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जून 2019

एक तराना, एक मंत्र, एक इबादत की विरल गाथा

रमेश अनुपम

मूल्यांकन

 

 

 

''भगवा सुग्गे सही मौके की टोह ले रहे थे। सो उन्हें छुट्टा छोड़ दिया गया। वे विश्वविद्यालयों और अदालतों में छा गए, संगीत सभाओं में उत्पात मचाने लगे, सिनेमाघरों में तोड़-फोड़ करने लगे और किताबें जलाने लगे। शिक्षा की एक सुग्गा समिति गठित की गई जो इतिहास को मिथक में और मिथक को इतिहास में बदलने की प्रक्रिया तैयार करने लगी। लाल किले के साउंड एंड लाइट शो में संशोधन होने वाला था। जल्दी ही सदियों के मुस्लिम शासन से उसकी शायरी, संगीत और वास्तुकला को हटाकर उसे तलवारों की टकराहट और खून जमा देने वाली ललकारों तक सीमित कर दिया जाने वाला था।’’

''पर्यटक उड़ गए। पत्रकार उड़ गए। हनीमून वाले उड़ गए। फौजी उड़ आए। पुलिस थानों और फौजी कैंपों में औरतें उमड़ पड़ी। वे अपने हाथो में अँगूठा लगे, कोनों में मुड़े हुए और आँसुओं से गीले पासपोर्ट साइज की तस्वीरों को जंगल लिए घूमती थी: हुजूर क्या आपने मेरे बेटे को कहीं देखा? क्या आपने मेरे शौहर को कहीं देखा? क्या मेरा भाई कहीं किसी तरह आपकी पकड़ में आया? और हुजूर लोग अपना सीना फुलाते, अपनी मूँछें मरोड़ते, अपने तमगों से खेलते और आँखे सिकोड़कर अंदाजा लगाते कि किसकी तकलीफ  को कितनी तबाह करने वाली उम्मीद में बदलना फायदे का सौदा होगा।’’

 

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अरुंधति राय का नवीनतम उपन्यास 'अपार खुशी का घराना’ (द मिनिस्ट्री ऑफ अट्मोस्ट हेप्पीनेस) पिछले बीस-पच्चीस वर्षों से टूटते-दरकते, छीजते-बिखरते भारत की कथा है। यह इस महादेश की बेतरतीब पर मुकम्मिल कथा है जहाँ जनतंत्र के नाम पर बस्तर तथा कश्मीर में हजारों सैकड़ों लोगों की बलि चढ़ाई जाती है, जहाँ इतिहास को तब तक रौंदा जाता है, जब तक वह फासिस्ट ताकतों के लिए सत्ता में काबिज होने की सीढ़ी के रूप में तब्दील न हो जाये।

एक तरह से अरुंधति राय का यह उपन्यास हमारे समय का सबसे ज्वलंत और विचारोत्तेजक दस्तावेज है। जो किस्सागोई की अद्भुत मिसाल प्रस्तुत करता है। जिसमें यथार्थ और फंतासी की जादुई दुनिया है, खूबसूरत शिल्प तथा संगीतात्मक भाषा का अपना एक अलग मिजाज और रियाज है। इस उपन्यास के संदर्भ में यह कथन लाजिमी होगा कि यह उपन्यास इस महादेश के बीस-पच्चीस वर्षों के भूगोल, इतिहास,और राजनीति का एक ऐसा सटीक वृत्तांत है, जिसे जाने बिना इस महादेश को समझने के हमारे सारे दावे फिजूल साबित हो सकते हैं।

उपन्यास का प्रारम्भ दिल्ली के फासिलबंद शहर शाहजहाँनाबाद में रहने वाले एक निम्नवर्गीय मुस्ेिलम परिवार से होता है। हकीम मुलाकात अली और जहाँआरा बेगम के परिवार में चौथी संतान के रूप में आफताब का जन्म होता है। तीन लड़कियों के जन्म के बाद इस परिवार को यह उम्मीद रहती है कि चौथी संतान लड़का ही होगा। आफताब के जन्म के दूसरे दिन जहाँआरा बेगम को पता लग जाता है कि उसका बेटा उभयलिंगी है। वह उसे हजरत सरमद शहीद की दरगाह लेकर जाती है ताकि खुदा की इनायत उस पर हो सके। वह कई वर्षों तक अपने पति से भी यह बात छुपाकर रखती हैकि उनकी चौथी संतान लड़का न होकर उभयलिंगी है।

पाँच वर्ष की उम्र में आफताब को उर्दू हिंदी मदरसे में पढऩे तथा संगीत की तालीम के लिए उस्ताद हमीद खॉ के पास भेजा जाता है। नौ साल की उम्र में वह बीस मिनट तक यमन, दुर्गा, भैरव में बड़ा खयाल गाने, राग पुरिया, घनाश्री में कोमल रिखभ को छूने लगा था। पर उसके उभयलिंगी होने के कारण बच्चे उसके हँसी उड़ाने और चिढ़ाने लगे थे। इससे चिढ़कर आफताब ने उस्ताद हमीद खाँ से संगीत की तालीम लेना बंद कर दिया था। एक दिन जब जहाँआरा बेगम ने अपने शौहर को आफताब की इस सच्चाई के बारे में बताया तो पहले हकीम मुलाकात अली ने इस बात को छिपाने के लिए अपनी पत्नी को कड़ी फटकार लगाई फिर एक दिन आफताब को निजामुद्दीन के प्रसिध्द सेक्सोलाजिस्ट डॉ. गुलाम नबी के पास ले गए जहाँ डॉक्टर ने आफताब को उभयलिंगी घोषित किया,जिसमें आदमी और औरत दोनों की खूसूसियात है।

आफताब पंद्रह वर्ष की उम्र में वसंत की एक सुबह छरहरी, पतले कूल्हों वाली एक औरत को देखता है और उसका तब तक पीछा करता है जब तक कि वह तुर्कमान गेट के गली दकोतान के नीले दरवाजे के पीछे गायब नहीं हो जाती है। आफताब अपना सारा वक्त इस नीले दरवाजे वाले मकान के आसपास बिताना शुरू कर देता है। बाद में उसे पता लग जाता है कि उस नीले दरवाजे वाले घर को 'ख्वाबगाह’ कहा जाता है और जिस औरत का पीछा करते हुए वह यहाँ तक पहुँचता है उस औरत का नाम 'बांबे सिल्क’ है। आफताब लाख मना करने पर भी गाहे-बगाहे 'ख्वाबगाह’ चला जाता है, जहाँ जाने के बाद उसे लगता कि 'उसकी दुनिया में यहीं एक अकेली जगह थी जहाँ की हवा उसे रास्ता देती लगती थी। वहाँ जाने पर लगता वह कुछ हट गई है, थोड़ा खिसक गई है जैसे स्कूल के किसी दोस्त ने क्लास में बेंच पर उसके लिए जगह बना दी हो ‘।

अरुंधति राय आफताब के परिवार के साथ-साथ आफताब के घर के आसपास की बिखरी हुई जिंदगी की कहानियों को भी अपनी कथा में सहेजती चली जाती हैं। चितली कबर से मटिया महल तक बिखरी हुई अनेक जिंदगियों को, जिसमें हर रोज चौक पर मछली का ठेला लगाने वाले खुंदकी गुड्डू भाई, नान खटाई वाले वसीम, फल वाले यूनुस, बिरयानी वाले हसन मियाँ जैसे चरित्र शामिल हैं। अरुंधति की खूबी यह है कि वे हर चरित्र के साथ पूरा-पूरा न्याय करती है। उनके ये चरित्र कथा के विस्तार में जहाँ सहायक सिद्ध होते हैं वही कथा को प्रभावशाली बनाने में भी अपनी एक खास भूमिका का निर्वाह करते हुए दिखाई देते हैं। छोटे-छोटे अनेक चरित्र और घटनाएँ ही किसी वृहद और महान उपन्यास के प्राण तत्व होते हैं यह लेखक पर निर्भर करता है कि वह इन चरित्रों के निर्वहन में कितना गंभीर और सजग है।

इस दृष्टि से अरुंधति राय का यह उपन्यास अनेक चरित्रों, घटनाओं का जीवंत कोलाज है। जो केवल आपको मंत्रमुग्ध ही नहीं करता है बल्कि चरित्रों के साथ, उनकी जिंदगियों के साथ कहीं दूर तक विचरने और जीने का न्यौता भी देता हैं। चितली कबर से लेकर ख्वाबगाह की यात्रा तक जिस तरह अरुंधति राय आफताब के चरित्र और उससे जुड़ी सारी चीजों को अपने इस उपन्यास में बुनती चली जाती हैं। बारीक से बारीक ब्यौरों का भी जिस तरह से वर्णन करती चली जाती है, वह उनके अद्भुत किस्सागोई का परिचायक है भाषा को संगीत में पिरोकर प्रस्तुत करने का उनका अपना एक अलग अंदाज है।

एक दिन अंतत: उस 'ख्वाबगाह’ में जहाँ बुलबुल, रजिया, हीरा, बांबे सिल्क, मैरी, बेबी, गुडिय़ा तथा उस्ताद कुलसूम बी जैसे आठ हिजड़े रहते थे, आफताब को भी जगह मिल जाती है। आफताब को हिजड़ा बिरादरी का सदस्य बनने पर हरे रंग का रव्वाबगाही दुपट्टा नजर किया जाता है। आफताब से अब वह अंजुम बन जाता है।

'ख्वाबगाह’ में रहने वाले हिजड़ा बिरादरी के सदस्यों सहित उस्ताद कुलसूम बी और उसके सुग्गे बीरबल का जिस तरह से अरुंधति राय ने अपने इस उपन्यास में चित्रण किया है वह हमें उनकी अंधेरी-उजयारी और रहस्यमय दुनिया में ले जाने का प्रयास करती हैं जिसे अब तक हम उस तरह से बारीकी और गंभीरता पूर्वक नहीं जानते रहें हैं। आफताब उर्फ अंजुम के जीवन के बहाने अरुंधति राय उस धूसर और ऊबड़-खाबड़ संसार से हमारा साक्षात्कार करवाती हैं, जिनकी राष्ट्रीय नागरिकता में कहीं कोई पहचान नहीं है।

अरुंधति राय के लिए हिजड़ों का परिवार उतना ही मूल्यवान और आवश्यक है जितना कि अन्य परिवार। वे इस उपन्यास के माध्यम से इस परिवार में भीतर तक धँसने और उसे जानने का यत्नपूर्वक प्रयास करती है। उनके सुख ओर दुख को, उनके संघर्ष और स्वप्न को वे यत्नपूर्वक इस उपन्यास में बहुत बारीकी और गंभीरतापूर्वक दर्ज करने का उद्यम करती हैं।

उपन्यास में एक नया और नाटकीय मोड़ तब आता है जब अंजुम को एक दिन जामा मस्जिद की सीढिय़ों पर रोती हुई एक बच्ची मिलती है। जिसे कोई वहाँ छोड़ गया है। अंजुम उस बच्ची को उठाकर 'ख्वाबगाह’ में ले आती है। उसका नामकरण करती है जैनब। जैनब अंजुम का प्यार है जिसके सहारे वह अपने जीवन की नैया को पार करने का ख्वाब देखती है। स्कूल जाने की उम्र होने पर अंजुम जैनब का दाखिला दरियागंज के टेंडर बड्स नर्सरी स्कूल में करवा देती है।

'ख्वाबगाह’ में अंजुम और जैनब के रहने के दरम्यान ही अमेरिका के न्यूयार्क शहर में नौ, ग्यारह घटित होता है। अरुंधति राय ने अपने उपन्यास में इस घटना को कुछ इस तरह से दर्ज किया है: 'अमेरिका में ऊँची इमारतों से जहाजों का टकराना हिंदुस्तान में भी कइयों के लिए वरदान साबित हुआ। मुल्क के कवि प्रधानमंत्री और उनके कई वरिष्ठ मंत्री एक पुराने संगठन के सदस्य थे जिनका खयाल था कि हिंदुस्तान बुनियादी तौर पर हिंदू राष्ट्र है और जैसे पाकिस्तान ने अपने को इस्लामी गणराज्य घोषित किया है, उसी तरह हिंदुस्तान को भी हिंदू राष्ट्र होने का एलान कर देना चाहिए। उसके कई समर्थक और सिद्धांतकार खुल्लमखुल्ला हिटलर की तारीफ करते थे और मुसलमानों को जर्मन यहूदियों जैसा मानते थे। अब जब अचानक मुसलमानों से बैर भाव बढ़ रहा था। इस संगठन को लगा कि पूरी दुनिया उसके पक्ष में है। कवि प्रधानमंत्री ने एक तोतला भाषण दिया जिसमें शब्दों की चातुरी थी, लेकिन अक्सर तर्क का सिरा छूटने पर वे बीच-बीच में लंबी उबाऊ चुप्पी ओढ़ लेते थे। वे बूढ़े आदमी थे, लेकिन बोलते वक्त अपना सर जवानों जैसी अदा में हिलाते, जैसा कि साठ के दशक के फिल्मी सितारे किया करते थे’।

कवि प्रधानमंत्री का यह प्रसंग इस उपन्यास में लेखिका द्वारा जबरदस्ती ठूँसा गया प्रसंग नहीं है वरन् इसका  एक राजनैतिक और ऐतिहासिक निहितार्थ भी है। यह अनायास नहीं है कि अरुंधति राय अपने इस उपन्यास में अपने राजनैतिक एजेंडों को पाठकों से छिपाने का कोई यत्न नहीं करती हैं न ही उसे भाषा की किसी लक्षणा में गुम हो जाने देने की कोई चातुर्यपूर्ण कोशिश ही। अरुंधति बार-बार हमारे समय की मनुष्य विरोधी राजनीति को इस उपन्यास के केन्द्र में स्थापित करने का प्रयास करती हैं ताकि पाठक अपने समय और समाज के भयावह यथार्थ की थोड़ी थाह पा सके। यही कारण है कि अंरूधति राय अंजुम के 'ख्वाबगाह’ के साथ-साथ देश और दुनिया की खबर लेती चलती हैं और उसे अपने वृत्तांत के तानों बानों में एक सूत्र की तरह पिरोती चली जाती हैं। उनका यह उपक्रम इस उपन्यास को एक असाधारण उपन्यास में तब्दील कर देता है, वृत्तांत को एक महावृत्तांत में रूपांतरित कर देता है। इस तरह यह कथा एक अकेली अंजुम की कथा न होकर असंख्य अंजुम की कथा बन जाती है, चाहे उनके नाम और धर्म अलग अलग ही क्यों न हों। यह अकारण नहीं है कि यह कथा दिल्ली के गलियारों से निकल कर गुजरात, कश्मीर और सुदूर बस्तर तक फैलती चली जाती है।

जैनब जब बीमार पड़ जाती है तब अंजुम को लगता है कि तीन साल से अजमेर के हजरत गरीब नवाज के दरगाह पर जियारत नहीं करने से ही ऐसा हुआ है। जब जैनब काफी कुछ ठीक हो जाती है तो वह ए-1 फ्लावर के मालिक और मैनेजिंग डायरेक्टर जाकिर मियॉ के साथ हजरत गरीब नवाज की जियारत के लिए अजमेर निकल पड़ती है। अजमेर शरीफ में दो दिनों तक रूकने के बाद वह जाकिर मियॉ के साथ अहमदाबाद के लिए रवाना हो जाती है। अहमदाबाद जाने के बाद जाकिर मियॉ और अंजुम की कोई खबर किसी को नहीं मिल पाती है। यहाँ जाकिर मियॉ और अंजुम के साथ जो कुछ भी हुआ है उससे लेखिका पाठकों से परिचित करवाती हैैं।

गुजरात में सन् 2002 में हुए साम्प्रदायिक दंगों के वर्णन के बिना जो कि इस महादेश के स्वतंत्रता के पश्चात् का एक सर्वाधिक कलंकित एवं बर्बर अध्याय है, यह उपन्यास अपने निहितार्थ को पूरी तरह से प्रकट नहीं कर पाता। अंरुधति राय गुजरात के भयावह दंगों को जिस तरह से इस उपन्यास में चित्रित करती है। उससे हमारे समय की विद्रूप राजनीति का एक घिनौना चेहरा सहसा उजागर हो जाता है।

अरुंधति राय ने अपने इस उपन्यास में इस पूरी घटना का जिस तरह से चित्रण किया है वह हमें पूरी तरह से झकझोर देने के लिए काफी है। मुझे नहीं लगता कि गुजरात में हुए दंगों का इतना मार्मिक और प्रभावशाली चित्रण कभी किसी उपन्यास में किसी लेखक द्वारा किया गया हो। अरुंधति राय जैसे एक जिद की तरह, जोखिम उठाकर इस भयावह सच को भी अपने इस उपन्यास में अनावृत्त करने का प्रयास करती है।

गुजरात से जो खबर आती है वह काफी डरावनी है। 'एक ट्रेन के कोच में आग लगा दी गई थी जिसे अखबारों ने शुरू में कुछ उपद्रवियों का नाम बताया साठ हिंदू तीर्थ यात्री जला दिए गए थे। वे अयोध्या से घर लौट रहे थे। वे उस जगह एक भव्य हिंदू मंदिर की नींव के लिए ईंटें पहुँचाकर लौट रहे थे, जहाँ एक पुरानी मस्जिद हुआ करती थी। दस साल पहले बाबरी मस्जिद नाम की इस मस्जिद को एक चीखती-चिल्लाती भीड़ ने ढ़हा दिया था’।

'एक कैबिनेट मंत्री ने (जो उन दिनों विपक्ष में थे और जिनकी मौजूदगी में चीखती हुई भीड़ ने मस्जिद को गिराया था) कहा कि ट्रेन को जलाने की घटना पक्के तौर पर पाकिस्तानी दहशतगर्दों की करतूत है। पुलिस ने नए आतंकवाद विरोधी कानून के तहत रेल्वे स्टेशन के आसपास के इलाके से सैकड़ों मुसलमानों को जो उनकी निगाह में पाकिस्तानियों के मददगार थे गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया। उस वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री जो इस संगठन के वफादार सदस्य थे, फिर से चुनाव लडऩे जा रहें थे। वे केसरिया रंग का कुत्र्ता पहने और माथे पर टीका लगाए हुए टी.वी. पर प्रकट हुए और अपनी ठंडी-मुर्दा आँखों के साथ एलान किया कि हिंदू तीर्थ यात्रियों के जले हुए शव राज्य की राजधानी अहमदाबाद लाए जाएंगे जहाँ उन्हें आम जनता के अंतिम दर्शन के लिए रखा जायेगा’।

इस उपन्यास का सर्वाधिक मर्मस्पर्शी घटना है मंसूर द्वारा अपने अब्बा की खोज करना। दो महीने बाद जब तीसरी बार जाकिर मियॉ का बड़ा बेटा मंसूर अपने अब्बा की खोज में अहमदाबाद जाता है तो उसने एहतियात के तौर पर अपनी दाढ़ी मुढ़वा ली है, अपनी कलाई पर लाल रंग का कलावा बांध लिया है ताकि लोग उसे हिंदू समझें। जब वह अहमदाबाद के बाहरी हिस्से में एक मस्जिद के भीतर बनाए गए शरणार्थी कैम्प के मर्दाने हिस्से में पहूँचता है तो वहाँ वह अंजुम को देखता है। जिसके बाल कटे हुए है, सरकारी कारिंदे जैसी गहरी भूरी टेरीकॉट की पेंट और चौखानेदार सफारी शर्ट पहने हुई है। मंसूर अंजुम को लेकर किसी तरह वापस 'ख्वाबगाह’ लौट आता है।

अहमदाबाद के शरणार्थी कैम्प से लौटने के बाद अंजुम काफी बदल चुकी होती है। गुजरात के शरणार्थी शिविर में रहते हुए उसे लोगों ने बताया था कि उसे संस्कृत का गायत्री मंत्र सीख लेना चाहिए ताकि जब भी दंगाइयों की भीड़ से उसका सामना हो, तो वह इसे बोलकर बच सके। अंजुम जैनब को भी गायत्री मंत्र रटवा देती है। ताकि उसके साथ जो कुछ भी हुआ है वह जैनब के साथ कभी न हो।

यह इस उपन्यास क अद्भुत प्रसंग है। अंजुम न केवल जैनब को गायत्री मंत्र सिखाती है वरन् उसे लड़को जैसे कपड़े पहनाती है। अंजुम मुस्लिम औरतों पर होने वाले अत्याचारों को इस दंगे के बाद जैसे बखूबी जान जाती है कि किस तरह साम्प्रदायिक दंगों में सबसे ज्यादा शिकार औरतों को ही बनाया जाता है। कभी बाबरी मस्जिद के नाम पर तो कभी गोधरा या गोहत्या के नाम पर जिस तरह का सलूक अल्पसंख्यकों पर किये जा रहे हैं उसके लिए क्या कभी कोई हमें माफ कर पायेगा। इतनी जघन्यता, इतनी अमानवीयता की जरूरत आखिर क्यों? यह प्रश्न भी इस उपन्यास से निकलकर आता है।

 

अरुंधती राय जिस तरह से अपने इस उपन्यास में अंजुम के चरित्र के माध्यम से देश की बनती-बिगड़ती, लडख़ड़ाती स्थितियों का सिलसिलेवार बखान करती हैं। देश में तेजी से हो रहे राजनैतिक उतार चढ़ाव को इस उपन्यास के विन्यास में विन्यस्त करने का प्रयास करती है। यह उनके लेखकीय दृष्टि और कौशल की एक नायाब बानगी का परिचायक है। इसके साथ ही इस उपन्यास में वे कहीं-कहीं बेहद चतुराई और अतिरिक्त सजगता के साथ कविता या संगीत की कोई धुन रचती हुई भी दिखाई देती है। जो उनके इस जटिल कथानक को न केवल रोचक बनाती है वरन् सम्पूर्ण कथानक को एक नये आलोक प्रदान करती है।

अहमदाबाद से लौटने के कुछ अरसे बाद अंजुम लगभग छियालीस वर्ष की उम्र में एक दिन 'ख्वाबगाह’ को भी छोड़कर एक बेरौनक, उजाड़ कब्रिस्तान में अपना आशियाना बना लेती है। पर यहाँ आकर भी अहमदाबाद में जो कुछ भी उसके और जाकिर मियॉ के साथ हुआ है उसे वह भूला नहीं पाती है। वह याद करती है कि जाकिर मियॉ को मारने के बाद हत्यारे उसे इसलिए छोड़ देते हैं क्योंकि वह एक रंडी या हिजड़ा है। 'एक और आवाज आई। ज्यादा तेज और बेचैन। एक और सुग्गा। नहीं यार, मत मारो। हिजड़ों को मारना अपशगुन होता है। अपशगुन। हत्यारों को अपशगुन से ज्यादा किसी चीज का डर नहीं। आखिरकार अपशगुन भगाने के लिए जो अंगुलियाँ तलवारें चमका रहीं थीं और छुरे लहरा रहीं थी उनमें मोटी और शगुनकारी पत्थरों से जड़ी सोने की अँगूठियाँ थी सो उन्होंने उस पर कड़ी निगाह डाली और उससे अपने नारे लगवाएँ। भारत माता की जय, वंदे मातरम’।

कब्रिस्तान में रहते हुए और उन सारी घटनाओं को याद करते हुए अंजुम यह जानती है कि 'ठंडी आँखों और सिंदूरी माथे वाले मुख्यमंत्री अगला चुनाव जीत जाएँगे। केन्द्र में जब कवि प्रधानमंत्री की सरकार गिर गई तो उसके बाद भी वे चुनाव दर चुनाव जीतते रहे थे’।

सारी दुनिया से अपना नाता रिश्ता तोड़कर कब्रिस्तान में आशियाना बनाकर रहने वाली अंजुम की चिंता उसके पुराने ग्राहक डी.डी.गुप्ता को है। डी.डी.गुप्ता को जब कारोबार के सिलसिले में बगदाद जाना पड़ता है तब वे अंजुम की जिम्मेदारी अपनी पत्नी मिसेज गुप्ता पर छोड़ देते हैं। ताकि अंजुम के पास कब्रिस्तान में बराबर खाना पहुँचता रहे। कब्रिस्तान में धीरे-धीरे उनसे मिलने वालों का सिलसिला बढ़ता चला जाता है। अंजुम का भाई साकिब, उस्ताद हमीद, उस्ताद कुलसूम बी, सईदा, जैनब अंजुम से मिलने कब्रिस्तान आने लगते है।

अंतत: अंजुम इस कब्रिस्तान में अपने लिए एक झोपड़ी बना लेती है जिसमें रसोईघर सहित कई अन्य सुविधाएँ भी वह जुटा लेती है। झोपड़ी पर छत डालकर एक टेरेस जैसा बना लेती है। नगर पालिका के अधिकारी जब कब्रिस्तान में अवैध रूप से घर बना लेने वाली अंजुम के दरवाजे पर गाहे बगाहे नोटिस चिपका जाते है तब अंजुम इन अधिकारियों को एक बड़ी सी रकम और ईद तथा दीवाली के मौके पर माँसाहारी भोजन की लालच देकर अपने पक्ष में कर लेती है।

धीरे-धीरे अंजुम इस कब्रिस्तान में एक गेस्ट हाउॅस भी बना लेती है जिसे वह 'जन्नत’ का नाम देती है। वह अपने घर और 'जन्नत’ को मुर्दाघर से बिजली चुराकर रोशन कर लेती है। इस 'जन्नत’ को धीरे-धीरे वे हिजड़े आबाद करने लगते है, जो हिजड़ा घरानों के सख्त कायदों से बाज आकर इस जन्नत मेंआकर शरण लेते है।

'ख्वाबगाह’ के पश्चात् अंजुम के इस नये आश्रय कब्रिस्तान का जिस तरह से अंरूधति राय ने वर्णन एवं चित्रण किया है वह छोटे-छोटे ब्यौरों, बारीक से बारीक अन्वेषण का परिचय देती है। कब्रिस्तान के माफ्र्त अंरूधति राय ने जिस तरह का दृश्य रचा है, वह किसी नए अनुसंधान से कम नहीं है। इस चित्रण में उनकी भाषा कमाल का काम करती हैं, वह एक साथ कविता, संगीत और चित्र का आभास देती हुई एक ऐसे संसार को अनावृत्त करने का उपक्रम करती हैं जो एक विरल और विहंगम संसार है। जहाँ प्रकृति एक नई भूमिका में है, जहाँ वृक्ष और पक्षियाँ अपने पूरे वैभव में उपस्थित हैं।उनके लिए चिंता और बेचैनी भी यहाँ कोई कम नहीं है। यह अंरूधति राय के गद्य का एक जबरदस्त नमूना भर नहीं है, उनकी चिंता और बेचैनी का व्यापक फलक भी है।

इस उपन्यास के प्रारंभिक खंड में ही अरुंधति राय ने सद्दाम हुसैन तथा डाक्टर आजाद भारती जैसे दो अद्भुत चरित्रों का सृजन किया है। इन चरित्रों के अभाव में सम्भवत: भारतीय राजनीति का वह विराट रूपक इस उपन्यास में सम्भव नहीं हो पाता, जिसके लिए अरुंधति राय ने इस उपन्यास का वृहद ताना-बाना बुना है।

बकरीद की एक सुबह 'जन्नत’ गेस्ट हाउॅस में जिस जवान आदमी का प्रवेश होता है उसका नाम सद्दाम हुसैन है। सद्दाम मुर्दा घर में लाश उठाने का काम करता है। अंजुम को बहुत दिनों बाद यह पता चलता है कि सद्दाम हुसैन का वास्तविक नाम सद्दाम हुसैन न होकर दयाचंद है। जिसका जन्म हरियाणा के एक गाँव बादशाहपुर के हरिजन परिवार में हुआ है। सन् 2002 में गोहत्या के झूठे आरोप में 'जय श्री राम और वंदे मातरम’ का नारा लगाती हुई भीड़ द्वारा उसके पिता को पीट-पीट कर मार डाला जाता है। दयाचंद जो कि अभी बच्चा है अपने पिता की इस तरह नृशंस हत्या होते हुए देखता रहता है। यह सब इसलिए होता है कि जिस मरी हुई गाय को उसका बाप खाल उतारने के लिए टैम्पों पर रखकर ले जा रहा होता है उसे रास्ते में दूलिना पुलिस थाने के थानेदार सहरावत द्वारा रोककर ज्यादा पैसे की मांगकी जाती है। ज्यादा पैसा न दे पाने की स्थिति में दयाचंद के बाप को गोहत्या का दोषी बताकर थानेदार सहरावत द्वारा भीड़ के हवाले कर दिया जाता है।

एक दिन वही दयाचंद अपने चाचा के कुछ पैसे चुराकर दिल्ली भाग आता है। दिल्ली में सद्दाम हुसैन की फाँसी वाली विडियो देखकर अपना नाम सद्दाम हुसैन इसलिए रख लेता है कि 'वह आदमी मौत के सामन ेकितनी हिम्मत और गुरुर से खड़ा हुआ है’। सद्दाम हुसैन सहरावत को मारकर अपने बाप के खून का बदला लेना चाहता है। सद्दाम का यह चरित्र उपन्यास के अंत तकबना रहता है। इस उपन्यास में अंजुम के एक बेहद करीबी मित्र के रूप में पाठक उसे पाते है।

डॉक्टर आजाद भारतीय भी इस उपन्यास का एक महत्वपूर्ण एवं अद्वितीय चरित्र है जो पिछले बारह वर्षों से नयी दिल्ली के जंतर मंतर में भूख हड़ताल पर बैठा हुआ है।अनेक उपाधियाँ प्राप्त औरइंटर कॉलेज गाजियाबाद का यह पूर्व प्रवक्ता डॉक्टर आजाद भारतीय अमेरिकी पूंजीवाद, भारतीय और अमेरिकी राज्य सत्ता के आतंकवाद, तमाम तरह के आणविक हथियारों और अपराध के खिलाफ, खराब शिक्षा प्रणाली, भ्रष्टाचार, हिंसा, पर्यावरण का विनाश, बेरोजगारी के खिलाफ, बूज्र्वा वर्ग के संपूर्ण कामगारों, किसानों, आदिवासियों, परित्यक्त महिलाओं और पुरूषों, बच्चों और विकलांग लोगों के लिए उपवास पर बैठा हुआ है। दो बार उन पर जानलेवा हमला भी हो चुका है लेकिन फिर भी उन्होंने जंतर मंतर पर भूख हड़ताल करना नहीं छोड़ा है। उस जगह को डॉ. भारतीय तभी छोड़ते हैं जब कांस्टीट्यूशन क्लब या गाँधी शांति प्रतिष्ठान में उनकी रूचि के किसी विषय पर कोई गोष्ठी या बैठक हो। डॉ. आजाद भारतीय की कोई जाति नहीं है। अपनी जाति और धर्म को लेकर उनका कथन है कि 'मैं हिंदू को छोड़कर सब कुछ हूँ’।

डॉक्टर आजाद भारतीय इस उपन्यास के एक ऐसे चरित्र के रूप में उभरकर आते हैं जो लेखिका की अपनी आस्था और सिद्धांत को ही एक तरह से प्रकट कर रहे होते हैं। डॉ. भारतीय का सम्पूर्ण जीवन एक महान आदर्श के लिए समर्पित हैं। डॉ. आजाद भारतीय का इस उपन्यास में होना एक विराट स्वप्न का जीवित रहना है, जिसके नहीं होने से सुंदर भविष्य का स्वप्न भी शायद सम्भव नहीं है।

इस उपन्यास में एक अन्य चरित्र के रूप में सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकत्र्ता अन्ना हजारे भी है। अरुंधति राय ने 'अपार खुशी का घराना’ में उनका चरित्र चित्रण करते हुए लिखा है: 'बीस से भी ज्यादा टी.वी. टीमें पीले रंग की क्रेनों पर अपने कैमरों जमाए हुए चौबीसों घंटे उस नए चमत्कार सितारे का चौकसी के लिए जमा थी: वे एक बुढ़ऊ, गोल मटोल गाँधीवादी, ग्रामीण सामाजिक कार्यकत्र्ता बने भूतपूर्व सैनिक थे, जिन्होंने भ्रष्टाचार युक्त भारत के स्वप्न को साकार करने के लिए आमरण अनशन की घोषणा की थी। वे किसी रूग्ण संत की तरह पीठ के बल पसरे हुए थे और उनके पीछे भारतमाता की तस्वीर लगी थी’।

उपन्यास में आगे अन्ना हजारे के चरित्र को उद्घाटित करती हुई लेखिका इस निष्कर्ष तक पहुँचती है कि 'बुढ़ऊ ने एक अच्छे खजाने के खोजी की तरह एक उच्चकोटि के घोटाले को पकड़ा था जिसे लेकर लोगों में बहुत गुस्सा था और इससे वे रातों-रात ऐसे मसीहा बन गए जिसकी उम्मीद खुद उन्हें भी नहीं थी। वे तमाम लोग जिनका आपस में कोई लेना देना नहीं था ( वामपंथी, दक्षिणपंथी, पंथविहीन ) सब उनकी तरफ उमडऩे लगे। जींस और टी शर्ट पहने हुए युवा गिटार और भ्रष्टाचार विरोधी स्वरचित गीतों के साथ आते थे। बुढ़ऊ के देहाती भाषण और उद्बोधन ट्विटर पर खूब चले और फेसबुक पर छा गए’।

सन् 2010 और 2011 में लोकपाल विधेयक के नाम पर जिस तरह अन्ना हजारे ने अपना एक आंदोलन दिल्ली में खड़ा किया था और जिस तरह इस देश की मीडिया ने इस लंडहर आंदोलन को व्यापक रूप से प्रसारित-प्रचारित कर लोकप्रिय बना दिया था उसकी वास्तविक स्थिति को अरुंधति राय ने अपने इस उपन्यास की अंत्र्तवस्तु में बखूबी सहेजने का कार्य किया है। थोड़ा अतीत में पीछे मुड़कर देखने से और उसे विश्लेषित करने से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि परवर्ती राजनीति में इसका सबसे अधिक लाभ देश के किन राजनैतिक दलों को हुआ है।

आज अन्ना हजारे कहाँ है? उनका वह आंदोलन कहाँ और किस रूप में औंधा पड़ा है वह हमसे छुपा हुआ नहीं है। अरुंधति राय इस उपन्यास को जिस तरह के चरित्रों और घटनाओं से बुनती हुई नजर आती हैं वह भारतीय राजनीति और इतिहास का एक विलक्षण उदाहरण प्रस्तुत करता है। जिससे रूबरू हुए बिना भारतीय राजनीति और इतिहास को समझ पाना मुश्किल है।

अरुंधति राय केवल यहीं तक आकर नहीं रुक जाती है, बल्कि सन् 1984 में भोपाल में हुए यूनियन कार्बाइडगैस कांड सहित कश्माीर में हो रही दहशत गर्दी और उस समय तेजी से उभर रहे आप के नेता अरविंद केजरीवाल (जिसे उन्होंने मिस्टर अग्रवाल की संज्ञा दी है) की चर्चा भी बहुत शिद्दत के साथ करती है।

 

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लगभग एक सौ चालीस पृष्ठों के पश्चात् उपन्यास के सातवें अध्याय 'मकान मालिक’ से एक नई कथा का सूत्रपात होता है। यह अंजुम की कथा से किंचित भिन्न कथा है। थोड़ी देर के लिए कब्रिस्तान की गाथा को अरुंधति राय पीछे छोड़ देती है और हमें कश्मीर की सुर्ख तथा रक्तरंजित घाटियों में ले जाती है। जहाँ असख्य निर्दोष कश्मीरियों के खून से पूरी घाटी रंगी हुई दिखाई देती है। यह एक ऐसा कश्मीर है जो वर्षों से बदहाल और पस्त है। जो बेरौनक और उजड़ा हुआ है। जहाँ कदम कदम पर बर्बरता के असंख्य उदाहरण बिखरे पड़े हैं।

इस अध्याय का प्रारंभ चार मित्रों की ऐसी मंडली से होता है जो आपस में एक नाटक के पूर्वाभ्यास के दौरान एक दूसरे से मिलते हैं। नाट्य निर्दशक डेविड क्वार्टरमेन एक अंग्रेजी नाटक 'नार्मन’ के लिए जिन चार पात्रों का चयन करते हैं उनमें से दो दिल्ली विश्वविद्यालय एम.ए इतिहास की पढ़ाई कर रहे हैं नागराज हरिहरन और विप्लव दास गुप्ता। मूसा यस्वी और एस.तिलोत्तमा दोनों आर्किटेक्चर के छात्र है। एस. तिलोत्तमा केरल से सम्बंध रखती है और मूसा यस्वी कश्मीर से। दोनों आर्किटेक्चर के प्रतिभाशाली छात्र थे। चारों इस नाटक के पूर्वाभ्यास के बहाने आपस में परिचित होते हैं। यह नाटक हालॉकि कभी अपनी अंतिम प्रस्तुति का मुँह नहीं देख पाता है। लेकिन चारों मित्र अवश्य बन जाते हैं बाद में  चारों जीवन के विविध क्षेत्रों में कहीं बिखर भी जाते हैं या एक लम्बें समय के लिए गुम हो जाते है।

इनमें से विप्लव दास गुप्ता बाद में ब्यूरो के डिप्टी स्टेशन हेड के पद पर श्रीनगर में नियुक्त हैं। विप्लव दास गुप्ता महामहिम राज्यपाल की टीम में शामिल है। उसे तिलोत्तमा के कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त रहने के आरोप में गिरफ्तार का लिये जाने की सूचना मिलती है। लेकिन इससे पहले अंरुधति राय ने तिलोत्तमा और मूसायस्वी के प्रेम और संघर्ष की कथा को काफी विस्तारपूर्वक जगह दी है। कि मूसा यस्वी किस तरह पुलिस से छिपता हुआ कश्मीर में तिलोत्तमा के साथ भागता फिरता है। अंत में वह तिलोत्तमा को कश्मीर से बाहर जाने के लिए मना लेता है। तिलोत्तमा कश्मीर से लौटकर नागा से विवाह भी लेती है। लेकिन अंत तक वह वस्तुत: मूसा यस्वी से ही प्रेम करती है।

अरुंधति राय विप्लव दास गुप्ता, तिलोत्तमा, नागा, मूसा यस्वी के साथ-साथ कश्मीर के अनेक चरित्रों और घटनाओं को उपन्यास की तह में समेटती चली जाती हैं। ये सारे चरित्र और घटनाएँ कश्मीर में हो रहे नृशंस हत्याओं और बर्बरताओं के जीवंत दस्तावेज हैं। इन्हें पढ़कर पाठक काफी हद तक बेचैन और परेशान हो सकता है। चाहे मंसूर अहमद गनाई का प्रसंग हो या फिर महमूद दर्जी या मानव अधिकार कार्यकत्र्ता जालिब कादरी का प्रसंग हो या उस्मान अब्दुल्लाह या तारीक और गफूर की दास्तान हो ये सारे प्रसंग और दास्तान हमें कश्मीर में जो कुछ भी इन दिनों घटित हो रहा है उस वीभत्स दुनिया से हमारा परिचय करवाते हैं।

कश्मीर से दूर बैठे हम सारे लोग यह सोच भी नहीं सकते हैं कि कश्मीर में यह सब राष्ट्रवाद के बैनर तले निर्विघ्न रूप से सम्पन्न होने वाला दैनिक कार्यक्रम है। हमें यह पढऩे के लिए काफी हौसला जुटाना पड़ सकता है कि 'जेलें भर गई नौकरियाँ उड़ गई। गाइड। भड़वे, घोड़ा मालिक (और उनके घोड़े ), होटल के नौकर, वेटर, रिसेेप्सनिस्ट, बर्फ गाडिय़ों वाले, बिसाती, फूल वाले और झील के मल्लाह और ज्यादा गरीब और ज्यादा भूखे हो चले। सिर्फ कब्र खोदने वालों को आराम नहीं था। उनके लिए फकत काम काम काम था’।

इस उपन्यास में डाचीगाम के फॉरेस्ट रेस्ट हाउस के बरामदे में बैठकर विप्लव दास गुप्ता जो सोच रहा है उसे भी जानने की जरूरत है: 'मैंने बहुत से प्रदर्शन देखें हैं और देश के दूसरे हिस्सों में भी नारेबाजी से निपट चूँका हूँ। लेकिन कश्मीर का यह राग बहुत अलग था। वह एक राजनीतिक माँग से कहीं अधिक था। वह एक तराना था, एक मंत्र पाठ, एक इबादत। विडम्बना यह थी और है कि अगर आप चार कश्मीरियों को एक कमरे में रख दें और उनसे पूछें कि आजादी से उनका ठीक ठीक मतलब क्या है या उसकी वैचारिक और भौगोलिक सरहदें क्या हैं तो इसका अंत शायद एक-दूसरे का गला काटना होगा। और इसके बावजूद इसे महज भ्रम मानना गलत होगा। उनकी समस्या भ्रम नहीं, यथार्थ की है’।

कश्मीर को लेकर इसे आप अरुंधति राय का अपना स्टैंड मान सकते हैं। जिसे वे बेहद साफगोई के साथ विप्लव दास गुप्ता के मार्फत पाठकों के समक्ष रखती हैं। यहाँ 'तटस्थता’ के लिए या फिर 'कला कला के लिए’ जैसी अमूत्र्त अवधारणाओं के लिए कहीं कोई जगह ही नहीं हैं। जो है वह मुकम्मल तौर पर साफ-साफ है, जिसमें किसी हिचक या संकोच के लिए कोई 'स्पेस’ नहीं है।

कश्मीर को लेकर इस उपन्यास में इतनी सारी घटनाएँ, चरित्र और कथाएँ हैं कि यह खण्ड अपने आप में ही कश्मीर पर लिखे गए किसी उपन्यास से कमतर प्रतीत नहीं जान पड़ती है। इन पंद्रह-बीस वर्षों में कश्मीर की जो हालात कर दिखाई दे रही है उसे अरुंधति राय ने बेहद गंभीरता के साथ जानने और समझने का प्रयास किया है।

ऐसे कई दृष्टांत इस उपन्यास में है जिससे कश्मीर में हो रही पुलिस तथा सैनिक कार्यवाईयों का पता चलता है। जाहिर है अखबारों या अन्य माध्यमों से निकल कर आ रही खबरों को ही नहीं उसके पीछे छिपे सच को भी अरुंधति राय ने संतुलित रूप में इस उपन्यास के कलेवर में रचने का प्रयास किया है।

कश्मीर की कथा में मेजर अमरीक सिंह और ए.सी.पी. पिंकी जैसे क्रूर पात्र भी हैं जिनका एक मात्र उद्देश्य आतंकवाद के नाम पर कश्मीरियों पर जुल्म ढ़ाना है। ए.सी.पी. पिंकी जिस तरह से तिलोत्तमा के साथ सलूक करती हैं वह क्रूरता की हदें पार कर जाती हैं। मेजर अमरीक सिंह जैसे क्रूर पात्र को मानव अधिकार कार्यकत्र्ता जालिब कादरी की हत्या के चलते पहले फील्ड आपरेशन से हटा दिया जाता है। फिर मेजर अमरीक सिंह को अपनी पत्नी लवलीन सिंह (कौर) और दो जवान बच्चों के साथ भारत से भागकर कैलिफोर्निया में शरण लेने के लिए बाध्य होना पड़ता है। कैलिफोर्निया भागने के पहले उनकी पत्नी लवलीन सिंह और उसके बेटे के साथ पुलिस सर्च-एंड-कॉर्डन के नाम पर जो करती है वह मानवीय यातना का एक अलग अध्याय है।

पुलिस चाहती है कि लवलीन सिंह अपने पति के बारे में झूठा बयान देकर पुलिस का सहयोग करे। एक पुलिस वाला लोहे के जूते से उसकी छाती और पेट को बूरी तरह से कुचलता है फिर उसे बिजली के कई बार झटके दिए जाते है। उसे दो दिनों तक पुलिस वाले यातना देते है। सत्रह साल से वे किसी देश में शरण के लिए भटकता रहता है। अमेरिका में शरण के लिए आवेदन देता है। लेकिन शरण लेने के पहले ही मेजर अमरीक सिंह खुद को और अपने पूरे परिवार को गोली से मार देना इसलिए पसंद करता है कि एक ओर आतंकवादी संगठन के कट्टरपंथी उनकी और उनके परिवार की जान के पीछे पड़े थे तो दूसरी ओर कश्मीर पुलिस और भारत सरकार।

यह कश्मीर का एक भयावह पहलू है। जिस पर कोई चर्चा करने के लिए शायद तैयार न होगा। मेजर अमरीक सिंह ने अपनी गवाही में लिखा था-'कश्मीर पुलिस और भारत सरकार इसका आरोप मुझ पर मढ़ रही है। मुझे बलि का बकरा बनाया जा रहा है। मेरे पास अपने परिवार के साथ भारत छोडऩे के अलावा कोई चारा नहीं था। अगर मैं लौटता हूँ तो भारत सरकार यह नहीं चाहेगी कि मैं किसी अदालत में जाऊँ और अपना पक्ष रखूँ। मुझे पीटकर, बिजली के झटके देकर, वाटर बोर्डिंग करके, भोजन और नींद से वंचित करके यातना दी जायेगी या फिर मार दिया जाएगा ताकि मैं फिर कभी दिखाई न दूँ और न मेरी आवाज सुनाई दे’।

अरुंधति राय के लिए कश्मीर एक ऐसा विषय हे जो आसान नहीं है। जिसकी गुत्थियाँ आपस में इस कदर उलझी हुई हैं कि उन गुत्थियों को सुलझा पाना एक मुश्किल भरा कार्य में काफी है। उलझी हुई गुत्थियों को अंरुधति राय अपने उपन्यास में बहुत बारीकी के साथ चित्रित करती हैं। मानवीय संवेदना के बरक्स वे इन गुत्थियों की पड़ताल करने की पहल करती हैं। कश्मीरियों के पक्ष में खड़ी होने का अदम्य साहस का परिचय भी उन्होंने जब-तब इस उपन्यास के माध्यम से देने का प्रयत्न किया है।

कश्मीर पर लिखते हुए अरुंधति राय सोवियत कवि ओसिप मांदेलस्ताम की कविता को उद्धृत करना नहीं भूलती हैं 'अपार खुशी का घराना’ में नाजिम हिकमत और पाब्लो नेरूदा को भी उन्होंने उद्धृत किया है। ओसिप मंादलेस्ताम की काव्य पंक्तिया को उन्होंने कुछ इस तरह से अपने इस उपन्यास में उद्धृत किया है:

'दरवाजे बंद हैं

वीरान है पृथ्वी का अंत: करण

कुछ भी नहीं है इतना बुनियादी और शुद्ध

जितना सत्य का सफेद कैनवस

एक तारा पिघलता है पीपे में, नमक की तरह

और जमा हुआ पानी है ज्यादा स्याह

मृत्यु ज्यादा साफ सुथरी, दुर्भाग्य ज्यादा नमकीन

पृथ्वी ज्यादा सच्ची, ज्यादा भीषण’

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'अपार खुशी का घराना’ उपन्यास का दसवॉ अध्याय है। जिसमें कब्रिस्तान में रहने वाला घराना खुशियों से भरा हुआ है। पुलिस की नजरों से बचती-बचाती म्युनिसिपल के एक कचरे से भरे हुए ट्रक में सद्दाम हुसैन के साथ बैठकर तिलोत्तमा किसी तरह कब्रिस्तान पहुँच जाती है। वह कब्रिस्तान के 'जन्नत’ गेस्ट हाउॅस में बच्चों के लिए स्कूल चलाती है। जहाँ वह बच्चों को गणित, ड्राइंग, कम्प्यूटर, ग्रॉफिक्स, विज्ञान और अंग्रेजी की तालीम देती है। इधर जैनब जो अब बड़ी हो गयी है और पॉलिटेक्निक की अपनी पढ़ाई पूरी कर ऑर्डर पर महिलाओं के कपड़े सिलने का काम करने लगी है। जैनब और सद्दाम हुसैन ने मिलकर कब्रिस्तान में एक चिडिय़ाघर भी बना लिया है। जिसमें एक मोर जो उड़ नहीं सकता, एक मोरनी, तीन बूढ़ी गाएँ, बजरीगर चिडिय़ाँ, एक कछुआ, एक लँगड़ा गधा साथ में सद्दाम की प्रिय घोड़ी पायल इस चिडिय़ाघर के स्थायी निवासी हैं।

अंजुम 'जन्नत’ गेस्ट हाउॅस में एक स्वीमिंग पूल बनवाने पर इसलिए जोर देती है कि 'स्वीमिंग पूल सिर्फ अमीरों के यहाँ क्यों होना चाहिए? हमारे यहाँ क्यों नहीं?’

अरुंधति राय ने कब्रिस्तान में हो रहे इस बदलाव को जहाँ एक ओर बहुत खूबसूरत अंदाज में प्रस्तुत करती है वहीं दूसरी ओर उनकी नजर देश में होने वाले बदलाव पर भी टिकी हुई है। उन्हें इस बात की खबर है कि 'गुजरात के लल्ला ने भारी बहुमत से चुनाव जीत लिया था और अब वे नये प्रधानमंत्री थे। लोग उन्हेें पूजने लगे थे और छोटे-छोटे शहरों में उनकी मुर्तियों के मंदिर बनने लगे थे’।

अरुंधति राय यहीं नहीं रूकती है आगे इस समय जो देश की हालत है उस पर भी एक भरपूर निगाह डालने की कोशिश करती है  'गुंडो के छोटे-छोटे गिरोह जो अपने को’ हिंदू धर्म का रक्षक’ कहते थे देहातों में काम करने और जो भी फायदा उठा सकते थे, उठाने लगे। नेता बनने की ख्वाहिश रखने वाले लोग अपना कैरियर चमकाने के लिए नफरत उगलने या मुसलमानों को पीटने की घटनाओं के वीडिओ यू-ट्यूब पर डालने लगे’।

इन्हीं सबके बीच एक दिन जैनब और सद्दाम विवाह करने का फैसला लेते है। सिल्वर रंग की मर्सेडीज बेंज कार पर सवार होकर सब लोग एक रेस्तराँ में खाना खाने पहुँचते है। यह महंगी कार सद्दाम का दोस्त नरेश लेकर आया है जो एक करोड़पति उद्योगपति का ड्रायवर है। जैनब की शादी में पुरानी दिल्ली के हिजड़े, जैनब के दोस्त, जाकिर मियॉ का परिवार, सफाईकर्मी, मुर्दाघर के नौकर, डॉ. आजाद भारतीय, डी.डी. गुप्ता ये सारे लोग शामिल होते हैं।

अरुंधति राय ने उपन्यास के अंत में बस्तर के आदिवासियों के दमन और वहाँ लम्बे अरसे से सक्रिय माओवादी गुरिल्लओं की कथा को भी क्षेपक के रूप में प्रस्तुत किया है। डॉ. आजाद भारतीय एक दिन महिला गुरिल्ला कॉमरेड मासे रेवती की चि_ी लेकर अंजुम के पास पहूँचते हैं कॉमरेड मासे रेवती एक तेलगू महिला है जो बस्तर के दण्डकारण्य में एक नक्सली के रूप में सक्रिय है। बस्तर में जिन दिनों पुलिस द्वारा नक्सलियों के खिलाफ  'ग्रीन हंट’ अभियान चलाया जा रहा था। उन्हीं दिनों  दौर में कॉमरेड मासे रेवती पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर ली जाती है।

पुलिस उसे क्लोरोंफार्म सँुघाकर बेहोश कर देती है। जब कॉमरेड मासे रेवती को होश आता है तब वह स्वयं को एक सरकारी स्कूल में पाती है बस्तर के सुदूर गाँवों में स्थित जहाँ न कोई शिक्षक होता है न कोई विद्यार्थी पुलिस वालों के कैम्प के रूप में इस्तेमाल होता है। उस सरकारी स्कूल में लेकर उसे पुलिस वाले ही आये थे। उन पुलिस वालो द्वारा एक-एक करके उनके साथ तब तक बलात्कार किया जाता है जब तक कि वे बेहोश नहीं हो जाती है। होश आने पर वह किसी तरह से पुलिस वालों के चंगुल से निकल कर भाग खड़ी होती है और जैसे तैसे आंध्र प्रदेश के खम्मम पहुँचकर डॉ. गौरीनाथ के क्लीनिक तक पहुँच जाती है।

स्वस्थ होने के बाद वह पुन: जंगलों में लौट जाती है। बाद में गर्भ ठहर जाने पर पार्टी के निर्देश पर उसे जंगल से बाहर भेज दिया जाता है क्योंकि पी एल जी ए की महिलाओं को बच्चे पैदा करने की मनाही है। जब उसकी बच्ची पैदा होती हे तो उसका नाम वह उदया रखती है और उसे एक दिन दिल्ली के जंतर मंतर में छोड़ आती है। यह बच्ची उदया उर्फ मिस जबीन कब्रिस्तान में अंजुम के पास पहुँच जाती है। जैनब के बाद उदया उर्फ मिस जबीन जो इस घराना की ही नहीं शायद देश की भविष्य है। 'अपार खुशी का घराना’ की एक ऐसी सदस्य जिसमें उम्मीद की अनेक किरणें झिलमिला रहीं होती है।

इधर विप्लव दास गुप्ता अपनी नौकरी और बीवी बच्चों को खोकर अपने एकांत में घिरा हुआ है। अपने पुराने दोस्त नागा और मूसा से उसकी भेंट होती है। उपन्यास के अंत में तीनों मित्र फिर से मिल रहे है। नागा पत्रकारिता छोड़ चुका है और मूसा अब भी कश्मीर में सक्रिय है।

अरुंधति राय के इस उपन्यास का अंत बहुत खूबसूरत ही नहीं काव्यात्मक आभा से दीप्त भी है। अंजुम आधी रात को मिस उदया जबीन के साथ कब्रिस्तान से बाहर निकल कर फुटपाथ पर टहल रही है। जब वह टहल कर वापस 'जन्नत’ गेस्ट हाउस पहुँचती है तो पाती है कि रोशनियाँ गुल है और सब सो चुके है। सब यानी गोबर के कीड़े ग्वीह क्योम को छोड़कर। वह पूरी तरह जागा हुआ था और पीठ के बल लेटकर टाँगों को हवा में उठाए हुए अपने काम में लगा था ताकि अगर कहीं यह आसमान गिर पड़े तो वह उसे थाम ले। लेकिन उसे भी पता था कि अंत में सब ठीक हो जायेगा। होगा ही। इसलिए कि उसे होना ही है। इसलिए कि मिस जबीन, मिस उदया जबीन आ चुकी थी’।

एक मिस जबीन आरिफा और मूसा यस्वी को अजीज बेटी थी जो कश्मीर में पुलिस की गोली से मारी जाती है। यह दूसरी मिस उदया जबीन है जिसकी माँ कॉमरेड मा से रेवती है जो बस्तर के दण्डकारण्य में सक्रिय माओवादी गुरिल्ला पार्टी की सदस्य है मिस उदया जबीन दण्डकारण्य की पुलिस बर्बरता की जीती जागती प्रमाण है। वही मिस उदया जबीन अंजुम के कब्रिस्तान में एक उम्मीद की फूल की तरह खिली हुई है।

अरुंधति राय का यह 'अपार खुशी का घराना’ एक ऐसे घराना की कहानी है जहाँ अनेक धर्म के लोग एक साथ प्रेम और आनंद से रहते हैं जहाँ पशु, पक्षी, वृक्ष सबके लिए एक समान और एक बराबर की जगह है यह सभी घराने के सदस्य है। यह एक कुटूम्ब है जो दुर्लभ है जो केवल कल्पना या स्वप्न में ही फिलहाल मुत्र्त है।

ग्यारह अध्यायों में विभक्त अरुंधति राय के इस उपन्यास को पढऩा एक ऐसे महादेश के इतिहास और राजनीति के अंधेरी और सीलन भरी पगडंडियों से गुजरना है, जिससे गुजरे बिना इस महादेश को समझ पाना बेहद मुश्किल है। अरुंधति राय ने जिस तरह से इस उपन्यास के वृत्तांत को बुना है, वह अद्भुत है। यह उपन्यास हमें समय के ऐसे अनगिनत अँधेरों, खण्डहरों और बीहड़ रास्तों में भटकाता है जहाँ रोशनी की कोई किरण नजर नहीं आती है बावजूद इसके कि वहीं से उम्मीद की कोई किरण झिलमिलाती सी नजर आती है। यह उपन्यास अपने आख्यान के लिए ही नहीं अपने सुंदर शिल्प और संगीतात्मक भाषा के लिए भी बार-बार पढ़ा जाने वाला एक सुंदर गद्य है।

मंगलेश डबराल ने अपने इस अनुवाद में अरुंधति राय के इस उपन्यास में मौजूद उन सारे जादुओं को कहीं से भी नष्ट होने नहीं दिया है। पूरे उपन्यास को पढ़ते समय लगता है कि आप या तो संगीत की धुनों में कहीं डूब उतरा रहे हैं या किसी काव्यात्मक आभा के बीच से गुजर रहे हैं।

अरुंधति राय का यह उपन्यास उनके लेखन के प्रति हमारे विश्वास पर मुहर लगाता है। यह एक ऐसी असाधारण कृति है जिसकी उम्मीद केवल अंरूधति राय जैसी सजग और प्रतिभाशाली लेखिका से ही की जा सकती है।

हेलेर मैकालपिन ने इस उपन्यास के संदर्भ में यह ठीक ही लिखा है कि-

''अरुंधति राय का यह उपन्यास बताता है कि कथा साहित्य क्या कर सकता है। उत्कृष्ट गद्य उनका नायाब औजार है। वे अखबारी सुर्खियों की भयावहता को चित्रित करती हैं और प्रेमियों के उन खामोश क्षणों को भी, जब वे कविताओं और स्वप्नों को साझा करते हैं। घराना इतने आवेग से भरा हुआ है राजनीतिक, सामाजिक और भावनात्मक कि धड़कता हुआ लगता है’’।

 

रमेश अनुपम का लंबा जीवन सक्रियताओं और नींद के बीच व्यतीत हुआ है। अपनी पढ़ाई उन्होंने कभी नहीं छोड़ी। उनके पास बौद्धिक नज़रिये हैं और वे अपना काम दुरुस्त तरह से करते है।

संपर्क - मो. 9425202505, रायपुर

 


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