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अगस्त : 2019

जैसे हो ही न वजूद!

अनवर सुहैल

कहानी-चार

 

 

छोटे बेटे अयान ने अपनी दादी-अम्मी की तस्वीर स्कैन करके उसे इनलार्ज किया फिर घर में आए नए स्कैनर कम प्रिंटर से ए-4 पेपर पर तस्वीर निकाली। क्लास एट का स्टूडेंट है अयान। पता नहीं कैसे उसने फोटोशाप सीख लिया। अभी चौदह बरस का है अयान लेकिन कम्प्यूटर का कीड़ा है। दिन-रात लैपटॉप पर लगा रहता है।

सलाम अपने बेटे अयान की प्रतिभा से आश्चर्यचकित रहते हैं। इस उम्र में स्वयं सलाम कितने भोंदू हुआ करते थे। उस समय बच्चों में व्यवहारिक बुद्धि का नितांत अभाव हुआ करता था। थोड़ा भी कैलकुलेटिव नहीं हुआ करते थे। जो कहो उसे मान लिया करते थे। वह चाहे अब्बा की बात हो, स्कूल के मास्टर की बात हो या फिर मस्जिद के हाफिज्जी की बात हो। बिना किसी तर्क के मान लेने की हिदायतें ही उस समय के बच्चों को लकीर का फ़कीर बनाए रखती थां। आज के बच्चे कहां मानते हैं कोई बात! हज़ार तर्क उनके दिमाग में तैरते रहते हैं और नसीहतों की बाल की खाल निकाल ही लेते हैं। चाहे मान लें बड़ों की बातें। क्या बड़े अपनी हर बात सच ही कहते हैं।

सलाम याद करते हैं अपना बचपन जब उन्हें गणित का मामूली सवाल भी पहाड़ साबित होता था। एक दर्जन केला छ: रुपए का है तो एक केला कितने का होगा, इसे हल करने के लिए उन्हें कागज-कलम की ज़रूरत पड़ती थी जबकि फलवाले का अनपढ़ बेटा बिना गणना किए बता देता है। सलाम ने सोचा कि बेशक वह ज़माना बड़ा सुस्त ज़माना था। अमर चित्र-कथा पढऩे वाली पीढ़ी एनीमेशन मूवी वाली पीढ़ी से क्या कभी मु$काबला कर पाएगी? पिट्टुल, छुपा-छुपौवल, गुप्पी खेलने वाली पीढ़ी क्या खाकर थ्री डी वीडियो गेम के हर लेवल खेल जाने वाली पीढ़ी का मुकाबिला कर पाएगी?

अयान ने फोटो का प्रिंट-आउट दिखलाते हुए कहा - 'देखो पापा, दादा-अम्मी कितनी ब्यूटीफुल दिखा करती थीं।’

अपनी अम्मी की इतनी प्यारी फोटो देखकर सलाम ने बेटे का माथा चूम लिया।

मदर्स डे और फादर्स डे के इस नए दौर में सलाम अच्छी तरह जानते हैं कि जब बुजुर्गों को बच्चों के साथ की ज़रूरत होती है तब बच्चे स्वनिर्मित व्यस्तताओं के बहाने गढ़ते हैं। बारहा बुजुर्गों के प्रति ज़िम्मेदारियों से मुंह चुराते हुए ाटइम पास करते रहते हैं। इसी तरह किसी दिन ख़बर आती है कि मां नहीं रही या कि पिता की तबीयत अब सम्भले नहीं सम्भल रही है, देखने आ जाओ या कि अपने साथ ले जाकर कहीं अच्छा इलाज कराओ। बच्चे ऐसे नाज़ुक अवसर पर भी निष्ठुर बने रहते हैं और पानी जब सर से गुज़र जाता है तब तन्हा जीवन गुज़ारते बुजुर्गों को सुपुर्दे-ख़ाक करने के लिए भागे आते हैं।

इधर कई दिनों से सलाम को अपनी मरहूमा अम्मी की याद आ रही है। अम्मी सलाम के सपने में आती हैं। सलाम देखते हैं अपना पुराना बड़ा सा मकान जिसमें कुर्सी पर बैठे अब्बा भी हैं और रसोई में खाना पकाती अम्मी भी हैं। सलाम ने कभी अम्मी को ख्वाब में दुखी नहीं देखा। वह ख़ामोश ज़रूर रहती हैं लेकिन दुखी नहीं। ख़ामोश रहना उनकी फ़ितरत थी।

अयान ने अम्मी के चेहरे को कितना अच्छा फोटोशॉप किया है।

अयान जब खुश होता है तो उसके होंठ अजीबोगरीब तरीके से फैल जाते हैं और आंखों से हंसता है वह। सलाम ने बेटे अयान से कहा - 'देखो, अगले सण्डे दादी-अम्मी का सालाना है, अपने चलेंगे कब्रिस्तान और वहां तुम्हारी दादी की कब्र पर फातिहा पढ़ेंगे। ठीक! सण्डे है तो छुट्टी की प्राब्लम नहीं रहेगी।’

अयान ने हामी भरी।

सलाम अपनी अम्मी की तस्वीर बड़े गौर से देखने लगे। जवानी के दिनों में अम्मी बम्बई हाजी अली की दरगाह गई थीं। यह तब की फोटो है। काफी पुरानी श्वेत-श्याम फोटो। उस समय फोटो खिंचवाना भी एक महंगा शौक रहा होगा। अम्मी बताया करती थीं कि उनकी बड़ी बहन बम्बई में रहा करती थीं। छोटे मामू के साथ अम्मी बम्बई गई थीं तब मामू ने ही यह तस्वीर यादगार के तौर पर खिंचवाई थी। तस्वीर में मामू भी हैं लेकिन अयान ने फोटो क्रार्प करके सिर्फ अपनी दादी-अम्मी के चेहरे को ही डेवलप किया है। अम्मी की आंखें बड़ी-बड़ी हैं, चौड़ा माथा और ठुड्डी पर मामूली गड्ढा। साठ के दशक की किसी हीरोइन की तस्वीर जैसी। ठुड्डी पर हल्का सा गड्ढा, ठीक यही निशानी सलाम के चेहरे पर भी है। इसीलिए सलाम खुद को अपनी अम्मी की फोटोकापी कहते थे। शायद इसीलिए मौत के बाद भी अम्मी सबसे ज्यादा सलाम के सपनों में आती हैं। देखा जाए तो अम्मी का लगाव सलाम के छोटे भाई कलाम से ज्यादा था, लेकिन कलाम इस क़दर दुनियादार हुए कि उन्हें खानदान में किसी से लगाव न रहा। कलाम भाई का प्रापर्टी डीलर का धंधा चमक गया और वह इस धंधे में डूबते-उतराते हैं। बहुत व्यस्त रहते हैं। आए दिन क्लांईंट से डीलिंग में रवां रहते हैं। सलाम ने कलाम को रिंग किया। भाई ने फोन उठाया। उधर से आदतन कलाम ने सलाम किया होगा। सलाम ने कहा - 'व अलैकुल अस्सलाम भाई। और खैरियत तो है न!’’

उधर से जो कहा गया हो। सलाम ने कुछ देर कलाम की बात सुनकर कहा - 'अगले सण्डे को अम्मी का सालाना है। आओ न घर पर मिला जाए। साथ चलेंगे कब्रिस्तान फ़ातिहा पढऩे। सोचता हूं कि मदरसे के बच्चों को बुलाकर कुरआन-ख्वानी भी करा दी जाएगी और इसी बहाने मिलना-जुलना भी हो जाएगा।’

शायद कलाम ने व्यस्तता बताई होगी लेकिन फिर मान गया होगा।

सलाम ने 'ओके, आओ तो फिर!’ कहते हुए फोन काट दिया।

सलाम की बीवी खदीजा आसपास ही थी जो सलाम की बात सुनकर टांट मारने लगी - 'कहां समय होगा देवरजी के पास। बड़े आदमी हैं। उसकी बीवी देखो न आए दिन सोने के नए-नए सेट बनवाती रहती है और आप कुछ कहें तो उनके पास काम-धंधे की मजबूरी रहे आती है।’

सलाम को खदीजा की इन बातों से गुस्सा आ ही जाता है। वह झगडऩे के मूड में आ गया लेकिन अयान की मौजूदगी में चुपचाप खून के घूंट पीकर रह गया। अयान तो ठीक है लेकिन यदि उसके बड़े भाई अमान के सामने मियां-बीवी में झगड़ा हो जाए तो अमान फिर बीमार पड़ जाता हैं। अमान के स्कूल में इस बाबत रिपोर्ट भी आ चुकी है कि काउन्सलिंग के दौरान अमान ने मां-बाप के झगड़े को अपनी मानसिक बीमारी का कारण बताया था। स्कूल के प्रिंसीपल ने सलाम और खदीजा को ऑफिस में बैठाकर समझाया था कि बच्चों के सामने किसी तरह की पारिवारिक बहस या तनातनी की बातें न की जाएं। सम्भव हो तो बच्चों की अनुपस्थिति में लड़ाई-झगड़ा करें।

सलाम को प्रिंसीपल की सलाह याद हो आई और एक बड़ा झगड़ा टल गया।

लेकिन सलाम ऐसे मानने वाला इंसान नहीं है। वह अक्सर दुश्मनी याद रखे रहता है और मौका पाकर गड़े मुर्दे उखाडऩे में माहिर है। खदीजा बोलने को तो बोल गई लेकिन वह भी जानती थी कि इस तरह शौहर का खामोश रह जाना किसी बड़े झगड़े की अलामत है।

लेकिन हक़ीक़त तो यही है, खदीजा जानती है। सलाम अपने खानदान में सबसे मेल-जोल रखते हैं और आना-जाना, लेन-देन में शामिल रहते हैं ठीक इसी के उलट उनका देवर कलाम सिर्फ अपने बीवी-बच्चे और धंधे में ही उलझा रहता है। देवरानी भी बड़े ठसके वाली है और थोड़ा बद्तमीज़ भी है। रहे आए अपनी बला से! हुंह!

खदीजा अपने काम में मशगूल हो गई।

 

इस प्रापर्टी डीलर के धंधे में कलाम को इस क़दर अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि वह वीरान पुश्तैनी मकान को बेचने का प्रोग्राम बना बैठा। अक्सर वह सलाम से कहा करता कि यदि भविष्य में कभी भी इस मकान में किसी के रहने का इरादा नहीं है तो क्यों न इसे बेच-बाच दिया जाए। नगर के दिल में बसा मकान है। बेशक इसकी डिजाईन पुरानी है। जो भी लेगा इस मकान तो तोड़कर एक नया मकान खड़ा करेगा। सबसे बड़ी बात है कि मकान नगर के दिल में बना है सो दाम भरपूर मिलने की सम्भावना है।

इस तरह के आफ़ र को सुनकर सलाम नाराज़ हुए थे। उनके बचपन का ख़्वाब था कि इसी मकान में वह अपना बुढ़ापा गुजारेंगे। उनके समस्त डॉक्यूमेंट्स में स्थाई पता के रूप में इसी मकान का पता दर्ज है। वह नहीं चाहते कि अम्मी-अब्बा की निशानी इस मकान का सौदा करके रुपए कमाए जाएं।

सलाम जानते हैं कि दोनों भाईयों के पास अपने-अपने सर्वसुविधायुक्त मकान हैं। दोनों की घरवालियां इस रिमोट में बसे कस्बे में आकर रहने की सोच भी नहीं सकती हैं। पहले यह घर मिट्टी का हुआ करता था। धीरे-धीरे पूरा मकान पक्का बना और फिर होनी को मंजूर नहीं था कि यह पक्का घर ज्यादा दिन गुलज़ार रहता। सो एक दिन ऐसा भी आया कि घर मकडिय़ों, तिलचट्टों का डेरा बन गया। सलाम की सोच का कारण था अम्मी का गुमनाम जीवन और उनकी गुमनाम मौत। सलाम सोच रहे थे कि अम्मी रह कर भी ऐसे रहीं कि जैसे उनका कोई वजूद न हो। कितनी गुमसुम और ख़ामोश रहा करती थीं अम्मी जब उनके पास कोई आल-औलाद रहने के लिए न बचे। परिंदों के पंख उग आए और सब दूर देश में कमाने-खाने फुर्र हो गए। बच गए इतने बड़े मकान में अम्मी और अब्बाजी। भरे पूरे घर की तमन्ना पाले अम्मी अब्बा के साथ इतने बड़े मकान में तन्हा रहते-रहते एक दिन अल्लाह को प्यारी हो गईं। क्या उनका नाम अम्मी ही था। उनका असली नाम जो भी हो लेकिन बच्चों के लिए तो अम्मी ही था। उन्हें असली नाम से नाना-नानी बुलाते थे जिन्हें अल्लाह ने ज्यादा हयात नहीं ब$ख्शी थी। अम्मी के मायके वालों ने बचे थे एक मामू जो कि आज़ादी के बाद पाकिस्तान चले गए तो कभी-कभार खतो-किताबत में उन्हें अजीज़म खालिदा लिखा करते थे। सलाम-कलाम यही जानते थे कि अम्मी का नाम अजीज़म खालिदा है।

जबकि उनका असली नाम खालिदा था। इस नाम को वह जानने कब से भूल चुकी थीं। तब आधार कार्ड का ज़माना नहीं था। उनकी शिनाख्त के लिए कभी किसी को ज़रूरत ही नहीं पड़।

रजिस्टर के गत्ते से बड़े एहतियाद से कव्हर किए गए राशन कार्ड में उनका नाम दर्ज था क्योंकि वह एक यूनिट थीं और इसी आधार पर राशन-दुकान से चावल, गेहूं और शक्कर मिला करती थी। उनका नाम वोटर-लिस्ट में अंकित था। धुंधली सी एक तस्वीर के साथ मतदाता पहचान-पत्र पर उनका नाम था। अब्बा की बैंक पास-बुक में उनका ज्वाइंट एकाउण्ट के कारण काम जुड़ा हुआ था। इस ज्वाइंट एकाउण्ट वाले बैंक खाते का वह कभी इसलिए इस्तेमाल नहीं कर पाईं क्योंकि उनका निधन अब्बा की मृत्यु के पहले हो गया था।

अम्मी के और कई नाम थे। खाला, चाची, फूफी, काकी, दादी, नानी और सलमानबो या सलमान-बहू। सलमानबो इसलिए कि उनके शौहर यानी सलाम के अब्बा का नाम था सलमान। एक और नाम कभी-कभी सुनने में आता था। पटनहिन। क्योंकि तब बहुओं को उनके मायका शहर के नाम से भी इंगित किया जाता था। अम्मी का मायका कभी बिहार की राजधानी पटना में हुआ करता था। फिर उनका इतना बड़ा परिवार तितर-बितर हो गया लेकिन उनके नाम के साथ पटना भी जुड़ा तो पुराने लोग उन्हें पटनहिन के नाम से भी याद किया करते थे। फिर वह सब पुराने लोग भी एक-एक कर मर-खप गए और पटनहिन नामलेवा कोई बचा नहीं।

वह दुनिया में आईं और एक लम्बी पारी खेलकर जहान से चुपचाप रूख़सत हुईं अम्मी।

अम्मी को सभी से मुहब्बत थी लेकिन सबसे ज्यादा मुहब्बत उन्हें अपनी सबसे छोटी बेटी सकीना से थी। लोग कहते भी हैं कि सकीना अम्मी की फोटोकॉपी है। अम्मी का सबसे ज्यादा दुलार और प्यार सकीना ने ही पाया था। सलाम को सकीना और उसके शौहर-बच्चों से बड़ी मुहब्बतें हैं लेकिन इधर ऐसी मसरूफ़ियात हैं ज़िन्दगी में कि ईद-बकरीद में भी बात करने की फुर्सत नहीं निकाल पाते। सकीना ही है जो यदा-कदा सलाम को फोन कर लिया करती है। सकीना का फोन आता है तो जैसे सलाम का चेहरा खिल जाता है। सलाम के इस खिले चेहरे से खदीजा को चिढ़ है। अपनी बहन से बतियाने में कितने खिल जाते हैं सलाम। चहक-चहक कर बातें करते हैं। बाकी सब मुंह इस तरह बनाए रखते हैं जैसे कोई मर-मुरा गया हो घर में खदीजा के इन तानों-उलाहनों से बात खतम करने के बाद निपटते हैं सलाम। खूब किच-किच मचती है और घर के बच्चे सहम जाते हैं।

अम्मी का इस दुनिया-ए-फ़ानी में होना किसी समय ज़रूरी रहा होगा लेकिन उनके जाने के बाद उनका न होना कभी किसी की चिंता का कारण नहीं बना। पता नहीं उनके जन्म पर उस समय उनके वालदैन और अन्य रिश्तेदारों के सामने क्या हालात रहे होंगे। वह बताया करतीं कि वह उस बड़े परिवार की सबस आखिरी औलाद थीं। जब वह पैदा हुई थीं तब उनकी सबसे बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी। इस विशाल परिवार में उनकी आमद कोई ज़्यादा खुशी की बात ज़ाहिर है न रही होगी। ऐसी औलाद अगर लड़की निकल आए तो फिर घर में जैसे मनहूसियत का बसेरा हो जाता है। क्या फ़ायदा ऐसी संतान से? जबकि उनसे बड़ी चार बहनें और चार भाई पहले से मौजूद हों। उनके अब्बा तो जैसे एक कन्या की पैदाइश की खबर इस तरह सुने होंगे गोया कि व्यापार में कोई ग़लत फैसला ले लिया गया हो और नुकसान उठाना पड़ रहा हो। चूंकि व्यापार में नफ़ा-नुकसान का खेल चलता रहता है सो उन्होंने इस खबर के नुकसान की भरपाई की कोई तरकीब भी सोच ली होगी क्योंकि उनका मानना था कि अच्छा व्यापारी नफ़ा की खबर पर ज्यादा खुश नहीं होता और नुकसान की खबर से तत्काल दुखी नहीं होता है।

पुराने मकान की दीवार पर एक तस्वीर बन कर चुपचाप टंगे रहना या फिर एल्बम की तस्वीरों में छिपे रहना। इन तस्वीरों का देखने की फुरसत भी अब किसी के पास नहीं।

यह सारा ज़िक्र उसके बारे में है जो जब तक जीवित रहीं, अपने दम जीवित रहीं और जब चल बसीं तब उनकी यादें भी जैसे उनके साथ क़ब्र की गहराईयों में द$फ्न हो गईं। खुद की दिया ही दिया था उन्होंने और लिया बहुत ही कम था। उनके लेने के लिए अवसर तलाश कर आ जाते थे बेटे-बेटियां, बहू और दामा, नाती-पाते। उनकी भी कुछ ज़रूरतें होंगी इससे किसी को कोई मतलब नहीं। हां, उनके शौहर भी कहां उनके साथ खड़े दिखलाई दिये कभी। हर किसी की अगली ख़्वाहिशें, अपनी ज़रूरतें, अपनी मासरूफ़ियात। ख़तों किताबत के ज़माने में वह चिट्ठयां लिख-लिख भेजा करती थीं - 'अल्लाह पाक से दुआ है कि तुम सब भी खैरियत से होंगे। मेरी फ़िक्र न किया करो और हां, अपनी सेहत का खयाल रखा करो। खाना वगैरा समय से खा लिया करो।’ ऐसी ही जाने कितनी दुआएँ और समझाईसे। उन्हें शयाद मालूम न था कि उनकी सलाह और दुआएं अब इन पंख लेगे परिन्दों को नहीं हैं। ये परिन्दे तो ऐसी उड़ानों से मकन हैं कि इनके पैर कभी ज़मीन पर टिकते ही नहीं है।

एक ज़माना था कि कर्ज़ लेकर बड़े काम करने की कोई सोचता भी नहीं था और का ज़मान ऐसा है कि कर्ज़ लेना शान की बात समझी जाती है। लोन लेकर अपने कैसे भी ख़्वाब पूरा करने की सहूलत का फायदा उठाना, बैंक की किश्तों को पटाना और फिर किसी दूसरी ख़्वाहिश पूरा करने के लिए नए लोन लेने की जुगत में मशगूल रहना। घर, गाड़ी, बच्चों की एजुकेशन जैसे मरहलों से जूझती आज की पीढ़ी को इतनी मुहलत कहां कि घर के बड़े-बुजुर्गों से मिलने का समय निकाल सकें।

इंसान की ज़िंदगी में शादी के बाद एक ऐसा नया रिश्ता आ खड़ा होता है जिसे साढ़ू का रिश्ता कहा जाता है। यह रिश्ता जीवन में तब तक बने तमाम रिश्तों से बड़ा हो जाता है। साढ़ू और साली। इस रिश्ते के आने से अपने सगे भाई-बहिन से रिश्तेदारी भी स्वमेव  समाप्त होने लगती है।

 

सलाम अपनी अम्मी की कब्र के पास खड़े सोचों के समंदर में गोते लगा रहे हैं। कितनी खूबसूरत जगह पर बसा है यह शहरे-खामोशां। वाकई बड़े-बुजुर्गों ने जब इस जगह को कब्रिस्तान के लिए चयन किया होगा तब उनके ज़ेहन में कैसे खयालात आए होंगे। बचपन से इस कब्रिस्तान से सटे ईदगाह में ईद-बकरीद की नमाज़े पढ़ते आ रहे हैं सलाम। ईदगाह के बगल में खाली पड़ा एक बड़ा सा मैदान जिस पर फफोलों की तरह उभरी मिट्टी की आकृतियां। ईदगाह के सामने बाईपास रोड। एक तरफ रेलवे लाईन और पीछे अचानक किसी अलसाए हाथी सा खड़ा एक काला पहाड़। इस पहाड़ को सिद्धबाबा पहाड़ी कहा जाता है। इस पहाड़ी के शीर्ष पर वायरलेस टावर है। इस पहाड़ी के नीचे और आस-पास के बीस किलोमीटर क्षेत्र में काला-हीरा यानी कोयले की दर्जनों खदानें हैं।

अम्मा और अब्बा के हयात में चाहे जितने मसरूफ़  रहे हों लेकिन आज सलाम के पास फुरसत ही फुरसत है। उन्होंने अपने छोटे भाई कलाम से भी मोबार्ईल पर बात की थी कि एक बार एक साथ अम्मी की क़ब्र में फ़ातिहा पढ़ लिया जाए। पहले तो भाई ने कहा था कि भाई आप पहुंचें मैं भी आ रहा हूं। जब सलाम ने कब्रिस्तान के गेट किनारे कार पार्क  की और देखा कि भाई की गाड़ी नहीं पहुंची है तो कार में बैठे-बैठे ही कॉल किया। इस बार रिंग बहुत देर तक बजती रही। फिर यह संदेश आया कि कस्टमर अभी कॉल रिसीव नहीं कर रहा है। सलाम को चिंता हुई लेकिन दो मिनट बाद उनका मोबाइल बजा।

छोटा भाई कलाम - 'भाई साब, सॉरी! वो बॉस ने एक अरजेण्ट टास्क में फंसा दिया है। मोबाइल साइलेण्ट मोड पर था। मुझे लंच बाद ही फुरसत मिल पाएगी। अभी आ नहीं पाऊंगा।’

सलाम अपने बच्चों अमान और अयान को साथ लेकर बड़े से गेट को खोलकर कब्रिस्तान के अंदर जा पहुंचे। नगरपालिका वालों ने अंजुमन कमेटी के लिए यहां अब अंदर गलियारे बना दिये हैं। पचास मीटर के गैप पर सीमेंट के चबूतरे बने हैं ताकि ज़ियारत करने वाले सुस्ता सकें।

ऐसा ही एक बेंच पर सलाम बैठ गए।

फिर उठे तो दाहिनी तरफ नीम के दर$ख्त के किनारे से आगे बढ़े।

हज़ारों कब्रों के बीच अम्मी और अब्बा की क़ब्रों की जगह वह पहचानते हैं।

छोटे भाई कलाम ने दोनों की कब्रों पर संगमरमर की तख्तियां लगवा दी हैं।

सलाम ने अम्मी की कब्र के पैताने खड़े होकर कब्र की मिट्टी को छुआ तो जैसे उन्हें लगा कि अम्मी को छू रहे हों।

अमान ने कब्र की तख्ती पर दर्ज नाम को पढ़ा - 'मरहूमा ख़ालिदा’।

उसने पूछा - 'दादी अम्मी का नाम मरहूमा ख़ालिदा था क्या पापा?’

सलाम ने जवाब दिया - 'मरहूमा माने स्वर्गीया समझे। उनका नाम खालिदा था।’

सलाम की आवाज़ बेहद ठण्डी थी।

वह सोच रेह थे इस तख्ती के नाम के अलावा अब अम्मी के नाम का कोई अस्तित्व इस संसार में नहीं रह गया है।

अब्बा की मौत के बाद जिस तरह से सलाम भाई उनका मृत्यु-प्रमाणपत्र बनाने के लिए व्यग्र थे, अम्मी की मौत के बाद उनका मृत्यु-प्रमाणपत्र का किसी को ख्याल भी न आया।

अब्बा के पास बैंक में जमा-राशि थी। पोस्ट-ऑफिस में दो खाते थे। ज़मीन-मका के काग़ज़ात उन्हीं के नाम थे। अब्बा के हुजरे में एक पेटी में तमाम खाते, ज़मीन-जायदाद के रिकार्ड सुरक्षित थे जिसे तीजा होने से पहले ही कलाम ने अपने क़ब्ज़े में लेने की कोशिशें की थीं। ख़दीज़ा अपने देवर की इन हरकतों को पैनी निगाहों से देख रही थी। उसने अपनी ननद सकीना और शौहर सलाम को कलाम की इन हरकतों के बारें आगाह किया था।

सलाम ने कलाम को डांटा भी था और पेटी की चाभी अपने पास रख ली थी।

चहल्लुम के बाद जब एक बाल सलाम अपने पुश्तैनी मकान में आए तो उन्होंने पाया कि अब्बा के हुजरे से वह पेटी ही गायब है। कलाम से फोन पर बात की तो उसने बताया कि अब्बा के बैंक और पोस्ट-ऑफिस के खातों को रेगुलेट करना है कि नहीं? आप आए हैं तो एक-दो दिन रूकिए। अब्बा ने पोस्ट-ऑफिस के खाते में आपको नामिनी बनाया है और बैंक के खाते में कलाम को। पोस्ट-ऑफिस के एकाउण्ड का पैसा आप ही को मिलेगा। सलाम को गुस्सा तो बहुत आया लेकिन वह ख़ामोश रहे।

अम्मी की मौत के बाद ऐसी कोई उलझन नहीं थी।

अम्मी के पास कुछ भी नहीं था सिवाए एक दर्द भरे दिल के सिवा।

वह जब तक जिन्दा रहीं सबके लिए मुहब्बतें और दुआएं ही बांटती रहीं जबकि सयाने हो गए बच्चों को उनकी मुहब्बतों और दुवाओं की ज़रूरत नहीं थी।

बेशक, वह इस तरह जिंदा रहीं जैसे उनका कोई वजूद ही न हो।

 

 

 

कवि कथाकार अनवर सुहैल कोल इंडिया में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। पहल में इसके पूर्व उनकी कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं।

मो. 9907978108

 


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