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जून 2019

जसलोक

पंकज कौरव

कहानी

 

 

'उस वक्त रात के करीब साढ़े बाहर बज रहे थे, गोपाल दा खिड़की पर नज़रें जमाए बाहर कुछ देख रहे थे, शायद सड़क के उस पार चमचमाती बिल्डिंग पर हमारे अस्पताल के साइनबोर्ड में बड़े बड़े अक्षरों से लिखे नाम का प्रतिबिंब - जसलोक!’ इतना कहकर नैन्सी ने डॉ सिंह की ओर देखा। डॉ सिंह तैश भरी नज़रों से उसे अब भी घूर रहे थे। कुछ देर पहले हरामखोर, कामचोर और लापरवाह कहकर वे पूरे स्टॉफ पर अपना गुस्सा उड़ेल चुके थे, अब नैन्सी की बारी थी। दरअसल दस दिन पहले जसलोक के सबसे मशहूर आर्थोपेडिक सर्जन डॉ मनहर लाल सिंह मतलब डॉ एम एल सिंह ने ही गोपाल दा के कूल्हे में फ्रेक्चर का ऑपरेशन किया था। ऑपरेशन के बाद जब गोपाल दा को 604 नंबर के वीआईपी रूम में शिफ्ट किया गया तभी से सिस्टर नैन्सी और सुनीता पर उनकी देखभाल का जिम्मा था। सुनीता सुबह नौ से दस बजे के बीच आती थी जबकि रात की पाली नैन्सी के हवाले थी। पिछली रात यानी गुरूवार की उस रात भी सिस्टर नैन्सी ही ड्यूटी पर थी। लेकिन उसकी ड्यूटी खत्म होने से पहले गोपाल दा खतम हो चुके थे।

अस्पताल में सारा शोरशराबा इसी बात पर हो रहा था। डॉ सिंह का रौद्र रूप देखकर सभी हैरान थे। उन्हें हॉस्पिटल के सबसे कूल डॉक्टरों में से एक माना जाता था। उनकी बातों में हमेशा मिश्री घुली रहती थी, यही वजह थी कि साउथ मुंबई के बड़े-बड़े बिजनेसमैन से लेकर बांद्रा में रहने वाली कई मशहूर फिल्मी हस्तियां तक उनके क्लाइंट्स में शुमार थीं। जसलोक के ठीक पीछे की पॉश बिल्डिंग में रहने वाली एक उम्रदराज़ लेजेंडरी सिंगर के घर हर हफ्ते थेरिपी के लिए उनकी पर्सनल विजिट होती थी। घुटने के ऑपरेशन में तो उन्हें महारत हासिल थी। हालत यह थी कि उनका अपॉइन्टमेंट मिलना लालबाग चा राजा के दर्शन पाने से भी मुश्किल हो गया था। इस सब की वजह उनका अच्छा डॉक्टर होना तो था ही, साथ-साथ अच्छा और मीठा बोलना भी था। वह डॉक्टर ही क्या जो मरीज की आधी बीमारी अपनी सकारात्मक बातों से ठीक न कर पाए। पर डॉ सिंह ऐसे भी भड़क सकते हैं? उनका पारा इतना भी चढ़ सकता है? यह बात स्टॉफ को ताज्जुब के साथ-साथ अजीबोगरीब डर से भरती जा रही थी।

'फिर क्या हुआ?’ डॉ सिंह ने गुस्से में अपना चश्मा उतारते हुए पूछा। नेन्सी ने एक पल ठहरकर डॉ सिंह की बेचैनी समझने की कोशिश की और आगे बोलने लगी - 'मैं उन्हें वक्त पर दवाइयों का आखिरी डोज़ दे चुकी थी, करीब पौने-ग्याहर बजे! लेकिन वे रात के साढे बारह बजने पर भी जाग रहे थे। पता नहीं क्यों कुछ बेचैन भी लगे उस रात। कहीं खोए-खोए से थे। रूम का दरवाज़ा खोलने पर भी उनका ध्यान मुझ पर नहीं गया। उनका ध्यान बाहर ही था।’ इतना कहकर नैन्सी रुक गई। शायद उसे शब्द नहीं मिल रहे थे। पिछले हफ्ते भर, हर एक रात उसकी गोपाल दा से इतनी बातें हुई थीं जितनी शायद उसने अपने जीवन में किसी मरीज से नहीं की। ऐसा शायद इसलिए भी हो पाया कि गोपाल दा की देखभाल के लिए उनके परिवार का कोई सदस्य लगातार मौजूद नहीं था, पत्नी कुछ साल पहले गुज़र चुकी थी। एक बेटा जरूर था पर वह भी एक बड़े फिल्म प्रोजेक्ट में इतना मशरूफ था कि बाप का हाल-चाल लेने तक नहीं आया। माहिम के अपने छोटे से फ्लैट के बाथरूम से निकलते हुए गोपाल दा जब फिसलकर गिरे तब भी वह घर पर नहीं था। देह साठ पार की थी और जिन्दगी का बोझ उठाते-उठाते गोपाल दा की कमर पहले ही टूट चुकी थी। जब कूल्हा भी टूट गया तो उनका खड़ा होना मुश्किल था। पड़ोसी आनन फानन में उन्हें नज़दीकी हिन्दुजा अस्पताल लेकर भागे। उसके बाद उन्हें जसलोक लाया गया। गिरने के बाद क्या कुछ हुआ? कौन उन्हें लेकर अस्पताल आया? उन्हें कुछ भी याद नहीं। ऑपरेशन होने के घंटों बाद तक उन्हें किसी बात का ठीक ठीक होश नहीं था। दस दिन पहले हुए ऑपरेशन के बाद से वे लगातार जसलोक के वीआईपी रूम में लगभग लेटे ही हुए थे। एक ही करवट पर लेटे-लेटे ही खाना-पीना, और बाकी जरूरी डेली रूटीन की चीजें हो रही थीं। टट्टी-पेशाब सबकुछ पॉट में। कई बार क्लीनिंग स्टाफ की गैरमौजूदगी में नैन्सी और सुनीता को यह काम खुद करना पड़ता। उसपर भी अगर आखिर में ऐसा सुनना पड़ जाए तब बुरा लगना लाज़मी है। नैन्सी को भी यह पूछताछ बुरी लग रही थी। गोपाल दा के बारे में अगर बताना ही हो, तो बताने के लिए उसके पास बहुत कुछ था। उनके व्यक्तित्व का ठहराव, गहरी आत्मीयता से भरी हमेशा चमकती रहने वाली आंखें, चेहरे की झुर्रियों को झुठलाती मुस्कान, उनका बात करने का तरीका, कई सारी बातें थीं, ख़ासकर वे बातें जो उन्होंने कल रात नैन्सी से की थीं। वे सारी अनुभूतियां बता पाना उसे मुश्किल लग रहा था। उसे अपनी सीमा पता थी कि वह कोई लेखक नहीं महज़ एक नर्स है। विवशता में उसकी आंखें नम हो चली थीं। फिर उसने आंख बंद कर वे बातें अपने जहन में दोबारा कैद करने की कोशिश की। रात का वह दृश्य उसके सामने फिर तैर गया। कमरे के नीरव सन्नाटे में सिर्फ एसी की हवा के साथ घुलकर भीतर आने वाली आवाज़े तैर रहीं थीं। नीचे एंटीलिया से महालक्ष्मी और हाजीअली की ओर जाने वाली सड़क पर अब भी आवाजाही थी। अस्पताल के उस रूम की खिड़की में जड़े एसी की हवा के साथ बाहर सड़क पर दौड़ रही टैक्सी, कार और बसों की गुर्राहट और हार्न की आवाज़े छन छन कर भीतर आ रहीं थीं और गोपाल दा की नज़रें सामने वाली चमचमाती बिल्डिंग पर प्रतिबिंब बनकर उभर रहे जसलोक अस्पताल के साइनबोर्ड पर टिकी थीं। सारे अक्षर उल्टे नज़र आ रहे थे। प्रतिबिंब में हमेशा उल्टा ही दिखाता है। शायद वे प्रतिबिंब में नज़र आने वाले उल्टे बिंब की यही गुत्थी सुलझा रहे थे। यहां नैन्सी उलझ गई। गोपाल दा आखिर क्या अवलोकन कर रहे थे जसलोक का उल्टा नज़र आ रहा वह प्रतिबिंब देखते हुए?

'आगे भी बताओगी कुछ, या वही बात गोल गोल घुमाती रहोगी?’ सब्र टूटने पर डॉ सिंह नैन्सी पर फिर फट पड़े। तंद्रा टूटने पर नैन्सी थोड़ी हड़बड़ाई फिर बोली- 'और फिर एक फोन आया करीब 12:35 पर, तब तक मैं उनके साथ ही थी, फोन आने पर बाहर आ गई... मुझे लगा सो गए होंगे, एक घंटे बाद... वापस जाकर देखा तो...’ नैन्सी ने जैसे-तैसे अपनी बात पूरी की लेकिन डॉ सिंह इस जवाब से भी असंतुष्ट ही नज़र आए। उन्होंने चश्में के कवर से मखमली कपड़ा निकाला, गुस्से में चश्में के फ्रेम में जड़े फाइवर के ग्लास साफ करते हुए बोले - 'तुम लोगों को पता भी है लापरवाही की वजह से एक वीआईपी पेशेंट निबट गया। इतने बड़े प्रोड्यूसर लकड़ावाला ने खुद हॉस्पिटल आकर कहा था मुझसे, ऑपरेशन वाले दिन... क्या कहा था बोलो? कोई कमी नहीं होनी चाहिए डॉक्टर सिंह, गोपाल दा हमारे बहुत खास हैं। यही कहा था न? अब मैं उनको क्या जवाब दूंगा? इससे हॉस्पिटल की कितनी बदनामी होगी? जानती भी हो? तुम लोगों को क्या? महीने की सैलरी से मतलब है बस।’ इसपर नैन्सी ने भी मुंह पर जवाब दे दिया- 'सर नैचुरल डेथ है, इसमें हम कर भी क्या सकते हैं? पेशेंट का जितना ध्यान रखना चाहिए उससे कहीं ज्यादा रखा है।’ 'शट अप, दिख रहा है कितना ध्यान रखा है। लोग तो यही कहेंगे कि डॉ सिंह का ऑपरेशन सक्सेसफुल नहीं रहा। ज़रा सी लापरवाही ने सारा नाम खराब कर दिया।’ इतना कहते हुए डॉ सिंह उठे और भुनभुनाते हुए केबिन से बाहर चले गए।

केबिन में खड़ी नैन्सी सोच रही थी, क्या डॉ सिंह का जसलोक वाकई इतना कमज़ोर है कि एक पेशेंट की स्वभाविक मौत से हिल गया है? लोग यश कमाने के लिए कितने जतन करते हैं और कभी-कभी उनका कमाया सारा यश कैसे एक मिनट में मिट्टी में मिल जाता है। हालांकि उसे यह भी समझ आ रहा था कि गोपाल दा की मौत से डॉ सिंह का जसलोक जरा भी नहीं हिला, दरअसल उनका टारगेट हिल गया है। अस्पताल के ओपीडी में विजिट करने वाले डॉक्टर्स ही नहीं बाकी स्थाई डॉक्टर्स की नियुक्ति के साथ एक अघोषित टार्गेट जोड़ दिया जाता है। एक चैरिटेबल हॉस्पिटल में सालों नौकरी कर चुकी नैन्सी जब ज्यादा सैलरी के लोभ में यहां आयी थी, तो कुछ ही दिनों में उसे यह बात समझ आ गयी थी। हालांकि जसलोक भी शुरूआत में एक चैरिटेबल अस्पताल ही रहा था, पर अब वह कहने के लिए ही चैरिटेबल बचा था, सब कुछ प्रोफिटेबल बना देने की होड़ मची थी। पिछले हफ्ते भर में गोपाल दा के लिए डॉ सिंह की बढती विजिट उसे यह सोचने पर मजबूर करती रही थी। सकारात्मक सोचने की आदत के चलते नैन्सी ऐसी बातों को झटकती भी गई पर असल आत्मीयता और मतलब के फर्क से कौन कब तक नज़र फेर सकता है, कभी न कभी तो वह उजागर हो ही जाता है। यहां भी वही अंतर उजागर हो रहा था। प्रोड्यूसर लकड़ावाला ने जब गोपाल दा के इलाज का सारा जिम्मा उठाया तभी से डॉ सिंह को अपना दो महीने का टार्गेट पूरा होता नज़र आने लगा था। उन्हें अच्छी तरह पता था कि गोपाल दा के घर पर उनकी देखभाल के लिए कोई है नहीं इसलिए पूरे दो महीने वो उन्हें अपने ऑब्जर्वेशन में हॉस्पिटलाइज़ रखेंगे। इतना उनका टार्गेट पूरा करने के लिए काफी था। लेकिन गोपाल दा की अचानक हुई मौत ने उनकी नींद उड़ा दी थी। वो सुबह साढ़े चार-बजे से ही हॉस्पिटल में आकर टांय-टांय कर रहे थे। नैन्सी ने महसूस किया कुछ भी न होते हुए गोपाल दा का जसलोक डॉ सिंह के मुकाबले कितना बड़ा था।

एक वक्त था जब गोपाल दा को पूरी फिल्म इंडस्ट्री जानती थी। गुज़रे दिनों के सुपरस्टार्स तो उन्हें जानते और मानते थे ही, तमाम उभरते सितारे उनके पैर तक छू लिया करते थे। उनकी बोली में भी मिठास घुली थी, उनके चेहरे पर भी हमेशा मुस्कान तैरती थी, पर उनकी बोली की मिठास और वह मुस्कान शाश्वत सी थी। जो उनके साथ आखिरी वक्त तक रही और अब भी नैन्सी के आंख और कान में बनी हुई थी। वे फिल्म इंडस्ट्री के पराजित योद्धा थे लेकिन अपराजेय की तरह अंत तक मुस्कुराते रहे। वे दादा साहब फालके नहीं बन पाये, सत्यजीत रे और व्ही शांताराम जैसा उनका नाम न होगा तो क्या हुआ। पिछले चालीस साल उन्होंने फिल्मी दुनियां में लगातार काम किया। कामयाबी का अंत अगर रोते हुए हो और नाकामी अंत तक मुस्कुराती रहे और दूसरों के लिए मुस्कान बिखेर जाए, तो ज्यादा मोल उस मुस्कान का होगा।

बिल्कुल वही मुस्कान बिखेरी थी गोपाल दा ने पिछली रात। जब कमरे में जाकर नैन्सी ने  जड़वत बाहर घूर रहे गोपाल दा से पूछा- 'अरे आप अभी तक जाग रहे हैं?’ नैन्सी को देखते ही पलभर में उनका भावरहित चेहरा ता जे फूल की तरह खिल गया था और मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा था- 'हां नींद नहीं आ रही.’ नैन्सी ने भी चुहल करते हुए कहा- 'हां नींद आएगी भी कैसे, बेटे की फिल्म का प्रीमियर जो हो रहा है, आज ही था न प्रीमियर और कल फ्राइडे फिल्म की रिलीज़?’ गोपाल दा ने कुछ शर्माते हुए कहा- 'हां, वह भी सोच रहा था।’ उनकी स्वीकारोक्ति में कुछ था जो स्पष्ट नहीं था। फिर वे कुछ देर चुप रहे और बोले- 'जानती हो नैन्सी आज मेरे जीवन का चक्र पूरा हो गया है।’ नैन्सी गोपाल दा की बात सुनकर चौंक गई। वह चौंकना शायद मृत्यु के पूर्वाभास जैसा था, यह बात उसे बाद में समझ आयी। उसने गोपाल दा को डपटते हुए कहा- 'आप भी कैसी बातें करते हैं?’ गोपाल दा नैन्सी की डाट से अप्रभावित दिखे, यथावत मुस्कान के साथ उन्होंने आगे कहा - 'सच कह रहा हूं। चालीस साल पहले जसलोक के सामने फिल्म डिवीज़न में पहला काम शुरू किया था। यहीं, जसलोक के बिल्कुल पास एक प्रोजेक्ट में डेली बेसिस पर मिले काम से अपनी यात्रा शुरू की थी। इत्तेफ़ाक देखो आज चालीस साल बाद मेरी यात्रा यहीं जसलोक में पूरी हो रही है।’

शायद बेटे की फिल्म के प्रीमियर की खुशी ने उनकी पलकें नम कर दी थीं। गोपाल दा के सिराहने के पास रखी कुर्सी पर बैठते हुए नैन्सी ने अपना मोबाइल निकाल लिया था। झट अपने फोन की गैलरी से कुछ पिक्चर्स निकालकर दिखाते हुए उसने कहा - 'अच्छा गोपाल दा, आपकी तो फिल्म इंडस्ट्री में इतनी पहचान है. मेरे बेटे जॉएल को चाइल्ड आर्टिस्ट का कोई काम दिलवाइये न? आप ने तो देखी हैं उसकी तस्वीरें, देखिए बिल्कुल हीरो नहीं दिखता?’ नैन्सी की बात सुनकर गोपाल दा कुछ सहम गए थे। उनकी वह शाश्वत मुस्कान नैन्सी ने पहली बार गायब होते देखी। वे तस्वीर देखते हुए थोड़ी रूखाई से बोले- 'अरे इतना प्यारा बच्चा है, इसे अभी से क्यों उस नरक में झोंक रही हो।’ बदले में नैन्सी चुप कैसे रह लेती, वह गोपाल दा को चिढ़ाते हुए तपाक से बोली- 'वाह, क्या डबल स्टैंडर्ड है। अपने बेटे की फिल्म का प्रीमियर हो रहा है और दूसरों के बेटे को फिल्मों में काम करने से रोक रहे हैं।’ जवाब में वे मुस्कुराते हुए बोले- 'अभी जॉएल सिर्फ छह साल का है, तुम उसे जिस रास्ते पर बढ़ाओगी बढ़ जाएगा, पर जरा सोच कर देखो, हो सकता है बाद में उसका रास्ता कुछ और निकले, उसे बड़ा हो जाने दो, अगर वह खुद चुनता है तो चुन लेने देना। हर किसी को अपना लोक खुद ही चुनना चाहिए, जैसे मैंने चुना था। तब कोई पछतावा नहीं रहता।’

उस वक्त नैन्सी को गोपाल दा पर बहुत गुस्सा आया था। उसे लगा गोपाल दा शायद जानबूझकर जॉएल को काम दिलाने की बात टाल रहे हैं। मां को न बर्दाश्त कहां होती होती है अगर वह न उसके बच्चे के लिए हो। उस वक्त तब तो एक मां अपने बेटे को सिर्फ हीरो की तरह देखने की कामना कर रही थी। गोपाल दा के मोबाइल की घंटी बजने पर जब वह बाहर आई तब भी गोपाल दा का मदद से इंकार उसे खटकता रहा था। इसी आवेग में वह भीतर ही भीतर कुछ देर तक गोपाल दा से चिढ़ी बैठी रही लेकिन जब उसे पिछले दिनों गोपाल दा से सुने उनके संघर्षों के किस्से याद आए तो एक मां का कलेजा कांप गया। चालीस साल पहले गोपाल दा भी तो हीरो बनने मुंबई आए थे और इन चालीस सालों में क्या बन पाए? स्पॉट दादा!

एक फिल्म की यूनिट में एक स्पॉट ब्वाय क्या होता है? यह गोपाल दा ने ही तो बताया था नैन्सी को। स्पॉट दादा प्रोड्यूसर को नींबू पानी लाकर दो। स्पॉट दादा हीरो की वैनिटी में ये नारियल पानी दे आओ। स्पॉट दादा वो गेस्ट आए हैं उनके लिए ब्लैक-कॉफी... अरे स्पॉट दादा छाता कहां है? हीरोइन वहां धूप में खड़ी है और स्पॉट दादा तुरंत दौड़ते हुए गए और हीरोइन से सिर पर छाता लगाकर खड़े हो गए। यह जीवन खुद उन्होंने ही तो चुना था। चालीस साल पहले फिल्म डिवीजन में दिहाड़ी वाला काम करते हुए उन्हें जब छह महीने हो गए थे तब उन्हें पर्मानेंट करने की बात भी चली थी। अगर वे हां कर देते तो शायद फिल्म डिवीजन की किसी प्रोडक्शन यूनिट में पर्मानेंट एम्पलोयी होते। अब तक रिटायरमेंट भी हो गया होता। प्रोविडेंट फंड, पेंशन और मेडिक्लेम जैसी सारी सुविधाएं होतीं लेकिन नौकरी का मोह छोड़कर उन्होंने हीरो बनने का सपना चुना। और बनकर रह गए एक स्पॉट-ब्वाय। उम्रदराज़ हो चले थे तो उन्हें स्पॉट-ब्वाय की जगह स्पॉट दादा कहा जाने लगा। जो उन्हें नाम से जानते थे वो उन्हें गोपाल दा ही कहते थे पर वे थे तो स्पॉट-ब्वाय ही न?

फिर जसलोक का यह वीआईपी रूम, हाईफाई इलाज और इंडस्ट्री के नामी प्रोड्यूसर लकड़ावाला की तरफ से मदद की यह पेशकश? नैन्सी को अंदाज़ा था यह एक अमीर प्रोड्यूसर की तरफ से जरूरत पर की कई मदद थी। नैन्सी ही क्यों बॉलीवुड स्टार्स के चैरिटी के किस्सों पर हर कोई आसानी से भरोसा कर लेता है। लेकिन चैरिटी हर बार सिर्फ मदद की शक्ल में नहीं आती, कभी कभी वह फंदा बनकर भी आती है। अगर खुद गोपाल दा ने लकड़ावाला से अपने संबंधों का वह किस्सा नैन्सी को न सुनाया होता तो शायद यह बात भी नैन्सी के लिए किसी रहस्य की तरह ही रह जाती।

वह करीब तैतीस चौतीस साल पहले की बात थी। पांच सात साल मुंबई में संघर्ष करते हुए जब गोपाल दा को अभिनय के क्षेत्र में ढंग का मौका नहीं मिला तो उनकी हिम्मत टूटने लगी। रोज़ रोज़ यादगार रोल पाने की दौड़ उन्हें थकाती जा रही थी। पहचान दिलाने वाला किरदार मिलना उन्हें किसी मृगमारीचिका सा लगने लग गया था। रोल मिलने पर भी क्राउड में खड़े हो होकर पैदा होने वाली झल्लाहट उनके व्यक्तित्व में जगह बनने लगी थी। उन्होंने तय कर लिया कि वे अब लौट जाएंगे। उस वक्त उन्हें यह नहीं पता था कि समंदर से सटे मुंबई के थपेड़े जो साल भर झेल लेता है, मुंबई फिर उसे कभी नहीं छोड़ती। मुंबई के संघर्ष का यह सबसे प्रचलित मुहावरा अबकी बार खुद उन पर लागू होने जा रहा था। इधर उनका मुंबई छोडने का फैसला पक्का हुआ, उधर ऐन वक्त पर एक दोस्त ने आकर उन्हें मुंबई में रहे आने की राह सुझा दी। यह बीच का रास्ता था जो दरअसल होता ही नहीं है।

लकड़ावाला के प्रोडक्शन में कुछ लोगों की जरूरत थी। दोस्त ने गोपाल दा को बताया, रहने खाने के इंतज़ाम के साथ उन्हें लकड़ावाला की फिल्म कंपनी में पर्मानेंट काम मिल जाएगा। आखिर लकड़ावाला उन दिनों साल की पांच-छह फिल्में प्रोड्यूस किया करते थे। और फिर इंडस्ट्री में बने रहने से यह आस तो ज़िन्दा रही ही आनी थी कि धीरे-सुस्ते मनपसंद काम भी मिल ही जाएगा। दोस्त की सलाह मानकर गोपाल दा ने लकड़ावाला के प्रोडक्शन में अर्जी लगा दी। थोड़ी पूछताछ के बाद उन्हें काम मिल गया। वह काम यही था - स्पॉट-ब्वाय का।

एक फिल्म, दो फिल्म, साल की छह फिल्म... करते करते कुछ साल और गुज़र गए। सैट पर जब शूट नहीं हो रहा होता तब गोपाल दा, निर्देशक और बाकी कलाकारों का ध्यान खींचने की कोशिश करते, कभी उन्हें शोले के संवाद सुनाते तो कभी मुकेश के गाने गाते। उस वक्त गोपाल दा के चारों ओर मजमा लग जाता, लेकिन जैसे ही शूट शुरू होता, फिर वही कहानी - स्पॉट दा पानी! स्पॉट दादा चाय!

धीरे-धीरे गोपाल दा ने वे प्रयास भी बंद कर दिए. उन्हें लगने लगा ऐसे मौकों पर वे महज़ एक विदूषक साबित होते हैं। लोग अपने काम के बीच फुर्सत के पलों में उनका मज़ा लेते हैं। वे सेट पर सिर्फ लोगों के मनोरंजन का साधन बनते जा रहे हैं और इस सब से उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा। हालांकि अबकी बार असफलता उनके व्यवहार में कोई खराश और खरोच पैदा नहीं कर पायी। पता नहीं कैसे इतने संघर्षों के बावजूद उनकी सौम्यता और भी प्रगाढ़ होती चली गई। 

इसी बीच लकड़ावाला के प्रोडक्शन में काम करते हुए गोपाल दा के साथ वह हुआ, जो न होता तो शायद गोपाल दा कुछ और होते। उस दिन सेट पर प्रोड्यूसर की वैनिटी वैन सबसे पीछे की तरफ लगी थी। आमतौर पर जब लकड़ावाला किसी जरूरी मीटिंग में होते थे तो कोई अटेंडेंट या बाउंसर बाहर खड़ा रहकर अंदर जाने वालों को रोक देता था। गोपाल दा लकड़ावाला के लिए शाम की चाय लेकर पहुंचे तो उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि भीतर कोई ज़रूरी मीटिंग चल रही है। बाहर मुस्तैद रहने वाला अटेंडेंट शायद लापरवाह था और वह पल भर के लिए दाएं-बाएं हो गया था। गोपाल दा जैसे ही वैनिटी का दरवाज़ा खोलकर भीतर गए, उनके होश उड़ गए।

वाजिद लकड़ावाला वैनिटी के भीतर अपने सबसे अजीज़ दोस्त की बहन के साथ अंतरंग पलों में उलझा पड़ा था। दरवाज़ा खुलने की आहट पर पलटते हुए उसने गुस्से में चिल्लाकर कहा- कौन बद्तमीज़ है? फिर उसकी नजऱें गोपाल दा पर जाकर ठहर गईं। गोपाल दा काठ के हो गए थे। ऐसा नहीं था कि फिल्म इंडस्ट्री में प्रोड्यूसरों, बड़े अभिनेताओं और निर्देशकों की अय्याशियों के किस्से उन्होंने नहीं सुने थे। बहुत सुने थे। किसी भी फिल्म के क्रू मेंबर्स के बीच अक्सर यही तो बातें हुआ करती थीं। लेकिन कोई अपने जिगरी दोस्त की बहन के साथ भी ऐसा कैसे कर सकता है?

मुलाजिम की नज़रों में डर की जगह हिकारत देखकर लकड़ावाला भीतर तक कांप गया था। उसने देखा गोपाल दा की नज़रें उसे घूर रही हैं। कुछ पल लकड़ावाला और गोपाल दा की नज़रें एक दूसरे को बेधती रहीं। इससे पहले कि गोपाल दा कमज़ोर पड़ जाते, वे वैनिटी से बाहर निकलने के लिए मुड़ गए। फिर उन्होंने कभी लकड़ावाला की तरफ दोबारा मुड़कर नहीं देखा। यह सब इतना आसान भी नहीं था। बल्कि यही गोपाल दा के फिल्मी करियर के पतन की शुरूआत थी। आखिर अब वे न चाहते हुए भी एक बड़े राज़ में राज़दार हो गए थे। लकड़ावाला ने कभी छल से तो कभी बल से उन्हें अपने पाले में लेने की कोशिशें की। हमेशा उन्हें अपने नीचे दबाकर रखने की कोशिश होती रही। जब बात नहीं बनी तो हालात और भी मुश्किल बनते गए. मुंबई की इस छोटी सी फिल्म इंडस्ट्री में, जहां हरएक बड़ा फिल्म निर्माता एक दूसरे को जानता था, अब गोपाल दा को भी जानने लग गया था। वे जहां काम मांगने जाते उन की बदनामी के झूठे किस्से उनसे पहले वहां पहुंच जाते। तकरीबन सभी बड़े फिल्म प्रोडक्शन बैनर्स में उनके लिए काम मिलने की संभावनाएं खत्म हो चुकी थीं। लकड़ावाला सालों तक गोपाल दा के पीछे पड़ा रहा। उसके लोगों ने गोपाल दा पर हमेशा नज़र रखी। इतने सब के बावजूद लकड़ावाला को शायद कहीं न कहीं यह विश्वास था कि गोपाल दा ने उनका वह राज़ किसी से जाहिर नहीं किया है। जसलोक में इलाज का महंगा खर्च उठाना कहीं उसी बात का तो इनाम नहीं है... या फिर पश्चाताप...? नैन्सी को ध्यान आया, जब गोपाल दा को पता चला कि उनके सारे इलाज का खर्च लकड़ावाला उठा रहा है तो नैन्सी की बात सुनकर वे रो पड़े थे। बोले कुछ भी नहीं, बहुत देर तक बस एक छोटे बच्चे की तरह बिलख-बिलख कर रोते रहे। उस वक्त वे रोने के अलावा कर भी क्या सकते थे?

नैन्सी ने देखा एक तेईस-चौबीस साल का लड़का गोपाल दा के सिरहाने खड़ा उन्हें अपलक देखे जा रहा है। उसकी पलकें भींगी हुई हैं और आंखें इस कदर सूजी हुई जैसे कोई रात भर रोया हो। उसकी नज़र अपनी कलाई घड़ी पर गई। उस वक्त सुबह के साढ़े छह बज रहे थे। रूम की बड़ी बड़ी कांच की खिड़कियों से सुबह का उजास भीतर झांकने लगा था। वह आगे बढ़कर उस लड़के के पास पहुंच गई - 'क्या आप गोपाल दा के बेटे रवि हैं?’ अपने नाम से पुकारे जाने पर लड़के ने नैन्सी की ओर देखा, और फूट पड़ा - 'हां... कल देर रात मैंने पापा से बात की थी, तब तक वे ठीक थे... फिर मैंने उन्हें बताया कि प्रीमियर अच्छा रहा। बस मेरा किरदार कट गया। जवाब में वो बोले - अरे निराश क्यों हो रहे हो। इंडस्ट्री में काम पर कैंची चलती रहती है, यह सोच कर खुश रहो कि मौका तो मिला। यहां तो कितनों को मौका भी नहीं मिलता। फिर थोड़ा ठहर कर बोले और यह मत भूलो कि फिल्म में तुम्हारा रोल एक सपोर्टिंग रोल था, मुख्य भूमिका में अगर कोई स्टारकिड हो, तो ऐसी बातों को दिल पर नहीं लगाया करते।’

फोन पर हुई बात दोहराते हुए रवि नैन्सी को कुछ इस तरह के मातृत्व भाव से देख रहा था, मानों थोड़ा भी पुराना परिचय होता तो शायद वह नैन्सी से लिपट कर रो लेता। आत्मीयता के किसी अदृश्य तार से रवि नैन्सी की ओर खिंचता चला जा रहा था। नैन्सी ने उस वक्त अनुभव किया मानों वह अस्पताल में नहीं बल्कि किसी चर्च के कनफेशनल में बंद है। बाहर रवि उसके सामने कोई ज़रूरी कंफेशन कर रहा है। अब तक के उसके जीवन का सबसे पवित्र कंफेशन। रवि ने आगे कहा - 'मुझे उन्हें सच नहीं बताना चाहिए था। झूठमूट कह देता फिल्म में मेरा रोल बहुत दमदार निकल कर आया है। सब छिपा लेता तो कितना अच्छा होता. उन्हें जाना ही था तो चले जाते लेकिन खुश होकर जाते। बेटे को मिली झूठी सफलता के साथ उन्हें मरते वक्त इतना दुख तो नहीं हुआ होता।’ नैन्सी ने उसे ढांढस बंधाते हुए कहा- 'रवि गोपाल दा दुखी क्यों होंगे भला? तुम्हारी फिल्म की रिलीज़ उनके लिए सबसे बड़ी खुशी की बात थी।’ सुनकर रवि और भी बिलख पड़ा- 'आपको पूरी बात नहीं पता। इसी बात का तो गिल्ट था पापा को। मुझे तो होश भी नहीं मैंने फिल्मों में कब काम करना शुरू किया। बहुत छोटा सा था तभी से पापा ने काम दिलवाना शुरू कर दिया। फिर धीरे-धीरे खुद मुझे भी फिल्म इंडस्ट्री का यह ग्लैमर भाने लगा। मेरे बड़े होने पर जब काम मिलना लगभग बंद हो गया, तब उन्हें समझ आया उनसे कितनी बड़ी भूल हो गई है। जब कभी बहुत दुखी हो जाते थे तो कह देते थे, रवि मैंने अपना जीवन तो बर्बाद किया ही किया, अफसोस उस बात का बिल्कुल नहीं है, पर मैंने तुम्हारा जीवन बर्बाद करके बहुत बड़ा पाप किया है...’

रवि की बात सुनकर नैन्सी का दिल 'धक’ करके रह गया। तो इस वजह से जॉयल को फिल्मों में चाइल्ड आर्टिस्ट बनाने के खिलाफ थे गोपाल दा। रवि तब तक सुबकते हुए कमरे की खिड़की की ओर चला गया था। नैन्सी देख रही थी कि रवि के चेहरे पर सूरज की पहली किरणें पड़ रही हैं। इधर रवि की लाल हो चुकी आंखों में उगते सूरज का प्रतिबिंब बन रहा था उधर नैन्सी के कानों में कल रात कही गोपाल दा की बातें दोबारा गूंज रहीं थीं।

बाहर आने पर नैन्सी ने देखा डॉ सिंह अस्पताल के बिलिंग काउंटर की तरफ से लौट रहे हैं। डॉ सिंह के चेहरे पर तैरती मुस्कान देख नैन्सी को समझते देर नहीं लगी कि शायद वे गोपाल दा के अस्पताल के बिल में अपना काफी कुछ टार्गेट एडजस्ट कर आए हैं।

और सबसे अंत में, अपनी ड्यूटी खत्म होने के ठीक पहले नैन्सी ने देखा, स्ट्रेचर पर गोपाल दा का ठंडा पड़ चुका शरीर जसलोक से बाहर ले जाया जा रहा है। इसी बीच मुख्य द्वार से बाहर आते ही हवा के झोके से गोपाल दा की देह पर ढंकी सफेद चादर उघड़ गई है। नैन्सी ने देखा, जसलोक से जाते हुए गोपाल दा के चेहरे पर उनकी वह शाश्वत मुस्कान यथावत बनी हुई है...

 

पंकज कौरव समाचार मीडिया में काफी लंबी पारी खेल चुके हैं। सहारा, आज तक और टाइम्स टीवी में काम कर चुके अब पंकज कौरव सिनेमा और मनोरंजन के बाजार में फ्री लांसर की तरह काम कर रहे हैं। एक उपन्यास प्रकाशित होने की प्रक्रिया में है। उनकी यह पहली कहानी है। पहल के सबसे कठिन दौर में पंकज कौरव ने सक्रिय भूमिका निभाई थी। उन दिनों उन्हें पहल का मजदूर कहा जाता था।

संपर्क - 9929297045, मीरा रोड

 


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