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जून 2019

समग्र से निर्वासन की पीड़ा

पंकज चतुर्वेदी

आलेख

 

 

 

कुँवर नारायण हमेशा ही ऐसे कवि रहे, जिनमें अपनी अभिव्यक्तियों के प्रकाशन को लेकर काफ़ी संकोच रहा। शब्द-स्फीति को वह संशय से देखते हैं, गोया भाषा बहुत है और अंतर्वस्तु कम। इस अंतर्विरोध को उजागर करने के लिए वह एक दिलचस्प रूपक की रचना करते हैं--

 

''शब्दों के अकूत ख़ज़ाने

से लदा-फँदा घोड़ा

बोझ से बेहाल

कहने को थोड़ा’’

 

इसलिए इस विडम्बना से अपने बचाव और सावधान, सुचिंतित एवं सारगर्भित अभिव्यक्ति की ख़ातिर वह पूर्वजों को अपना आदर्श मानते हैं, क्योंकि वे ''कितने कम शब्दों में / कितना कुछ कहते / वह भी /कुछ डरते डरते...।’’ पूर्वजों को कितना 'डर’ था, कहना मुश्किल है, पर कुँवर नारायण में निश्चय ही था। इसकी एक ख़ास वजह निस्पृहता है, जो उनके स्वभाव की केन्द्रीय विशेषता थी। दुनिया में होते हुए भी उससे अलहदा रहने, उससे कोई अपेक्षा न रखने की प्रतिज्ञा; जो उन्हें विशिष्ट बनाती है और उनके औदात्य की रचना में मददगार होती है : जब कभी वह इससे विचलित होते हैं, तो अपने को छोटा महसूस करते हैं। मगर अक्सर इसकी बदौलत उन्होंने जो आत्मवत्ता अर्जित की है, उससे एक सुखद अचरज होता है और वैसी राह पर चल सकने की शांत नसीहत और हौसला भी मिलता है। हमेशा एक आत्मिक उत्कर्ष उनकी नज़र में रहा,  इसलिए भौतिक या दुनियावी तौर पर जिसे उपलब्धि माना जाता है, उसे कुछ भी समझने को वह तैयार नहीं हुए और सांसारिक सफलता को असंदिग्ध रूप से निस्सार समझते रहे। मूल्यनिष्ठा की यह नैसर्गिक खूबसूरती उनके यहाँ बराबर मौजूद है। ग़ज़ल कहने के लिए शायद ही कोई उन्हें जानता हो, पर यह सुखद है कि उनके संभवत: आख़िरी कविता-संग्रह 'सब इतना असमाप्त’ में पाँच नायाब ग़ज़लें भी हैं। पहली ग़ज़ल के कुछ अश्आर से उनके स्वभाव की प्रामाणिक झलक मिल जाती है:

 

''ख्वाहिशे-मंज़िल न थी मेरे भटकने की वजह

उससे कुछ आगे निकल जाने पे आमादा हूँ मैं

 

चाहकर दुनिया को मैंने खुद को शर्मिंदा किया

जितना दे सकती है वो उससे कहीं ज़्यादा हूँ मैं

 

लाखों दुनियाएँ फुरोज़ाँ हैं मेरे एहसास में

वुस्अतों में आसमानों की तरह सादा हूँ मैं’’

 

अंतिम शे’र या इस ग़ज़ल के मक़ते में आसमानों के जिस विस्तार और सादगी का ज़िक्र है- यही वह मक़ाम है, जिसे उनकी इन कविताओं में हम पहचान सकते हैं। जैसे अनुभवों के इन्द्रधनुष को पार कर उस एक रंग तक वह पहुँच गये हैं, जो इस बहुरंगी सृष्टि का बुनियादी रंग है। उसे हम सत्य का रंग भी कह सकते हैं और निर्गुण या निराकार का रंग भी। जैसे एक योद्धा ने जीवन की उस युद्धभूमि- जहाँ उसने कभी जाना नहीं चाहा था- से लौटकर अपने कवच-कुंडल उतारकर रख दिये हैं; क्योंकि अब यह किसी तैयारी, आत्म-रक्षा या संघर्ष का नहीं, विदा का वक्त है। बेशक वह घायल और उदास है, मगर उतना ही निर्लिप्त और निरावेग भी। उसके इर्द-गिर्द एक साँझ सिमट आयी है, फिर भी दूसरों को देने के लिए उसके पास रौशनी के क़तरे हैं। हम इनमें भीग सकते हैं और इनकी आभा से-जितना मुमकिन हो- अपनी आत्मा को समुज्ज्वल बना सकते हैं।

एक बार मैंने कुँवर नारायण से मशहूर अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन के इस अभिमत की चर्चा की थी कि 'गीता’ में कृष्ण-अर्जुन संवाद में कृष्ण का पक्ष विजेता रहा और अर्जुन का पराजित; लेकिन तमाम युद्धों के नतीजे में मनुष्यता के लहूलुहान इतिहास के मद्देनज़र अर्जुन के संशय और एतराज़ आज हमारे लिए कहीं अधिक मूल्यवान् और प्रासंगिक हैं। वह बोले : 'मुझे लगता है कि अर्जुन अच्छे प्रश्नकर्ता होते, तो बेहतर जवाब पा सकते थे।’ मिथकीय आख्यानों और उनसे नि:सृत दार्शनिकता से उनका गहन लगाव था और उनके नये मानवीय अभिप्रायों की तलाश वह करते रहते थे। उनके पहले कविता-संग्रह 'चक्रव्यूह’ से शुरू हुआ यह सिलसिला अंत तक जारी रहा। वह कहते थे कि मिथकीय स्मृतियाँ चूँकि लोक-चित्त में गहरे समाहित हैं, इसलिए उनके ज़रिए उसकी संवेदना और कल्पना को हम बहुत व्यापक और प्रभावशाली ढंग से संबोधित कर सकते हैं। कुछ लोगों को लगता है कि मिथक अतीतकालीन, अवास्तविक, अतार्किक और चमत्कारपूर्ण हैं, इसलिए उनका पुनराविष्कार या पुन:पाठ अपने समय से मुँह मोडऩा है। शायद वे इस समीकरण पर गौर नहीं करते कि मिथक भले अवास्तविक हों, मगर जन-चेतना पर उनका प्रभाव वास्तविक है। तब क्या यह सारी मानवीय विरासत र्दुव्याख्या और दुरुपयोग के लिए दक्षिणपंथियों को सौंप देने के ही निमित्त है? रघुवीर सहाय ने यह चिंता ज़ाहिर की थी कि कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल धर्म को लेकर कोई बहस नहीं चलाते, सिर्फ़ धार्मिक दंगों पर बयान दे देते हैं, जिससे धर्म की समझ में न कुछ जुड़ता है, न घटता है, यथास्थिति क़ायम रहती है। इस रास्ते तो धर्मांधता का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता - ''इस तरह के यथास्थिति-मानस के भविष्य को न समझा जा सकता है, न सँभाला जा सकता है।’’ इतिहास के लिहाज़ से देखें, तो कुँवर नारायण शायद गौतम बुद्ध के सबसे नज़दीक हैं, उनके 'मध्यम-मार्ग’ के राहगीर; लेकिन प्राक्-इतिहास में जायें, तो राम के व्यक्तित्व से अपनी संसक्ति को वह छिपाते नहीं। याद कीजिये उनकी कविता 'अयोध्या, 1992’ - ''हे राम, / जीवन एक कटु यथार्थ है / और तुम एक महाकाव्य !... इससे बड़ा क्या हो सकता है, / हमारा दुर्भाग्य / एक विवादित स्थल में सिमट कर / रह गया तुम्हारा साम्राज्य... अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं / योद्धाओं की लंका है, / 'मानस’ तुम्हारा 'चरित’ नहीं / चुनाव का डंका है!... हे राम, कहाँ यह समय / कहाँ तुम्हारा त्रेता युग, / कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम / और कहाँ यह नेता-युग!’’

गौरतलब है कि तुलसीदास के 'रामचरितमानस’ में विन्यस्त वर्णाश्रमधर्मी मानसिकता और संस्कृति की तीखी मुख़ालफ़त करने के बावजूद उनके काव्य-नायक राम से अपनी आत्मीयता को न डॉ. राममनोहर लोहिया जैसे भारतीय समाजवादी छिपाते हैं और न मुक्तिबोध सरीखे मार्क्सवादी। लोहिया का बयान है कि ''राम खुद हिले थे, तीन-चार बार। न हिले होते, तो अच्छा होता। यह होते भी, उन जैसा मर्यादित जीवन और कहीं नहीं, न इतिहास में, न कल्पना में।’’ ('भारतमाता धरतीमाता’, पृष्ठ 18) और मुक्तिबोध का कथन: ''जहाँ तक 'रामचरितमानस’ की काव्यगत सफलताओं का प्रश्न है, हम उनके सम्मुख केवल इसलिए नतमस्तक नहीं हैं कि उसमें श्रेष्ठ कला के दर्शन होते हैं, बल्कि इसलिए भी कि उसमें उक्त मानव-चरित्र के, भव्य और मनोहर व्यक्तित्व-सत्ता के भी दर्शन होते हैं। तुलसीदास जी की 'रामायण’ पढ़ते हुए, हम एक अत्यन्त महान् व्यक्तित्व की छाया में रहकर अपने मन और हृदय का आप-ही-आप विस्तार करने लगते हैं।’’

राम को ईश्वर नहीं, बल्कि एक मनुष्य के रूप में देख पाने के इस आधुनिक नज़रिए का सबब क्या है? कुँवर नारायण के शब्दों में कहें, तो एक व्यक्ति के जन्म और मृत्यु की दो तिथियों के बीच अंकित 'यशगाथाओं’ से अलग हटकर जब हम उसकी 'आकांक्षाओं और विवशताओं’ पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, ''तब जी उठता है / दो तिथियों के बीच का वृत्तान्त।’’ यही वह जीवन है, जिसमें कविता की अभिरुचि है और इसी बिन्दु पर कुँवर नारायण राम के व्यक्तित्व से एकात्मता महसूस करते हैं। वह राम, जो राज्याभिषेक के समाचार से प्रसन्न नहीं हुए और न वनवास के दुख से म्लान। वह राम, जो मुकुट धारण करने के स्वर्णिम समय में भी जीवन के अपरिहार्य करुण अंत के प्रति सचेत हैं। जीवन के सुख और दुख की दोनों चरम परिणतियों को एक साथ जानना ही उसे समग्र रूप में जानना है। कुँवर नारायण में यह दुर्लभ विवेक आरम्भ से ही रहा और प्रस्तुत संग्रह में 'पुरस्कार’ शीर्षक कविता मानो इसी भावभूमि की शीर्ष उपलब्धि है-

 

''वनवास और राज्याभिषेक

रोज़ की लीला है

 

जिस खुशी को मुकुट पहने

सब देख रहे मेरे चेहरे पर

वह केवल बच्चों का मुखौटा है

 

मेरे अन्दर तो कहीं

दूर सरयू-तट पर

जल-समाधि लेते

सूर्य की उदासी है’’

 

वैसे इन कविताओं के प्रसंग में जिस मिथकीय व्यक्तित्व की याद सबसे ज़्यादा आती है और कुँवर नारायण का स्वभाव जिसके सबसे नज़दीक मालूम होता है, वह मिथिला के राजा जनक हैं; जो राजा होते हुए भी ऋषि हैं, सदेह होते हुए भी विदेह और सांसारिक होते हुए भी योगी। 'गीता’ के अनुसार आसक्ति को त्यागकर, सिद्धि और असिद्धि, यानी सफलता एवं विफलता, दोनों में समभाव से कर्म करना योग में स्थित होना है। इसी समता को योग कहते हैं:

 

''योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।

सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।’’ (-2/48)

 

कुँवर नारायण जिस 'विलक्षण संतुलन’ पर इसरार करते हैं, वह परम्परा के इसी सजग आग्रह से आया है :

 

''पोंछो सब : फिर लिखो शुरू से

उन्हीं उपादानों से- मनुष्य,

सही समत्व-बिन्दु से अभी और

विस्तृत करो जीवन-परिदृश्य।’’

 

('विलक्षण संतुलन में’, 'कोई दूसरा नहीं’, पृष्ठ 11)

 

इस पृष्ठभूमि में ताज्जुब नहीं कि कुँवर जी मौजूदा सभ्यता में अपने को 'मिसफ़ि ट’ पाते रहे। आधी सदी से ज़्यादा समय पहले लिखी गयी कविता 'समझौता’ की ये पंक्तियाँ मशहूर हैं :

 

''कि या तो अ ब स की तरह बेसबब जीना है,

या सुकरात की तरह ज़हर पीना है !’’

 

नये संग्रह में सभ्यता से निर्वासन का यह दंश और तीखा और विषाक्त हो गया है :

 

''मैं ज़रा देर से इस दुनिया में पहुँचा

 

तब तक पूरी दुनिया

सभ्य हो चुकी थी

 

               सारे जंगल काटे जा चुके थे

               जानवर मारे जा चुके थे

               वर्षा थम चुकी थी

               और तप रही थी पृथ्वी

               आग के गोले की तरह..........

 

चारों तरफ़ लोहे और कंक्रीट के

बड़े-बड़े घने जंगल उग आये थे

जिनमें दिखायी दे रहे थे

आदमी का ही शिकार करते कुछ आदमी

अत्यन्त विकसित तरीकों से........

 

मैं ज़रा देर से इस दुनिया में पहुँचा’

 

यह ठीक है कि धर्म, दर्शन और अध्यात्म के मसलों से कुँवर नारायण की काफ़ी वाबस्तगी थी, मगर उनकी कविताओं में महज़ होने का अवसाद नहीं है; बल्कि मनुष्येतर जीव-सृष्टि और प्रकृति के विनाश की अनिवार्य शर्तों पर टिके नितान्त मनुष्य-केन्द्रित विकास की आधुनिक परियोजना हमारी सभ्यता को जिस ख़तरनाक मक़ाम पर ले आयी है, उसकी मार्मिक निशानदेही है। इसके अलावा, उत्तर-सत्य के मौजूदा दौर में तथाकथित आत्महत्या से लेकर चरित्र-हत्या, हिरासत में हत्या, फ़र्ज़ी मुठभेड़ और मॉब लिंचिंग जैसे हिंसा के अनेक अप्रत्याशित रूपों से हमारा सामना है। बकौल कुँवर नारायण, लोग नाउम्मीद हो गये हैं, उन्होंने जैसे मान लिया है कि इस अत्याचार का कोई अंतिम सिरा नहीं है- ''लोग कह रहे दबी ज़बान से / शायद कभी नहीं बीतेगा बुरा वक्त।’’ कवि को ताज्जुब है कि तरह-तरह की नफ़रतों को ज़ेहन में रखकर आख़िर हम जीवित कैसे बचे हुए हैं-

 

''ये कैसे दौर में ज़िंदा हैं हम ख़ुदा जाने

ये कैसी नफ़रतें भर करके अपने सीनों में’’

 

अख़बारों में अपराधों और हादसों की असमाप्य ख़बरें हैं। कवि को लगता है कि दु:स्वप्नों की बनिस्बत यह यथार्थ ही ज़्यादा भयावह हो गया है- ''विचित्र समन्वय है / कि अब मुझे दु:स्वप्नों से अधिक / यह यथार्थ विचलित करता...।’’ यह कितना असामान्य है कि दुख अब उन्हें चौंकाते नहीं- ''उनसे एक रिश्ता बन गया है / जैसे जीवन और प्रकृति से।’’ दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की हत्या के बाद लिखी गयी कविता में जैसे दर्द उसकी सतह पर छलक आया है-

 

''जितना ही खुश रखना चाहता हूँ

उतनी ही उदास होती जाती हैं मेरी कविताएँ

विह्वल प्रार्थनाओं में बदल जाते हैं शब्द’’

 

तो क्या यह मान लिया जाय कि यह समय कुँवर नारायण के लिए बिलकुल काम्य नहीं था और ''मैं ज़रा देर से इस दुनिया में पहुँचा’’ - उनकी इस कविता का यह पाठ किया जाय कि वह किसी मिथकीय, औपनिषदिक या पूर्व-आधुनिक कालखंड में होना और जीना चाहते थे? शायद उनकी-सी इतिहास-दृष्टि से सम्पन्न कवि की बाबत ऐसा विश्लेषण मुनासिब नहीं होगा, क्योंकि वह जान रहे थे कि पहले के युगों में अँधेरा कम सघन न था। सच तो यह है कि हम सभी चाहे-अनचाहे उस प्रागैतिहासिक अँधेरे की ओर बढ़ते जा रहे हैं-

 

''हमें आक्रांत करता / एक आदिम अँधेरा /

होता जाता है गहरा / और गहरा’’

 

सवाल है कि इस अन्याय का प्रतिकार कैसे किया जाय, इससे निष्कृति का उपाय क्या है? कुँवर नारायण इसके लिए ज़िम्मेदार सत्ता-तंत्र से सीधी मुठभेड़ करने वाले कवि नहीं हैं। इसके नेपथ्य में उनकी मानसिकता शायद यह है कि वह उसे अपनी अपेक्षाओं के योग्य नहीं मानते। जिससे उम्मीद न हो, उसकी शिकायत भी क्या की जाय! यह एक परोक्ष िकस्म की आलोचना है और प्रत्यक्ष से इसका मूल्य कम नहीं, जैसा कि ग़ालिब ने कहा है-''है ग़ैब-ए- ग़ैब, जिसको समझते हैं हम शुहूद’’ - यानी वह परोक्ष का भी परोक्ष है, जिसे हम उपस्थित समझते हैं। लाज़िम है कि कुँवर नारायण एक ऐसी व्यवस्था का स्वप्न देखते थे, जिसमें हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में सत्ता का हस्तक्षेप न्यूनतम हो और लोग उससे भरसक स्वतंत्र और निरपेक्ष एक जीवन जी सकें। मगर विडम्बना है कि इतना भी मुमकिन नहीं-

 

''जितना हम चाहते हैं बड़ा फ़ासला बना रहे

अत्याचारी और निर्दोष जन के बीच

उतना ही भयानक होता जाता

हमारे समय का सच’’

 

नफ़रत और हिंसा के यथार्थ के बरअक्स वह प्रेम और शांति का एक प्रतिसंसार रचना चाहते थे, क्योंकि यही- उनके निकट - आततायी सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ उत्तर या विकल्प था। वह एक ऐसी सहनशीलता की कल्पना करते हैं, जिसमें 'रक्त की नदियाँ डूब जायें।’ छल-कपट, खून-ख़राबे और विनाश की हर एक आशंका के विरुद्ध वह समूची मनुष्यता के लिए ''मैत्री के उन सबसे मार्मिक सूत्रों’’ की तलाश करते हैं, ''जो सही अर्थों में वैश्विक हों।’’  प्रसंगवश, बुद्ध की सुझायी क्षमा, शांति और सद्भाव की संस्कृति में वह अदम्य जीवन-शक्ति है, जिसके सहारे युद्धों और आपदाओं से तबाह जापान जैसा देश 'बार-बार अपनी ही राख से जी उठता है और फिर गगनचुम्बी उड़ान भरता है।’  इसी के बल पर कम्बोडिया के तानाशाह पोल पोट की नृशंसता के विरुद्ध बीसवीं सदी में ''कलाओं का शान्तिवन / रचता / महाकरुणा का अतियथार्थ।’’

भारतीय मनीषा और बौद्ध दर्शन से हासिल इन आश्वस्तियों के बावजूद कुँवर नारायण हमारे समय से उन मूल्यों के निर्वासन की तकलीफ़देह सचाई की शिनाख़्त करते हैं, जो एक गरिमामय जीवन के लिए अपरिहार्य हैं या कि थे? मसलन पवित्रता, शान्ति और प्रेम शायद ऐसे ही शब्द हैं, जो अपमानित होने पर हमारी भाषा को छोड़कर जा चुके हैं और अब भाषा में उनकी सिर्फ़ यादें बची हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह कवि और कविता के लिए भी एक महत्त्वपूर्ण अर्थ में निर्वासन का समय है-

 

''शायद वे एकान्तवासी हो जाते हैं

और अपने को इतना अकेला कर लेते हैं

कि फिर कोई भाषा उन तक पहुँच नहीं पाती।’’

शान्ति अब किसी के न अन्दर है, न बाहर; कहते हैं, मृत्यु के बाद वह मिलती है; लेकिन कवि की आस्था इसी दुनिया और जि़ंदगी में इतनी है कि वह कहने को विवश है---''मुझे शक होता है / ऐसी हर चीज़ पर / जो मृत्यु के बाद मिलती है।’’

लाज़िम है कि वह आग को किसी तरह जला सकने में ज़िंदगी की सार्थकता खोजते हैं और उसके बगैर जीना शर्म की बात है-

 

''मर जाएँ शर्म से कि किसी काम के नहीं

इस ज़िन्दगी के फूस में शोला अगर न हो’’

 

उनकी एक ग़ज़ल में मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था और निराशा के बीच का द्वंद्व बहुत मार्मिक रूप में व्यक्त हुआ है। यह आस्था ही है, जो मुश्किल और तकलीफ़देह हालात में इंसान को न सिर्फ़ ज़िंदगी से बेज़ार नहीं होने देती, बल्कि अभिशाप को भी वरदान में बदल देने के संकल्प का उत्स है-

 

''कोई उम्मीद दूर तक नज़र नहीं आती

फिर भी जीना किसी से प्यार हो जैसे

 

कैसे समझाऊँ ये पतझर है दिले-नादाँ को

ज़िद है इसको भी जिएँगे बहार हो जैसे’’

 

इसी की बदौलत कवि कह पाता है कि ''अगर मैं सचाई हूँ / तो कुछ भी खोया नहीं।’’ उनके यहाँ एक जंगली गुलाब कहता है कि मैं काँटों में पला एक नाज़ुक ख़्वाब हूँ, मुझे काट-छाँटकर सभ्य मत बनाओ, मेरी नैसर्गिकता को अक्षुण्ण रहने दो ! मूर्तिकार जब एक शिला से काटकर मूर्ति निकाल लेता है, तो शिला में एक घाव बचा रह जाता है, वही शायद उसका हृदय है। इन कविताओं की 'रिकरिंग थीम’ यह है कि मनुष्य ने अपने सुख के लिए समग्र जीवन को खंडित किया है और उसकी लय या संतुलन को भंग कर दिया है। इसलिए कवि कुँवर नारायण जीवन की साँझ में, विदा-बेला को नज़दीक जान, समग्र से विच्छिन्न नहीं होना चाहते, बल्कि बाउल संगीत के भटियाली राग के अंतिम स्वर की तर्ज़ पर- संपूर्ण जीवन-राग से युक्त हुई एक ध्वनि की तरह अनन्त में विलीन हो जाना चाहते हैं। वह देह के व्यवधान से मुक्ति चाहते हैं, जिससे अनुभव कर सकें कि मैं ''वह प्राण हूँ / जो धड़क रहा है पूरे संसार में।’’

कुँवर नारायण ने अपनी डायरी में येव्तुशेंको के इस कथन को उद्धृत किया है- “A poet՚s autobiography is his poetry, anything else can only be a footnote.”(एक कवि की आत्मकथा उसकी कविता है, बाकी कुछ भी सिर्फ़ एक पश्चात-टिप्पणी हो सकती है।) यह बात जो सामान्यत: सच कही जा सकती है, कुँवर जी के अंतिम संग्रह के बारे में ख़ास तौर पर सच है। उनके आख़िरी वर्षों की आत्मकथा की एक शान्त, मगर उद्विग्न अंतर्धारा को इन कविताओं में हम बहता हुआ महसूस कर सकते हैं, जब वह नितान्त अकेले पड़ गये थे, गंभीर बीमारी के कारण देखने से भी महरूम थे और शारीरिक क्षमताएँ बहुत छीज गयी थीं। इसका अवसाद कुछ रचनाओं में बहुत सांद्र रूप में मिलता है। मसलन: ''कैसे बताऊँ / कि आता है जीवन में / ऐसा भी एक छिना हुआ वक्त / जब डर लगता है / किसी खुशी से भी / मिलाते हुए हाथ।’’

एक सुबह वह आईने में खुद को देखकर सन्न रह जाते हैं, गोया अथाह कमज़ोरी के कारण वह चील जैसे किसी पक्षी में बदल चुके हैं और उस छवि का संदेश उनके लिए यही है कि यह वजूद अब ''जल्दी ही एक लम्बी उड़ान भरनेवाला है।’’ उनकी एक कविता गवाह है कि वह एहसास के स्तर पर जीते-जी ही इस जीवन से मुक्त हो चुके थे- जिसमें वह बीती सदी में एक असाध्य रोग के नतीजे में दिवंगत हो गयी अपनी बहन को 'एक असह्य उदासी’ की मानिंद अपने बिलकुल पास महसूस करते हैं-

 

''वह नहीं मानती

कि हमारे बीच अब

बरसों का फ़ासला है,

और सारे बन्धन

कब के टूट चुके हैं’’

 

मनुष्य अपने ऐतिहासिक अनुभव से इतना तो समझता है कि अमरता सिर्फ़ एक मिथ है और अगर वह कुछ है, तो उसका दीर्घायु होना ही अमर होना है। मृत्यु उनके लेखे जीवन की नयी संभावना के लिए उसके क्रम को भंग करने की आत्यन्तिक चेष्टा है, प्रकृति की नव्यता के हित में अपनी अमरता का समर्पण-

 

''अमरत्व से थक चुकी

आकाश की अटूट उबासी

अकस्मात् टूट कर

होना चाहती है

किसी मृत्यु के बाद की उदासी... ‘‘

 

कुँवर नारायण ने अपनी डायरी में दर्ज किया है कि ''...मैं अब--- उम्र के चौथे पहर में---एक निर्वासित जीवन जीना चाहता हूँ। जैसे रूसी उपन्यासकार ईवान गॉन्शोरोव के उपन्यास 'ऑबलोमोव’ का नायक दुनिया की भाग-दौड़ को त्यागकर गाँव में एक सरल और सुखी जीवन जीता है।’’ अपनी यह इच्छा तो वह पूरी नहीं कर पाये, लेकिन अंतिम वर्षों की कविता में उन्होंने ज़रूर चरम कोटि की सहजता अर्जित कर ली थी। उनकी युवावस्था में 'आत्मजयी’ पढ़कर मशहूर कवि रामधारी सिंह 'दिनकर’ उनसे मिलने लखनऊ गये थे, तो उन्हें देखकर आश्चर्य में पड़ गये। उन्होंने हँसकर पूछा---''ये बताओ, जब तुमने अभी ही 'आत्मजयी’ लिख डाला है, तो बुढ़ापे में क्या लिखोगे?’’ शायद उन्हें अंदाज़ा न रहा हो कि कविता के उनके इस सफ़र को और गूढ़, संश्लिष्ट और दुर्गम नहीं; बल्कि सहज ही होते जाना है। प्रस्तुत संग्रह में मेरी अपनी समझ में कम-से-कम दस कविताएँ ऐसी हैं, जो लगभग क्लासिक हैं और जिनके लिए कुँवर जी हमेशा याद किये जायेंगे। बहुत-सी कविताएँ ऐसी हैं, जो कविता के रूप में ठीक-ठीक घटित नहीं हो पायी हैं और डायरी के शिल्प की याद दिलाती हैं। एक रूपक के सहारे कहूँ, तो कविता के स्टेशन पर पहुँचने के पहले वे आउटर पर ठहरी हुई ट्रेन-सी हैं। वे कविताएँ सबसे अच्छी और मर्मस्पर्शी हैं, जिनमें समय के दबाव को उन्होंने अपने निष्कवच संवेदन-तंत्र पर सबसे अधिक महसूस किया है।

इसके अलावा वह अपने जीवन-दर्शन की विशिष्टता की बदौलत भी असाधारण कवि हैं। ग़ालिब की तरह प्रदत्त सत्यों से अलग राहों और संभावनाओं पर हमेशा सोचते रहनेवाले कवि : ''वह हर एक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता!’’ पोलिश कवि मीच्क्येविच को संबोधित कविता 'तेलीमेना’  इसका समुज्ज्वल साक्ष्य है। कवि की रचना 'पान तादेउष’ की नायिका एक युवक से प्रेम करती है, उसके यौवन पर मुग्ध होकर और एक वयस्क से, उसके बुद्धि-वैभव से अभिभूत होकर। कुँवर नारायण पूछते हैं कि इसमें एतराज़ या उपहास की बात क्या है ? तेलीमेना में ये दोनों ही विशेषताएँ थीं और अगर किसी पुरुष में नहीं थीं, तो इनके लिए दो पुरुषों को अलग-अलग चाहने में उसका क्या कुसूर? एक परम्परागत नज़रिये से हम ऐसे किसी व्यक्तित्व को लांछित कर सकते हैं, मगर दृष्टि की व्यापकता एवं उससे उपजी हृदय की उदारता के अभाव में उसकी विशिष्टता का सौंदर्य हमसे अदेखा रह जा सकता है, जिससे कुँवर नारायण बहुत सुखद और चकित करनेवाले अभिनव अंदाज़ में हमें रूबरू कराते हैं-

 

''अगर दोनों को एक ही में पाना मुश्किल था

तो दोनों को अलग अलग चाहना

               आख़िर ग़लत क्यों था ?

 

तुम भले ही हँसो मीच्क्येविच.......

 

लेकिन सच तो यह है

               कि दया की पात्र नहीं---

               यौवन और बुद्धि के संयोग की

               अद्भुत उदाहरण थी तेलीमेना’’

रचनाकार वह है, जो हमारी दृष्टि के क्षितिज को विस्तृत करे और नतीजे में ऐसी संवेदना एवं सौंदर्य से समृद्ध करे, जो हमारे पास पहले से नहीं था। अंतिम कविता---जो उन्होंने बोलकर लिखवायी थी---के ये शब्द गवाह हैं कि जब एक मनुष्य की पीड़ा अपने चरम पर होती है, तो अपने लिए की गयी उसकी प्रार्थना और सारे संसार के लिए उदात्त मंगलकामना में कोई फ़कऱ् नहीं रह जाता---

 

''ध्यान लगाने के लिए आँखें बंद नहीं करता,

मेरी प्रार्थनाएँ ही देवाशीष बन जाती हैं।’’

 

 

(कवि कुँवर नारायण के साहित्य, चिंतन और विवेक पर रज़ा फ़ाउंडेशन द्वारा एकाग्र आयोजन 'उत्तरजीवनके अंतर्गत परिचर्चा में 22 सितम्बर, 2018 को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर एनेक्स, नयी दिल्ली में दिये गये वक्तव्य का ज़रा संशोधित एवं परिवर्धित पाठ।)

 

 

कवि आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने रघुवीर सहाय और कुंवर नारायण पर बड़ा काम किया है। वे हमारे समय की सतत बेचैन, अविचलित और खोजते रहने वाली प्रतिभा है। उन्हें देवीशंकर अवस्थी, भारत भूषण और रामचंद्र शुक्ल सम्मान दिये गये हैं। पहल के पिछले अंक में हमने कुंवर नारायण की कहानी पर सामग्री प्रकाशित की थी। इस बार उनकी हाल ही में प्रकाशित कविताओं पर।

संपर्क - मो. 9425614005, कानपुर

 


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