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जून 2019

तेरह कविताएँ

कुमार अम्बुज

कविता

 

''एक लेखक हजार पन्ने लिखता है

एक लाख कोरे पन्ने उसके अंत में साथ जाते हैं

अनलिखे की कब्र में देह के साथ उन्हें कीड़े खाते हैं

अनलिखे के नरक में उसके साथ आग में जलते हैं।’’

 

 

 

पहचान

 

त्रिआयामी तसवीर से भी आदमी पहचान में नहीं आता

इसलिए तुम उसके तिल और मस्से देखते हो

खोजते हो चोट के निशान छापते हो अँगूठे और पुतलियाँ

और आखिर सिर धुनते हो कि डिजीटल करने भर से

आदमी की ठीक पहचान नहीं हो जाती

 

जबकि एक जमाने में आदमी केवल अपनी

चाल से और बानी से पहचान लिया जाता था

जैसे पेड़ पहचान लिए जाते थे अपने पत्तों से, हवा से

मवेशी कान में लगे बुंदे से नहीं

एक पुकार पर उनकी आँखों में आई चमक से 

 

मैं अब भी भरोसा करता हूँ कुछ पुराने तरीकों पर

और आदमी को उसकी प्रतिज्ञाओं से पहचानता हूँ

लेकिन सबसे ज्यादा उन प्रतिज्ञाओं के टूटने से।

 

जैसे सब कुछ लिखा अकारथ

 

भाई साहब, भगवान की दया से सब कुछ है हमारे पास

घर में जिम है, म्यूजिक रूम, होम थियेटर और विशाल लायब्रेरी

सफाई के लिए हैं तीन नौकर, धूल जमने नहीं देते कहीं

चौदह फॉर्म हाऊस हैं, ट्यूबवेल हैं पानी का लेवल अच्छा है

दूर तक जान-पहचान है सबको देते हैं चंदा

सीबीआई दस बार सोचेगी हाथ डालने से पहले

मगर कोई एक चीज है जो नहीं है सो बेचैनी बनी रहती है

शराब और दूसरी मौज-मस्ती इसमें कुछ मदद कर नहीं पाई

अब तबीयत रहती है नासाज, लगता है कुछ है जिसकी कमी है

उसे ही करना चाहते हैं पूरा उसी में लगा रहता है दिमाग

बस उसीकी चिंता है उसीके लिए भटकते हैं संतों-सद्गुरुओं के पास

मजार पर चले जाते हैं, कभी कला-भवन में सितारवादन सुनने

मंदिर बनवा लिया है घर में, सीख ली है विनम्रता

हर जगह खड़े रहते हैं हाथ जोड़कर, होर्डिंग तक में देख लें

लेकिन क्या चीज है जो नहीं है इसीका पता लगाने में जुटे हैं

आप कुछ मदद कीजिए, आप तो कवि हैं जहाँ न पहुँचे रविवाले

कम से कम एक कविता लिख दीजिए हमारे बारे में

सुनकर सिर पकड़े बैठा हूँ

सोचता हूँ क्या अब तक का सब कुछ लिखा अकारथ हुआ।

 

उपशीर्षक मुख्यशीर्षक

 

इतना राष्ट्रवाद है कि किसी से क्षमायाचना नहीं की जा सकती

इस प्रदूषण में साफ हवा बची है केवल चेम्बर ऑव कॉमर्स में

उड़ती हुई धूल ने धूप की प्रसन्नता को धूमिल कर दिया है

भूख और प्यास को मीडिया ने बदल दिया है प्रतियोगिता में

एक मुठ्ठी मृदा परीक्षण में मिला है छह किसानों का रक्त

प्रेमचंद अपना जीवन काट लेते महज स्कूल इंस्पेक्टर की तरह

तो बहुत-से आलोचकों का संकट दूर हो जाता

अच्छी भली जगहों को छोड़कर लोग घुस गए हैं धमनभट्टियों में

यह नैतिकता है जो परेशान करती है और क्रोध दिलाती है

बगीचों में फूल खिले हैं जिसमें वर्जित है बच्चों का प्रवेश

सर्वे की रिपोर्ट है कि लोग नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं

लोग कह रहे हैं नियमों ने जीवन का ही उल्लंघन कर दिया है

निस्सारता का बोध एक साथ ज्ञानी और निराश बना रहा है

बाजार की जगर-मगर ने गरीब की निरीहता को कर दिया है उजागर

अभी-अभी राजप्रमुख ने एक हत्या को उस तरह स्वीकृति दी है

जैसे ताकतवर देश किसी नये पिछलग्गू देश को देता है मान्यता

आदमी अपने घर का नंबर भूलता है तो प्राकृतिक सहारे की उम्मीद में

एक पेड़ के तने से टिका देता है अपना सिर

तब उसे पता चलता है कि यह पेड़ तो प्लास्टिक का है।

 

पाठ्यक्रम से बाहर

 

मैंने हर उस काम को जीवन में खुशी से किया

जिसका कोई तयशुदा पाठ्यक्रम न था, न कोई विद्यालय

जहाँ परीक्षाएँ नहीं देना थीं, न थी उत्तीर्ण होने की कोई शर्त

और जिस काम का नौकरी से कोई सीधा संबंध न बनता था

इसलिए मैं झरनों के पास चला गया जब मेरे बोर्ड के इम्तिहान थे

फिर उजड़े जंगलों में तफरीह करता रहा,और हर उस जगह से

खुद भाग आया, या निकाल बाहर किया गया

जो जगहें लेती थीं औपचारिक परीक्षाएँ

और उस रात जब इकतरफा निर्णय होना था मेरे दुविधाग्रस्त प्रेम का

मैं परेड ग्राऊण्ड के चबूतरे से सप्तऋषियों को निहारता था

आखिर मैदा मिल के पास चाय की गुमटी पर बैठने लगा

शहर की गलियों, बाजारों, पार्कों, मैदानों में घूमता रहा

तमाम लोगों से दोस्तियाँ हुईं, झगड़ों से परहेज नहीं किया

बगैर पाठ्यक्रम की पढ़ाई करता रहा और दुनिया के साथ बना रहा

कि मुझे कुछ घंटों से नहीं, मेरे पूरे जीवन से देखो

लेकिन फैसला मत दो, मैं किसी का परीक्षार्थी नहीं

जिन्हें अनुत्तीर्ण कर दिया गया वे अकसर जिंदगी में कुलाँचें भरते रहे

और जब मैं अपने सबसे बड़े अवसाद से गुजर रहा था

तब स्टेडियम की विशाल गैलरी में बैठा था, बारिश देख रहा था

अण्डाकार पृथ्वी धुँधले आकाश के नीचे मेरे सामने नाच रही थी

पूछती हुई मैं कैसी दिखती हूँ इस परिधान में

और आप मेरा जवाब समझ गए होंगे

क्योंकि मैं उसका परीक्षक नहीं था, प्रशंसक था।

 

हरा धनिया, कैल्शियम,एस्प्रिन

 

कई बार रखी गईं माँगों को फिर रखता हूँ

कि दो वक्त की चाय और तीन वक्त की रोटी चाहिए

दो जोड़ी कपड़े और रोशनीवाला हवादार कमरा चाहिए

वित्तमंत्री भला करें रिजर्व बैंक का या न करें

लेकिन मुझे चटनी के लिए थोड़ा हरा धनिया चाहिए

 

ठेले-खोमचेवालों से भी छोटी-मोटी चीजों का

करना पड़ता है मोल-भाव जो बिल्कुल सुहाता नहीं

मगर टैक्स और महँगाई इतनी है कि करना पड़ता है

आप कम कर दें भले सीएम हाऊस का स्टॉफ

या बंद करें बिना काम का एकाध मंत्रालय

लेकिन मुझे दाल, चावल, कंबल और कैल्शियम चाहिए

 

अनगिन मुश्किलें हैं मेरे चारों तरफ

देशव्यापी वीरताओं की नृशंसताओं से पटे हुए हैं अखबार

मुझे सिरदर्द है, दुख रहा है बदन, चढ़ आया है बुखार

ऐसी हालत में मुझ नागरिक को

प्रधानमंत्री का वक्तव्य नहीं चाहिए, एस्प्रिन चाहिए।

 

अनाथ होना

 

एक दिन तुम्हारे छाते का कपड़ा फट जाता है

टूट जाती हैं उसकी तानें

सूखती कमीज को हवा उड़ा ले जाती है दूर कहीं

चश्मा गुम जाता है खोजने पर भी नहीं मिलता

तुम एक नया छाता खरीद लाते हो, एक कमीज,

बनवा लेते हो नया चश्मा

 

मगर टूट गए, खो गए, उड़ गए आदमियों के बदले

तुम ऐसा नहीं कर पाते इसलिए उघाड़े बदन बारिश में

भीगते रहते हो या घाम में नंगे सिर चलते हो

देखते हो चारों तरफ दृश्य धुँधले हो चुके हैं।

 

  एक ही प्रेम

(संध्या की प्रशंसा में)

 

एक प्रेम काफी है जिंदा रहने के लिए

एक ही प्रेम नष्ट होने के लिए

पर्याप्त है एक प्रेम का दण्ड

एक का ही वरदान कर देता है धन्य

एक प्रेम की निराशा फैल जाती है दूर तक

एक प्रेम ही थाम लेता है आशा का चिथड़ा

एक प्रेम से ऊब पैदा होती है, उसी से तृप्ति

एक प्रेम सूर्योदय और सूर्यास्त के लिए

और वही काफी है रात में चाँद सितारों के वास्ते

एक प्रेम गर्व से कर देता है सिर ऊँचा

वही बैठा देता है घुटनों के बल

एक प्रेम की व्यग्रता हो सकती है बर्दाश्त

सँभाली जा सकती है बस एक प्रेम की प्रसन्नता

अगर एक प्रेम से नहीं चल सकता काम

तो सैंकड़ों प्रेम भी रहेंगे नाकाम

जब कोई नहीं रहता, कुछ नहीं बचता,

सब विदा ले चुके होते हैं तो अतल की तलहटी में

सूखे उजाड़ जीवन में टिमटिमाता है वही एक प्रेम

उसकी टिमटिम दिखती है रोशनी की तरह

जब सब तरफ कोलाहल, आपाधापी और घबराहट होती है

एक वही प्रेम हाथ थामकर देता है आत्मीय एकांत

और वही धकेल देता है जीवन की भागमभाग में

एक ही प्रेम कर देता है जीना मुश्किल

और उसीके लिए तो अटकी हुई है यह साँस।

 

पक्षाघात

 

बेटी को हम विदा करते हैं

बेटा बिना विदा किए घर से चला जाता है

 

अब वह जब भी आएगा स्मृतियों को जीवंत करता

जाने-पहचाने आगुंतक की तरह कुछ जल्दबाजी में रहेगा

कहता हुआ बच्चे ठीक हैं और मैं भी अच्छा हूँ

तुम इस सब कुछ को विस्मय से देखोगे और चुप रहोगे

सोचोगे उसके लिए और क्या कर सकते हो

 

तुम उसे देखोगे जैसे अपनी बनाई जलरंग की तसवीर

या मिट्टी का, धातु का कोई शिल्प

जिसके एक कोने में बारिश के निशान आ गए हैं

दूसरी ऋतुओं ने भी बदल दिया है उसके रंगों को

अपने कलाकार होने के अनुभव से तुम जानते हो

कि उन्हें दुरुस्त नहीं किया जा सकता

 

यही सोचकर तुम इस तरह बिलखते हो चुपचाप

कि एक तरफ से प्रस्तर की मूर्ति में ढलते चले जाते हो।

 

कवि व्याकरण

 

महज संज्ञा नहीं, सर्वनाम नहीं,

विशेषण या कोई अलंकार नहीं,

             कवि क्रिया है

 

जब तुम उससे बात करते हो

तो अनेक लोगों से बात करते हो

तुम्हें लगता है वह कोई निजी बात कह रहा है

लेकिन वह बहुवचन है अव्यय है समास है संधि है

तुम गलत दस्तावेज पेश करते हो

तो सबसे पहले वह ठीक करता है उसका व्याकरण

और शब्दों को रखता है सही जगहों पर

कि उनका मतलब वैसा रहे जैसा दरअसल तुम्हारा इरादा है

यह काम वह बार-बार करता है

पुनरुक्ति है, शब्द-विचार है, क्रिया है

 

तुम चाहते हो कवि क्रोध न करे, वह चाहता है

तुम ऐसी हरकत न करो कि कवियों को गुस्सा आए

 

 

संपर्क - मो. 9424474678, भोपाल

 


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