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अगस्त : 2019

बाघैन

नवीन जोशी

 

 

क्या बात, शेरू? आज नहीं खाता रोटी? ...खा ले,यार। खा ले... क्या सूँघ रहा बाहर को? यहाँ कौन आने वाला हुआ? वह भी इस रात को? ...अरेऽऽऽ, कहीं बाघैन (बाघ-गंध)तो नहीं आ रही?... हाँ यार, कुछ लग तो मुझे भी रहा... बाघ ही होगा...अब तुझ पर नजर होगी उसकी। भौंक मत। तेरी भौंक से डरता है वो? चुप। मैं करता हूँ जोर का हल्ला... हो-हो-होऽऽऽ... हो-हो-होऽऽऽ... अब भाग जाएगा। यहाँ और क्या है उसके खाने को तेरे सिवा।

खा, अब रोटी खाले.... और सुन, तू बच के रहा कर. तुझे भी उठा ले गया तो? चल देता है कभी बंदरों को खदेडऩे, कभी सुअरों को भगाने... बड़ा समझता है अपने को? जब पड़ता है बाघ के हाथ। तेरा बाप, तेरी महतारी, तेरे भाई-बहन कहाँ गये, कुछ पता है? सब इसी बाघ के पेट में गये। टप्प से उठा ले गया एक-एक करके। खबर भी नहीं लगी। जब वे गायब हुए तब पता हुआ... नहीं तो और कहाँ जाने वाले हुए वो?

तेरा बाप ससुरा, था बड़ा प्यारा। सफेद तन पर काले बूटे ऐसे, जैसे किसी ने बराबर छाप रखे हों। कहाँ से लाया होगा नाक के ऊपर वह काला लम्बा टीका जैसा! क्या खूब फबता था, यार! तुम भाई-बहनों को मिले ही नहीं वह काले ठप्पे। माँ पर गये तुम सब। और, मोहिला इतना कि सीधे गोद में आ बैठने वाला हुआ। पहला गास हाथ से खिलाना ठहरा साले को। वर्ना खा ही देने वाला नहीं हुआ। सुबह-सुबह मुझे उठाने को ठण्डी थूथन पैरों में लगा देता था, रजाई के अंदर मुँह ठूँस के। डाँटो साले को तो नाराज हो जाने वाला हुआ। फिर मनाना ठहरा।

उसके जाने का बड़ा दु:ख हुआ, यार! तू छोटा-सा था तब। उस शाम सीढ़ी में बैठा था। वहीं, देहरी के नीचे पहली सीढ़ी में बैठा रहने वाला हुआ जब मैं रोटी पकाता था। नजर सीधे चूल्हे की तरफ। बात करने वाला हुआ मैं उससे- ओ ठप्पू, रोटी खाएगा, हाँ!  'ठप्पू’ रखा ठहरा मैंने उसका नाम। वह कभी आँखों से जवाब देने वाला हुआ, कभी पूँछ हिला के कूँ-कूँ कर देने वाला हुआ।

तो, उस दिन भी बैठा था उस सीढ़ी पर। मैं तवे पर रोटी सेकते-सेकते बात कर रहा था उससे। नजर मेरी हुई चूल्हे की तरफ। कुछ देर से साले ने न कूँ-काँ की, न नाक से सूँ-साँ। मैंने देहरी की तरफ देखा तो नहीं दिखा। नीचे आँगन में गया होगा सोचा मैंने। रोटी पका के हाथ धोने बाहर गया तो वहाँ भी नहीं था।

- 'ओ, ठप्पू!’ पुकारा मैंने। कितनी आवाजें दीं। वह होता तो आता! उसके हिस्से की रोटी रखी ही रही। सुबह भी नहीं दिखा। मैंने पूरे गाँव में ढूँढा। कुछ दिन बाद ऊपर जंगल में उसकी सूखी खाल दिखी। काले ठप्पे वैसे ही चमक रहे ठहरे। तब जानी कि उस दिन बाघ उठा ले गया था उसे।

और, तुम्हारी माँ सूबेदारनी। हाँ, यार! सूबेदारनी रख दिया था मैंने उसका नाम। असली सूबेदारनी सुनती तो बहुत गाली देती। मगर गाँव में होती तो पता चलता न उसे। जब से सूबेदार जी का परिवार गया यहाँ से, उन्हीं के आँगन में बैठी रहने वाली ठहरी। रोटी खाने आती थी मेरे पास, फिर सीधे वहीं। जैसे, खाली मकान का पहरा करने को कह गये होंगे उससे। रात को उन्हीं के गोठ में सो रहने वाली हुई। तुम उसी गोठ में पैदा हुए। भूरा रंग था। पूरे बदन में कोई दूसरा एक छींटा भी नहीं। जैसे तुम हो। माँ पर ही गये तुम सब। बाप की तो कोई निशानी नहीं पायी।

ठप्पू के जाने के कुछ महीने बाद की बात है। तुम भाई-बहन थोड़ा बड़े हो गये थे। पाँच तुम, दो तुम्हारे माँ-बाप। आठवाँ मैं। रोटी पाथते-पाथते हाथ थक जाते थे। हाथ से चक्की पीसनी पड़ती तो कौन कर सकता था। चार मील नीचे सड़क की दुकान से आटा लाद के लाना ज्यादा आसान हुआ... क्या मजेदार दिन थे, यार! दिन में हम सब लगाने वाले हुए पूरे गाँव का चक्कर। पहले छुरमल ज्यू के मंदिर में घण्टी बजाने वाले हुए। घण्टी सुन के तुम सब दौड़ के आ जाते। फिर हमने हर घर-आँगन का दौरा करना ठहरा। कभी तुम लोग मेरे आगे-आगे, कभी पीछे। और करना भी क्या ठहरा हमने।

तो, एक सुबह रोटी खाने नहीं आयी। मैंने आवाज मारी- ओ, सुबेदारनी, रोटी नहीं खानी आज? तब भी नहीं आयी। मंदिर की घण्टी सुन के तुम सब आ गये मगर सुबेदारनी का पता नहीं। मैंने सूबेदार जी के गोठ में देखा कि कहीं बीमार-हीमार तो नहीं पड़ी है करके। वहाँ भी नहीं हुई। फिर कभी नहीं दिखी, यार! बाघ ससुरा तुम लोगों की ताक में लगा रहता था। जब तू अकेला बचा तब मुझे समझ में आयी। इसीलिए तुझे भीतर रखता हूँ। अकेले बाहर जाने को मना करता हूँ। मगर तुझ साले को अकल ही नहीं। कभी बन्दरों के पीछे, कभी सुअरों के। तेरे ही चक्कर में घूम रहा ये बाघ, समझा?

चल, अब रोटी खा। चला गया बाघ।

 

हाँ-हाँ, उठता हूँ यार, उठता हूँ। अपनी ठंडी नाक हटा मेरे पैरों से। अपने बाप की ये आदत खूब पायी तूने। पता है-पता है, सुबह हो गयी। मगर करना क्या हुआ इतनी जल्दी उठ के। न गोठ में गाय रँभा रही, न गोबर निकालना हुआ और न जंगल जा कर घास लानी ठहरी। जंगल घर तक आ गया। सो, लकड़ी का इफरात हुआ। विकास वाले नल भी लगा गये आँगन में। वे तो दिशा-मैदान के लिए के लिए भी एक कोठरी बना गये ठहरे। शौचालय कह रहे थे। रात-बेरात, बारिश-हारिश  के समय ही ठीक हुआ।

अच्छा-अच्छा, तुझे बाहर जाना होगा। चल, खोलता हूँ दरवाजा। दूर मत जाना, हाँ!... आहा!... क्या सुंदर घाम खिला है पार हिमालय में। सोना जैसा पिघला ठहरा। पहले के दिन होते तो अब तक गाँव में हो-हल्ला मच रहा होता। कहीं किसी की सासू चीख रही होती, कोई हलवाहे को पुकार रहा होता कि कहाँ मर गया, कोई अपने जंगल में घुसी घस्यारिनों को हाँक रहा होता और मंदिर की घण्टियाँ टनटना रही होतीं।

मंदिर के जिक्र से याद आया, आज वहाँ लिपाई करनी है। कई दिन हो गये। अब एकादशी-पूर्णिमा तो याद रहती नहीं। जिस दिन मान लो। देवता का थान हुआ। लिपाई-घिसाई कर देनी ठहरी। ऐपण-सैपण मेरे से जो क्या होते हैं। ठीक है? क्या राय तेरी?

चल, मैं हो गया तैयार। ये भुंकर (भ्वांकरा) और चँवर देख के ही तू समझ गया होगा मंदिर जाना है करके। तभी दौड़ रहा आगे-आगे। छुरमल ज्यू हुए हमारे ग्राम देवता। उनकी सेवा करनी ठहरी, जितना हो सके।

तू बैठ यहीं, नीचे। पता ही हुआ तुझे, मंदिर में नहीं आना है करके। पहले जरा थान लीप दूँ। जय हो, छुरमल ज्यू महाराज, जय हो तुम्हारी। दाहिने हो रहना। भूल-चूल की माफी देना। सबकी रक्षा करना। देस-परदेस में जो जहाँ हुआ, सबकी। ये तुम्हारे नाम का दीया, पूरे गाँव की तरफ से। ये भ्वांकरा बजा दूँ। गुँजा दूँ दूर-दूर तक पहाड़ों को। टु-ढ्वाँऽऽऽ-टु-टु-टुऽऽऽ-..... इन धुर-जंगलों को पता चलना चाहिए कि अभी हमारा गाँव जिन्दा है। एक फौजी अभी हारा नहीं है। ये चँवर गाय की पूँछ तुम्हारी सेवा में। ये शंख-घण्ट। तुम्हीं हुए पालनहार सबके।

देख रहे हो छुरमल ज्यू, तुम्हारे आँगन में चारों तरफ लटकी ये घण्टियाँ! टन-टन- टन न्न्न्... ये घण्टा जो बजाया मैंने अभी, जिसकी टंकार ऊपर पहाड़ से टकरा कर नीचे घाटी तक गूँज रही है, अमरीका वालों ने चढ़ाया...टन्न-टन्न ऽऽऽ, ये वाला दिल्ली वालों ने....टन-टन-टन.... ये मधुर घण्टी लखनऊ वालों की है....ट-न्-न्-न्... ये मुरादाबाद वालों की। वहाँ खूब बनने वाली हुई घण्टियाँ...। ये जो ऊपर लटकी है, बम्बई से आयी है, मुम्बई कहते हैं अब तो...। वो, उधर आगरा की, टन-टन-टन.....  इतनी सारी घण्टियाँ, नयी-पुरानी। कितने नाम बताऊँ। कहाँ-कहाँ नहीं पहुँचे हमारे गाँव वाले। खूब बरकत हुई बाहर जा कर। घण्टियों का साइज बताने वाला हुआ उनकी हैसियत। भूले नहीं हैं तुम्हें। कौन भूल सकने वाला हुआ अपने देवता को। कभी ध्यान नहीं रहा, तो हारी-बीमारी में, दु:ख-तकलीफ में याद आ जाने वाली हुई तुम्हारी। तब तुम्हारे नाम की घण्टी और दक्षिणा चढ़ा जाने वाले हुए।

क्यों रे शेरू, सुन रहा न तू भी। छुरमल ज्यू से आशीर्वाद माँगना ठहरा कि हे ईश्वर, देस-परदेस में सबको कुशल रखना। दो-चार साल में एक बार आते ही हैं बेचारे... और, जो नहीं पहुँच सकते तुम्हारी देहरी तक, मोटर सड़क से चार किमी की चढ़ाई नहीं चढ़ सकते, वे किसी के हाथ भिजवा देने वाले हुए तुम्हारी भेंट। नीचे सड़क तक मोटर-कार आ जाने वाली हुई। वहीं से हाथ जोड़ दिये कि प्रभू, भूल-चूक माफ करना। तुम्हारी देहरी तक नहीं आ सकते, शरीर की लाचारी है। ये भेंट स्वीकार करना।

हाँ, रे शेरू, देवता सबकी सुनने वाले हुए यहाँ बैठे-बैठे. वो कहीं जाने वाले नहीं हुए। यहीं थापा ठहरा हमारे पुरखों ने उनको। यहीं हुआ उनका वास। आदमी की तरह देवता थोड़ी जाने वाले हुए परदेस!

क्यों भौंक रहा ऊपर को देख के? अरे, वो धूल-धुँआ? सड़क बन रही यार, बताया तो था तेरे को। पहाड़ काट रहे मजदूर। डायनामाइट दाग रहे चट्टान काटने को। तेरी भौंक से बंद नहीं होगा काम। सरकार बनवा रही। जंगल के बीच से गुजरेगी सड़क। अच्छा है, हमारा गाँव थोड़ा नजदीक हो जाएगा। लोग आसानी से आ सकेंगे। इन सड़कों ने मनखियों को बाहर ले जाने का काम खूब किया। अब क्या पता, कुछ को वापस ले आये। किसी बंद मकान के किवाड़ खुल सके तो एक गास तेरा भी बढ़ जाएगा, खुशी की बात हुई। वो किस्सा सुना है तूने?... बिल्ली कहने वाली हुई कि मेरे मालिक की आँख फूट जाती तो मैं दूध चुरा के पीती। कुत्ता कहने वाला हुआ कि मेरा एक मालिक बढ़े तो सुबह-शाम मेरा एक टुकड़ा बढ़ जाएगा... छुरमल ज्यू कृपा करें, ये सड़क बढ़ा दे तेरा एक-दो गास!

माचिस कहाँ रख दी यार? धूनी जलानी थी... ये रही, वास्कट की जेब में... कितना अच्छा लगता है, शेरू, जब मंदिर की धूनी से धुँआ उठता है... लगता है गाँव साँस ले रहा है, देवता का आशीर्वाद उठ रहा है जमीन से आसमान तक... जय हो, छुरमल ज्यू... कृपा बनी रहे।

चल, अब गाँव का चक्कर लगा लें। आज किसकी तरफ जाना है? कल तो मायाराम जी के यहाँ गये थे। उनके आँगन की झाड़-झंखाड़ साफ की। उनको सफाई बहुत पसंद थी, शेरू। तूने देखा ही नहीं उनको। आँगन के पाथरों को भी चमका के रखने वाले हुए। घास-फूस का एक-एक तिनका उखाड़ते थे। अब उतना मुझसे कहाँ हो पाता है! इतना कर देना ठहरा कि बंजर-उजाड़ नहीं लगे।

उधर कहाँ चला? अच्छा, नारायण कका के यहाँ चलें, कह रहा? ठीक हुआ, आज उन्हीं की तरफ चलते हैं। देखें उनके पाख की हालत कैसी है। पिछली बरसात में टपक रही थी। पाथर खिसक गये होंगे। मकान को देख-भाल की जरूरत होती है। पाथर पजोरने पड़ते हैं। पानी भीतर गया तो दार (लकड़ी की बल्लियाँ) सड़ जाएगा। चल, आज उनके पाथर ठोक-ठाक देते हैं। ठीक याद दिलाया तूने। छत बची रहेगी तो मकान बचा रहेगा। एक आस टिकी रहेगी।

ओहो, यहाँ तो कई पाथर गजबजी रहे। खिसक रहे अपनी ठौर से। एक-दो तो टूट भी रहे। टूटे पाथर बदलना जरूरी हुआ। पाख की धुरी में इसीलिए रखे रहते हैं कुछ पाथर... ये काम तो हो गया। अब कैसे पता चले कि छत कहाँ-कहाँ से टपक रही? तू इस काम का भी नहीं हुआ कि भीतर जाकर एक डण्डे से उस जगह ठक-ठक कर देता जहाँ पानी टपकने के दाग पड़े हैं। ठक-ठक से मैं समझ जाता कि कहाँ से पानी जा रहा भीतर। अब गौर से देखना पड़ेगा। खिसके पाथरों को देख कर अन्दाजा लगाना होगा। करना पड़ेगा, शेरू। अपने बिरादर का मकान हुआ।

ये नारायण कका भी जोरदार आदमी थे। तू क्या जानने वाला हुआ उनको। बहुत पुरानी बात हुई। मेरे बचपन के दिनों की। अपने मकान की लकड़ी के लिए उन्होंने बिशन सिंह का टुणी का पेड़  कटवा दिया। खूब ही झगड़ा मचा। मार-पीट की नौबत आ गयी। फिर पंचों के कहने पर नारायण कका ने रुपये भर दिये। बाद में पता चला कि बिशन सिंह ने पेड़ बेचने से मना कर दिया था, इसलिए उनकी गैर-मौजूदगी में नारायण कका ने यह प्रपंच रचा ठहरा। वे टुणी की ही लकड़ी लगाना चाहते थे। टुणी की लकड़ी हुई बहुत पक्की। देख, आज तक कितनी मजबूत छत है। सैकड़ों साल कुछ नहीं होने वाला हुआ इस लकड़ी को। मगर पानी मिल गया तो समझो दुश्मन। तभी तो बीच-बीच में पाथरों की देख-भाल जरूरी हुई। जरूरी तो शेरू, धुआँ भी हुआ। मकान में सुबह-शाम चूल्हा जला, धुआँ उठा तो मकान की उम्र बढऩे वाली हुई। अब कौन जलाये यहाँ चूल्हा। हफ्ते-दस दिन में एक बार सगड़ में आग जला कर मेरे धुआँ कर देने से क्या होने वाला हुआ।

अच्छा! तू साले वहाँ मेहल के नीचे बैठा है छाँह में और यहाँ पाख में घाम जोर का लग रहा... बैठा रह, बैठा रह, यार! मैं भी आता हूँ नीचे। वहीं तेरे साथ बैठ कर एक बीड़ी पी लूँ, कैसा रहेगा?... बीड़ी भी खतम हो रही, क्या! कल चलेंगे बाजार। राशन की दुकान में गेहूँ-चावल भी आ गया होगा। थोड़ा तेल-गुड़ भी लेना है। कल होगी आठ मील की दौड़, चार जाना, चार आना। सुबह निकल चलेंगे घाम आने से पहले... क्या देख रहा ऐसे? कण्ट्रोल की दुकान का ही तो रोटी-भात खा रहा तू। इन बंजर खेतों में जो क्या पैदा हो रहा! तू भी कैसी बात कर रहा, यार!

चल, अब दोपहर होने को आयी। दो दिन से रोटी खा रहे। आज भात पकाता हूँ। छाँछ होती तो बनाते झोली। कितना समय हुआ झोली-भात खाये... झोली का नाम सुन कर इतनी लम्बी जीभ मत निकाल। इन वीरान गोठों से आ रहा क्या दूध जो दही जमाते, मक्खन बिलोते! भूल जा वह स्वाद। भट लाया था पिछली बार लछम सिंह की दुकान से, जब पेंशन लेने गया था। उसी की चुड़काणी बनाते हैं। गंदरैणी रखी होगी तो छौंक लगा दूंगा। किसने सोचा था, शेरू कि मडुआ और भट भी मोल लेकर खाना पड़ेगा... खैर, बाड़े में हो रहे ऊगल के पत्ते। उसका टपकी (साग) बना देता हूँ। ठीक रहेगा? बोये तो यार पिनालू भी थे। साले सुअर खोद-खोद कर खा गये। बानर-सुअरों ने ऐसा उत्पात मचा रखा है, क्या करें। वर्ना इन फौजी हाथों में अभी इतना जोर तो हुआ ही कि चार बाड़ों में साग-पात बोया जा सके। कहाँ से आये होंगे ये सुअर ससुरे। पहले तो पहाड़ में हमने इनका नाम भी सुना न ठहरा... आदमी लापता हुआ तो जंगली जानवरों का ही राज होगा।

ओहो...शेरू, ये क्या गजब हुआ? कब गिरा रे ये शोबन सिंह का मकान?... च्च...च्च...च्च... कल दिन में तो ठीक-ठाक दिख रहा था। कल रात गिरा शायद। मगर कोई आवाज नहीं सुनाई पड़ी। तू भी तो नहीं भौंका.... शिब-शिब, खन्यार (खण्डहर) हो गया रे, शोबदा तुम्हारा मकान। ये आठवाँ मकान है जो हमारे देखते-देखते ढहा। मैंने हिसाब लगा रखा, रे शेरू! ... और क्या कर सकने वाला हुआ? आज अब दुकान तक जाना नहीं हो पाएगा। ...मन खट्टा हो गया, साला!....मिल जाएँ तो इनके गोलू देवता को निकालने की कोशिश करते हैं। पता नहीं मलबे में कहाँ दबे होंगे।

रुक-रुक! ...तू उस ढेर पर मत चढ़। कोई पत्थर खिसका तो वहीं हो जाएगी तेरी क्वाँक्कि।  इधर आ, इधर से दिख रहा भीतर जाने का रास्ता... मैंने पहले ही कहा था शोबदा के बच्चों से कि यारो, तीन भाई हो। छुरमल ज्यू की कृपा से वहाँ आगरा और दिल्ली में अच्छा कमा रहे हो। छत पर टीन डलवा दो। पाथर तो अब मिलते नहीं। टीन पड़ जाएगी तो लकड़ी सड़ेगी नहीं। मकान बचा रहेगा। ये पाथर अब नहीं चलने वाले। ...हाँ-हाँ, करते हैं, कहा। मगर पलट के नहीं देखा। आज गया मकान। अब जो क्या आएंगे इसे बनवाने।

चार साल पहले आये थे तीनों भाई, याद है तुझे? छोटे वाले बेटे की संतान नहीं हो रही थी। बड़े वाले की बीवी बीमार रहती थी दिल्ली में। इलाज से कोई फायदा नहीं हो रहा था। तब उस साल गोलू ज्यू की पूजा करने आये थे। छुरमल ज्यू को भी घण्टी चढ़ा गये। तभी कह दिया था मैंने कि यारो, पुरुखों की निशानी हुई। इसे बचाने का जतन करो। बिल्कुल ही छोड़ दिया तुम लोगों ने। मगर ना, मेरी क्या सुनते। मुँह के सामने हाँ-हाँ कह गये, बस।

शेरुआ, तू तो था नहीं, जब शोबदा को छोडऩा पड़ा था गाँव। अकेला, बूढ़ा और बीमार। वह तो जाने को राजी ही नहीं था। बीच वाला बेटा उठा ले गया आगरा। वहीं मरा, बल। बेचारा, जाते समय रो रहा था। कैसी आँखों से देख रहा था मकान को, पेड़-पौधों को। मेरे हाथ में सौ रु का नोट थमा गया था। हाथ जोड़ के, आँसू बहा के कह रहा था- आनंद भुला, रोज शाम को साँकल खोल के गोलू ज्यू के थान में हमारी तरफ से एक बत्ती जला देना। परदेस का रहना हुआ। देवता की ही आस हुई... दो साल से ज्यादा मैंने दिया जलाया रे, उनके गोलू ज्यू के थान में। कब तक करता। यहाँ सभी के देवता अकेले रह गये ठहरे। किस-किस का ध्यान रखता। छुरमल ज्यू से ही माँग लेता हूँ सबकी कुशल।

ओ हो, ये देख.... उधर मत जा कह रहा हूँ,... बाईं तरफ की बल्लियाँ सड़ कर गिरी हैं। पानी पैठा होगा छत से। वर्ना क्या होता है लकड़ी को।  मकान टिका रहता है तो किसी के लौटने की आस भी बनी रहती है। अब शोबदा का नामलेवा भी यहाँ कौन आएगा।

रहने दे, शेरू, रहने दे। क्षमा करना हो, गोलू देवता, इस खतरनाक ढेर में आपको ढूँढना हम इनसानों के बस की बात नहीं। जहाँ हो, जैसे हो, पड़े रहो। देवता ठहरे तुम। हमारी बेबसी समझने वाले हुए। शोबदा के बच्चों को भी माफ करना। उनको क्या दोष देना। जगत की रीत ही ऐसी चल पड़ी।

क्या कहता है, शेरू. चलें दुकान की तरफ? आज मन उदास हो गया रे। देर भी हो गयी। घाम लगेगा रास्ते में। ...चलें, कहता है? ...चल, फिर। यहाँ भी क्या करना ठहरा हमने। रोटी खा ही ली है. शाम तक आ जाएंगे माठू-माठ (धीरे-धीरे)।

 

शेरुआ रे, थोड़ी देर को बैठ जाते हैं, यार। बूढ़ा शरीर हुआ, थकान हो जाती है अब। चढ़ाई भी यह विकट है। ऊपर से 20-25 किलो सामान हुआ। तू तो चल दे रहा सीधे। थोड़ा सामान उठाने के काबिल भी नहीं हुआ। तेरी जगह बकरी होती तो थोड़ा उसकी पीठ पर बाँध देता। ...अच्छा, अच्छा, नाराज मत हो। बकरी नहीं चाहिए थी मुझे। उसे तो बाघ कबके टीप ले गया होता। असली दोस्त हुआ तू मेरा। सुख-दु:ख सुन देने वाला।

आ, यहाँ बैठते हैं। इस बाँज की छाया में। चीड़ के जंगल में अकेला बाँज कैसे हुआ होगा? न-न, बाँज के जंगल में चीड़ का हमला हुआ ठहरा। अब यह बूढ़ा बाँज अकेला लड़ रहा। बिल्कुल अपनी तरह लगता है यह पेड़ मुझे। लड़ेगा जब तक लड़ सकेगा। ले, ये बिस्कुट खा। तुझे पसंद हैं,न! तभी तो खरीदे मैंने दुकान से, हाँ!

दुकानदार लछम सिंह क्या कह  रहा था, सुना तूने? तू साले कहाँ सुनने वाला हुआ। सड़क पर पहुँचते ही लग गया ठहरा उस काली कमली के पीछे। उससे बड़ी दोस्ती है रेतेरी। वह भी तो तेरा इन्तजार करती है। तुझे देखते ही कैसे पूँछ हिलाती दौड़ी आती है! तो, तू कहाँ सुनने वाला हुआ लछम सिंह की बात।

कितने साल से, हर बार यही कहने वाला हुआ लछम सिंह कि गुरू, आनंद बल्लभ, क्यों पड़े हो उजाड़ गाँव में अकेले? कोई मुख बोलने को भी नहीं हुआ। मैं कहता हूँ, ये है तो मेरा शेरू, तो लछम सिंह हँसता है। कहता है- तुम्हारे जैसा इनसान नहीं देखा, आनंद गुरू! उजड़े-बंजर गाँव की पहरेदारी में बैठे हो। जैसे कोई लौट के आने वाला हो। इतने साल पल्टण में रहे। कहीं शहर में बना लेते मकान। नीचे हल्द्वानी की तरफ ही बस जाते, जैसे और पल्टण वाले कर रहे। लोग गाँव छोड-छोड़ कर जा रहे और तुमने यहाँ खूँटा गाड़ रखा है। शादी तुमने की नहीं। एक भाई था तो बहुत पहले गुजर गया। बाल-बच्चे उसके कबके शहर चले गये। जब तक गाँव में दो-चार लोग थे, तब तक तो चलो ठीक था। अब निपट अकेले में क्या करने को रुके ठहरे! पागलों की तरह दूसरों के मकानों की देख-रेख करते हो। कहीं दीया जलाते हो, कहीं धुँआ लगाते हो। खाली मकानों को तो खण्डहर होना ही हुआ। कैसे मन लगता है तुम्हारा... यहीं चले आओ, सड़क किनारे बना लो एक कोठरी, मानुष का मुख तो देखोगे...

लेकिन इस बार लछम सिंह ने ऐसा कुछ नहीं कहा, सुन रहा तू? इस बार उसने बिल्कुल नई बात कही। कहने लगा गुरू, तुम्हारे गाँव के बारे में एक खबर सुनी है। सुनी क्या है, अखबार में भी आयी थी। सो, सही ही होगी। ये जो तुम्हारा गाँव हैना, मल्ला सेरा, अब खाली हो गया ठहरा। एक तुम्हारी क्या गिनती हुई! तो गुरू, तुम्हारे गाँव की जमीन सरकार किसी बड़ी कम्पनी को दे रही है, बल। प्राइवेट कम्पनी वहाँ खूब बड़ा स्कूल खोलेगी। खूबसूरत जगह ठहरी। सामने हिमालय की चोटियाँ। हरा-भरा इलाका। शानदार इमारतें बनेंगी. स्कूलकी इमारत होगी, हॉस्टल होगा,स्टेडियम बनेगा... और भी जाने क्या-क्या...  देश-विदेश से बड़े-बड़े लोगों के बच्चे यहाँ आकर रहेंगे, पढ़ेंगे। बड़ा भारी प्रोजेक्ट है। वह तो यह भी कह रहा था कि सड़क शायद तभी बन रही!

तो शेरू, क्या कहता है? हमारे गाँव में स्कूल खुलेगा तो अच्छा ही हुआ न! बच्चे आकर पढ़ेंगे। यहीं रहेंगे। खूब चहल-पहल होगी। गाँव आबाद हो जाएगा। मुझे तो खुशी हो रही। तुझे नहीं लग रहा अच्छा? टेढ़ा मुँह क्यों बना रहा?... और खाता बिस्कुट? ले फिर... खा।

चल अब। बहुत हो गया आराम। चाय का अमल भी लग रहा मुझे।

 

क्यों उठा रे आधी रात को? मुझे तो नींद ही नहीं आ रही। ... तुझे क्या हुआ? ...फिर बाघैन!...  ये बाघ साला तेरे पीछे ही पड़ गया है. रोज रात को लगा रहा चक्कर। ...चुपचाप सो जा। दरवाजे पट्ट बंद कर रखे मैंने... आ, मेरे पास आ। भौंकना मत, हाँ!

मेरी नींद क्या सोच कर उड़ी है, बताऊँ तुझे? लछम सिंह की उस बात का तो मेरे पास जवाब हुआ कि गुरू, अकेले गाँव में क्यों डटे हो... ऐसा हुआ कि हमारी यूनिट की पोस्टिंग थी बटालिक सेक्टर में। कारगिल की लड़ाई छिड़ गयी। जुबर टॉप पर पाकिस्तानी फौज ने चुपचाप कब्जा कर लिया ठहरा। हमारी यूनिट को उसे खाली कराने का हुकुम हुआ। हम उस अँधेरी रात में चढऩे लगे उस चोटी पर। खड़ी चढ़ाई हुई और बर्फ पड़ी ठहरी। आगे-आगे हमारे कैप्टन। ऊपर से दुश्मन गोलियाँ बरसा रहा ठहरा। क्या जवान गबरू छोकरा था वह कैप्टन। सुना है तूने उसका नाम, मनोज कुमार पाण्डे? परम वीर चक्र मिला उस वीर को। शहीद हुआ वह उस लड़ाई में। मगर क्या बहादुरी से लड़ा। सारे फौजी हमारी यूनिट के शहीद हुए उस रात। घायल कैप्टन के पीछे एक मैं बचा था। दुश्मन के एक-एक बंकर को नष्ट किया हमने। चोटी पर फतह करने के बाद मेरे सामने ही प्राण त्यागे उस वीर कैप्टन ने। मुझसे बोल के गया- जवान आनंद, यह टॉप अब हमारे कब्जे में है। शायद मैं न बचूँ मगर तुम अपने प्राण रहते यहाँ से हटना नहीं, जब तक और कुमुक न आ जाए... मैंने जोर का सलाम ठोका उस बहादुर शहीद को... और वहाँ डटा रहा.... हम सिपाही अपना मोर्चा नहीं छोड़ते। प्राण रहने तक लड़ते हैं... इस जवाब के आगे लछम सिंह चुप हो जाने हुआ।

लेकिन यार, आज लछम सिंह ने जो खबर सुनाई, उसका क्या जवाब हुआ मेरे पास?  दिन में तो मैंने तुझसे कह दिया कि गाँव में स्कूल खुल रहा तो अच्छा ही हुआ, गाँव गुलजार हो जाएगा... लेकिन यार, शाम से दूसरी ही खुद-बुद मच गयी है मन में... सरकार हमारी जमीन प्राइवेट कम्पनी को दे देगी। फिर हमारा गाँव कहाँ रह जाएगा? जमीन गयी तो हम भी गए, गाँव भी गया। प्राइवेट कम्पनी खा जाएगी गाँव को... सारी जमीन निगल जाएगी वह। यह सोच कर मुझे बड़ी भारी चिंता जैसी हो रही अब। इसमें खुश होने जैसा तो कुछ नहीं, उलटे आफत आने वाली बात है। तभी से नींद गायब है। समझ रहा तू मेरी चिंता?

मैं इस एक बाघ के लिए परेशान था कि कहीं तुझे भी न खा जाए। अब और भी भयानक बाघ आ रहे। ये कम्पनी हम सब के लिए बाघ ही तो हुई। और, ये हमारी सरकार कैसी है? क्यों दे रही होगी किसी कम्पनी को हमारी जमीन? सरकार भी गाँवभक्षी बाघ नहीं हुई क्या? उसे हमने गाँव बचाने के लिए चुना या गाँव बेच खाने के लिए?

बाघ ही बाघ हो गये यार, चारों तरफ। पहले एक बाघ विकास का आया। वह शहर में रहता है, बल! गाँव-गाँव से सबको खींच ले गया. यहाँ नहीं आ कर रह सकता था वो विकास-हिकास! तब हमने कहा, हमें अलग राज्य दो। हम अपने पहाड़ का विकास खुद करेंगे। खूब लड़ाई लड़ी हमने। बड़ी भारी कीमत चुकाई। राज्य मिला तो वह और बड़े बाघों के हाथ पड़ गया। पहले लोग रोजी-रोटी के लिए गाँव से जा रहे थे मगर जमीनें तो बची थीं। गाँव हमारा ही है, जैसा भी है। अब सरकार नाम का बाघ जमीनें ही खाने लगा। हमारी जड़ ही उपाडऩे लगा। ऐसा अनर्थ!

डर लग रहा तुझे? चल छोड़. लड़ेंगे, यार। उससे भी लड़ेंगे। डर मत।

सोचता हूँ, तेरा ब्याह कर ही दूँ अब। लछम सिंह से कह के ले आता हूँ उस काली कमली को....हा-हा-हा.... शेरुआ साले, तेरी आँखें कैसी चमकने लगी उसके नाम से!

हँसी-ठट्टा नहीं रे शेरू, कल ही जाते हैं तेरी दुल्हन लाने। साले, अभी से कह दे रहा हूँ, पहली बार ही एक दर्जन बच्चे पैदा करना.... अरे, आठ-दस तो करेगा, न? खूब चहल-पहल होगी। कोई इधर से कूँ-काँ करेगा, कोई उधर से भौं-भौं.  गाँव मेंहल्ला-गुल्ला मचा करेगा.

बाघों से डर कर तो काम चलेगा नहीं। एक टुक्याव (चीख) तो लगानी हुई न!

 

 

नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं, दैनिक हिन्दुस्तान लखनऊ के संपादक रहे हैं, अब फ्री लांसर है। पहल में उनकी कहानी पहली बार। संपर्क - 3/48, पत्रकारपुरम, विनय खण्ड, गोमती नगर, लखनऊ-26010,मो. 9793702888

 


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