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जून 2019

मोखा की माटी

गौरीनाथ

कोसी प्रवास की डायरी (पिछले अंक से जारी)

 

 

 

16 अगस्त, 2015, दोपहर, कंकालिनी मंदिर परिसर, भारदह

विगत रात पहले कॉल आया। फिर होटल के बाहर एक बाइक सवार मिला। दस मिनट बाद उसने मुझे जहाँ छोड़ा, गाड़ी की हेड लाइट बंद होते ही दो आकृतियाँ सामने आईं। उसके साथ उबड़-खाबड़ अंधेरे रास्ते पर तीन किलोमीटर के क़रीब चलने पर घुटने भर पानी में एक नाव में बैठी निशा रानी मेरा इंतज़ार करती मिली। नाव में मेरे बैठने के बाद साथ आए दोनों व्यक्ति वापस चले गए। फिर निशा रानी ने मुझे एक थैले से निकाल कर कुछ कपड़े दिए। उसके निर्देशानुसार मैंने कपड़े बदल लिये। मेरे कपड़े उसी थैले में व्यवस्थित करके रखने के बाद वह मेरे पास आई। सर पर बंधे गमछे को थोड़ा व्यवस्थित करके एक गाँठ लगाई। 'लग तो रहे हो एकदम मल्लाह की तरह ही, लेकिन...’ वह फुसफुसायी! 'लेकिन?...’ मेरी फुसफुसाहट निकली। 'कैसे समझाऊँ तुमको?... मुझे भी मरवाओगे! भीतर से तुम्हारा पढ़े-लिखे वाला कमीनापन चुगली कर रहा है!’ मैं चुप और चिंतित! 'देह गंध भी तो तुम्हारी साबून-शैम्पू जैसी है रे बाबू!’ मछली वाला एक खोमचा उठाकर वह मेरे पास आई। 'एक मिनट के लिए आँख-नाक बंद कर लो!’ कहकर उसने मेरा सर अपने कंधे पर झुका लिया और मेरी पीठ पर दो-तीन बार खोमचा झाड़कर धूल-गर्द और मछली की गंध से मुझको नहला दिया। फिर खोमचे के भीतर से टाट-कपड़े के कुछ टुकड़े निकालकर मेरे सर पर झाड़ दिया। उसकी जकडऩ में मैं कसमसा कर रह गया। '...चोट तो नहीं लगी? रोना मत रे बाबू!’ मैं मिमियाती आवाज़ में 'नहीं-नहीं’ भर कह पाया।  धीरे से मैं धूल झाड़ रहा था तो उसने अपने आँचल से मेरा चेहरा पोछ दिया। 'बैठ जा यहाँ!’ उसने सामने की तरफ़ इशारा किया और लंबे डंडे के सहारे नाव को खिसकाने लगी। धीरे-धीरे नाव के गहरे पानी में आते ही वह चप्पू ले अपनी जगह पर बैठ गई। थोड़ी ही देर में नाव कोसी की मुख्यधारा में आ गई थी। कुछ देर तक धारा के विरुद्ध नाव को गति देती रही फिर नाव किधर जा रही थी इसका मुझे पता नहीं चल रहा था। नदी के घुमडऩे और चप्पुओं के चलने की आवाज़ के अलावा मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। इस वक्त मुझे कुछ पूछने का होश नहीं था। सिर्फ़ और सिर्फ़ वह ही कुछ-कुछ देर पर कोई नया सवाल करती और मैं सच्ची-सच्ची बताता जाता। बीच-बीच में बड़े अफ़सोस के साथ वह कहती, 'लिखने के लिए कोई मौत के मुँह में जाता है! अजीब पागल हो तुम!... कोसी प्रेम!... हुँह!’...

क़रीब एक-डेढ़ घंटे बाद हम जहाँ पहुँचे थे, वहाँ दो और नावें साथ हुईं। उनके बीच कूट भाषा में ही कुछ बात हुई जो बिल्कुल मेरे पल्ले नहीं पड़ी। तीनों नावों के साथ-साथ कुछ देर और चलने के बाद एक टापूनुमा जगह के क़रीब दो अत्याधुनिक नावें आकर लगीं जिनमें चार या पाँच व्यक्ति सवार थे। उन दोनों नावों के सामान जल्दी-जल्दी इन तीनों नावों में रखा जाने लगा। मैं पहले के निर्देशानुसार बिना कुछ बोले सामान रखने में मदद करता रहा, एक मज़दूर की तरह। नाव के हिल-डोल में कई बार मेरे पाँव लडख़ड़ाए, लेकिन राहत की बात कि गिरा नहीं! तीन-चार बार उन लोगों ने क्षणांश के लिए मेरी तरफ़ टॉर्च की रोशनी भी मारी, लेकिन मैं चुपचाप अपने तई सामान व्यवस्थित करके रखने में व्यस्त रहा। उन लोगों के बीच जो बातचीत हुई वह भी मेरी समझ में कम ही आई।

वहाँ से चलने के तीन-चार घंटे बाद एक जगह सामान उतारा गया। सामान उतारने के बाद बा$की दोनों नावें किसी दूसरी तरफ़ चली गईं और मुझे लिये निशा रानी किसी और तरफ़ चल पड़ी। साढ़े चार बजे के आसपास जब रात का अंधेरा फटने लगा था और सुबह की धमक देती-सी पूरब आसमान में सिंदूरी आभा छिटकने की तैयारी पर थी कि निशा रानी नाव एक किनारे लगायी। उस किनारे पर झौआ और पटेर के झाड़ों के बीच चाँदी की तरह बालू चमक रही थी। नीचे उतर कर मैंने पहले कपड़ा चेंज किया फिर उसका झोला लौटाया। फिर पहले के करार मुताबिक़ जेब से रुपए निकालकर उसके हाथ में दिए। उन रुपयों को उसने नजदीक से देखा फिर अपने ही हाथों साधिकार मेरी पैंट की जेब में वापस रखते हुए बोली, 'पहले मुझे लग रहा था तुम धंधे में आने वाले कोई नए बंदे हो! या टीवी-तीवी वाला कोई भड़ुआ।... जब बुझने में आ गया कि तुम कोसी से प्रेम करने वाले मानुस हो तो $खुशी का ठिकाना नहीं रहा।...लेकिन दुख है कि तुम मुझको नहीं पहचान पाया।...’ और दो उंगलियों से मेरी ठुड्ïढी हिलाती बोली, 'जाओ-जाओ रे बाबू! दिल का भाव-बट्ïटा नहीं होता!’ उसका स्वर भीगा हुआ था और आँखें डबडबायी हुईं। एकदम से वह अपनी नाव की तरफ़ पलटी और आगे बढ़ गई। देखते-देखते नाव अदृश्य हो गई। इस बीच उसने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा था। मुझे अपनी स्थिति का भान हुआ और पूर्वी तटबंध की तरफ़ बढ़ गया।

 

16 अगस्त, 2015, रात, सप्तकोसी, वीरपुर

सुबह जब होटल लौटा तो सोचा था आज कहीं नहीं निकलूँगा। लेकिन डुमरी चौक पर के ऑटो वाले को आने से रोकना भूल गया था। आठ बजते-बजते वह होटल गेट के सामने ऑटो खड़ा कर चुका था। एक मन किया कि उसको लौट जाने को कहूँ, लेकिन यह उचित नहीं लगा। नींद भी तो नहीं ही आ रही थी, आख़िरकार जल्दी-जल्दी तैयार होकर निकल गया।

भीमनगर पहुँचकर हमने एक-एक कप चाय पी और ऑटो वाले से पूछा—कटैया पलार वाले रास्ते से समदा गढ़ चलोगे? उसने सहमति व्यक्त की। कटैया पावर हाउस के पास पूर्वी केनाल के पूरब किनारे पर स्थित कॉलोनियों के बीच से उसने ऑटो निकाला। आगे एक सेफननुमा पुल पार कर सीतापुर जानेवाली सड़क के विपरीत हमारा ऑटो पलार की तरफ़ बढ़ गया। मेन केनाल से पश्चिम का यह पलार अब भी पुराने ढंग का लगता है। छोटे-छोटे खैरों के वन, कास और चौरकाँटी की नई बहार! विशाल गोचर और कास-डाभ का अछोर मैदान... इस भू-दृश्य को पार करते दस मिनट भी नहीं लगा होगा कि समदा राजा का गढ़ आ गया।

मंदिर के सामने ऑटो रोककर हम कुछ पुराने लोगों की तलाश करने लगे। वहाँ सबसे उम्रदराज एक बुढिय़ा मिली जो समदा गढ़ और राजा के बारे में प्रचलित संपूर्ण कथा कह सुनाई। मैंने उस बुढिय़ा का एक वीडियो बनाया और राजमहल के अवशेष देखने के लिए खंडहर-जंगल के भीतर घुस गया। समदा गढ़ और राजा के बारे में बचपन से जो कहानी मैंने सुनी थी, उस पर मुहर मात्र लगी। कोई नई जानकारी लगभग नहीं मिली। एक राजवंश का सर्वनाश एक चतुर नाई ने किया था। उसके साथ कोसी के प्रलय की प्राकृतिक घटना का जुड़ाव-सा बनता था। नाई समाज आज भी राजा के उस तथाकथित शाप से डरता है। िकले की ऐतिहासिकता के तमाम तरह के प्रमाण बिखरे हुए हैं, बस इसके अध्ययन की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं है। वर्तमान में राजा का मंदिर, राजभवन के कुछ खंडित अंश, सूखता जा रहा प्राचीन तालाब आदि अपनी आँखों से देखा। बस!...

दंतकथा : समदा राजा एक बार नेपाल की तरफ़ शिकार पर गए। उस दिन उनको काफ़ी शिकार मिला था। वापसी में एक जगह राजा साहब आराम करने लगे और अपने साथ आए नाई को उन्होंने आदेश किया कि वह आगे जाकर राजभवन में शुभ समाचार पहुँचाए! नाई को आराम करने का मौक़ा नहीं मिला। वह इससे कुपित था या कोई पुरानी रंजिश थी या किसी शत्रु के बहकावे में आ गया, यह तो पता नहीं, लेकिन उसके मन में खुराफात समा गई।...जब वह राजभवन के पास पहुँचा तो देखा बाहर कुएँ के पास राजा के दोनों बालक खेल रहे हैं और रानी राजा की कुशलता का समाचार जानने के लिए विकल खड़ी है।... नाई ने दुख और कातरता के स्वर में कहा—राजा तो $खुद शिकार हो गए रानी जी!... इतना सुनते दुख से घबड़ाकर रानी कुएँ में कूद गई। देखा-देखी दोनों बालक भी कुएँ में कूद गए। नाई चुपके से खिसक गया। थोड़ी देर बाद राजा आए और उन्हें जब सारी बातों का पता चला तो उन्होंने शाप दिया कि आज के बाद कोई नाई इस गाँव की सीमा में यदि सोएगा तो सोया ही रह जाएगा! ...और राजा $खुद भी कुएँ में कूद गए!... उस रात कोसी की ऐसी प्रलयकारी बाढ़ आई कि पूरा समदा-गढ़ और राजमहल बाढ़ में डूब गया। बालू की बड़ी-बड़ी ढूहें जहाँ-तहाँ जमा हो गईं। राजमहल खंडहर हो गया। तब से कोई नाई इस गाँव में नहीं रहता है! किसी शादी-ब्याह में आता भी है तो यहाँ सोता नहीं, तत्काल रस्म पूरी कर भाग खड़ा होता है।...

पूरे इलाके में प्रसिद्ध समदा गढ़ के राजा और नाई की यह कहानी बहुत देर तक भीतर घुमड़ती रही!...

इसी कहानी में उलझे समदा, भगवानपुर, रानीगंज होते हुए कटैया पश्चिम की शैलेसपुर बस्ती तक आ गया था। वहाँ के मज़दूर टाइप कुछ ऐसे व्यक्ति से मुझे मिलना था जिन पर तस्करी के आरोप में कई-कई मुक़दमे चल रहे थे। लेकिन ऐसा ग़लत समय चुना था कि उनमें से कोई नहीं मिला। सब के सब इस समय अपने-अपने काम पर निकल गए थे। एसएसबी में कार्यरत दिल्ली का एक लड़का इस बीच संपर्क में आया था। केनाल पर अचानक वह मिला तो कहने लगा—भाई साहब, ज़रा बच के! लोग तो यहाँ आपको जासूस समझने लगे हैं।...मेरे ऊपर रात की घटनाओं का प्रभाव रहा होगा। इसलिए हँसकर मैंने उसको टाल दिया और ऑटो में बैठ भीमनगर की तरफ़ चलने को कहा।

सहरसा चौक पर हमने थोड़ा-सा नाश्ता किया और कोसी बराज पार कर नेपाल में घुस गया। पश्चिमी तटबंध से लगे मृगवन परिक्षेत्र का हालचाल लेते थोड़ी ही देर में भारदह पहुँचा। भारदह के कंकालिनी मंदिर परिसर के बाहर ऑटो रुकवाकर मैं मंदिर परिसर से लगे पार्क में चला गया। दोपहर की गर्मी का प्रभाव यहाँ काफ़ी कम था। हल्की-हल्की चल रही हवा सुखदायक लग रही थी। मंदिर में पूजा-अर्चना करने वालों से ज़्यादा नव युगलों की संख्या थी। सेल्फी और पेयर $फोटो का कारोबार पूजा-अर्चना से कम नहीं चल रहा था। यह समझ में आ गया कि मंदिर की उपयोगिता बदल रही है। एक युगल की नटखट लीला में थोड़ी देर तक नज़रें उलझी रहीं। फिर बैठे-बैठे नींद का भार महसूस हुआ। आहिस्ते से नर्म हरी दूब पर लेट गया।

दस-पंद्रह मिनट बाद आँखें खुलीं तो कुछ-कुछ ताजगी का-सा अहसास हुआ। बैठकर एक बार में ही आधा बोतल पानी पी गया। फिर पिछली रात की घटना को डायरी में टीप लिया। खड़ा हुआ तो देखा, एक युगल मंदिर निर्माण में दान करने वालों के नाम पढ़ रहे थे। पता नहीं क्यों, मैं भी दाताओं के नाम, पता और राशि पढऩे के लिए उधर बढ़ गया। देखते-देखते इला$के के कई ऐसे मशहूर लोगों के नाम मिले जिनको मैं थोड़ा-बहुत जानता था। कुछ नेता, कुछ माफ़ि या, दो-तीन बड़े तस्कर के साथ प्रसिद्ध पाश्र्व गायक उदित नारायण का नाम भी मिला। साथ ही लाइन होटल वाले महेश का भी नाम था जिनसे विस्तृत बातचीत की योजना कई दिनों से टल रही थी। फिर चलके ऑटो में आया और पाँच-सात मिनट बाद ही पहुँच गया बराज के पश्चिम तरफ़ के लाइन होटल में। बराज के छप्पन नंबर फाटक से क़रीब एक सौ छप्पन क़दम पर ही है महेश होटल। इस होटल की डिज़ाइन और रूप-सज्जा मुझे आकर्षित करती है। इस बीच इस होटल के मालिक से यूँ ही एक-दो बार हाय-हैल्लो हुई थी। तभी खुले बदन, एक तहमद मात्र पहने, कांधे पर पोते को लिये वह रोड पार करते दिखाई दिया। मैंने दूर से ही आवाज़ लगायी—महेश भाई!...

महेश लौट कर पास आया। बाहर एक खुले हट में लगी कुर्सियों पर हम बैठ गए। पानी की बोतल के साथ काली चाय भी आ गई। हालचाल के बाद सहसा वह बोला—सर, आपके लिए ताज़ा रेवा मछली बनवाता हूँ, बस आधा घंटा आपको रुकना पड़ेगा। मैं जल्दी ही पोते को आँगन छोड़कर आता हूँ!

आराम से चाय पीते हुए मैं महेश के साम्राज्य का आकलन करने की जितनी कोशिश करता उतना ही उलझता जाता। यहाँ अवैध क़ब्ज़ा जमाये कई एकड़ ज़मीन में उनके रेस्टोरेंट, होटल, ढाबा-बार और कई अघोषित कारोबार फैले हुए हैं। नेपाली स्टाइल की खाने-पीने की उत्तम व्यवस्था। छोटे-छोटे मकान। मकानों की कुर्सी-दीवाल में ईंट की जगह दारू की ख़ाली बोतल का ग़ज़ब इस्तेमाल हुआ है। रोज़ सैकड़ों बोतलें ख़ाली होती हैं जो कबाड़ में एक रुपया प्रति बोतल से ज़्यादा की $कीमत नहीं रखती जबकि ईंट यहाँ सोलह-सत्रह रुपए बिकती है। कुर्सी-दीवाल में लगी दो बोतलें लगभग एक ईंट बराबर जगह घेरती हैं। बालू-सीमेंट मिलाकर जोड़ाई का काम ये ख़ाली समय में होटल-रेस्टोरेंट के कर्मचारियों-मज़दूरों के साथ $खुद कर लेते हैं। एक तो सस्ता मकान, दूसरा डिज़ाइनदार! आधुनिकता और देसीपन के साथ-साथ अद्ïभुत यूरोपियन लुक! यहाँ मछली-चावल की डिमांड उतनी नहीं है। फ्राइ मछली और मुड़ही (मुरमुरे) के साथ दारू की बिक्री समोसे, पकौड़े या चाय-पानी की तरह सुबह से सुबह तक अबाध चलती है। नेपाल की जीवन-रेखा की तरह चालू इस नेशनल हाइवे पर काफ़ी दूर के बाद यह अपने ढंग की ख़ास दुकान है जहाँ कोसी की ताज़ा रेवा, बचवा, इचना, टेंगरा जैसी मछलियों के साथ दारू पीने की शानदार व्यवस्था है।... और आँखों को राहत देने के लिए मृगवन की सदाबहार हरियाली और कोसी की विस्तृत जलधारा का भव्य दृश्य। यहाँ हरेक उम्र के लड़की-लड़के, जवान अधेड़ जोड़ों की आँखें मदमस्त हो एक ख़ास तरह की लापरवाही से भरी नज़र आती हैं। अगल-बगल जितनी भी दुकानें हैं सभी महेश की हैं या उनके भाई-भतीजों की। बाहरी एक भी नहीं।

इन्हीं बातों में खोये-खोये हमने भोजन भी कर लिए। ऑटो चालक खाना खाकर अपनी गाड़ी के पास चला गया था। यहाँ की मछली यूँ ठीक ही थी लेकिन उसमें वह बात नहीं नज़र आई जो बराज के उस पार की महिलाओं के यहाँ थी। हाँ, इसका बिल खूब तगड़ा था। बिल चुकाकर अभी पानी पी रहा था कि महेश लौट आया। सफ़ेद झक्क धोती-कुर्ता में वह एकदम कुलीन लग रहा था। निकट आते ही-ही करके बोला—स्नान पूजा भी करने लग गया था इसीलिए थोड़ा लेट हो गया।

—अच्छी बात! अब तो इत्मीनान से बात हो सकती है न?

—जी, ज़रूर!

—मुझे ज़रा विस्तार से बताइए कि आप लोग यहाँ कैसे आए और ऐसी सुनसान और ख़तरनाक जगह पर अपना राजपाट कैसे कायम किए?

वह कटैया पलार की बालू में गुज़ारे दुखद ग़रीबी वाले दिनों को याद करते इस कदर विह्वïल हो गया कि बड़ी देर तक उसी में उलझा रहा। फिर बताना शुरू किया कटैया से यहाँ आने और यहाँ की चाल-प्रकृति को समझने के बारे में। दरअसल वहाँ खाने के लाले पड़ रहे थे और यहाँ कई संभावनाएँ दिखी थीं। सात भाई थे वे, सातों खूँखार। उनको देखकर जल्दी किसी की उनसे भिडऩे की हिम्मत ही नहीं हो सकती थी। यहाँ आकर उन्होंने खाने-पीने की एक दुकान खोली। फिर दूसरी दुकान, फिर तीसरी दुकान, फिर घर-आँगन-परिवार भी आ गए। रोड के एक तरफ़ घर, दूसरी तरफ़ दुकान। अगल-बगल में इफरात ख़ाली ज़मीन पड़ी थी। कारोबार के साथ उसमें खेती भी शुरू कर दिए। गाय-भैंस तो कई दर्जन थे ही उनके पास। राहगीरों को हर सुविधा मिलती, इनको मनमाना पैसा। इस रास्ते से होकर अनेक तरह के चोर-डाकू-बदमाश और तस्कर गुज़रते थे। उन सबसे टोल-टैक्स की वसूली करने वाले ये ही सात भाई थे। उनको हर तरह की सुविधा मिलती, इनको कमीशन! इधर आसपास कोई पेट्रोल पंप नहीं था, लेकिन इनकी दुकान में डीजल-पेट्रोल-मोबिल सब हमेशा उपलब्ध। गैस, किरासन, परचून से लेकर दवाई तक—जो चाहिए सब कुछ इनकी दुकानों में उपलब्ध। रात-दिन हमेशा। और इन कारोबारों का विस्तार इस कदर हुआ कि पिछले तीस-पैंतीस वर्षों में सभी के अलग-अलग बड़े-बड़े कारोबार कई-कई शहरों में फैल गए हैं। इधर मृगवन की इफरात ज़मीनों पर इनका क़ब्ज़ा है और मवेशियों की संख्या में भी वृद्धि होती गई! उधर काठमांडू, विराटनगर ही नहीं, इंडिया के भीमनगर, वीरपुर और जोगबनी में भी इनकी बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें खड़ी होती गईं।

—यह सब तो ठीक! इतने सालों से कोसी किनारे में रहते हो। इस नदी से कैसा संबंध रहा?

—सब कुछ कोसी का ही तो वरदान है। कोसी के आशीर्वाद से ही तो सबकुछ मिला।

मैं कुछ और जानना चाहता था, लेकिन वह अपनी रौ में था। मैं उससे आधुनिक कोसी-कथा सुनना चाहता था, वह आशीर्वाद की महिमा बखानने लगा।

मैंने कहा—महेश भाई! रन्नू सरदार बलवान ज़रूर था, लेकिन उसकी ग़लती यही थी कि वह गाधि राजा की चालाकी नहीं समझ पाया। ऋचीक तो एक माध्यम भर बना और सुख सबका बह गया कोसी के आँसुओं के संग!

—आज तक तो किसी की परवाह नहीं किये हैं सर! आगे देखिये!... डर बस मृगवन प्रोजेक्ट को लेकर है कि घर-दुकान की ज़मीन...आप लिखिए न सर काठमांडू-दिल्ली के अख़बार में!

—महेश!...मधेशी आंदोलन को कितने दिन हुए? कितना तो लिखा-कहा जा रहा है नेपाल और इंडिया के अख़बार-टीवी में!... कुछ असर दिखता है?

—कुछ न कुछ तो होगा ही सर!

—सो, कोई भी मृगवन योजना आ जाए, तुम लोगों की जड़ कोई सत्ता नहीं हिला पाएगी!

—सर, जब बराज को उड़ा दिया जाएगा बम से तो? हम लोगों को तो तब फिर कटैया में कुस उपाडऩा पड़ेगा?...

—वैसा कुछ नहीं होगा। यूँ आसमान फटने की चिंता करना बेकार है। फिर भंटाबाड़ी, भीमनगर में जो तुम लोगों की दुकानें हैं, वह विराटनगर-जोगबनी में भी फैल सकती हैं। एक दिन काठमांडू में भी तो तुम्हारे होटल का उद्ïघाटन हो सकता है कि नहीं?

—सर, आपने तो ज्योतिषी से भी आगे की बात कह दी! अब आप कल चलिए मेरे साथ चतरा-बराह क्षेत्र! वहाँ न्यू नेशनल हाइवे और अभी-अभी शुरू हुआ चीनी सरकार का बनाया पुल दिखाऊँगा!...शायद तब आपको चीन की तीसरी आँख दिखाई दे!

—सचमुच चलोगे?... सोच लो, आधे दिन के धंधे का नुकसान होगा!

—क्या कहते हैं सर! आपके लिए बारह बजे रात में भी तैयार मिलूँगा! धंधे के लिए अच्छा-बुरा सब करना पड़ता है सर, लेकिन दिल से बुरा नहीं हूँ!

—दिल पर मत लो! मैं भी तुम्हारे काठमांडू वाले होटल के उद्ïघाटन पर आने की कोशिश करूँगा!

और दोनों ठठाकर हँस पड़े थे।...

 

रात के बारह बजने वाले हैं। वीरपुर के होटल सप्तकोसी के सुविधाजनक कमरे में नींद नहीं आ रही है। दिनभर गर्मी-पसीना, धूल-धक्कड़ों के बीच कोसी के किनारे-किनारे भटक रहा हूँ, फिर भी न कोई वैसी थकान अनुभव कर रहा हूँ न नींद का भार महसूस हो रहा है। जीवन की एक नई अनुभूति नींद-हरण कर चुकी है। अपनी जन्मभूमि से मात्र बीस-तीस किलोमीटर की दूरी पर होकर भी बाहर रह रहा हूँ और दिन भर जिन गाँव-ठाँव जा रहा हूँ—कटैया से कुसहा तक—ये सब मेरे गाँव से पचास-साठ किलोमीटर के भीतर का इलाक़ा है। फिर भी लगता है जैसे किसी दूसरी दुनिया में घूम रहा हूँ। हिमाचल और उत्तराखंड की सुदूर पहाडिय़ों में $खूब भटका हूँ, राजस्थान की ढाणियों में रात गुज़ारी है और थोड़ा-बहुत छत्तीसगढ़ के जंगलों में भी घूमा हूँ।... लेकिन यहाँ अपनी जन्मभूमि के पास की अपरिचित दुनिया में जिस तरह की अनुभूति हो रही है, यह सिद्ध करती है कि हम सब अपने गाँव-घर के पास की दुनिया को ज़्यादा गहराई से देखने-जानने और अनुभव करने की कोशिश नहीं करते हैं। इस अपराधबोध की पीड़ा के चलते मेरी नींद आँखों से दूर है। भीतर ही भीतर एक तरह की ग्लानि का सा अहसास हो रहा है कि मैंने अपनी किशोरावस्था व्यर्थ गँवा दी। ओह! बचपन में कोई हमें बताया-समझाया होता कि अपनी जन्मभूमि के आसपास की दुनिया—ख़ासकर सौ-पचास किलोमीटर के भीतर की दुनिया—को ज़्यादा-से-ज़्यादा देखना, परखना और जानना एक इन्सान के लिए ज़रूरी ही नहीं आवश्यक होता है। तभी आप बाहरी परिवेश को भी बेहतर जान पाएँगे जब अपने चारों तरफ़ के ऋतुचक्र के साथ-साथ माटी-पानी, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य को बेहतर जानते हों!...

17 अगस्त, 2015, भीमनगर

पासवान जी एक समय भीमनगर थाना में चौकीदार हुआ करते थे, अब बॉर्डर आर-पार करते बुढ़ापे में भी सक्रिय जीवन का आनंद ले रहे हैं। आज सुबह जब उनके घर से बातचीत करके निकल रहा था, तो उन्होंने पूछा—अरे बौआ! ई बताओ कि 'कलचल’ माने क्या होता है?

मुझे ठीक-ठीक कुछ सूझ नहीं रहा था। फिर लगा, कोई नेपाली शब्द होगा। मैंने कहा—चचा, यह शब्द मैं पहली बार सुन रहा हूँ। लेकिन बात क्या है, आप कहाँ से लाये हैं?

—अरे बौआ, उधर जो विदेसी सब मिलते हैं न, वही सब अपने में बोलते रहते हैं।... बात-बात पर साला बोलेगा कि यहाँ का 'कलचल’ ही खराब है।...

—'कल्चर’ तो नहीं कहता है?

—हाँ-हाँ, वही!

—इसका अर्थ समझाना मेरे लिए बहुत कठिन है, चचा! वैसे अपनी भाषा- बोली में इसको 'संस्कृति’ कहते हैं।

—सनसकीरत की मेहरारू?

—मान लीजिए!...'संस्कृत’ भाषा है और संस्कृति जीवन जीने का संस्कार!

मुझे याद आया कि कुछ साल पहले 'कोसी की संस्कृति’ विषय पर एक मित्र ने आलेख की फरमाइश की थी और उनको लेख नहीं दे पाया था। लेकिन इनको टालना अन्याय होता! एक तो इन्होंने मुझे बहुत सी दुलर्भ जानकारियाँ दी थीं, दूसरी बात यह कि इस अज्ञानता के चलते कोई इनको अपमानित कर रहा था।

समाजशास्त्रीय और नृशास्त्रीय पद्धति का एक तो मुझे ठीक-ठीक ज्ञान नहीं फिर उसकी शब्दावली यहाँ किसी काम की नहीं। ससंकोच मैंने कहा—यह 'कल्चर’ या 'संस्कृति’ जो है, हमारे-आपके अपने समाज में, जीवन जीने का तरीक़ा है। रहन-सहन, बोली-वाणी, रंग-ढंग का सलीका! अपने समाज में रहने, काम करने, खाने-पीने, पहनने-ओढऩे, नाचने-गाने, बोलने-बतियाने और जीने-मरने के हमारे-आपके ख़ास तरीके!...

अचानक पासवान जी के चेहरे का भाव बदल गया। वे व्यथित और आक्रोशित होते हुए बोले—तब तो उस साले ने हम सब को गाली दी है?... कहने का मतलब कि उसकी नज़र में हमारे खाने-पीने, बोलने-चालने की 'कलचल’ ख़राब!...

—बस-बस! एकदम सही पकड़े हैं!

संस्कृति के बारे में उनको महत्त्वपूर्ण और विस्तृत जानकारी दे पाना मुझसे संभव नहीं हो पाया था! लेकिन मामूली हिंट्ïस से उनकी आँखें खुल गई थीं, इसका मुझे अहसास हो गया था। संस्कृति सीखी नहीं जाती है, यह गतिशील होती है कि सदा विकासशील! संस्कृति तालाब का ठहरा पानी नहीं, कोसी की कल-कल, छल-छल करती जलधारा की तरह निरंतर बहती रहती है!...दुख है कि इस तरह की कोई बात उनको नहीं समझा पाया था। दुख है कि हमारा ज्ञान किसी काम का नहीं!...

 

29-30 अगस्त, 2015, कालिकापुर

पिछले दस-बारह दिन से लिखता तो लगातार ही रहा, लेकिन डायरी के पन्ने ख़ाली के ख़ाली रहे!

इस बीच जो कुछ देखा-सुना वह तो सच था, लेकिन जो भी लिखा वह गल्प था।

अफ़सोस कि ताप्लेजुंग, खाँदबारी, आहाले, आँखिसल्ला जाने की इच्छा रहते नहीं जा पाया।

दो-तीन दिन से गाँव में हूँ। कल सुभाषचंद्र यादव और केदार कानन जी मिलने आए थे।

आज एक युवा मित्र मिलने आए। राजेन्द्र कृष्ण। पहली बार ये दिल्ली में मिले थे। यहाँ जब घर बन रहा था और बैठने की भी ठीक-ठाक जगह नहीं थी तब भी एक बार आए थे और पेड़ के नीचे खड़े-खड़े चाय पीकर गए थे। आजकल ये इस इलाके की महिलाओं को स्वाबलंबी बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं। मिथिला की परंपरा यहाँ की स्त्रियों को पान की लताओं की तरह पराश्रित बनाए रखना चाहती है। कोसी-गीत तो यहाँ की स्त्रियाँ खूब गाती हैं, लेकिन वैसी ही प्रचंड साहसी क्यों नहीं बनना चाहतीं?

इस बीच डायरी के भीतर तीन पन्नों पर कवितानुमा कुछ लिखा है। कृपया इसको कविता न समझें!...

 

जल्ली धान

(माँ के लिए)

 

भादो आते जब घर का अगहनी चावल ख़त्म हो जाता

गेहूँ भी बच जाता बस थोड़ा

पर्व-त्योहार और हारी-बीमारी में पथ्य लायक़

जब रोज़ मड़ुआ रोटी खाते-खाते आजिज़ आ जाते

वैसे दुर्दिनों में भदइया धान जल्ली कटते बड़ी राहत मिलती

 

उबालने, सुखाने से ओखल-मूसल में कूटने-छाँटने तक का

सारा काम जतन पूर्वक उत्साह और लगन से

एक राग भी था बचा हुआ गीत के साथ

 

लाल लाल भात एकदम नए चावल का

अद्ïभुत मिठास

घी की तरावट का सा अहसास

उसके साथ अरिकंचन की सब्जी

नीबू के रस में पकाई हरी मिरची नमक युक्त

क्या स्वाद था! अद्ïभुत! लाजवाब

 

भादो में इसका होना कैसा अपराध था

कि मेहमानों को नहीं परोसा जाता था

कि मेहमानों को इसका परोसा जाना था घर का अपमान

संभ्रांत कुलीन संपन्न कहलाने का सारा ड्रामा

ज़लील कर देता जल्ली

 

धान की इस एंटिक िकस्म को

गौरव की जगह शर्म समझा हमने

चुरा छुपाकर खाया हीनताबोध के साथ

 

अब वह धान कहीं नहीं मिलता

कोसी कमला बलान से परमान तक

हिमालय से गंगा तक

विलुप्त हो गया वह

अनेक और अच्छी बातों चीज़ों की तरह

 

भूल जाना बस में तो नहीं

 

भुलाती कहाँ वह काली रात प्रलय की

मुसलाधार बारिश

धारा से होड़ लेती कमज़ोर नाव

पानी उलीचने और चप्पू चलाने का सिलसिला

दोहाई कोसी मैया! की आत्र्त पुकार

 

बाँस के झुरमुट पंक्तिबद्ध

शाम के धुंधलके में बस्ती पर छाया धुएँ का चंदोवा

कोसी के पानी की कल-कल छल-छल...

अपने बछड़े को तकती गायों का रंभाना

कुछ भी तो नहीं भूल पाया हूँ

महानगर की भीड़ में अचानक से

धान के झुके शीश से झड़ती ओस की बूँदें चमकती हैं

श्यामली सी एक मज़दूरिन अल्हड़

पसीने से भीगा लाल ब्लाउज़ और ललाट से गिरी रक्तिम बूँद पारा मिश्रित

कदली वन से लगी शहतूत की पंक्तियाँ

कच्चे आम और अधपके अमरूद

और और मनोहर मनोरम दृश्यावलियों के साथ—

खून की एक धार बालुका राशि पर

एक चीख़ दबी-घुटी झौआ कास के जंगल में

पथरायी आँखों के सूखे परदे

लाख भूलने की कोशिश की पग-पग पर हुए अपमान

भूलना चाहा बचपन की गलियों में खायी चोट

छल फ़रेब नफ़रत और फटकार के अंतहीन िकस्से

खुद की भी नादानियाँ और शैतानियाँ...

 

तुम्हारे सख्त उरोजों में धँसी गोलियाँ

तट से लगी नीली अकड़ी देह का स्पर्श

भूल जाना बस में तो नहीं

 

बरास्ते नेपाल

(रमेश रंजन के लिए)

 

पाठ्य पुस्तक में पढ़ा था—

उत्तर में खड़ा हिमालय प्रहरी की तरह है...

लोकगीतों में सुना था—

पूरब देस कलकत्ता की तरह मोरंग नेपाल भी रोज़ी तलाशने जाते थे लोग

'सूर्य अस्त नेपाल मस्त’ एक जुमला भर नहीं था

 

नेपाल में भी रहते हैं हम जैसे ही लोग

कुछ कुछ हमसे ज़्यादा ही परिश्रमी

नेपाली मैथिली नेबारी में कहाँ है बेर

हम और वो बेरोकटोक इधर-उधर जाते-आते हैं

देते कहाँ उतना जितना लेते हैं

 

बरास्ते नेपाल

आती है कोसी और अनेक नदियाँ

ज़मीन जंगल और पूरे जन जीवन का कारोबार चलता उसी के पानी पर

वह पानी जो सिर्फ़ पानी नहीं

खेतों के लिए हर साल पाँक वाली नई उपजाऊ मिट्ïटी

किस्म किस्म की मछलियाँ

तरह तरह की वनस्पतियों के बीज बहाकर लाता है

मैदान के लिए पहाड़ की सौगात की तरह

मगर हम याद रखते सिर्फ़ बाढ़ से हुए विनाश

 

अफीम चरस गांजे जैसे मादक चीज़ों की तस्करी हम करते हैं

चीन जापान कोरिया की चीज़ें हम टपाते बोर्डर

जोगबनी रक्सौल जयनगर भांटाबाड़ी से—

थोड़े चीनी किरासन उधर भी चले जाते हों

बरास्ते नेपाल ही पहुँचती हैं—

साल की मजबूत लकड़ी की तरह

मुंबई दिल्ली के रईसज़ादों के लिए लड़कियाँ

गंगाजल में कितना है नेपाल का जल

यह जाँच का विषय है

यूँ 'इंडिया’ की हर जाँच की आँच में नेपाल भी तपता है

 

31 अगस्त, 2015, गरीब रथ, बदला-धमहारा घाट पार करते हुए

कोसी पार कर गया। बदला-धमहारा घाट स्टेशन बीतते-बीतते लगा जैसे पच्चीस दिन की यात्रा मात्र नहीं बीती, एक जीवन बीत गया।

सुबह ही निकला था सिमराही, पिपरा, सिंहेश्वर, मधेपुरा होते सहरसा के लिए। ऑटो से। गाँव में ऑटो मेरा प्रिय वाहन होता है और नदी-जंगल मन का आश्रय-स्थल। लेकिन अब सब कुछ अतीत हो गया।... ट्रेन में बैठने के बाद जैसे यह परिवर्तन शुरू हुआ।...और कोसी पार करते-करते सब कुछ अतीत!...ऑटो की वह आवाज़, कोसी की छवि-छटा, वहाँ के तमाम मनोरम बिंब-प्रतिबिंब पर दिल्ली-ग़ाजि़याबाद के काम-धंधे का दबाव एकाएक हावी हो गया।...

ट्रेन में सामने के बर्थ पर माँ लेटी हुई हैं।... बगल में राजकमल चौधरी के गाँव का एक युवक है। लेकिन किसी से बात करने की इच्छा नहीं। आँखें बंद कर मन को पीछे ले जाना चाहता हूँ।... लेकिन सारे प्रयत्न बेकार!... मोखा की माटी का प्रभाव क्षीण होता जा रहा है।...

 

 

संपर्क - मो. 0971856053, गाज़ियाबाद

 


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