मनोज रूपड़ा की कविताएं
मनोज रूपड़ा
कविता
एक बार सोचना चाहिए
जब तकलीफें बहुत बढ़ जाएं तब हमें रोना चाहिए लेकिन अपने आप से थोड़ा बाहर निकलकर तब ये लगता है कि हम अपनी तकलीफ के लिए नहीं, किसी और की तकलीफों के लिये रो रहे हैं।
अपने गुमसुम खयालात से ज़िंदगी की हलचलों की तरफ़ बढ़ो तो लगता है किसी ने हमें अपने आगोश में ले लिया है
फिर रुलाई के दूसरे दौर में हमारी बाँहें खुल जाती है और वो आँखें भी, जो चीज़ों को वक़्त के साथ देखती है
वे सब चीजें जो आपस में एक-दूसरे से जुड़ी हैं और एक दूसरे से अलग है इन सब चीज़ों को अपने आगोश में लेकर देखना चाहिए वे जायज़ हो या न हों वाज़िब हों या न हो उन्हें अपने सीने से लगाए रखना चाहिये हो सकता है कुछ चीजों से तुम्हारे दामन में दाग लग जाए मगर बिना कुछ सोचे - समझे उन चीज़ों से प्यार करना चाहिए
बहुत सी चीजें हैं बहुत से लोग हैं जरूरी नहीं कि सब के सब सभ्य हों जरूरी नहीं कि सब के सब सदाचारी हों इनमें से कुछ अक्षम्य रूप से गंदे होंगे कुछ छिछोरे छिनेरे और बदमाश कुछ नशेड़ी हरामखोर और कमीने कुछ लुच्चे - लफंगे और फूहड़; स्त्रियाँ भी संभवत; वैश्यालु, धोखेबाज़ और धूर्त हों लेकिन जरूरी नहीं है कि जो बदनाम है वह पापी भी हो जरूरी नहीं है कि जिसने पाप किया है वह दुष्ट भी हो जिस धरातल पर वे सब के सब खड़े खड़े हैं उस धरातल को भी एक बार बार देखना चाहिए
जो उस धरातल पर खड़े है उन्हें अगड़ा समझने की भूल न करें वह लंपटों का एक नारकीय, जड़हीन और आकृतिहीन समुदाय है किसी भी तरह की निष्ठा में असमर्थ किसी भी तरह के ज्ञान और श्रम का शत्रु वे दलित हैं न सवर्ण हिन्दू हैं न मुसलमान जात - पात और मज़हबी दायरे से बाहर इतने बेहिस कि किसी भी तरह की सियासी हवस उन्हें निगल नहीं सकती वे पहले बीमार फटेहाल और पागल थे तो तलछटी गाद में बिलबिला रहे थे और अब खुले में आ रहे हैं वे लूट पाट करेंगे छीना झपटी करेंगे चोरी और उठाईगीरी करेंगे भौतिक वस्तुओं के कबाडख़ानों और डम्पिंग यार्डों में घुस कर संभोग करेंगे चूहों की तरह बच्चे पैदा करेंगे हर तरह के हरामों - नाजायज़ को अपना हक समझेंगे प्रशासन कांटेदार बाड़ों के पीछे इस महामारी को रोक नहीं सकता इन्हें सिर्फ लुच्चे लफंगे समझने की भूल न करें यह एक रिज़र्व प्रेम आर्मी है वीभत्स... विकराल... और विधर्मी...
थूक घृणा का सबसे साफ़ समझ में आने वाला प्रतीक है लेकिन उन पर थूकने से पहले सोचना चाहिए कि तुम्हारे थूक में मान्यता प्राप्त सामाजिक नैतिकता की मिलावट तो नहीं है? सोचने की और भी वजहें हो सकती है जहरीले रसायनों और रेडिएशन से दूषित इस पृथ्वी में और भी कई पाप हैं एन्थ्रेक्स बम परमाणु बम डिपथीरिया और नापाल्म बम की विध्वंसक शक्तियों के साथ कि महाशक्तियों के अनैतिक संबंध हैं? खनिजों को हथियाना अगर कोई अपराध नहीं है तो किसी जरूरतमन्द जेबकतरे और मालगाड़ी से कोयला चुराने वाले को क्यो जेल में डाला जाए?
किसी वैश्या को सुधारगृह में डालने से पहले जरा उस महावैश्या की मटकती चाल को भी देखना चाहिए जिसके एक हाथ में दीवानी और दूसरे हाथ में फौजदारी है जो अपने रक्तरंजित होंठों से किसी घोटालेबाज़ का मुंह चूम रही है जिसकी जांघों के बीच से मुक्तव्यापार का द्वार खुलता है विच्छोभ से भरे भूगर्भ पर खड़ी होकर धर्म और राजनीति के बीच जो नंगी नाच रही है, एक बार उसके बारे में भी सोचना चाहिए हर बार सिर्फ विधर्मियों पर नहीं धर्म और राज्य पर भी थूकना चाहिए
चेहरे के भाव ''क्या हाल है’’ पूछे जाने पर ''सब ठीक है’’ कहना का चलन है चेहरे पर चाहे कितनी भी सरल मुस्कुराहट हो लेकिन हर बार ''सब ठीक है’’ का मतलब सब कुछ ठीक है नहीं होता
खुश होना और खुशमिजाज़ दिखना दोनों अलग अलग चीजें हैं अदाकारी एक दोधारी तलवार है
अगर तुम जैसे हो वैसे नहीं दिखना चाहते तो तुम्हें तलवार की धार पर चलना पड़ेगा तुम कब तक नार्मल होने की एक्टिंग करते रहोगे तुम्हारे दिल में जब टीस उठ रही थी, तुम्हारे होंठ सीटी बजा रहे थे तुम जब किसी धुन पर थिरक रहे थे; जब तुम्हारे चेहेरे की चिरकन देखने लायक थी
पर छोड़ कर भाग जाने जैसे हालत में सीटी बजाना और थिरकना मुश्किल होता है अगर कोई अपना दुख दर्द या अपना डर छुपाने की कोशिश करता है तो उसे ये अहसास मत दिलाओ कि तुम खराब अभिनेता हो उसकी बजाय इस बात पर गौर करो कि वह किन कारणों से अपने चेहरे के भाव छुपा नहीं पाया
एक न एक दिन हर किसी को अपने जीवन में अभिनय करना पड़ेगा हमारे पुरखे हमलावरों से अपनी जरूरी चीजें छुपाना जानते थे हमें भी अपने चेहरे के भाव छुपाना आना चाहिये
हमारे पुरखे मुखोटेबाज़ थे वे एकरूप किए जाने के संकट से बहुरूपिये बनकर निपटते थे वे जानते थे कि विदूषक बनकर कला और जीवन की सरहद पर नृत्य करना क्यों जरूरी है वे जानते थे कि खुद हंसी का पात्र बनकर किसी निरंकुश गंभीरता को कैसे खंडित किया जा सकता है कि चालाकी पूर्वक फैलाए गए किसी अधिकारिक सच को किस्सों - कहानियों में उलझाकर झूठ कैसे साबित किया जा सकता है
किसी ''आधार’’ से अपनी पहचान जोडऩे और उसे अपना लेने से पहले खुद को पहचानना आना चाहिए
अब वो समय गया जब एक कंट्रोल टावर केंद्र में होता था और टावर में मौजूद पहरेदार चारों और वृत्त में बनी कोठरियों पर निगाह रखता था कोठरियों में क़ैद हमारे पुरखे उसे देख नहीं पाते थे लेकिन उन्हें आभास होता था कि ''वो’’ कहाँ देख रहा है
शक्ति संरचना की नई पद्धति ने एक ऐसा क़ैद खाना बनाया है जिसमें न कोठरियाँ है न कंट्रोल टावर
हम सी सी टी वी कैमरे की निगरानी में हैं एक अज्ञात फेस रीडर सब को देख रहा है हमें भी ''उसे’’ बिना देखे देखना आना चाहिए।
कथाकार मनोज रूपड़ा इस बार संभवत: पहली बार कविताओं के साथ। उनकी कई मशहूर कहानियां पूर्व में पहल में छप चुकी हैं। संपर्क - मो. 9823434231
|