उससे मिलने वाला डोपमिन ही रह जाता है, या इससे भी बुरा आर्थिक लाभ या रोजगार की जुगत। अधिकतर अच्छी कविता इन्ही दुनियावी दैत्यों की भेंट चढ़ जाती है। अधिकतर युवा कवि ऐसे ही दिशाहीन हो जाते हैं। दुनियादार होना अच्छी बात है लेकिन उसके लिए निश्छलता की हत्या कर देना कविता के लिए सबसे बुरा सगुन साबित होता है।

ऐसे में रह-रह ऐसा लगता है कि युवा कवियों को दुनिया, समाज और परिवार के आगे सरेंडर करने की सीमाएं तय करनी होगी। बावजूद इन सब के कविता सभ्यता में पूरी शान से मौजूद है तो इसका कारण कविता के लिए जीवन झोंक देने वाले कुछ लोग हैं, जो हमेशा से रहते आये हैं और आगे भी रहेंगे। कविता दर्प के साथ संसार की सर्वोच्च कला और मेधा के लिए गुरुत्वाकर्षण एक साथ बनी रही है और आगे भी बनी रहेगी। बोर्हेस के शब्द दोहराऊं तो कहूँगी - ''समय जो किलों को नष्ट कर देता है, महान शहरों को उजाड़ देता है, कविता को केवल समृद्ध ही करता है।’’

युवा स्वरों को देखते हुए कभी कभी शिद्दत से यह महसूस होता है कि तुक मिलाने को ही कविता समझ लेना शायद हमारी भाषा के नए कवियों की सबसे बड़ी कमजोरी की तरह सामने आया है। मैं इंटरनेट में हजारों की संख्या में कवियों को देखती हूँ। छोटी सामूहिक आबादियों में उन्हें सुनती हूँ। जो भी आँखों के सामने से नेट पर बीते मेरे सीमित समय में गुजर जाए मैं अक्सर पढ़ लेती हूँ। देखकर ऐसा लगता है छंद की मर चुकी परम्परा को आधुनिक युवा कवि मुग्ध हो छाती से चिपकाये घूम रहा है। इसकी वजह क्या है यह समझना बड़ा रोचक है। रोचक है यह जानना कि आधुनिक कविता के शिल्प से युवा इतने अनभिग्य क्यों है। जबकि किसी भी प्रसिद्द कवि की कविता की किताब उनसे महज एक क्लिक दूर है। इंटरनेट ने वे किताबें खरीद पाना बहुत सरल बना दिया है जिनके लिए कभी सुदूर गाँव में रहने वाली मैं सिर्फ अफ़ सोस कर पाती थी। बहुत कुछ नेट पर मुफ्त में भी उपलब्ध है। कमी सिर्फ मजबूत इच्छा शक्ति और धैर्य की है। साथ ही साथ कविता के प्रति सच्चे प्रेम की है।

हर भाषा की कविता-परम्परा में ध्वन्यात्मकता एक प्रमुख अवयव की तरह रहा है। किसी के शब्द याद आते हैं कविता को नहीं भूलना चाहिए कि मूलत: वह कभी गीत थी। अर्थात कविता की कर्णप्रियता का ध्यान कवि को हमेशा रखना चाहिए। लेकिन कविता के कर्णप्रिय होने का मतलब जबरदस्ती अनुप्रास का आभास देते हुए शब्द थोपना, या कविता की पंक्तियों के अंत में तुक मिलाने वाले शब्द चेंप देना कतई नहीं होता। लेकिन यह प्रवृति मैंने नए युवा कवियों में महामारी की तरह देखी है। यहाँ तक कि कई सद्यप्रतिष्ठित कवि भी इससे अछूते नहीं हैं। इस गलत संस्कार को यथा शीघ्र खत्म करने की दरकार है।

अभिनव गुप्त ने लिखा था ज्ञान दो प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है। एक तो पुस्तक पढ़ कर दूसरे किसी योग्य सिद्ध का शिष्यस्त ग्रहण करके, किन्तु वे ज़ोर देकर कहते हैं कि कुछ विशेष ज्ञान ऐसे होते हैं जो सिर्फ गुरुमुख से लिए जा सकते हैं। आधुनिक युग में कविता और उसके शिल्प पर असंख्य किताबें उपलब्ध है। फिर भी कुछ ऐसी बातें हैं जिनका ज्ञान सिर्फ किसी योग्य कवि द्वारा ही दिया जा सकता है इसलिए समय-समय पर कविता पर संभाषण और कार्यशाला आयोजित करना एक महत्वपूर्ण बात है जिस पर संस्थाओं और प्रकाशकों का ध्यान जाना चाहिए। अगर यह न हुआ तो शायद अधिसंख्यक युवा कविता के नाम पर तुकबंदी करते और प्रभाव के नाम पर पुरखे कवियों की नक़ल उतारते सिरा जायेंगे और फिर साहित्यिक समाज के पास कविता की गुणवत्ता को लेकर अफ़ सोस करने के अलावा कुछ नहीं बचेगा।

सवाल यह भी उठता है कि बैंगलोर जैसे शहर में रह रहा युवा क्या भारत जैसे देश की अन्य राजनितिक-आर्थिक समस्याओं से वाकिफ़  है? भारत का कोई भी शहर देखकर कितना भी आधुनिक लगे उसकी स्मृति में गाँव और कसबे ही बसे होते हैं। आने वाले कुछ सालों तक के लिए यह वाक्य सत्य रहेगा। शहर की युवा कविता के लिए भी यह एक सच है। ऐसे कई कवि हैं जो कविताओं में कस्बाई और गंवई स्मृतिओं और अस्मिता को रख रहे हैं।

ऐसे ही एक कविता है आखिरी किसान (नीरज द्विवेदी)। इस कविता में कवि की संवेदना में उसके पिता की स्मृति है।

 

बाबा किसान थे पर चाहते थे कि वो

परिवार के आखिरी किसान हों

बाबा मुझे, खेतों में नहीं ले जाते थे कभी

डरते थे

मुझे, परती से प्रेम न हो जाये कहीं

(गोया कई आषाढ़ पहले उन्हें हो गया था कभी)

 

ज़िद मे, चोरी से

ग़र कभी पहुँच भी जाता मैं खेत तक

तो बाबा, मेढ़ों को मेरे लिये सरहद बना देते

मैंने

मेढ़ पर बैठे बैठे ही

बाबा को पहले फसल

फिर खाद बनते देखा।

 

युवा कवियों के पास मानव सभ्यता की कई विसंगतियों के लिए करुणा और परवाह से भरे शब्द हैं, जैसे...गौतम पारस की कविताओं में अक्सर मुझे शहरीली रंगीनियो से हटकर फ्लाई ओवर के दूसरी तरफ से झांकता शहर का एक अलग रूप में दिखाई देता है। शहरी जीवन में गरीब आदमी की जगह तलाशते गौतम की कविता के शब्द एक प्रकार के आक्रोश से भरे दिखाई देते हैं। कम से कम हिंदी में किसी युवा में ऐसी तीखी नज़र मैंने शहरों को लेकर नहीं देखी है। गौतम की नज़र वहां तक जाती है, जहाँ किसी दूसरे शहराती युवा की नज़र न जाए। हालाँकि इन कविताओं में विस्तार बहुत है लेकिन पैनापन और सटीकता आते - आते ही आती है, जिसके लिए अभी मैं उम्मीद से कवि की ओर देख रही हूँ। फिर भी गौतम की कविता एक विश्वास तो जगाती ही है, कि संवेदनशील मन कहीं भी हो वह सत्य की तलाश करेगा ही। रौशनियों के जाले उसे बहुत देर उलझा नहीं सकते।

 

वर्षों रास्ते पर रहने वाले को

जो आसमान दिखाई पड़ता है,

वह किसी भी घर की छत से

खूबसूरत कभी नही हो सकता।

 

एक निराश्रय के लिए

खुला आसमान कोई रंगीन ख्वाब नही है,

बल्कि एक बुरा सपना है।

 

उसका बस चले तो वह

आसमान की खूबसूरती पर

लिखी अनगिनत कविताओं के

दूसरे भाग को पोत दे

अपने अभागेपन से काला-काला।

            - गौतम पारस

                                                       ***

 

अपने-अपने शहरों पर बहुत कवियों ने कविताएँ लिखी है। अभी तत्काल मुझे अरुण कमल की कविता ''मोतिहारी’’ और उसकी कालजयी पंक्तियाँ ''लगता है अब यह आखिरी रास्ता होगा और यह आखिरी घर/ कि फिर फूटती है एक और टहनी एक और घर/ और पूरा शहर कपड़े के थान सा खुलता चला जाता है/ बेल बूटों पेड़ों पोखरों से छपा।’’ याद आती है। मोहित कटारिया की कविता ''हैदराबाद’’ एक ऐसी ही ताक़तवर कविता है। इस कविता में शहर को वायुयान से देखने का ज़िक्र और झाडिय़ों में टिमटिमाते जुगनुओं से उसकी तुलना इसे एक अविस्मरणीय कविता बनाती है।

 

रात में कभी फ्लाईट पकड़ो

हैदराबाद से

तो नीचे बसा हुआ ये शहर

यूँ नज़र आता है

मानों इक घनी झाड़ी में

छिपें हों अनगिनत जुगनू...

 

इस कविता का अंत सुन्दर है जिसमे कवि को युवा टैक्सी चालक की आँखों के जुगनू से पूरा शहर रौशन लगता है। यह आशावादिता और इन्सान के साथ इन्सान के आत्मिक संबंध का सुन्दर और मर्मिक चित्र है। पढ़ते हुए महसूस होता है कवि युवा कार चालक के वर्तमान में उसकी आशा से भरी आखों में कहीं अपना बीत चुका अतीत और युवकपना ढूंढ रहा है।

                                                         ***

अभिनव यादव उन युवाओं में से हैं जिन्हें मैं अरसे से जानती हूँ। मैंने उन्हें बड़े कवियों की एक-एक कविता को समझने में खूब मेहनत करते देखा है। उनकी कुछ कविताएं मुझे व्यक्तिगत रूप से पसंद है। उनमे से एक यहाँ इस अंक में दी भी गई है।

उनकी कुछ पंक्तियाँ है :

 

सड़क पार तिरछे में एक कूड़ेदान है

कूड़ा लटकता रहता है उससे जैसे कोई बच्चा

मुंह खोले खाना चबा रहा हो

 

यह चित्रात्मक कल्पनाशीलता ही अभिनव की कविताओं की सबसे बड़ी ताक़त रही है। किसने सोचा था सामथ्र्य से अधिक कूड़ा निगलते और फूहड़ तरीके से मुँह खोलकर खाते बच्चे में भी कोई दृष्टि कविता ढूंढ सकती है। यह एक किस्म का व्यंग्य है जो विद्रूपता और करुणा एक साथ उत्पन्न करता है। सिर्फ यही बिम्ब नहीं यह पूरी कविता या कहूँ तो अभिनव का पूरा काव्य-संसार ही विद्रूपता और करुणा के इसी लव-हेट संबंधों को सामने रखता है गर्म स्वादिष्ट भोजन के उस कौर की तरह जिसे आपने मुँह में तो ले लिया है लेकिन ताप की वजह से आप उसे निगल न पा रहे हो, और क्षुधा और लोभ की वजह से उगल न पा रहे हों। यह विद्रूपता जन्य करुणा सिर्फ अभिनव की कविता का ही नहीं बल्कि शहर में कम पैसों में गुजारा कर रहे छोटे शहर से आये हजारों युवकों के जीवन का मूल भाव है, वे इस शहर को न निगल सकते हैं, न ही उगल सकते हैं.यह कवि की दृष्टि है जो इसे सटीक पकड़ लेती है।

                                                                 ***

सौरभ राय प्रिय मित्र एवं यहाँ शहर में कविता के समर्पित स्वयंसेवक हैं। कवि के रूप में उनकी काव्य-यात्रा की मैं गवाह रही हूँ। शुरूआती साहित्यिक उलझावों के बाद उनकी कविता ने इधर एक नया स्वर एवं आकार ग्रहण किया है जो इस युवा कवि के प्रति एक भरोसा जगाता है और इस भरोसे को कायम रखने की कई वजहें भी देता है। उनकी कई कविताओं में से मुझे उनकी बेटी ''मृदा’’ को समर्पित यह कविता पिता द्वारा पुत्री के लिए लिखी एक सुन्दर कविता लगती है।

 

इस ऊबड़-खाबड़ पृथ्वी में

गोद से समतल जगह नहीं

 

डोलते सिर पर

टिकी रहती हैं एकटक आँखें

घुमाती हुई दोनों हाथों की उँगलियाँ

तुम हवा में बनाती हो टाइम-मशीन का ढांचा 

जिसे आधा समझकर

सो जाती हो

 

गीली मिट्टी की तरह

मेरे हाथों में धंस गई है

तुम्हारी नींद।

 

संवेदनाओं के बारीक़ तारों से बना उनका स्वर उनके स्वभाव की तरह विनम्र और शांत है। उन्हें पढ़ते हुए महसूस होता है कि आप लगातार एक पतवार द्वारा पानी को काटे जाने का स्वर-संगीत सुन रहे हैं, जब चारो तरफ एक सौम्य सा मौन बिखरा पड़ा है। कविता को लेकर उनकी ज़िद और उनका समर्पण उन्हें युवा कविता के महत्वपूर्ण स्वरों में शामिल करता है।

                                                               ***

इन युवा कवियों की कविताओं में नयापन है। इनमे तारों भरी रात का तितली के पंखों में बदल जाना है (अभिनव यादव), कविता का जींस पहनना है (अमित किशोर), दादी के पैरों का अनार के दाने से छोटा होना है (प्रशांत पर्वतनेनी ), शहर में आदमी के लगातार चलने और कहीं नहीं पहुँचने की विडम्बना है (अतुल जैन), भिखारन की खोखली आँखों का खालीपन है (सुरभि घोष), काग़ज के टुकड़ों के इशारे पर उगता हुआ सूरज है (गौरव भूषण गोठी), जब सौ रुपये का नोट भी एक समय का भोजन देने के लिए समर्थ नहीं हो पा रहा उस समय मासूमियत से बचपन की अठन्नी (अमित किशोर की कविता अठन्नी )को याद करता बालक है। जया श्रीनिवासन के यहाँ कामना और स्त्रीत्व को उकेरते सुन्दर बिम्ब है, जो प्रभावित करते हैं, वह सब कुछ है जो एक काव्य संसार में होना चहिये। व्यक्तिगत नियतियों की मैं बात नहीं करती लेकिन इस शहर की कविता में संवेदना, स्मृति और यथार्थ के वे सभी तत्व है जो मुझे बैगलोर के कवियों की काव्य - यात्रा के प्रति आश्वस्त करते हैं।

आप देख सकते हैं कि यहाँ मेरी पूरी बात बस उम्मीद और विश्वास जैसे शब्दों पर टिकी है। पूंजीवाद, अवसाद, एलियेनेशन और विकास की अंधी दौड़ के अँधेरे में टिमटिमाती कविता शायद इन्ही शब्दों में टिकी हो सकती थी। आज युवा चौतरफा दबाव झेल रहे हैं. उस दौड़ का दबाव जो महज तरक्की और समृद्धि पाने की नहीं है। इस दौड़ में आपको सिर्फ इस लिए शामिल होना होगा कि अगर आप न दौड़े तो आप कुचल दिए जायेंगे। यह दौड़ हमारा शौक नहीं है यह हमारी मज़बूरी है। यह इस देश के पूरे युवा वर्ग की मजबूरी है। इस दौड़ में कविता हमारे सिर पर सजी कलगी है जिसे लगाकर हम खुद को यह भरोसा दिलाते हैं कि यह दौड़ नहीं नृत्य है, हम भगदड़ में नहीं अषाढ़ की प्रथम वर्षा के उपलक्ष्य में होने वाले नृत्य में हैं। हम बोझ उठाने वाले गधे या घुड़सवार के आदेश पर दौडऩे वाले घोड़े नहीं है, हम अपनी मन मर्जी से शहर की बारिश में नाचते मोर हैं। कलगी गिरी तो हम भी गधे या घोड़े में बदल जायेंगे। युवा कविता को इसलिए बचा रहे हैं कि हमे खुद को बचाना है, दौड़ और गति में एक संतुलन बनाकर माथे पर सजी कलगी को बचाना है। यही है इस शहर के कवि और इस शहर की कविता का सच। और यह सच बचा रहे इसकी प्रार्थना मैं मनुष्य की इच्छाशक्ति और उसके दृढ़निश्चय से करती हूँ।

 

 

 

लवली गोस्वामी विचारक और कवि हैं। बैंगलुरु में रहती हैं। संपर्क - मो. 7204385132

 


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